SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ ६१४ ] स्निग्धमधुरोपस्कृतशरीरः, पूर्व दश भल्लातकान्यापोथ्याष्टगुणेनाम्भसा साधु साधयेत्, तेषां रसमष्टभागावशिष्टं पूतं सपयस्कं पिबेत् सर्पिषाऽन्तर्मुखमभ्यज्य, तान्येकैकभल्लातको - त्कर्षापकर्षेण दश भल्लातकान्यात्रिंशतः प्रयोज्यानि, नातः परमुत्कर्षः प्रयोगविधानेन, सहस्रपर एव भल्लातकप्रयोगः ; प्रयोगान्ते च द्विस्तावत् पयसैवोपचारः, तत्प्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ भारत-भ ज्येष्ठ या आषाढ़ मास में रोगरहित, रससे परिपूर्ण, वीर्यवान् और पकी जामनके समान कृष्णवर्ण भिलावे लेकर उन्हें जौ या उड़दके ढेरमें दबा दें और ४ मास पश्चात् निकाल लें एवं अगहन या पौष मास में सेवन करें । भिलावा सेवन करनेसे पूर्व शीतल स्निग्ध और मधुर द्रव्योंके द्वारा शरीर शुद्धि कर लेनी चाहिये । प्रथम दिन दश भिलावांको कूटकर आठ गुने पानी में पकावें और जब आठवां भाग शेष रह जाय तो उसे छानकर उसके दश भाग करें और एक भाग दूधमें मिलाकर पियें । दूसरे दिन इसी प्रकार काथ बनाकर २ भाग पियें । इसी प्रकार प्रति दिन १ -१ भाग बढ़ाते हुवे १० दिन तक सेवन करें और फिर ११ वें दिन से १--१ भाग घटाते हुवे सेवन करें और एक भाग पर आजायें । इस प्रकार यह १०० भिलावांका प्रयोग हुवा । यदि यह प्रयोग अनुकूल आजाय तो फिर इसी प्रकार १० भिलावांका काथ करके उसका दसवां भाग पियें और प्रतिदिन १-१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि भाग बढ़ाते रहें । जब पूरे दश भाग पर आजायं तो उसके दूसरे दिन ११ भिलावांका काथ बनाकर वह सब जायं और फिर प्रति दिन १-१ भिलावा बढ़ाते जायं । जव तीस तक पहुंच जायं तो प्रतिदिन १-१ भिलावा कम करने लगे और १ भिलावे पर पहुंचकर प्रयोग समाप्त कर दें । इस प्रकार यह १ हजार भिलावांका प्रयोग हुवा | ( प्रथम दिनसे दसवें दिन तक १० दिनमें कुल ५५, ग्यारहवें दिनसे १९ वें दिन तक ९ दिन में कुल ४५, बीसवें दिनसे ४९ वें दिन तक कुल ४६५ और ५० वें दिनसे ७८ वें दिन तक २९ दिनमें कुल ४३५, इस प्रकार ७८ दिनमें कुल ५५ + ४५ + ४६५ + ४३५ = १००० भिलावे ।) इससे आगे और अधिक न बढ़ाने चाहियें । भल्लातक- प्रयोग-कालमें और उसके पश्चात् भी दूध पर ही रहना चाहिये । इस प्रयोगसे जरारहित १०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है तथा रसायनके अन्य समस्त लाभ भी प्राप्त होते हैं । नोट - भिलावेका प्रयोग किसी योग्य वैद्यकी संरक्षा में ही करना चाहिये । (४७८०) भल्लातकक्षौद्रम् ( च. सं. । चि. अ. > भल्लातकानां जर्जरीकृतानां पिष्टस्वेदनं पूरयित्वा भूमावाकण्ठं निखातस्य स्नेहभाव - तस्य दृढस्योपरि कुम्भस्यारोप्योडुपेनापिधाय कृष्णमृत्तिकात्रलिप्तं गोमयाग्निभिरुपस्वेदयेत्, For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy