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कषायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[११]
भीतर डालें ( आंख धोएं )। इससे आंखेोके समस्त पके हुवे पानीसे रोगीको स्नान कराना चाहिए तथा दोष दूर होते हैं। (दुखती हुई आंखों में हित- इन्हीं से तेल और घृत सिद्ध करके सेवन कराने
चाहिएं।
(२८६७) दाय॑म्बुदादिकाथ:
(२८६९) दाादिकाथः (१) (वृ. नि. र. । ज्वर.; यो. चिं. । अ. ४; यो.
(च. सं. । चि. स्था. अ. ५) ___ र. । उवर, ग. नि. । ज्वर. १)
दार्वी सुराद त्रिफलां समुस्तां दाय॑म्वुदस्तिक्तफलत्रिक च
कषायमुक्काथ्य पिबेत्यमेही । क्षुद्रा पटोली रजनी सनिम्बा।
क्षौद्रेणयुक्तामथवा हरिद्रां कार्य विदध्याज्ज्वरसन्निपाते
पिबेद्रसेनामलकीफलानाम् ॥ निश्चेतने पुंसि विवोधनार्थम् ॥
दारुहल्दी, देवदारु, त्रिफला और मोथेका दारुहलदी, नागरमोथा, चिरायता, त्रिफला, | काथ, या हल्दीके चूर्णको आमलेके रसमें मिलाकर कटेली, पटोलपत्र, हल्दी और नीमकी छालका काथ
उसमें शहद डालकर पीनेसे प्रमेह नष्ट होता है । पिलानेसे सन्निपात ज्वरकी मूर्छा जाती रहती है।
नोट:-हल्दीके चूर्ण को शहदके साथ चाट(२८६८) दाादिकषायाष्टकम् कर आमलेका रस अनुपानके रूपमें भी पी सकते हैं। (चं. सं. । चि. अ. ८)
(२८७०) दाादिकाथ: (२) दाा रसाञ्जनस्य च निम्बपटोलस्य खदि- (यो. चिं. । अ. ४.; वृ. यो. त.। त. ३४;
रसारस्य । | आ.वे. वि.; यो. र. । सूतिका; यो. त. । त. ७४) आरग्वधक्षकयोस्त्रिफलायाः सप्तपर्णस्य ॥
दार्षीरसाञ्जनं प्रस्तं भल्लातश्री:फर्क वृषा। इति षट् कषाययोगा निर्दिष्टाः सप्तमश्च
तिनिशस्य ।
किरातश्च पिवेदेषां कार्य शीतं समाक्षिकम् ॥ स्नाने पाने च हितास्तथाष्टमश्चापमारस्य ॥
जयेत्सशूलं प्रदरं पीतश्वेतासितारुणम् ॥ आलेपन प्रघर्षणमवचूर्णनमेत एव च कषायाः।
__रसौत, मोथा, शुद्ध भिलावा. ( अथवा तैलधुतपायोगे चेष्यन्ते कुष्ठशान्त्यर्थम् ॥
भिलावेके वृक्षकी छाल ), बेलगिरी, बासा (१) रसौत । (२) नीमकी छाल और
और चिरायता । इनके काथको ठण्डा करके उसमें पटोल पत्र । (३) खैर सार । (४) । शहद मिलाकर पिलानेसे शूलयुक्त पीला, सफेद, अमलतास और कुड़ेकी छाल । (५) त्रिफला। काला और लाल प्रदर नष्ट होता है । (६) सतौना ( सप्तपर्ण) । (७) सांदन वृक्षकी | (२८७१) दाादिकाथः (३) छाल । और (८) कनेर । यह आठ योग कुष्ट को __ ( भा. प्र. । म. ख. ज्व.) नष्ट करनेके लिए उत्तम हैं।
दारिसाञ्जनकिरातवृषाब्दबिल्वइनका काथ बनाकर पिलाना चाहिए । इनसे । सक्षौद्रचन्दनदिनेशभवप्रसूनैः।
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