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धूपमकरणम् ]
[५४७]
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तृतीयो भागः। अथ फकारादिधूपप्रकरणम् ।
(४५३४) फिरङ्गशमनीवटी (धूपः) । स सप्तभिर्वा दिवसैश्च तस्मा (भै. र. । परिशिष्टे)
द्विमुच्यतेऽम्लं लवणं त्यजेश्चेत् ।।
११-१॥ तोले शुद्ध पारद गन्धककी कजली कर्षद्वयं श्रीशिवयोश्च वीर्य
| बनाकर उसमें १। तोला चावलांका महीन चूर्ण मक्षपमाणानि च तण्डुलानि ।
मिलावें और फिर उसे खरैटीके स्वरस में घोटकर पिष्ट्वा वलायाः स्वरसैश्च सप्त
सबकी २१ गोलियां बनावें। विना वटी: सप्तदिनैनियोज्याः॥
इनमें से १-१ गोलीकी धूनी नित्य प्रति ३ वटीत्रयस्यापि निषेव्य नित्यं
बार लेनेसे आतशकके घाव भर जाते हैं । खटाई धूमन यो बाब फिरणरोगी। । और नमकसे परहेज़ करना चाहिये ।
इति फकारादिधूपभकरणम् ।
अथ फकारादिरसप्रकरणम् ।
(४५३५) फिरङ्गवातकेसरीरसः
कलौंजी का चूर्ण और मुरदासिंग ३-३ टंक (वै. २. । फिरङ्ग.)
(१५-१५ माशे) लेकर दानांको अच्छी तरह
खरल करें और फिर उसमें ४५ माशे पुराना गुड़ कालाजाजी च कष्ठ टङ्कयामत एयर। | मिलाकर सबको १५ गोलियां बनार्वे । उभयोः सार्द्वगुणितं गुर्ड जीर्ण विनिःक्षिपेत् ।। इनमेंसे प्रति दिन प्रातः तथा सायङ्काल सञ्चयॆ सर्वमेकत्र गुटीः पञ्चदशाचरेत् । १-१ गोली निगलने से ७ दिनमें आतशकके मातः सायं च भोक्तव्या गुटिका सप्तवासरम् ।। | समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं । आतशक के लिये गोधूमरोटिकासपियुक्ता भक्ष्या तु केवला।। इससे उत्तम और कोई औषध नहीं है । फिरजनिताः सर्वोपद्रवा यान्ति संक्षयम् ॥ । पथ्य-केवल गेहूंकी रोटी और घी खाना नास्त्यनेन समो योगः फिरङ्गजनिते गदे ।। । चाहिये । अन्य कोई चीज़ भी न खानी चाहिये ।
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