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(४२५०) पिप्पल्यादिनस्यम् (वृ. मा. भा. प्र.; वृ. नि. र. । नासा. ) पिप्पल्यः शिग्रुवीजानि विडङ्गं मरिचानि च । अवपीडः प्रशस्तोऽयं प्रतिश्यायनिवारणः ।
भारत-भैषज्य रत्नाकरः ।
पीपल, सहजने के बीज, बायबिडंग, और काली मिरच समान भाग लेकर सब को पानी के साथ महीन पीस लें । इस लुगदीको वस्त्र में बांध कर निचोड़ने से जो रस निकले उस की नस्य लेने से प्रतिस्याय नष्ट होता है । (४२५१) पिप्पल्यादिनस्यम् ( वृ. नि. र. । शिरो. ) पिप्पली सैन्धवं पाच्यं तैलेनाज्येन नस्यतः । शिरःशूलं निहन्त्याशु तमः सूर्योदयो यथा ॥
पीपल और सेंधा नमक के चूर्णको घी या तेल में पकाकर उस की नस्य लेने से शिरशूल इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सूर्योदय से अन्धकार ।
(४२५२) पिप्पल्यादिप्रधमननस्यम् (ग. नि. । उन्मा. २ ) पिप्पल्यो मरिचं बीजमपामार्गशिरीषयोः । शवको हिब्रुवन्ये तच्चूर्ण प्रधमनं भवेत् ।। अवपीडच तैरेव वस्तमूत्रद्रवीकृतः । इत्युन्मादमपस्मारं वैचित्यं विषमज्वरम् ।।
पीपल, काली मिर्च, अपामार्ग, (चिरचिटे) के तुष रहित स्वच्छ बीज, सिरसके बीज, नकछिकनी, हींग और चव के समान भाग- मिश्रित चूर्ण को सुंघाने से अथवा उस चूर्ण को बकरे के
[पकारादि
मूत्र में पीसकर लुगदी सी बनाकर उसे कपड़े में निचोड़कर निकाले हुवे रसकी नस्य देनेसे उन्माद, अपस्मार; चित्तविकृति और विषमज्वर का नाश
है।
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(४२५३) पिप्पल्याचं नस्यम् (ग. नि. । शिरो. ) पिप्पलीमरिचद्राक्षामधुयष्टिकनागरैः । पर्क गोनवनीतेन नस्यं हन्ति शिरोरुजम् ॥
पीपल, काली मिरच, मुनक्का, मुलैठी और सेठ के समान भाग- मिश्रित चूर्णको गायके नवनीत (मक्खन) में पकाकर उस की नस्य लेने से शिर पीड़ा नष्ट होती है । (४२५४) पुण्ड्रेक्ष्वादि नस्यम्
(वै. म. र. | पट. १६ ) पुण्ड्रेक्षुकाण्डरेणुस्तु सस्तन्यस्तुल्यं शर्करः । न्यस्तो घ्राणमुखे सद्यः सर्वोन्मादविनाशनः ॥
पुण्डरिया और ईखका काण्ड ( तन्ना ), | रेणुका और खांड के चूर्ण को स्त्रीके दूध में मिलाकर रोगी की नाक में डालने से उन्माद रोग नष्ट होता है।
(४२५५) पूतिकरआद्योऽवपीड: (ग. नि. । क्रि. रो. ६ )
फलं पूतिकरञ्जानां पिप्पल्यो मरिचानि च । अवपीडं क्रिमिहरं कुर्याच्छीर्षविरेचनम् ॥ एतैरेवाक्षमात्रैस्तु घृतमस्थं विपाचयेत् । त्रिगुणे तु गवां मूत्रे तमस्यं क्रिमिसूदनम् ॥
कण्टककर के फल, पीपल और काली
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