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चूर्णप्रकरणम् ]
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सप्तपर्णी पामार्ग पिचुमन्दाररूषकौ । face faast दन्ती पिप्पल्यो मरिचानि च एतेषां समभागानां कुष्ठी चूर्णपलं पिबेत् । मासं गोमूत्रसंयुक्तं तथा कुष्ठात्प्रमुच्यते ॥
तृतीयो भागः ।
दाख (मुनक्का ), हल्दी, मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सोंठ, दशमूलकी हरेक चीज़, मोथा, मूर्वा, सतौना ( सतिवन ) की छाल, चिरचिटा, नीमकी छाल, बासा, बायबिडंग, चीता, दन्ती, पीपल, और काली मिर्च | सब समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
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इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार गोमूत्र के साथ १ मास तक सेवन कराने से कुष्टरोग नष्ट हो जाता है ।
( व्यवहारिक मात्रा ६ माशे । ) (२९९५) द्राक्षाषाडवः
( ग. नि. । अरोचका. )
अजायौ मरिचं द्राक्षा तिन्तडीकं सदाडिमम् । सौवर्चलं कारवी च गुडमाक्षिकसंयुतः ॥ द्राक्षाषाडव इत्येष ख्यातो मुखविशोधनः । अरोचकानां सर्वेषां प्रशस्तः षाडवोत्तमः ॥ अरना च शुक्तं च मृद्वीकमदिरासवौ । अनुपानान्तरे धार्यास्तथैव कवलग्रहाः ॥
सफेद जीरा, काला जीरा, काली मिर्च, मुनक्का ( दाख), तिन्तड़ीक, अनारदाना, सञ्चल ( काला नमक ), कलौंजी और गुड़ । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें, और उसे शहद में मिलाकर रक्खें ।
इसे आरनाल, शुक या मुनक्का से बनी हुई
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मदिरा या द्राक्षासवके साथ पीनेसे हर प्रकारकी अरुचि नष्ट होती और मुख शुद्ध होता है ।
अरुचिमें आरनाल, शुक्त, मुनक्का से बनी हुई सुरा या द्राक्षासवके कुल्ले भी करने चाहियें । ( नोट- दोनों जीरे भूनकर डालने चाहियें । मात्रा ३-४ माशे. ) (२९९६) विक्षारचूर्णम् (वै. जी. | वि. २ ) द्विक्षारषट्कटुपटुत्रजहिङ्गुदीप्यैः स्यात्सारलुङ्गबदरैकरसेन युक्तम् । श्लेष्मा निलग्रहणिकागुदजे प्रशस्तं लोकत्रयैक्कमतिदीपन पाचनेऽलम् ॥
सज्जीखार, यवक्षार, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, काली मिर्च, पांचों नमक, हींग, अजवायन और अमलबेत बराबर बराबर लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे बिजौरे नीबू या खट्टे बेर के रसमें घोटें ।
यह चूर्ण कफवातज ग्रहणी - विकार और बवासीरको नष्ट करता है तथा अत्यन्त अग्निदीपक और पाचक है।
( मात्रा १ - २ माशा। अनुपान उष्णजल । ) (२९९७) विक्षारादिचूर्णम् (१)
( ग. नि. । हिक्काश्वास. ) द्वौ क्षारौ हरीतक्यौ भल्लातकफलानि च । घृतमृष्टमिदं सर्व हिकाश्वासनिवारणम् ||
सज्जीखार, यवक्षार, हर्र और शुद्ध भिलावा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसमें थोड़ासाघी डालकर अच्छी तरह मलें । ( घी इतना डालना चाहिये कि जिससे चूर्ण चिकना हो जाय । )
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