Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन खण्ड:२ भाषा और साहित्य 080 राष्ट्रसन्त मुनिश्रीनगराजजी डी. लिट. 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The greatest distinction of Muni Shri Nagarajji's book is that communal and religious bias nowhere finds a place in it. The author is an accomplished Jaina Muni and his comprehensive outlook has made this volume extremely significant. Another outstanding characteristic of the volume is the synthesis of an impartial outlook and depth of research. Not only will the book find a place of honour among the Jaina and Buddhist communities, but every scholar who is keen to study the two streams of SRAMANA culture, will express the highest admiration for it. 1 heartily welcome this book. also await with interest the 'appearance of its remaining three volumes which I hope Muni Shri Nagarajji will publish soon. It will be a great boon for scholars. -MAUNG NU (U. NU) Ex-Primeminister, Burma 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ____ 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ : भाषा और साहित्य ] लेखक: राष्ट्रसन्स सुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० भूमिका : राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमर मुनिजी एक अवलोकन: डा0 प्रभाकर माधवे निदेशक : भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता भू० पू० अध्यक्ष : साहित्य अकादमी, नई दिल्ली सम्पादक: स्व० उपाध्याय मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' प्रकाशक : अर्हत् प्रकाशन संचालक-अ० भा० जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समाज ३६६-३६८, तोदी कॉर्नर, ३२, इजरा स्ट्रीट, कलकत्ता-७०० ००१ ____ 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: बिमलकुमार जैन साहित्य मंत्री, अर्हत् प्रकाशन संचालक-प्र० भा. जैन श्वे. तेरापंथी समाज ३६६-३६८, तोदी कॉर्नर, ३२, इजरा स्ट्रीट, कलकत्ता-७००००१ प्रथम संस्करण : दीपावली, संवत् २०३९ १५ नवम्बर १९८२ पृष्ठ संख्या ७३५ मूल्य : १००)०० रु० सज्जा एवं प्रूफ-संशोधन : मुहरसिंह जैन रामचन्द्र सारस्वत मुद्रक : मेहता फाइन आर्ट प्रस २०, बालमुकुन्द मक्कर रोड, कलकत्ता-७०० ००७ हरलालका आर्ट प्रिंटर्स ४२, पथरिया घाट स्ट्रीट, कलकत्ता-७००००६ 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGAM AUR TRIPITAK : EK ANUSILAN (A Critical Study of the Jaina and the Buddhist Canonical Literature) . VOL. II ( LANGUAGE & LITERATURE 1 By RASHTRASANT MUNISHRI NAGARAJJI D. Litt. Preface by RASHTRASANT UPADDYAY SHRI AMAR MUNIJI A review by Dr. PRABHAKAR MACHAVE Director, Bhartiya Bhasa Parishad, Calcutta Ex. Chairman, Shitya Academy, New Delhi Edited by L. UPADDYAY MUMISHRI MAHENDRAKUMARJI 'PRATHAM' A . Published by ARHAT PRAKASHAN. A. B. Jain Swetamber Terapanthi Samaj 366-368, Todi Corner, 32 Ezra Street, CALCUTTA-700 001 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by BIMAL KUMAR JAIN Secretary, Arhat Prakashan A. B. Jain Swetamber Terapanthi Samaj 366-368, Todi Corner, 32 Ezra Street, CALCUTTA-70 0001 First Edition : DIPAVALI, B. S. 2039 15, November 1982 Pages : 735 Price : Rs. 100.00 Display and proofs read by : Mohar Singh Jain Ramchandra Saraswat Printed by : Mehta Fine Art Press 20, Balmukund Macker Road, Calcutta-700 007 and Harlalka Art Printels 42 Patharia Ghatta Street Calcutta-700 006 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन' खण्ड : १ कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ । यह सर्वविदित है ही कि वह साहित्यिक जगत् में अपनी दिशा का एक कीर्तिमान बना । नाना विश्वविद्यालयों ने उसे अपने-अपने पाठ्यक्रम में रखा तथा कानपुर विश्वविद्यालय ने मुख्यतः उसी ग्रन्थ के आधार पर लेखक मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० की मानद उपाधि से सम्मानित किया । परम प्रसन्नता की बात है कि उसी गौरवपूर्ण ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के प्रकाशन का दायित्व हमारे अर्हत् प्रकाशन संस्थान को मिला । स्वर्गीय उपाध्याय मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के अभिनिष्क्रमण-काल के अगले वर्ष सन् १९७६ से ही इस प्रकाशन संस्थान का 'अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समाज' के दायित्व में उदय हुआ । तब से अब तक लगभग २० पुस्तकें हम प्रकाशित कर चुके हैं । अब इस विशाल ग्रन्थ का प्रकाशन कर हमें हर्षानुभूति हो रही है । तथारूप विशाल ग्रन्थों के प्रकाशन में मुख्यतः दो तरह की कठिनाइयां हुआ करती हैं। एक प्रर्थं की और दूसरी प्रकाशन-शुद्धि की । हमें दोनों ही कठिनाइयों से नहीं गुजरना पड़ा है । राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० जैन-जैनेतर सभी समाजों में श्रद्धास्पद हैं । एक हजार से पांच हजार तक की योजना बनाकर हम चले थे । जहां भी प्रस्ताव रखा, सफलता मिली व प्रस्तुत प्रयोजन से १० हजार तक के सहयोगी भी हमें मिले । आज मैं उन समस्त आर्थिक सहयोगियों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ । उनके सहयोग से ही वर्तमान महंगाई के युग में भी हम अपना लक्ष्य पूरा कर पा रहे हैं । संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी, अंग्रेजी आदि नाना भाषात्रों के सन्दर्भों से भरे-पूरे ग्रन्थ के प्रूफ-संशोधन का कार्य भी कठिनतर था, पर हमारे अभ्यस्त एवं अनुभवी कार्यकर्ता श्री मुहरसिंह जैन व श्री रामचन्द्र सारस्वत ने उस दुरूह कार्य को भी पूर्ण जागरूकता से सहज कर बताया । मुद्रण-व्यवस्था की दृष्टि से हरलालका आर्ट प्रिंटर्स प्रौर मेहता फाइन आर्ट प्रेस; इन दो प्रसों का सहारा हमें लेना पड़ा । कलकत्ता के विद्युत् संकट के कारण विलम्ब अवश्य हुआ, पर श्री शंकरलालजी हरलालका एवं माननीय श्री मदनकुमारजी मेहता का ग्रन्थ को यथोचित ढंग से प्रकाशित करने में उल्लेखनीय योगदान रहा । श्री मेहता जी 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं विद्वान् एवं मुद्रण-विशेषज्ञ हैं ही। ग्रन्थ के शीघ्र प्रकाशन की दृष्टि से प्रापने कलकत्ता एवं अजमेर के अपनी दोनों प्रेसों का उपयोग किया। मैं संस्था की पोर से उक्त दोनों महानुभावों के प्रति प्राभार व्यक्त करता हूं। माशा है, समीक्षक पाठक बन्धु हमारे श्रम का यथोचित अंकन करेंगे व हमें प्रोत्साहित करेंगे। दीपावली, १५ नवम्बर १९८२ कलकत्ता -बिमलकुमार जैन साहित्य मंत्री-अहत् प्रकाशन ____ 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका वाग्-देवता के वरद्-पुत्र जिस किसी भी गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म विषय को अपने चिन्तन को सूक्ष्मता एवं तीक्षणता से स्पर्श कर लेते हैं, वह विद्वानों को तो क्या, साधारण जिज्ञासुओं तक के लिए भी हस्तामलवत् स्पष्ट हो जाता है। सूर्य-किरणों से जैसे कि तमसाच्छन्न वस्तु-जगत् सहसा आलोकित हो उठता है, ठीक वैसे ही सद्सद् विवेकवती प्रतिभा के धनी सरस्वती पुत्रों की चिन्तन-प्रभा से दुरूह से दुरूह प्रतिपाद्य भी सहज-सरल एवं सुबोधता से प्रतिभासित हो जाता है । स्वनामधन्य मनीषी मुनिश्री नगराजजी ऐसे ही वाग्-देवता के एक यशस्वी वरद्-पुत्र हैं। उक्त कथन में अतिशयोक्ति जैसी कोई बात नहीं है। यह मैं अपने प्रिय स्नेही होने के नाते ही नहीं कह रहा हूँ। उनका तलस्पर्शी अध्ययन, चिन्तन एवं लेखन ही ऐसा है कि वह किसी भी सहृदय उदार मनीषी को ऐसा कहने के लिए सहज ही मुखर कर देता है। ___ मुनिश्री अपने प्रतिपाद्य विषय को केवल प्रतिपादन के लिए हो प्रतिपादित नहीं करते हैं, केवल लिखने के लिए ही नहीं लिखते हैं। वे जैसा कि उनका नाम 'नगराज' ( मेरु ) है। "यादव बुद्धि बलोदयम्' के शक्ति सूत्र के अनुसार काफी गहराई और साथ ही काफी ऊंचाई तक अपने अभीष्ट प्रतिपाद्य को प्रथम आत्मसात् करते हैं, तदनन्तर उसके मर्म को उद्घाटित करते हैं। उनका अध्ययन जैसा कि विशाल, गम्भीर एवं बहुमुखी है, वैसा ही उसको समुभासित कर देने वाला उनका चिन्तन-मनन भी है। यह मणि-कांचन योग ही है, जो अपनी पूर्ण आभा से व्यक्ति के भास्वर व्यक्तित्व को जन-मन में प्रकाशमान बनाता है ; प्रतएव मुनिश्री स्पष्ट ही महाकवि मुरारी के शब्दों में शान-सागर के आपाताल-निमग्न पीवरतनु मन्थाचल हैं, छलांग लगाकर ऊपर ही ऊपर उड़न गति से सागर को पार करने वाले रामायण युग के वीर-वानर नहीं "अब्धिलवित एव वानर भटः, वित्वस्य गम्भीरताम् । पापाताल-निमग्न-पीवरतनुर्, जानाति मन्थाचलः ॥" बहुत वर्ष पहले मुनिश्री का 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ देखने में प्राया था। ग्रन्थ मुद्रण में जितना महाकाय था, उतना ही वह अपने प्रतिपाद्य विषय में भी विराट् था। यह ग्रन्थ विद्वज्जगत् में काफी लोकप्रिय रहा है। फल-स्वरूप उन्हें 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पर कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा 'डी० लिट्०' की मानद उपाधि भी प्राप्त हुई है । ग्रन्थ वस्तुतः ही श्रमरण-संस्कृति की दो प्रमुख धाराम्रों - जैन श्रौर बौद्ध के संगम के रूप में एक पाण्डित्यपूर्ण' गम्भीर तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करता है । उक्त ग्रन्थ के द्वारा तत्कालीन प्रतीत इतिहास के अनेक प्रवृत्त तथ्यों को तटस्थ ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रकार उद्घाटित किया गया है, जिससे पंडित सुखलालजी जैसे अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान् भी मुनिश्री के प्रति प्रशंसामुखर हुए हैं । र अर्हतु प्रकाशन, कलकत्ता द्वारा प्रकाश्यमान 'भाषा और साहित्य' नामक प्रस्तुत महाकाय ग्रन्थ भी उपरि निर्दिष्ट अनुशीलन ग्रन्थ के अनुरूप है । अतः यह उसी के दूसरे खण्ड के रूप में प्रकाशित भी हो रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थ में भी मुनिश्री की विद्वत्ता एवं प्रतिभा के चमत्कृतिपूर्ण दर्शन होते हैं। यहां भी मुनिश्री की तुलनात्मक एवं गवेषणात्मक शैली विद्वज्जगत् की ऐतिहासिक मनीषा को प्राकृष्ट कर लेती है। मुनिश्री वयसा वृद्ध हो गये हैं, परन्तु, लगता है, उनकी प्रतिभा चिर यौवना है । पहले की तरह ही, अपितु, पहले से ही कहीं अधिक वह दीप्तिमती है ! ग्रन्थ की विस्तृत विषय सूची ही अपने में एक पुस्तक का रूप लिए हुए है । भाषा विज्ञान की भारत, यूनान यूरोप आदि शाखाओं के पुरातन काल से लेकर प्राधुनिक काल तक की विकास-यात्रा का तलस्पर्शी विश्लेषण ऐसो सरल, सुबोध शैली में उपस्थित किया है, जिससे विद्वान् तो लाभान्वित होंगे ही, साधारण शिक्षित जिज्ञासु जन यथामति श्रात्मतोष प्राप्त कर सकेंगे । साहित्य की विकास-यात्रा का विश्वतोमुखी बहु प्रायामी लेखन काफी दूर तक चिन्तन क्षितिजों का स्पर्श करता है । वैदिक वाङ्मय, वैदिक संस्कृत और उसका प्राकृत के साय सादृश्य — जैन वाङमय, प्राकृत और उनके नाना प्रकार - बौद्ध साहित्य, पालि और उसकी विकास-यात्रा आदि का ज्ञान-वर्द्धक, साथ ही रोचक वर्णन है, जिससे कि मुनिश्री अध्येताओं के द्वारा सहसा साधुवादार्द्ध हो जाते 1 लिपि - विज्ञान की चर्चा में तो मुनिश्री ने कमाल ही कर दिया है । पुरातन ब्राह्मी लिपि और उससे समुद्भूत विभिन्न लिपियों का विकास - खरोष्ठी लिपि पौर उसकी व्युत्पत्ति - जैन और बौद्ध वाङ्मय में उसके प्रयोग - अशोक और उसके पूर्ववर्ती शिलालेख आदि का इतना विस्तृत, गम्भीर एवं प्रमाण पुरस्सर विवेचन है कि उसमें अध्येता का चिन्तनशील मन गहरा और गहरा डूबता ही जाता है । वह लेखन ही क्या, जो स्वयं भी उथला हो, साथ ही पाठक के मन को भी उथला ही बनाये रखे । ग्रन्थ के प्रतिपाद्य को मैं यहां विवेचित नहीं करना चाहता । वह तो पाठक को ग्रन्थ में उपलब्ध ही है । पाठक की जिज्ञासा को प्रारम्भ के पुरोवचन प्रादि में रोके 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखना कुछ अच्छा नहीं है ; प्रतः मैं जिज्ञासु सज्जनों से सानुरोध निवेदन करूंगा कि वे अवश्य ही जरा लम्बा समय निकाल कर मुनिश्री के प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्ययन की दृष्टि से साद्यन्त अवलोकन करें। भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में इतना प्रमाण पुरस्सर विस्तृत विवेचन अन्यत्र और वह भी राष्ट्रभाषा हिन्दी में कम ही उपलब्ध है। ग्रन्थ की कुछ अवधारणाए ऐसी भी हो सकती हैं, जो तर्कशील उच्चतर मनीषियों को सम्भवतः मान्य न हों और यह कोई जरूरी भी नहीं कि सभी मान्यताएं सभी को मान्य हों। परन्तु, इतना अवश्य है कि प्रतिपाद्य की विवेचना में ऐसा कुछ है, जो प्रबुद्ध पाठक को सोचने, समझने और विचारने के लिए बाध्य करता है। और लेखक की सफलता का यही बीज-मन्त्र है, जो मुनिश्री के लेखन में स्पष्टतः परिलक्षित है। किमधिकम् ! मै मुनिश्री को हृदय से सधन्यवाद, साधुवाद देता हूँ कि देर से ही सही, उन्होंने 'भाषा और साहित्य' जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक महान् ग्रन्थ साहित्य जगत् को अर्पित किया। यह अपने में एक ऐसी ऐतिहासिक देन है, जो भविष्य की प्रबुद्ध मनीषा को वैज्ञानिक दृष्टि से बिवेचित सत्यार्थ से प्रकाशमान करती रहेगी। वीरायतन, राजगृह ३०-७-८२ -उपाध्याय अमर मुनि ____ 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अवलोकन डाक्टर मुनिश्री नगराजजी जैन दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। उनकी 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' अपने ढंग की एकमात्र पुस्तक है। उसकी समीक्षा करने का सौभाग्य मुझे मिला था। बारह वर्ष बाद उन्होंने 'विश्व-भाषा-प्रवाह' नामक इस वृहद् ग्रन्थ की रचना की है। उनकी अत्यन्त व्यापक और उदार दृष्टि के कारण यह एक तरह से भारतीय भाषा-विज्ञान के इतिहास और प्रगति का संक्षिप्त विश्वकोश ही बन गया है। इसमें प्रारम्भिक खण्ड भाषा के दर्शन का है। यास्क, पाणिनि, कात्यायन, पतंजलि के साथ-साथ मुनिश्री ने ग्रीक, लैटिन,, हिब्रू मान्यताओं का साक्ष्य प्रस्तुत किया है। वैदिक, बौद्ध और जैन विचार-धाराएं बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत की हैं। उनकी विवेचना तर्क-संगत और प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर ही की गई हैं; अत: इस सारी सामग्री में मतभेद का कहीं प्रश्न ही नहीं उठता। मुनिश्री ने सारी संभाव्य खण्डनमण्डनात्मक बातें स्वयं सामने रख दी हैं। एक व्यक्ति के इस अपार परिश्रम और दीर्घ अध्यवसाय को देखकर मैं विस्मित हो जाता हूं। एकान्त और एकाग्र सामग्री-चयन का ही यह प्रतिफल है। भाषा के प्रति विभिन्न धर्म और मतवादों का क्या प्राग्रह रहा है, यह मुनिश्री की अगली विश्लेषणापरक मीमांसा का विषय रहा है। यद्यपि द्राविड़ भाषाओं के वैयाकरणों का मत यहां छटा-सा लगता है, फिर भी भारतीय आर्य भाषाओं का सम्यक् विचार इस खण्ड में है। प्राचीन भाषाओं के भौगोलिक और ऐतिह्य सांस्कृतिक प्रवास पर विद्वानों में पर्याप्त मत-मतान्तर हैं-आर्य भारत में ही थे या बाहर से आये—यह एक ऐसा ही विषय है। बहुत कुछ हमारी धारणाएं पश्चिम के विद्वानों के काल-निर्णय निश्चित करने और उनके अपने पूर्वाग्रह के कारण उधार ली हुई हैं और उनसे उबरने के लिए हमें अपने मूल उत्सों की पोर जाना चाहिए। आज भी दुर्भाग्य से, भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों में भाषा विज्ञान विभागों के अध्यक्ष प्रादि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, रूस से ही अपना प्रकाश लेते हैं। बहुत कम विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय या एशियाई भाषामों के अधिकारी विद्वान् हैं। पालि-प्राकृत, अपभ्रश के जानकर तो और भी कम हैं। 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी स्थिति में मुनिश्री के ग्रन्थ में तीसरे और चौथे, पांचवें और छठे अध्यायों की सामग्री बहुत मूल्यवान् है। भारत में इन विषयों के गिने-चुने अधिकारी विद्वान् थे और वे अब नहीं रहे—पं० सुखलालजी, डा. गुणे राहुल सांकृत्यायन, प्रो० उपाध्ये, वासुदेवशरण अग्रवाल, डा. सुनीतिकुमार चटर्जी, प्रो० टी० पी० मोनाक्षीसुन्दरम् पिल्लै । जो जीवित विद्वान् हैं, वे किसी एक शाखा के विशेषज्ञ मात्र हैं। सर्वकार दृष्टि वाले, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पालि-प्राकृत के विशिष्ट ज्ञाता सारे देश में एक दर्जन से ऊपर नहीं होंगे। मुनिश्री उनमें शीर्ष-स्थानीय हैं। अधिकांश विवेचन जिसे पश्चिमीय शब्दावली में 'डिस्क्रिप्टिव' और 'हिस्टारिकल लिंग्विस्टिक्स' कहा जाता है, उसी कोटि का है। · सातवें अध्याय से मुनिश्री लिपियों के विकास की ओर मुड़ गये हैं। गौरीशंकर हीराचन्द अोझा और सी० शिवराममूर्ति के कार्य से यह प्रागे नहीं बढ़ पाया है। परन्तु इस वृहत् ग्रन्थ का सर्वाधिक मौलिक और स्थायी महत्व का अंश है अध्याय पाठवां-- "प्रार्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और पागम वाङमय" पर मुनिश्री ने दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं की सापेक्ष और तुलनात्मक विवेचना की है। यहां ध्वनिविज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्य-विज्ञान तथा विवेचन-शास्त्र की समूचे सम्मतित अनुभव और जानकारी का उत्तम उपयोग किया गया है। कई नई-नई बातें इस अध्याय को पढ़कर मुझे जानने को मिलीं। प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरण डा० पिशेल ने 'उत्तराध्ययन' तथा 'दशवकालिक' को प्राकृत के भाषाशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया था। मुनिश्री ने उसी आलोक में और भी कई स्थापनाएं उपस्थित की हैं। __ बस्तुत: भाषा-विज्ञान केवल शब्द-चर्चा या वाक्य-शवच्छेदन नहीं है । वह व्याकरण से अधिक व्यवहार-करण है। 'शास्त्राद् रूढिर्बलीयसी'। एक-एक शब्द या रचना के पोछे एक-एक पूरी सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक-ऐतिहासिक पीठिका. होती है। उसकी गवेषणा करने से वह समझ में आता है कि कोई भी विचार अपने आप में एकाकी, अप्रभावित, अलौकिक नहीं होता। वह मानव-निर्मित, मानव-पोषित मानव द्वारा सचेतन या अचेतन रूप में परिवर्तित होता रहता है। मुनिश्री प्राचीन तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समष्टि अध्येता हैं; अत: उनके इस बृहद् ग्रन्थ का विचार-वैभव हिन्दी के लिए एक अनुपम देन है। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी में जो इस सम्बन्ध में विचार उपलब्ध हैं, वह केवल हिन्दी भाषा-भाषी के लिए एक बन्द पुस्तक है। यहां तक कि भारत की विभिन्न भाषाओं में इन विषयों पर जो लिखा गया है, वह भी पूरी तरह जानने की बड़ी प्रावश्यकता है। तभी हम कोई नये निष्कर्ष निकाल सकेंगे। ___ 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरणार्थ, दरद भाषा-समूह को लें। कश्मीर में कश्मीरी भाषा ( 'क' 'शीर') को लेकर दो विचारधाराएं हैं। पैशाची प्राकृत और संस्कृत के प्रभाव के साथ-साथ प्राचीन कश्मीरी पर एक अोर से पहलवी, पश्तो और पुरानी फारसी का, वैसे ही दूसरी पोर तिब्बती-मंगोल भाषाओं का भी प्रभाव है। कई ध्वनियां और शब्द मध्य-पूर्व के देशों से ज्यों-के-त्यों लिये गये हैं। मुनिश्री नगराजजी का मैं बहुत कृतज्ञ हूं कि उनकी इस महान कृति का मैं परिचय पा सका। यह ग्रन्थ एक संग्रहणीय और सहज पठनीय कृति बन गई है। इससे आधुनिक भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन-अध्यापन में बहुत सहायता ले सकेंगे। मैं मुनिजी के इस ग्रन्थ की महत्ता इन्हीं शब्दों में कहूंगा कि जहां-जहां भारतीय भाषा विज्ञान के ग्रन्थ हों, इस ग्रन्थ जैसी पुस्तक से उन ग्रन्थालयों की शोभा बढ़ेगी। कलकत्ता -प्रभाकर माचवे ८-११-१९८२ ____ 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का विषय था-इतिहास और परम्परा। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड का विषय है- भाषा और साहित्य। प्रागमों की भाषा प्राकृत और त्रिपिटकों की भाषा पालि का वर्तमान भाषा-विज्ञान में क्या स्थान है, वे किस भाषा-परिवार से सम्बद्ध हैं, यह ग्रन्थ की प्रादि चर्चा का विषय है। वर्तमान भाषा-विज्ञान बहुत विकसित हो चला है व हो रहा है। उसे समझे बिना हम प्राकृत व पालि के सही स्वरूप को समझ पा रहे हैं, यह हमारा भ्रम ही हो सकता है। इसी हेतु से वर्तमान भाषा-विज्ञान को भी पर्याप्त विस्तार से यहां लिख देना पड़ा है जो कि जैनसाहित्य में सम्भवतः प्रथम बार ही प्रस्तुत हुआ होगा। आज प्रत्येक बात व प्रत्येक वस्तु अन्तर्राष्ट्रीय महत्व पा सकती है वश कि उसे विश्वजनीन मान-दण्डों के सन्दर्भ से प्रस्तुत किया जा सके। प्राकृत व पालि भाषाएं केवल धर्म-शास्त्रों के प्रायाम तक ही सीमित रखी जाती हैं तो उनका दायरा बहुत छोटा रह जाता है, केवल जैनों व बौद्धों तक । भाषा शास्त्रीय सन्दर्भ पाकर वे विश्वमान्य भाषा परिवारों से सम्बद्ध हो जाती हैं अर्थात् वे सम्प्रदाय के पिंजरे से निकल कर अपने अस्तित्व बोध का मुक्त-गगन पा लेती हैं। आर्य भाषाओं का विवरण लिखते संस्कृत भी अविनाभावि रूप से प्रस्तुत हो जाती है। उस पर भी मैंने भाषा शास्त्रीय विचार कर दिया है। आगम व त्रिपिटक साहित्य की तरह वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि का भी दिग्दर्शन करा दिया है। प्रागम अभिधा से मैंने समग्र पैतालीस प्रागम ही विवेचित किये हैं। बत्तीस व पैतालीस के साम्प्रदायिक भेद को नगण्य मानकर उपेक्षित ही किया है। दिगम्बर-शास्त्र पागम नहीं कहलाते हैं, पर उनका सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से ही है तथा आगमवत् ही उनकी गुरुता सम्बन्धित परम्परा में मानी गई है; अत: उन्हें भी मैंने अपने विवेचन में समग्रतः ले लिया है। जैन व बौद्ध, दिगम्बर व श्वेताम्बर उक्त भेद-प्रभेदों की सतह से ऊपर रहकर ही मीमांसा करने का मेरा लक्ष्य रहा है। मैं अपने अभिप्रेत में कहां तक सफल रहा है, यह तो विज्ञ पाठकों की अनुभूति का विषय ही हो सकता है। जैन या बौद्ध, श्वेताम्बर या दिगम्बर सभी प्रणेता प्राचार्यों के प्रति मेरे मन में समान ही श्रद्धा-भाव रहा है। अतः तथ्य ____ 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादन में मानसिक उच्चावचता मेरे कहीं वाधक नहीं बनी, ऐसी मेरी अपनी अनुभूति है। भाषा एवं लिपि का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। अतः एक पूरा अध्याय लिपि-कला के उद्भव और विकास पर ही लिखा गया है। शिलालेखों व स्तम्भ-लेखों की प्राकृत पर विचार करते एक स्वतंत्र अध्याय में शिलालेखों व स्तम्भों का भी पूरा लेखा-जोखा दे दिया गया है । भद्रबाहु प्रथम, द्वितीय, चन्द्रगुप्त प्रथम, द्वितीय, यापनीय संघ, श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा के स्फुट धारणा-भेद आदि नाना विषय आपातत: चचित कर दिये गये हैं ताकि विवाद-संकुल बातें भी समीक्षात्मक रूप से स्पष्ट हो सकें। कुल मिलाकर मेरा यही अभिप्राय रहा है कि ग्रन्थ विद्वद्-भोग्य होने के साथ जन-भोग्य भी बन सके। दुरूह विषय भी पाठकों के सरलता व सरसता से समझ में आ सके । प्रस्तुत दूसरे खण्ड का लेखन वि० संवत् २०३० के मेरे चूरू चातुर्मास में हुआ। उस समय मेरे अनन्य सहयोगी मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' व 'द्वितीय' दोनों में से कोई भी मेरे पास नहीं थे। 'प्रथम' कलकत्ता में थे तथा द्वितीय' प्राचार्य श्री के साथ दिल्ली में । आवश्यकता प्राविष्कार की जननी होती हैं। संयोगतः साहित्य प्रेमी व समाजसेवी श्री सोहनलालजी हीरावत ने डा० छगनलाल शास्त्री को आमंत्रित कर लिया। वे २-३ महीने मेरे पास रहे। उनका श्लाघनीय योगदान मेरे साहित्य-अनुसन्धान कार्य में रहा । कुल २-३ वर्षों में मेरा लेखन-कार्य सम्पन्न हो गया। सम्पादन की दृस्टि से सारी लेख-सामग्री मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के पास क्रमश: कलकत्ता व बनारस जाती रही। मेरे अभिनिष्क्रिमण से पूर्व ही सम्पादन कार्य भी लगभग सम्पन्न हो गया। ग्रन्थ का प्रथम खण्ड वि० संवत् २०२६ में प्रकाशित हो गया था। दूसरा खण्ड अब वि० संवत् २०३९ में प्रकाशित हो रहा है। इतने लम्वे अन्तराल के अनेक कारण हैं । वि० संवत् २०२७ में हम लोग दिल्ली प्रा गये। वहां लगातार ३ वर्ष भगवान् महावीर की २५०० वीं निर्वाण जयन्ती, रायपुर व चुरू के अग्नि-परीक्षा-प्रकरण आदि कार्यों में इतने व्यस्त रहे कि दूसरा खण्ड प्रारम्भ करने की बात मैं सोच ही नहीं सकता था। तदनन्तर चुरू चातुर्मास तथा उसके अगले वर्ष शादुलपुर चातुर्मास में लेखन-कार्य प्रायशः सम्पन्न हो गया। मेरे जीवन में लगभग यह क्रम रहा है-राजधानियों के प्रवास में जन-सम्पर्क व जन-हित और गांवों व कस्बों के प्रवास में स्वान्तः सुखाय साहित्य-साधना। इसी वर्ष संवत् २०३१ में मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' का बनारस में अभिनिष्क्रमण हो चुका था। कई वर्षों से चला आ रहा सामाजिक संघर्ष पूर्णतः ज्वार पर प्रा गया। सारी स्थितियां संदिग्ध हो गई। उस संदिग्ध स्थिति में ग्रन्थ का प्रकाशन संभव भी नहीं था और मैं चाहता भी नहीं था। उक्त घटना-प्रसंग के दो वर्ष पश्चातू ही मेरा 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनिष्क्रमण हो गया। कलकत्ता तक की सुदूर यात्रा हो गई। कलकत्ता में संवत् २०३५ में मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' की विद्यमानता में ही अर्हत् प्रकाशन की ओर से ग्रन्थ का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। ४ वर्ष का प्रलम्ब समय जो प्रकाशन-कार्य में लगा, उसका मुख्य हेतु तो कलकत्ता का विद्युत्-संकट ही रहा है। अस्तु, पाठकों का चिरप्रतीक्षित ग्रन्थ अब उनके हाथों में आ रहा है, यह सन्तोष का विषय है। कितना सुन्दर होता, स्व० उपाध्याय मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' की विद्यमानता में ही यह प्रकाशित होकर सामने आ पाता। विश्रु त् विद्वान् उपाध्यायप्रवर श्री अमर मुनिजी ने प्रस्तुत खण्ड पर भूमिका लिखकर तथा विख्यात भाषा शास्त्री डा. प्रभाकर माचवे ने 'एक अवलोकन' लिख कर ग्रन्थ को व मुझे गरिमा प्रदान की है, एतदर्थ मैं आभारी हूँ। मैं उन समस्त लेखकों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिनकी कृतियों को मैंने अपने लेखन में संदर्भित किया है। ____ लोक-संग्राहक प्रवृत्तियों से मैंने स्वयं को निवृत्त प्राय: कर लिया है तथा अन्यान्य अनिवार्य अपेक्षाओं को मेरे परम सहयोगी मुनि मानमलजी एवं मुनि मणिकुमारजी निभा लेते हैं; अत: 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के पूर्व निर्धारित तृतीय खण्ड का लेखन कार्य भी शीघ्र सम्पन्न हो सकेगा, ऐसी आशा है। -सुनि नगराज लुहारीवाला भवन कलकत्ता दीपावली वि० सं० २०३९ १५ नवम्बर १९८२ ____ 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम (The Flow of World Languages) ३ बिभिन्न भाषाओं की आश्चर्यजनक निकटता भाषा-विज्ञान की शाखाएं ध्वनि-विज्ञान (Phonology) रूप-विज्ञान (Marphology) अर्थ-विज्ञान (Semantics) वाक्य-विज्ञान (Syntax) निर्वचन-शास्त्र [व्युत्पत्ति-विज्ञान] (Etymology) वैयाकरणों का अभिमत निरुक्तकार यास्क महान् वैयाकरण पाणिनि पालोचक कात्यायन महाभाष्यकार पतंजलि व्याकरण का उत्तरवर्ती स्रोत ~ ~ ~ व्याकरणेतर शास्त्रों में भाषा-तत्व यूनान व यूरोप में भाषा-विश्लेषण सुकरात का इगित प्लेटो : भाषा-तत्व अरस्तू का काव्य शास्त्र ग्रीक, लैटिन और हिब ~ ~ निष्कर्ष ~ ~ ~ १८ भाषा-विज्ञान की आधुनिक परम्परा पाश्चात्य विद्वान् आदि मान्यताएं वैदिक मान्यता यास्क का सूक्ष्म चिन्तन जैन मान्यता ~ ____ 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २५ प्राकृत-विद्वानों का अभिमत रोमन कैथोलिक मान्यता इस्लाम का अभिमत मानव की मूल भाषा : कतिपय प्रयोग प्रयोगों का फलित मूलभूत सिद्धान्त निर्णय-सिद्धान्त धातु-सिद्धान्त प्रो० हेस, स्टाइन्थाल और मैक्समूलर यास्क द्वारा प्रख्यात-चर्चा अनुकरण-सिद्धान्त अनुकरणन-सिद्धान्त मनोभावाभिव्यंजकतावाद इगित-सिद्धान्त जॉनसन का निष्कर्ष भाव-संकेत : इंगित सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना भाव-संकेतों का अभिप्राय धातुओं के आदि अक्षर : विशेष अर्थ विसंगति स्वीट का समन्वयात्मक विचार शब्द : अर्थ : यहच्छा : प्रतीक सार : समीक्षा भाषा की उत्पत्ति: अवलम्बन : निराशा खोज पर प्रतिबन्ध : विचित्र निर्णय गवेषणा नहीं रुकी निराशा क्यों ? वाक्-प्रस्फुटन परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी स्वर-यन्त्र का आवयविक स्वरूप और प्रक्रिया शब्द के सूक्ष्मतम प्रभौतिक कलेवर की सृष्टि d w ४९ 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ५० ५१ ५२ जैन दर्शन की दृष्टि से स्थूल और सूक्ष्म की भेद-रेखा उपसंहति भाषाओं का आकृतिमुलक वर्गीकरण योगात्मक भाषाए प्रयोगात्मक भाषाए योगात्मक भाषाओं के भेदोपभेद अश्लिष्ट योगात्मक भाषाए श्लिष्ट योगात्मक भाषाए प्राकृति के आधार पर भाषानों का परिवार ५२ ५५ भौगोलिक आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण ५८ B a . ६ سے اس भाषा-परिवार पारिवारिक सादृश्य के मुख्य आधार भारोपीय परिवार भारोपीय परिवार के विभिन्न नाम भारोपीय का प्राधार भारत-हित्ती का तात्पर्य विरोस : एक नई कल्पना आर्यों का मूल स्थान प्रादि स्थान भारत : एक अभिमत समीक्षा मूल स्थान भारत से बाहर समीक्षा : स्थापना मूल स्थान से अभियान दो भागों में विभाजन ईरान में आवास : भाषा में परिवर्तन भारोपीय परिवार की भारत-ईरानी शाखा अवेस्ती, प्राचीन फारसी पहलवी का उद्गम पहलवी के दो रूप : हुज वारेश, पाजंद ६९ ७३ ७४ ७४ ____ 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ विषयानुक्रम ७४ ७५ ७५ आधुनिक फारसी : परिष्कर या विकार पश्तो या अफगानी ईरानी की दरद शाखा काश्मीरी भाषा काश्मीरी पर संस्कृत-प्रभाव का कारण काश्मीरी में साहित्य-रचना काश्मीरी में उर्दू क्या प्रार्य एक साथ आये ? आर्य एक भाषा लिए आये ऋचाओं के नाद ऋग्वेद और अवेस्ता की भाषा का सादृश्य भारोपीय की मूल ध्वनियां वैदिक संस्कृत की ध्वनियां : विशेषताए मूर्धन्य व्यंजन : एक अनुपम विशेषता २. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं (The Anciant Indian Arya Languages) w our ८७-१२२ भारतीय आर्य भाषानों का काल-क्रम वैदिक वाङमय ऋग्वेद .०० यजुर्वेद ९१ सामवेद अथर्ववेद ९ ० ० ब्राह्मण-ग्रन्थ आरण्यक उपनिषद् वेद-मंत्रों के पाठ-क्रम ० १०० उच्चारण-स्वर वैदिक भाषा के विकास-स्तर लौकिक संस्कृत १०२ १०२ ____ 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १११ वैदिक और लौकिक संस्कृत १०५ कुछ भेद-रेखाए मध्यवर्ती रूप क्रिया-प्रधान शैली १०६ नाम-प्रधान शैली संस्कृत का विशाल वाङमय क्या संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ? ३. मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं ( Middle Indo-ArayanL anguages ) १२३-१५७ प्राकृत १२५ प्रथम युग (ख्रिस्त पूर्व ४०० ई० से ख्रिस्त के बाद १०० ई०) १३० मध्य युग (ख्रिस्तीय १०० से ५०० ) १३० शेष युग ( ख्रिस्तीय ५०० से १००० वर्ष ) प्राकृत के नाम-नामान्तर १३१ प्राकृत का उत्पत्ति-स्रोत १३१ वैयाकरणों की मान्यताएं १३१ प्राचार्य सिद्धषि का अभिमत देश्य शब्दों का उद्गम देश भाषा : व्यापकता १४३ वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत का सादृश्य प्राकृत के प्रकार १५० प्राकृतों का विकास : विस्तार : पृष्ठभूमि ४. पालि-भाषा और पिटक-वाङमय ( Pali Language and The Buddhist Canonical Literature ) १५६-२२४ पालि शब्द का इतिहास भिक्षु जगदीश काश्यप १६३ भिक्षु सिद्धार्थ डा० मैक्सवेलसेर भण्डारकर और वाकेटनागल राजवाड़े १५२ १६१ १६५ १६६ ____ 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विषयानुक्रम प्रालेय : प्रालेयक : पालि १६८ १६९ १७० समीक्षा पालि की आधारभूत भाषा लंका की परम्परा ब्रह्मदेश की परम्परा प्रो० रायस डेविड्स उज्जयिनी भाषा और पालि पालि और विन्ध्य प्रदेश की भाषा स्टैन कोनो कलिंग-भाषा और पालि ई० मूलर समीक्षा मागधी की मुख्य विशेषताए. अर्द्धमागधी और पालि बुद्ध-युग : पारिपाश्विक स्थितियां उपसंहार पालि-ध्वनियों की विशेषता १७२ १७२ १७२ १७७ १८२ १८३ १८३ ध्वनि-परिवर्तन १८४ १८७ १८८ १९० १९२ व्यंजन-परिवर्तन पालि-वाङमय त्रिपिटक का संकलन संगान का प्राशय प्रथम संगीति प्रथम संगीति की ऐतिहासिकता बुद्धघोष का अभिमत दूसरी संगीति नये बुद्ध-वचनों की सृष्टि तीसरी संगीति अनुल्लेख का कारण संगीति के निर्णय १९५ १९८ १९९ २०० ____ 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २०. २०० २०१ २०२ २०३ अभिधम्म : परम्परा तृतीय संगीति का एक महत्वपूर्ण फलित त्रिपिटक का लेखन आधुनिक कालीन संगीतियां निष्कर्ष त्रिपिटक वाङमय : संक्षिप्त परिचय सुत्त-पिटक सुत्त-पिटक : वरिणत विषय विनय-पिटक अभिधम्म-पिटक २०६ २०६ २०७ अभिधम्म-रचना २१४ २१६ २९७ २१९ २२० २२१ २२३ २२५-२६२ २२७ २२७ अभिधम्म का स्थान पिटक वाङ्मय का एक अन्य वर्गीकरण बुद्ध-वचन का नवांगी वर्गीकरण बहुविध विभाजन : परम्परा ५. शिलालेखी प्राकृत ( Inscriptional Prakritas ) [अशोक के शिलालेख व उनकी भाषा ] शिलालेखों की भाषा : महत्व शिलालेखों का वर्गीकरण १. दो लघु शिलालेख २. भाब्र शिलालेख ३. चतुर्दश शिलालेख ४. दो कलिंग-शिलालेख ५. तीन गुहा-लेख ६. तराई के दो स्तम्भ-लेख ७. सप्त स्तम्भ-लेख ८. लघु स्तम्भ-लेख शिलालेखों की भाषा : तुलनात्मक विवेचन अभिलेखों की भाषा : कुछ सामान्य तथ्य पूर्व के अभिलेखों में तालव्य श क्यों नहीं ? २२८ २२८ २२८ २२९ २२९ २३० २३० २३१ २३३ २४३ २४९ ____ 2010_05 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विषयानुक्रम २६० २६१ विविध नाम अन्य प्राकृत-अभिलेख सिंहल के प्राकृत-अभिलेख भाषा का झुकाव ६. संक्रान्ति-काल की प्राकृतें ( Prakritas of Transional Period ) भारत से बाहर प्राप्त प्राकृत-लेख संक्रान्ति-काल एक दूसरा विभाजन अश्वघोष के नाटक : प्राकृतों का प्रयोग तीन प्राचीन प्राकृतें प्राचीन मागधी प्राचीन शौरसेनी प्राचीन अर्द्धमागधी २६३-२७२ + २६५ २६५ २६५ २६६ २६६ २६६ अस्पष्टता या अल्प-स्पष्टता २६७ २६७ २६८ २६८ २६९ २७३-३१० २७५ प्राकृत ( खरोष्ठी ) धम्मपद निय प्राकृत निय प्राकृत की स्वरूपात्मक विशेषताए समीक्षा : तुलना ७. भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास ( The Origin of Script and its Development in India) प्राकृत-अभिलेख : लिपियां ब्राह्मी लिपि वैदिक अभिमत ललितविस्तर में चर्चा जैन मान्यता ऋषम द्वारा लिपि-शिक्षण लिपि का उद्भव : कल्पना आदि मानव का एक अबूझ उपक्रम २७५ २७६ २७७ २७७ २७९ २७९ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २८१ २८१ व्यवहार-निर्वाह और भाव-स्थायित्व एक प्राधार चित्र-लिपि अभिव्यंजना परिवर्तन भी पूर्ण सक्षम नहीं अकलात्मकता और चित्र : एक दुविधा प्रतीक-लिपि भाव-ध्वनिमूलक लिपि ध्वनिमूलक-लिपि ध्वनिमूलक-लिपि के भेद विश्व की लिपियां : दो वर्ग ब्राह्मी की उत्पत्ति: मत-मतान्तर यूनानी से ब्राह्मी फू च विद्वान् कुपेटी उत्तरी सेमेटिक लिपि फिनिशियन और ब्राह्मी नई स्थापना MAY MY X We २८६ २८६ २८७ २८७ २८८ दक्षिणी समेटिक और ब्राह्मी २८८ २४८ २८९ २८९ २९० २९० डा० राइस डेविड्स भारत : ब्राह्मी का उत्पत्ति-स्थान डा० चटर्जी का विचार भारत में लिपि-कला ऋग्वेद प्रभृति वेद उपनिषद् एवं ब्राह्मण-ग्रन्थ तत्परक इतर वाङमय बौद्ध वाङमय में अक्खटिका विनय पिटक और जातक ग्रन्थ जैन वाङमय में चीनी विश्वकोश २९१ २९१ २९२ २९२ २९२ २९३ २९५ 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम त २९८ म महामहोपाध्याय डा० अोझा २९७ अशोक के पूर्ववर्ती दो शिलालेख २९७ उपसंहार एक प्रश्न-चिह्न ? २९८ एक कल्पना २९९ एक और कल्पना ३०० ब्राह्मी से विभिन्न लिपियों का विकास ३०१ प्राचीन भारत की ब्राह्मी लिपि ३०३ खरोष्ठी लिपि ३०४ खरोष्ठी : प्रयोग ३०४ जैन वाङमय ३०४ कल्पनाए : हेतु ३०४ म्रामक व्युत्पत्ति ३०५ खरोष्ठी का उद्भव पार्मेइक लिपि में खरोष्ठी की उत्पत्ति ३०६ प्राइक व खरोष्ठी ३०७ ब्राह्मी का प्रभाव ३०७ एक अपरिपूर्ण लिपि संस्कृत-लेखन के लिए अनुपयुक्त ८. आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय (Arsa ( Ardha magadhi ) Prakrita and the Jaina Canonical Literature ) ३११-५०६ धर्म-देशना ३१३ प्रत्थागम : सुत्तागम ३१४ महावीर के गणधर : आगम संकलन ३१५ गणधर : विशेषताए गणधर की तीर्थ कर-सापेक्षता गणधर का एक विशेष अर्थ ग्यारह गणधर : नौ गण . 