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अथभकारादिकषायप्रकरणम्। (४७७६) भद्रमुस्तादिकाथः । (४७७८) भद्रोदुम्बरिकादियोगः (यो. र. । ज्वर.; भा. प्र. म. ख. । बालरोग.;
(ग. नि. । कुष्ठा.) वृ. यो. त. । त. १४४) | भद्रासज्ञोदुम्बरीमूलतुल्यं भद्रमुस्ताभयानिम्बपटोलमधुकैः कृतः।
दत्त्वा मूलं क्षोदयित्वा मलप्वाः। कायः कोष्णः शिशोरेप निःशेषज्वरनाशनः ॥ सिद्धं तोये पीतमुष्णे सुखोष्णं
नागरमोथा, हरे, नीमकी छाल, पटोल | ___स्फोटांश्छ्त्रेि पुण्डरीके च कुर्यात् ।। ( परवल ) और मुलैठीका मन्दोष्ण काथ पिलानेसे पं दग्धं च मातङ्गजं वा बालकांके समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो जाते हैं ।
मिन्ने स्फोटे तैलयुक्तः प्रलेपः ॥ (४७७७) भद्रादिकाथः
दन्तीमूल, कठूमर ( कठगूलर ) की जड़ (वृ. नि. र. । ज्वर.)
और बाबचीकी जड़का मन्दोष्ण काथ सेवन करभद्राधान्याकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः।
नेसे स्वित्र ( सफेद कोढ़) और पुण्डरीक कुष्ठके रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपौष्करैः॥
स्थानमें छाले पड़ जाते हैं। उन छालांको फोड़ कटुकेन्द्रयवारिष्टभाजीपर्पटकैः समम् ।
कर चीते या हाथीकी खालकी भस्म तेलमें मिलाकोथः पातनिषेवेत सर्वशीतज्वरापहम् ॥
कर लगानेसे कुष्ट नष्ट हो जाता है । कायफल, धनिया, सोंठ, गिलोय, नागरमोथा, (४७७९) भल्लातकक्षीरम् पपाक, लाल चन्दन, चिरायता, पटोल, बासा (च. सं । चि. अ. १) (अडूसा ), पोखरमूल, कुटकी, इन्द्रजौ, नीमकी
भल्लातकान्यनुपहतान्यनामयान्यापूर्णरसछाल, भरंगी और पित्तपापड़ा समान भाग लेकर | प्रमाणवीर्याणि पक्कजाम्बवप्रकाशानि शुचौ काथ बनावें ।
शुक्रे वा मासे सना यवपल्वे माषपल्वे वा . इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे समस्त शीतचर निधापयेत् , तानि चतुर्मासस्थितानि सहसि नष्ट होते हैं।
सहस्ये वा मासे प्रयोक्तुमारभेत शीत
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