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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः ।
[पकारादि
मन्दवीर्य चतुर्थांश ( आधासेर) डाले । और क्षार ! हैं जिससे सर्पभी नहीं मरे और विषभी निकल तथा अम्लका पानी डालकर तबतक घोटे कि जब | आवे । मुझे भी उन ही लोगोंसे प्राप्त हुआ तक पारद दीखना बन्द न हो जाय और द्रवपदार्थ | था। शङ्खद्राव, सुहागा, प्रतिसारणीय और न सूख जाय फिर उसको डमरुयन्त्रमें उड़ाने योग्य पानीयक्षार१, और सुवर्णादि समस्त धातुओंके समझे । इस विधिसे नौ विषेमें और सात उप- शोधनेमें जिन जिन औषधियोंके स्वरसादि निकाले विषोंमें ६३ बार पारदको घोटना पड़ता है और गये हैं उनका क्षार, सैंन्धवादि सर्वलवण भी क्षारके तिरसठ बार ही डमरुयन्त्रमें उड़ाना पड़ता है तथा अन्तर्गत ही हैं। इनमें पारदको घोटने या स्वेदित तिरसठ बार ही दोलायन्त्रमें स्वेदन करना होता करनेसे ग्रास ग्रहण करनेके लिये पारदके है । परन्तु इतने विष तो मुझे प्राप्त हुए नहीं थे मुख ( रुचि ) हो जाता है और नारङ्गी, किन्तु वछनाभ, सींगिया, और हलदिया बस ये ही अम्बाड़ा ( अमड़ा-जिनका अचार डाला जाता है तीन स्थावर विष मिले थे इनही में तिरसठ बार घोट- मोरछलीके समान छोटेछोटे फल होते हैं ), बिजौ घोटकर उक्त संख्या समाप्त करनी पड़ी थी। मैंने । रानीबू, जमीरीनीबू , कागजीनीबू, 'चूका, कच्चे नो विषको इस वास्ते लिख दिया है कि शायद आम, अमलबेंत ( जिसके रस्से के समान बटे हुए किसी वैद्यराजको अन्य विष भी प्राप्त हो जायं बाजारमें मिलते हैं ) और करौंदा, इत्यादि अम्लतो केवल तीन ही विषोंमें घोटनेकी क्या जरूरत वर्गकी कांजीमें पारदका मर्दन स्वेदन करनेसे पारद है ? बाद सात उपविषोंमें भी पूर्ववत् । ग्रास ग्रहण करने के लिये जागरुक हो जाता है । क्षाराम्ल योगसे सात सात बार घोटे, और प्रत्येक जैसा कि “क्षारामुखकराः सर्वे सर्वे ह्यम्लाः बार डमरूयन्त्रमें उड़ा उड़ाकर स्वेदन करता रहे; | प्रबोधकाः ” पारदके ग्रास ग्रहण करनेमें जिसमें पारंदमें बुभुक्षा उत्पन्न होय । उपविषेके | बुभुक्षा, जागरण, मुखीकरण, कारण हैं इस बातको ये नाम हैं-थूहरका दूध, आकका दूध, धतूरेकी युक्तियोंसे सिद्ध करता हूं कि-जैसे जो मनुष्य जड़, कलिहारी, कनेरकी जड़, चिरमिठी (बूंघची) । मन्दाग्नि है अर्थात् जिसको भूख नहीं लगी है की जड़ या बीज, और अफीम, इनमें कोई चीज उसको ग्रास ( भोजन ) कराया जाय तो वह ऐसी नहीं है जो नहीं मिले । इतनी क्रियाके | पचता नहीं और अपना फल प्रदान (बलवर्द्धनादि) बाद सर्पके विष और काजी में घोटकर डमरूय- | भी यथार्थ रूपसे नहीं कर सक्ता किन्तु वमन रेचन्त्रमें रखकर उड़ाले, और क्षाराम्लमें स्वेदन करले नके द्वारा स्वयं कच्चे का कच्चा ही निकल तो सुप्तोत्थित मनुष्यकी तरह पारद अति बुभुक्षित जाता है और जैसे कोई मनुष्य भूखा भी होकर ग्रासग्रहणके लिये समर्थ होता है । सर्पका १-इन दोनों क्षारोंकी विधि "पकारादि मिश्र
प्रकरण" में देखिये। विष सपेरेसेि मिल सक्ता है। वे लोग ऐसी होशि
२-क्वाथादि छान लेने के बाद बचे हुवे फोकों को यारीसे सर्पके गलेसे विषकी थैली को निकाल देते / जमा करके सुखाकर उनका क्षार बना लिया जाता है ।
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