1 ० mm r m mmm 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम महावीर की विद्यमानता : नौ गरणधरों का निर्वारण द्वादश अंगों के रूप में श्रुत-संकलना आर्य सुधर्मा : श्रुत-संवाहक परम्परा दिगम्बर- मान्यता 2010_05 गौतम पट्टधर क्यों नहीं ? श्वेताम्बर - परम्परा : एक समाधान दिगम्बर- परम्परा का प्राधार श्री धर्मघोष सूरि का कथन युगप्रधान : सर्वातिशायी प्रतिष्ठापन्नता युगप्रधान की विशेषताए युगप्रधान का विरुद कब मिलता ? धर्मघोष का उल्लेख : ऊहापोह आर्य सुधर्मा : द्वादशांग एक अन्य परम्परा पट्टानुक्रम में अन्य नाम : भिन्नता आर्य सुधर्मा : एक परिचय विद्वत्ता : वैभव जिज्ञासा : मुमुक्षा का द्वार आर्य सुधर्मा का छद्मस्थ - काल : ज्ञानाराधना भगवान् महावीर का सान्निध्य संघ- नायक के रूप में आर्य सुधर्मा का विराट् व्यक्तित्व आर्य स्थविर जाति सम्पन्न : कुल सम्पन्न विनय - लाघवादि सम्पन्न प्रोजस्वी : तेजस्वी : वर्चस्वी : यशस्वी क्रोधादि विजेता वेद - प्रधान उदार : घोर २९ ३१६ ३१७ ३१८ ३१८ ३१९ ३१९ ३१९ ३२० ३२० ३२१ ३२१ ३२२ ३२३ ३२३ ३२४ ३२६ ३२६ ३२८ ३२९ ३२९ ३२९ ३३० ३३० ३३१ ३३२ ३३२ ३३२ ३३३ ३३३ ३३३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विषयानुक्रम ३३४ ३३५ ३३५ ३३७ w w اس W لله ३४० ३४२ ३४४ ३४४ ३ घोर ब्रह्मचर्यवासी केवली और पट्टधर निर्वाण उपसंहार आर्य जम्बू परम जिज्ञासु प्रश्नोत्तर-क्रम प्रश्न-क्रम का एक अन्य रूप जम्बू के सम्बन्ध में उल्लेख वसुदेव-हिंडी माता, पिता, जन्म, निवास आर्य सुधर्मा से सम्पर्क भाव जागृति माता-पिता से निवेदन विवाह सम्पन्न तस्करराज प्रभव : प्रागमन जम्बू और प्रभव : सम्वाद आर्य जम्बू : काल-क्रम एक और कल्पना वीर कवि का अभिमत आर्य जम्बू का निर्वाण जम्बू के अनन्तर कतिपय विच्छेद तिलोयपण्णत्ती का एक विवेच्य प्रसंग श्रुत : कण्ठाग्र : अपरिवर्त्य श्रुत का उद्भव एक प्रश्न : एक समाधान पुष्पमाला की तरह सूत्रमाला का ग्रथन अर्थ की अनभिलाप्यता मातृका-पद पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग ३४५ ३४६ ३४७ ३४९ ३४९ ३५० mr ३५१ ३५१ ३५१ ३५३ ३५३ ३५४ ३५८ m ३६१ ३६३ ३६३ ३६४ ____ 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ३६४ ३६४ ३६५ ३६५ ३६७ ३६७ ३७० ३७१ ३७१ ३७१ ३७२ ३७२ ३७२ पूर्व-ज्ञान की परम्परा द्वादशांगी से पूर्व पूर्व-रचना दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का वर्जन नारी और दृष्टिवाद : एक और चिन्तन पूर्व-रचना : काल-तारतम्य पूर्व-वाङमय की भाषा पूर्वगत : एक परिचय चूलिकाएं चूलिकाओं की संख्या वस्तु-वाङमय वस्तुओं की संख्या आर्य जम्बू के बाद श्रुत-परम्परा आर्य प्रभव पार्य प्रभव का आचार्य-काल आर्य शय्यम्भव पूओं के आधार पर रचना प्राचार्य-काल आर्य यशोभद्र नन्दराजाओं को प्रतिबोध प्राचार्य-काल आर्य यशोभद्र के पश्चात् दो उत्तराधिकारी : एक नवीन परम्परा आर्य सम्भूतिविजय महान् प्रभावक आचार्य भद्रबाहु वराहमिहिर से सम्बन्ध छेद-सूत्रों के रचनाकार परिशिष्ट पर्व भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध आगमों की प्रथम वाचना ३७३ ३७४ ३७४ ३७४ ३७५ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३७७ ३७७ ३७० ३७८ ____ 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विषयानुक्रम ३८१ ३८७ दक्षिण जाने की कल्पना भद्राबाहु द्वारा पूर्वो की वाचना प्रथम वाचना के अध्यक्ष या निर्देशक ? प्राचार्य भद्रबाहु : दिगम्बर मान्यता वृहत्कथाकोश विशाखाचार्य का दक्षिण-गमन भद्रबाहु चरित्र आकाशवाणी कन्नड़ ग्रन्थ राजावली संघाधिपत्य प्राचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास आचार्य स्थूलभद्र देहावसान पूर्व-विच्छेद-काल दिगम्बर-मान्यता तुलनात्मक पर्यवेक्षण ग्यारह अंग : विद्यमानता : विच्छिन्नता आगमों में अनुयोग अनुयोग का अर्थ अनुयोग के प्रकार अनुयोग : अपृथक्ता आर्य रक्षित द्वारा विभाजन आगम : अनुयोग : सम्बन्ध दिगम्बर-ग्राम्नाय में अनुयोग द्वितीय आगम-वाचना माथुरी वाचना बारह वर्षों का भीषण दुर्भिक्ष वालभी वाचना एक ही समय में दो वाचनाएं ? तृतीय वाचना ५० mmmmmmmmmmmmm m m m m r r m mr m m mmm r r m ३९१ ३९२ ३९२ ३९४ ३९४ ३९६ ३९६ ३९६ ३९७ ३९८ ____ 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ६ अणुत्तरोववाइयदसाओ ( अनुत्तरोपपातिक दशा ) ४२१ ४२१ ४२१ नाम : व्याख्या वर्तमान रूप : अपरिपूर्ण, प्रयथावत् १०. पण्डवागरणाई ( प्रश्नव्याकरण ) नाम के प्रतिरूप वर्तमान रूप वर्तमान स्वरूप : समीक्षा १९. विवागस्य ( विपाकश्रुत ) १२. दिट्ठवाय ( दृष्टिवाद ) स्थानांग में दृष्टिवाद के पर्याय 2010_05 भेद-प्रभेदों के रूप में विस्तार अनुयोग का तात्पर्य द्वादश उपांग उपांग अंग : उपांग : प्रसादृश्य वेदों के अंग वेदों के उपांग उपवेदों की परिकल्पना प्रस्तुत सन्दर्भ : जैन श्रुतोपांग १. उववाइय ( ओववाइय ) ( औपपातिक ) श्रीपपातिक का अर्थ विषय-वस्तु २. रायपसेणोअ ( राज- प्रश्नीय ) विषय-वस्तु महत्वपूर्ण सामग्री एक ऊहापोह ३. जीवाजीवाभिगम व्याख्या साहित्य ४. पनवणा (प्रज्ञापना ) नाम : अर्थ ३३ ४२२ ४२२ ४२२ ४२२ ४२३ ४२५ ४२५ ४२६ ४२६ ४२७ ४२७ ४२७ ४२८ ४२८ ४२८ ४२९ ४३० ४३० ४३० ४३० ४३० ४३.१ ४३१ ४३२ ४३३ ४३३ ४३३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम m Nxx m. in रचना ४३३ रचना का प्राधार : एक कल्पना ४३४ व्याख्या-साहित्य ५. सूरियपन्नत्ति ( सूर्य प्रज्ञप्ति ) नाम : अन्वर्थकता प्राभृत का अर्थ व्याख्या-साहित्य ६. जम्बुद्दीवपन्नत्ति ( जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ) स्वरूप वक्षस्कार का तात्पर्य विषय-वस्तु ४३७ ७. चन्दपन्नत्ति ( चन्द्रप्रज्ञप्ति ) ४३७ स्थानांग में उल्लेख ४३७ वर्तमान संस्करण : एक प्रश्न ४३७ रहस्यमय एक समाधान ४३८ एक ऊहापोह : एक कल्पना ४३९ संख्या-क्रमों में भिन्नता पांच निरयावलिया ४४० ८ निरवालिया (निरयावलिका)या कप्पिया(कल्पिका) ४४१ विभाजन विषय-वस्तु ६. कप्पवडंसिया ( कल्पवतंसिका ) ४४२ १०. पुफिया ( पुष्पिका ) तापस-वर्णन ४४३ ११. पुप्फचूला ( पुष्पचूला ) ४४४ १२. वहिदशा ( वृष्णिदशा ) ४४५ नाम विषय-वस्तु ४४६ एक महत्वपूर्ण सूचना ४४६ छेद-सूत्र ४४० ४४१ ४४७ ____ 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ३५ ४४८ ४४८ ४४८ ४४८ ४४९ ४४९ ४५. ४५० ४५१ १. निसीह (निशीथ ) निशीथ शब्द का अर्थ स्वरूप : विषय रचना : रचनाकार व्याख्या-साहित्य २. महानिसीह ( महानिशीथ ) कलेवर : विषय-वस्तु ऐतिहासिकता ३. ववहार ( व्यवहार ) कलेवर : विषय-वस्तु कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग रचयिता और व्याख्याकार ४. दसासुयक्खंध ( दशाश्रुतस्कन्ध ) गरिण-सम्पदा रचनाकार : व्याख्या-साहित्य ५. कप्प ( कल्प अथवा वृहत्कल्प ) कलेवर : विषय-वस्तु कतिपय महत्वपूर्ण उल्लेख रचना एवं व्याख्या-साहित्य ६. पंचकम्प ( पंच-कल्प ) जीयकप्पसुत्त ( जीतकल्प-सूत्र ) रचना : व्याख्या-साहित्य ४५३ ४५३ ४५५ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५० ४५९ मूलसूत्र ४५९ ४६० ४६० ४६० महत्व मूल : नामकरण क्यों ? पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विमर्श प्रो० शन्टियर का अभिमत डा० बाल्टर शुब्रिग का अभिमत प्रो० गेरीनो की कल्पना ४६१ समीक्षा ४६२ ____ 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ४६३ ४६३ ४६४ उत्तरज्झयण ( उत्तराध्ययन ) नाम : विश्लेषण विमर्श नियुक्तिकार का अभिमत 'भद्रबाहुना प्रोक्तानि' का अभिमत विमर्श : समीक्षा विषय-वस्तु ४६९ ४७० दृष्टान्त : कथानक व्याख्या साहित्य आवस्सय ( आवश्यक ) नाम : सार्थकता सामायिक चतुर्विशति-स्तव ४७० ४७० ४७० वन्दन प्रतिक्रमण ४७० ४७१ ४७१ ४७१ ४७१ ४७२ ४७२ कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान व्याख्या-साहित्य दसवेआलिय ( दसवै कालिक ) नाम : अन्वर्थकता संकलन : आधार : पूर्वश्रत दूसरा अाधार : अन्य आगम चूलिकाए रति-वाक्या विविक्तचर्या विशेषता : महत्व व्याख्या-साहित्य प्रथम प्रकाशन पिंडनिजुत्ति ( पिण्ड-नियुक्ति ) नाम : व्याख्या ४७४ ४७४ ४०५ ४७५ ४७५ ४७६ ४७६ ____ 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 9 ४७७ ४७७ ४७८ ४७८ ४७८ ४७९ ४७९ ४८. ४८. ४८० ४८१ ४८१ ४८१ ४८२ ४८२ कलेवर : स्वरूप कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख ओहनिज्जुत्ति ( ओघ नियुक्ति ) नाम : व्याख्या एक महत्वपूर्ण प्रसंग उपधि-निरूपण जिनकल्पी व स्थविर कल्पी के उपकरण साध्वी या प्रायिका के उपकरण व्याख्या-साहित्य पक्खिय सुत्त . पाक्षिक-सूत्र ) खामणा सुत्त (क्षामणा-सूत्र ) वंदित्तु सुत्त इसिभासिय ( ऋषि भासित ) नन्दी तथा अनुयोगद्वार नन्दी-सूत्र : रचयिता स्वरूप . विषय-वस्तु अनुयोग द्वार सप्त स्वर महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रमाण-चर्चा दसपइण्णग ( दश प्रकोर्णक ) प्रकीर्णकों की परम्परा प्राप्त प्रकीर्णक १. चउसरण ( चतु. शरण ) २. आउर-पच्चक्खाण (आतुर प्रत्याख्यान) नाम : प्राशय : विषय ३, महापच्चवखाण ( महाप्रत्याख्यान ) नाम : अभिप्राय विषय-वस्तु ४. भत्त-परिण्णा ( भक्त-परिज्ञा ) ४८२ سلع ४८३ ४८४ ४८४ ४८४ ४८४ ४८६ ४८६ ४८७ ४८७ ४८७ ४८७ ४८८ ४८८ ____ 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ४८८ ४८९ ४८९ ४८९ ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९३ ४९४ ४९४ ४९४ ४९५ नाम : प्राशय कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग ५. तन्दुलवेयालिय ( तन्दुल-वैचारिक ) नाम : अर्थ नारी का हीन रेखा-चित्र कुछ विचित्र व्युत्पत्तियाँ ६. संथारग ( संस्तारक ) ७. गच्छायार ( गच्छाचार ) व्याख्या-साहित्य ८. गणि-विज्जा ( गणि- विद्या ) ६. देविद-थय ( देवेन्द्र-स्तव ) १०. मरण-समाही ( मरण-समाधि ) कलेवर : विषय-वस्तु उपसंहार आगमों पर व्याख्या-साहित्य प्रयोजन व्याख्याओं की विधाए निज्जुत्ति ( नियुक्ति ) ऐतिहासिकता नियुक्तियां : रचनाकार भास ( भाष्य ) रचना : रचयिता चुणि ( चूर्णि ) उद्भव : लक्षण चूणियों की भाषा प्राकृत की प्रधानता चूणियां : रचनाकार महत्वपूर्ण चूणियाँ टीकाएं अभिप्रेत . ४९६ ४९७ ४९७ ४९८ ४९८ ४९९ ४९९ ५०० ५०० ५०० ५०१ ५०२ ____ 2010_05 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम . ५०४ ५०४ ५०४ ५०४ ५०४ ५०५ टीकाएं : पुरावर्ती परम्परा हिमवत् थेरावली में उल्लेख प्रमुख टोकाकार प्राचार्य हरिभद्रसूरि शीलांकाचार्य शान्त्याचार्य एवं नेमिचन्द्राचार्य प्राचार्य अभयदेव प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार विशेषता : महत्व १. शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय (Canonical Literature in shouraseni Prakrita) प्रस्तुत प्रकरण निह्नववाद विह नव का अर्थ . ५०९ ५०९ ५०९ ५१० सारांश स्थानांग तथा आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख बोटिक निह्नव श्वेताम्बर मान्यता आवश्यक नियुक्ति में विशेषावश्यक भाष्य में मलधारी हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत कथानक प्रश्न : उत्तर : असमाधान उपसंहार ५१३ ५१५ ५१५ ५१६ ५१९ दिगम्बर मान्यता दर्शनसार में उल्लेख भाव-संग्रह के अनुसार श्वेताम्वर-उद्भव सारांश वृहत्कथाकोष का कथानक ५१९ ५२० ५२४ ५२५ ५२६ तात्पर्य संघ-विभाजन : एक भिन्न परम्परा ____ 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० 2010_05 विचारणीय पहलू प्राचार्य रत्ननन्दी का अभिमत अर्द्ध फालक मत से श्वेताम्बर ऊहापोह एकाधिक भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु प्रथम भद्रबाहु द्वितीय भद्रबाहु भद्रबाहु : गुप्तगुप्ति : चन्द्रगुप्ति तृतीय भद्रबाहु श्वेताम्बर-परम्परा में भद्रबाहु : प्रथम द्वितीय भद्रबाहु श्राचार्य भद्रबाहु : कुछ ऐतिहासिक तथ्य तित्थोगालीपइन्ना दुःषमाकालश्री श्रमरणसघस्तव की काल-गणना भ्रान्ति का एक कारण विद्वानों द्वारा ऊहापोह सारांश दो दृष्टिकोण आचारांग : अचेलकता : निर्वस्त्रता लज्जा - निवृत्ति हेतु कटिबन्ध का स्वीकार अभिप्रेत एक शाटक : वस्त्र का प्रसंग दो वस्त्रों का प्रसंग तीन वस्त्रों का प्रसंग वस्त्रषणा उत्तराध्ययन में अचेलक : सचेलक तात्पर्य पार्श्व - परम्परा : महावीर-परम्परा केशी और गौतम का मिलन विषयानुक्रम ५२७ ५२८ ५२८ ५३२ ५३३ ५३४ ५३४ ५३४ ५३५ ५३६ ५३६ ५३७ ५३७ ५३७ ५३८ ५३९ ५३९ ५४० ५४० ५४१ ५४२ ५४३ ५४३ ५४३ ૫૪૪ ५४५ ૫૪૫ ५४६ ५४७ ५४७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ५५१ ५५४ ५५५ ५५५ ५५७ ५५८ ५५९ ५५९ ५६५ विमर्श: समीक्षा प्रार्य जम्बू तक दोनों परम्पराए अन्तर : एक सम्भावना आर्य जम्बू के वाद भेद का उभार द्विविध प्रक्रिया प्राचार्य महागिरि : एक प्रसंग सारांश उपसंहार समन्वय का एक अभिनव प्रयत्न यापनीय संघ का उद्भव दर्शनसार में उल्लेख रत्ननन्दी के अनुसार यापनीय संघ इन्द्रनन्दी के विचार श्रु तसागर द्वारा विश्लेषण गुणरत्न द्वारा चर्चा यापनीय संघ के नामान्तर एक और कल्पना यापनीय संघ : अाकर्षण : प्रभाव प्रतिष्ठा : राज-सम्मान कुछ महत्वपूर्ण दान-पत्र कागवाड़ का शिलालेख यापनीय संघ का अनेक गणों में विस्तार यापनीय प्राचार्य : साहित्यिक धारा : श्वेताम्बर-आगम शिवार्य : शिवकोटि आराधना : कुछ प्रश्न-चिह न ?? शाकटायन द्वारा शिवार्य की चर्चा अपराजित सूरि का विवेचन शाकटायन : यापनीययतिग्रामाग्रणी शाकटायन व्याकरण में श्वेताम्बर-पागम सम्बन्धी संकेत ५६५ ५६६ ५६७ ५६८ ५७१ ५७१ ५७२ ५७३ ५७३ ५७४ ५७६ ____ 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विषयानुक्रम ५७८ ५७९ ५८७ शाकटायन रचित स्त्री-निर्वाण-केवलि-भुक्ति-प्रकरण शाकटायन के ग्रन्थ की विशेषता वादी देवसूरि एवं कुमुदचन्द्र का शास्त्रार्थ कुछ महत्वपूर्ण पहल श्रु तकेवली : देशीयाचार्य उमास्वाति का सम्प्रदाय पं० सुखलालजी के विचार विमर्श अपनी-अपनी ओर खिचाव सैद्धान्तिक : विध : दो और उपाधियाँ सारांश उपसंहार आगम-वाङमय : विच्छेद : कुछ तथ्य श्वेताम्बरों द्वारा भी स्वीकार अभिप्राय आगम : सम्पूर्ण : उपलब्ध तिलोयपण्णत्ति : एक विशेष संकेत दिगम्वर-परम्परा में अंग-प्रविष्ट, अग-बाह्य धवलाकार का विवेचन अंग-पण्णत्ति के अनुसार परिमारण सारांश षटखण्डागम : महत्व ग्रन्थ का नाम एक अविस्मरणीय घटना आचार्य धरसेन का स्वप्न प्राचार्य का चिन्तन परीक्षा : सफलता परितुष्ट गुरु द्वारा विद्या-दान स्नातकों का प्रस्थान : संभावनाएं इन्द्रनन्दि और श्रीधर का संकेत a ६०१ ६०२ ६०३ ६०३ ६०७ ग ६०८ ६०९ ६१० ____ 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम अंकुलेश्वर में चतुर्मास्य आचार्य धरसेन : तिरोधान 2010_05 षट्खण्डागम का प्रणयन षट्खण्डागम की सम्पन्नता षट्खण्डागम की पूजा : श्रुत-यंचमी का पर्व धवला : एक अद्भुत कृति कषाय प्राभृत षट्खण्डागम : ग्रन्थागार की कारा से मुक्ति दक्षिणापथ में जैन धर्म खारवेल का धर्म-सम्मेलन एक प्रश्न : एक समाधान कतिपय दिग्गज दक्षिणात्य दिगम्बर आचार्य जैन धर्म का प्रभाव कर्नाटक में जैन धर्म का प्रभाव कदम्ब वश गंग वंश कर्नाटक का महान् धर्म-सेवी चामुण्डराय राष्ट्रकूट वंश होयसल वंश सारांश दक्षिण की जैन काशी : मूडबिद्री मूडबिद्री : इतिहास मूड़विद्री का अभ्युदय : अभिवृद्धि शब्ड - विश्लेषण सिद्धान्त-वसदि : एक दन्तकथा मूडबिद्री : भट्टारक- पीठ मूडबिद्री में सिद्धान्त - ग्रन्थ षट्खण्डागम: बहिर्निष्क्रमण की कहानी पं० टोडरमलजी के समय में चिन्तन सेठ माणकचन्द की यात्रा : विचारोद्वेलन ४३ ६१० ६११ ६११ ६१३ ६१५ ६१६ ६१७ ६१७ ६१७ ६१९ ६२० ६२० ६२१ ६२१ ६२२ ६२२ ६२३ ६२४ ६२४ ६२५ ६२५ ६२५ ६२६ ६२६ ६२७ ६२८ ६२९ ६३१ ६३१ ६३१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ६३२ mmmmmm لي لي لي لي ६४२ सेठजी का प्रयास प्रतिलिपि का प्रारम्भ भी : स्थगन भी प्रतिलिपि : पुनरारम्भ-समापन कनाड़ो में भी प्रतिलिपि महाधवला की प्रतिलिपि पं० गजपति शास्त्री द्वारा अतिरिक्त प्रतिलिपि कनाड़ी प्रतिलिपि का बहिर्गमन कनाड़ी से देवनागरी कुछ और प्रतिलिपियां षट्खण्डागम का प्रकाशन प्रथम भाग का प्रकाशन : एक अन्य प्रतिक्रिया मूडबिद्री की प्रतियां आचार्य धरसेन : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पट्टानुक्रम में धरसेन का उनुल्लेख नन्दि-संघ की गुर्वावली में माघनन्दि कुम्भकारी और माघनन्दि सारांश नन्दि-संघ की प्राकृत-पट्टावली में धरसेन दोनों कालक्रमों की तुलना समीक्षा एक सम्भावना दूसरी सम्भावना प्राकृत-पट्टावली की प्रामाणिकता वृहट्टिप्पणिका में उल्लेख जोणिपाहुड़ : मंत्र-क्रिया की एक विलक्षण कृति निष्कर्ष धक्ला और महाधवला महान् विद्वान् : प्रखर प्रतिभान्वित धवला की रचना नाम अन्वर्थकता ६४५ ६४७ ६४७ ६४९ ६५१ ६५२ ६५३ ६५४ ६५४ ६५५ ६५६ ६५६ ६५८ ६५९ ____ 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम . ६६२ धवला का वैशिष्ट्य समापन-समय षट्खण्डागम : प्राधार षटखंडागम : एक परिचय पहला खण्ड दूसरा खण्ड तीसरा खण्ड चौथा खण्ड ६६४ पांचवां खण्ड ६६४ ६६५ छठा खण्ड ६६७ सारांश कसायपाहुड़ (कषाय प्राभृत) प्राधार विषय रचना व्याख्या-साहित्य कलेवर षट्खण्डागम की भाषा शौरसेनी प्राकृत की मुख्य विशेषताएं उपसंहारात्मक समीक्षा प्रयुक्त-ग्रन्थ सूची ६६७ ६६७ ६६८ ६७१ ६७७ ____ 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ [ भाषा और साहित्य ] ___ 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व भाषा-प्रवाह ( The Flow of World Languages) ____ 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों की भाषा प्राकृत है। त्रिपिटकों की भाषा पालि है। दोनों भाषाओं में अद्भुत सांस्कृतिक ऐक्य है। दोनों भाषाओं का उद्गम-बिन्दु भी एक है। दोनों का विकास-क्रम भी बहुत कुछ समान रहा है। दोनों के विकसित स्वरूप में भी अद्भुत सामजस्य है। जो कुछ वैषम्य है, उसके भी नाना हेतु हैं। प्राकृत और पालि के सारे सम्बन्धों व विसम्बन्धों को सर्वागीण रूप से समझने के लिए भाषा मात्र की उत्पत्ति और प्रवाह-क्रम का समीक्षात्मक रूप में प्रस्तुतीकरण आवश्यक होगा। भाषाओं के विकास और प्रसार की एक लम्बी कहानी है। भाषाओं का विकास मानव के बौद्धिक और भावात्मक विकास के साथ जुड़ा है। मानव ने संस्कृति, दर्शन और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महनीय अभियान चलाये। फलतः विश्व में विभिन्न संस्कृतियों, दार्शनिक परम्पराओं, साहित्यिक अभियोजनाओं तथा सामाजिक विकास का एक परिनिष्ठित रूप प्रतिष्ठापन्न हुआ। भाषाओं में इनसे सम्बन्धित आरोहों-अवरोहों का महत्वपूर्ण विवरण डूडा जा सकता है, क्योंकि मानव के जीवन में कर्म और अभिव्यक्ति का गहरा सम्बन्ध है। कर्म को तेजस्विता गोपित नहीं रहना चाहती। सूर्य की रश्मियों की तरह वह फूटना चाहती है। आकाश की तरह उसे अपना कलेवर फैलाने के लिए स्थान या माध्यम चाहिए। वह भाषा है; अतः भाषाओं के वैज्ञानिक अनुशीलन की बहुत बड़ी आवश्यकता है। विभिन्न भाषामों को आश्चर्यजनक निकटता आश्चर्य होता है, सहस्रों मीलों की दूरी पर बोली जाने वाली फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं से भारत में बोली जाने वाली हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी तथा राजस्थानी आदि भाषाओं का गहरा सम्बन्ध है, जबकि बाह्य कलेवर में वे उनसे अत्यन्त भिन्न दृष्टिगोचर होती हैं। दूसरा आश्चर्य यह भी होगा कि भारत में ही बोली जाने वाली तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि भाषाओं से उत्तर भारतीय भाषाओं का मौलिक सम्बन्ध नहीं जुड़ता। .. भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत, प्राकृत तथा पालि आदि का पश्चिम की ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि प्राचीन भाषाओं के साथ विशेष सम्बन्ध है। एक दूसरी से सहस्रों मीलों की दूरी पर प्रचलित तथा परस्पर सर्वथा अपरिचित-सी प्रतीत होने वाली विश्व की अनेक ____ 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ भाषाओं का निकटता-पूर्ण सम्बन्ध है। ज्ञात होता है कि विश्व के विभिन्न मानव-समुदायों में अत्यन्त प्राचीन काल से कोई पारस्परिक साम्य चला आ रहा है। भाषाओं के स्वरूप और विकास का वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक रूप में अध्ययन करने से ये तथ्य विशद रूप में प्रकट होते हैं। इसी विचार-सरणि के सन्दर्भ में भाषाओं का जो सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन-क्रम चला, वही भाषा-विज्ञान या भाषा-शास्त्र बन गया है। भाषा-विज्ञान की शाखाएं भाषा-विज्ञान में भाषा-तत्त्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण और विवेचन किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्यविज्ञान, व्युत्पत्ति-विज्ञान; आदि उसकी मुख्य शाखाएं या विभाग होते हैं । वनि-विज्ञान ( Phonology ) __ भाषा का मूल आधार ध्वनि है। ध्वनि का ही व्यवस्थित रूप शब्द है। शब्दों का साकांक्ष्य या परस्पर-सम्बद्ध समवाय वाक्य है। वाक्यों से भाषा निष्पन्न होती है; अतएव ध्वनि-विज्ञान भाषा-शास्त्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उसके अन्तर्गत ध्वनि-यन्त्र, स्वर-तन्त्री तथा ध्वनि को व्यक्त रूप में प्रस्फुटित करने वाले वागिन्द्रिय के मुख-विवर, नासिका-विवर, तालु, कण्ठ, ओष्ठ, दन्त, मूर्दा, जिह्वा आदि अवयव, उनसे ध्वनि उत्पन्न होने की प्रक्रिया, ध्वनि-तरंग, श्रोत्रेन्द्रिय से संस्पर्शन या संघर्षण, श्रोता द्वारा स्पष्ट शब्द के रूप में ग्रहण या श्रवण आदि के साथ-साथ ध्वनि-परिवर्तन, ध्वनि-विकास, उसके कारण तथा दिशाए आदि विषयों का समावेश है। रूप-विज्ञान ( Morphology ) शब्द का वह आकार, जो वाक्य में प्रयुक्त किये जाने योग्य होता है, रूप कहा जाता है। 'पद' का भी उसी के लिए प्रयोग होता है। सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने सुप्तिङन्तं पदम् कहा है। अर्थात् शब्दों के अन्त में सु, औ, जस आदि तथा ति, अस् , अन्ति आदि विभक्तियों के लगने पर जो विशेष्य, विशेषण, सर्वनाम तथा क्रियाओं के रूप निष्पन्न होते हैं, वे पद हैं। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम ने ते विभक्त्यन्ताः पदम् कहा है । विभक्ति-शून्य शब्द (प्रातिपादिक ) और धातुओं का यथावस्थित रूप में प्रयोग नहीं होता। विभिन्न सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए उनके साथ भिन्न-भिन्न विभक्तियां जोड़ी जाती हैं। विभक्ति-युक्त प्रातिपादिक या धातु प्रयोग-योग्य होते हैं। संस्कृत के सुप्रसिद्ध काम्य-तत्व-वेत्ता कविराज विश्वनाथ ने पद की व्याख्या करते हुए लिखा है : "वे वर्ण या वर्ण-समुच्चय, जो प्रयोग के योग्य हैं तथा अनान्वित रूप में किसी एक अर्थ के बोधक हैं, पद 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह कहे जाते हैं।1 रूप-विज्ञान में इस प्रकार के नाम व आख्यात ( क्रिया ) पदों ( रूपों) के विश्लेषण, विकास तथा अव्यय, उपसर्ग, प्रत्यय आदि का तुलना मक विवेचन होता है। अर्थ-विज्ञान ( Semantics ) शब्द और अर्थ का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। अर्थ-शून्य शब्द का भाषा के लिए कोई महत्त्व नहीं होता। शब्द बाह्य कलेवर है, अर्थ उसकी आत्मा है। केवल कलेवर की चर्चा से साध्य नहीं सधता। उसके साथ-साथ उसकी आत्मा का विवेचन भी अत्यन्त आवश्यक होता है। शब्दों के साथ संश्लिष्ट अर्थ का एक लम्बा इतिहास है। किन-किन स्थितियों और हेतुओं से किन-किन शब्दों का किन-किन अर्थों से कब, कैसे सम्बन्ध जुड़ जाता है; इसका अन्वेषण एवं विश्लेषण करते हैं, तो बड़ा आश्चर्य होता है। वैयाकरणों द्वारा प्रतिपादित शब्दाः कामदुधाः इसी तथ्य पर प्रकाश डालता है। इसका अभिप्राय यह था कि शब्द कामधेनु की तरह हैं। अनेकानेक अर्थ देकर भोक्ता या प्रयोक्ता को परितुष्ट करने वाले हैं। कहने का प्रकार या क्रम भिन्न हो सकता है, पर, मूल रूप में तथ्य वही है, जो ऊपर कहा गया है। उदाहरणार्थ, जुगुप्सा शब्द को लें। वर्तमान में इसका अर्थ घृणा माना जाता है। यदि इस शब्द के इतिहास की प्राचीन पर्ते उघाड़े, तो ज्ञात होगा कि किसी समय इस शब्द का अर्थ 'रक्षा करने की इच्छा' (गोप्तुमिच्छा जुगुप्सा ) था। समय बीता। इस अर्थ में कुछ परिवर्तन आया। प्रयोक्ताओं ने सोचा होगा, जिसकी हम रक्षा करना चाहते हैं, वह तो छिपा कर रखने योग्य होता है; अतः 'जुगुप्सा' का अर्थ गोपन (छिपाना ) हो गया। मनुष्य सतत मननशील प्राणी है । · उसके चिन्तन एवं मनन के साथ नये-नये मोड़ आते रहते हैं। उक्त अर्थ में फिर एक नया मोड़ आया। सम्भवतः सोचा गया हो, हम छिपाते तो जघन्य वस्तु को हैं, अच्छी वस्तुए तो छिपाने की होती नहीं। इस चिन्तन के निष्कर्ष के रूप में जुगुप्सा का अर्थ 'गोपन' से परिवर्तित होकर 'घृणा' हो गया। वास्तव में शब्द का स्रष्टा एवं उसका प्रयोक्ता मानव है। प्रयोग की भिन्न-भिन्न कोटियों का मानव की मनः-स्थितियों से सम्बन्ध है। शब्द और अर्थ के सम्बन्ध आदि पर विचार, विवेचन और विश्लेषण इस विभाग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान के कुछ भाषा-वैज्ञानिक इसको भाषा-विज्ञान का विषय नहीं मानते । वे इसे दर्शन-शास्त्र से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। प्राचीन काल के कुछ भारतीय दार्शनिकों ने भी प्रसंगवश शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की चर्चा की है। पर, जहां स्वतंत्र रूप से भाषा-शास्त्र के सांगोपांग विश्लेषण का प्रसंग हो, वहां इसे अनिवार्यतः उसो १. वर्गाः पदं प्रयोगाहान्वितकार्यबोधकाः । -साहित्य दर्पण; २.२ ____ 2010_05 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ को लेना होगा । उसके बिना किसी भी भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से परिशीलन अपूर्ण रहेगा । अर्थ-विज्ञान के अन्तर्गत वर्णनात्मक, समीक्षात्मक, तुलनात्मक तथा इतिहासात्मक; सभी दृष्टियों से अर्थ का अध्ययन करना अपेक्षित होता है । अर्थ- परिवर्तन, अर्थ-विकास, अर्थ- ह्रास तथा अर्थ- उत्कर्ष आदि अनेक पहलू इसमें सहज ही आ जाते हैं । वाक्य-विज्ञान (Syntax) भाषा का प्रयोजन अपने भावों की अभिव्यंजना तथा दूसरे के भावों का यथावत् रूप में ग्रहण करना है । दूसरे शब्दों में इसे ( भाषा को ) विचार-विनिमय का माध्यम कहा जा सकता है | ध्वनि, शब्द, पद, ये सभी भाषा के आधार हैं । पर, भाषा जब वाक्य की भूमिका के योग्य होती है, तब उसका कलेवर वाक्यों से निष्पन्न होता है । पद वाक्य में प्रयुक्त होकर ही अभीप्सित अर्थ प्रकट करने में सक्षम होते हैं । वाक्य में पदों या शब्दों का स्थानिक महत्व भी होता है; अतः अर्थ-योजन में स्थान निर्धारण भी अपेक्षित रहता है । उदाहरणार्थ, I go to school अंग्रेजी के इस वाक्य में 'Go' क्रिया दूसरे स्थान पर है । Go to school इस वाक्य में भी 'Go ́ क्रिया का प्रयोग है। यहां Go पहले स्थान पर है | पर, स्थान-भेद के कारण इस क्रिया के अर्थ में भिन्नता आ गयी है । पहले वाक्य में यह क्रिया जहां सामान्य वर्तमान की द्योतक है, वहां दूसरे वाक्य में आज्ञा द्योतक है । वाक्य- विज्ञान से सम्बद्ध इसी प्रकार के अनेक विषय हैं, जो वाक्य रचना की विविध अपेक्षाओं पर टिके हुए हैं । उन सबका इस विभाग के अन्तर्गत विवेचन और विश्लेषण किया जाता है । निर्वचन - शास्त्र [ व्युत्पत्ति-विज्ञान ] ( Etymology ) शब्दों की उत्पत्ति, उनका इतिहास आदि का इस विभाग में समावेश है । शब्दों की उत्पत्ति की अनेक कोटियां तथा विधाएँ हैं, जिनके अन्वेषण से और भी अनेक तथ्य प्रकट होते हैं । मानव के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन से उनका गहरा सम्बन्ध है । प्राचीन काल में भाषा-विज्ञान का इस प्रकार का अध्ययन व्यवस्थित एवं विस्तृत रूप में नहीं हुआ । भारतवर्ष और यूनान में एक सीमा तक इस सन्दर्भ में प्रयत्न चले थे । यूनान में बहुत स्थूल रूप में इस पर चर्चा हुई । पर, भारतीय मनीषी उस समय की स्थितियों और अनुकूलताओं के अनुसार अधिक गहराई में गये थे । विश्व में उपलब्ध साहित्य में वैदिक वाङमय का ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है । वेदों में प्रयुक्त भाषा और तद्गत अर्थ व परम्परा सदा अक्ष ण्ण बनी रहे, इसके लिए विद्वानों ने शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्दः शास्त्र, ज्योतिष और निरुक्त ६ शास्त्र और प्रतिष्ठित किये, 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह जो वेदांग' कहे जाते हैं। ___ शिक्षा (ध्वनि-विज्ञान ) का वेद की संहिताओं से गहरा सम्बन्ध है। वैदिक संहिताओं का शुद्ध उच्चारण किया जा सके, उनका स्वर-संचार यथावत् रह सके, इसके लिए अनेक नियम गठित किये गये। जिन ग्रन्थों में इनका विशेष वर्णन है, वे प्रातिशाख्य कहलाते हैं। प्रातिशाख्य प्रतिशाखा से बना है। पृथक्-पृथक् वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाए मानी गयी हैं। उन शाखाओं से सम्बद्ध संहिताओं के शुद्ध उच्चारण का भिन्नभिन्न प्रातिशाख्य ग्रन्थों में उल्लेख है। प्रातिशाख्यों का सर्जन विश्व का प्राचीनतम भाषा-वैज्ञानिक कार्य है। इसका मुख्य उद्देश्य मात्रा काल, स्वराघात, उच्चारण की विशिष्टताओं का प्रदर्शन, संहिताओं के रूढ़िगत उच्चारण की सुरक्षा, वैज्ञानिकता एवं सूक्ष्मता के साथ ध्वनियों का विवेचन तथा ध्वनि-अंगों की जानकारी देना था। प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त कतिपय शिक्षा ग्रन्थ भी हैं, जो कलेवर में छोटे हैं। वेद का यह अंग भाषाविज्ञान से बहुत अधिक सम्बद्ध है। ध्वनि-विज्ञान-सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का समाधान एक सीमा तक इसमें प्राप्त है। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित के रूप में स्वरों के उच्चारण के विशेष क्रम भी ध्वनि-विज्ञान से सूक्ष्मतया सम्पृक्त हैं । कल्प पारिभाषिक शब्द है, जो कर्म-काण्ड-विधि के लिए प्रयुक्त हुआ है। दूसरे से छठे तक पांच अंगों में चौथा 'निरुक्त' भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । निरुक्त के रचयिता महान् विद्वान् यारक थे। उनका समय लगभग ई० पू० ८०० माना जाता है । वैयाकरणों का अभिमत निरुक्तकार यास्क ___यास्क ने निरुक्त या व्युत्पत्ति-शास्त्र की रचना कर भारतीय वाङमय को वास्तव में बड़ी देन दी। उनके द्वारा रचित व्युत्पत्ति-शास्त्र विभिन्न शब्दों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो सूचनाए देता है, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। यास्क के सामने उस समय भाषा के दो रूप विद्यमान थे, वैदिक भाषा और लौकिक भाषा। वैदिक भाषा से उनका तात्पर्य उस संस्कृत सहै, जिसका वेदों में प्रयोग हुआ है। वे उसे निगम, छन्दस् , ऋक् आदि नाम भी देते हैं। लौकिक भाषा के लिए वे केवल 'भाषा' व्यवहृत करते हैं। उनके अनुसार पैदिक संस्कृत मूल भाषा है तथा लौकिक भाषाए उससे निकली हैं । ___आज के भाषा-वैज्ञानिक एक ऐसी भारोपीय परिवार की अत्यन्त प्राचीन मूल भाषा की भी कल्पना करते हैं, जो वैदिक संस्कृत तथा तत्समकक्ष अन्यान्य तत्परिवारीय प्राच्य व १. शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा। कल्पश्चेति षडंगानि वेदस्याहर्मनीषिणः ॥ ____ 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ प्रतीच्य भाषाओं का उद्गम-स्थान थी। यास्क जिन परिस्थितियों में थे, उनके लिए यहां तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था। भौगोलिक कठिनाइयां भी थीं, यातायात के साधन तथा अन्य अनुकूलताए भी नहीं थीं। ऐसी स्थिति में अपने निर्वचन में वे भारत से बाहर की भाषाओं को भी दृष्टिगत रख पाते, यह सम्भव नहीं था। उस समय यद्यपि उपभाषाओं का प्रचलन पर्याप्त संख्या में था और यास्क ने भी उस प्रकार के संकेत किये हैं, पर, उनका ब्युत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषात्मक अनुसन्धान-कार्य उन्हीं प्रचलित भाषाओं की सीमा में है, जो उनके समक्ष थीं। जो भी हुआ, जितना भी हुआ, उस समय की स्थितियों के । परिपार्श्व में स्तुत्य कार्य था । संसार के भाषा-शास्त्रीय विकास के इतिहास में उसका अनुपम स्थान रहेगा। - निघण्टु के रूप में यास्क के सामने वेद के शब्दों की सूची विद्यमान थी, जिसक पांच अध्याय हैं। निरुक्त में निघण्टु में उल्लिखित प्रत्येक शब्द की पृथक-पृथक् व्युत्पत्ति प्रदर्शित की गई है। निरुक्तकार ने निघण्टु के शब्दों का अर्थ स्थापित करने का वास्तव में सफल प्रयास किया है। उन्होंने अपने द्वारा स्थाप्यमान अर्थ की पुष्टि के हेतु स्थान-स्थान पर पेदिक संहिताओं को भी उद्धृत किया है। अर्थ-विज्ञान के सन्दर्भ में इस प्रकार के अध्ययन का विश्व में यह पहला प्रयास था। भारतवर्ष में यास्क के समय तक अर्थ-विज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय बहुत चर्चित हो चुके थे । यास्क ने स्वयंऔदुम्बरायण, वार्ष्याय णि, गार्य, गालव, शाकटायन आदि अपने से पूर्ववर्ती या समसामयिक आचार्यों का उल्लेख करते हुए उनके मतों को उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ, यास्क ने पद के चार भेद किये है-नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । उस प्रसंग में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य औदुम्बरायण का मत उद्धृत करते हुए शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व जैसे गहन विषय की चर्चा की है।' यास्क के अनुसार आख्यात भाव-प्रधान है । उसके सन्दर्भ में उन्होंने भावधिकार के विषय में आचार्य चाायणि के विचार उपस्थित कर अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। वास्तव में यास्क का निरूपण-क्रम अनुसन्धानात्मक और समीक्षात्मक पद्धति पर आधृत है। उतरवर्ती भाषा-वैज्ञानिकों के लिए वह नि:सन्देह प्रेरणादायक सिद्ध हुआ। ..... यास्क के व्यक्तित्व की महत्ता इससे और सिद्ध हो जाती है कि अस्पष्ट शब्दों के लिए उन्होंने आग्रह नहीं किया, अपितु उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया कि वे शब्द उनके लिए स्पष्ट नहीं हैं। उन्होंने शब्दों पर विचार करते हुए भाषा की उत्पत्ति और गठन आदि पर भी जहां-तहां कुछ संकेत किया है। सबसे पहले उन्होंने यह स्थापना की कि प्रत्येक संज्ञा की व्युत्पत्ति धातु से है। यद्यपि यह मत समालोचनीय है, पर, इसका अपना महत्त्व अवश्य है । आगे चलकर महान् व्याकरण पाणिनि ने भी धातु-सिद्धान्त को प्रतिपादित किया । 