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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६७९] हेम्नः पत्रं च तन्मध्ये धृत्वा रुद्धा शरावके। । (२० तोले ) गन्धकका बारीक चूर्ण करके उसके उपर्यपि भवेच्चान्यः शरावः सन्धिमुद्रितः ॥ | बीच में ५ तोले सोनेके अत्यन्त बारीक वर्क रखकुअराख्यः पुटो मुख्यस्तत्र देयः सुसंयतः। | कर शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक स्वामी तटाटा भी कान दें। जब पुट स्वांग शीतल हो जाय तो सोनेकी सूक्ष्म तचापि सञ्चूर्ण्य पूर्वमतेन मेलपेत। भस्मको निकाल लें। ज्वालामुखीरसैः सूतं मर्दयेदेकतः कृतम् ॥ (३) उपरोक्त दोनों औषधों अर्थात पारदततो गव्येन हविषा रसं च मर्दयेदृढम् । वाले योग और स्वर्ण भस्मको पृथक् पृथक् खरल कृत्वा तद्गोलकं सर्वं मृन्मृषान्तर्गतं च तत् ॥ करके एकत्र मिलायें और फिर उसे हुलहुल तथा विमुद्रय सकलं भाण्डे मृन्मये तत्र दीयते। गायके घीमें १-१ दिन घोटकर गोला बनाकर अग्निं हि वालुकाभिस्तं दिनसप्तावधिर्यथा ॥ मिट्टीकी मूषामें बन्द करें और उसे बालुकायन्त्र अग्नि तत्र शनैः कुर्याच्छीतमादाय पारदम् । | में रखकर उसके नीचे ७ दिन तक मन्दाग्नि विचूर्ण्य रक्ष्यते भाण्डे राजते वाथ काश्चने॥ जलावें । तदनन्तर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर गुञ्जामेकामतो दद्यात्मतिवासरमुत्तमम् ।। औषधको निकालकर पीसकर सोने या चांदीके कासे श्वासे ज्वरे मेहे गुल्मे दुष्टक्षये तथा । | पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें । व्योषेण मधुना साकं रसं गुग्गुलुनाऽथवा। घृतेन सह दातव्यः कुष्ठे काथं वराभवम् ॥ इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार त्रिकुटेके चूर्ण अग्निमान्ये च दातव्यो रक्तरोगे महारसः ॥ और शहदके साथ अथवा शुद्ध गूगलके साथ सेवन करनेसे खांसी, श्वास, ज्वर, प्रमेह, गुल्म (१) २० तोले शुद्ध पारा, २० तोले | और दुष्ट क्षय तथा अग्निमांद्यका नाश होता है। अभ्रकभस्म, २० तोले शुद्ध गन्धक, २० तोले सफेद सुरमा और २० तोले सेंधा नमक लेकर इसे घृतके साथ खिलाकर ऊपरसे त्रिफलाका प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर | काथ पिलानेसे कुष्ट और रक्तविकार नष्ट होते हैं। उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको १ दिन । (१९६८) भैरवरसः (४) जम्भीरी नीबूके रसमें घोटकर कपडमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर उसका मुख बन्द कर दें (र. रा. सु.; ध (र. रा. सु.; धन्व.; र. चं.; रसे. सा. सं.: और उसे बालुका यन्त्रमें रखकर १ पहरकी मध्यम भै. र. । स्वरभेदा.) अग्नि दें । तत्पश्चाद् शीशीके स्वांग शीतल होने रसं गन्ध विषं टकं मरिचं चव्यचित्रकम् । पर उसमें से औषधको निकाल लें। | आर्द्रकस्य रसेनैव सम्मर्घ वटिकां ततः ॥ (२) १ पल सोनामक्खी और ४ पल ' गुञ्जात्रयप्रमाणेन खादेत्तोयानुपानतः । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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