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[११६] भारत-भैरज्य-रत्नाकरः।
[दकारादि . इनमेंसे २-२ गोली प्रातः सायं पानीके। इसे सेवन करनेसे फिरंग ( आतशक ) रोग साथ सेवन करनेसे दुष्ट जलके विकारसे उत्पन्न | नष्ट होता है। हुवा ज्वर तथा अजीर्ण, अफारा, कब्ज, शूल, (सब औषधेको गुलाबके अर्क में खरल श्वास और खांसी जादि रोग नष्ट हो जाते हैं। करके २-२ रत्ती की गोलियां बनावें और प्रातः___ भोजनके पहिले सांठ, राई और हरकी चटनी काल १ गोली मुनकामें रखकर रोगीको इस तरह खानेसे अथवा बन अद्रक और जवाखारका निगलवा दें कि दांतों को न लगे । पथ्यमें केवल चूर्ण गर्म पानीके साथ खानेसे भिन्न भिन्न देशों बेसनकी रोटी और घी दें । लवण, खटाई, मिर्चके पानीका असर नहीं होता । अर्थात् परदेशका | आदि बिल्कुल न दें। प्रायः २१ दिनमें रोग पानी नहीं लगता।
जाता रहता है।) (३२१६) दुर्लभो रसः
(३२१८) देवभूतिरसः __(र. रा. सु. । मसूरि.)
(र. चि. । स्त. ४)
तत्तानं च पुनर्षीमान्भावयेत्रिफलाम्पुभिः । अयं शुदस्य सूतस्य मूञ्छितस्य मृतस्य च ।
काकमाच्या रसेनापि भावनीय अयं प्रयम् ॥ द्विवल्लो पिप्पली धात्री खासघृतमाशिकः ॥
धसूरस्य रसेनापि भृाराजरसेन च । पापरोगान्तको योग पृथिव्यामेव दुर्लभः ॥ बीजपूररसस्यापि तिस्रो देयाः पृथक् पृथक् ॥
२ वल्ल (६ रती) पारद भस्म, पीपल, | आईकस्य रसेनाय नववार विभाव्य च । आमला और रुद्राक्षके चूर्णको शहद और धीमें नववार पुटेत्पश्चात्क्रमशो बुद्धिमानरः॥ मिलाकर उसके साथ खिलानेसे मसूरिका शान्त | शुदलोहं समं तेन तावस्म रसस्य च । हो जाती है।
निक्षिप्य मर्दयेत्खल्वे चतुर्गजामितं ददेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती तक।) |
| त्रिकटु त्रिफला जातीफलं चेव लवाकम् । (३२१७) कुसुमादिगुटिका
समभागं कृतं चूर्ण पर्णखण्डेन दापयेत् ॥ ( अनु. त. ।)
मुखशुद्धयर्थमप्येव पुनस्ताम्बूलचर्वणम् ।
समिपातेऽपि सजाते ज्वरे घोरेऽमिसादने । कस्तूरिका चन्दनदेवाष्ये
कुष्ठे दुष्टे प्रदातव्य उन्मादे वाप्यपस्मृतौ । सबहुमेरम्नविलोचने यः।
| सामे निरामे सयवा कासे श्वासे विशेषतः ॥ कर्पूरक पारदसम्भवं ना
पाण्डुरोगे तथा देयश्चोदरे भृशदारुणे ।। निवपन्समयते फिरणम् ॥ वलीपस्तिक हन्यात्खालिल विशेषतः ॥ कस्तूरी, सफेद चन्दन, लौंग, केसर, और वज्रकायो भवत्येव निरपायो विशेषतः । शुद्ध रस कपूर समान भाग लेकर एकत्र खरल करें। दीर्घायुः कामरूप: स्यात्स्त्रीणामत्यन्तवल्लभः ॥
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