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भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[पकारादि
घोटकर पौन घण्टा मन्दाग्नि पर पकावें । तद- | करनेसे हलीमक, शोथ, पाण्डु, ऊरुस्तम्भ, प्लीहा, नन्तर चूर्ण करके रख लें।
| यकृत् और गुल्मका नाश होता तथा बल वर्ण इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे । और अग्निकी वृद्धि होती है। शोथ और पाण्डुरोग नष्ट होता है ।
यह एक श्रेष्ठ रसायन ( जरा व्याधि नाशक) (४३१८) पाण्टुपश्चाननरस:
योग है। ( भै. र.; र. चं. । पाण्डु. ) (४३१९)पाण्डुसूदनरसः (१) लौहमभ्रश्च ताम्रश्च प्रत्येकं पलसम्मितम् । (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । पाण्डु.) त्रिकटु त्रिफला दन्ती चयिकाकृष्णजीरकम् ॥ | मृतं तीक्ष्णकमेव गन्धसहितं भागेन संवर्द्धितम चित्रकञ्च निशे द्वे च त्रिवता मानमूलकम् । पश्चात्खल्वतले विमर्थ विधिना चूर्णीकृतं कुटजस्य फलं तिक्ता देवदारु वचा घनम् ॥
गालितम्। प्रत्येकमेषां कर्षन्तु निक्षिपेत्पाकविद् भिषक् । कूप्यां संविनिवेश्य सुमृदया संलेपितायां पचेत् सर्वस्य द्विगुणं देयं शुद्धमण्डूरचूर्णकम् ॥ यामद्वादशमात्रकं हि सिकतायन्त्रेण वैद्यः सदा॥ गोमूत्रेऽष्टगुणे पक्त्वा सिद्धे शीतलतां गते । प्रक्षिपेच्च वरशाल्मलीरसं त्रैफलं च गुडवल्लिभक्षयेत्मातरुत्थाय चोष्णतोयानुपानतः ॥
काद्रवम् । हलीमकं शोथपाण्डुमूरुस्तम्भश्च नाशयेत् ।
पाचयेच मृदुवहिना दिनं स्वांगशीतलमयं प्लीहानं यकृतं गुल्मं सर्वरोगहरः परः ।।
प्रगृहय च ॥ रसायनवरश्चैव बलवर्णाग्निकारकः॥ यूपाणाकरसेन भावयेत्पाण्डुसूदनरसोऽयमीलोहभस्म, अभ्रकभस्म और ताम्रभस्म ५-५
रितः। तोले; सेांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, | शुष्कपाण्डुविनिवृत्तिदायको रोगराजहरणः प्रदन्तीमूल, चव, काला जीरा, चीतामूल, हल्दी,
कीर्तितः॥ दारुहल्दी, निसोत, मानकन्द, इन्द्रजौ, कुटकी,
शुद्ध पारद १ भाग, तीक्ष्ण लोह २ भाग देवदारु, बच और नागर मोथे का चूणे १-१। और शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सबकी महीन तोला । इन सब चीजेांसे दो गुना शुद्ध मण्डूका |
कजली बनावें । तत्पश्चात् उसे कपरमिट्टी की चूर्ण लेकर उसे आठ गुने गोमूत्र में पकावें और
हुई आतशी शीशीमें भरकर उसे १२ पहर बालुका जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसे ठण्डा करके यन्त्रमें पकावें । इसके बाद जब शीशी स्वांग उसमें उपरोक्त समस्त चीजें मिलाकर ( १॥-१॥
शीतल हो जाय तो उसमें सेंभलकी छालका रस, माशेकी ) गोलियां बना लें।
त्रिफलेका काथ और गिलोयका स्वरस ६-६ भाग इन्हें उष्ण जलके साथ प्रातःकाल सेवन | डालकर पुनः १ दिन मन्दाग्नि पर पकावें ।
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