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चूर्णप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[२८९]
पश्चनिम्बचूर्णम्
पञ्चवल्कल ( वट, पोपल, पिलखन, गूलर ( रसप्रकरणमें देखिये।)
और बेत ) की छालका चूर्ण और सीपका चूर्ण (३८८३) पश्चमूलचूर्णम्
| समान भाग मिलाकर (धीमें घोटकर ) लगाने (वं. से. । आमवात.) से अथवा धायके फूल और लोधके चूर्णको इसी पञ्चमूलकचूर्णन्तु पिबेदुष्णेन वारिणा | प्रकार लगाने से घाव भर जाता है। मन्दाग्निशूलगुल्मञ्च कफारोचकनाशनम् ॥ (३८८७) पश्चसमं चूर्णम्
पञ्चमूलके चूर्णको उष्ण पानीके साथ सेवन (ग. नि. । परिशिष्ट चूर्णा.; वै. र. । शूला.; करनेसे मन्दाग्नि, शूल, गुल्म और कफज अरुचि | यो. र. । आमवा.; शा. ध. । चूर्णा.) नष्ट होती है।
पथ्यानागरजीरकाख्यरुचकैः श्यामान्वितैः प(३८८४) पश्चलवणम्
भि(वं. से. । ग्रहण्य.) श्चूर्ण पञ्चसमं समस्तरुजहत्कायाग्निसन्दीपनम्।। सौवर्चलं सैन्धवञ्च विडमौद्भिदमेव च। । प्राणोत्साहविवर्द्धनं रुचिकरं गुल्मन्नप्लीहापहम् सामुद्रण समं पञ्च लवणान्यत्र योजयेत् ॥ | प्रत्याध्मानगरादिशमनं सामानिले पूजितम् ।।
सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा नमक, विड- | हरे, सेांठ, जीरा,+ सञ्चल ( काला नमक ) नमक, उद्भिद नमक और सामुद्र लवण । इन | और निसोत; समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । पांचोंको पश्चलवण कहते हैं ।
इसके सेवनसे अग्नि दीप्त और उत्साहकी (३८८५) पञ्चवल्कलचूर्णम्
वृद्धि होती है । तथा गुल्म, तिल्ली, आध्मान (भा. प्र. । ममूरि.) ( अफारा ) और गरविषादि नष्ट होते और रुचि पञ्चवल्कलचूर्णेन क्लेदिनीमवधृलयेत् । उत्पन्न होती है । यह चूर्ण सामवायुमें विशेष भस्मना केचिदिच्छन्ति केचिद्गोमयरेणुना।। उपयोगी है। क्लेद (पीप ) युक्त ममूरिकाकी फुसियों |
(३८८८) पञ्चाग्निचूर्णम् पर पञ्चवल्कल ( वट, पीपल वृक्ष, गूलर, पिलखन
(वृ. नि. र. । अजो.) और वेत ) की छालका चूर्ण या अरने उपलोंकी
अम्लवेतसधनञ्जयवत्री राख अथवा सूखे गोबरका चूर्ण लगाना चाहिये।
मोरटा तदनु मूरण एषः। (३८८६) पञ्चवल्कलादिचूर्णम् पञ्चवहिजठरानलवृद्धथै ( वृं. मा. । व्रणशोथ.; यो. र. । व्रण.)
तक्रसाकमिदमाशु हि पेयम् ॥ पञ्चवल्कलचूर्णैर्वा शुक्तिचूर्णसमायुतैः ।।
+गदनिग्रहके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रन्धोंमें धातकीलोध्रचूर्णैर्वा तथा रोहन्ति ते व्रणाः ।। | जोक जगह पीपल लिखी है ।
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