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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४२५] बलिपलितविनाशो वज्रकायो बलिष्ठो स्वर्णभस्म १ भाग, चांदी भस्म २ भाग, रविशशिसमकालं चाऽऽयुराप्नोति विद्वान्।। ताम्रभस्म ३ भाग, कृष्णाभ्रक भस्म ४ भाग, शुद्ध पारद भस्म १ पल ( ५ तोले ), गिलोयका | पारद ५ भाग और गन्धक ६ भाग लेकर प्रथम सत्व १ पल, त्रिकुटा, लाल चीता, त्रिफला, कुटकी पारे गन्धकको कन्जली बनावें और फिर उसमें और शुद्ध गूगल २-२ पल लेकर सबका महीन अन्य औषधे मिला कर उसे १-१ दिन संभालु, चूर्ण बनावें और उसे तुम्बरुके काथमें घोटकर दशमूल, चीता, हल्दा, त्रिकुटा और अदरक में उसमें उसके बराबर धी शहद आर खांड मिलाकर से जिनके स्वरस मिल सकें उनके स्वरस के तथा एकदिन घोटफर चिकने पात्र में भरकर रख दें। | शेष ओषधियोंके काथके साथ घोट कर गोलियां ___ इसमेंसे १० माशे दवा प्रति दिन खानेसे | बनाकर रख छोड़ें। राजयक्ष्मा, पाण्डु, हृच्छूल, उदरशूल, श्वास, खांसी, यह रस समस्त रोगोंको नष्ट करता है। अग्निमांद्य, शिरोरोग, गुदरोग, अर्श, गुल्म, उदर ( वृहयोग तरङ्गिणी के पाठके अनुसार रोग और पुराने कुष्ठ शीघ्र ही नष्ट होकर मनुष्य इसमें पारद भस्म ४ भाग और अभ्रक सत्व ५ बली पलित रहित, बलिष्ठ और दीर्घायु हो जाता है। भाग पड़ना चाहिये तथा गन्धक न डालकर सेठ, (४२८७) पञ्चामृतरसः (२) मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दालचीनी, (र. चं. । वाजीकरणा.; र. र. । रसायन. ) इलाय वी, तेजपात, बायबिडंग और नागरमोथेका | चूर्ण १-१ भाग डालना चाहिये तथा अन्य भस्मीभूतसुवर्णतारदिनकृतकृष्णाभ्रसूतैः क्रमात् । द्रव्यांकी भावनासे पूर्व १ भावना कायफलके काथ गन्धानां खलु भागवृद्धिरपि तत् कृत्वा शुभां | को देनी चाहिये ।। (४२८८) पञ्चामृतरसः (३) निर्गुण्डीदशमूलवहिरजनीव्योषाकैर्भावितैः । (र. का. धे. । रा. य.) गोलीकृत्य विशोष्य तनिगदितः पञ्चामृतः गन्धकः पारदः शुद्धो मृतं नाग विषं तथा । स्याद्रसः॥ मरिचं शहनामित समानेतान् विचूर्णयेत् ॥ नानेन सदृशः कोऽपि निवसेभुवनत्रये ।। गुञ्जाद्वयमितो देयो नासाकर्णप्रपूरणे । निहन्ति सकलान् रोगान् भवरोगमिवाच्युतः॥ श्रावेरसेनायं त्रिदोषक्षयकासनुत् ।। अयं पञ्चामृतो नृणां त्रिदशानामिवामृतम् ।। | ज्वरितस्य हितः मूतो रोगनः स्तम्भनाशकः । -वृहद्योगतरङ्गिणी तथा योगरत्नाकरमें-दिनकृत्सू- | रसः पञ्चामृतो नाम सर्वरोगहरो भवेत् ॥ ताभ्रसत्वेः क्रमात् ' पाठ है तथा प्रथम श्लोकका उत्त शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारट सीसा भस्म, शुद्ध राचं इस प्रकार है " संवृस्त्रितयं त्रिभिः कृमिहराम्भोदैयुतः कट्फलैः । " इसका नाम भी “ पञ्चामृताख्यरस" | बछनागका चूर्ण, काली मिर्चका चूर्ण और शंख भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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