2010_05 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह - यास्क द्वारा विवेचित व्युत्पत्ति-क्रम को जानने के लिए एक उदाहरण उपयोगी होगा। आचार्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वे लिखते हैं : आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचार ग्राह्यति, आचिनोत्यर्थान् आचिनोति बुद्धिमिति वा। जो आचार-ग्रहण करवाता है अथवा अर्थों का आचयन करता है, अन्तेवासी को पदार्थों का बोध करवाता है अथवा अन्तेवासी में बुद्धि का संचय करता है, वह आचार्य कहा जाता है। - 'श्मशान' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए यास्क लिखते हैं : श्मशानम् श्मशयनम् । शम = शरीरम् । शरीरं शृगाते। शम्नातेः वा। श्म शरीर जहां शयन करता है, चिरा निद्रा में सोता है, वह श्मशान कहा जाता है । महान वैयाकरण पाणिनि _____ यास्क के अनन्तर महान् वैयाकरण पाणिनि को भाषा-विज्ञान के विकास के सन्दर्भ में : सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के गठन के अन्तर्गत पद-विज्ञान आदि का भी गम्भीर और वैज्ञानिक विवेचन किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों आपिशलि, काशकृत्स्न आदि का भी उल्लेख किया। पाणिनि के पूर्ववर्ती एक बहुत बड़े वैयाकरण इन्द्र थे। तैत्तरीय-संहिता इन्हें प्रथम वैयाकरण सिद्ध करती है। वहां लिखा है : “देवताओं ने इन्द्र से कहा-हमें भाषा को व्याकृत कर समझाइए।" . - इन्द्र ने वैसा किया। इन्द्र का वैयाकरण-सम्पदाय पाणिनि के पूर्व एवं पश्चात् भी चलता रहा। वर्तमान में जो प्रातिशाख्य प्राप्त हैं, वे इसी सम्प्रदाय के हैं। पातिककार कात्यायन भी इसी सम्प्रदाय के थे। पाणिनि ने पूर्ववर्ती वैयाकरणों के महत्वपूर्ण शोध-कार्य का सार अष्टाध्यायी में समाविष्ट किया। उन्होंने कतिपय प्रसंगों में उदीच्य और प्राच्य सम्प्रदायों की भी चर्चा की है। कथासरित्सागर में सोमदेव ने लिखा है कि पाणिनि के गुरु का नाम उपाध्याय वर्ष था। कात्यायन, व्याडि और इन्द्रदत्त इनके सहपाठी थे। पाणिनि ने माहेश्वर सूत्रों के रूप में व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी देन दी है। माहेश्वर सूत्रों की कुछ अनुपम विशेषताएं हैं। उनमें ध्वनियों का स्धान एवं प्रयत्न के अनुसार जो धर्गीकरण किया गया है, वह ध्वनि-विज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है। पाणिनि की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उन्होंने केवल चौदह सूत्रों के आधार पर - १. वाग्वे प्राच्य व्याकृताऽवदत् । ते देवा इन्द्रमभवन्निमां नो वाचं व्याकूविति। तमिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् । 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ . प्रत्याहार आदि के सहारे संस्कृत जैसी जटिल और कठिन भाषा को संक्षेप में बांध दिया। डाई हजार वर्ष के पश्चात् भी वह भाषा किंचित् भी इधर-उधर नहीं हो सकी, अपने परिनिष्ठित रूप में यथावत् बनी रह सकी। उन्होंने नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात के रूप में यास्क द्वारा किये गये पद-विभागों को नहीं माना । शब्द को सुबन्त और तिङन्त, इन दो भागों में विभक्त किया है। आज तक संसार में भाषा-विज्ञान या व्याकरण के क्षेत्र में शब्दों के जितने भी विभाजन किये गये हैं, उनमें वैज्ञानिक दृष्टि से इस निरूपण का सर्वाधिक महत्व है। वर्गों के स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, संवृत, विवृत, अल्पप्राण, महाप्राण, पोष, अघोष आदि कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, औष्ठ आदि उच्चारण-स्थान प्रभृति अनेक ऐसे विषय हैं, जो ध्वनिविज्ञान के क्षेत्र में पाणिनि की अद्भुत उपलब्धियां हैं। वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत का तुलनात्मक विश्लेषण पाणिनि का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। उनके वर्णन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि छन्दस् कही जाने वाली वैदिक संस्कृत और भाषा कहलाने वाली लौकिक संस्कृत में परस्पर उस समय तक बहुत अन्तर आ गया था। सार रूप में कहा जा सकता है कि पाणिनि विश्व के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण थे। अष्टाध्यायी जैसा उनका ग्रन्थ आज तक किसी भी भाषा में नहीं लिखा गया। उन्होंने व्याकरण को अनुपम सूक्ष्मता देने के साथ-साथ दर्शन का स्वरूप भी प्रदान किया। उनकी सूत्र-पद्धति ने व्याकरण को शुष्कता को सरस तथा कठिनता को सरल बना दिया । आधुनिक भाषा-विज्ञान के जनक पाश्चात्य विद्वान् ब्लूम फील्ड Language पुस्तक में, जिसका आज के भाषा-विज्ञान में अत्यधिक महत्व है, पाणिनि के सम्बन्ध में लिखते हैं : "पाणिनि का व्याकरण ( अष्टाध्यायी ) जिसकी रचना लगभग ई० पू० ३५०-२५० के मध्य हुई थी, मानवीय बुद्धि के प्रकर्ष का सबसे उन्नत कीति-स्तम्भ है। आज तक किसी भी अन्य भाषा का इतने परिपूर्ण रूप में विवेचन नहीं हुआ है। 1 हर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जॉन बी० केरोल ने लिखा है : “पाश्चात्य विद्वानों ने पहले पहल जैसे ही हिन्दू वैयाकरण पाणिनि की वर्णनात्मक पद्धतियों का परिचय पाया, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे प्रभावित हुए तथा उन्होंने भाषाओं का विवेचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया ।" 1. This grammer wich dates from some where round 350 to 250 B. C. is one of the greatest Monuments of human intelegenceNo other language to this day has been so perfectly described. Western scholars were for the first time exposed to the descrip. tive methods of the Hindu grammarian Panini, influenced either directly or indirectly by Panini, began to produce descriptive and historical studies........ ____ 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह आलोचक कात्यायन पाणिनि के पश्चात् अन्य भी कई वैयाकरण हुए। कात्यायन उनमें बहुत प्रसिद्ध हैं। कथासरित्सागरकार ने इन्हें पाणिनि का सहपाठी बतलाया है। वह उचित नहीं जान पड़ता। कात्यायन का समय लगभग ई० पू० पांचवी-चौथो शताब्दी होना चाहिए। कात्यायन ने पाणिनि के सूत्रों की आलोचना की, उनमें दोष दिखलाया तथा शुद्ध नियम निश्चित किये। इस सम्बन्ध में विद्वानों का अभिमत है कि कात्यायन ने जिन्हें दोष कहा, वे वस्तुतः दोष नहीं थे। पाणिनि तथा कात्यायन के बीच लगभग १५० वर्ष का समय पड़ता है। उस बीच भाषा में जो परिवर्तन आया, उसे ही कात्यायन ने अशुद्ध या दुष्ट माना। इतना स्पष्ट है कि कात्यायन के वार्तिकों से भाषा के विकास से सम्बद्ध कई तथ्य ज्ञात होते हैं, जो अर्थ-विज्ञान एव ध्वनि-विज्ञान से जुड़े हैं। महाभाष्यकार पतंजलि कात्यायन के पश्चात् पतंजलि आते हैं। उनका समय ई० पू० दूसरी शताब्दी है। वे पाणिनि के अनुयायी थे। उन्होंने महाभाष्य की रचना की, जिसका उद्देश्य कात्यायन के नियमों में दोष दिखाकर पाणिनि का मण्डन करना था। उन्होंने जो नियम बनाये, वे इष्टि कहलाते हैं। पतंजलि के महाभाष्य का महत्व नियम-स्थापना की दृष्टि से बहुत अधिक नहीं है। उसका महत्व तो भाषा के दार्शनिक विश्लेषण में है। उन्होंने ध्वनि के स्वरूप, वाक्य के भाग तथा ध्वनि-समूह व अर्थ का पारस्परिक सम्बन्ध आदि भाषा-विज्ञान-सम्बन्धी महत्वपूर्ण विषयों पर गहन चिन्तन उपस्थित किया। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान जैसे विषय को पतंजलि ने जिन सरल, सुघड़ और हृद्य शब्दों से वर्णित किया है, वह वास्तव में अद्भुत है। उनकी शैली अत्यन्त ललित तथा हेतु-पूर्ण है। सरल, सरस व प्रांजल भाषा तथा प्रसादपूर्ण शैली की दृष्टि से समग्र संस्कृत वाङमय में आचार्य शंकर कृत शारीरिक भाष्य के अतिरिक्त ऐसा एक भी ग्रन्थ नहीं है, जो इस महाभाष्य के समकक्ष हो। व्याकरण का उत्तरवर्ती स्रोत महाभाष्यकार पतंजलि के अनन्तर पाणिनीय शाखा के अन्तर्गत उत्तरोत्तर अनेक वेथाकरण होते गये, जिनमें जयादित्य तथा वामन ( सातवीं शती पूर्वाध ), भतृहरि ( सातवीं शती), जिनेन्द्र बुद्धि ( आठवीं शती पूर्वार्ध), कय्यट ( ग्यारहवीं शती ), हरदत्त (बारहवीं शती) मुख्य थे। उन्होंने पाणिनि की व्याकरण-परम्परा में अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों तथा व्याख्या-ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिनमें भाषा और व्याकरण के अनेक पक्षों पर तलस्पशी विवेचन है। उनके अनन्तर इस शाखा में जो वैयाकरण हुए, उन्होंने कौमुदी की परम्परा 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ का प्रवर्तन किया। व्याकरण पर इतने अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके थे कि उनको बोध-गम्य बनाने के लिये किसी अभिनव क्रम की अपेक्षा थी। कौमुदी-साहित्य इसका पूरक है। विमल सरस्वती ( चवदहवीं शती ), शमचन्द्र ( पन्द्रहवीं शती), भटोजि दीक्षित ( सतरहवीं शती) तथा वरदराज ( अठारहवीं शती) इस परम्परा के मुख्य ग्रन्थकार थे। भटोजि दीक्षित की सिद्धान्त कौमुदी और वरदराज की लघु कोमुदी का संस्कृत अध्येताओं में आज भी सर्वत्र प्रचार है। पाणिनि के व्याकरण के अतिरिक्त भारतवर्ष में व्याकरण की कतिपय अन्य शाखाए भी प्रचलित थीं, जिनमें जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमचन्द्र, कातन्त्र, सारस्वत तथा बोपदेव आदि शाखाओं का कहत्वपूर्ण स्थान है। व्याकरणेतर शास्त्रों में भाषा-तत्व ध्याकरण-ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत में रचे गये न्याय, काव्य-शास्त्र तथा मीमांसा आदि में भी भाषा के सम्बन्ध में प्रासंगिक रूप में विचार उपस्थित किये गये हैं । बंगाल में नदिया नैयायिकों या ताकिकों का गढ़ रहा है। वहां के नैयायिकों ने अपने ग्रन्थों में भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर विचार किया। श्री जगदीश तर्काल कार के शब्दशक्ति प्रकाशिका ग्रन्थ में " में शब्दों की शक्ति पर नैयायिक दृष्टि से ऊहापोह किया गया है। उससे अर्थ-विज्ञान पर कुछ प्रकाश पड़ता हैं। काव्य शास्त्रीय वाङमय में काव्य प्रकाश, ध्वन्यालोक, चन्द्रालोक और साहित्य - दर्पण आदि ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें शब्द-शक्तियों तथा अलंकारों के विश्लेषण के प्रसंग में भाषा के शब्द, अर्थ आदि तत्वों पर सूक्ष्मता : से विचार किया गया है । . भारतीय दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। मीमांसा दर्शन का वर्ण्य विषय यद्यपि कर्मकाण्ड और यज्ञवाद है, पर, विद्वान् आचार्यों ने इनके विवेचन के लिए जो शैली अपनाई है, वह अत्यन्त नैयायिक या तार्किक है। उन्होंने शन्द-स्वरूप, शब्दार्थ, वाक्यस्वरूप, वाक्यार्थ आदि विषयों पर गहराई से विमर्षण किया है। . भारतीय विद्वानों द्वारा किये गये भाषा-तत्त्व-सम्बन्धी गवेषणा-कार्य का यह संक्षिप्त लेखा-जोखा है, जो भारतीय प्रज्ञा की सजगता पर प्रकाश डालता है। प्राचीन काल में जब समीक्षात्मक रूप में परिशीलन करने के साधनों का प्रायः अभाव था और न आज की तरह गवेषणा-सम्बन्धी नवीन दृष्टिकोण ही समक्ष थे, तब इतना जो किया जा सका, कम स्तुत्य नहीं है। विश्व में अपनी कोटि का यह असाधारण कार्य था। 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह यूनान व यूरोप में भाषा T- विश्लेषण पुरातन संस्कृति, साहित्य तथा दर्शन के विकास में प्राच्य देशों में जो स्थान भारत का है, उसी तरह पाश्चात्य देशों में ग्रीस ( यूनान ) का है । भारतवर्ष के अनन्तर यूनान में भी भाषा-तत्त्व पर कुछ चिन्तन चला । यद्यपि वह भारतवर्ष की तुलना में बहुत साधारण था, केवल ऊपरी सतह को छूने वाला था, पर, पाश्चात्य देशों में इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास था, इसलिए उसका ऐतिहासिक महत्व है । 2010_05 सुकरात का इंगित उनका सुकरात ( ई० पू० ४६६ से ई० पू० ३६६ ) यूनान के महान् दार्शनिक थे । विषय तत्त्व ज्ञान था; अतः भाषा-शास्त्र के सम्बन्ध में उन्होंने लक्ष्यपूर्वक कुछ नहीं लिखा, पर, अन्य विषयों की चर्चा के प्रसंग में इस विषय की ओर भी कुछ इंगित किया । सुकरात के समक्ष यह प्रश्न आया कि शब्द और अर्थ में परस्पर जो सम्बन्ध है, वह स्वाभाविक है या इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी एक वस्तु का जो नाम प्रचलित है, उस (नाम) के स्थान पर यदि कोई दूसरा नाम रख दिया जाए, तो क्या वह अस्वाभाविक होगा ? सुकरात का इस सन्दर्भ में यह चिन्तन था कि किसी वस्तु और उसके नाम का दूसरे शब्दों में अर्थ और शब्द का कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है 1 है । यदि किसी वस्तु का उसके नाम से स्वाभाविक सम्बन्ध सर्वव्यापी होता, देश - काल के भेद से व्याहत नहीं होता । जिस किसी भाषा का एक शब्द सभी दूसरी भाषाओं में अर्थ का अपनी भाषा में द्योतक है । अर्थात्, संसार में होती । प्लेटो ने भाषा और विचार के सम्बन्ध पर भी और भाषा में केवल इतना ही अन्तर है कि विचार [ १३ प्लेटो : भाषा-तत्व सुकरात के पश्चात् उनके शिष्य प्लेटो ( ४२९ ई० पू० से ३४७ ई० पू० ) यूनान के बहुत बड़े विचारक हुए । उनका भी अपने गुरु की तरह भाषा - विज्ञान से कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं था । उन्होंने यथा-प्रसंग भाषा तत्वों के सम्बन्ध में जहां-तहां अपने विचार प्रकट किये हैं, जिनका भाषा विज्ञान के इतिहास में कुछ-न-कुछ महत्व है । उन्होंने ध्वनियों के वर्गीकरण का मार्ग दिखाया तथा ग्रीक भाषा की ध्वनियों को घोष और अघोष; इन दो भागों में विभक्त किया । यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का यह सबसे पहला प्रयत्न था । वह मानव द्वारा स्वीकृत सम्बन्ध होता, तो वह शाश्वत होता, ऐसा होने पर संसार में सर्वत्र उसी अर्थ का द्योतक होता, जिस सबकी स्वाभाविक भाषा एक ही चर्चा की है । उनके अनुसार विचार आत्मा का अध्वन्यात्मक या निःशब्द Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ वार्तालाप है और जब वह ध्वन्यात्मक होकर मुख-विवर से व्यक्त होता है, तो उसकी संज्ञा भाषा हो जाती है । सारांश यह है, प्लेटो के अनुसार भाषा और विचार में मूलतः ऐक्य है । केवल वाह्य दृष्टि से ध्वन्यात्मकता और अध्वनियात्मकता के रूप में अन्तर है । प्लेटो वाक्य - विश्लेषण और शब्द-भेद के सम्बन्ध में भी कुछ आगे बढ़े हैं । उद्देश्य, विधेय, वाच्य, व्युत्पति आदि पर भी उनके कुछ संकेत मिलते हैं, जो भाषा विज्ञान-सम्बन्धी यूनानी चिन्तन के विकास के प्रतीक हैं । अरस्तू का काव्य शास्त्र प्रकाश डाला है । यूनान के तीसरे महान् दार्शनिक, काव्यशास्त्री और चिन्तक अरस्तु थे । उनका भी मुख्य विषय भाषा नहीं था, पर, प्रासंगिक रूप में भाषा पर भी उन्होंने अपना चिन्तन दिया । अरस्तू का एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ पोयटिक्स ( काव्यशास्त्र ) है, जिसमें उन्होंने त्रासदी, कामदी आदि काव्य-विधाओं का मार्मिक विवेचन किया है । पोयटिक्स के दूसरे भाग में अरस्तू ने जहां शैली का विश्लेषण किया है, वहां भाषा पर भी कुछ यद्यपि वह भाषा-विज्ञान से साक्षात् सम्बद्ध नहीं है, पर, महत्वपूर्ण है उनके अनुसार वर्ण अविभाज्य ध्वनि है । वह स्वर, अन्तस्थ और स्पर्श के रूप में विभक्त है । दीर्घ, ह्रस्व, अल्पप्राण तथा महाप्राण आदि पर भी उन्होंने चर्चा की है। उन्होंने स्वर की जो परिभाषा दी, वस्तुतः वह कुछ दृष्टियों से वैज्ञानिक कही जा सकती है । उन्होंने बताया कि जिसकी ध्वनि के उच्चारण में जिहवा और औष्ठ का व्यवहार न हो, वह स्वर है । । उद्देश्य, विधेय, संज्ञा, क्रिया आदि पर भी अरस्तू ने प्रकाश डाला है । कारकों तथा उनको प्रकट करने वाले शब्दों का भी उन्होंने विवेचन किया है, जो यूरोप में इस कोटि का सबसे पहला प्रयास है । प्लेटो ने शब्दों के श्रेणी विभाग ( Parts of Speech ) का जो प्रयत्न आरम्भ किया था, उसे पूरा कर आठ तक पहुंचाने का श्रेय अरस्तू को ही है । उन्होंने लिंग (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग ) -भेद तथा उनके लक्षणों का भी विश्लेषण किया । ग्रीक, लैटिन और हि जिनमें पहले थँक्स ग्रीक वैयाकरणों ने तदनन्तर प्रस्तुत विषय को और आगे बढ़ाया। ( ई० पू० दूसरी शती ) हैं । ग्रीस और रोम में जब पारस्परिक संपर्क बढ़ने लगा, तब विद्याओं का आदान-प्रदान भी प्रारंभ हुआ । फलतः रोमवासियों ने ग्रीस की भाषा अध्ययनप्रणाली को ग्रहण किया और लेटिन भाषा के व्याकरणों की रचना होने लगी । लेटिन का सबसे पहला प्रामाणिक व्याकरण लौरेंशस वाल नामक विद्वान् द्वारा लिखा गया । वह ईसाईधर्म के प्रभाव का समय था; अतः ग्रीस और रोम में ओल्ड टेस्टामेंट ( Old testament ) 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ १५ के अध्ययन का एक विशेष क्रम चला । उस बीच विद्वानों को ग्रीक,लेटिन और हिब्रू भाषाओं के तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन का विशेष अवसर प्राप्त हुआ। ___ ओल्ड टेस्टामेंट की भाषा होने के कारण उस समय हिब्र को वहां सबसे प्राचीन तथा सब भाषाओं की जननी माना जाता था। फलतः विद्वानों ने यूरोप की अन्य भाषाओं के वैसे शब्दों का अन्वेषण आरम्भ किया, जो हिब्र के तदर्थक शब्दों के सदृश या मिलतेजुलते थे। ऐसे कोश बनने लगे, जिनमें इस प्रकार के शब्दों का संकलन था। उन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से साध्य है, ऐसा प्रमाणित करने का भी प्रयास चलने लगा। इस सन्दर्भ में तत्कालीन विद्वानों का अरबी तथा सीरियन आदि भाषाओं के परिशीलन की ओर भी ध्यान गया। पन्द्रहवीं शती गूरोप में विद्याओं और कलाओं के उत्थान या पुनरुज्जीवन का समय माना जाता है । साहित्य, संस्कृति आदि के विकास के लिए जन-मानस जागृत हो उठा था तथा अनेक आन्दोलन या सबल प्रयत्न पूरे वेग के साथ चलने लगे थे। भिन्न-भिन्न देशवासियों का अपनी-अपनी भाषाओं के अभ्युदय की ओर भी चिन्तन केन्द्रित हुआ । परिणामस्वरूप भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का जितना जैसा संभव था, उपक्रम चला । भाषाअध्येताओं ने इस सन्दर्भ में जो उपलब्धियां प्राप्त की, उनमें से कुछ थीं : * विद्वानों को ऐसा आभास हुआ कि ग्रीक और लैटिन भाषाए सम्भवतः किसी एक ही स्रोत से प्रस्फुटित हुई हैं। * भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण की दृष्टि से यह, चाहे अति साधारण ही सही, एक प्रेरक संकेत था। * विद्वानों को चाहे हल्की ही सही, ऐसी भी प्रतीति हुई कि हो सकता है, शब्दों का आधार धातुएं हों। * भाषाओं के अध्ययन की ओर उस समय यूरोप में कितनी उन्मुखता हो चली थी, यह इसी से स्पष्ट है कि सुप्रसिद्ध दार्शनिक लिबनिज ने भी इस ओर ध्यान दिया । शासक वर्ग भी इससे प्रभावित हुआ। फलत: पीटर महान् ने तुलनात्मक शब्दों का संग्रह करवाया। रूस की महारानी कथरिन द्वितीय ने भी पी० एस० पल्लस (१७४१-१८११) को एक तुलनास्मक शब्दावली तयार करने की आज्ञा दी। फलतः उन्होंने यूरोप और एशिया; दोनों महाद्वीपों की अनेक भाषाओं के २८५ तुलनात्मक शब्द संकलित किये। इसके दूसरे संस्करण में कुछ और विकास हुआ। लगभग अस्सी भाषाओं के सादृश्य मूलक शब्दों का उसमें और समावेश किया गया। ... 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ - पश्चिम में भाषा-तत्व पर हुए अध्ययन-अनुशीलन का यह संक्षिप्त विवरण है। इसमें कोई सन्देह नहीं, भाषा-वैज्ञानिकों की अगली पीढ़ी के लिए यह किसी-न-किसी रूप में प्रेरक सिद्ध हुआ। निष्कर्ष प्राच्य और प्रतीच्य दोनों भू-भागों में भाषा-तत्त्व पर की गयी गवेषणा और विवेचना की पृष्ठ-भूमि प्राप्त थी ही, जिस पर आगे चल कर भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में भाषा के विविध पक्षों को लेते हुए सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन-कार्य हुआ और हो रहा है। भाषा-विज्ञान इस समय मानविको अध्ययन के क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्वतन्त्र विषय के रूप में प्रतिष्ठित है। इस पर काफी गवेषणा और अनुसन्धान हुआ है, पर, यह विषय बहुत विस्तीर्ण है, जिसकी व्याप्ति सारे विश्व तक है। विश्व की विभिन्न प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का ज्यों-ज्यों और अधिक तलस्पर्शितापूर्वक वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन-क्रम आगे बढ़ता जायेगा, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में तो बड़ा काम होगा ही, विश्व के विभिन्न भागों में समय-समय पर प्रादुभूत सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक विकास, राजनैतिक व प्रशासनिक परिवर्तन, उतार-चढ़ाव आदि से जुड़े हुए अनेक अध्यक्त तथ्य भी प्रकट होंगे। भाषा-विज्ञान की आधुनिक परम्परा पाश्चात्य विद्वाम ___ भाषा-विज्ञान शब्द आज जिस अर्थ में प्रचलित है, उस दृष्टि से भाषा के साथ संश्लिष्ट अनेक सूक्ष्म पक्षों का व्यापक और व्यवस्थित अध्ययन लगभग पिछली दो शताब्दियों से हो रहा है। अध्ययन की इस सूक्ष्म विश्लेषणपूर्ण व समीक्षात्मक परम्परा को आरम्भ करने का मुख्य श्रेय यूरोपीय विद्वानों को है, जिन्होंने पाश्चात्य भाषाओं के साथ-साथ प्राच्य भाषाओं का भी उक्त दृष्टिकोण से गहन अध्ययन किया। विशेषत: भारोपीय-भाषाओं के अध्ययन में तो इन विद्वानों ने जो कार्य किया, वह अत्यन्त प्रेरक और उद्बोधक है। . . पाश्चात्य विद्वानों में निःसन्देह अनुसन्धित्सा की विशेष वृत्ति रही है। पाश्चात्य मनीषी सर विलियम जाँन्स इसके मूर्त उदाहरण कहे जा सकते हैं। वे (१८ वीं शती) कलकत्ता में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे। भारतीय विधि-विधान, न्याय तथा प्रशासन आदि को सूक्ष्मता से जानने की उन्हें जिज्ञासा हुई, ताकि वे भारतीयों को उनकी अपनी परम्पराओं के अनुरूप सही न्याय दे सकें। इसके लिए संस्कृत का अध्ययन परम आवश्यक था। सर विलियम जॉन्स के मन में संस्कृत पढ़ने की उत्कट इच्छा जाएत हुई। उन्होंने संस्कृत के किसी अच्छे विद्वान् की खोज प्रारम्भ की, जो उन्हें पढ़ा सकें। 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] विश्व भाषा-प्रवाह [ १७ बड़ी कठिनाई थी। कोई विद्वान उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन दिनों ब्राह्मण विद्वानों में यह रूढ़ धारणा थी, किसी विधर्मी को देव-वाणी कसे पढ़ाई जा सकती है ? बहुत प्रयत्न से एक विद्वान् तैयार हुए, पर, उन्होंने कई शर्ते रखीं। जिस कमरे में वे पढ़ायेंगे, उसे प्रतिदिन पढ़ाने से पूर्व गंगा के जल से धोना होगा। उनके लिए पढ़ाते समय पहनने के हेतु रेशमी कपड़ों की व्यवस्था करनी होगी। जाँन्स महोदय भी पढ़ते समय रेशमी वस्त्र धारण करेंगे। भूमि पर बैठकर पढ़ना होगा। सर विलियम जॉन्स ने यह सब सहर्ष स्वीकार किया। उन दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद की गरिमा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। पर, मान-प्राप्त करने की तो उत्कण्ठा के समक्ष उस विदेशी अधिकारी ने किसी भी औपचारिकता को बिलकुल भुला दिया और अपने विद्वान् अध्यापक द्वारा निर्देशित व्यवस्था-क्रम का यथावत् पालन करते हुए पढ़ना आरम्भ कर दिया। जिस लगन, निष्ठा और तन्मयता से सर विलियम जाँन्स ने संस्कृत विद्या का अध्ययन किया, वह विद्यार्थियों के लिए वास्तव में अनुकरणीय है। समुद्रों पार का एक व्यक्ति, जिसे संस्कृत का कोई पूर्व संस्कार न था, न जिसके धर्म की वह भाषा थी, ऐसी तड़प और लगन से गम्भीर ज्ञान अर्जित करने में अपने आप को जोड़ दे, यह कम महत्व की बात नहीं थी। सतत अध्यवसाय और लगन के कारण संस्कृत विद्या की अनेक शाखाओं का सर विलियम जॉन्स ने तलस्पर्शी ज्ञान अर्जित किया । याज्ञवल्क्य आदि स्मृति-ग्रन्थों और मिताक्षरा प्रभृति टीका व व्याख्या-साहित्य का भी उन्होंने सांगोपांग पारायण किया। भारतीय समाज और विधि-विधानों का तो सर विलियम जाँन्स ने विस्तीर्ण ज्ञान पाया ही, साथ ही एक फलित और हुआ, जिसका भाषा-विज्ञान के इतिहास में उल्लेखनीय स्थान है। सर विलियम जॉन्स ग्रीक, लैटिन, गाथिक आदि पुरानी पाश्चात्य भाषाओं के भी विद्वान थे। संस्कृत साहित्य की शाखाओं के परिशीलन के समय उनके समक्ष अनेक ऐसे शब्द आये, जिनका उन्हें ध्वनि, गठन आदि की दृष्टि से लेटिन, ग्रीक आदि से सूक्ष्म साम्य प्रतीत हुआ। उनके मन में बड़ा आश्चर्य और कुतूहल जागा। उन्होंने संस्कृत के ऐसे अनेक शब्द खोज निकाले, जिनका ग्रीक, लैटिन आदि प्रतीच्य भाषाओं के साथ बहुत सादृश्य था। गहन अध्ययन, विश्लेषण तथा अनुसन्धान के निष्कर्ष के रूप में उन्होंने प्रकट किया कि मेरा अनुमान है कि शब्द, धातु, व्याकरण आदि की दृष्टि से संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, गाथिक, काल्टिक तथा पुरानी फारसी का मूल या आदि स्रोत एक है। सन् १७९६ में सर विलियम जॉन्स ने कलकत्ता में रायल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। उस अवसर पर उन्होंने कहा : "संस्कृत भाषा की प्राचीनता चाहे कितनी 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ हो रही हो, उसका स्वरूप निःसन्देह आश्चर्यजनक है। वह ग्रीक से अधिक परिपूर्ण, लेटिन से अधिक समृद्ध तथा इन दोनों से अधिक परिमार्जित है।" घेज्ञानिक एवं तुलनात्मक रूप में भाषाओं के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करने वालों में सर विलियम जॉन्स का नाम सदा शीर्षस्थ रहेगा। भाषा-विज्ञान के सूक्ष्म एवं गम्भीर परिशीलन का लगभग उसी समय से व्यवस्थित क्रम चला, जो उत्तरोत्तर अभिनव उपलब्धियों की ओर अग्रसर होता रहा। यह क्रम विश्व के अनेक देशों में चला और आज भी चल रहा है। इस सन्दर्भ में यह स्मरण करते हुए आश्चर्य होता है और साथ ही प्रेरणा भी मिलती है कि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भारत की प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का गहन अध्ययन ही नहीं किया, अपितु उन भाषाओं का भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक रूप में सूक्ष्म विश्लेषण भी किया, जो भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले मनीषियों, अनुसन्धित्सुओं और अध्येताओं के लिये सदैव उद्बोध-प्रद रहेगा। आदि मान्यताएं भाषा का उद्भव कब हुआ, किस प्रकार हुआ और वह किन-किन विकास-क्रमों में से गुजरती हुई वर्तमान अवस्था तक पहुंची, यह एक प्रश्न है; जो आज से नहीं, चिरकाल से है। वास्तव में इसका सही-सही समाधान दे पाना बहुत कठिन है, क्योंकि भाषा भी लगभग उतनी ही चिरन्तन है, जितनी कि मानव-जाति । मानव-जाति अनादि है, उसी प्रकार भाषा भी अनादि है, इस प्रकार कहा जा सकता है। पर, बुद्धिशील मानव स्वभावतः जिज्ञासु है, इतने मात्र से कैसे परितुष्ट होता ? जीवन के साथ सतत संलग्न भाषा का उद्भव कैसे हुआ, वह विकास और विस्तार के पथ पर किस प्रकार अग्रसर हुई, यह जानने की उत्सुकता उसके मन में सदा से बनी रही है। इस प्रश्न का समाधान पाने को वह चिन्तित रहा है। फलतः अनेक प्रयत्न चले। समाधान भी पाये, पर, भिन्न-भिन्न प्रकार के। आज भी भाषा की उत्पत्ति की समस्या का सर्वसम्मत समाधान नहीं हो पाया है। यहां प्रस्तुत प्रश्न पर अब तक हुए चिन्तन का विहंगावलोकन करते हुए कुछ ऊहापोह अपेक्षिप्त है। विभिन्न धर्मों के लोगों की उद्भावनाओं पर विचार करना पहली अपेक्षा होगी। समाधान खोजने वालों में कई प्रकार के व्यक्ति होते हैं। उनकी अपनी कुछ पूर्व संचित धारणाएं होती हैं और अतिशय-प्रकाशन की भावना भी। भाषा के उद्भव के प्रश्न पर प्रायः विश्व के सभी धर्मों के अनुयायियों ने अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। 1. The Sanskrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copicus than the Latin and more exquisitely refined than either.... ____ 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ १९ वैदिक मान्यता ___ जो वेद में विश्वास करते हैं, उनकी मान्यता है कि वेद मानव-कृत नहीं हैं, अपौरुषेय हैं। ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की, मानव को बनाया, भाषा की रचना की। ऋषियों के अन्तर्मन में ज्ञान का उद्भास किया, जो वेद की ऋचाओं और मन्त्रों में प्रस्फुटित हुआ। इनकी भाषा छन्दस् या वैदिक संस्कृत है, जो अनादि है, ईश्वरकृत है, इसलिये इसे देव-भाषा कहा जाता है। संसार की सभी भाषाए इसी से निकली हैं। यह मानव को ईश्वर-दत्त भाषा है। संस्कृत के महान वैयाकरण, अष्टाध्यायी के रचयिता पाणिनि ने भी भाषा की ईश्वरतता को एक दूसरे प्रकार से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने व्याकरण के अइउण आदि सूत्रों के विषय में लिखा है : “सनक आदि ऋषियों का उद्धार करने के लिए अर्थात् उन्हें शब्द-शास्त्र का ज्ञान देने के लिये नटराज भगवान् शंकर ने ताण्डव नृत्य के पश्चात् चौदह बार अपना डमरू बजाया, जिससे चौदह सूत्रों की सृष्टि हुई।" इन्हीं चौदह सूत्रों पर सारा शब्द-शास्त्र टिका है। यास्क का सूक्ष्म चिन्तन पाणिनि से पूर्ववर्ती निरुक्तकार यास्क ( ई० पू०८००) के उस कथन पर इस प्रसंग में विचार करना उपयोगी होगा, जो शब्दों के व्यवहार के सम्बन्ध में है। भाषा की उत्पत्ति की समस्या पर भी इससे कुछ प्रकाश पड़ता है। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात; इन चार पद-भेदों का विवेचन करते हुए प्रासंगिक रूप में उन्होंने शब्द की भी चर्चा की है। उन्होंने लिखा है : "शब्द अणीयान् है; इसलिए लोक में व्यवहार (काम चलाने) के लिए वस्तुओं का संज्ञाकरण (नाम या अभिधान ) शब्द द्वारा हुआ ।' उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप में कुछ भी नहीं लिखा है। हो सकता है, उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा हो। इस विषय में वे किसी पूर्व कल्पना या धारणा को लिए हुए हों। शौकिक जनों को पारस्परिक व्यवहार चलाने के लिए कोई एक माध्यम चाहिए। संकेत १ अइउण १। ऋल्लक २। एओङ् ३। ऐऔच ४ । हयवरट् ५। लण ६। अमङणनम् ७। झभज ८ । घढर्घष ९। जबगडदश् १०। खफछठथचटत ११ । कपय १२ । शषसर १३ । हल १४ ॥ २ नृत्तावसाने नटराजराजो, ननाद ढक्कां नवपंचवारम् । उद्धर्तुकामः सनकदिसिद्धानेतद्विमर्श शिवसूत्रजालम् ॥ ३ अणीयस्त्वाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थलोके । -निरुतः १,२ ____ 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ आदि उसके यथेष्ट पूरक नहीं हो सकते तब मनुष्य विभिन्न वस्तुओं की भिन्न-भिन्न संज्ञाऐं करना चाहता है । एतदर्थं वह शब्दों को निष्पन्न करता है । शब्द द्वारा " संज्ञाकरण" का जो कथन निरुक्तकार करते हैं, उससे यह स्पष्ट झलकता है कि उनकी आस्था किसी ईश्वर-कृत भाषा के अस्तित्व में नहीं थी । यदि कोई भाषा ईश्वर-कृत होती, तो उसमें विभिन्न वस्तुओं के अर्थ- द्योतक शब्द होते ही । वैसी स्थिति में वस्तुओं के संज्ञाकरण या उन्हें नाम देने की मानव को क्या आवश्यकता पड़ती ? व्यवस्थित और ईश्वर - कृत भाषा में किसी भी प्रकार की अपरिपूर्णता नहीं होती । वस्तुओं के नामकरण की तभी आवश्यकता पड़ती है, जब भाषा जैसा कोई प्रकार मानव को प्राप्त नहीं हो । यास्क का कथन इसी सन्दर्भ में प्रतीत होता है । भाषा के अनन्य अंग शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यास्क जो मानव - कृतता की ओर इङ्गित करते हैं, यह उनका वस्तुतः बड़ा क्रान्तिकारी चिन्तन है । उनके उत्तरवर्ती महान् बंयाकरण पाणिनि तक भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुरातन बद्धमूल रूढ धारणा से आगे नहीं बढ़ सके, जब कि यास्क ने उनसे तीन शताब्दी पूर्व ही उपर्युक्त संकेत कर दिया था । इससे स्पष्ट है कि यास्क अपेक्षाकृत अधिक समीक्षक एवं अनुसन्धित्सु थे । यास्क के समक्ष उस समय संस्कृत भाषा थी, जो देव-भाषा कहलाती थी । आज भी कहलाती । यास्क ने देव-भाषा की सिद्धि बड़े चमत्कारपूर्ण ढंग से की है । वे लिखते हैं: "मनुष्य वस्तुओं के लिए जो नाम का प्रयोग करते हैं, देवताओं के लिए भी वे वैसे ही हैं ।" 1 तात्पर्य है, मनुष्य की भाषा को देवता भी उसी रूप में समझते हैं । इससे मानवभाषा देव भाषा भी है, ऐसा सिद्ध होता है । संस्कृत के लिये इसी कारण देव भाषा शब्द व्यवहृत है, यहां यास्क का ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है । 1 बौद्ध मान्यता बौद्ध धर्म का त्रिपिटक के रूप में सारा मूल वाङमय मागधी में है, जो आगे चल कर पालि के नाम से प्रसिद्ध हुई । बौद्धों में सिंहली परम्परा की प्रामाणिकता अबाधित है । सबसे पहले सिंहल ( लंका ) में ही विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक लिपिबद्ध किये गये 1 सिंहली परम्परा का अभिमत है कि सम्यक सम्बुद्ध भगवान् तथागत ने अपना धर्मोपदेश मागधी ( पालि ) में किया । उनके अनुसार मागधी संसार की आदि भाषा है । आचार्य बुद्धघोष ने इस तथ्य का स्पष्ट शब्दों में उद्घोष करते हुए लिखा है : "मागधी सभी सत्वों— जीवधारियों की मूल भाषा है | "2 १. तेषां मनुष्यवद्द वताभिधानम् । २. मागधिकाय सव्वसत्तानं मूलभासाय । 2010_05 - - निरुक्त, १, २ विसुद्धिमग्ग Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [२१ महावंस के परिवर्द्धित अंश चूलवंस का भी इसी प्रकार का एक प्रसंग है । रेवत स्थविर के आदेश से आचार्य बुद्धघोष लंका गये । वहां उन्होंने सिंहली अट्ठकथाओं का मागधी में अनुवाद किया । उसका उल्लेख करते हुए वहां कहा गया है : "सभी सिंहली अटुकथाए मागधी भाषा में परिवर्तित - अनूदित की गयीं, जो ( मागधी ) समस्त प्राणी वर्ग की मूल भाषा है ।'' 1 मागधी या पाली के सम्बन्ध में जो सिंहली परम्परा का विश्वास है, वैसा ही बर्मी परम्परा का भी विश्वास है । इतना ही नहीं, पालि त्रिपिटक में विश्वास रखने वाले प्राय: सभी बौद्ध धर्मानुयायी अपनी धार्मिक भाषा पालि या मागधी को संसार की मूल भाषा स्वीकार करते हैं । जैन मान्यता जैन परम्परा का भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भाषा के सम्बन्ध में ऐसा ही विश्वास है । जैनों के द्वादशांगमूलक समग्र आगम अर्द्ध - मागधी में हैं । उनकी मान्यता है कि जैन आगम तीर्थंकर महावीर के मुख से निकले उपदेशों का संकलन हैं, जो उनके प्रमुख शिष्योंगणधरों द्वारा किया गया था । उनके अनुसार अद्ध मागधी विश्व की आदि भाषा हे | सूत्रकृतांग नियुक्ति पर रचित चूर्णि में उल्लेख है : " प्राकृत भाषा ( अर्द्धमागधी ) जीव के स्वाभाविक गुणों से निष्पन्न है । " " यही ( अद्धमागधी ) देवताओं की भाषा है, ऐसा जैनों का विश्वास है । कहा गया है : "अद्ध मागधी आषं एवं सिद्ध वचन है, देवताओं की भाषा है।" तीर्थंकर जब धर्म देशना करते हैं, उनके समवसरण ( विराट श्रोतृ-परिषद् ) में मनुष्यों देवताओं आदि के अतिरिक्त पशु-पक्षियों के उपस्थित रहने का भी उल्लेख है। तीर्थंकरों की देशना अद्धमागधी में होती है । उस ( तीर्थंकर भाषित-वाणी ) का यह अतिशय या वैशिष्ट्य होता है कि श्रोतृ-वृन्द द्वारा ध्वन्यात्मक रूप में गृहीत होते ही वह उनकी अपनी भाषा के रूप में परिणत हो जाती है अर्थात् वे उसे अपनी भाषा में समझते हैं । उपस्थित तिर्यंच ( पशु-पक्षी - गण ) भी उस देशना को इसी ( अपनी भाषा में परिणत ) रूप में श्रवण १. परिवत्त सि सव्वापि सीहलट्ठकथातदा । सव्वेसं मूलभासाय मागधाय निरूतिया || -चूलवंस, परिच्छेद, ३७ २. जीवस्स साभावियगुणेहिं ते पागतभासाए । ३. आरिस वयणो सिद्ध देवानं अद्धमागहा बाणी । 