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तैलप्रकरणम् ]
(३०८६) दशमूलतैलम् (४) ( भै. र. । शिरो. ) दशमूलकाथकल्काभ्यां तैलप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणं पयो दत्त्वा शनैर्मृद्वनिना पचेत् ॥ दशमूलमिति ख्यातं शोथं हन्ति सुदारुणम् ॥
४ सेर दशमूलको ३२ सेर पानी में पकाकर ८ खेर शेष रहने पर छान लें । फिर २ सेर तैलमें यह काथ और ८ सेर दूध तथा २० तोले दशमूलका कल्क मिलाकर मन्दाभिपर पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। यह 'दशमूल तैल ' भयङ्कर शोथको भी
नष्ट कर देता है ।
(३०८७) दशमूलतैलम् (५) (भै. र. । शिरो. )
तृतीयो भागः ।
दशमूलकाथकरुकाभ्यां निर्गुण्डी रससंयुतम् । कटुतैलं समादाय पचेत्प्रस्थं भिषग्वरः ॥ सत्रिपातं हरेदेवच्छिरोरोगं न संशयः ॥
२ सेर दशमूलको १६ सेर पानीमें पकायें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। तत्पश्चात् उसमें २० तोले दशमूलका कल्क तथा ४ सेर संभालुका रस और २ सेर सरसोंका तैल मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें।
यह तैल सन्निपातज शिरोरोगको अवस्य करता है ॥
(३०८८) दशमूलतैलम् (६) (मध्यम) ( धन्व.; भै. र. । शिरो. ) दशमूली करञ्जश्च निर्गुण्डी च जयन्त्रिका । धत्तूरः षट्पलान् भागान् जलद्राणे विपाचयेत् ॥
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पादशेषे रसे तैलं कदुप्रस्थं विपाचयेत् । तत्कल्कान् दापयेत्तत्र भागान् षट्तोलकान् पृथक् ॥
वातश्लेष्मसमुद्भूतं शिरोरोगं व्यपोहति कासं पञ्चविधं शोथं जीर्णज्वरमपोहति ॥ दशमूलमिदं तैलं शिरकर्णाक्षिरोगनुत् । मन्यास्तम्भमन्त्रदृद्धिं श्लीपदं च विनाशयेत् ॥ दशमूलमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा ॥
काथ - दशमूल, करन - बीज, संभालु, जयन्ती
और धतूरा ६ - ६ पल (३०-३० तोले ) लेकर ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें।
- दशमूल, करञ्जबीज, संभालु, जयन्ती और धतूरा । हरेक ६-६ तोले लेकर पानीके साथ पिसवा लें ।
विधि- - काथ, कल्क और २ सेर सरसोंके तेको एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो तैलको छान लें।
यह तैल वातकफज शिरोरोग, पांच प्रकारकी खांसी, शोथ, जीर्णज्वर, मन्यास्तम्भ, अन्त्र वृद्धि, स्लीपद और कान, आंख तथा शिरके रोगोंको नष्ट करता है ।
(३०८९) दशमूलतैलम् (७)
( धन्वं. भै. र. र. र. । शिरो. ) दशमूलीकषायेण अष्टाङ्गकल्कसंयुतम् । क्षीरं च द्विगुणं दवा तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ शिरोतिं नाशयेदेतद्भास्करस्तिमिरं यथा । वातशूलं पित्तशूलं कफशूलं त्रिदोषजम् ॥
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