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[१५८]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[नकारादि
(३३८३) निम्बस्वरसप्रयोग:
कषायं पाययेदाशु वातश्लेष्मज्वरापहम् ॥ (वं. से. । कुष्ठ.)
पर्वभेदशिरःशूलं कासारोचकपीडितम् ।। निम्बस्य स्वरसं वापि सेव्यमानो यथावलम् ।
नीम, गिलोय, सांठ, देवदारु, कायफल, जीर्णे घृतानं भुञ्जीत स्वल्पयूषोदकेन च ॥
कुटकी और बचका काथ वातकफज्वर, पर्वभेद, अपि क्षीणशरीरोऽपि दिव्यरूपीभवेन्नरः॥
शिरशूल, खांसी और अरुचिको नष्ट करता है । बलोचित मात्रानुसार नीमका स्वरस पीकर उसके पचने पर थोड़ेसे यूषके साथ घृतमिश्रित (३३८७) निम्बादिकाथ: (३) भात खानेसे कुष्ठ नष्ट होकर क्षीण मनुष्यका शरीर (वृ. यो. त. । त. १२६; च. द.; ग. नि.; भी दिव्यरूप-युक्त हो जाता है।
वं. से.; भा. प्र.; यो. र.; . मा.; र. र.; वृ. (३३८४) निम्बादिकल्क:
नि. र. । मसू.) (यो. र. । कुष्ट.)
निम्बः पर्पटकः पाठा पटोल चन्दनद्वयम् । निम्बपत्रशतं पिष्ट्वा निम्बामलकमेव च । विडङ्गबाकुचीकल्कं पिबेदाकुष्ठनाशनम् ॥
वासा दुरालभा धात्री सेव्यं कटुकरोहिणी।
एतेषां कथितं शीतं सितया मधुरीकृतम् । नीमके १०० पत्तोंका कल्क प्रतिदिन सेवन करने या नीमके पत्ते और आमला अथवा बाय
मसूरिकां पित्तकृतां हन्ति रक्तोत्तरामपि ॥ बिडंग और बाबचीका कल्क सेवन करनेसे कुष्ठ नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, पाठा, पटोलपत्र, नष्ट हो जाता है।
लालचन्दन, सफेद चन्दन, बासा, धमासा, आमला, (मात्रा--आमला इत्यादि हरेक ६ माशे) खस, और, कुटकी । इनके काथको ठण्डा करके (३३८५) निम्बादिकाथ: (१) मिश्रीसे मीठा करके पीनेसे पित्त तथा रक्त प्रधान (वं. से. । मरि.)
मगरिका नष्ट हो जाती है। निम्नवर्वरकाशोकं बिम्बीवेतसबल्कलम् । (३३८८) निम्बादिकाथ: (४) शृतशीतं प्रयोक्तव्यम् स्रावभक्षालने सदा ॥
(ग. नि. । ज्वर.) - यदि मसूरिका में पीप पड़कर बहने लगे तो उसे नीम, बबूल, अशोक, कन्दूरी और बेतकी छालके : निम्बशुण्ठीकणामूलपथ्याः कटुकरोहिणी । ठण्डे काथसे धोना चाहिये।
व्याधिघातसमं कायः पीतः श्लेष्मज्वरविनाशनः।। (३३८६) निम्बादिकाथ: (२)
नीमकी छाल, सांठ, पीपलामूल, हर्र, कुटकी (वृ. नि. र.; वं. से. । ज्वर.) और अमलतासका काथ कफज ज्वरको नष्ट निम्बामृताविश्वदारुकट्फलं कटुका वचा। करता है।
- ग. नि. में इसे 'निम्बद्वादशक' नामसे लिखा है। प्राक्षेति पाठान्तरम् । २ उशीरमिति पायान्तरम् ।
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