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ करते हैं। एक प्रकार से यह भाषा केवल मानव-समुदाय तथा देव-वृन्द तक ही सीमित नहीं है, पशु-पक्षियों तक व्याप्त है। प्राकृत-विद्वानों का अभिमत जैन शास्त्रकारों या व्याख्याकारों ने ही नहीं, अपितु कतिपय उत्तरवर्ती जैन-अर्जन प्राकृत विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किये हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध अलंकार शास्त्री नमि साधु ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए लिखा है : “प्राकृत, व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष समस्त जगत् के प्राणियों का सहज वचन-व्यापार-- भाषा है ।............ प्राकृत का अर्थ प्राक् कृत = पूर्व कृत अथवा आदि सृष्ट भाषा है। वह बालकों, महिलाओं आदि के लिये सहजतया बोधगम्य है और सब भाषाओं का मूल है।"1 भोज-रचित सरस्वती कण्ठाभरण के व्याख्याकार आजड़ ने भी इसी प्रकार का उल्लेख किया है। उनके अनुसार प्राकृत समस्त जगत् के प्राणियों का स्वाभाविक वचन-व्यापार है, शब्दशास्त्रकृत विशेष संस्कारयुक्त है तथा बच्चों, ग्वालों व नारियों द्वारा सहज ही प्रयोग में लेने योग्य है। सभी भाषाओं का मूल कारण होने से वह उनकी प्रकृति है अर्थात् उन भाषाओं का वह (उसी प्रकार) मूल कारण है, जिस प्रकार प्रकृति जगत् का मूल कारण है। प्रसिद्ध कवि वाक्पति ने गउडवहो काव्य में प्राकृत की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा है : "जैसे जल-नदियां समुद्र में मिलती हैं और उसी से ( वाष्प रूप में ) निकलती हैं, उसी तरह भाषाए प्राकृत में ही प्रवेश पाती हैं और उसी से निकलती हैं।" रोमन कैथोलिक मान्यता ईसाई धर्म में भी भाषा के विषय में इसी प्रकार की मान्यता है। इस धर्म के दो सम्प्रदाय हैं-रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट। रोमन कैथोलिक प्राचीन है। उनका सर्वमान्य ग्रन्थ ओल्ड टेस्टामेंट है, जो हिन में लिखा गया है। उनके अनुसार परमात्मा ने सबसे पहले पूर्ण विकसित भाषा के रूप में इसे आदम और हव्वा को प्रदान किया। उनका १. सकलगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । ............."प्राक् कृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । २. सकलबालगोपालांगनाहृदयसंचारी निखिलजगज्जन्तूनां शब्दशास्त्रीकृतविशेषसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः समस्तेतरभाषाविशेषाणां मूलकारणत्वात् प्रकृतिरिवप्रकृतिः तत्र भवा सैव या प्रकृतिः। ३. सयलाओ इयं वायाविसंति एतो य गति वायाओ। एति समुह चियःणेति सायराओ च्चिय जलाई ॥ ९३ ॥ ____ 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ २३ विश्वास है कि विश्व की यह आदि भाषा है। सभी भाषाओं का यह उद्गम-स्रोत है। स्वर्ग के देव-गण इसी भाषा में सम्भाषण करते हैं । हिब्र से सभी भाषाओं का उद्गम सिद्ध करने के लिए ग्रीक, लैटिन आदि पाश्चात्य भाषाओं के ऐसे अनेक शब्द संकलित किये गये, जो उससे मिलते-जुलते थे। इस प्रकार यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से सिद्ध किये जाने के भी प्रयास हुए। इसके लिये ध्वनि-साम्य, अर्थ-साम्य आदि को आधार बनाया गया ! जो भी हो, तुलनात्मक अध्ययन का बीज रूप में एक क्रम तो चला, जो उत्तरवर्ती भाषा-शास्त्रीय व्यापक अध्ययन के लिये किसी रूप में सही, उत्साहप्रद था। इस्लाम का अभिमत ____ आदि भाषा के सम्बन्ध में इस्लाम का मन्तव्य भी उपर्युक्त परम्पराओं से मिलता-जुलता है। इस्लाम के अनुयायियों के अनुसार कुरान, जो अरबी भाषा में है, खुदा का कलाम है। मिस्र में भी प्राचीन काल से वहां के निवासियों का अपनी भाषा के सम्बन्थ में इसी प्रकार का विचार था । इस्लाम का प्रचार होने के अनन्नर मिस्रवासी अरबी को ईश्वर-दत्त आदि भाषा मानने लगे। भाषा को लेकर पिछली शताब्दियों तक धर्म के क्षेत्र में मानव की कितनी अधिक रूढ़ धारणाए बनी रहीं, मिस्र की एक घटना से यह विशेष स्पष्ट होता है। टेलीफोन का आविष्कार हुआ। संसार के सभी प्रमुख देशों में उसकी लाइनें बिछाई जाने लगी। मित्र में भी टेलीफोन लगने की चर्चा आई। मिस्रवासियों ने जब यह जाना कि सैकड़ों मील की दूरी से कही हुई बात उन्हीं शब्दों में सुनी जा सकेगी, तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। मिस्र के मौलवियों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि इन्सान की आवाज इतनी दूर नहीं पहुंच सकती। यदि पहुंचेगी, तो वह इन्सान की आवाज़ नहीं, अपितु शैतान की आवाज़ होगी; अर्थात् इन्सान की बोली हुई बात को शैतान पकड़ेगा, आगे तक पहुंचायेगा। जन-साधारण की मौलवियों के प्रति अटूट श्रद्धा थी। उन्होंने मौलवियों के कथन का समर्थन करते हुए कहा कि वे शैतान की आवाज नहीं सुनेंगे। उनके यहां टेलीफोन की लाइनें न बिछाई जायें। प्रशासन स्तब्ध था, कैसे करे ? बहुत समझाया गया, पर वे महीं माने। अन्त में वे एक शर्त पर मानने को सहर्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने कहा, कुरान की आयतें खुदा की कही हुई हैं। मनुष्य उनको बोल सकता है, शंतान उनका उच्चारण नहीं कर सकता। यदि दूरवर्ती मनुष्य द्वारा बोली हुई कुरान की आयतें टेलीफोन से सही रूप में 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ सुनी जा सकें, तो उन्हें विश्वास होगा कि वह शैतान की आवाज नहीं है, इन्सान की है। ऐसा ही किया गया। तदनन्तर मित्रवासियों ने टेलीफोन लगाना स्वीकार किया। ___प्लेटो जैसे दार्शनिक और तत्त्व-वेत्ता का भी इस सम्बन्ध में यह अभिमत था कि जगत् में सभी वस्तुओं के जो नाम हैं, वे प्रकृति-दत्त हैं। सारांश यह है कि दूसरे रूप में सही, प्लेटो ने भी भाषा को देवी या प्राकृतिक देन माना; क्योंकि वस्तु और क्रिया के नामों को समन्वित संकलना ही भाषा है। भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में विभिन्न आस्थावादियों के मन्तव्यों से जिज्ञासा और अनुसन्धित्सा-प्रधान लोगों को सन्तोष नहीं हुआ। इस पर अनेक शंकाए उत्पन्न हुई। सबका दावा अपनी-अपनी भाषा की प्राचीनता और ईश्वर या प्रकृति की देन बताने का है । यदि भाषा ईश्वर-दत्त या जन्मजात है, तो देश-काल के आधार पर थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है, पर, ससार की भाषाओं में परस्पर जो अत्यन्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह क्यों है ? इस प्रकार के अन्य प्रश्न थे, जिनका समाधान नहीं हो पा रहा था । मानव की मूल भाषा : कतिपय प्रयोग अतिविश्वासी जन-समुदाय के मन पर विशेष प्रभाव पड़ा। वे मानने लगे, शिशु जन्म के साथ ही एक भाषा को लेकर आता है। पर, जिस प्रकार के देश, वातावरण, परिवार एवं समाज में वह बड़ा होता है, अनवरत सम्पर्क, सान्निध्य और साहचर्य के कारण वहीं की भाषा को शनैः-शनैः ग्रहण करता जाता है। फलतः उसका संस्कार परिवर्तित हो जाता है और वह अपने देश में प्रचलित भाषा को सहज रूप में बोलने लगता है। स्वभावतः प्राप्त भाषा उसके लिए अव्यक्त या विस्मृत हो जाती है और वह जो कृत्रिम भाषा अपना लेता है, वह उसके लिए स्वाभाधिक हो जाती है। समय-समय पर उपर्युक्त तथ्य के परीक्षण के लिए कुछ प्रयोग किये गये। ई० पू० पांचवीं शती के प्रसिद्ध लेखक हेरोडोटौस के अनुसार मिस्र के राजा समिटिकोस (Psammitochos) ने इस सन्दर्भ में एक प्रयोग किया। जहां तक इतिहास का साक्ष्य है, भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में किये गये प्रयोगों में वह पहला प्रयोग था। स्वाभाविक भाषा या आदि भाषा के रहस्योद्घाटन के साथ-साथ इससे प्राचीन या आदिम मानव-जाति का भेद खुलने की भी आशा थी। इस प्रकार सोचा गया कि बच्चे स्वाभाविक रूप में जो भाषा बोलने लगेंगे, बही विश्व की सबसे प्राचीन मूल भाषा सिद्ध होगी और जिन लोगों की, जिस जाति के लोगों की वह भाषा होगी, निश्चित ही वह विश्व की आदिम जाति मानी जायेगी। परीक्षण इस प्रकार हमा। दो नवजात बच्चों को लिया गया। उनके पास आने-जाने 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ २५ वालों को कठोर आदेश था कि वहां वे कुछ न बोलें। उन शिशुओं के परिचारक को भी कड़ा आदेश था कि वह उनके खाने-पीने की व्यवस्था और देखभाल करता रहे, पर, मुह से कभी एक शब्द भी न बोले । क्रम चलता रहा । बच्चे बड़े होते गये। उन्हें कुछ भी बोलना नहीं आया। उनके मुह से केवल एक शब्द सुना गया-'बेकोस' ( Bekos)। यह शब्द फ्रीजियन भाषा का है। इसका अर्थ रोटी होता है। उन बच्चों के खान-पान की व्यवस्था करने वाला नौकर फ्रिजियन था। ऐसा माना गया कि कभी रोटी देते समय भूल से नौकर के मुह से 'बेकोस' शब्द निकल गया हो, जिसको बच्चों ने पकड़ लिया हो। बारहवीं शताब्दी में इसी प्रकार का प्रयोग फेडरिक द्वितीय ने किया, पर, अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। उसके अनन्तर पन्द्रहवीं शताब्दी में स्काटलैण्ड के राजा जेम्स चतुर्थ ने भी इसी तरह का प्रयोग किया, पर, कुछ सिद्ध नहीं हो पाया। भारत में सोलहवीं शताब्दी में बादशाह अकबर ने भी परीक्षण किया। विशेष सावधानी बरती गयी। बड़ी उत्सुकता से परिणाम की प्रतीक्षा रही। अन्त में यह देखकर सब चकित थे कि सभी बच्चे मूक रह गये। एक भी शब्द बोलना उन्हें नहीं आया । प्रयोगों का फलित प्रयोगों से स्पष्ट है कि संसार में कोई भी भाषा ईश्वर-कृत नहीं है और न जन्म से कोई किसी भाषा को सीखें हुए आता है। यह मान्यता श्रद्धा और विश्वास का अतिरेक है। महत्व की एक बात और है। यदि भाषा स्वाभाविक या ईश्वरीय देन होती, तो वह आदि काल से ही परिपूर्ण रूप में विकसित होती। पर, भाषा का अब तक का इतिहास साक्षी है कि शताब्दियों की अवधि में भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूप क्या-से-क्या हो गये हैं। उनमें उत्तरोत्तर विकास होता गया है, जो किसी एक भाषा के शताब्दियों पूर्व के रूप और वर्तमान रूप की तुलना से स्पष्ट ज्ञात हो सकता है। इस दृष्टि से विद्वानों ने बहुत अनुसन्धान किया है, जिसके परिणाम-धिकास की शृखला और प्रवाह का प्रलम्ब इतिहास है। - * अठारहवीं शदी में श्री जे० जी० हर्डर नामक विद्वान् हुए। उन्होंने सन् १७७२ में भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शोधपूर्ण निबन्ध लिखा। भाषा की देवी उत्पत्ति के बारे में उन्होंने उसमें समीक्षात्मक दृष्टि से विचार किया और उसे युक्ति एवं तर्कपूर्वक अमान्य ठहराया। पर, स्वयं उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किसी ठोस सिद्धान्त की स्थापना नहीं की। देवी सिद्धान्त का उन्होंने खण्डन तो किया, पर, साथ ही यह भी कहा कि भाषा मनुष्य-कृत नहीं है। मनुष्य को उसकी आवश्यकता थी, स्वभावतः उसका विकास होता गया। 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अज्ञात को ज्ञात करना प्रज्ञा का स्वभाव है। भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में देवीउत्पत्ति का सिद्धान्त प्रज्ञाशील मानव को समाधान नहीं दे सका। मानव ने बुद्धि और अनुमान के आधार पर तब समाधान ढूंड निकालने का प्रयत्न किया। यही ज्ञान के विकास का क्रम है। अपने प्रयत्न में कौन कितना सफल हो सका, यह समीक्षा और विश्लेषण का विषय है, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे प्रयत्न जिज्ञासा की ओर आगे बढ़ने वालों के लिए बड़े प्रेरक सिद्ध हुए। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में अधिकांशत: कल्पनाओं के आधार पर समाधान ढूढ़े जाते रहे हैं, क्योंकि दूसरा कोई ठोस आधार नहीं था। मूलभूत सिद्धान्त निर्णय-सिद्धान्त ___एक मत है, जब भाषा नहीं थी, तो लोग परस्पर में हाथ आदि के संकेतों से किसी तरह अपना काम चलाते थे। पर, इससे उनको सन्तोष नहीं था। उत्तरोत्तर जीवन विकास पाता जा रहा था। साधन-सामग्री में विविधता और बहुलता आ रही थी। विकासमान परिस्थिति मन में अनेक प्रकार के नये-नये भावों को उत्पन्न करती थी। पर, इन सब के लिए अभिव्यक्ति के हेतु मानव के पास कुछ था नहीं। सबके लिए इसकी बड़ी खिन्नता थी। सब एकत्र हुए। अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन ढढना था । विभिन्न वस्तुओं, क्रियाओं आदि के प्रतीक या सकेत के रूप में कुछ ध्वनियां या शब्द निश्चित किये । उनके सहारे वे अपना काम चलाने लगे। शब्दों का जो प्रयोग-क्रम चल पड़ा, उसने और नये-नये शब्द गढ़ने तथा व्यवहार में लाने की ओर मानव को उद्यम रखा। भाषा-विज्ञान में इसे 'निर्णय-सिद्धान्त' कहा जाता है। प्रो० रूसो इसके मुख्य समर्थक थे। इसे प्रतीकवाद, संकेतवाद या स्वीकारवाद भी कहते हैं; क्योंकि इसमें शब्दों का प्रतीक या संकेत के रूप में स्वीकरण हुआ। कल्पना सुन्दर है, पर, युक्तियुक्त नहीं है। यदि कोई भाषा नहीं थी, तो सबसे पहले यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे एकत्र ही कसे हुए ? एकत्र होने के लिए भी तो कुछ कहना-समझाना पड़ता है। बिना भाषा के कहने की बात कसे बनी ? एकत्र हो भी जाए, तो विचार-विनिमय कैसे होता? विचार-विनिमय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। विभिन्न बस्तुओं और क्रियाओं के लिए संकेत या ध्वनियों का स्वीकार या निर्णय भी घिना भाषा के सम्भव कैसे होता? इस कोटि का विचार-विमर्श भाषा के बिना केवल संकेतों से सम्भव नहीं था। 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [ २७ दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि वे एकत्र हो सके, ध्वनियों या शब्दों के रूप में नामों का निर्णय कर सके, तो उनके पास, चाहे अपूर्ण, अविकसित या टूटी-फूटी ही सही, कोई भाषा अवश्य ही होगी । उसके अभाव में यह सब सम्भव नहीं था । यदि किसी भी प्रकार की भाषा का होना मान लें, तो फिर नामों की खोज के लिए एकत्र होने की आवश्यकता नहीं रहती । उसी अपूर्ण भाषा को पूर्ण या विकसित बनाया जा सकता था । धातु - सिद्धान्त भाषा के उद्भव के सन्दर्भ में एक और विचार आया, जो बड़ा कुतूहल -जनक है । वह भाषा-विज्ञान में 'धातु - सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अनुसार संसार में जितनी भी वस्तुए हैं, उनकी अपनी-अपनी ध्वनिर्या हैं | उदाहरणार्थं, यदि एक कांसी की थाली पर डंडे से मारें तो झन-झन की ध्वनि होगी । पीतल की थाली पर मारने से जो saft होगी, वह कांसी की थाली से भिन्न प्रकार की होगी । लोहे के टीन पर या सन्दूक पर मारने से ध्वनि का दूसरा रूप होगा । इसी प्रकार कागज, काठ, कांच, कपड़ा, चमड़ा, पत्थर आदि भिन्न-भिन्न वस्तुओं से भिन्न-भिन्न ध्वनियां मिलेंगी । ऐसा क्यों होता है ? यह ध्वन्यात्मक भिन्नता क्यों है ? उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार संसार के प्रत्येक पदार्थ की अपनी एक स्वाभाविक ध्वनि है, जो सम्पर्क, संघर्ष, टक्कर या आघात से स्फुटित होती है । इतना ही नहीं, इस सिद्धान्त के पुरस्कर्त्ताओं ने यहां तक माना कि प्रत्येक मनुष्य में एक विशेष प्रकार की स्वाभाविक शक्ति है । वह जब जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, दूसरे शब्दों में उनसे टकराता है या संस्पृष्ट होता है, तब सहसा सम्मुखीन या संस्पृष्ट बस्तुओं के अनुरूप उसके मुंह से भिन्न-भिन्न ध्वनियां निकलती हैं । इस प्रकार समय-समय पर मानव के मुख से जो ध्वनियां प्रस्फुटित हुई, वे ही मूल धातुएं थीं। प्रारम्भ में वे धातुए संख्या में बहुत अधिक थीं। पर, सब सुरक्षित नहीं रह पाई । शनै: शनेः लुप्त होती गयीं । उनमें बहुत-सी परस्पर पर्यायवाची थीं। बहुसंख्यक में योग्यतमावशेष ( Survival of the fittest ) के अनुसार कुछ ही विद्यमान रह पाते हैं । इस प्रकार लगभग चार सौ पांचसौ तु शेष रहीं । उन्हीं से क्रिया, संज्ञा आदि शब्द निष्पन्न हुए और भाषा की निर्मिति हुई 1 इस विचारधारा के उद्भावक और पोषक मानते थे कि धातुओं की ध्वनि और तद्गम्य अर्थ में एक रहस्यात्मक सम्बन्ध Mystic Harmony ) है । कहने से सम्भवतः यह तात्पर्य रहा हो कि वह अनुमेय और अनुमात्य है, विश्लेष्य नहीं । रहस्यात्मक उपर्युक्त शक्ति के सम्बन्ध में इस मत के समर्थकों का यह भी मानना था कि मानव में पुरातन समय में जो ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना की शक्ति थी, उत्तरवर्ती काल में यथावत् रूप में विद्यमान नहीं रह सकी; क्योंकि भाषा के निर्मित हो जाने के अनन्तर वह अपेक्षित 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ नहीं रही, अत: व्यवहार या उपयोग का वियय न रहने से वह क्रमशः विलुप्त या विस्मृत होती गयी। आज के मानव में वह शक्ति किसी भी रूप में नहीं रह पायी है । प्रो० हेस, स्टो इन्थाल और मैक्समूलर जर्मन प्रो० हेस ने पहले-पहल इस सिद्धान्त का उद्घाटन किया था। प्रो० हेस ने लिखित रूप में इसे प्रकट नहीं किया। अपने किसी भाषण में उन्होंने इसकी चर्चा की थी। इसके बाद डा० स्टाइन्थाल ने इसे व्यवस्थित रूप में लेख-बद्ध किया और विद्वानों, के समक्ष रखा। स्टाइन्थाल भाषा-विज्ञान और व्याकरण के तो विशेषज्ञ थे ही, तक शास्त्र और मनोविज्ञान के भी प्रोढ़ विद्वान थे। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में वे पहले विद्वान् थे, जिनका मत था कि मनोविज्ञान का सहारा लिये बिना भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो सकता । उन्होंने अपनी एक पुस्तक में व्याकरण, तर्कशास्त्र और मनोविज्ञान के पारस्परिक सम्बन्धों का विशद विवेचन किया। भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर उन्होंने और भी कई पुस्तकें लिखीं। प्रो० मैक्समूलर ने भी इसी सिद्धान्त पर चर्चा की। वे संस्कृत के और विशेषतः वेदों के बहुत बड़े विद्वान् थे। उनका मुख्य विषय साहित्य एवं दर्शन था। पर भाषा-विज्ञान पर भी उन्होंने कार्य किया। ने भारतीय विद्याओं के पक्षधर थे। भारत की संस्कृति, साहित्य, तत्वज्ञान तथा भाषा की प्रकृष्टता से संसार को अवगत कराने में उनका नाम सर्वाग्रणी है। उनकी विवेचन शैली अत्यन्त रोचक थी। सन् १८६१ में भाषा-विज्ञान पर उन्होंने कुछ भाषण दिये। भाषा-विज्ञान जैसे शुष्क और नीरस विषय को उन्होंने इतने मनोरंजक और सुन्दर प्रकार से व्याख्यात किया कि अध्ययनशील व्यक्ति इस ओर आकृष्ट हो उठे। तब से पूर्व भाषा-विज्ञान केवल विद्वानों तक सीमित था। सामान्य लोग इससे सर्वथा अपरिचित थे। इसका श्रेय प्रो० मैक्समूलर को है कि उनके कारण इस ओर जन-साधारण को रुचि जागृत हुई। प्रारम्भ में प्रो० मैक्समूलर को धातु-सिद्धान्त समीचीन जंचा और उन्होंने अपनी पुस्तकों में इसकी चर्चा भी की, पर, बाद में अधिक गहराई में उतरने पर विश्वास नहीं रहा और उन्होंने इसे निरर्थक कहकर अस्वीकार कर दिया। ऐसा लगता है, भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में तब तक कोई सिद्धान्त जम नहीं पाया था। उपयुक्त सिद्धान्त एक नये विचार के रूप में विद्वानों के सामने आया, इसलिए सम्भवतः बहुत गहराई में उतर कर सहसा उन्होंने इसका औचित्य मान लिया, पर, वह मान्यता स्थायी रूप से टिक नहीं पाई। सूक्ष्मता से विचार करें, तो यह कल्पना शून्य में विचरण करती हुई सी प्रतीत होती है। ____ 2010_05 • Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ २९ कल्पना अभिनव चिन्तन की स्फुरण है, पर, यहाँ कवितामूलक कल्पना नहीं है। उसके पीछे ठोस आधार चाहिए। भाषा का विकास वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आघृत है। क्या था, कैसे था, कैसे हुआ, कैसा है; भाषा के सन्दर्भ में इन सबका समाधान होना चाहिए । कविता में ऐसा नहीं होता, जैसा कि विख्यात काव्यशास्त्री अरस्तू ने त्रासदी (Tragedy) और कामदी (Comedy) के प्रसंग में बतलाया कि जो नहीं है, कल्पना या अनुकृति द्वारा उसको उपस्थित करना काव्य है; अतः काव्य की सृष्टि जागतिक यथार्थ से परे होती है। पर, भाषा-विज्ञान में ऐसा नहीं होता। धातुओं की कल्पना के माध्यम से भाषा के उद्भव का सिद्धान्त संगत नहीं लगता। धातुओं के सन्दर्भ में कुछ और कथनीय है। शब्द जिनसे भाषा निष्पन्न होती है, केवल धातुओं से निर्मित नहीं होते। उपसर्ग, प्रत्यय आदि की भी अपेक्षा रहती है, जिनकी इस सिद्धान्त में कोई चर्चा नहीं है। भारोपीय, सामी आदि भाषा-परिवारों में तो धातुओं का बोध होता है, पर, अनेक ऐसे भाषा-परिवार भी हैं, जिनमें धातुओं का पता ही नहीं चलता। यदि 'धातुवाद' के सिद्धान्त को स्वीकार भी कर लिया जाये, तो विश्व की अनेक भाषाओं की उत्पत्ति की समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। धातुओं की मान्यता के सम्बन्ध में एक बात और बड़े महत्व को है। जिन भाषाओं में धातुएं हैं, उन भाषाओं के विकसित होने के बहुत समय बाद धातुओं की खोज हुई । वे स्वाभाविक नहीं हैं, कृत्रिम हैं। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान के पण्डितों के प्रयुज्यमान भाषा के संघटन को व्यवस्थित रूप देने के सन्दर्भ में धातु, प्रत्यय, उपसर्ग आदि द्वारा शब्द बनाने का क्रम स्वीकार किया। यह प्रचलित भाषा को परिमार्जित और परिस्कृत रूप में प्रतिपादित करने का विधि-क्रम कहा जा सकता है, जो वैयाकरणों और भाषा-वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म तथा गम्भीर अनुशीलन के अनन्तर उपस्थापित किया। प्रो० मैक्समूलर जैसे प्रौढ़ विद्वान् ने इस सिद्धान्त को एक बार स्वीकार करके भी फिर अस्वीकार कर दिया। उसके पीछे इसी तरह की कारण-सामग्री थो, जो भाषा की उत्पति के प्रसंग में कोई ठोस पृष्ठभूमि प्रस्तुत नहीं करती थी। यास्क द्वारा आयात-चर्चा शब्दों की धातुओं से निष्पत्ति के सम्बन्ध में यास्क ने निरुक्त में चर्चा करते हुए कहा"नाम ( शब्द ) आख्यात-क्रिया (धातु ) से उत्पन्न हुए हैं, यह निरुक्त-वाङ गमय है। वैयाकरण शाकटायन भी ऐसा ही मानते हैं। आचार्य गार्य तथा अन्य कतिपय घेयाकरण नहीं मानते कि सभी शब्द धातुओं से बने हैं। उनकी युक्तियां हैं, जिस शब्द में स्वर, धातु, प्रत्यय, लोप, ' आगम आदि सस्कार-संगत हों, दूसरे शब्दों में व्याकरण-शास्त्र की प्रक्रिया के ___ 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अनुरूप हों, वे शब्द आख्यातज या धातु-निष्पन्न हैं । पर, जहां ऐसी संगति नहीं होती, वे शब्द संज्ञा-वाची हैं, रूढ़ हैं, यौगिक नहीं, जैसे - गो, अश्व, पुरुष, हस्ती । "सभी शब्द यदि धातु- निष्पन्न हों, तो जो वस्तु ( प्राणी ) जो कम करे, वैसा ( कम ) करने वाली सभी वस्तुए उसी नाम से अभिहित होनी चाहिए । जो कोई भी अध्व ( मार्ग ) का अशन- व्यापन करें, शीघ्रता से दौड़ते हुए मार्ग को पार करें, वे सब 'अश्व' कहे जाने चाहिए । जो कोई भी तर्दन करें, चुमें, वे तृण कहे जाने चाहिए | पर, ऐसा नहीं होता । एक बाधा यह आती है, जो वस्तु जितनी क्रियाओं में सम्प्रयुक्त होती है, उन सभी क्रियाओं के अनुसार उस ( एक ही ) वस्तु के उतने ही नाम होने चाहिए, जैसे—स्थूणा ( मकान का खम्भा ) दरशया (छेद में सोने वाला - खम्भे को छेद में लगाया जाता है) भी कहा जाये, किन्तु ऐसा नहीं होता । "एक और कठिनाई है, यदि सभी शब्द धातु-निष्पन्न होते, तो जो शब्द जिस रूप में व्याकरण के नियमानुसार तदर्थं बोधक धातु से निष्पन्न होते, उसी रूप में उन्हें पुकारा जाता, जिससे अर्थ - प्रतोति में सुविधा रहती । इसके अनुसार पुरुष पुरिशय कहा जाता, अश्व अष्टा कहा जाता और तृण तर्दन कहा जाता । ऐसा भी नहीं कहा जाता है । होता, तो प्रयोग या पृथिवी शब्द का उदा इस व्युत्पत्ति पर उसका आधार “अर्थ - विशेष में किसी शब्द के सिद्ध या व्यवहृत हो जाने के अनन्तर उसकी व्युत्पत्ति का विचार चलता हैं, अमुक शब्द किसी धातु से बना । ऐसा नहीं व्यवहार से पूर्व भो उसका निर्वचन कर लिया जाना चाहिए था । हरण ले प्रथनात् अर्थात् फैलाये जाने से पृथिवी नामकरण हुआ । कई प्रकार की शंकाएं उठती हैं । इस (पृथिवी) को किसने फैलाया ? क्या रहा अर्थात् कहां टिक कर फैलाया । पृथ्वी ही सबका आधार है । फैलाये, उसे अपने लिए कोई आधार चाहिए । तभी उससे यह हो सकता है । इससे स्पष्ट है कि शब्दों का व्यवहार देखने पर मानव व्युत्पत्ति साधने का यत्न करता है और सभी व्युत्पत्तियां निष्पादक धातु के अर्थ की शब्द के व्यवहृत या प्रचलित अर्थ में संगति सिद्ध नहीं करतीं । जिसे जो पुरुष " शाकटायन किसी शब्द के अर्थ के अन्वित - अनुगत न होने पर तथा उस ( शब्द ) की संघटना से संगत धातु से सम्बद्ध न होने पर उस शब्द की व्युत्पत्ति किसी-न-किसी प्रकार से साधने के प्रयत्न में अनेक पदों से उस ( शब्द ) के अंशों का संचयन कर उसे बनाते हैं । जैसे – 'सत्य' शब्द का निर्माण करने में 'इण' ( गत्यर्थंक ) धातु के प्रेरणार्थक (णिजन्त) रूप आयक के यकार को अन्त में रखा, असू ( होना ) धातु के णिजन्त-रहित मूल 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [३१ रूप सत् को प्रारम्भ में रखा, इस प्रकार जोड़-तोड़ करने से 'सत्य' शब्द निष्पन्न हुआ । यह सहजता नहीं है। "क्रिया का अस्तित्व या प्रवृत्ति द्रव्यपूर्वक है अर्थात् द्रव्य क्रिया से पूर्व होता है। द्रव्य के स्पन्दन, आन्दोलन या हलन-चलन की अभिव्यंजना के हेतु क्रिया अस्तित्व से आती है। ऐसी स्थिति में बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर पहले होने वाले द्रव्य का नाम नहीं दिया जा सकता। यहां 'अश्व' का उदाहरण ले सकते हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार शीघ्र दौड़ने के कारण एक प्राणी विशेष 'अश्व' शब्द से संज्ञित होता, तो यह संज्ञा उसकी ( शीघ्र दौड़ना रूप ) क्रिया के देखने के बाद उसे दी जाती, पर, वस्तु-स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अश्वाभिध प्राणी के उत्पन्न होते ही, जब वह चलने में भी अक्षम होता है, यह संज्ञा उसे प्राप्त है। ऐसी स्थिति में उसको व्युत्पत्ति की संगति घटित नहीं होती। शब्दों की निष्पत्ति फलतः भाषा की संरचना में धातु-सिद्धान्त का कितना योग है, इस पर यह सहस्राब्दियों पूर्व के तर्क-वितर्क का एक उदाहरण है। इससे जहाँ एक ओर भारत के मनीषियों के आलोचनात्मक चिन्तन का परिचय मिलता है, वहां दूसरी ओर भाषा और शब्द जैसे विषयों में, जिनकी गहराई में जाने में लोग विशेष रुचि नहीं लेते, उनके तलस्पर्शी अवगाहन का एक स्पृहणीय उद्योग दृष्टिगोचर होता है। १ तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च । न सर्वाणीति गार्योवैयाकर णानाञ्चैके। तद्यत्र स्वर संस्कारौ समर्थौ प्रादेशिकेन गुणेनान्वितौ स्याताम् । संविज्ञानानि तानि, यथा गौरश्वः पुरुषो हस्तीति ।। अथ चेत् सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यः कश्चनतत्कर्म कुर्यात्सर्व तत्सत्वं तथाचक्षीरन् । यः कश्चाध्वानमश्नुवीताश्वः स वचनीयः स्यात् यत्किंचितृन्धात्तणं तत् । अथापि चेत्सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यावद्भिभर्विः सम्प्रयुज्येत तावद्भ्यो नामधेय प्रतिलम्भः स्यात् । तैत्रवं स्थूणा, दरशयावांजनी च स्मात् । अथापि य एषां न्यायवान्कार्भनामिकः संस्कारो यथा चापि प्रतीतार्थानि स्युस्तैथतान्याचक्षीरन् । पुरुषं पुरिशय इत्यावचक्षोरन्, अटेत्यश्वं, तर्दनमिति तृणम् । अथापि निष्पन्नेऽभिव्याहारेऽभिविचारयन्ति। प्रथनात्पृथिवित्याहुः क एनामप्रथयिष्यत्किमाधारश्चेति। अथानन्वितेऽर्थे प्रादेशिके विकारे पदेभ्यः पदेतरार्धान्संचस्कार शाकटायनः एते कारितंच यकारादिञ्चान्तकरणमस्तेः शुद्ध च सकारादिं च । अथापि सत्वपूर्वो भात इत्याहुः। अपरस्माद् भावात्पूर्वस्य प्रदेशो नोपपद्यत इति । -निरुक्त; पाद ४ 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ यद्यपि यास्क गायं की इन युक्तियों से परास्त नहीं हुए । उन्होने अपने समाधान प्रस्तुत कर अपनी ओर से आख्यात (धातु) - सिद्धान्त की स्थापना का पूरा प्रयत्न किया, जिसका उल्लेख यहां अपेक्षित नहीं है, पर, गार्ग्य के तर्क प्रभाव शून्य नहीं हो सके । सहस्राब्दियों के बाद आज भी जब धातु सिद्धान्न की समीक्षा और आलोचना की जाती है, तो गार्ग्य के तर्क अभेद्य दुर्ग की तरह सम्मुख खड़े दिखाई देते हैं । प्राकृत और पालि के सन्दर्भ में किये जा रहे भाषा-वैज्ञानिक विवेचन के क्रम में गायं की युक्तियों द्वारा सहस्रों वर्ष पूर्व की एक विचार- सरणि से अवगत हो सकें, इस प्रयोजन से कम प्रासंगिक होते हुए भी इस विषय को यहां उपस्थित किया गया है । भाषा की उत्पत्ति में जो मत, चाहे थोड़े ही सही, कार्यकर हुए, उनका संक्षेप में समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत प्रसंग के लिए उपयोगी होगा । अनुकरण सिद्धान्त भाषा की उत्पत्ति किसी एक कारण या आधार से नहीं हुई है । उसका निर्माण कई प्रकार के आधारों की भूमि पर टिका है । उनमें एक सिद्धान्त 'अनुकरण' का है । पशुपक्षी मनुष्य के निकट के साथी हैं । उनकी अपनी-अपनी बोली है, जो परस्पर एक-दूसरे से पशु या पक्षी जब प्रसन्न मुद्रा में होते हैं, तब जो आवाज़ करते हैं, वह सम्भवतः भिन्न होती है, जो वे दुःख, पीड़ा या अवसाद में करते हैं । अन्य भी अनेक भिन्न है 1 उस आवाज़ भाव हो सकते हैं, जिनमें बहुत स्पष्ट न सही, पशु-पक्षियों की बोली में कुछ-न-कुछ भिन्नता सम्भावित है। एक प्रकार से इसे पशु-पक्षियों की भाषा कहा जा उनकी ध्वनि को सकता है । भाषाविहीन मनुष्य ने पशु-पक्षियों को बोलते हुए सुना । पकड़ा | जिस पशु या पक्षी से जो ध्वनि आई, उसने उसका व उसकी बोलौ का वैसा नाम दे दिया । उसके आधार पर उससे मिलती-जुलती और भी ध्वनियां या शब्द आविष्कृत किये, जो उसके अपने जीवन की हलचल या प्रवृत्ति से जुड़े हुए थे । उदाहरणार्थ, मानव ने जब बिल्ली को बोलते सुना, नो 'म्याऊ' शब्द उसकी पकड़ में आया । उसने 'म्याऊ' शब्द को बिल्ली की बोली में संकेतित कर लिया और बिल्ली के लिए भी वह इसका प्रयोग करने लगा । हिन्दी में इस शब्द का इसी रूप में प्रचलन है । 'म्याऊ' का मुंह कौन पकड़े' इत्यादि प्रयोग इसके साक्षी हैं । चीनी भाषा में म्याऊ' के स्थान पर 'मिआऊ' प्रयुक्त होता है । मिस्री भागा में बिल्ली के लिए 'माऊ' का व्यवहार होता है । अन्य भी कई भाषाओं में कुछ परिवर्तित उच्चारण के साथ इसका प्रयोग सम्भावित है । काक, घुग्घु, मेंमें ( भेड़ की बोली ), बेबे ( बकरी की बोली ), हिनहिनाना ( घोड़े की बोली ), दहाड़ना ( सिंह की आवाज़ ), फड़फड़ाना (पंखो की आवाज़ ) झींझीं ( झींगुर की आवाज़ ) आदि इसी प्रकार के शब्द से बिबियाना आदि क्रियापद निष्पन्न कर लिये गये । हैं । ' में में' से मिमियाना, 'बे बे' 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [ ३३ देहाती बच्चे मोटर को 'पों-पों,' मोटर साइकिल को 'फटफटिया' कहते सुने जाते हैं । भोंपू भी इसी प्रकार का उदाहरण है, जिसका आधार ध्वनि ही है । अंग्रेजी का Cuckoo शब्द इसी प्रकार का है । निरुक्तकार यास्क ने 'काक' की व्याख्या में काक 'इति शब्दानुकृति: ( अर्थात् जो का का करता है, वह काक है ), जो उल्लेख किया है, वह इसी तथ्य को समर्थित करता है । इस सन्दर्भ में संस्कृत के अग्रांकित शब्द विशेष विमर्षणीय हैं । ऐसा अनुमान किया जा सकता है, सम्भवतः ये अथवा इनमें से अधिकांश शब्द ध्वनि या आवाज के आधार पर बने हैं : घूक, खंजन, खंजरीट, कंक, त्रृक, कुकुट्ट, चटका, पिक, काक, क्रौंच, कोक, चोरी, झिल्लिका, भीरुका, मयूर, केकी, भृंग । कुरर, कुछ भाषा-वैज्ञानिकों द्वारा इस सिद्धान्त का विरोध हुआ । उनका कहना था कि उपर्युक्त शब्दों का आधार ध्वनियों का अनुकरण होता, तो संसार की सभी भाषाओं में इनके द्योतक शब्द एक जैसे होते; क्योंकि किसी देश-विशेष के पशुओं या पक्षियों की ध्वनि में अन्तर नहीं देखा जाता । तब उन ( ध्वनियों ) की अनुकृति पर बने शब्दों में भेद नहीं होना चाहिए । स्थिति इसके विपरीत है । भिन्न-भिन्न भाषाओं में उपर्युक्त ध्वनियों के आधार पर बने शब्दों में कुछ-न-कुछ भिन्नता है । पर, कुछ गहराई में उतरने पर यह विरोध यथार्थ नहीं लगता । ध्वनियों के अनुकरण में सर्वथा समानता होना कदापि सम्भव नहीं है । देश व जल-वायु का वागिन्द्रिय पर प्रभाव पड़ता है । इससे उच्चारण में भिन्नता आना स्वाभाfar है । ध्वनियों का भी अनुकरण सब सर्वथा एक रूप में कर सकें, यह अस्वाभाविक है । दूसरी बात यह है, अनुकरण अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता; इसलिए न यह सम्भव है और न आवश्यक ही कि निर्मीयमान शब्द ध्वनि के सर्वथा अनुगत हों । ध्वनि का जिसके द्वारा जितना साध्य होता है, उतना अथवा थोड़ा-बहुत अनुकरण रहता है । शब्द - निर्माण में safe का आधार स्थिति के अनुरूप एक सीमा विशेष तक है, सम्पूर्ण नहीं । भाषाविज्ञानविद् स्वीट का भी कहना था कि ध्वनियों के अनुकरण पर बनने वाले शब्द ध्वनि के सर्वथा अनुरूप हों, यह आवश्यक नहीं है । * प्रो० मैक्स मूलर को यह सिद्धान्त बड़ा अटपटा लगा । उन्होंने इस पर व्यंग्य कसते हुए इसे Bow- Now Theory के नाम से सम्बोधित किया । अंग्रेजी में Bow-W कुत्ते की आवाज को कहते हैं । कुत्ते के पिल्ले को भी अंग्रेज इसी नाम से पुकारते हैं ।' 'पावा' के पूर्वोत्तरी किनारे पर जो भाषा बोली जाती है, उसमें भी ध्वनि के आधार पर कुत्ते को Bow Jow कहा जाता है । प्रो० मैक्स मूलर ने पावा की तटीय भाषा के इस शब्द के आधार पर उक्त परिहास किया, पर, यह वैसी निष्प्रयोज्य बात नहीं है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि विश्व को अधिकांश भाषाओं में अनेक शब्द ऐसे हैं, जो उक्त प्रकार की Perfoयों के आधार पर बने हैं । जो भाषा वैज्ञानिक केवल ध्वनियों की अनुकृति पर बने 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ शब्दों से ही समग्र भाषा की निष्पत्ति मानते हैं, वह तथ्यपूर्ण नहीं है। ध्वनि-निष्पन्न शब्दों के अतिरिक्त अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका ध्वनि से कोई सम्बन्ध नहीं है। ध्वनिनिष्पन्न शब्दों से वे कई गुने अधिक हैं। साथ-ही-साथ यह भी ज्ञातव्य है कि कुछ भाषाए ऐसी भी हैं, जिनमें ध्वनि-निष्पन्न शब्दों का सर्वथा अभाव है, जैसे उत्तरी अमेरिका की अथवस्कन भाषा। अनुकरणन-सिद्धान्त . 'अनुकरण-सिद्धान्त' के समकक्ष 'अनुरणन-सिद्धान्त' के नाम से एक अन्य विचारधारा की चर्चा भाषा-विज्ञान में और आती है। पानी, धातु, काठ, पेड़ के पत्ते आदि वनस्पतिजगत्, धातु-जगत् और निर्जीव पदार्थों के संस्पर्श, संघर्ष, टक्कर, पतन आदि से जो ध्वनि निकलती है, उसके अनुकरण पर जो शब्द बनते हैं, उन्हें अनुरणन-निष्पन्न शब्द कहा जाता है। अनुकरण के स्थान पर यहां अनुरणन शब्द का उपयोग हुआ है। अर्थ की सूक्ष्मता की दृष्टि से अनुकरण और अनुरणन में परस्पर अन्तर है। पशु-पक्षी जैसा बोलते हैं, मानव अपने मुह से उसी प्रकार बोलने का जो प्रयत्न करता है, वह अनुकरण है। जल-प्रवाह बहता है, 'नद्-नद्' नाद होता है। वह अनुरणन है। इस सिद्धान्त के आधार पर नद् (धातु ) से नद या नदी शब्द बनते हैं । वृक्ष से पत्ता गिरता है ( पतति ), तब पत्-पत् के रूप में जो आवाज निकलती है, पत् धातु और पत्र शब्द का निर्माण उसी से होता है। कुत्ते के भौंकने के अर्थ में बुक् धातु का स्वीकार इसी कोटि का उदाहरण है। कल-कल, छल-छल, झन-झन, खटपट आदि हिन्दी शब्द तथा Mur-Mer आदि अंग्रेजी शब्द इसी प्रकार के हैं। ऐसे शब्द संसार की प्राय: सभी भाषाओं में प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि अनुकरण और अनुरणन में वास्तव में कोई मौलिक भेद नहीं है। केवल वस्तु-भेद मूलक स्थूल अन्तर है, जो नगण्य है। अनुकरण के कुछ और भी रूप हैं, जो इसी में आ जाते हैं। उदाहरणार्थ, दीपक जलने और तारे चमकने के दृश्यों के अनुकरण पर जगमगाहट, चमचमाहट आदि शब्द निर्मित हुए। इन सबका उपयुक्त सिद्धान्त में समावेश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि भाषा में शब्दों का एक ऐसा वर्ग है, जिसका आधार पशुओं व पक्षियों की ध्वनियों का अनुकरण, वस्तुओं का अनुरणन तथा दृश्यों का परिदर्शन है। वस्तुतः सभी अनुकरण के ही रूप हैं। भाषा के निर्मातृ-तत्वों में अंशतः इस सिद्धान्त का भी स्थान है। मनोभावाभिव्यंजकतावाद मनोभावाभिव्यंजकतावाद के अनुसार ऐसा माना जाता है कि आदिकाल या प्रारम्भ में मानष बुद्धि-प्रधान नहीं था, भाव-प्रधान था। पशु भी लगभग इसी कोटि के होते हैं । उनमें विचार-क्षमता नहीं होती, भावना होती है। आदि मानव विवेक या प्रज्ञा की दृष्टि से पशुओं से विशेष ऊँचा नहीं था। विवेक और वितर्क की क्षमता भले ही न हो, प्राणिमात्र ____ 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह में भावों का उद्रेक निश्चय ही होता है। हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, विस्मय आदि का आधिक्य सहज ही मानव को भाषावेश में ला देता है। प्राचीन काल का मानव जब इस प्रकार भावाविष्ट हो जाता, अनायास ही कुछ शब्द उसके मुख से निकल पड़ते। