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मिश्रप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[६११]
(४७६५) बलामूलचूर्णप्रक्षेपः
स्नेहं तदीयमसकृन्मधुनोपयुज्य (रा. मा. । बालरो.)
चित्रं नरो जयति तन्मथितानुपानात् ।।
बाबचीके चूर्णको पानीमें पीसकर पात्रमें लेप शिरः समुत्थेषु भवन्त्यरुंषु
करके उसमें दही जमा और उसे मथकर घृत ये बालकस्य क्रिमयोऽतितीब्राः ।
| निकाल लें। स्नातस्य तच्छान्तिकृदस्य मूर्ध्नि . भद्रौदनीमूलरजो निदध्यात् ॥
___ इस धीमें शहद मिलाकर चाटें और ऊपरसे यदि बालकके शिरमें घाव होकर उनमें कृमि । उक्त दहीका मट्ठा पियें। पड़ जायं तो उसे स्नान कराके घावोंपर खरैटीकी इस प्रयोगसे स्वित्र (सफेद कुष्ठ ) नष्ट हो जड़का चूर्ण छिड़कना चाहिये।
जाता है। (४७६६) बस्तमूत्रयोगः
| (४७६९) बाकुचियोगः (३. मा. । कर्णरोगा.)
(ग. नि. । कुष्ठा.) तीव्रशूलातुरे कर्णे सशब्दे क्लेदवाहिनि। तैस्तक्रपिष्टैः प्रथमं शरीरं पस्तमूत्र क्षिपेत्कोष्णं सैन्धवेन समन्वितम् ॥ तैलाक्तमुद्वर्तयितुं यतेय ।
बकरेके मूत्रमें सेंधा नमक मिलाकर उसे जरा | तेनास्य कण्डूः किटिभाः सपामाः निवाया (मन्दोष्ण ) करके कान में डालनेसे कानका
___ कुष्टानि शोफाश्च शमं व्रजन्ति । तीब्रशूल, कानों में धांय घांय शब्द होना और कर्ण
__ शरीरपर तैल मर्दन करनेके पश्चात् बाकुची स्रावका नाश होता है।
(बाबची) को तक्रमें पीसकर मलने से खुजली, (४७६७) बस्तमूत्रादियोगः
किटिभ, पामा, शोफ और कुष्टादि रोग नष्ट (ग. नि. । वन्ध्या .)
| होते हैं। यस्तमृत्रं सघृतं च नवनीतं च माहिषम् ।
(४७७०) बाष्पस्वेदः पलत्रयं पिबेनारी अपि वन्ध्या प्रसूयते ॥
( वै. म. र. । प. १६) बकरेका मूत्र, घी और भैंसका मक्खन ५-५ तोले लेकर तीनोंको एकत्र मिलाकर सेवन करनेसे
| बाष्पस्वेदेन पयसो गवां नेत्रार्तिनाशनम् । वन्ध्यत्व रोग नष्ट होता है।
स्यादेरण्डशिफासिद्धपयसाऽऽश्च्योतनं तथा ।। (४७६८) बाकुचिकाप्रयोग:
गायके दूध की भाप देने तथा अरण्डकी (रा. मा. | कुष्टा.)
जड़के साथ पकाया हुवा गोदुग्ध डालनेसे नेत्र चूर्णेन भाण्डमुपलिप्य शशाङ्कराज्या
पीड़ा नष्ट होती है। तत्र स्थितेन पयसा दधि संविदध्यात् । । । (अरण्डकी जड़ ५ तोले, गोदुग्ध १ सेर,
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