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धूम्रप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
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(३५७०) निर्गुण्डयादिधूपः (३) पामापीनसकासनाशनकरो धूपो प्रहोच्छेदनः ।। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११)
___संभालके पत्ते, नीमके मत्ते, हरताल, सरसों,
देवदार और खांडके समभाग मिश्रित चूर्णको घी निर्गुण्डीदलनिम्बपत्रहरितालं सार्षपं चूर्णकम् । और वाहद में मिलाकर धूप देनेसे भगन्दर, अर्श, देवाहं घृतशर्करामधुयुतं धूपं भगन्दारके ॥ | पीडायुक्त दुष्ट और विषम व्रण, विसर्प, पामा, दुर्नामे सरजे व्रणे च विषमे दुष्टे विसर्पेषु च । पीनस, खांसी और ग्रहदोष नष्ट होते हैं ।
इति नकारादिधूपप्रकरणम् ।
अथ नकारादिघूम्रप्रकरणम्
(३५७१) नेपालिकादिधूम्रयोगा: ___ मनसिल, गायका सींग, कूठ, राल, और कुश (ग. नि. । हिक्का.)
| में से किसी एकके चूर्णको घीमें मिलाकर उसका नेपाल्या गोविषाणस्य कुष्ठात्सर्जरसस्य घ।। धूम्रपान करनेसे हिक्का शान्त हो जाती है। धूमं कुशस्य वा साज्यं पिवेद्धिकोपशान्तये ॥ ।
इति नकारादिधूम्रप्रकरणम् ।
अथ नकाराधजनप्रकरणम्
(३५७२) नक्तमालाद्यञ्जनम्
___ करा के फलेकी गिरी, सेठ, मिर्च, पीपल, (वृ. नि. र.; वं. से.; ग. नि.; . मा. | विषा.) बेलकी जड़की छाल, हल्दी, दारुहल्दी और नक्तमालफलं व्योष विल्वमूल निशाद्वयम् ।। तुलसीके फूल ( वा पत्र ) समान भाग लेकर पूर्ण सौरसं पुष्पामाजं च मूत्रं बोधनंमधनम् ॥ करके सबको बकरीके मूत्रमें घोटकर अत्यन्त महीन १ पत्रमिति पाठान्तरम् ।
अञ्जन बनावें।
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