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति थी, अतएव अप्रयत्न-साध्य थी। ओह, आह, उफ, छिः, धत् आदि शब्द इसी प्रकार के हैं। संस्कृत में आ:1 ( कोप, पीड़ा ), घिङ (निर्भत्सना, निन्दा ), बस ३ (खेद, अनुकम्पा, सन्तोष ), हन्त ( हर्ष, अनुकम्पा, विषाद ), साभि ( जुगुप्सित ), जोषं (नीरवता, सुख ), अलं' ( पर्याप्त, शक्ति वारण-निषेध ), हूं (वितर्क, परिप्रश्न ), हा (विषाद), अहह! ( अद्भुतता, खेद ), हिररुङ ( वर्जन ', आहो, उताहो12 (विकल्प ), अहा, ही13 ( विस्मय ) तथा ऊ14 (प्रश्न, अनुनय ) इत्यादि आकस्मिक भावों के द्योतक हैं । इनकी उत्पत्ति में भी उपयुक्त सिद्धान्त किसी अपेक्षा से संगत हो सकता है। अंग्रेजी में Ah, Oh, Alas, (Surprise, fear or regret = विस्मय, भय या खेद), Rish ( Contempt = अवज्ञा ), Pooh ( disdain or contempt = घृणा या अवज्ञा तथा Fie ( Disgurt = जगप्सा ) आदि का प्रयोग उपयुक्त सन्दर्भ में होता है। अंग्रेजी व्याकरण में ये Interjections ( विस्मयादिबोधक ) कहलाते हैं। इसी कारण यह सिद्धान्त ( Interjectional Theory) के नाम से विश्रुत है। इस सिद्धान्त का १. आस्तु स्यात् कोपपीड़योः। -अमरकोश, तृतीय काण्ड, नानार्थवर्ग, पृष्ठ २४० २. घिङ निर्भत्सननिन्दयौः। -वही, पृ० २४० ३. खेदानुकम्पा सन्तोषविस्मयामन्त्रणे बत। -वहो, पृ० २४४ ४. हन्त हर्ष अनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयो :। -वही, पृ० २४४ ५. साभि त्वद्धे जुगुप्सिते । -वही, पृ० २४९ ६. तुष्णीमर्थे सुखे जोषम् । -वही, पृ० २५१ ७. अलं..."पर्याप्तशक्तिवारणवाचकम् । —वही, पृ० २५२ ८. हुं वितर्के परिप्रश्ने। –वही, पृ० २५२ ९. हा विषादाशुगतिषु । -वही, पृ० २५६ १०. अहहेत्यद्भुते खेदे। -वही, तृतीय कांड, अव्यय वर्ग, श्लो० ७ ११. हिरङनाना न—वर्जने। -वही, श्लो० ७ १२. आहो उताहो किमुत विकल्पे किं किमुत च ।—बही, श्लो० ५ १३. अहो ही च विस्मये ।-वही, श्लो० ९ १४. ऊ प्रश्ने 5 नुनये त्वयि । -वही, श्लो० १८ ____ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अभिप्राय था कि शब्दों के उद्भव और विकास की यह पहली सीढ़ी है। इन्हीं शब्दों से उत्तरोत्तर नये-नये शब्द बनते गये, भाषा विकसित होती गयी। इस सिद्धान्त के उद्भावकों में कंडिलक का नाम उल्लेखनीय है। __ डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है : "इस सिद्धान्त के मान्य होने में कई कठिनाइयां हैं। पहली बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द एक ही रूप में नहीं मिलते। यदि स्वभावतः आरम्भ में ये निःसृत हुए होते तो अवश्य ही सभी मनुष्यों में लगभग एक जैसे होते। संसार भर के कुत्ते दुःखी होने पर लगभग एक ही प्रकार भौंक कर रोते हैं, पर, संसार भर के आदमी न तो दुःखी होने पर एक प्रकार से 'हाय' करते हैं और न प्रसन्न होने पर एक प्रकार से 'वाह'। लगता है, इनके साथ संयोग से ही इस प्रकार के भाव सम्बद्ध हो गये हैं और ये पूर्णतः यादृच्छिक हैं। साथ ही इन शब्दों से पूरो भाषा पर प्रकाश नहीं पड़ता। किसी भाषा में इनकी संख्या चालीस-पचास से अधिक नहीं होगी । और वहां भी इन्हें पूर्णतः भाषा का अंग नहीं माना जा सकता। बेनफी ने यह ठीक ही कहा था कि ऐसे शब्द केवल वहां प्रयुक्त होते हैं, जहां बोलना सम्भव नहीं होता। इस प्रकार ये भाषा नहीं हैं। यदि इन्हें भाषा का अंग भी माना जाये तो अधिक-से-अधिक इतना कहा जा सकता है, कुछ थोड़े शब्दों की उत्पत्ति की समस्या पर ही इनसे प्रकाश पड़ता है।" । सूक्ष्मता से इस सिद्धान्त पर चिन्तन करने पर अनुमित होता है कि भाषा के एक अंश की पूर्ति में इसका कुछ-न-कुछ स्थान है ही। भाषा के सभी शब्द इन्हीं Interjectional ( विस्मयादिबोधक ) शब्दों से निःसृत हुए, इसे सम्भव नहीं माना जा सकता। अंशतः इस सिद्धान्त का औचित्य प्रतीत होता है। वह इस प्रकार है-विभिन्न भावों के आवेश में आदि मानव ने उन्हें प्रकट करने के लिए जब जैसी बन पड़ीं, ध्वनियों उच्चारित की हों। भाषा का अस्तित्व न होने से भाव और बनि का कोई निश्चित द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध नहीं था। एक ही भाव के लिए एक प्रदेशवासी मानवों के मुख से एक ही ध्वनि निकलती रही हो, यह सम्भव नहीं लगता। भाषा के बिना तब कोई व्यवस्थित सामाजिक जीवन नहीं था। इसलिए यह अतक्यं नहीं माना जा सकता कि एक ही भाव के लिए कई व्यक्तियों द्वारा कई ध्वनियां उच्चारित हुई हों। फिर ज्यों-ज्यों ध्वनियों या शब्दों का कुछ विकास हुआ, ध्वनियों की विभिन्नता या भेद अनुभूत होने लगा, तब सम्भवतः किसी एक भाष के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग निश्चित हो गया हो। डा० तिवारी पशुओं की बोलो को चर्चा करते हुए जो कहते हैं कि देशगत भेद उस १. भाषा विज्ञान, पृ० ३३ 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह ( उनकी बोली ) में कोई भिन्नता नहीं ला पाता, उसी प्रकार यदि ये आकस्मिक भावद्योतक ध्वनियां ( Interjections ) स्वाभाविक होतीं, तो संसार भर के मानव एक ही रूप में उनका प्रयोग करते, वह आलोच्य है। भाषा के सन्दर्भ में पशु और मानव को सर्वथा एक कोटि में नहीं लिया जा सकता। पशुओं की बोली का एक ससीम रूप है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भी सम्भवतः वही था, जो आज है। पर, मानव एक विकासशील प्राणी है । विश्व-मानव भाषाओं की दृष्टि से कितना विकास कर चुका है, वह उसके द्वारा प्रयुक्त सहस्रों भाषाओं से स्पष्ट है। यह विकास का विस्तार है। उसका बीज मानव में पहले भो विद्यमान था । विशेष रूप में तो शरीर-शास्त्र के मर्मज्ञ बतला सकते हैं, पर, स्थूल दृष्टि से अनुमान है कि मानव की वागिन्द्रिय तथा कुत्ते आदि पशुओं की वागिन्द्रिय में सम्भवतः स्वर-यन्त्रसम्वन्धी तन्त्रियों या स्नायुओं में पूर्ण सादृश्य नहीं होता। तोता, कोयल आदि कुछ पक्षी सिखाये जाने पर मनुष्य की बोली का अनुकरण करते हैं। इससे लगता है, उनका मानव के साथ वागिन्द्रिय-सम्वन्धी कुछ-कुछ साम्य है। पर, उनके अतिरिक्त अन्य पक्षी या पशु में ऐसा नहीं है। भिन्न देशों में रहने वाले लोगों की आकस्मिक भाव द्योतक ध्वनियां एक जैसी होतीं, वह कैंसे सम्भब हो सकता है ? जल-वायु आदि के कारण मनुष्य के स्वर-यन्त्र के स्पन्दन, प्रवर्तन, संकोच, विस्तार की तरतमता के अतिरिक्त यह भी सोचने योग्य है कि किस व्यक्ति ने किस परिप्रेक्ष्य, किस स्थिति, किस वातावरण और किस कोटि की भावनाओं से अभिद्रुत होकर सहसा किसी ध्वनि का उच्चारण किया। सहस्रों मीलों की दूरी पर रहने वाले मनुष्यों में नृवंशगत ऐक्य के उपरान्त भी न जाने अन्य कितनी भिन्नताए हैं। क्या ग्वनि-निःसृति पर उनका स्वल्प भी प्रभाव नहीं होता ? । प्रस्तुत चर्चा के आधार पर किसी एक देश में एक भाव के लिए कोई एक हो शब्द निकला हो, यह निश्चित नहीं है। भिन्न-भिन्न समय भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा जब जिस रूप में सम्भव हो पाया, एक भाव के लिए विविध ध्वनियां निःसृत हुई हों। वे आज सब कहां रह पाई हैं ? जो रह पाई हैं, उनमें से बहुत थोड़ी-सी हैं । सारांश यह है, चाहे संख्या में कम ही सही, जो आकस्मिक भाव-द्योतक ध्वनियां भाषा में हैं, उनका भाषा की निर्मिति में एक स्थान है। डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सिद्धान्त के विषय में कुछ और सम्भावनाए प्रकट को हैं। उनका अभिप्राय यह है कि ये Interjectional ध्वनियां यद्यपि सीमित थीं, टूटेफूटे रूप में इनसे भाव व्यक्त किये जाते रहे होंगे, पर, इनके सतत प्रयोग से मानव को अन्य 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ j आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ध्वनियों के उच्चारण का भी अभ्यास हुआ होगा। इस क्रम से चलते रहने से भाषा के विकास में सहारा मिला होगा। इन ध्वनियों के प्रयोग से अन्य ध्वनियों के उच्चारण का अभ्यास बढ़ने की जो सम्भावना डा० तिवारी करते हैं, वह चिन्त्य है। वस्तुस्थिति यह है, अन्य धनियां उन विविध स्थूल व सूक्ष्म पदार्थों तथा भावों से सम्बद्ध हैं, जिनका इनसे कोई तारतम्य नहीं जुड़ता। किसी ध्वनि का सहसा निकल पड़ना तथा चिन्तनपूर्वक उसका निष्कासन दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दोनों में संगति नहीं है। प्रतीत होता है, अन्य ध्वनियों का उद्भव और विकास किन्हीं भिन्न स्थितियों और आधारों से हुआ है। इंगित-सिद्धान्त भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त परिकल्पित किये गये, उनमें इगित सिद्धान्त (Gestural Theory ) का महत्वपूर्ण स्थान है। सबसे पहले पालिनेशियन भाषा के प्रमुख विद्वान् डा० शये ने इस ओर संकेत किया । विकासवाद ( Theory of Evolution ) के आविष्कर्ता डाविन.ने भी इस पर विचार किया। उन्होंने छः ऐसी भाषाए लों, जिनका परस्पर सम्बन्ध नहीं था। उनका तुलनात्मक अध्ययन किया और उसके आधार पर इस सिद्धान्त की प्रामाणिकता बताई। इस सिद्धान्त पर ऊहापोह वर्तमान शताब्दी तक चलता रहा । सन् १९३० के आस-पास रिचर्ड ने इस सिद्धान्त की पुनः चर्चा की। रिचर्ड की पुस्तक मानव की भाषा ( Human Speech ) है, जिसमें इस सिद्धान्त का मौखिक इगित सिद्धान्त ( Oral Gesture Theory ) के नाम से उल्लेख किया है तथा इस ओर भाषाविज्ञान के पण्डितों का ध्यान आकृष्ट किया है। प्रस्तुत विषय की महत्ता इसी से सिद्ध हो जाती है कि लगभग इसी समय आईस लैंडिक भाषा के विद्वान् अलेक्जेण्डर जॉनसन ने भी इस पर विचार किया। उन्होंने भारोपीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उस बोच इस प्रसंग (इगित-सिद्धान्त ) की चर्चा करते हुए उन्होंने इसकी सार्थकता स्वीकार की। तदनन्तर उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तकों में इसका विस्तार से विवेचन किया। तथ्यपरीक्षण और समीक्षण के सन्दर्भ में जहां उन्होंने भारोपीय भाषाओं को आधार के रूप में लिया, वहां हिब, (प्राचीन ) तुर्की, चीनी तथा कतिपय अन्य भाषाओं को भी लिया । विवेज्य प्रसंग में उसको चर्चा विशेष उपयोगी रहेगी। जॉनसन का निष्कर्ष जॉनसन ने चार सोपान स्वीकार किये, जिनसे भाषा का विकास हुआ। उनके अनुसार पहला सोपान है-भावव्यंजक ध्वनियां । बभूक्षा, तृषा, कामेच्छा, प्रसन्नता, अप्रसन्नता, भीति, कोप आदि भाव जप मनुष्य के मन में उभरते हैं, तब वह उन्हें व्यक्त करना चाहता है । भाषा उसे प्राप्त नहीं है, इसलिए बन्दर आदि पशु जैसे इन भावों को कुछ ध्वनियों से प्रकाशित करते हैं, मनुष्य भी इनकी अभिव्यक्ति के लिए कुछ मुख-ध्वनियों का उपयोग करता है। 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] विश्व भाषा-प्रवाह भाषा के विकास का यह आदि-चरण है। वे ध्वनियां अमुक-अमुक भावों की अभिव्यंजना की इगित या प्रतीक बन जाती हैं। पूर्व चर्चित मनोभावाभिव्यंजनवाद ( Interjectional Theory ) से यह स्थापना पृथक् है। वहां आकस्मिक भावोद्रेकवश सहसा मुंह से निकल पड़ने वाली ध्वनियों का विवेचन है और यहां आवश्यकता, उत्सुकता, असहिष्णुता, कामैषणा आदि से अभिभूत होकर जब मानव ध्वनियां प्रकट करने का प्रयत्न करता है, परिणाम स्वरूप उसके मुंह से जो ध्वनियां नि:सृत होती हैं, उनका समावेश है। सहसा ध्वनि का निकल पड़ना और आवश्यक मान कर ध्वनियां निकालना; दोनों पृथक्-पृथक् हैं। भाषा के विकास का दूसरा सोपान अनुकरणात्मक शब्दों का है। पशुओं व पक्षियों की बोलियों के अनुकरण तथा निर्जीव वस्तुओं के अनुरणन के नाम से जो विवेचन किया गया है, जॉनसन का लगभग वही अभिप्राय है। भाव-संकेत : इंगित जॉनसन तीसरा सोपान भाष-संकेतों या इगितों का बतलाते हैं। इनका भी आधार अनुकरण ही है, पर, यह अनुकरण बाह्य पदार्थों, पशु-पक्षियों या वस्तुओं से सम्बद्ध नहीं है। यह अनुकरण जिह्वा आदि द्वारा अंगों का, अंग-संकेतों का, उनमें भी प्रमुखतः हाथों का है। जॉनसन इसे Unconscious Imitation कहते हैं, अर्थात् यह ऐसा अनुकरण है, जिसका अनुकर्ता को स्वयं भी कोई भान नहीं रहता। उनका ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है कि मन में जब-जब एक विशेष प्रकार का भाव उभार में आता है, देह के अंगों में एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है। क्रोध और दुःसाहस की मनोदशा में मनुष्य तनकर खड़ा हो जाता है, उसका सीना तन जाता है, होठ फड़कने लगते हैं, भयाक्रान्त होने पर वह दुबक जाता है। सिकुड़ जाता है), उल्लासपूर्ण मिलन-मुद्रा में बाहें फैला देता है, दृढ़ निश्चय, प्रतिज्ञा या आक्रमण के भावावेश में भुजाए उठा लेता है, चुनौती के भाव में सामने की वस्तु पर हथेली दे मारता है। ये आंगिक क्रिया-प्रक्रियाए होती रहती हैं और उनके अनुकरण पर अननुभूत रूप में Unconsciously वागिन्द्रिय द्वारा कुछ शब्द उच्चारित होते रहते हैं। अनेक भावों के प्रकाशक शब्दों के उद्भव का वह प्रकार है। जॉनसन सम्भवतः यही कहना चाहते हैं। सूक्ष्म-भावों को अभिव्यंजना सूक्ष्म भावों के द्योतक शब्दों के उद्भव के सम्बन्ध में जॉनसन का कहना है कि ज्यों-ज्यों मानव का उत्तरोत्तर मानसिक विकास होता गया, शनैः-शनैः सूक्ष्म भावों की अभिष्यजना के लिए भी कुछ ध्वनियां या शब्द उद्भावित करता गया। भाषा के चार सोपानों में यह 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:२ अन्तिम सोपान है। जॉनसन ने भाषा के अनेक पहलुओं पर विस्तार से विचार करने का प्रयत्न किया है। स्वरों और व्यंजनों का विकास किस प्रकार हुआ, इस पर भी प्रकाश डाला है। ध्वनियों के साथ अर्थों के सम्बन्ध की स्थापना पर भी चर्चा की है। उदाहरणार्थ, उनके अनुसार जिन धातुओं के आरम्भ में ऋकार या रकार होता है, वे धातुए गत्यर्थक होती हैं, क्योंकि ऋकार या रकार के उच्चारण में जिह्वा विशेष गतिशील होती है या दौड़ती है। इसी प्रकार और भी उन्होंने विश्लेषण किया है। एक विशेष बात जॉनसन यह कहते हैं कि आदि मानव ने अपने शरीर में तरह-तरह के Curves = आकुंचन-मोड़ देखे। उनका अनुकरण करते हुए उसने कतिपय मूल भावों को सूचित करने वाले शब्दों का सर्जन किया। भाव-संकेतों का अभिप्राय प्रस्तुत प्रसंग में जॉनसन ने तीसरे सोपान में जो भाव-सकेतों की चर्चा की है, उस पर सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है। मानव ने अपने देह के हाथ आदि अंगों के परिचालन के आधार पर विविध ध्वनियों की सृष्टि की, यह समझ में आने योग्य नहीं है। अंग-विशेष के हलन-चलन या स्पन्दन से ध्वनि-विशेष का सम्बन्ध जुड़ना कल्पनातीत लगता है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति क्रोधावेश में हो, दांत पीसने लगे, आक्रमण की मुद्रा में हाथ उठा ले, तो समझ में नहीं आता, किसी ध्वनि द्वारा क्या इसे प्रकट किया जा सकता है ? ध्वनि का अपना क्षेत्र है, देह-चालन से कोई विशेष आवाज तो निकलती नहीं, फिर किस रूप में उसका अनुकरण सम्भव है ? जॉनसन ने अंग-परिचालन के साथ ध्वनि-उच्चारण का तालमेल बिठाने का जो प्रयत्न किया है, वह अपने-आप में नवीन अवश्य है, पर, युक्ति-संगत नहीं लगता। धातुओं के मादि अक्षर : विशेष अर्थ : विसंगति ___ धातुओं के आदि अक्षरों का विशेप अर्थों के साथ ताल-मेल बिठाना भी सूक्ष्म पर्यालोचन करने पर यथार्थ सिद्ध नहीं होता। ऋकार या रकार से प्रारम्भ होने वाली धातुओं का जो उल्लेख गत्यर्थकता के सन्दर्भ में किया गया था, उनके समकक्ष जो दूसरी गत्यर्थक धातुए हैं और जिनका प्रारम्भ ऋया र से नहीं होता, उनका क्या होगा? गम् धातु गत्यर्थक है। वह 'ग' से प्रारम्भ होती है। 'ग' के उच्चारण में वागिन्द्रिय का कोई अंग 'र' के उच्चारण की तरह दौड़ता नहीं, फिर उपयुक्त स्थापना की संगति कैसी होगी ? गम् की तरह अन्य भी कितनी ही धातुएं होंगी, जो गत्यर्थक हैं, जिनका प्रारम्भ ऋ या र से नहीं होता। ऋया र से प्रारम्भ होने वाली ऐसी धातुए भी हैं, जो गत्यर्थक नहीं हैं । संस्कृत की 'राज्' धातु, जो शोभित होने के अर्थ में है, र से ही उसका आरम्भ होता है। ग्रीक ___ 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४१ आदि अन्य भाषाओं में भी इसके उदाहरण मिल सकते हैं। पूर्व-चर्चित धातु, प्रत्यय, उपसर्ग, नाम, सर्वनाम आदि के रूप में भाषा का व्याकृत स्वरूप उसके विकसित होने के बाद का प्रयत्न है। जब भाषा के परिष्करण और परिमार्जन की अपेक्षा हुई, तब उसमें प्रयुक्त शब्दों की शल्य-चिकित्सा का प्रयत्न विशेष रूप से चला । व्याकरण-शास्त्र, व्युत्पत्ति-शास्त्र आदि के सर्जन का सम्भवतः वही प्रेरक सूत्र था । ये विषय मानव की तकणा-शक्ति पर आधृत हैं। आदिकाल के मानव में तर्क-शक्ति इतनी विकसित हो पाई थी, यह सम्भव नहीं लगता। वस्तुतः मानव का तार्किक और प्रातिभ विकास अनेक सहस्राब्दियों के अध्यवसाय और यत्न का फल है। स्वीट को समन्वयात्मक विचार __स्वीट उन्नीसवीं शती के सुप्रसिद्ध भाषा-विज्ञान-वेत्ता थे। उन्होंने भाषा की उत्पत्ति की समस्या का समाधान ढूढ़ने का प्रयत्न किया। उन्होंने भाषा की उत्पत्ति किसी एक आधार से नहीं मानी। उनके अनुसार कई कारणों या आचारों का समन्धित रूप भाषा के उद्भव में साधक था। उन्होंने प्रारम्भिक शब्द-समूह को तीन श्रेणियों में विभाजित किया। उनके अनुसार पहले वे थे, जिनका आधार अनुकरण था। उन्होंने दूसरी श्रेणी में उन शब्दों को रखा, जो मनोभावाभिव्यंजक हैं। उनके अनुसार तीसरी श्रेणी में वे शब्द आते हैं, जिन्हें प्रतीकात्मक ( Symbolic ) कहा गया है। उनकी मान्यता है कि भाषा में प्रारम्भ में इस श्रेणी के शब्द संख्या में बहुत अधिक रहे होंगे। शब्द : अर्थ : यदृच्छा : प्रतीक स्वीट के अनुसार प्रतीकात्मक शब्द वे हैं, जिनका अपना कोई अर्थ नहीं होता। संयोगवश जो किसी विशेष अर्थ के ज्ञापक या प्रतीक बन जाते हैं। उन अर्थों में उनका प्रयोग चलता रहता है। फलतः भाषा में उनके साथ उन विशेष अर्थों की स्थापना हो जाती है । उदाहरणार्थ, एक शिशु है । वह मां को देखता है। कुछ बोलना चाहता है। इस प्रयत्न में उसके होठ खुल जाते हैं। अनायास ‘मा मा' ध्वनि निकल पड़ती है। तब तक 'मामा' (Mama) ध्वनि का किसी अर्थ से सम्बन्ध नहीं है । संयोगवश शिशु के मुंह से माता के सामने बार-बार यह ध्वनि निकलती है । इसका उच्चारण सरल है। माता इस ध्वनि को अपने लिए गृहीत कर लेती है। परिणाम स्वरूप यह शब्द माता का ज्ञापक या प्रतोक बन जाता है। इस प्रकार इसके साथ एक निश्चित अर्थ जुड़ जाता है। यही 'पापा' ( Papa ) आदि की स्थिति है। संस्कृत के माता, पिता, भ्राता ग्रीक के Meter, Phrater, Pater लेटिन के Mater, Pater. Frater, अंग्रेजी के Mother, Father, Brother फारसी के मादर, पिदर, बिरादर तथा हिन्दी के माता, पिता, चाचा, काका, दादा, भाई, बाई, दाई सम्भवतः मूल 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ रूप में इसी श्रेणी के शब्द रहे होंगे । इन सांयोगिक ध्वनियों में से अधिकांश के आद्य अक्षर औष्ठ्य हैं । सहसा कोई बच्चा कोई ध्वनि उच्चारित करने को ज्यों ही तत्पर होता है, होठ खुल जाते हैं । अनायास उसके मुंह से जो ध्वनि निःसृत होती है, प्राय: औष्ठ्य होती है; क्योंकि वैसा करने में उसे अपेक्षाकृत बहुत कम श्रम होता है । + स्वीट ने प्रतीकात्मक शब्दों की श्रेणी में कतिपय सर्वनाम शब्दों को भी समाविष्ट किया है । उनकी निष्पत्ति सांयोगिक है, पर उन अर्थों के लिए वे गृहीत हो गये । फलतः उनका एक निश्चित अर्थ के साथ ज्ञाप्य ज्ञापक सम्बन्ध स्थापित हो गया । उदाहरण के लिए संस्कृत के त्वम् (तुम) सर्वनाम को लिया जा सकता है । ग्रीक में यह To, लैटिन में fu, हिन्दी में तू अंग्रेजी में Thow होता है । इसी प्रकार संस्कृत में यह और वह वाचक सर्वनाम 'इदम्' और 'अदस हैं 1 अंग्रेजी में इसके स्थान पर This और That हैं तथा जर्मन में Dies और Das I स्वीट ने बहुत-सी क्रियाओं को निष्पति के सम्बन्ध में भी प्रतीकात्मकता के आधार पर विचार किया है । सार: समीक्षा भाषा के सन्दर्भ में यह मानव की आदिम अवस्था का प्रयास था । इसके अनुसार सम्भव है, आरम्भ में 'प्रतीक' कोटि के अनेक शब्द निष्पन्न हुए होंगे । उनका प्रयोग भी चलता रहा होगा । उनमें से जो शब्द अभीप्सित अर्थ की अभिव्यंजना में सर्वाधिक सक्षम, उच्चारण और श्रवण में समीचीन नहीं रहे होगे, धीरे-धीरे वे मिटते गये होंगे और जो (शब्द) उक्त अर्थ में अधिक सक्षम एवं संगत प्रतीत हुए होगें, उन्होंने भाषा में अपना अमिट स्थान बना लिया होगा । जैसे, प्रकृति-जगत् और जीव-जगत् में सर्वत्र Survival of the fittest = योग्यतमावशेष का सिद्धान्त लागू है, उसी प्रकार शब्दों के जगत् में भी वह व्याप्त है । वहां भी योग्यतम या उपयुक्त का ही अस्तित्व रहता है, अन्य सब धीरे-धीरे अस्तित्वहीन होते जाते हैं | प्रतीकात्मक शब्द जो भाषा में सुरक्षित रह पाये हैं, वे आदि सृष्ट शब्दों में से थोड़े से हैं । स्वीट ने जिन तीन सोपानों का प्रतिपादन किया है, एक सीमा विशेष तक भाषा की संरचना में उनकी उपयोगिता है । इस प्रसंग में इतना आवश्यक है कि स्वीट ने विभिन्न धातुओं तथा सर्वनामों के रूपों की प्रतीकात्मकता से जो संगति बिठाने का प्रयत्न किया है, वह यथार्थ का स्पर्श करता नहीं लगता । इसके अतिरिक्त एक बात और है, स्वीट द्वारा उक्त तीनों सोपानों के अन्तर्गत जिन शब्दों का उद्भव व्याख्यात हुआ है, उसके बाद भी उन ( तीनों ) से कई गुने शब्द और हैं, जिनके अस्तित्व में आने की कारण परम्परा अज्ञात रह जाती है । अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन तथा प्रतीक; इन तीनों कोटियों में वे नहीं आते । पूर्व चर्चित अनुकरण और आकस्मिक भाव प्रसूत शब्द संख्या में थोड़े से हैं । उसी प्रकार 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४३ प्रतीकात्मक शब्द भी प्राय: पारिवारिक सम्बन्धों की ज्ञापकता से बहुत दूर नहीं जाते। वे भी संख्या में सीमित ही हैं। प्रतीकात्मक आदि प्रारम्भ में प्रयुज्यमान शब्दों के सादृश्य के आधार पर अन्यान्य शब्द अस्तित्व में आते गये, भाषा विकास की ओर गतिशील रही, ऐसी कल्पना भी सार्थक नहीं लगती। जैसे, प्रतीकात्मक शब्दों के विषय को ही लें। बच्चों का एक ससीम जगत् है। उनके सम्बन्ध और आवश्यकताए' सीमित हैं। उनकी आकांक्षाओं के जगत् का सम्बन्ध मात्र खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना, सोना आदि निसगंज मूल लिप्साओं से दूर नहीं है। इस स्थिति के परिप्रेक्ष्य में जो सांयोगिक ध्वनियां या शब्द प्रादुर्भूत होते हैं, उनके द्वारा ज्ञाप्यमान अर्थ बहुत सीमित होता है। उनसे केवल अत्यन्त स्थूल पदार्थों और भावों का सूचन सम्भव है। सूक्ष्म भावों की परिधि में वे नहीं पहुंच पाते । ___ भाषा की उत्पत्ति : अवलम्बन : निराशा भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार अनेक मत आविर्भूत हुए, चर्चित हुए, परिवर्तित हुए, पर, अब तक किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं जा सका। इसकी प्रतिक्रिया कुछ मूर्धन्य विद्वानों के मन पर बड़ी प्रतिकूल हुई। उन्हें लगा कि भाषा के उद्गम या मूल जैसे विषय को खोज करना ब्यर्थ है; क्योंकि अब तक की गवेषणा और अनुशीलन के उपरान्त भी किसी वास्तविक तथ्य का उद्घाटन नहीं हो सका। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एडगर स्टूपिण्ट ने लिखा है : "अत्यधिक निरर्थक तक-वितक के उपरान्त भाषा विज्ञान-वेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवीय भाषा के उद्गम के सम्बन्ध में प्राप्त सामग्री कोई साक्ष्य उपस्थित नहीं करती।"] इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान् मोरियो-पाई का भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार है। उन्होंने लिखा है : “वह एक तथ्य, जिस पर सभी भाषा वैज्ञानिक पूर्णतया सहमत हैं, यह है कि मानवीय भाषा के उद्गम की समस्या का अभी तक समाधान हो नहीं पायर्या है।" 1. After much futile discussion linguists have reached the conclu sion that the data with which they are concerned yield little or no evidence about the origin of human speech. An Introduction to Linguistic Science, P. 40, New Haven, 1948. 2. If there is one thing on which all linguistics are fully agreed, it is that the problem of the origin of human speech is still unsolved. --The story of Language, P. 18, London, 1952. ____ 2010_05 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ अमेरिकन भाषा-शास्त्री जे० पण्डिएस ने इसी बात को इन शब्दों में प्रकट किया है : "भाषा के उद्गम की समस्या का कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं हो पाया है।" 1 विद्वानों के उपयुक्त विचार निराशाजनक हैं। किसी विषय पर एक दीर्घ अवधि तक अनवरत कार्य करते रहने पर भी जब अभीप्सित परिणाम नहीं आता, तब कुछ थकान का अनूभव होने लगता है। थकान के दो फलित होते हैं-एक वह है, जहां आशा मुरझा जाती है। उसके पश्चात् आगे उसी जोश के साथ प्रयत्न चले, यह कम सम्भव होता है। दूसरा वह है, जहां थकान तो आतो है, पर जो अदम्य उत्साह के धनी होते हैं, वे थकान को, वश्राम बना लेते हैं तथा भविष्य में अधिक तन्मयता एवं लगन से कार्य करते जाते हैं। खोज पर प्रतिबन्ध : विचित्र निर्णय लगभग एक शताब्दी पूर्व की एक घटना से ज्ञात होगा कि संसार के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति का आधार खोजते-खोजते कितने ऊब गये थे। बहुत प्रयत्न करते रहने पर भो जब भाषा की उत्पत्ति का सम्यक्तया पता नहीं चल सका, तो विद्वानों में उस ओर से पराङमुखता होने लगी। कुछ का कथन था कि भाषा की उत्पत्ति-सम्बन्धी यह विषय भाषाविज्ञान के क्षेत्र का नहीं है। यह नृवंश-विज्ञान या मानव-विज्ञान का विषय है। मानवजाति का विविध सन्दर्भो में किस प्रकार विकास हुआ, उसका एक यह भी पक्ष है। कुछ का विचार दूसरी दिशा की ओर रहा । उनके अनुसार यह विषय प्राचीन इतिहास से सम्बद्ध है। कुछ विद्वानों का अभिमत था कि भाषा-विज्ञान एक विज्ञान है। भाषा की उत्पत्ति का विषय इससे सम्बद्ध है। इस पर विचार करने के लिए वह ठोस सामग्री और आधार चाहिए; जिनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके । कल्पनाओं पर विज्ञान नहीं टिकता। इसके वैज्ञानिक परीक्षण और अनुसन्धान के लिए आज प्रत्यक्षतः कोई सामग्री प्राप्त नहीं है । भाषा कब उत्पन्न हुई, कोई भी समय को इयत्ता नहीं बांध सकता। हो सकता है, यह लाखों वर्ष पूर्व की बात रही हो, जिसका लेखा-जोखा केवल अनुमानों के आधार पर कल्पित किया जा सकता है। वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जा सकने योग्य आधार न होने के कारण भाषा की उत्पत्ति का विषय भाषा-विज्ञान का अंग नहीं माना जाना चाहिए । इस पर सोचने में और उपक्रम चलते जाने में कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में उपयुक्त विचारों ने एक सनसनी पैदा कर दी। पेरिस में ई. सन् १८६६ में भाषा-विज्ञान परिषद् की प्रतिष्ठापना हुई। उसके नियमोपनियम बनाये गये। आश्चर्य होगा, उनके अन्तर्गत यह भी था कि अब से भाषा को उत्पति के प्रश्न पर 1. ...........The problem of the origin of language does not admit of only satisfactory solution. -J.Kendryes Language, p.315, London,1952 ____ 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४५ कोई विचार नहीं करना होगा । अर्थात् भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में सोचने पर परिषद् के संस्थापकों ने प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रकार एक तरह से इस प्रश्न को सदा के लिए समाप्त कर दिया गया। प्रतिबन्ध लगाने वाले साधारण व्यक्ति नहीं थे, संसार के दिग्गज भाषा-शास्त्री थे। सम्भव है, उन्हें लगा हो, जिसका कोई परिणाम नहीं आने वाला है, उस प्रकार के विषय पर विद्वान् वृथा श्रम क्यों करें ? गवेषणा नहीं रुकी ___ यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है, प्रतिबन्ध लग गया, पर प्रस्तुत विषय पर अनवरत कार्य चालू रहा। इतना ही नहीं, प्रायः हर दश वर्ष के बाद भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कोई नया वाद या सिद्धान्त प्रस्फुटित होता गया। यह ठीक ही है । मानव स्वभावतः जिज्ञासा-प्रधान और मननशील प्राणी है। जिज्ञासा-प्रतिबन्ध से अवरुद्ध नहीं होती। वह प्रतिभा सम्पन्न, उद्बुद्धचेता व्यक्ति को अभीष्ट की गवेषणा में सदा उन्मुख बनाये रखती है। विज्ञान शब्द भौतिक विज्ञान के रूप में एक पारिभाषिक अर्थ लिए हुए है। भौतिक विज्ञान कार्य-कारण-परम्परा पर आधृत है। कारण की परिणति कार्य में होती है । कारणसामग्री के बिना कार्य नहीं होता। कारण-सामग्री है, तो कार्य का होना रुकता नहीं। यह निर्बाध नियम है। विज्ञान के इस पारिभाषिक अर्थ में भाषा-विज्ञान एक विज्ञान ( Science ) नहीं है। पर, वह कल्पना-जनित नहीं है, इसलिए उसे कला ( At ) भी नहीं कहा जा सकता। बड़ी उलझन है, कला भी नहीं, विज्ञान भी नहीं, तो फिर वह क्या है ? भाषा वैज्ञानिकों ने इस पहलू पर भी विचार किया है। मन भाष-संकुल हुआ। अन्तः-स्फुरणा जगी। कल्पना का सहारा मिला। शब्द-समवाय निकल पड़ा। यह कविता है । भाष-प्रसूत है, भाव-संस्पर्शी है; अतः मनोज्ञ है, सरस है, पर, इसका यथार्थ वस्तु-जगत् का यथार्थ नहीं है, कल्पना का यथार्थ है; अतएष यह कला हैं। इसमें सौन्दर्य पहले है, सत्य तदनन्तर । भाषा-विज्ञान इससे पृथक् कोटि का है। विज्ञान की तरह उसका टिकाव भौप्तिक कारण-सामग्री पर नहीं है, पर, वह कारण-शून्य एवं काल्पनिक भी नहीं है। शब्द भाषा का दैहिक कलेवर है। वे मुख से निःसृत होते हैं । पर, कल्पना की तरह जैसे-तैसे ही नहीं निकल पड़ते। शब्द अक्षरों का समवाय है। गलस्थित ध्वनि-यन्त्र, स्वर-तन्त्रियां, मुख-विवर-गत उच्चारण-अवयव आदि के साथ श्वास या मूलाधार से उत्थित वायु के संस्पर्श या संघर्ष से अक्षरों का उद्भव बहुत सूक्ष्म व नियमित कारण-परम्परा तथा एक सुनिश्चित वैज्ञानिक क्रम पर आधृत है। यह सरणि इतनी यांत्रिक व व्यवस्थित है कि इसमें तिल मात्र भी इधर-से-उधर नहीं होता। इसे एक निरप 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ४६ ] वाद वैज्ञानिक विधि क्रम कहा जा सकता है । भाषा का विकास यद्यपि शब्दोत्पत्ति की तरह सर्वथा निरपवाद वैज्ञानिक कारण-श्रृंखला पर तो नहीं टिका है, पर, फिर भी वहां एक क्रम-बद्धता हेतुमत्ता तथा व्यवस्था है । वह सापवाद तो है, पर, साधारण नहीं है । ऐसे ही कुछ कारण हैं, जिनसे यह भाषाओं के विश्लेषण का शास्त्र भाषा-विज्ञान कहा जाता है, जो भौतिक विज्ञान से पृथक् होता हुआ भी उसकी तरह कार्य-कारण- परम्परापूर्वक युक्ति और तर्क द्वारा विश्लेष्य और अनुसन्धेय है । [ खण्ड : २ 2010_05 निराशा क्यों ? भाषा - विज्ञान को जब विज्ञान विशिष्ट ज्ञान ) मानते हैं, तो भाषा, जिसका यह विज्ञान है, उसके अन्तर्गत उससे सम्बद्ध सभी पक्षों का अध्ययन एवं अनुसन्धान होना चाहिए । उसके अब तक के इतिहास, विस्तार, विकास आदि के साथ-साथ उसके उद्भव पर भी विचार करना आवश्यक है । गवेषणा के हेतु अपेक्षित सामग्री व आधार नहीं प्राप्त हो सके, इसलिए उस विषय को ही भाषा विज्ञान से निकाल कर सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये, यह उचित नहीं लगता । वैज्ञानिक और अन्वेष्टा कभी किसी विषय को इसलिए नहीं छोड़ देते कि उसके अन्वेषण के लिए उन्हें उपकरण व साधन नहीं मिल रहे हैं । अनुशीलन और अन्वेषण का कार्य गतिशील रहेगा, तो किसी समय आवश्यक सामग्री उपलब्ध होगी ही । सामग्री अभी नहीं मिल रही है, तो आगे भी नहीं मिलेगी, ऐसा क्यों सोचें ? इस प्रसंग में संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति की यह उक्ति निःसन्देह बड़ी प्रेरणास्पद है : कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वीः अर्थात् यह काल निःसीम है और पृथ्वी बहुत विशाल है । इसमें न जाने कब, कौन उत्पन्न हो जाये, जो दुष्कर और दुःसाध्य कार्यं साध लेने की क्षमता से सम्पन्न हो । भविष्य की लम्बी आशाओं के सहारे जो मनस्वी कार्यरत रहते हैं, वे किसी दिन सफल होते ही हैं । कार्य को रोक देना या छोड़ देना तो भविष्य की सब सम्भावनाओं को मिटा देता है। उपयुक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में साररूप में भाषा के उद्भव पर कुछ और चिन्तन अपेक्षित होगा । + वाक्-प्रस्फुटन मानव जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास की मंजिलों को पार करता हुआ आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे भाषा का भी विकास होता गया । वह ज्यों-ज्यों सधन भाव संकुलता की स्थिति में आता गया, त्यों-त्यों अपने अन्तरतम की अभिव्यक्ति के लिए आकुलता या उतावलापन भी उसमें व्याप्त होता गया । "आवश्यकता आविष्कार की जननी है" के अनुसार अभिव्यक्ति का माध्यम भी जैसा बन पड़ा, आकलित होता गया । यह अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन तथा इ गित आदि के आधार पर ध्वनि उद्भावना और ( अंशत: ) भाषा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४७ संरचना की आदिम दशा का परिचय है । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी ___ वागिन्द्रिय से बाक्-नि:सृति के क्रम पर कुछ संकेत पूर्व पृष्ठों में किया गया था। यहां उसका कुछ विस्तार से विश्लेषण किया जा रहा है। वैदिक वाङमय में परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी; इन नामों से चार प्रकार की वाणी वर्णित हुई है। महाभाष्यकार पतंजली ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ऋग्वेद की एक पंक्ति 1 उद्धत करते हुए इस ओर इगित किया है। साहित्य-दर्पण के टीकाकार प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी ने वर्ण की व्याख्या के प्रसंग में परा, पश्यन्ती आदि वाक् रूपों का संक्षेप में सुन्दर विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है : "ज्ञान में आये हुए अर्थ की विवक्षा से आत्मा तद्बोधक शब्द के निष्पादन के लिए अंतःकरण को प्रेरित करता है। अन्तःकरण मूलाधार स्थित अग्निअम्मा-तेज को संचालित करता है। अग्नि के द्वारा तत्स्थलवती वायु स्पन्दित होता है। इस प्रकार स्पन्दित वायु द्वारा वहां सूक्ष्म रूप में जो शब्द उद्भूत होता है, वह 'परा' वाक् कहा जाता है। तदनन्तर नाभि प्रदेश तक संचालित वायु के द्वारा उस देश के संयोग से जो शब्द उत्पन्न होता है, उसे 'पश्यन्ती' वाक् कहा जाता है। ये दोनों । वाक् ) सूक्ष्म होती हैं ; अतः ये परमात्मा या योगी द्वारा ज्ञ य हैं। साधारणजन उन्हें कर्ण-गोचर नहीं कर सकते। वह वायु हृदय-देश तक परिसृत होती है और हृदय के संयोग से जो शब्द निष्पन्न होता है, वह 'मध्यमा' वाक् कहलाता है। कभीकभी कान बन्द कर सूक्ष्मतया ध्वनि के रूप में जनसाधारण भी उसे अधिगत कर सकते हैं। उसके पश्चात् वह वायु मुख तक पहुंचती है, कण्ठासन्न होती है, मूर्द्धा को आहत करती है, उसके प्रतिघात से वापिस लोटती है तथा मुख-विवर में होती हुई कण्ठ भादि आठ उच्चारण स्थानों में किसी एक का अभिघात करती है, किसी एक से टकराती है। तब जो शब्द उत्पन्न होता है, वह 'खरी' वाक् कहा जाता है।" क १. गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयान्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति । –ऋग्वेद, १३१६४।