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भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[ नकारादि
(३३९५) निम्बादिप्रयोगः (२) कण्डूदुम्बरपुण्डरीकालसकाः कुष्ठामयाः पापजाः।
(वं. से. । स्त्रीरोगा.) . नश्यन्ति द्रुतमेव दारुणतराः प्रोद्यमानाऽनलः । निम्बवल्कलकल्कस्तु सर्पिषा काञ्जिकेन तु । ज्वालादग्धमतप्तकाश्चनसमान्यङ्गानि राजन्ति च पीतः प्रशान्तयेन्नूनमचिरात्मृतिकागदम् ॥ काथोऽयं मुनिभिर्दयाम निपुणैरुक्तो नृणां हेतवे।।
नीमकी छालको पानीके साथ पीसकर घीमें नीमकी छाल, अरण्डमूल, धमासा सुगन्धवाला, मिलाकर काञ्जीके साथ पीनेसे सूतिका रोग बच, मूर्वा, हल्दी, दारुहल्दी, त्रायमाणा, हरे, (प्रसूत ) शीघ्र ही अवश्य शान्त हो जाता है ।
बहेड़ा, आमला, पटोल, चीता, बकायनकी छाल, ( मात्रा-छाल आधा तोला, घी २ तोले ।)
गिलोय, भरंगी, काकोदुम्बरिका ( कठूमर ) की (३३९६) निम्बादिप्रयोगः (३)
छाल, करञ्ज बीज, खैरसार, शाखोटक (सिहोड़ा) (वं. से. । छर्दि.)
की छाल, सतौना ( सप्तच्छद ) की छाल, कटेली, निम्बाम्रपल्लवगवेधुकधान्यमेव
कटेला, सिरसकी छाल, बेत, पीपल, चिरायता, हीवेरवारि मधुना पिवतोऽल्पमल्पम् ।
इन्द्रजौ, पवांड़के बीज, बाबची, कुशकी जड़, गजछर्दिप्रयाति शमनं त्रिसुगन्धियुक्ता
पीपल, नल, पाठा, पित्तपापड़ा, इन्द्रायण, बासा, लीढा निहन्ति मधुना सदुरालभा वा॥
दन्ती, निसोत, लालचन्दन, मजीठ, कूठ, जवासा, नीम और आमके पत्ते, नागबला ( गंगेरन ),
तेजपात, कुटकी अमलतास, और पीपलामूल । धनिया और सुगन्ध बालाके काथमें शहद डाल
सब चीजें समान भाग लेकर अधकुटा करके रक्खें । कर थोड़ा थोड़ा पीनेसे या दालचीनी, इलायची, तेजपात और धमासेका चूर्ण शहदमें मिलाकर
इनमें से नित्य प्रति २ तोले लेकर ३२ चाटने से छर्दि नष्ट होती है ।
तोले गोमूत्र में पकावें और ८ तोले शेष रहने (३३९७) निम्बादिमहाकषायः
पर छान कर पियें। (वं. से. । कुष्ठ.)
इसके सेवनसे खुजली, उदम्बर कुष्ठ, पुण्डनिम्बरण्डदरालभार्भकवचामहरिद्राद्वयम। रीक कुष्ट, अलसक ( खारवा ) आदि समस्त त्रायन्तीत्रिफलापटोलदहनद्रेकामृताभार्जिभिः॥ कुष्ठ शीघ्र ही नष्ट होकर देह तप्त काश्चनके समान काकोदुम्बरिकाकरञ्जखदिरैःशाखोटसप्तच्छदैः। शुद्ध हो जाती है । व्याघीसिंहिशिरीषवेतसकणाभूनिम्बशक्राहयैः॥ (३३९८) निम्बुरसादिप्रयोग: मपुन्नाटकबाकुचीकुशजटामातङ्गकृष्णानलैः।
(यो. र. । विशू.) पाठापर्पटकेन्द्रवारुणीषादन्तीत्रिच्चन्दनैः॥ निम्बूरसश्चिश्चिणिकासमेतो मञ्जिष्ठाऽऽभययासवासकटुकाराजद्रमग्रन्थिकैः। विचिकाशोषहरः प्रदिष्ट । तुल्यांशैः सुरभीजलेन पिबतां सिद्धं कषायं दुग्धेन पीतो यदि टङ्कणोऽसौ
नृणाम् ।। प्रशामयेद्वै वमनं निरूध्यात् ॥
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