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चूर्णप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१७५]
(३४४९) नीलोत्पलादियोगः । मकं मधुकं लो, वरुणं पारिभद्रकम् । (ग. नि. । रक्तपित्ता.)
पटोलं मेषशृङ्गी च दन्ती चित्रकमानकम् ॥ नीलोत्पलं शर्करा च पञ्चकं पदकेसरम् ।। करजं त्रिफला शक्रं भल्लातकफलानि च । तण्डुलोदकसंयुक्तं प्रशस्तं रक्तपित्तिनाम् ॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥
नीलकमल, खांड, पनाक और कमलकेसरके न्यग्रोधाधमिदं चूर्ण मधुना सह योजयेत् । समान भाग मिश्रित चूर्णको तण्डुलोदक ( चावलों
| फलत्रयश्चानुपिबेत्तेन मूत्रं विशुद्धयति ॥ के पानी ) के साथ पिलानेसे रक्तपित्त नष्ट होता है।
| एतेन विंशतिर्महा मूत्रकृच्छ्राणि यानि च । (मात्रा–३-४ माशे)
प्रशमं यान्ति योगेन पिडिका न च जायते ॥ (३४५०) नील्यादिप्रयोगः
बड़, गूलर, अश्वत्थ (पीपल वृक्ष ), अरलु, (भा. प्र. । म. ख. दन्त.)
| अमलतास, असना, आम, कैथ, जामन, प्रियाल
(चिरौंजीका वृक्ष ), अर्जुन, धव, और महुवा । नीलीवायसनवाकटुतुम्बीमूलमेकैकम् ।
इनकी छाल तथा मुलैठी, लोध, बरनेकी छाल, सर्घ्य दशनं विधृतं दशनकृमिनाशनं माहुः॥ पारिभद्र (फरहद या नीम ) की छाल, पटोल,
नीली, काकजंघा, और कड़वी तूंबी से मेढासिंगी, दन्तीमूल, चीता, मानकन्द, करअफल, किसी एक की जड़के चूर्ण को दांतमें भरनेसे उसके | हर्र, बहेड़ा, आमला, इन्द्रजौ, और शुद्ध भिलावा । कृमि नष्ट हो जाते हैं।
सबका समान भाग चूर्ण लेकर एकत्र मिलावें। (३४५१) न्यग्रोधादिचूर्णम् ।
इसे शहदके साथ चाटकर ऊपरसे त्रिफलेका (वं. से.; भा. प्र.; . मा.; ग. नि; च. द.; र. काथ पीना चाहिए । र.; यो. र. । प्रमेह; वृ. यो. त. । त. १०३;
इसके सेवनसे मूत्रदोष, बीस प्रकारके प्रमेह हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) | और मूत्र कृच्छूका नाश होता तथा प्रमेह पिडिका न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थस्योनाकारग्वधासनम्।।
नहीं निकलती। आनं कपित्थं जम्यूश्च पियालं ककुभं धवम् ॥' ( मात्रा-१ से ३ माशे तक । )
इति नकारादिचूर्णप्रकरणम् ।
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