४५ २. चेतनेन ज्ञातार्थविवक्षया तद्बोधक शब्द निष्पादनाय प्रेरितमन्तःकरणं मूलाधारस्थित मनलं चालयति, तच्चालितोऽनलस्तत्स्थलवर्तिवायुचालनाय प्रभवति, तच्चालितेन वायुना तत्रैव सूक्ष्मरूपेणोत्पादितः शब्दः परा वागित्यमिधीयते। ततो नाभिदेशपर्यन्तचलितेन तेन तद्देशसंयोगादुत्पावितः शब्दः पश्यन्तीति व्यवष्टियते। एतद्द्वयस्य सूक्ष्मसूक्ष्मतरतयेश्वरयोगिमात्राम्यता, नास्मदोयत्र तिगोचरता। तततेनैस्व हृदयदेशं परिसरिता हृदयसंयोगेन निष्पादितः शब्दो मध्यमेत्युच्चते। सा च स्वकर्णपिधानेन ध्वन्यात्मकतया सूक्ष्मरूपेण ____ 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ पाणिनीय शिक्षा में भी शब्द-स्फुटन का मूल इसी तरह व्याख्यात किया गया है। शब्द-निष्पत्ति का यह एक शास्त्रीय क्रम है। भौतिक विज्ञान के साधनों द्वारा इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वैखरी वाक से पूर्व तक का क्रम सर्वथा सूक्ष्म या अभौतिक है। फिर भी यह एक ऐसी कार्य-कारण परम्परा को लिए हुये है, जो अपने आप में कम वैज्ञानिक नहीं है । भाषा विज्ञान में यद्यपि अद्यावधि यह क्रम सम्पूर्णतः स्वीकृत नहीं है, तथापि यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है, जो दार्शनिक दृष्टि से शब्द-निष्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह है कि जब मानध (आत्मा) अन्तः-स्थित विचार या भाव, जिसे उक्त उद्धरण में ज्ञात अर्थ कहा गया है, की विवक्षा करता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करना चाहता है, तो वह अपने अन्तःकरण ( विचार और भावना के स्थान ) को प्रेरित करता है और यह चिकीर्षा तत्क्षण उससे जुड़ जाती है। उसके बाद अनल और अनिल के प्रेरित एवं चलित होने की बात आती है। यह एक सूक्ष्म आवयविक प्रक्रिया है। यह सर्व विदित है और सर्वस्वीकृत भी कि ध्वनि-निष्पादन में वायु का महत्वपूर्ण स्थान है। पर, वायु को ऊर्ध्वगामी करने के लिए जोर लगाने की या धकेलने की आवश्यकता होती है। मूलाधार स्थित अग्नि ( तेज, ओज ) द्वारा वायु के नाभि देश की ओर चालन का यही अभिप्राय है। नाभि-देश से पवन या श्वास फिर ऊध्वंगामी होता है । वस्तुतः श्रवण-गम्य वाक् का मूल श्वास के उत्थान में है । वह ( श्वास ) ऊवंगमन करता हुआ ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र (Vocal Chord ) से टकराता है । स्वर-यन्त्र का आवयविक स्वरूप मोर प्रक्रिया गले के भीतर भोजन और जल की नली के समकक्ष श्वास की नली का वह भाग, जो अभिकाकल-स्वरयन्त्रावरण ( Epiglo tis ) से कुछ नीचे है, ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र कहा जाता है। गले के बाहर की ओर कण्ठमणि या घांटी के रूप में जो उभरा हुआ, दुबले-पतले मनुष्यों के कुछ बाहर निकला हुआ कठोर भाग है, वही भीतर स्वर-यन्त्र का स्थान है। श्वास-नलिका का यह ( स्वर-यन्त्र-गत ) भाग कुछ मोटा होता है । प्रकृति का कुछ ऐसा ही प्रभाव है, जहां जो चाहिए, उसे वह सम्पादित कर देती है। स्वरयन्त्र या ध्बनि-यन्त्र में सूक्ष्म झिल्ली के बने दो लचकदार पर्दे होते हैं। उन्हें स्वरतन्त्री या स्वर-रज्जू कहा जाता है। स्वर-तन्त्रियों के मध्यवर्ती खुले भाग को स्वर कदाचिवस्माकमपि समधिगम्या। ततो मुखपर्यन्तमाक्रामता तेन कण्ठदेशमासाद्यमूर्धानमाहत्य तत्प्रतिघातेन परावृत्य च मुख-विवरे कण्ठादिकेष्वष्टसु स्थानेषु स्वाभिघातेतोत्पादितः शब्द वेरीति कथ्यते। -साहित्य दर्पण, पृ० २९ १. आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥ ____ 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४६ यन्त्र-मुख या काकल ( Glottis) कहते है। जब हम सांस लेते हैं या बोलते हैं, तब वायु इसी से भीतर-बाहर आती-जाती है । मानव इन स्वर-तन्त्रियों के सहारे अनेक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है, श्वास या पवन के संस्पर्श, या संघर्ष से स्वर-तन्त्रियों या स्वर-यन्त्र के इन लचीले दोनों पर्यों में कई प्रकार की स्थितियां बनती हैं। कभी ये पर्दे एक-दूसरे के समीप आते हैं, कभी दूर होते हैं। सामीप्य और दूरी में भो तरतमता रहती है—कब एक पर्दा कितना तना, कितना सिकुड़ा, दूसरा कितना फैला, कितना सटा इत्यादि। इस प्रकार फैलाव, तनाव, कम्पन आदि की विविधता ध्वनियों के अनेक रूपों में प्रस्फुटित होती है। जैसे, वीणा के भिन्न-भिन्न तार ज्यों-ज्यों अंगुलि द्वारा संस्पृष्ट और आहत होते जाते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वर उत्पन्न करते जाते हैं। वही बात स्वर-यन्त्र के साथ है, जो एक व्यवस्थित और नियमित क्रम लिए हुए है। स्वर-यन्त्र से निःसृत ध्वनियां मुख-विवर में आकर अपने-अपने स्वरूप के अनुकूल मुखगत उच्चारण अवयव-कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त, औष्ठ, नासिका आदि को सःस्पृष्ट करती हुई मुख से बाहर निःसृत होती हैं, वायु से टकराती हैं। जैसा-जैसा उनका सूक्ष्म स्वरूप होता है, वे वायु में वैसे प्रकम्पन या तरगें पैदा करती हैं। वे तरंगें ध्वनि का संवहन करती हुई उन्हें कर्णगोचर बनाती हैं। शब्द के सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर की सृष्टि ध्वनि की अभिव्यक्ति का व्यापार मूलाधार से प्रारम्भ होकर मुख-विवर से निःसूत होने तक किन-किन परिणतियों में से गुजरता है, यह बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और घेखरी के विवेचन के अन्तर्गत जो बतलाया गया है, उसका निष्कर्ष यह है कि जब अर्थ-विशेष का संस्फुरण या भावोद्वेलन व्यक्त होने के लिए शब्द की मांग करता है, अर्थ की बोधकता के अनुरूप उस शब्द का सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर तभी बन जाता हैं, जिसकी पारिभाषिक संज्ञा 'परा' वाक है। 'परा' वाक् अर्थात् वह बहुत दूरवर्ती वाणी या शब्द, जो हमारी पकड़ के बाहर है। तदनन्तर नाभि-देश के संयोग या संस्पर्श द्वारा जो शब्द उत्पन्न होता है, वह भी पहले से कुछ कम सही, सूक्ष्मावस्था में ही रहता है । इस पधन-संश्लिष्ट सूक्ष्म वाक् का और विकास होता है । सूक्ष्म-अमूर्त शब्द मूर्तत्व अधिगत करने की ओर बढ़ता है । · सूक्ष्म शब्द का थोड़ा-सा स्थान स्थूल शब्द ले लेता है । पर, जैसा कि कहा गया है, वह व्यक्त, स्फुट या इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता । यह सूक्ष्म और स्थूल वाणी का मध्यवर्ती रूप है, जहां से सूक्ष्मता के घटने और स्थूलता के बढ़ने का अभियान आरम्भ होता है। इसीलिए सम्भवतः इसे 'मध्यमा' कहा गया हो। 'मध्यमा' ___ 2010_05 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ का उत्तरवर्ती रूप 'वैखरी'' है, जो मानव के व्यवहार-जगत् का अंग है । 'खरी' के प्रस्फुटित होने का अर्थ है-शब्द द्वारा एक आकार की प्राप्ति । बहुत जटिल से प्रतीत होने वाले उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सारांश यह है कि शब्दमात्र के प्रस्फुटित या प्रकट होने में मुख्य क्रियाशील तत्त्व पधन या श्वास है। मूलाधार में उत्पन्न सूक्ष्मतम से प्रारम्भ होकर नाभिदेश में उद्भूत सूक्ष्मतर में से गुजरते हुए हृदय-देश में प्रकटित-व्यक्त-अव्यक्त सूक्ष्म स्वरूप को प्राप्त शब्द के श्वास-संश्लिष्ट होने का ही सम्भवतः यह प्रभाव होना चाहिए कि श्वास विभिन्न स्थिति, रूप, क्रम एवं परिमाण में स्वर-यन्त्र के पर्दो का संस्पर्श करता हुआ उनके विविधतया तनने, फैलने, सिकुड़ने, मिलने, भद्धमिलित, अल्पमिलित, ईषन्मिलित आदि अवस्थाए प्राप्त करने, फलतः तदनुरूप स्वर, व्यंजन शब्द-गठक अक्षर परिस्फुटित करने का हेतु बनता है। पाणी के प्रादुर्भाव का जो क्रम प्रतिपादित हुआ है, वास्तव में बड़ा महत्वपूर्ण है और वैज्ञानिक सरणि लिये हुए है। वागुत्पत्ति जैसे विषय पर भी भारतीय विद्वानों ने कितनी गहरी डुबकियां लीं, इसका यह परिचायक है। जैन दर्शन की दृष्टि से ____जैन दर्शन तीन प्रकार की प्रवृत्तियां-योग स्वीकार करता है-मानसिक, पाचिक तथा कायिका । जब मनुष्य मनोयोग या मनःप्रवृत्ति में संलग्न होता है, तो उस ( मनोयोग ) के द्वारा सूक्ष्म कर्म-पुद्गल ( कम-परमाणु ) आकृष्ट होते हैं । ये कम-परमाणु मूत होते हैं, पर, उनका अत्यन्त सूक्ष्म आकार होता है। मन की प्रवृत्ति या चिन्तन जिस प्रकार का होगा, उसी के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्माणु आकृष्ट होंगे। मनोयोग या मानसिक चिन्तन किसी भी उद्भूयमान कर्म की प्रथम व सूक्ष्म संरचना है। चिन्तन के अनन्तर वाचिक अभिव्यक्ति का क्रम आता है, जिसके लिए शब्दात्मक भाषा की आवश्यकता होती है। मनोयोग जब वाक्-योग में परिणत होना चाहता है, तो वे मनःप्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट कर्म-परमाणु ध्वनि-निष्पत्ति-क्रम पर विशेष प्रभाव डालते हैं। वह प्रभाव आकृष्ट या संचित कर्म-परमाणुओं की भिन्न-भिन्न दशाओं के अनुसार विविध प्रकार का होता है, जैसा होना स्वाभाविक है। फलतः विभिन्न मनोभावों के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियां या शब्द वाक्-योग के रूप में निकल पड़ते हैं। १. विशेषेण रवं राति = रा+ क + अ + डीप अर्थात् जो विशेष रूप से आकाश को रख-युक्त करे-निनादित करे। ____ 2010_05 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह स्थूल और सूक्ष्म की भेद-रेखा अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन, इगित या प्रतीक आदि सिद्धान्त जिनका पहले विवेचन किया गया है, स्थूल भाव-बोधक शब्दों की उत्पत्ति में किसी-न-किसी रूप में सहायक बनें, यह सर्वथा सम्भव प्रतीत होता है । सूक्ष्म भाषों के परिस्फुरण का समय सम्भवतः मानव के जीवन में तब आया होगा, जब वह मानसिक दृष्टि से विशेष विकसित हो गया होगा । वैसी दशा में परा, पश्यन्ती आदि के रूप में वाक्-निष्पत्ति के क्रम तथा जैन-दर्शन सम्मत वाक्योग के क्रियान्वयन की सरणि से सूक्ष्म-भाव-बोधक शब्दों की उत्पति के सन्दर्भ में कुछ प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है । एक प्रश्न का उभरना स्वाभाविक है कि परा, पश्यन्ती आदि के उद्भव-क्रम के अन्तर्गत सृष्ट सूक्ष्म शब्दाकारों या मनःप्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट विभिन्न पुद्गल-परमाणुओं से निःसायंमाण ध्वनि या शब्द प्रभावित होते हैं, तो फिर समस्त जगत् के लोगों द्वारा प्रयुज्यमान शब्दों में, भाषाओं में परस्पर अन्तर क्यों है ? तथ्य यह है कि संसार भर के मानव एक ही स्थिति, प्रकृति, जल-वायु, उपकरण, सामाजिकता आदि के परिवेश में नहीं रहते। उनमें अत्यधिक भिन्नता है। उच्चारणअवयव तथा उच्चायंमाण ध्वनि-समवाय उसमें अप्रभावित कैसे रह सकता है ? दूसरा विशेष तथ्य यह है कि उपर्युक्त वाक्-निष्पत्ति-क्रम का सम्बन्ध विशेषतः सूक्ष्मार्थबोधक शब्दों की उत्पत्ति के साथ सम्भाव्य है, जब कि स्थूल भाव-ज्ञापक शब्द संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं में बन चुके थे। जो-जो भाषाए अपना जिस प्रकार का स्थूल रूप लिये हुए थीं, सूक्ष्म भाव-बोधक शब्दों की संरचना का ढलाव भी उसी ओर हो, ऐसा सहज प्रतीत होता है। इस प्रकार के अनेक कारण रहे होंगे, जिनसे भिन्न-भिन्न भू-भागों की भाषाओं के स्वरूप भिन्न-भिन्न सांचों में ढलते गये । डपसंहात दार्शनिक पृष्ठभूमि पर वैज्ञानिक शैली से किया गया उपर्युक्त विवेचन एक ऊहापोह है। वास्तव में भाषा के उद्भव और विस्तार की कहानी बहुत लम्बी एवं उलझन भरी है। भाषा को वर्तमान रूप तक पहुंचाने में विकासशील मानव को न जाने कितनी मंजिलें पार करनी पड़ी हैं । मानव-मानव का पारस्परिक सम्पर्क, जन्तु-जगत् का साहचर्य, प्रकृति में विहरण तथा अपने कृतित्व से उद्भाषित उपकरणों का साहाय्य प्रभृति अनेक उपादान मानव के साथ थे, जिन्होंने उसे प्रगति और विकास के पथ पर सतत गतिशील रहने में स्फूर्ति प्रदान की। उदीयमान एवं विकासमान भाषा भी उस प्रगति का एक अंग रही। उसी का परिणाम है कि विश्व में आज अफ समृद्ध भाषाए विद्यमान हैं, जो शताब्दियों और 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सहस्राब्दियों के ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य धारा को अपने में संजोये हुए हैं। भाषाओं का आकृतिमूलक वर्गीकरण __ भाषाओं की अपनी-अपनी आकृति है। उनकी रचना का अपना प्रकार है। आकृति के आधार पर भाषाओं का जो वर्गीकरण किया जाता है, उसे आकृतिमूलक वर्गीकरण कहते हैं। उसके अनुसार संसार की भाषाओं के दो वर्ग होते हैं-योगात्मक भाषाए और अयोगात्मक भाषाए। योगात्मक भाषाएं जिन भाषाओं में अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-सत्त्व का योग होता है, वे योगात्मक भाषाए कहलाती हैं। पद और उनसे बने हुए वाक्य भाषा के गठक हैं । पद में मूख्यतः दो बातें होती हैं-अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-तत्त्व । शब्द जिस अर्थ का ज्ञापक है, वह अर्थ-तत्त्व कहा जाता है। जिससे वाक्यगत शब्दों का सम्बन्ध जोड़ा जाता है, उसे सम्बन्ध-तत्त्व कहा जाता है। सम्बन्ध-तत्त्व के योग के बिना वाक्य नहीं बन सकता। भिन्न-भिन्न शब्द अपने भिन्न-भिन्न अर्थ ज्ञापित करते रहेंगे। उनकी समन्विति नहीं होगी। जैसे-अस्मद्, युष्मद्, वस्त्र, दा (धातु ) ये चार शब्द हैं। चारों का अपना-अपना अर्थ है, पर, परस्पर कोई संपति नहीं है। यदि इसे वयं युष्मभ्यं वस्त्राणि अदम, ऐसा रूप दे दिया जाए, तो एक संगत तथ्य प्रकट होता है। ऐसा करने में विभक्तियों, प्रत्ययों आदि का योग हुआ है, यही सम्बन्ध-तत्त्व है। वयम्, युष्मभ्यम्, वस्त्राणि तथा अदद्म-ये अस्मद्, युष्मद्, वस्त्र और दा के रूप हैं । रूप बनाने की एक विशेष पद्धति या शैली है। योगात्मक भाषा-वर्ग में संस्कृत आदि कुछ भाषाए ऐसी हैं, जिनमें अर्थ-तत्त्व और सम्बन्धतत्त्व के योग से निष्पन्न विभक्त्यन्त और प्रत्ययान्त पदों को वाक्य में किसी एक सुनिश्चित क्रम के अनुरूप ही रखा जाए, ऐसा आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि उपयुक्त वाक्य वयं युष्मभ्यं वस्त्राणि अदद्म को वस्त्राणि अदद्म युष्मभ्यं वयम्, अदद्म वस्त्राणि युष्मभ्यं वयम् तथा युष्मभ्यं वयं वस्त्राणि अदद्म इत्यादि अनेक प्रकार से परिवर्तित कर सकते हैं। अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता। पर, बहुत-सी योगात्मक भाषाए ऐसी हैं, जिनमें इस प्रकार नहीं हो सकता। उनमें अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-तत्त्व के योग के साथ-साथ कर्ता, कर्म, क्रिया भादि को पाक्य में रखने का एक विशेष क्रम है, जिसका अनुवर्तन आवश्यक है । जैसे, उक्त वाक्य को हम अंग्रेजी में We gave you the clothes इस प्रकार अनूदीत करेंगे। We, gave, you, clothes आदि वाक्य-गत पदों को हम संस्कृत की तरह आगे-पीछे यथेच्छ रूप में नहीं रख सकते । हिन्दी में भी प्रायः ऐसा ही है। ____ 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह प्रयोगात्मक भाषाए जिन भाषाओं में अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-तत्त्व का कोई योग नहीं होता, वे अयोगात्मक भाषाए' कहलाती हैं। इनमें शब्द के साथ विभक्ति, प्रत्यय, उपसर्ग आदि कुछ महीं जुड़ते । अभीप्सित अयं को ज्ञापित करने के लिए तद्बोधक शब्दों को एक विशेष क्रम से रख देना यथेष्ट है। उन्हीं शब्दों का स्थानिक क्रम बदल कर तत्सम्बन्ध अन्य अनेक आशय प्रकट किये जा सकते हैं। अयोगात्मक भाषा वर्ग में चीनी भाषा मुख्य है। उदाहरण के लिए उस भाषा के तीन शब्द हैं-नो, त, नि। गो का अर्थ मैं, त का मारना तथा नि !का तुम है। "मैं तुम को मारता हूँ"; यह प्रकट करने के लिए चीनी भाषा में नगो त नि कहना होगा। "तुम मुझे मारते हो" ऐसा कहने के लिए नि त न्गो कहना होगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कर्ता कारक का भाव प्रकट करने केलिए केवल इतना-सा अपेक्षित हुआ कि जिसका कर्तृत्व ख्यापित करना है, उस शब्द को वाक्य के प्रारम्भ में रख दिया गया। कर्म कारक का भाव प्रकट करना हो तो मात्र इतना करणीय है कि कर्म-स्थानिक संज्ञा या सर्वनाम को क्रिया के बाद रख दिया जाए। कर्ता, कर्म आदि कारकों का भाव स्थान के एक निश्चित परिवर्तन से व्यक्त हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जो शब्द जिस रूप में भाषा में है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता; विभक्ति, प्रत्यय तथा उपसर्ग आदि का उसके साथ कोई योग नहीं होता। चीनी भाषा का एक उदाहरण और लें। त लइ-वह आता है। यह वर्तमान-कालबोधक वाक्य है। इसे यदि भूतकाल का बनाना हो तो लइ क्रिया के रूप में कोई परिवर्तन नहीं होगा। इस क्रिया के आगे एक शब्द लिओन ( Lion ) जिसका अर्थ समाप्त है, और रख दिया जाएगा। तब वह वाक्य इस प्रकार होगा त लइ ( Lal ) लिओन अर्थात् उसने आना समाप्त किया, वह आया.। लिओन का अर्थ-तत्व है-समाप्त करना, पर, त लइ लिओन में वह सम्बन्ध-तत्व का द्योतक हो गया है। लिओन ( Lion ) के स्थान पर यदि लिआव ( Liao ) जिसका अर्थ पूर्ण या पूर्णता है, रख दिया जाए, तो भी भूतकाल का अर्थ प्रकट हो जाएगा। उपरोक्त उदाहरणों से सिद्ध होता है कि भिन्न-भिन्न शब्द सर्वथा अपरिवर्तित रहते हुए स्थान, प्रयोग आदि के एक विशेष क्रम के कारण अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का अपेक्षित निवाह भली-भांति कर पाते हैं । अयोगात्मक भाषाओं में सबसे अधिक महत्व वाक्य में पाब्दों के क्रम का है, पर, स्वर, लहजे ( Tone ) और निपात का भी अभिव्यक्ति में स्वाम है। संसार में अयोगात्मक भाषाए बहुत थोड़ी-सी हैं। अयोगात्मक भावानों में चीनी 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भाषा जैसे स्थान-प्रधान है, उसी प्रकार अफ्रीका की सूडानी भाषा में भी वाक्यगत शब्दों के क्रम या स्थान का महत्व है। अनामी स्वर-प्रधान है । बर्मी, स्यामी तथा तिब्बती निपातप्रधान है। योगात्मक माषानों के भेदोपभेद ___ योगात्मक भाषाओं के मुख्यतः तीन भेद हैं : प्रश्लिष्ट योगात्मक, अश्लिष्ट योगात्मक और दिलष्ट योगात्मक । प्रश्लिष्ट में अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्तव का इतना मेल हो जाता है कि वे स्पष्ट सर्व में पृथक्-पृथक् पहचाने नहीं जा सकते। जैसे-शालि से शालेय 1, उपग से औपगव', पृथिवी से पार्थिव , वायु से वायव्य ', शुल्कशाला से शोल्कशालिक , वत्स से वात्स्य 6, मृदु से मादव , विनता से वैनतेय , नदी से नादेय , बृहस्पति से बाहस्पत्य 10, मुद्ग से मौद्गीन [, तुला से तुल्य [", दिति से दैत्य 1:", कुशाम्ब से कौशाम्बी 14, गौ से गव्य 15 तथा अग्नि से आग्नेय । ; इत्यादि । १. वीहिशाल्योढक ।-पाणिनीय अष्टाध्यायी, २२ २. उपगोरिदम्-औपगवम् । तस्येदम् ।-वही, ४।३।१२० ३. पृथिव्या ईश्वरः--पार्थिवः। तस्येश्वरः। वही, ५२११४२ ४. वाटवृतुपित्रुषसो यत् ।-वही, ४।२।३१ ५. शुल्कशालाया आगतः-शोल्कशालिकः । ठगायस्थानेभ्यः । --वहो, ४।३।७५ ६. वत्सस्य अपत्यम्-वात्स्यः । गर्गादिभ्यो यञ् ।-वही, ४।१।१०५ ७. मृदोर्भाव:--मार्दवम् । इगन्ताच्च लघुपूर्वात् ।- वही, ५२१११३१ ८. स्त्रीभ्यो ढक् ।—वही, ४१३१५० ९. नद्यादिभ्यो ढक् ।वही, ४।२।९७ १०. बृहस्पतिर्देवता अस्य-बार्हस्पत्यम् । साऽस्य देवता। -वही, ४१२।२४ ११. भवत्यस्मिन्निति भवनम् । मुद्गानां भवनम् -मौद्गनीनम् । धान्यानां भवने क्षेत्रे खम् ।-वही, ५॥२॥१ १२. तुलया समितम्-तुल्यम् । नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्यस्तार्यतुल्यप्राप्यवध्याना भ्यसमसमितसंमितेषु ।—वही, ४।४।११ १३. दितेः अपत्यम्-दैत्यः। दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः । -पाणिनीय अष्टाध्यायो, ४.१०८५ १४. कुशाम्बेन निर्वृत्ता नगरो-कौशाम्बी। तेन निवृत्तम् ।-वही, ४२॥६८ १५. गोपयसोर्यत् ।-वही, ४॥३॥१६० १६. अग्नेः विकारः-आग्नेयः। तस्य विकारः। -वही, ४३३१३४ ___ 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य विश्व भाषा-प्रवाह [ ५५ स्पष्ट है कि यहां अर्थ-तत्व तथा सम्बन्ध-तत्व अत्यन्त धुल-मिल गये हैं। तात्पर्य यह है कि प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ-तत्व के भीतर ही सम्बन्ध-त:व-गर्भित परिवर्तन, परिवद्धन आदि होते हैं। इसलिए भर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का पार्थक्य पिलुप्त हो जाता है। अश्लिष्ट योगात्मक भाषाएं भाषाओं में प्रयुज्यमान पदों में अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का योग तो होता है, पर, दोनों तिल-तण्डुलवत् पृथक्-पृथक् बने रहते हैं, अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं के वर्ग में आती हैं। तिल और चावल अच्छी तरह मिला दिये जाने पर भी एकात्मक नहीं होते। अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व की परस्पर ऐसी ही स्थिति है। द्रविड़ परिवार की भाषाए अश्लिष्ट योगात्मक वर्ग के अन्तर्गत हैं। अश्लिष्ट योगात्मकता को स्पष्ट करने के लिए कन्नड़ और तमिल का एक-एक उदाहरण पर्याप्त होगा। ___ अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व के पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होते रहने का जो उल्लेख किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि वचन, कारक आदि को व्यक्त करने के लिए इस भाषा-धर्ग में शब्द के आगे जो विभक्ति, प्रत्यय आदि जोड़ा जाता है, वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है, तत्संयुक्त शब्द ( अर्थ-तत्व ) तो अपरिवर्तित रहता ही है। उदाहरणार्थ, कन्नड़ भाषा के सेवक शब्द के रूप उद्धत किये जा रहे हैं : एकवचन बहुवचन कर्ता सेषक-रु कर्म सेषक - रन्नु करण सेवक - नु सेवक - नन्नु सेवक - निंद सेषक - निगे सेवक - न सेवक-रिंद सम्प्रदान सेवक -रिगे सम्बन्ध सेवक - र अधिकरण सेवक - नल्लि सेधक - रल्लि कन्नड़ भाषा में कर्ता एक वचन का नु, बहुवचन का रु, कम एक वचन का नन्नु, बहुवचन का रन्नु, करण एक वचन का निन्द, बहुवचन का रिन्द, सम्प्रदान एक वचन का निगे, बहुवचन का रिगे, सम्बन्ध एक वचन का न, बहुवचन का र तथा अधिकरण एक वचन का नल्लि, बहुषचन का गल्लि चिह्न था धिभक्ति है । अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व इन रूपों में ज्यों-के-त्यों स्थित हैं; अतः स्पष्टतः प्रतीत होते हैं। ____ 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ तमिल के 'कोवेल = मन्दिर शब्द के रूपों का उदाहरण और प्रस्तुत किया जाता है। उसके रूप इस प्रकार चलेंगे : कर्ता एकवचन कोवेल कोवेल-एई कोवेल-उदीय बहुवचन कोवेल-गल कोवेल -गल-एई कोवेल-गल-उदीय कर्म सम्बन्ध तमिल में 'गल' बहुवचन द्योतक है। एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए उसे एकवचन के आगे जोड़ दिया जाता है। तमिल में एई कर्म कारक का तथा उदीय सम्बन्ध कारक का चिह्न ( विभक्ति) है। एकवचन से जिस कारक को उपस्थित करना हो, उसके अनुसार ये विभक्तियां उसके आगे जोड़ दी जाती हैं। यदि बहुवचन बोधित करना हो, तो बहुवचन द्योतक गल, जो एकवचन-सूचक शब्द के अन्त में जुड़ा है, के अनन्तर ये कारक-चिह्न जोड़ दिये जाते हैं। ऊपर उल्लिखित 'कोवेल' शब्द के रूपों से यह प्रकट है। अश्लिष्ट योगात्मकता का स्वरूप इससे और स्पष्ट हो जाता है । श्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ . प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं के विवेचन के प्रसंग में यह स्पष्ट हुआ कि सम्बन्ध तत्व अर्थ-तव में इस प्रकार लीन हो जाता है कि बाह्य दृष्टि से उसकी प्रतीति नहीं होती। श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में भी अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का योग होता है, अर्थ-तत्व में कुछ विकार और परिवर्तन भी आता है, पर, फिर भी सम्बन्ध-तत्व प्रश्लिष्ट की तरह अर्थ-तत्व में लीन नहीं होता। उसका स्पष्ट रूप तथा अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का भेद स्पष्टतया तो नहीं दीखता, पर, सम्बन्ध-तत्व की कुछ झलक या आभास अवश्य मिलता है । जैसे-कम से कर्मण्य', कण्ठ से कण्ठ्य , संवत्सर से सांवत्सरिक, पाणिनि से पाणिनीय, धर्म से धार्मिक, दधि से दाधिक, धनुष से धानुष्क', निकट से नकटिक, अक्ष से १. कर्मणि साधुः कर्मण्यः । तत्र साधुः। -पाणिनीय अष्टाध्यायी, ४।४।९८ २. शरीरावयवाच्च । वही, ४॥३॥५५ ३. कालाठञ् ।-वही, ४॥३॥११ ४. पाणिनिना प्रोक्तम्-पाणिनीयम् । तेन प्रोक्तम् । -वही, ४।३।१०१ ५. धर्म चरति । वही, ४।४।४१ ६. बध्ना संसृष्टम्-दाधिकम् । संसृष्टे ।-वही, ४।४।२२ ७. धनुः प्रहरणमस्य-धानुष्कः। प्रहरणम् ।-वही, ४१४१५७ ८. निकटे वसति-नैकटिकः। निकटे वसति ।-वही, ४१४७३ ____ 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [ ५७ आक्षिक, उडुप से औडुपिक 2, तथा धेनु से धेनुक; इत्यादि । इन उदाहरणों में अर्थतत्व यद्यपि यथावत् नहीं रहा है, पर, उसमें सम्बन्ध-तत्व सर्वथा लुप्त नहीं हुआ, अंशत: वह उपलभ्य है । अरबी भाषा में मारने के अर्थ में 'कू-तू-ल' धातु है । उससे कुतल= खून, कातिल = खून करने वाला तथा किल्ल = शत्रु आदि शब्द बनते हैं । संस्कृत के पूर्वोक्त उदाहरणों की तरह इनमें भी अर्थ - तत्व और सम्बन्ध-तत्व का योग है, पर, सम्बन्ध-तत्व की यत् किंचित् पहचान बनी हुई है । यह भी श्लिष्ट योगात्मक का उदाहरण है । विश्व की भाषाओं में विकास और समृद्धि की दृष्टि से श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं का अत्यधिक महत्व है | आकृति के आधार पर भाषाओं के परिवार आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर शब्द- समूह, सम्बन्ध-तत्व व ध्वनि-साम्य के अनुसार संसार की भाषाओं को अनेक भागों या परिवारों में बांटा जाता है। कौन-कौन-सी भाषाएं कौन से परिवारों से सम्बद्ध हैं, भाषाओं के व्यापक रूप में तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात् ही यह निर्णय किया जा सकता है | यह बहुत लम्बे तथा गम्भीर अध्ययन का विषय है । बहुत कम भाषा-परिवारों का इस प्रकार का अध्ययन हो पाया है; अत: संसार में सैकड़ों की संख्या में जो भाषाएं हैं, उनका स्पष्ट पारिवारिक निर्णय और अधिक गवेषणा एवं अध्ययन - सापेक्ष है । फिर भी विद्वानों ने भाषाओं और उनके परिवारों के सम्बन्ध में बहुत काम किया है 1 उन्नीसवीं शती के दो दशकों के बाद जर्मन विद्वान् विलहेल्म फान हम्बोल्डट ने प्रस्तुत विषय पर विस्तार से विचार किया और उन्होंने संसार की भाषाओं को तेरह परिवारों में बांटा | अन्यान्य विद्वानों ने अपने-अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप परिवारों की संख्या भिन्न-भिन्न निर्धारित की । पार्टिज़ ने दश परिवार माने । फ्रेडरिक मूलर आदि भाषावैज्ञानिकों ने इस संख्या को सौ तक पहुंचाया । कुछ विद्वानों का विचार है कि केवल अमेरिका में ही एक सौ भाषा-परिवार विद्यमान हैं 1 राइस ने कहा है कि सब भाषाओं का परिवार एक ही हैग्र के अनुसार विश्व की भाषाएं छब्बीस परिवारों में विभक्त हैं । भारतीय भाषा वैज्ञानिकों के विचार भी भाषा-परिवारों के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न हैं । १. अक्षैर्दीव्यति खनति जर्यात जितो वा आक्षिकः । तेन दीव्यति खनति जयति जितम् । - पाणिनीय अष्टाध्यायी, ४१४१२ २. उडुपेन तरति - औडपिकः । तरति । - वही, ४१४१५ ३. हसुसुक्तान्तात्कः । बही, ७।३।५१ 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भाषा-परिवारों की ये संख्याएं बड़ा कुतूहल उत्पन्न करती हैं । एक से सौ तक की समाधियां कम आश्चर्यजनक नहीं हैं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि विश्व की भाषाओं का अब तक ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टि से सांगोपांग अध्ययन नहीं हो पाया है; इसलिए उपयुक्त निर्णायक संख्याएं अनुमानों के आधार पर परिकल्पित हैं । डा० भोलानाथ तिवारी के अनुसार स्थूल दृष्टि से संसार के प्रमुख भाषा-परिवार १- भारोपीय, २- सेमिंटिक, ३- हेमेटिक, ४-भूराल - अल्टाइक, ५ - चीनी या एकाक्षरी, ६-द्रविड़, ७-मलय-पालिनीशियन, ८- बांटू, ह-बुशमैन, १०- सूडानी, ११ -आस्ट्रेलियन - पापुवन, १२ - रेडइण्डियन, १३ - काशी, १४ - जापानी - कोरियाई हैं । भौगोलिक आधार पर भाषानों का वर्गीकरण भाषाओं के वर्गीकरण का एक प्रकार और है, जिसका आधार भौगोलिक है । इसका आशय यह है कि संसार के जिन-जिन भू-खण्डों में जो-जो भाषाएं बोली जाती हैं, उन वृहत् इकाइयों के आधार पर भू-खण्डों का वर्गीकरण किया जाता है । इस वर्गीकरण में कुछ अधिक स्पष्टता रहती है । एक तथ्य ध्यातव्य है, एक भू-खण्ड में किसी एक ही परिवार की भाषाए हों, ऐसा नहीं होता । उस भू-खण्ड में अनेक परिवारों की भाषाए हो सकती हैं । उनमें परिवार गत भिन्नता के कारण भेद रहना स्वाभाविक है, पर भौगोलिक निकटता के कारण परस्पर ध्वनियों एवं शब्दों का भी आदान-प्रदान होता रहा है । इस दृष्टि से विश्व के भाषा-खण्ड चार प्रकार के माने गये हैं- १ - अफ्रीकाखण्ड, २ - यूरेशिया - खण्ड, ३ - प्रशान्त महासागरीय खण्ड और ४- अमेरिका-खण्ड | भाषा-परिवार संसार की भाषाएं अनेक भाषा-परिवारों में विभक्त हैं । जिस प्रकार मानव का अपना परिवार होता है, उसी प्रकार एक स्रोत से उद्भूत, विकसित और प्रसृत भाषाओं का एक समुदाय होता है, जिसे भाषा विज्ञान में भाषा-परिवार की संज्ञा दी जाती है । एक उदाहरण से यह तथ्य विशेष स्पष्ट होता है । कल्पना करें, विश्व के किसी भू-खण्ड में प्राचीन काल में कोई जाति आबाद थी । उसकी अपनी भाषा थी, जिससे उसका दैनन्दिन काम चलता था । समय बीतता गया, वहां के निवासियों की जन-संख्या बढ़ती गयी । उनमें से अनेकों को लगा होगा, हमारा जीवन निर्वाह यहां सुख-सुविधापूर्वक नहीं हो रहा है । हमें अपने लिए कोई और स्थान खोज लेना चाहिए । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उनके मन में विजिगीषा का भाव जगा हो । १. कुछ विद्वान् संख्या ७, ११ तथा १४ के दो-दो परिवार मानते हैं । 