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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
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तेषान्तु वल्कल ग्राहस्वमूलानि कृत्स्नशः ॥ ( अत्र विश्वादोनां पञ्चानां मूलस्य वल्कलं
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ग्राह्यम् ) बेलकी जड़की छाल, सोनापाठा ( अरलु ) की जड़की छाल, खम्भारीकी जड़ की छाल, पाढलकी जड़की छाल और अरणीकी जड़की छाल । इन पांच योगको वृहत् पञ्चमूल कहते हैं । यह दीपन और कफवात - नाशक है ।
शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी और बड़ी कटेरी तथा गोखरु । इन पांचों ओषधियोंके योगको लघु पञ्चमूल " कहते हैं । यह वातपित्त नाशक और वृष्य है ।
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बृहत् पश्चमूल और लघु पञ्चमूलके योगको दशमूल कहते हैं ।
दशमूल सन्निपातज्वर, खांसी, श्वास, तन्द्रा और पसलीके दर्दको नष्ट करता है । यदि इसके काथमें पीपलीका चूर्ण मिलाकर पिलाया जाय तो कण्ठग्रह और हृदग्रहमें लाभ होता है ।
जो बड़े वृक्ष हों और जिनके तने के भीतर सार भाग हो उनकी छाल और छोटे पौदांका कि जिनकी जड़ छोटी हो पञ्चाङ्ग ग्रहण करना चाहिए । इस परिभाषा के अनुसार बृहत् पञ्चमूल में उन वृक्ष की जड़ की छाल लेनी चाहिए । (२८२४) दशमूलक्काथ: ( १ ) (ग. नि. । सूतिका. ) पश्चमूलकार्य ततोहेन संगतम् । सूतिका रोगनाशाय पिवेद्वा तद्युतां सुराम् ॥ दशमूल काथमें लोहेको गरम करके बुझावें ।
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यह काथ या इसमें मदिरा मिलाकर पीनेसे सूतिका रोग (प्रसूतरोग) नष्ट होता है । (२८२५) दशमूलकाथ: ( २ ) (वं. से. । स्त्रीरो.)
दशमूलकृतं तोयं कोष्ण हविषान्वितम् । पथ्याशिन्या द्रुत नार्या पीतं तीरुजं जयेत् ॥
दशमूलके मन्दोग काथमें घृत मिलाकर पीने और पथ्य पालन करनेसे सूतिका रोग ( प्रसूतरोग) शीघ्र ही शान्त हो जाता है । (२८२६) दशमूलक्षीरयोगः
( वृं. मा. । वा. र.; वा. भ. । चि. अ. २२; भा. प्र. । वा. र. ) . दशमूलीशतं क्षारं सद्यः शुलविनाशनम् । परिषेsts front तत्कोष्णेन सर्पिषा ॥
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दशमूलसे यथाविधि दूध पकाकर पिलानेसे वातरक्त सम्बन्धी पीड़ा तुरन्त नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार वात प्रधानं वातरक्तमें मन्दोष्ण घृतसे परिषेक करनेसे भी पीड़ा शान्त होती है । (२८२७) दशमूलदुग्धप्रयोगः ( र. र. ! सूति. ) सिद्धं द्विपचाभ्यां पयः शार्करपादधृक् । सूतिकोपद्रव हन्ति पीतमात्रं न संशयः ॥
दशमूलले यथाविधि दूध पकाकर उसमें उसका चौथा भाग खांड मिलाकर पिलाने से सूतिकारोग (प्रसूतरोग) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । (२८२८) दशमूलादिकषायः (१) (ग. नि. । कर्ण. )
१- दशमूल २ तोला, दूध १६ तो, पानी ६४ तोले। सबको एकत्र मिलाकर पकायें और पानी जल जाने पर दूधको छानलें ।
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