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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] [ ४५३] है पर सुप्त (सोया हुआ ) है, तो भी भोजन में समर्थ नहीं होता । तथा कोई मनुष्य भूखा भी है और जग भी रहा है परन्तु उसको मुखीकरण ( अन्नमें रुचि ) नहीं है तो उस हालत में भी वह भोजन नहीं करता अर्थात् जबरदस्ती से उसे भोजन दिया जाय तो वमनादि द्वारा निकल जायगा | तात्पर्य यह हुआ कि बुभुक्षा जागरण रुचि ये तीनों ग्रास ग्रहण में कारण हैं तैसे ही पारद भी विषोपविषके योगसे बुभुक्षित, क्षा के योग से रुचिमान्, अम्लवर्ग के योगसे जागरुक होकर ग्रासको पचा सका है । इसी लिये महर्षियोंने पारद बुभुक्षादि संस्कार कहे हैं । अर्थात् जो वैद्य परिश्रम और द्रव्यके लोभसे पार - ah बुभुक्षादि संस्कार नहीं करके स्वर्णग्रास देकर चन्द्रोदय रस बनाते हैं, वे पूर्णफलके भागी इस लिये नहीं हो सक्ते कि चन्द्रोदयपाक करते समय सम्पूर्ण सुवर्ण शीशी तलभागमें रह जाता है और सुवर्णसिन्दूर शीशीके गले पर जा लगता है । जो ग्रास पचनेको दिया गया है वह जब नहा पचकर निकल गया तो चन्द्रोदय प्रबलशक्तिक कैसे हो सक्ता है ? और जैसे कफदोष के नाशार्थ वमन, पित्तदोपके नाशार्थ विरेचन, वातदोषके नाशार्थ बस्ति ( पिचकारी ) आदि पञ्चकर्म मनुष्यके होते हैं, वैसे ही पारदके भी ऊर्द्धपातन, तिर्य्यक् पातन, आदि १८ संस्कार किये जाते । इस रसायनसारके प्रथम भाग में मैंने १८ संस्कार इस लिये नहीं लिखे हैं कि संपूर्ण संस्कारोंका मैंने अभी तक अनुभव नहीं किया है परन्तु ईश्वरकी कृपा और परिश्रमके आगे १८ संस्कार कुछ दुष्कर नहीं हैं। अनुभव करके अग्रिम भागों में लिखूंगा । बिना अनुभूत किये लिखना मेरी आदत नहीं है और जैसे 'स्नेहस्वेदोपपादनैः पञ्चकर्माणि कुर्वीत " इस चरकवचनानुसार बमन विरेचनादि पञ्चकर्मों से पहिले स्नेह स्वेद (तैलमालिश बफारा ) दिया जाता है वैसे ही पारदका मर्दन स्वेदन किया जाता है । जिससे पारदके सर्व दोष शिथिल हो जायं बाद ऊर्द्वपातनादिसे पृथक् निकल जायं । और जैसे वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, नस्य, कर्म में प्रवृत्त वैद्यराज दृष्टकर्मा और शास्त्रज्ञ होय तो यथावत्प्रयुक्त उन पञ्चकर्मों के प्रतापसे मनुष्य रोगसे निर्मुक्त होकर सर्व कार्यकरण में समर्थ हो सक्ता है, यदि अज्ञ वैद्यके पाले पड़ जाय तो वह मनुष्य अपने शरीरका भी सत्यानाश कर बैठे। तैसे ही पारद बुभुक्षादि संस्कार कोई चतुर, परिश्रमी, रसक्रिया प्रेमी, खर्चीला, मनुष्य करे तो आप भी यशका भागी बने और पारदको भी बलिष्ट बनाकर अनेक प्राणियोंका उपकार करे । यदि उक्त गुणरहित मनुष्य रसक्रियामें प्रवृत्त हो जाय तो पारदसिद्धि तो दूर रही ढीलीढाली मुद्रा देकर पारद को भी खो बैठे। इस लिखनेका तात्पर्य यह है कि यह क्रिया मेरी अनुभूत की हुई है, बिलकुल सत्य है, वैद्य लोग सावधानीके साथ कार्यारम्भ करेंगे तो अवस्य सफलमनोरथ | 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देयग्रासमीमांसा - बुभुक्षुभूतस्य चतुर्थभागं ग्रासं सुवर्णस्य सुशोधितस्य । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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