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व भाषा - प्रवाहं [ ५e भाषा और साहित्य ] जो भी हो, उनमें से अनेक लोग अपने मूल स्थान से एक समूह के रूप में किसी दिशा की ओर प्रस्थान करते हैं । बहुत दूर चले जाने पर वे कहीं अपने आवास की अनुकूलता देखते हैं और रुक जाते हैं । उस भू-भाग की भाषा, जहां वे टिके हैं, उनकी अपनी भाषा से भिन्न है । कोई व्यक्ति या समुदाय, जहां भी रहता है, उसे वहां के निवासियों से सम्बन्ध रखना आवश्यक होता है । रहन-सहन, खान-पान, लेन-देन आदि में सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वहां रहने वालों से समीपता बढ़ाये बिना काम नहीं चल सकता; अतः वह समागत समुदाय अपनी भाषा में कुछ ऐसे शब्दों, ध्वनियों आदि को स्वीकार कर लेता है, जो उस भू-भाग के निवासियों की भाषा के होते हैं । इस प्रकार एक मिली-जुली नई भाषा का जन्म हो जाता है, जो आने वाले लोगों की अपनी भाषा से कुछ-कुछ भिन्न हो जाती है, पर, उसका मौलिक रूप नष्ट नहीं होता । जो भेद आता है, वह अधिकांशतः बाह्य स्थूल कलेवर तक सीमित रहता है । इस नई मिली-जुली भाषा से आगत समुदाय अपना काम चलाने लगता है । उस प्रदेश के मूल निवासी भी उस ( नई ) भाषा द्वारा प्रयोजन की बातें लगभग समझने लगते हैं | साथ ही मूल निवासियों की भाषा पर भी उसका कुछ प्रभाव होता है । समय बीतता जाता है । जन संख्या बढ़ जाती है। बाहर से आकर बसे हुए लोगों को पुन: किसी और नये भू-खण्ड में जाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है । उनमें से काफी सख्या में लोग एक समुदाय के रूप में आगे की ओर चल पड़ते हैं । चलते-चलते फिर किसी एक स्थान को सुविधाजनक समझ कर ठहर जाते हैं, वहां आबाद हो जाते हैं । वहां भी पिछली स्थिति की पुनरावृत्ति होती है। नवागत और उस भू-खण्ड के निवासी; दोनों की भाषाभों के मिले-जुले रूप की एक और नई भाषा बन जाती है । नवागत जनों और उस स्थान के वासियों के पारस्परिक व्यवहार, काम-काज आदि के लिए उसका उपयोग होता है, जिससे दोनों को अपना काम चलाने में सुविधा हो जाती है । द्वारा नई भाषा पर कुछ विचार करें, जिसे नये प्रवासी बोलते हैं, जो प्राक्तन व्यक्तियों भी व्यवहृत होती है । एक भाषा वह थी, जिसका प्रयोग इन नये प्रवासियों के आदि-स्थान के पूर्वजों द्वारा होता था । दूसरी भाषा वह थी, जो मूल स्थान से चले समुदाय के पहले पड़ाव या आवास पर बनी | जैसा कि संकेत किया गया है, यह भाषा नवीन अवश्य थी, पर, मूल भाषा या आदि भाषा से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकी थी। दूसरे आवास पर जो भाषा बनी, वह मूल भाषा से तथा प्रथम आवास में निर्मित भाषा से नया रूप लिये हुए थी, पर, वह भी आदि स्थान की भाषा तथा पहले आधास की भाषा से बिलकुल पृथक नहीं हो गयी थी । इतना अवश्य हुआ, जो स्वाभाविक था कि आदि स्थान की भाषा से वह कुछ अधिक भिन्न थी तथा पहले आवास की भाषा से कुछ कम भिन्न 1 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ वस्तुस्थिति यह है कि नये स्थान पर बसने वाले लोग नये शब्द और ध्वनियां अपनी भाषा में अवश्य ग्रहण कर लेते हैं, पर, अपने प्राक्तन भाषा तत्व को छोड़ नहीं सकते थे; अतः मूल भाषा के साथ नये-नये आवासों में बनने वाली भाषाओं का अन्त:- सादृश्य बना रहता है । पुनः आदि स्थान पर दृष्टि निक्षेप किया जाए, जहां से पहला समुदाय चला था । सम्भव है, उसके चले जाने के कुछ समय पश्चात् उसी स्थान से एक और समुदाय पहले से विपरीत दिशा की ओर रवाना हुआ हो । यह दूसरा समुदाय भी, पहले की तरह आगे बढ़ता गया हो । उस समुदाय के लोग जहां-जहां बसते गये, नई-नई ( मिली-जुली ) भाषाएं अस्तित्व में आती गयीं । गहराई में उतरने से ज्ञात होता है, एक केन्द्र से भाषाओं की दो धाराएं विकास पाती गयीं। दोनों के विकास के स्थान भिन्न-भिन्न रहे । स्थितियां भिन्न थीं, लोग भिन्न थे और उन-उन स्थानों की भाषाएं भी भिन्न थीं, जिनके मेल-जोल से ये नई उभरती और पनपती भाषाएं अस्तित्व में आ सकीं। इसलिए यह स्वाभाविक था कि दो विपरीत दिशाओं की rare भूमियों में सृष्टि और विकसित भाषाओं के कलेवर की भिन्नता में वरतमता हो 1 पर, यह सब होते हुए भी उन दोनों दिशाओं की भाषाओं को सर्वथा विसदृश नहीं माना जा सकता । उन सबका प्रारम्भिक स्रोत एक होने से उनमें ध्वनि, शब्द- गठन, रूप निर्माण तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से एक सादृश विद्यमान रहता है, जिसकी व्याप्ति भाषा के बहिर्दह में अपेक्षाकृत कम दृष्टिगोचर होती है, पर उसके अन्तर्दह ( Spirit ) में वह निश्चय ही बनी रहती है । किसी समय जो मूल (आदि ) भाषा रही थी, दो विपरीत दिशाओं में प्रसृत भाषांसमूह का आदि उद्गम स्रोत थी, उसके इतस्ततः, दूर-दूर तक फैला हुआ, उसकी शाखा, उपशाखा प्रशाखा आदि के रूप में विद्यमान भाषा - समुदाय एक भाषा परिवार कहा जाता है, जिसके प्रसृत और विस्तृत होने में शताब्दियां ही नहीं, सहस्राब्दियों तक लग जाती हैं । यह बड़े महत्व की बात हैं कि किसी भाषा-परिवार का ऐतिहासिक दृष्टि से समोक्षात्मक रूपे में अध्ययन करने पर सहस्राब्दियों की लम्बी अवधि के मध्य सर्जित, विकसित और विस्तृत मानव संस्कृति के कितने ही पर्त उद्घाटित होते हैं वह क्यों-ज्यों जागृत जौर विकसित होता जाता है, उसकी लेती जाती है, जिन्हें भाषा अभिव्यक्ति प्रदान करती है । वर्तनों तथा विकास-स्तरों में से गुजरती हुई सुप्रतिष्ठ होती है, मानव के अध्यवसाय, पौरुष एवं उत्क्रान्ति की ओर बढ़ते चरणों के इतिवृत्ति का सबसे अधिक प्रामाणिक साक्ष्य लिये रहती है। पूर्व संकेतित भाषा-परिवारों के सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे फलित प्रस्फुटित हो । भाषा का प्रयोक्ता मानव है । विचार- चेतना नये नये आयाम इसलिए भाषा जो अनेक परि 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] . विश्व भाषा-प्रवाह सकते हैं, जो मानवीय सभ्यता, दर्शन, चिन्तन, समाज-विकास एवं साहित्य-सर्जन के अनेक गरिमान्वित पक्षों को प्रकाश में लाने वाले हों। पारिवारिक सादृश्य के मुख्य आधार शब्द-समूह ( शब्द और अर्थ ) रचना-क्रम अथवा सम्बन्ध-तत्व ( व्याकरण ) तथा ध्वनि; ये तीन विषय ऐसे हैं, जिनका एक भाषा-परिवार में किसी-न-किसी रूप में व्यक्त, किंचिद् व्यक्त या अध्यक्त सादृश्य या साम्य होता है। एक परिवार की भाषाओं के उत्तरोत्तर उद्भव तथा विकास की एक बहुत लम्बी शृखला है। प्रयोक्ताओं के अनेक स्थानों में से गुजरने, विभिन्न भू-भागों में ठहरने तथा बसने के अनन्तर अर्थात् एक लम्बी अवधि, जो शताब्दियों तक की हो सकती है, के बाद जब कोई भाषा सुप्रतिष्ठ होती है, तब तक उसमें प्रयुज्यमान शब्दों की ध्वनियां बहुत कुछ परिवर्तित हो जातो हैं। साहसा उन्हें देखने पर यह कल्पना करना सम्भव नहीं होता कि अमुक भाषाओं का उसके साथ परिवार-गत सम्बन्ध है। पर, अन्य आधारों के कारण ध्वनि-सम्बन्धी प्रकट असमानता के अन्तरतम में समानता के बीज ढूढ़े जा सकते हैं। एक परिवार की भाषाओं में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में भी देश-भेद, काल-भेद तथा व्यक्ति-भेद आदि के कारण बहुत भिन्नता आ जाती है। उदाहरण के लिये फ्रेंच और हिन्दी को ले सकते हैं। यद्यपि दोनों का परिवार एक है, पर, दोनों के शब्दों में बहुत अधिक भिन्नता आ गयी है। इसके विपरीत एक अन्य निष्कर्ष फलित होता है, भिन्न परिवार की भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोग स्थानिक दृष्टि से यदि निकट रहते हैं, तो उनमें दोनों ओर की भाषाओं के शब्दों का परस्परा आदान-प्रदान होता रहता है। इससे परिवार-गत भिन्नता के होते हुए भी उन दोनों भाषाओं के शब्द-समूह में कुछ सादृश्य आ जाता है। उदाहरण के लिए मराठी और कन्नड़ को लिया जा सकता है। ये दो भिन्न परिवारों की भाषाए हैं, परन्तु, ऐसा होते हुए भी उनके शब्दों में कहीं-कहीं समानता प्राप्त होती है। . एक परिवार की भाषाओं में सबसे अधिक समानता मूलक जो स्थायी तत्व है, वह है, व्याकरण या रचना-क्रम की समानता। किसी भी परिवार की भाषाओं में सतत विकास होता जाता है, जो स्वाभाविक है। विकास में परिवर्तन अवश्यम्भावी है। यह होते हुए भो किसी भाषा की व्याकरणिक आकृति या रचना-क्रम पर इसका प्रभाव बहुत धीमा होता है। भारोपीय परिवार पालि व प्राकृत भाषाए आकृतिमूलक वर्गीकरण के अन्तर्गत माने गये 'चौदह भाषा ___ 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ परिवारों में भारोपीय परिवार से तथा भौगोलिक आधार पर वर्गीकृत भाषा-खण्डों में यूरेशिया खण्ड से सम्बद्ध हैं। इन भाषाओं पर चर्चा करने से पूर्व भारोपीय परिवार पर भी संक्षेप में विमर्षण आवश्यक होगा। विश्व के भाषा-परिवारों में भारोपीय परिवार पर भाषा-विज्ञान-सम्बन्धी बहुत कार्य हुआ है। संस्कृत इसी परिवार की भाषा है, जिसका अध्ययन करते समय पाश्चात्य विद्वानों को भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने की विशेष प्रेरणा प्राप्त हुई। भारोपीय परिवार को अब विद्वान् भारत हित्ती ( Indo-Hitti ) परिवार कहते हैं । फिर भी यह परिवार आज़ भी भारोपीय के नाम से अधिक प्रसिद्ध है; क्योंकि यह वर्षों से इसी नाम से बोला जाता रहा है। संसार के भाषा-परिवारों में यह परिवार अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संसार में इस परिवार की भाषाओं को बोलने वाले लोग संख्या में सबसे अधिक हैं। यह परिवार संसार के एक बड़े भू-भाग में फैला है। संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के अभ्युदय, विकास और प्रकर्ष का संवहन करने की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है। इस परिवार का विस्तार मुख्यत: पश्चिम में ब्रिटेन और ब्रिटिश द्वीपों से लेकर पूर्व में उत्तर भारत तक है। मध्यवर्ती यूराल-अल्टाइक तथा वास्क के भू-भाग इससे छूट जाते हैं। वे इस परिवार में नहीं आते । वस्तुतः इस परिवार का नामकरण अब तक ठीक नहीं हो पाया है; इसलिए इसके नाम समय-समय पर बदलते रहे हैं। भारोपीय परिवार के विभिन्न नाम सबसे पहले भारोपीय परिवार इन्डोजर्मनिक ( Indo-Germanisch ) नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके पीछे यह विचार था कि इस परिवार के पूर्वी किनारे पर भारतीय भाषाए और पश्चिमी किनारे पर जर्मन भाषाएं हैं। किन्तु, पश्चिम में जर्मनी तक ही यह परिवार सीमित नहीं है। उसके भी पश्चिम में इस परिवार की एक शाखा और प्रचलित है, जिसका नाम केल्टिक है। इस स्थिति में "इण्डोजर्मनिक' नाम विद्वानों को उपयुक्त नहीं लगा। उसे छोड़ दिया गया। परन्तु, जर्मन विद्वान् आज भी इस परिवार के लिए इसी नाम का प्रयोग करते हैं। उनका कहना है कि यही यथार्थ नाम है । जर्मनी का महत्व घटाने के लिए इस नाम को हटाया गया । कुछ विद्वानों ने इस भाषा-परिवार को आर्य-परिवार के नाम से भी सम्बोधित किया। इसका आधार उन्होंने यह बताया कि इसके बोलने वाले आर्य जाति के लोग हैं। परन्तु, आगे जो गवेषणाए हुई, उनसे सिद्ध हुआ कि आर्य शब्द द्वारा उन सब लोगों का भान नहीं होता, जो इस परिवार के विशाल दायरे में हैं। कुछ आगे बढ़कर विद्वानों का ऐसा मत बना कि आर्य केवल ईरान और भारत के लोगों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है, इसलिए समूचे 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह परिवार का नाम आर्य-परिवार रखना कदापि संगत नहीं है । इस नाम की संगति भारोपीय या भारत-हिती परिवार की एक शाखा भारत-ईरानी परिवार के लिए ही हो सकती है। संस्कृत इस परिवार की मुख्य भाषा रही है; अतः पहले कुछ विद्वानों का जिनमें भारतीय मुख्य थे, यह अभिमत था कि संस्कृत ही इस परिवार की मूल भाषा थी । उसी से इस परिवार की सारी भाषाए निकलीं। उन लोगों की दृष्टि में इसका नाम "संस्कृतपरिवार" रहना समुचित था। पर, संसार के विद्वानों द्वारा उसे मान्यता नहीं दी गई। भारोपीय को आधार अनेक नाम आये, पर, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में 'भारोपीय परिवार' ही अब तक प्रचलित है। इसकी भाषाए विशेषतः यूरोप से लेकर भारत तक फैली हुई हैं, इसी अभिप्राय से यह नामकरण हुआ । अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि भू-खण्डों के किन्हीं भागों में भी अंग्रेजी, फ्रेंच, डच आदि भाषाए, जो भारोपीय परिवार की हैं, पहुंच गयी हैं। यूरोप से भारत तक व्याप्ति की बात इसलिए अक्षरशः संगत नहीं होती, पर, मुख्यता और व्यापक प्रचलन की दृष्टि से इसी ( नाम ) का व्यवहार है। भारत-हिती का तात्पर्य हित्ती भाषा का उन्नीसवीं शति के अन्तिम दशक में पता चला, जब एशिया माइनर के बोगाजकोई नामक स्थान की खुदाई में कुछ कीलाक्षर लेख प्राप्त हुए। बीसवीं शती के प्रथम दशक में पुन: खुदाई हुई, जिसमें कोलाक्षरों के अतिरिक्त और भी चित्र, लिपि भादि सामग्री मिली। इनके आधार पर विद्वानों ने हित्ती को ई० पू० दो हजार से ई० पू० पन्द्रह सौ तक की भाषा माना । उसके परिवार-निर्धारण में विद्वानों ने लम्बे समय तक गवेषणा और परिशोलन किया । अन्ततः यह लगभग सर्वमान्य निर्णय रहा कि हित्ती भारोपीय की बहिन है। इसका अभिप्राय यह है कि आदि उद्गम-स्रोत से भाषाओं के दो समुदाय निकले। एक भारोपीय परिवार की भाषाओं का था और दूसरा एनाटोलियन शाखा की भाषाओं का। ईरानी, पहलधी, संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, आदि भाषाए जहां भारोपीय शाखा के अन्तर्गत हैं, वहां हित्ती, लीडियन, लीसियन, हीरोग्लाफिक हिट्टाइट, पलेइक तथा लुधियन भाषाए एनाटोलियन शाखा के अन्तर्गत हैं। एनाटोलियन शाखा में हिती भाषा का सर्वाधिक महत्व है। यही कारण है कि विद्वानों ने भारोपीय परिवार के संशोधित नाम भारत-हित्ती परिवार में हित्ती शब्द जोड़ा है। भाषा-वैज्ञानिकों का अभिमत है कि जिस मूल भाषा से उक्त दोनों शाखाए' उद्गत 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड:२ हुई, उसका समय ई० पू० दो हजार चारसौ से पहले का है। कुछ विद्वान् इसमें थोड़ा संशोधन करते हैं। उनका कहना है कि मूल भारत-हित्ती का समय ई० पू० दो हजार नौसौ तथा ई० पू० दो हजार चारसौ के मध्य होना चाहिए । अभिप्राय यह है, वे विद्वान् मूल भारत-हित्ती की अवस्थिति उस स्थान पर लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व से मानते हैं । विरोस : एक नई कल्पना मूल भाषा से उद्गत होकर भारत-हित्ती-परिवार या भारोपीय-परिवार की भाषाएं संसार के विस्तृत भू-भाग में प्रसृत हुई, उसके लिए एक विशेष नाम की कल्पना की गयी है। उन्होंने इस कल्पना का आधार संस्कृत वीर, लेटिन Uir, Vir, प्राचीन आयरिश FER तथा जर्मन VER आदि को माना। जिन मूल-स्थान-घासियों में कभी यह भाषा प्रचूत थी, उन्हें भी वोरोस ( wIROS ) नाम से सम्बोधित किया गया। पूर्व चर्चित भारोपीय या भारत-हित्ती परिवार के नामों के सम्बन्ध का सार यह है कि नाम की समस्या अब तक भी सन्तोषजनक रूप में समाहित नहीं हो सकी है। डा० भोलानाथ तिवारी ने इस विषय में एक सुझाव उपस्थित किया है, जो उल्लेखनीय है । उन्होंने लिखा है : यदि हम उन मूल लोगों को "विरोस' कह रहे हैं, तो उसी आधार पर उस मूल-भाषा के परिवार के लिए 'विरोस परिवार' ( Wiros Family ) का प्रयोग कर सकते हैं। सभी दृष्टियों से यह नाम दूसरों की अपेक्षा उपयुक्त है। हां, यह बात दूसरी है कि भारोपीय या ( Indo-European ) के पूर्ण प्रचलन हो जाने के बाद अब किसी अच्छेसे-अच्छे नाम के भी प्रचलन की सम्भावना नहीं है ।"1 आर्यो को मूल स्थान 'विरोस' भाषा जहां प्रचलित थी, उसको बोलने वाले लोग जहां रहते थे, वह स्थान कौन-सा था, इस पर विश्व के अनेक विद्वानों ने जलवायु विज्ञान, भाषा- विज्ञान, पुरातन साहित्य, भूगोल, पुरातत्व और ज्योतिष आदि के आधार पर बहुत कुछ चिन्तन मन्थन किया है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। उनमें काफी मतभेद हैं । बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी अब तक विश्व के विद्वान् धिरोस भाषा और लोगों के निवास स्थान के सम्बन्ध में किसी एक भत' पर नहीं आ सके । वास्तव में ज्ञान और गवेषणा का मार्ग बड़ा दुर्गम है। उसमें तपस्या और साधना चाहिए । आशा है, वर्तमान विद्वान् और आगे भाने वाले विद्वानों की पीढ़ी इस प्रश्न का समाधान ढूंढ निकालने में तब तक प्रयत्नशील रहेगी, जब तक एक निर्बाध निर्णय नहीं हो जायगा । १. भाषा विज्ञान, पृ० १२५ 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [ ६५ विरोस् नाम की कल्पना बहुत प्राचीन नहीं है । कुछ ही समय पूर्व यह की गई है । उससे पहले उन लोगों को, जैसा कि पहले संकेतित हुआ है, आर्य कहा जाता था । अब भी वह नाम प्रचलित है । आदि स्थान भारत : एक अभिमत विरोस् ( आर्य ) लोगों का आदि स्थान भारत में ही था, यह एक मत है । इसके अनुसार आर्य कहीं बाहर से नहीं आये । हो सकता है, वे यहां से बाहर के देशों में गये हों । भारत एक विशाल देश है । उसमें किसी स्थान - विशेष का निश्चय कर लेना होगा कि आर्य प्राचीनकाल में वहां बसते थे । भारत को आर्यों का मूल स्थान मानने वालों में प्रमुख भारतीय विद्वान् ही हैं । भारत में आर्यों के किसी एक निश्चित स्थान के विषय में उनका अभिमत एक नहीं है । श्री एल० डी० कल्ला कश्मीर या हिमालय में उनका आदि स्थान स्वीकार करते हैं । ख्यातनामा मनीषी महामहोपाध्याय डा० गंगानाथ झा के अनुसार आर्यों का आदि स्थान ब्रह्मर्षि देश है । मनुस्मृति में ब्रह्मर्षि देश के सम्बन्ध में उल्लेख है : "कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन प्रदेश ब्रह्मर्षि देश के अन्तर्गत हैं ।" इस परिभाषा के अनुसार कुरुक्षेत्र के आसपास का स्थान अलवर, बैराठ आदि के परिपाद की भूमि, मथुरा या ब्रजभूमि का प्रदेश, पंजाब, जम्मू और हिमाचल के बीच का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश में आना चाहिए । 'I प्रमुख इतिहासवेत्ता श्री डी० एस० त्रिवेदी के अनुसार देविका उसकी घाटी में स्थित मुलतान का क्षेत्र आर्यों का आदि स्थान था । शब्द की व्युत्पत्ति मूल स्थान से जोड़ते हैं । आर्यों का मूल स्थान होने के अनुसार इस क्षेत्र का मुलतान नामकरण हुआ । इतिहास के एक दूसरे बड़े विद्वान् श्री अविनाशचन्द्र दास ने 'ऋग्वेदिक इण्डिया' नामक पुस्तक में आर्यों का मूल निवास स्थान सरस्वती के सरस्वती के तटीय प्रदेश को बताया है । उद्गम स्थल हिमालय अथवा नदी के तट पर या कुछ विद्वान् मुलतान से ही उन विद्वानों सरस्वती और दृषद्वती वैदिक काल की नदियां थीं। ऋग्वेद और ताण्ड्य ब्राह्मण में उनका वर्णन है । ये पंजाब और राजस्थान के उत्तरी भाग में प्रवहमान थीं । दिनों इनका तटीय प्रदेश बहुत उधेर तथा समृद्ध था । उन १. कुरुक्षेत्रं च मत्याश्च पंचालाः शूरसेनकाः । एष ब्रह्मर्षिदेशो वे ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥ मनुस्मृति, २।१९ २. ऋग्वेद, ३।२३।४ 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ उत्तरी राजस्थान तक इनकी अवस्थिति के सम्बन्ध में राजस्थान जिला गैजेटियर, चूरू में उल्लेख किया गया है : " कहा जाता है कि प्राचीन काल में चूरू जिले के समीपवर्ती गंगानगर जिले के भू-भाग में सरस्वती और दृषद्वती नामक नदियां बहती थीं, जिनसे राजस्थान के इस क्षेत्र में आर्यों की उपस्थिति प्रमाणित होती है । गंगानगर जिले के रंगमहल, काली बंगा, बडोपाल तथा नोहर आदि स्थानों में पुरातत्व की दृष्टि से जो खुदाई हुई है, उससे प्रकट होता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता इस क्षेत्र तक फैली हुई थी । "" दोनों नदियां आज प्राप्त नहीं हैं। सरस्वती के सम्बन्ध में एम० मोनियर विलियम ने संस्कृत-अंग्रेजी शब्द-कोश में उल्लेख किया है : "एक सुप्रसिद्ध छोटी नदी, जिसे हिन्दू पवित्र मानते हैं, जो आज 'सुरसुती' से पहचानी जा सकती है और जो दृषद्वती के साथ आयं देश और उसके एक मण्डल ब्रह्मावर्त का सीमांकन करती है। 2 ॠग्वेद ७,९५, २ में बताया गया है कि यह नदी समुद्र में मिलती है। पर, उत्तरवर्ती किंवदन्तियों के अनुसार यह भूमि में लुप्त हो जाती है और इलाहाबाद में गंगा और यमुना में मिल जाती है ।" 1. We are told that in the ancient times two Vedic rivers-Saraswati and Drishadwati flowed in the contiguous areas of the district i. e., in Ganganagar, which testifies to the presence of the Aryans in this part of Rajasthan. Recent archaeological excavations, carried out in the adjoining district of Ganganagar at Rangmahal, Kalibanga, Bedopal Nohar etc. indicate that the Indus valley civilization extended upto this area. -Rajasthan District Gazetter, Churu, P. 15. 2. Manusmriti ; 2117 3. N. of well-known small river ( held very sacred by the Hindus; identified with the Modern Sursooty, and formerly marking with the Drishadavati one of the boundaries of the region Arya-Desha and of the sacred district called Brahmavarta ( See Mn. II, 17 ); in R. V. VII 95, 2; this river is represented as flowing into the sea, although later legends make it disappear underground and join the Ganges and Jumna at Allahabad, Sanskrit-English Dictionary by Sir Monier-Williams M.W.A; K. C. I.E. 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [६७ वामन शिवराम आप्टे ने अपने कोश' में सरस्वती का मरुस्थल की रेत में लुप्त होना लिखा है। ___ दृषद्वती के सम्बन्ध में एम० मोनियर विलियम्स' का उल्लेख है कि वह सरस्वती में मिलती है। ___ आप्टे इस नदी के विषय में कहते हैं : "एक नदी का नाम जो आर्यावर्त की पूर्व सीमा बनाती है तथा सरस्वती नदी में मिलती है।"3 ___ एम० मोनियर विलियम्स ने सरस्वती की जो 'सुरसूती' के नाम से पहचान कराई है, वह चिन्त्य प्रतीत होती है। राजस्थान में घग्घर नाम से प्रसिद्ध वर्षा ऋतु में प्रायः बहने बाली नदी सरस्वती सम्भावित है। ___ उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सरस्वती के तट पर अति प्राचीन काल में कभी आर्यों का आवास था। पर, इससे यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि आर्यों का यही मूल स्थान था। राजस्थान के गंगानगर जिले के कालीबंगा, रंगमहल आदि स्थानों की खुदाई और वहां से प्राप्त वस्तुओं से पुरातत्त्व के विद्वानों और अनुसन्धित्सुओं को यह प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिए कि वे सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में गहन अध्ययन और अनुशीलन करें, जो यहां विशेष रूप से परिव्याप्त थी। सम्भव है, ऐसा होने पर अनेक नये तथ्य प्रकाश में आयें, प्राक् आयंकालीन संस्कृति के सम्बन्ध में भी कुछ इगित प्राप्त हों। ___ कुछ भारतीय विद्वान्, जिनमें डा० सम्पूर्णानन्द का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है; वेदों, पुराणों तथा तत्सम्बद्ध साहित्य के आधार पर उपयुक्त मत से मिलता-जुलता मत प्रकट करते हैं। किसी निश्चित स्थान का इत्थंभूत संकेत तो वे नहीं करते, पर, उनका प्रबल तर्क यह है कि जब प्राचीन भारतीय आर्य-साहित्य में आर्यों के बाहर से आने का कहीं भी उल्लेख नहीं है, तब क्यों नहीं उन्हें भारतवर्ष के ही मूल निवासी माना जाए। समीक्षा प्रस्तुत मत के उभावक और पोषक व्यक्तियों में उच्च कोटि के विद्वान् है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने भारतीय वाङमय का गम्भीर अनुशीलन किया है, पर, आर्यों के मूल स्थान १. आप्टे : संस्कृत-हिन्दी-कोश , पृ० १०८७ 2. Name of a river which flows into the Saraswati. -Sanskrit-English Dictionary,P.492. ३. आप्टे : संस्कृत-हिन्दी-कोश , पृ० ४७१ 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ के सम्बन्ध में उनका जो मन्तव्य है, विश्व के अनेक प्रौढ़ विद्वानों तथा अनुसन्धाताओं के विचारानुसार भाषा-विज्ञान तथा मानव के विकास-अभियान आदि के सूक्ष्म परिशीलन से संगत नहीं जान पड़ता। हो सकता है, इस मत के प्रतिपादन में थोड़ा-बहुत भावुकता का भी स्थान रहा हो। भारत का चिर अतीत निःसन्देह संस्कृति, दर्शन, साहित्य, कला, निर्माण आदि अनेक दृष्टियों से उन्नयन और विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा था। पर, उसका अतिशयित चित्र, जो तथ्यान्वेषण में भी बाधक हो, कतिपय प्राचीनता-प्रिय भारतीयों के मस्तिष्क पर आच्छन्न है, क्या उसका प्रभाव भी इस मान्यता पर नहीं आ पाया, यह चिन्तन और समीक्षा-योग्य है। कुछ सूक्ष्मता से उन पहलुओं का भी परीक्षण करें, जिनसे उपयुक्त मान्यता की प्रामाणिकता व्याहत होती है । यदि भारोपीय परिवार की भाषाओं के विस्तार पर दृष्टिपात करें, तो यह स्पष्टतया परिज्ञात होगा कि उनका विस्तार भारतवर्ष के परिपार्श्व में ही नहीं, अपितु उनमें से अधिकांश या तो यूरोप में फैली हुई हैं या एशिया, यूरोप के मिलने के स्थान के आस-पास । ऐसी स्थिति में क्या यह कल्पना करें कि भारतवर्ष से आर्य (विरोस) पश्चिम की ओर बढ़ते गये, अनेक भाषाएं बनती गयीं। यह कल्पना युक्ति-युक्त और न्याय-संगत प्रतीत नहीं होती। भारत से इतनी दूर तक जाने का आर्यों का कोई उद्देश्य होना चाहिए। भारतवर्ष की भूमि बहुत उर रही है। उस समय जन-संख्या भी कम थी। जीवन-निर्वाह की कोई समस्या नहीं थी। फिर यूरोप के दूर देशों तक चल कर लोग गये, वहां आबाद हुए, समझ में आने योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त प्राचीन वाङमय में भारतीयों के इस प्रकार के अभियान या बहिर्गमन का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में क्या यह अधिक सम्भव नहीं लगता कि कोई एक समुदाय पश्चिम से पूर्व की ओर चला हो और चलते-चलते कुछ ठहरावों के बाद, जिनमें उसके अनेक साथी उन ठहराधों के स्थानों पर आबाद भी हो गये हों, भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम भाग में पहुंचा हो, वहां बस गया हो । उनमें से कतिपय कुछ समय पश्चात् आसपास की दूसरी दिशाओं में भी चले गये हों। भारतवर्ष में भारोपीय, द्रविड़, आग्नेय आदि परिवारों की भाषाए प्रचलित हैं। उत्तर भारत में पंजाब से लेकर असम तक तथा भारत के मध्यवर्ती भाग में पंजाबी, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मैथिली, भोजपुरी, बंगला, उड़िया, आसामी, मराठी आदि भारोपीय परिवार की भाषाएं बोली जाती है। बंगाल, बिहार व मध्यप्रदेश के कुछ भू-भागों, खासीजयन्ती की पहाड़ियों तथा तमिलनाडु के गंजाम जिले में मुडा ( कनावरी, खेरवारी, कुकू', खड़िया, जुआंग, शाबर, गदवा आदि ) भाषाओं का प्रचलन है, जो आग्नेय परिवार की भाषाए हैं। दक्षिण में आन्ध्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि के अतिरिक्त लक्षद्वीप 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] विश्व भाषा-प्रवाह और लंका आदि में भी द्रविड़-परिवार की ( तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, तुलु, कुडागू, टोडा आदि ) भाषाओं का प्रचलन है। इसका आशय यह है कि किसी प्रदेश में द्रविड़परिवार की कोई एक भाषा बोली जाती है, दूसरे में कोई अन्य । जैसे, आन्ध्र में तेलुगू, तमिलनाडु में तमिल, लंका में जो तमिल भाषी लोग बसे हुए हैं. उनमें तमिल, केरल में मलयालम तथा कर्नाटक में कन्नड़ बोली जाती है। आर्य जाति का मूल स्थान यदि भारतवर्ष होता, तो यह स्वाभाविक था कि उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा-परिवार की भाषाए ही समग्न भारत में व्यवहृत होतीं। ऐसा नहीं हुआ, इसका एक सम्भावित कारण यह हो सकता है कि द्रविड़-परिवार की भाषाएं बोलने वाले पहले से ही यहां बसे हुए हों, जिनकी अपनी भाषाए भी कुछ विकसित रही हों । तदनन्तर आर्यों का आगमन हुआ हो । तब उनके द्वारा प्रयुज्यमान भाषा-परिवार को विविध भाषाए भारत के समग्र उत्तरो भाग में क्रमशः विस्तार पाती गयी हों। मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से कुछ नये तथ्य उद्वाटित होते हैं। इनका समय ऋग्वेद से पहले का है। वहां प्राप्त सामग्री के आधार पर विद्वानों ने उस सम्बन्ध में विशेष गवेषणा की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि मोहन जो-दड़ो आर्यों के भारतआगमन से पूर्व की किसी समृद्व सभ्यता का भग्नावशेष है । उस सभ्यता के लोगों को अपनो भाषा, संस्कृति तथा एक व्यवस्थित जीवन-प्रणाली थी। इस सन्दर्भ में उद्घाटित तथ्यों या निष्कर्षों के अनुसार ऐसा सम्भाव्य हो सकता है कि मोहन-जो-दड़ो से सम्बद्ध सभ्यता, संस्कृति द्रविड़ों की रही हो, उनकी अपनी भाषा भी रही हो, जिसका विकास आज तमिल, तेलुगू तथा कन्नड़ आदि के रूप में पाते हैं। प्राचीन भू-विज्ञान, जल-वायु-विज्ञान, भाषा-विज्ञान तथा नृवंश-विज्ञान आदि पर हुए गवेषणात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर आर्यों का मूल स्थान वर्तमान काल में भारतवर्ष की जो सीमाए हैं, उनसे कहीं बाहर होना चाहिए। सुप्रसिद्ध भारतीय विद्वान् लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आदि ने भी आर्यों का मूल स्थान भारतवर्ष से बाहर ही माना है। मूल स्थान भारत से बाहर यह विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है; अतः इस पर बहुत गहराई से चिन्तन हुआ है, अब भी होता है । यहां इस सम्बन्ध में विश्व के विभिन्न विद्वानों के नाना अभिमत विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन पर कुछ विचार करना उपयोगी होगा। संस्कृत भाषा वेदों के महान विद्वान् प्रो० मैक्स मूलर द्वारा पामीर का प्लेटो तथा उसके आसपास मध्य एशियां, स्कैंडनेवियन भाषाओं के विद्वान् डा० ले धम ( Ladham ) द्वारा स्केंडनेविया, इटली के ___ 2010_05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: २ मानवशास्त्रवेत्ता सेर्जी ( Sergi ) द्वारा एशिया माइनर के पठार, लोकमान्य तिलक द्वारा उत्तरी ध्रव के पास, सर देसाई द्वारा रूस में बाल्कन झील के पास, डा० गाइल्ज (Giles) द्वारा हंगरी के कारपेशियन पहाड़ के आसपास, हर्ट द्वारा पोलैंड में विश्चुला नदी के तट पर, नेहरिंग द्वारा दक्षिणी रूस मच आदि विद्वानों द्वारा पश्चिमी बाल्टिक के किनारे, स्लाव भाषाओं के विद्वान् प्रो. श्रेडर ( Schrader ) द्वारा दक्षिणी रूस में वोल्गा नदी के मुहाने तथा कैस्पियन सागर के उत्तरी तट के पास, डा० ब्रान्देन्ताइन ( Brandenstein ) द्वारा यूराल पर्वतमाला के दक्षिण ( दक्षिण-पश्चिम रूस ) में आर्यो का मूल स्थान होने की परिकल्पनाए की गई हैं। कुछ विद्वानों ने जर्मनी, लिथुवानिया, मेसोपोटामिया, रूसी तुर्किस्तान, परसिया, बाल्टिक सागर के दक्षिणी-पूर्वी तट आदि को आर्यों का मूल स्थान बतलाने का प्रयत्न किया है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि तिब्बत मानव-सृष्टि का आदि स्थान है। मानव-जाति का इसी स्थान पर उद्भव हुआ। यहीं से वह सारे विश्व में फैली। इस मान्यता के अनुसार तिब्बत त्रिविष्टप का परिवर्तित रूप है। त्रिषिष्टप का अर्थ तीनों लोकों का समूह है। सारी मानव-जाति का उत्पत्ति-स्थान जब तिब्बत है, तब आर्य-जाति सहज ही वहां की सिद्ध हो जाती है। आर्यों के मूल-स्थान के विषय में इतने मत-मतान्तरों के मध्य सही स्थान का अति प्रामाणिक निर्णय दे पाना सरल नहीं है। समीक्षा : स्थापना ___ उपर्युक्त मतों पर जब तटस्थ भाव से विचार करते हैं, तो सबसे पहले एक तथ्य की ओर ध्यान जाता है, जिस पर पहले भी यथाप्रसंग कुछ इगित किया गया है। निश्चय ही बुद्धि और भावुकता परस्पर विपरीत तत्त्व हैं। भाबुकता से मोह उत्पन्न होता है। मोह का परिणाम किसी विशिष्ट वस्तु की ओर झुकाध है। यह सर्वथा सम्भव है, सूक्ष्म विवेक वहां कुछ क्षीण हो जाता है। आर्यों के मूल-स्थान के निर्धारण में भी कुछ विद्वानों की मनोवृत्ति पर इसका प्रभाव प्रतीत होता है । भारतीय विद्वानों ने भारत को जो आर्यों का आदि स्थान बतलाया, उसका आधार भारतीय वाङमय था। प्रो. श्रेडर ने स्लाघ-भाषाओं के क्षेत्र को आर्यो का मूल स्थान घोषित किया। प्रो० श्रेडर स्लाव-भाषाओं के विद्वान् थे। उनका अनुसन्धान और अनुशीलन मुख्यतः स्लाव-भाषाओं के आधार पर हुमा । उन्होंने अपने मत की स्थापना तथा दृढ़ीकरण में उन्हीं भाषाओं के उद्धरण उपस्थित किये । डा० लैधम स्केंडेमेषियन भाषाओं के पण्डित थे। उन्होंने एतद्विषयक अपने अध्ययन-अन्वेषण के परिणाम स्वरूप आर्यों का मूल स्थान - १. त्रयाणां विष्टपानां समाहार :-त्रिविष्टपम् 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य विश्व भाषा-प्रवाह [ ७१ स्केंडेनेविया सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इन विद्वानों की तं.नों श्रेणियों का आर्यों के मूल स्थान की स्थापना में अपनी-अपनी भाषाओं के क्षेत्र अर्थात् अपने-अपने देशों की ओर चिन्तन केन्द्रित हुआ। इसमें कुछ-न-कुछ मम व की झलक आती ही है। ___भारोपीय-परिवार की भाषाओं का पूर्व और पश्चिम में विस्तार, विभिन्न स्थितियां, ध्वनियों का तारतम्य, भौगोलिकता तथा भाषाओं के उत्तरवर्ती विकास की विविध परिणतियां आदि अनेक पक्ष इस सन्दर्भ में चर्चित हुए। निष्कर्षतः कतिपय धरिष्ठ भाषा-वैज्ञानिकों का मत ब्रान्देन्श्ताइन के पक्ष में रहा । भारतवर्ष के महान् भाषा-विज्ञानवेत्ता डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने भो ब्रान्देश्ताइन के मत का समर्थन किया। तदनुसार यूराल पर्वतमाला के दक्षिण का प्रदेश आर्यों का आदि स्थान परिकल्पित किया गया। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा० बटकृष्ण घोष आदि कुछ विद्वान् ब्रान्देन्श्ताइन के मत के बहुत से पहलू स्वीकार नहीं करते, परन्तु, अधिकांश विद्वानों का झुकाव इसी ओर है। मूल स्थान से अभियान यूराल पर्वत के दक्षिणी भू-भाग को आर्यो या विरोस् लोगों का मूल स्थान मान कर अब हम चिन्तन करें। ब्रान्देन्श्ताइन का विचार है कि शब्दों के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये ( आयं या विरोस् ) किसी एक ही स्थान में अविभक्त रूप में निवास करते थे। समय बीतने पर उनमें से कुछ लोग दक्षिण-पूर्व की ओर चल पड़े, जिन्हें हम भारत-ईरानी लोगों के पूर्व-पुरुष कह सकते हैं। मूल स्थान से वे सीधे ईरान पहुंचे या बीच में कहीं रुके, निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सन्दर्भ में भारत के प्रमुख भाषा-वैज्ञानिक डा० बाबूराम सक्सेना के विचार मननीय है : “इतिहास में आर्य जाति का आविभीष अन्यों ( मिस्री, सुभेरी, अक्कदी, असीरी, चीनी आदि ) की अपेक्षा अर्वाचीन है। अनुमान है कि मादिम आर्यों का प्रथम सम्पर्क उत्तरी मेसोपोटेमिया की तत्कालीन सभ्य जातियों से, ईसा से पूर्व तेईसवीं या बाईसवीं सदी में हुमा, ई० पू० २००० वर्ष के आसपास उनकी स्थिति मेसोपोटेमिया में पाई जाती है। प्रायः ई० पू० १४०० के बोगाजकोई लेख में आर्यों का प्रथम सर्वथा स्पष्ट उल्लेख है।"] इससे यह भी सम्भव प्रतीत होता है कि आर्यों का पहला मुकाम मेसोपोटेमिया में हुआ हो । दो भागों में विभाजन अभियान का पहला परिणाम यह हुआ कि अपने मूलस्थान से विरोस् या पायं सहज ही दो भागों में विभक्त हो जाते हैं। एक वे, जो दक्षिण-पूर्व की ओर आगे बढ़े तथा दूसरे १. सामान्य भाषा विज्ञान, पृ० ३२५ ___ 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ वे, जो उनके चले जाने पर पीछे रह गये। जो लोग पीछे रहे, वे या उनमें से अधिकांश उस स्थान को छोड़ कर किन्हीं नये स्थानों की खोज में पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम आदि अन्यान्य दिशाओं की ओर चल पड़े हों। आगे बढ़ते गये हों। भिन्न-भिन्न दिशाओं में आगे बढ़ते रहने तथा भिन्न-भिन्न भू-भागों में आबाद होते जाने के कारण नई-नई भाषाए निर्मित होती गयी हों। ईरान में भावास : भाषा में परिवर्तन दक्षिण-पूर्व होती हुई पूर्व की ओर बढ़ने वाली शाखा के लोग जब ईरान में बस जाते हैं, तब वहां पर उनकी मूल भाषा का रूप परिवर्तित होने लगता है। ईरान आर्याणाम् का परिवर्तित रूप है, यह ठीक ही प्रतीत होता है । सम्भवतः आर्यों के उस भू-भाग में बसने के पश्चात् उस ( देश ) का यह नाम प्रचलित हुआ हो । भाषा-परिवार के विवेचन के प्रसंग में जैसा कहा गया है, जो लोग बाहर से आते हैं, उन्हें, जहां आकर वे टिकते हैं, वहां के मूल लोगों की भाषा से काफी ले लेना होता है। इस प्रकार एक मिली-जुली भाषा बन जाती है। ईरान में ऐसा ही हुआ । भारोपीय परिवार की भारत-ईरानी शाखा ईशान आने के पश्चात् आर्यों की भाषा की जो धारा प्रवाहित होती है, उसे भारोपीयपरिवार की आर्य-शाखा या भारत-ईरानी शाखा कहा जाता है। भारोपीय - परिवार में इस शाखा का बड़ा महत्व है। आगे चलकर ऋग्वेद जैसे साहित्य का इसी में प्रणयन होता है, जो विश्व के उपलब्ध वाङमय में सबसे प्राचीन माना जाता है। प्राचीनता के साथ-साथ ऋग्वेव की भाषा - सम्बन्धी विशेषता को संसार के प्रायः सभी प्रमुख विद्वान् स्वीकार करते हैं। इसके साथ - साथ भारत-ईरानी परिवार की भाषाओं का रूप-गठन तथा वाङमय भी अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। पश्चिम में भाषा-विज्ञान के व्यापक तथा बहुमुखी अध्ययन एवं अन्वेषण का जो क्रम गतिशील हुआ, उसका आधार भी मुख्यतः ये ही आय-परिवार की भाषाए हैं। इन भाषाओं के सूक्ष्म अनुशीलन और विश्लेषण के प्रसंग में पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान विश्व की विभिन्न भाषाओं के ध्वन्यात्मक, शब्दात्मक तथा त्मक साम्य की ओर आकष्ट हआ। कलकत्ता स्थित भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर विलियम जॉन्स के परिचय-प्रसंग में इस दिशा में जो प्रकाश डाला गया है, उससे यह तथ्य प्रमाणित होता है। आर्यों के ईरान में आ जाने तथा बस जाने के अनन्तर जो नई भाषा अस्तित्व में १. अग्निम प्रकरण में यथाप्रसंग यह चर्चा की जायेगी। ____ 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह आई, उससे जहां आने वालों को अपने विचार व्यक्त करने में सुविधा हुई, वहां मूल निवासियों को भी आगत जनों के साथ अपना व्यवहार बढ़ाने में वह भाषा सहायक सिद्ध हुई । कोई भाषा जब परिनिष्ठित रूप ले लेती है, तो उसमें साहित्य का सर्जन होने लगता है। ऐसा अनुमान है कि ईरानी में भी काफी साहित्य लिखा गया था। पर, आज वह संसार को उपलब्ध नहीं है। ई० पू० ३२३ में यवन-सम्राट, सिकन्दर ने ईरान पर आक्रमण किया। विध्वंस और लूटपाट के साथ - साथ उसने ईरान के ग्रन्थालय भी जला डाले। ई० ६५१ में ईरान पर अरब का आक्रमण हुआ। आक्रामकों ने जहां उस देश को नष्ट-भ्रष्ट किया, वहां के ग्रन्थालयों को भी अछूता नहीं छोड़ा। उन्हें अग्निदेव को भेंट कर दिया। ___दो बार में इस प्रकार वह साहित्यिक निधि, जो मनीषियों की प्रज्ञा और श्रम से सर्जित थी, मानव के उन्माद का शिकार होकर शून्य में विलीन हो गयी। सखेद प्रश्न होता है कि ये आक्रान्ता आक्रान्त देश के ग्रन्थागारों को क्यों जला डालते हैं ? इससे न केवल आक्रान्त देश की ही हानि होती है, अपितु विश्व की बहुत बड़ी साहित्यिक व सांस्कृतिक उपलब्धियां सहसा विध्वस्त हो जाती हैं। पर, क्या किया जाए, जब मानव का मन उन्माद-ग्रस्त हो जाता है, तब वह जो न कर, थोड़ा है। जो कुछ बच पाया, वह था पारसियों का धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता और ई० पू० ६०० के हरुमानी बादशाहों के शिलालेख। अवेस्ता का समय ई० पू० ७ वीं शती माना जाता है। यही ईरान का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य है। अवेस्ता को भाषा ऋग्वेद की भाषा से मिलतीजुलती है। अवेस्ता में ऋग्वेद की तरह प्रार्थनाएँ हैं। जिस भाषा में अवेस्ता की रचना हुई है, उसे अवेस्तो कहा जाता है। वह ( अवेस्ती ) कुछ समय तक वैक्ट्रिया को राजभाषा भी रही थी; अतः उसे प्राचीन पैक्ट्रियन भी कहा जाता है । अवेस्ती, प्राचीन फारसी ईरानी की दो शाखाए मानी जाती हैं-अवेस्तो और प्राचीन फारसी। दोनों के प्रवृत्त होने में समय का बहुत अधिक अन्तर नहीं है। सम्भवतः प्राचीन फारसी अवेस्ती के कुछ बाद की हो। ईरान का पश्चिमी भाग फारस कहा जाता था। पुरानी फारसी का वहीं प्रचलन था। फारस में प्रचलित होने के कारण इसका नाम फारसी पड़ा हो, ऐसो सम्भावना है। पुरानी फारसी में कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। कुछ कीलाक्षरीय अभिलेख प्राप्त हैं, जो एकमेनियन शासकों द्वारा ई० पू० पांचवीं-छठी शती में उत्कीर्ण करवाये गये थे। 