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तृतीयो भागः ।
कषायमकरणम् ]
पीपलामूल, हर्र, नागरमोथा, अम्लतास, सोंठ, कुटकी, पित्तपापड़ा और खस । इनका काथ तृषा, मूर्च्छा और दाहयुक्त पित्तज्वर तथा मुंहके कड़वेपन को दूर करता है । (३८२८) पिप्पलीवर्द्धमानम्
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( वृ. यो त । त. ५९ ) क्षीरेण पञ्चवृद्धया वा सप्तहृद्धयाऽथ वा कणाः पिबेपिष्ट्वा दशदिनं तास्तथैवापकर्षयेत् ॥ एवं विंशद्दिनैः सिद्धं पिप्पलीवर्द्धमानकम् । अनेन पाण्डुवातास्रकासश्वासारुचिज्वराः || उदरार्शः क्षयश्लेष्मवाता नश्यन्त्युरोग्रहाः । त्रिभिरथ परिवृद्धं पञ्चभिः सप्तभिर्वा ॥ दशभिरथ विवृद्धं पिप्पलीवर्द्धमानकम् । इति पिबति पयो यस्तस्य न श्वासकासज्वरजठरगुदाशव।तरक्तक्षयाः स्युः ॥
पहिले दिन ३, ५, ७ या १० पीपल दूधके साथ पीसकर दूधके ही साथ सेवन करें और दूसरे दिन से रोज़ ३, ५, ७ या १० ( जितनी पहिले दिन सेवन की हां उतनी ही ) पीपल बढ़ाते रहें । १० दिन पश्चात् इसी क्रमसे घटाते हुवे सेवन करें । इस प्रकार २० दिन में यह प्रयोग पूरा होता है। इसका नाम “पिप्पली वर्द्धमान् " है ।
इस प्रयोगसे पाण्डु, वातरक्त, खांसी, श्वास, ज्वर, अरुचि, उदररोग, बवासीर, क्षय, कफज तथा वातज रोग और उरोग्रह आदि रोग नष्ट होते हैं
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(३८२९) पिप्पल्यादिकल्कः ( ग. नि. ; वं. से. । कासा. ) तैलभृष्टञ्च पिप्पल्याः कल्कस्याक्षं ससितोपलम् । पिबेद्वा कफकासनं कुलित्थसलिलप्लुतम् ॥
पीपलको तिलके तेलमें भूनकर पीसकर उसमें समान भाग मिश्री मिला लीजिये ।
इसे कुलथीके काढ़े में मिलाकर पीने से कफज कास नष्ट होती है । (३८३०) पिप्पल्यादिकवल: (१) ( वं. से.; वृं. मा. । मुखरो. ) पिप्पल्यः सर्पपाः श्वेता नागरं नैचुलं फलम् । सुखोदकेन संसृज्य कवलं तस्य योजयेत् ॥!
पीपल, सफेद सरसों, सोंठ और हिज्जलका फल । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण करके मन्दोष्ण पानीमें मिलाकर उसके कवल धारण करने से मुखरोग ( उपकुशादि ) नष्ट होते हैं । (३८३१) पिप्पल्यादिकवलः (२)
( च. सं. 1 चि. अ. २६ ) पिप्पल्य गुरुदार्वीत्वग्यवक्षारो रसाञ्जनम् । पाठां तेजोवतीं पथ्यां समभागं सुचूर्णितम् ॥ मुखरोगेषु सर्वेषु सक्षौद्रं तद्विधारयेत् । शीधुमाधवमाध्वीकैः श्रेष्ठोयं कवलग्रहः ॥
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पीपल, अगर, दारूहल्दीकी छाल, दारचीनी, जवाखार, रसौत, पाठा, मालकंगनी और हरे । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण करके उसे शहद में मिलाकर कवल धारण करनेसे समस्त मुखरोग नष्ट होते हैं ।
इस चूर्ण को सीधु या माधवी सुरा में मिलाकर कवल धारण करना भी उत्तम है ।