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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४५४ ] दत्त्वा विमर्देrपरिलग्नता दिनद्वयं ग्रासविपाचनाय ॥ केचिदन्ते केवलं सुवर्ण पत्राणि शुद्धीरनवेक्षमाणाः । तैः सूतराजो मलनीक्रियेत दुष्टrated faशुद्धकोष्ठः || धात्वन्तरस्येव न दुष्टिरस्य कुट्टाद्यैरपि नश्यतीव । अतः फलश्रावि वचोऽस्तिभोक्तुस्तथापि सूतग्रसनाय नेष्टे ॥ अल्पव्ययेनापि समर्जनीयं स्वोद्योगलभ्यं परितोषहेतुः । शास्त्रोक्तरीत्या परिशुद्धहेम फलेऽतिशेते तु ततोप्यवश्यम् ॥ संशोधितं कृत्रिमम चापि भारत सातां नैव विपत्ति सूते । सूते यतो नैव फलं स्वकीयं किन्तु हेतूत्थगुणं प्रसूते ॥ कार्ये न हेतूत्थगुणा अहात www.kobatirth.org adhvaभावितसूतराजः । तत्समस्तांश्च गुणान्ददानो - भैषज्य रत्नाकरः । निदर्शनं चात्र सुयुक्तियुक्तम् ॥ पारदमें ग्रासदेनेका विचार अर्थ - पूर्वोक्त रीतिसे पारदको बुभुक्षित करके उसमें चतुर्थांश ग्रास दे, अर्थात् पारदको तोलकर देखले जो एक सेर बुभुक्षित पारद होय तो शुद्ध किये हुए सुवर्णको कूटकर पत्र बनाले, उनको पावभर तोलकर उस पारदमें घोटे । घोटते ही तुरन्त सर्वपत्र पारद में मिल जायंगे । यथपि | [ पकारादि बुभुक्षित पारदमें सुवर्णकी डलीको भी डालकर घोटे तो भी मिल जाती है परन्तु पत्र करने से घोटने में सुभीता रहता है, पारद छलकता नहीं है। बाद बहुत होशियारीके साथ ( जिसमें पारद उछलकर बाहर न गिर जाय ) दो दिन तक घोटे, जिसमें ग्रास बिलकुल पच जाय । आज कल कितने ही वैध बाज़ारसे सुवर्णपत्र खरीदकर पारदमें घोटकर सुवर्णसिन्दूर, सुवर्णपर्पटी हिरण्यगर्भपोटली, आदि अनेक रस बनाया करते हैं, और शास्त्रकारांने जो सुवर्णकी शुद्धियां लिखी हैं उनपर ध्यान नहीं देते कि यदि बजारु सुवर्णपत्रोंसे ही काम चलता तो शास्त्रकार सुवर्णशुद्धि क्यों लिखते । वैद्य परम विशुद्ध पारदको भी सुवर्ण के दोषोंसे दूषित करते हैं । जैसे वमन विरेचनादि कर्मसे बहुत परिश्रम करके किसी मनुष्यके कोष्ठको शुद्धकिया होय फिर उसको दुष्टान सेवन कराके अनभिज्ञ वैद्य अशुद्ध कर देते हैं । यद्यपि ताम्रादि धातुओं में जितना दोष है उतना सुवर्ण में नहीं है और वह दोष भी पत्रोंके बनाते समय सुवर्णको कूटनेसे, तथा औषधान्तरके योगसे नष्टप्राय हो जाता है । इसी वास्ते सुवर्ण पत्र सेवन करनेवालेको शास्त्रकारोंने “सिद्धं स्वर्णदलं समस्तविषहृच्छूलाम्लपित्तापहम् हृद्यं पुष्टिकरं क्षयत्रणहरं कायाग्निमायं जयेत् हिक्कानाहविनाशनं कफहरं भ्रूणां हितं सर्वदा तत्तद्रोगहरानुपानसहितं सर्वामयध्वंसनम् ” ( अर्थात् सुवर्ण वर्कों के सेवन करने से सम्पूर्ण विषरोग, शूल, अम्लपित्त नष्ट हो जाते हैं और वे हृदयको हितकारी, पुष्टि कारक हैं । तथा क्षय, व्रण, मन्दाग्नि, हिचकी, आनाह, कफरोग नष्ट होते 1 | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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