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छेहप्रकरणम् ] तृतीयो भागः।
[६३७] अशासि ग्रहणीदोष पाण्डुरोगमरोचकम् ।। | गुडस्य तु तुलां दत्त्वा तत्र भूयो विपाचयेत् । कृमिगुल्माश्मरीमेहान् शूलं चाशु व्यपोहति ॥ त्र्यूषणं त्रिफला दन्ती चित्रको हस्ति पिप्पली ॥ करोति शुक्रोपचयं वलीपलितनाशनम् । चव्याजमोदापाठाश्च पिप्पलीमूलमेव च । रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् ॥ एषां द्विपालिकान्भागान् सूक्ष्मचूर्णानि चीतामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा,
कारयेत् ॥ पीपलामूल, चव, गिलोय, गजपीपल, अपामार्ग, लेहीभूते ततः पश्चात्यक्षिपेन्मतिमाभिषक् । सहदेवी और बनतुलसी २०-२० तोले तथा २ शीतीभूते ततः पश्चाचातुर्जातपलं क्षिपेत् ॥ हजार शुद्ध भिलावे लेकर सबकोअधकुटा करके ३२ । उदुम्बरसमा मात्र खादयेच्च यथावलम् । सेर पानीमें पकाचे और ८ सेर पानी शेष रहनेपर | अशासि ग्रहणीदोषं प्लीहानं विषमज्वरम् ॥ छानकर उसमें ३ सेर १० तोले लोहभस्म और १ | दुष्टगुल्मोदरं हन्ति मन्दाग्नित्वमरोचकम् । सेर घृत मिलाकर पुनः लोहेकी कढाईमें पकावें। कासश्वासहरो हृयो भल्लातकगुडः स्मृतः ॥ जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो आगसे नीचे
१ हजार शुद्ध भिलावेको ३२ सेर पानीमें उतारकर उसमें सेांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, | आमला, चीता, सेंधा, विडलवण, उद्भिद् लवण,
पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो सश्चल (कालानमक) और बायबिडंगका चूर्ण ५-५
छानकर उसमें ६। सेर गुड़ मिलाकर पुनः पफावें। तोले तथा विधारेका चूर्ण २० तोले, तालमूली
जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें सेठ, मिर्च, (मूसली) का चूर्ण २० तोले और जिमीकन्दका
पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, चीतामूल, चूर्ण ४० तोले मिला दें और ठण्डा होनेपर उसमें
गजपीपल, चव, अजमोद, पाठा और पीपलामूलका १ सेर शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर
चूर्ण १०-१० तोले मिलाकर अग्निसे नीचे उतार सुरक्षित रक्खें।
लें और उसके ठण्डा होने पर उसमें दालचीनी, इसे प्रातःकाल या भोजनके समय यथोचित
तेजपात, इलायची और नागकेसरका ५-५ तोले
चूर्ण मिला दें। मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, अरुचि, कृमि, गुल्म, अश्मरी, प्रमेह, शूल और बलि
इसमेंसे नित्य प्रति गूलरके फलके समान पलितादि रोग नष्ट होकर बलवीर्य की वृद्धि होती है।
सेवन करनेसे अर्श, संग्रहणी, प्लीहा, विषमज्वर, (४८६०) भल्लातकलेहः (२)
दुष्ट गुल्म, उदर, मन्दाग्नि, अरुचि, खांसी और (ग. नि. । लेहा.)
श्वासका नाश होता है। भल्लातक सहस्रं तु द्रोणेऽपां विधिवत्पचेत् । ततः पादावशिष्टं तु पुनरमावधिश्रयेत् ॥ । यह लेह हृदयके लिये भी हितकारी है ।
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