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ पहलवी का उद्गम अवेस्तो जब जन-भाषा के रूप में प्रयुज्यमान न रही, तब उसका स्थान मध्यकालीन फारसो या पहलवी ने ले लिया। प्राचीन फारसी से मध्यकालोन फारसो या पहलवी का उद्गम हुआ। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि पहलवी प्राचीन फारसी का विकासत रूप है। अवेस्तो भाषा के अप्रचलित हो जाने से अवेस्ता कुछ दुर्बोध प्रतीत होने लगा; अतः उस पर पहलवी भाषा में एक टीका लिखी गयी । उसे ज़न्देन्द कहते हैं । जन्द का अर्थ ही टीका है। ज़न्द व अवेस्ता दोनों को मिला कर जन्दावेस्ता कहा जाता है। पहलवी में टीका कब लिखी गई, इसका ठीक समय तो नहीं बताया जा सकता, पर, इतना कहा जा सकता है कि ई० पू० तीसरी शती तक पहलवी का प्रमलन हो चुका था। ई० पू० तीसरी शती के कुछ सिक्के मिले हैं, जिन पर पहलवी * उल्लेख है । यह पहलवी का प्राचीनतम रूप कहा जा सकता है। प्राचीन फारसी और मध्यकालीन फारसी या पहलवी के बीच का अर्थात् प्राचीन फारसी के पहलवी के रूप में परिणत होने के पूर्व का, दोनों के मध्यवर्ती रूप का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं होता । पहलवी में तीसरी शती से साहित्य-रचना का क्रम दृष्टिगोचर होता है। उससे पूर्व का साहित्य नहीं मिलता। पहलवी के दो रूप : हुआ.वारेश, पाजंद पहलवी के दो रूप प्राप्त हैं । एक वह है, जिसमें अरबी ( सेमेटिक परिवार ) के शब्दों का आधिक्य है, जिसका हेतु इस्लाम का प्रभाव है । इसकी लिपी भी अरबी है । इसे हु.वारेश कहा जाता है। दूसरा वह है, जो सेमेटिक परिवार के प्रभाव से मुक्त है। इसे पाजंद या पारसी कहा जाता है। भारत में जो पारसी बसते हैं, उनकी यही मातृ-भाषा है । पारसी अधिकांशत: बम्बई में हैं। गुजराती-भाषियों से उनका अधिक सम्पर्क रहा है; अतः गुजराती पर पाजद का कुछ प्रभाव लक्षित होता है । आधुनिक फारसी : परिष्कार या विकार फारसी का तीसरा रूप आधुनिक फारसी है, जो ईरान में बोली जाती है। महाकवि फिरदौसो (ई० स० ९४०-१०२०) का शाहनामा नामक महाकाव्य इसी भाषा में है। इसमें तो अरबी शब्द कम ही प्रयुक्त हुए हैं, पर, इसके पश्चात् आधुनिक फारसी में अरबी शब्दों के आने का तांता बंधा रहा। अभी पिछले कुछ समय से ईरान के साहित्यिक क्षेत्र में राष्ट्रीयता 2010_05 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ७५ को एक नई लहर व्याप्त हो रही है । फारसी-साहित्य में जो अरबी शब्द प्रयुक्त हैं, उन्हें चुन-चुन कर निकाला जा रहा है और उनके स्थान पर आयं परिवारीय ईरानी शब्द प्रतिष्ठित किये जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की बात तो ठीक है, पर, ऐसा करने से साहित्य का ऐतिहासिक रूप क्षुण्ण होता है। जो भी कारण हो, सेमेटिक परिवार ( अरबी) के शब्द, जो फारसी-बाङमय में प्रयुक्त हो गये हैं, वे एक प्रकार से उसके अंग बन गये हैं। उन शब्दों का विद्यमान रहना जहां एक ओर भाषा के उतार-चढ़ाव के इतिहास को बताता है, वहां जातीय अभिक्रमों पर भी प्रकाश डालता है; अतः किसी के भा पुरातन रूप को ध्वस्त करना क्या उपयोगिता का हनन नहीं है ? पश्तो या अफगानी प्रदेश या स्थान-भेद से किसी भी भाषा को बोलियां उत्तरोत्तर बनती जाती हैं, बदलती जाता हैं । आधुनिक फारसी की भी अनेक बोलियां हैं। उनमें किन-किन बोलियों का अवेस्ता से और किन-किन का फारसी से उद्गम है, इस सम्बन्ध में विद्वानों के भिन्न-भिन्न भत हैं, जिन पर यहां चर्चा अपेक्षित नहीं है। इन बोलियों में पश्तो का स्थान महत्वपूर्ण है। यह अफगानी या अफगानिस्तानी भी कहलाती है। इसे कुछ विद्वान सीधे अवेस्ती से उद्भूत मानते हैं, पर, यह मत सर्वमान्य नहीं है। पश्तो अफगानिस्तान की भाषा है । ईरानी की प्रायः किसी भी बोली में साहित्य-सजन लगभग नहीं हुआ। यदि हुआ भी, तो नहीं के तुल्य । केवल पश्ती हो इसका अपवाद है । सोलहवीं शती से इसमें साहित्य-रचना होने लगी थी। पश्तो पर भारतीय-ध्वनि, वाक्य-रचना आदि का विशेष प्रभाव पड़ा है। एक प्रकार से यह ईरानी और भारतीय को बीच की भाषा कही जा सकती है। ईरानी को दरद साखा ईरानी भाषा की बोलियों की एक और महत्वपूर्ण शाखा है, जिसका विस्तार पामीर और पश्चिमोत्तर पंजाब के मध्य में है, जो अब पाकिस्तान का भाग है। वे दरद भाषाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। स्वरूप-सघटन की दृष्टि से ये भी पश्तो की तरह ईरानी और भारतीय की मध्यवर्ती कही जा सकती है। पश्तो में और इनमें परस्पर इतना-सा अन्तर है-पश्तो का झुकाव प्राय: ईरानी की ओर है और दरद भाषाए भारतीय भाषामों की ओर झुकी संस्कृत में 'दरद' पर्वत को कहा जाता है। पर्वतीय भूमि में प्रयुक्त होने के कारण सम्भवतः इन भाषाओं का 'दरद' नाम पड़ा हो । पंजाबी, सिन्धी, मराठी आदि भारतीय भाषाओं में भी इनके शब्द प्राप्त होते हैं। इससे यह अनुमान करना अस्वाभाषिक नहीं लगता ___ 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ कि कभी दरद भाषा-भाषी पंजाब, सिन्ध, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में रहे हों; अन्यथा सैकड़ों मीलों की दूरी पर विद्यमान भाषाओं के शब्द इतर भाषाओं में कैसे आ जाते ? भाषाओं के पारस्परिक सम्बन्ध तथा प्रभाव मानवीय कर्म-चेतना के किस प्रकार द्योतक हैं, इससे अनुमेय है। पुरातन समय में भारत में ऐसा माना जाता रहा है कि दरद भाषाए भारतीयपरिवार की भाषाए हैं। उन्हें पैशाची प्राकृत के अन्तर्गत समझा जाता था। पर ज्योंज्यों इस सन्दर्भ में अनुसन्धि सु भाव से अध्ययन-अनुशीलन होता गया, यह मान्यता परिवर्तित हो गयी। अब भाषा-वैज्ञानिकों का इन्हें ईरानो से निःसृत मानने में प्रायः ऐकमत्य है । काश्मीरी भाषा ___ काश्मीरी भाषा को शब्द संघटन, वाक्य-रचना, ध्वनि-तत्व आदि की दृष्टि से अनेक विद्वान् ईरानी की 'दरद' शाखा के अन्तर्गत मानते हैं, पर, भारत के सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डा० पी० डी० गुणे आदि कतिपय विद्वान् इसे भारतीय शाखा के अन्तर्गत मानते रहे हैं। उनका यह भी कथन रहा है कि काश्मीरी का पेशाची अपनश से विकास हुआ है। काश्मीरी पर संस्कृत-प्रभाव का कारण काश्मीरी पर संस्कृत का बहुत प्रभाव पड़ा है। कारण यह है कि काश्मीर प्राचीन काल से ही संस्कृत विद्या का प्रबल और प्रबुद्ध केन्द्र रहा है। संस्कृत विद्या में निष्णात होने के लिए विद्याभ्यासो जहां काशी जाकर पढ़ते थे, वहां अपनी विद्या की सम्पन्नता के लिए वे काश्मीर भी जाते थे। यहां का पीठ बहुत विश्रुत था। संस्कृत वाड मय की विभिन्न विधाओं में रचना करने वाले अनेक विद्वान् वहां हुए, जिन्होंने संस्कृत के भाण्डागार को अपने अमूल्य ग्रन्थ-रत्नों से भरा। इस कोटि के विद्वान् एक-दो नहीं, सैकड़ों हुए, जिनमें से काव्यालंकारसूत्र के रचयिता वामन ( राजा जयापीड़ ७७६-८१६ ई० सन् के आश्रित ), मामहालंकार-विवरण (जो अब प्राप्त नहीं है ) तथा अलंकारसार संग्रह के लेखक उद्भट ( जयापीड़ के आश्रित ), हरविजय महाकाव्य के प्रणेता रत्नाकरा ( राजा जयादित्य और अवन्ति धर्मा ८५० ई० के आश्रित ), कप्पणाभ्युदय के लेखक भट्ट शिवस्वामी ( अवन्ति वर्मा के आश्रित ), ध्वन्यालोकलोचन, प्रत्यभिज्ञावाव, अभिनव भारती आदि अनेकानेक महत्वपूर्ण विश्लेषण-ग्रन्थों के प्रणेता अभिनव गुप्त (१००० ई० के आस पास ), भारतमंजरो, रामायण. मंजरी, बृहत्कथा मंजरी, दशावतारचरित, पद्यकावम्वरो तथा औचित्य-विचार-चर्चा आदि के लेखक अभिनव गुप्त के शिष्य क्षेमेन्द्र ( ११ वीं शती का मध्यकाल ), कथासरित्सागर के रचयिता सोमदेव (१०६३-१०८१ ई०), सुप्रसिद्ध इतिहास-ग्रन्थ राजतरंगिणी के लेखक कल्हण (११५० ई०), सोमपालविलास काव्य के कर्ता जल्हण (११५० ई.) तथा ____ 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ७७ श्रीकण्ठचरित काव्य के कर्ता मंख ( राजा जयसिंह ११२६-११५० ई० के आश्रित ) आदि कुछ हैं। ___काश्मीर में विभिन्न विषयों पर हजारों संस्कृत ग्रन्थ लिखे गये। सारे प्रदेश में संस्कृत का एक वातावरण रहा है । यद्यपि संस्कृत का प्रसार एवं प्रयोग शिष्ट जन-समुदाय में था, पर, आसपास में रहने वाले जन-साधारण की भाषा पर भी प्रभाव तो होता हो है। संस्कृत-प्रभावित क्षेत्र की भाषा होने के कारण ही सम्भवतः कतिपय भारतीय विद्वानों का झुकाव काश्मीरी को भारतीय भाषा-शाखा में जोड़ने का रहा है । पर, इसकी प्रकृति, रचनाक्रम, ध्वनि-विन्यास आदि का विशेष सम्बन्ध दरद शाखा से अधिक समभवित जान पड़ता है। काश्मीरी में साहित्य-रचना १४ वीं शती से काश्मीरी में साहित्य-रचना का क्रम चालू हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। उससे पूर्व काश्मीरी केवल बोलचाल में प्रयुक्त होती थी। साहित्य-सर्जन का माध्यम संस्कृत भाषा थी। राजसमादृत होने से राजकीय कार्यों में संस्कृत का उपयोग होता था । १४ वीं शती में कश्मीरी में लिखने वाली एक सुप्रसिद्ध कवयित्री लल्ला थी। Linguistic Survey of India जैसे विशालकाय महत्वपूर्ण ग्रन्थ के लेखक सर जाजं अब्राहम ग्रियसन ने १. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन बिहार में एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आये। भारतीय भाषाओं पर कार्य करने की उनमें रुचि जगी। वर्षों के अनवरत श्रम और लगन से उन्होंने भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं तथा बोलियों का अन्यत्र गम्भीर ज्ञान अर्जित किया। उनके भाषा-सम्बन्धी व्यापक ज्ञान का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई सो भाषाओं और बोलियों की उन्हें परिपूर्ण जानकारी थी। उन्होंने अपना कार्य बिहारी भाषाओं के अध्ययन से प्रारम्भ किया। बिहारो भाषाओं के सात व्याकरण लिखे, जो सन् १८८३ से १८८७ तक प्रकाश में आये। भाषाओं के सर्वेक्षण के क्षेत्र में उनका असाधारण कार्य Linguistic Survey of India नामक महत्वपूर्ण कृति है, जिसे उन्होंने सन् १८९४ में प्रारम्भ किया और तैंतीस वर्ष के घोर परिश्रम से सन् १९२७ में वे उसे समाप्त कर सके। यह महान् और विशाल ग्रन्थ बीस खण्डों में प्रकाशित हुआ है। इसमें प्रायः सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों का उदाहरण-सहित व्याकरण उपस्थित किया गया है। उन्होंने भारतीय भाषाओं और बोलियों की कुल संख्या क्रमशः १७९ तथा ५४४ गिनाई है, जो आर्य, द्रविड़, आग्नेय, तिब्बती-बर्मी ( एकाक्षर ) भाषा-परिवारों से सम्बद्ध है। ऐसा माना जाता है कि विश्व के किसी भी देश में अब तक भाषाओं का ऐसा सर्वेक्षण नहीं हुआ है। ____ 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कवयित्रो लल्ला की रचना का लन्दन से प्रकाशन किया। काश्मीरी का साहित्य आगे और विकसित होता गया। फलतः इस समय इस भाषा का साहित्य बहुत समृद्ध और समुन्नत है। काश्मीरी भाषा को कई उपभाषाए बोलियां हैं। कुछ बोलियों का क्षेत्र पंजाब का निकटवर्ती भू-भाग है; अतः उनमें पंजाबी का मिश्रण जैसा हो गया है। परिणामस्वरूप उनका वास्तविक रूप नहीं रह पाया है, कुछ विचित्र-सा रूप बन गया है । काश्मीर में डई ___ काश्मीर में इस समय बोलचाल में उर्दू का अधिक प्रयोग होता है। काश्मीरी भाषा उसकी तुलना में उपेक्षित जैसी लगती है। बादशाह अकबर ने जब काश्मीर को मुगलसाम्राज्य में मिला लिया, सम्भवतः तब से वहां उर्दू का सूत्रपात हुआ होगा। तब तक काश्मीरी भाषा का ही अधिक प्रचलन था। आगे चलकर उर्दू अधिक प्रसार पाती गयी, काश्मीरी सिमटती गयी। जनता में अब अपनी परम्परा-प्रसूत भाषा के प्रति पुन: आत्मीयता उभर रही है। काश्मीरी ईरानी की दरद शाखा की भाषा होते हुए भी संस्कृत से प्रभावित क्यों है; इसका यही स्पष्ट कारण परिलक्षित होता है। मानव की सदा से यह कामना रही है कि वह सुख, सुविधा और समृद्धि के साथ जीए। बड़े-बड़े अभियानों, दुःसाहसिक कार्यों और पराक्रमों के पीछे उसकी यही मनोवृत्ति कार्य करती रही है। विरोस्-वीर या आर्य जाति के लोग कभी यूराल पहाड़ के दक्षिण में अर्थात् रूस के दक्षिणी पश्चिमी भाग में बसते थे। उसमें बहुत बड़े-बड़े मैदान हैं। तब तक वहां कृषि का विकास नहीं हो पाया था। ब्रान्देन्ताइन का मत है कि विरोस् सूखी चट्टानों वाली पहाड़ियों पर रहते थे। वहाँ हरे-भरे वन नहीं थे। केवल कुछ गुल्म और बांझ आदि वृक्ष थे। जन-संख्या की वृद्धि, जीवन-निर्वाह के सीमित साधन, आर्यो के लिए उनके बहिय अभियान के प्रेरक सूत्र बने होंगे। वे चल पड़े होंगे, साहस और उमंग के साथ । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रियर्सन ने विद्वत्तापूर्ण विस्तृत भूमिका दो है, जिसमें उन्होंने भारतीय आर्य भाषाओं का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयतन किया है। इस विशाल कार्य के अतिरिक्त भाषाओं के सम्बन्ध में वे और भी महत्वपूर्ण कार्य करते रहे । १९०६ में पिशाच भाषा पर एक ग्रन्थ तथा १९११ में काश्मोरो पर दो भागों में उनका एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। ये ग्रन्थ बड़े प्रामाणिक माने जाते हैं। उन्होंने काश्मीरी भाषा का एक कोश भी तैयार किया, जो सन् १९२४ में चार भागों में प्रकाशित हुआ। भारत से सहस्रों मील दूर का एक व्यक्ति, वह भो प्रशासनिक अधिकारी भाषामों पर इतना विशाल कार्य करे, निःसन्देह अत्यन्त आश्चर्यजनक होने के साथसाथ विद्वानों के लिए प्रेरक भी है। ___ 2010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ! विश्व भाषा प्रवाह [ ७६ यूराल के दक्षिणी मैदानों में कहीं उन्हें अश्व मिला होगा । उसे उन्होंने प्रशिक्षित किया होगा । वे उसे वाहन और भार वहन के उपयोग में लेने लगे होंगे। ॠग्वेद में अश्व की बड़ी प्रशंसा की गयी है । उसकी ऋचाओं में अश्व का जो महत्व है, वह गाय का नहीं है । आर्यों को गाय का परिचय और उसकी उपयोगिता का ज्ञान सम्भवतः बाद में हुआ होगा । विद्वानों का अभिमत है कि उस समय मेसोपोटेमिया में बेल, ऊंट और गधे का उपयोग होता था । स्फूर्ति और गति में अश्व के समक्ष वे पशु नहीं टिक सके । यही कारण है कि अश्व के साथ उनका ( आर्यों का ) अभियान उत्तरोत्तर सफल और विजयशील होता गया । । उनके अभियान को सफलता का एक और हेतु उनका संगठन भी था । आर्यों के सामाजिक संगठन, व्यवस्था तथा जीवन क्रम के सम्बन्ध में डा० बाबूराम सक्सेना ने लिखा है : "वीरों के विषय में विद्वानों का अनुमान है कि पशु-पालन और शिकार इनकी जीविका के मुख्य साधन थे । खेतीबारी इन्होंने दक्खिन के प्रदेशों में आकर इन प्रदेशों के तत्कालीन मनुष्यों से सीखी। तभी इन्हें गाय और बैल का महत्व मालूम हुआ 1 इनके मूल स्थान में फलों के वृक्ष भी न थे । फलों का अधिकाधिक प्रयोग भी इन्होंने इन्हीं जातियों से सीखा I वीरों में समाज का संगठन: पितृ प्रधान था । बहु-विवाह की प्रथा न थी । कई कुल मिला कर एक गोत्र बनता था । इनका दिमाग ऊँचे दर्जे का था । संगठन अच्छा था । स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार में यथेष्ट संयम था । स्त्री जाति का समुचित आदर था । कन्या का विवाह पिता, बड़े भाई आदि की इच्छा और आज्ञा से होता था । धर्म के क्षेत्र में इनको अलक्षित देवी सत्ता पर विश्वास था और इसकी विविध देव-शक्तियों के रूप में कल्पना की गयी थी । पृथ्वी लोक के परे द्योलोक देवी शक्तियों का निवास स्थान था । द्यौः, पिता, सविता, पृथ्वी, उषा आदि देवताओं की संख्या परिमित ही थी, मिस्री और मेरी जातियों की तरह इनके देवी-देवता बहुतेरे न थे । स्पष्ट ही हैं कि तरह इस सुसंगठित और संयमी, शरीर, मन और आत्मा के हृष्टपुष्ट वीर जहां भी गये, वहां अपनी शक्ति की स्थापना कर सके और अपनी वाणी का प्रभुत्व अन्य प्राणियों पर स्थापित कर सके 11 * शारीरिक, मानसिक तथा चारित्रिक विशेषता लिये आर्य ईरान होते हुए भारत पहुंचे । ईरान में आगमन और आवास के सम्बन्ध में पीछे उल्लेख किया जा चुका है । वे भारत में सबसे पहले पंचनद तथा सरस्वती व दृषद्वती द्वारा परिवृत भू-खण्ड में टिके ! क्या आर्य एक साथ आये ? एक प्रश्न इस प्रसंग में और विचारणीय है । आर्यों के भारत आने के विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं । कुछ मानते हैं, एक ही बार में आर्य भारत में आ गये और वे ही आगे फैलते सामान्य भाषा विज्ञान, पृ० ३२७ १. 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ गये। कुछ की मान्यता है कि दो बार में या कई बार में अनेक टोलियों के रूप में वे भारत में आये और बसते गये। पहले पहल आने वाले आर्य पश्चिम भारत में बस चुके थे तथा मध्यप्रदेश व पूर्वी भाग में कुछ फैलते जा रहे थे ; अतः बाद में आने वाली टोलियों को और पूर्व में मगध, विदेह, अंग, गौड आदि प्रदेशों में बसना पड़ा हो । एक प्रश्न और है, जो आर्य भारत में आये, क्या वे सभी एक ही जाति के थे ? अथवा कई जातियों के थे? . डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने आर्यों के भारत आने के प्रसंग में लिखा है : "भारत में जो आर्य भाषा-भाषी आये थे, वे शारीरिक गठन की दृष्टि से एक ही जाति के थे, ऐसा नहीं प्रतीत होता। अनुमान किया जाता है, इनमें दो भिन्न-भिन्न जातियों के भिन्न-भिन्न प्रकार के शारीरिक गठन वाले जन-समूह थे। एक Nordic 'नाडिक' अर्थात् उत्तर प्रदेश के मानव थे। ये दीर्घकाय, सफेद या गौर वर्ण, हिरण्यकेश, नील चक्ष, सरल नासिक और लम्बे सिय वाले थे। बहुतों के मतानुसार ये ही विशुद्ध इन्दो-यूरोपीय या मौलिक आर्य हैं । और दूसरी जाति के लोग Alpine 'आल्प पर्वतीय' या मध्य यूरोपीय जाति के बताये जाते हैं। ये अपेक्षाकृत लघुकाय, पिंगलकेश या कृष्णकेश और चिपटे सिर वाले थे। भारत में आई हुई इस आल्पीय श्रेणी की जाति मूलतः आर्यभाषी थो या नहीं, इस विषय में सभी एक मत नहीं हैं । लेकिन, भारत में कहीं-कहीं, जैसे गुजरात और बंगाल में, आर्य भाषी लोग इस चिपटे सिर वाली आल्पीय णी के अन्तर्गत हैं । पंजाब, राजपूताना और उत्तर-हिन्दुस्तान में Nordic या उत्तरी श्रेणी के बृहत्काय, लम्बे सिर वाले आर्यों का निवास अधिक हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है । आर्यभाषी उपजाति-समूह ने भिन्न-भिन्न काल में तथा भिन्न-भिन्न दलों में भारत में प्रवेश किया। इनकी भिन्न-भिन्न उपजातियों या गौत्रों में प्रचलित मौखिक या बोलचाल की भाषा में थोड़ा बहुत पार्थक्य हो गया था। लेकिन, इन सब बोल-चाल की भाषाओं के ऊपर कविता या साहित्य की एक भाषा इनमें बन गयी थी, जिसका निदर्शन हमें ऋग्वेद में मिलता है। उत्तर पंजाब में आर्यों का पहला निवास हुआ। इसके बाद आर्य जाति और भाषा का प्रसार पूर्व की ओर हुआ। सिन्धु और पंचनद से सरस्वती और दृषद्वती के दोआब से होकर वे गंगा-यमुना के देश की ओर बढ़े। द्राविड़ और आस्ट्रिक ( आग्नेय ) भाषाए आर्य भाषा के विस्तार के साथ ही साथ परित्यक्त होने लगी।" कतिपय अन्य विद्वानों का भी आर्यों के भारत आगमन के सम्बन्ध में लगभग इसी प्रकार का विचार है कि वे कई दलों में, कई बार में भारत आये। जाज ग्रियसन का अभिमत है कि वे कम-से-कम दो बार में अवश्य आये । १. भारत की भाषाएं और भाषा सम्बन्धी समस्याएं, पृ० ३३-३५ ___ 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्य एक भाषा लिये आये डा० चटर्जी भारत आने वाले आर्यों को Nordic नाडिक अर्थात् उत्तर देश के मानव और Alpine आल्प पर्वतीय या मध्य यूरोपीय जाति के इस रूप में जो दो प्रकार के बतलाते हैं, हो सकता है, ऐसी सम्भावना हो । पर ऐसा मानने में एक कठिनाई अवश्य आती है । दो भिन्न जातियों के लोग, जिनकी भाषाएं भिन्न होनी ही चाहिए, जिन्हें वे अपने साथ लिये आये । बहुत मामूली सा पार्थक्य, जो सुगमता से शीघ्र ही मिट जाए, दो भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भिन्न जातियों की भाषाओं में कैसे सम्भव हो सकता है, यह सूक्ष्मता से विचार करने योग्य है । हो, एक बात हो सकती है; यूराल पर्वत के दक्षिण में अर्थात् दक्षिण-पश्चिम रूस में, जिसे आर्यों का आदि स्थान मानकर हम चिन्तन कर रहे हैं, ये दो भिन्न जातियां रहती रही हों। दोनों की भाषा एक हो गई हो, जिसे भाषा- 'ज्ञानिकों ने अब कल्पित नाम विरोस् दिया है । पर इन दोनों जातियों में किस जाति के लोग वहां के मूल निवासी थे, किस जाति के लोग बाद में वहां आकर उनमें मिल गये, इस सम्बन्ध में इतिहास कुछ नहीं बताता । केवल कल्पना ही को जा सकती है । विश्व नावा- प्रवाह प्रस्तुत प्रयोज्य भाषा सम्बन्धी विश्लेषण है; अतः यह मानकर चलना संगत होगा कि भारत में बाहर से जो लोग आये, उनकी भाषा मूलतः एक थी । विभिन्न टोलियों व गोत्रों की बोलियों में किंचित पार्थक्य हो सकता है, जो नगण्य है । ऋषाओं के नाद । आर्य पंचनद में आये । प्रकृति सुरम्य थी । भूमि उधर थी । स्वच्छ सलिला सरिताए बहती थीं । यूराल के दक्षिणवर्ती मैदानों से चलकर यहां तक पहुंचने के बीच आर्यों ने विभिन्न भू-भागों में बसने वाली विभिन्न जातियों के सम्पर्क से तब तक कृषि कर्म जान लिया होगा । वे परिश्रमी और लगनशील थे । कृषि - कार्य में जुट गये होंगे फसलों से भूमि लहलहा उठी होगी | ऐसे सुन्दर और मनोज्ञ वातावरण ने आर्यों को मोह लिया होगा, जिसकी प्रतिध्वनि ऋग्वेद की ऋचाओं में प्राप्त कर सकते हैं। ऋग्वेद के सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु, अग्नि, द्यौ, उपा; इन सब में देवत्व की प्रतिष्ठा कर इनकी स्तुति मौर प्रशस्ति 2 में हर्ष - विभोर हो उठते हैं । भूमि: माता पुत्रोऽहं पृथिव्याः जैसे वाक्य उनके अन्तरतम की सुखद अनुभूति के परिचायक हैं । 2010_05 [१ १. ओं अग्निदेवता वातो देवता सूर्य्यो देवता चन्द्रमा देवता । वसवो देवता बित्या देवता महतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पति देवता इन्द्रो देवता वरुणो देवता । २. ओं द्योः शान्तिरन्तरिक्ष थं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेषि । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ऋग्वेद और अवेस्तों की भाषा का साहश्य ऋग्वेव जिस भाषा में लिखा गया, वह आर्यों की बोलियों का एक परिनिष्ठित साहित्यिक रूप था। भाषा की दृष्टि से ऋग्वेद और अवेस्ता का काफी सादृश्य है, जो तुलनात्मक रूप में उपस्थित किये गये अग्रांकित शब्दों से स्पष्ट हैवैदिक संस्कृत मवेस्ता (ईरानी) वैदिक संस्कृत रानी अवेसा अन्य अनु असि अनु अहि मस्ति असुर अहर भस्थि आपः भप ओजस् ओजः कफम् शधात यतूम् कफम् खतुश् जानू ददामि गाथा जानुः क्षत्रात गाथा जंधा दहति धारयत् जंगा दज़हति दरेगम् ददामि दीर्घम् नभस् भरति दारयत पुश्र बवइति भवति भूमि नवह বহুবি बूमि यज़ बहिश्त ब्राता भ्राता रिणक्ति यज पसिष्ट हरिनस्ति चिस्प विश्व सखा सप्त ससाह हफता सिन्ध हिन्दु डा० बटकृष्ण घोष द्वारा अवेस्ती और संस्कृत का नेकट्य प्रकट करने की दृष्टि से किया गया अवेस्ता की यस्ना १०८ का संस्कृत रूपान्तर यहां और उद्धत किया जा रहा है : अवेस्ता : यो यथा पुटरम् उनम् होभम् बन्दएँ ता मश्यो। . संस्कृत : यो यथा पुत्रं तरुणंसोमं वन्देत मत्यः । अवेस्ता : फा आर्ध्या तनुब्र्या होमो बीसइते बए शजाइ । संस्कृत : प्र आम्मस्तनूभ्यः सोमो विशते भेषजाय । सूक्षमता से देखने पर यह स्पष्ट आभास होगा कि दोनों भाषाओं में ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से बहुत कुछ समानता है। 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह भारोपीय को मूल ध्वनियां भाषा परिवर्तनशील है। परिवर्तन का ही दूसरा नाम विकास है। भारोपीय की मूल ध्वनियां पेदिक संस्कृत तक आते - आते कितनी परिवर्तित हो गयी थीं, इसे स्पष्ट करने के लिए दोनों फा तुलनात्मक विवेचन आवश्यक है। विद्वानों ने मूल भारोपीय भाषा की ध्वनियों को निम्नांकित रूप में अनुमानित किया है : कवर्ग-(१) क, ख, ग, घ, (२) क., ख., ग., घ. (३) क्व् , ख्व, ग्व् , . __ भारोपीय में कवर्ग तोन प्रकार से था। प्रथम कवर्ग को कुछ विद्वान् सामान्य कवर्ग मानते हैं। पर, कुछ विद्वान् इसे तालु की गौण सहायता से उच्चरित किया जाने वाला मानते हैं। तदनुसार इसका क्य, ख्य, ग्य और ध्य के रूप में उच्चारण होता था। डा. चटर्जी का मत इस सम्बन्ध में भिन्न है। वे इसे तालव्य नहीं मानते, पुरः कण्ठ्य (Advanced Velar) मानते हैं। दूसरा कवर्ग अरबी के क., ख. आदि के समान कहा जा सकता है। यूरोपीय विद्वान् कण्ठ्य (velaa) कहते हैं, परन्तु डा० चटर्जी की मान्यता के अनुसार यह पश्चकण्ट्य ( Back Velar ) अथवा अलिजिह वोय ( Uvular ) है। तीसरे प्रकार के कवर्ग के उच्चारण में ओष्ठ की भी गौण सहायता ली जाती थी। इसके उच्चारण में कवर्ग की वास्तविक ध्वनि मुख्य थी ओर व ध्वनि बहुत ही अल्प और गौण थी। डा० चटर्जी प्रभृति कतिपय भाषा - वैज्ञानिक उक्त तीन प्रकार के कवर्गों के क् , ख, ग, घ, वर्गों के साथ तीन प्रकार के ङ, की भी कल्पना करते हैं, परन्तु, बहुत से विद्वानों की मान्यता है कि 'न्' ध्वनि हो इन भिन्न-भिन्न कवर्गों के साथ इनके अनुसार रूप धारण कर लेती थी। तवर्ग-त्, थ्, द, धू पवर्ग-प, फ, ब, भू ऊष्म-स् ऊष्म स् यदि दो स्वरों के बीच आता तो उसका उच्चारण सघोष -ज़ होता । अन्तःस्थ व्यंजन : यू , , ल , व् , न, म , अन्तःस्थ स्वर : इ, ऋ, ल, उ, न, म १. वाह्यप्रयत्नस्त्वेकादशधा। विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽघोषोऽल्पप्राणो महा प्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति। खरोः विवाराः श्वासा अधोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमा यणश्चाल्पप्राणाः। वर्गाणां द्वितीय-चतुर्थों शलश्च महाप्राणाः। -अष्टाध्यायी, सूत्र ११११९ की वृत्ति 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटक : एक मनुशीलन स्वर ( मूल हस्व ): अ, ऐ, ओ स्वर (मूल दीर्घ ) : आ, ए, औ स्वर (मिश्र हस्त) : अइ, अऋ, मल, बउ, अनु, अमृ ऍइ, ऍऋ, ऍल, ऍउ, ऍन, ऍम ओइ, ओऋ, बोल, ओउ, औनु, बोम स्वर (मिश्र दीर्घ) : आइ, आऋ, आल. आउ, आनु, आम एइ, एऋ, एल. एउ, एन , एम. ओइ, ओऋ, ओल, ओउ, ओनु, ओम अनुनासिक ध्वनियां व्यंजनों के रूप में म् और न् ; ये दो थीं। विद्वानों का अनुमान है कि तीन प्रकार के कवर्गों में प्रथम श्रेणी के कवर्ग - वर्गों के पूर्व न् का उच्चारण ञ् और बाकी के दो श्रेणियों के कवर्ग-वर्गों के पूर्व न् का उच्चारण सम्भवतः ङ, रहा होगा। शब्दों में विशेष स्थान पर आने की स्थिति में न और म् का स्वर रूप न और म हो जाता था। अन्तःस्थ व्यंजन और अन्तःस्थ स्वर के रूप में अन्तःस्थ के जो दो प्रकार कहे गये हैं, उसका आशय यह है कि य, र, ल, व किसी शब्द में अपनी स्थिति के अनुकूल इ, उ, ऋ, ल के रूप में परिणत हो जाते थे, तब उनकी संज्ञा अन्तःस्थ स्वर हो जाती थी। वास्तव में बादिम भाषा में इ, उ, ऋ, ल. मूल रूप में स्वर नहीं थे, किन्तु, वे स्वर-स्थानिक अन्तःस्थ वर्ण थे। हवनि के सम्बन्ध में भाषा - वैज्ञानिकों के कई मत हैं। कुछ का अभिमत है कि भारोपीय में यह ध्वनि नहीं थी। कुछ विद्वान् हिट्टाइट या हित्ती के आधार पर ऐसा कहते हैं कि इसका एक रूप था। वैसे ह, वर्ण सघोष है, पर, कुछ विद्वान् इसके सघोष और अघोष; दोनों रूपों की कल्पना करते हैं। वैदिक संस्कृत की ध्वनियां : विशेषताएं वैदिक संस्कृत की सम्पूर्ण ध्वनियां निम्नांकित हैं : मूल स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ए, औ संयुक्त स्वर : ऐ, ( अह), औ ( अउ ) कण्ठ य : क, ख, ग, घ, ङ. तालव्य : च, छ., ज, झ, ञ् मूद्धन्य : टू, , ड्, दू, ळ, ळह, ण दन्त्य क. थू, इ, ५., न 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावा और साहित्य ] ओष्ठ्य दन्तोष्ठ य अन्तःस्थ : प्, फ ू, ब् भ् म् घ. य्, र्, लू, व् (2) : शुद्ध अनुनासिक अनुस्वार संघर्षी विश्व भाषा प्रवाह : शू, ष, स, ह, जिह्वामूलीय उपध्मानीय भारोपीय को ध्वनियों के साथ वैदिक संस्कृत की ध्वनियों की तुलना करने पर प्रकट होता है कि आदि स्थान से यहां तक पहुंचने पर ध्वनियों में बहुत परिवर्तन हो गया था । परिवर्तन की कुछ विशेष दिशाएं इस प्रकार है : ★ भारोपीय में जहां कवर्ग की तीन श्रेणियां थीं, वैदिक संस्कृत में केवल एक रह गयी । ★ व्यंजनों में चवर्ग और टवर्ग, जो भारोपीय में नहीं थे, वैदिक संस्कृत में नये रूप में आ गये । 3 ★ भारोपीय में ऊष्म या संघर्षी ध्वनि केवल स् थी, जो वैदिक संस्कृत में शू स्, ह. आदि के रूप में विस्तार पा गयी । [ ८५ वैदिक संस्कृत की ध्वनियों की जो तालिका दी गयी है, उसमें ए और ओ को मूल स्वरों में दिखलाते हुए केवल ऐ और औ को संयुक्त स्वरों के रूप में उपस्थित किया गया है। यहां कुछ ज्ञातव्य है । संस्कृत - व्याकरण में ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त स्वर माना जाता रहा है; अतः ये दीर्घ स्वरों में गिने जाते रहे हैं। इनका उच्चारण - ए = अइ, ओ = अउ, ऐ = आइ, भौ | = आउ माना जाता रहा है । परन्तु अब भाषा-शास्त्र के बहुश्रुत विद्वान् यह स्वीकार नहीं करते । जैसा कि भारोपीय में है, उनका कहना है कि ए और ओ मूल स्वर हैं । I ह्रस्व और दीर्घ दोनों रूपों में प्रयोग होता था । उच्चारण क्रमशः अइ और अउ था । १. क २. ख इति कखाभ्यां प्रागधं विसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः । इति पफाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृश उपध्मानीयः । --अष्टाध्यायी, १/१०९, वृत्ति ३. एवामपि द्वादश तेवां इस्वाभावात्, अष्टाध्यायी, १२१८ वृत्ति 2010_05 बू, मूर्द्धन्य व्यंजन : एक अनुपम विशेषता वैदिक संस्कृत की एक बहुत बड़ी विशेषता है । वहां व्यंजनों में मूद्ध न्य ध्वनियों के वर्ग का अस्तित्व है । भारोपीय परिवार की अन्य किसी भी भाषा में यह वर्ग ( ट वगं--, ठ ू, ड ू, ड ू) नहीं पाया जाता । इनका संयुक्त स्वर केवल ऐ और औ हैं, जिनका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ वैदिक संस्कृत में यह मूद्ध न्य व्यंजनों का वर्ग किस प्रकार आया, इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मन्तव्य है कि द्रविड़ परिवार की भाषाओं में ये ध्वनियां विद्यमान थीं । आर्यों के भारत में बसने से पूर्व द्रविड़ जाति के लोग यहां आबाद थे, इतिहास के विद्वान् ऐसा मानते हैं । नवागन्तुक आर्यों का प्राचीनवासी द्रविड़ों से सामीप्य बढ़ता गया । फलतः दोनों की भाषाओं में भी परस्पर आदान-प्रदान हुआ। दोनों ओर से कुछ शब्द एक दूसरी भाषा में गये, ध्वनियों पर भी प्रभाव पड़ा । उदाहरणार्थ, संस्कृत में प्रयुक्त मीन और नीर आदि शब्द द्रविड़ परिवार से आये हुए हैं; ऐसा माना जाता है । द्रविड़ भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द आत्मसात् किये । उसी आदान-प्रदान के क्रम के बीच, सम्भव है, मूद्ध न्य व्यंजन ध्वनियां द्रविड़ परिवार से वैदिक संस्कृत में आ गयी हों 1 मूर्द्धन्य व्यंजनों में जो छू और छह दो आये हैं, उनका तात्पर्य यह है कि ळू अल्पप्राण है और ळूह ळका महाप्राण रूप है | अन्तःस्थ व् और दन्तोष्ठ्य व ; ये दो भिन्न ध्वनियां हैं । अंग्रेजी में जो V ध्वनि है, दन्तोष्ठ्य उसके समकक्ष है । यह फू का घोष रूप है । वैदिक संस्कृत में दन्तोष्ठ य व का भी प्रयोग होता था । - ह और ह. - जो दो रूप आये हैं, उनमें पहला तो सामान्य है है हो, दूसरा ह. विसर्ग ( : ) स्थानीय है । सामान्य ह घोष है । यह ( है ) उसका अघोष रूप है 1 जिह्वामूलीय जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का भी वैदिक संस्कृत में प्रयोग रहा है । का उच्चारण ख़ की तरह था और उपध्मानीय का फ की तरह 1 वैदिक संस्कृत की ध्वनियों का यह संक्षिप्त वर्णन है । भारतीय आर्य भाषा-परिवार की भाषाओं के ध्वनि-समुदाय का ये ही मूल आधार है । १. ऋटुरषाणां भूर्द्धा । - अष्टाध्यायी, ११११९ वृत्ति २. वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमा पणश्चाल्पप्राणाः । ३. दर्गाणां द्वितीयचतुर्थौ शलश्च महाप्राणा।। -अष्टाध्यायी, ११११९ वृत्ति 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं (The Anciant Indian Arya-Languages ) ____ 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय आर्य भाषाओं का काल-क्रम आर्यों के भारत-आगमन के पश्चात् यहां आर्य-भाषाओं का जो विकास हुआ, उसे काल की अपेक्षा से भाषा-वैज्ञानिक तीन भागों में विभक्त करते हैं : १. प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा-काल ( ई० पू० १५०० से ई० पू० ५०० तक) २. मध्यकालीय भारतीय आर्य-भाषा-काल ( ५०० ई० से १००० ई० तक ) ३. आधुनिक भारतीय आर्य-भाषा-काल ( १००० ई० से बीसवीं शताब्दी तक ) यह काल-क्रम सौ-दो सौ वर्षों के पूर्वापर परिवर्तन के साथ प्रायः अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकृत है। भाषा-वैज्ञानिक प्राचीन भारतीय आय-भाषा-काल में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत की गणना करते हैं। वैदिक संस्कृत के लिए 'छन्दस्' शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। पाणिनि ने आज की लौकिक संस्कृत के लिए 'भाषा' शब्द का व्यवहार किया है। साधारणतया अब संस्कृत शब्द वैदिक तथा लौकिक; दोनों के लिए प्रयोग में आता है। कतिपय भाषाविज्ञान-वेत्ताओं का अभिमत है कि ई० पू० २००० वर्ष इस भाषा का समय है । प्रो० मैक्स मूलर का मत इससे भिन्न है। वे इस काल को अधिक आगे ले आते हैं। सब वेदों में इस भाषा का प्रयोग हुआ है। यद्यपि उसका सर्वथा एक रूप तो नहीं है, पर, मौलिक भेद भी नहीं है । शाब्दिक कलेवर तथा प्रयोग आदि में यत्र-तत्र कुछ भिन्नता है। काल-प्रवाह के साथ वैदिक भाषा शनैः - शनैः परिमार्जित होती गयी। इस परिमार्जन या परिष्कार-काल के अन्तर्वर्ती भाषा के समस्त रूप-रूपान्तर तो नहीं मिलते, पर, उससे परवर्ती काल में छन्दस् का क्रमशः ब्राह्मणों, आरण्यकों, , उपनिषदों और यास्क के निरुक्त की भाषा के रूप में जो परिष्कार या विकास हुआ, वह प्राप्त है। इनकी भाषा एक प्रकार से वैदिक भाषा की परम्परा में आती है, पर, वास्तव में वह वैदिक और लौकिक संस्कृत का मध्यवर्ती रूप है। वैदिक भाषा का संस्कार या सम्मान कर उसे व्याकरण द्वारा नियन्त्रित और व्यवस्थित रूप देने वाले महान् पयाकरण पाणिनि हैं। तदनन्तर भारतवर्ष में इस परम्परा के अन्तर्गत विधामा में साहित्य रचा गया है, वह लौकिक संसत की श्रेणी में भाता है। 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : २ वैदिक वाङमय भारत की आर्य-परिवारीय भाषाओं के उपलब्ध साहित्य में वेद सर्वाधिक प्राचीन माने गये हैं। 'वेद' शब्द विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान है। वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार सायण ने तैत्तिरीय संहिता में वेद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है : इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः अर्थात् जो इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट निवृत्ति का अलौकिक उपाय ज्ञापित करता है, वह ग्रन्थ वेद है। वे संख्या में चार हैं। उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है-कर्म-काण्ड और ज्ञान-काण्ड । कर्म-काण्ड में संहिता-भाग, ब्राह्मण-ग्रन्थों और आरण्यक-ग्रन्थों का समावेश है तथा ज्ञान-काण्ड में उपनिषदों का । इनका विशेष विश्लेषण आगे किया जाएगा। बग्वेद वैदिक वाङमय में प्राचीनता की दृष्टि से ऋग्वेद का पहला स्थान है। इसकी भाषा, रचना, शेली आदि से यह प्रकट है। इसमें जो भाषा व्यवहृत हुई है, वह भारोपीय भाषापरिवार के उपलब्ध साहित्य में सबसे अधिक पुरातन भाषा का उदाहरण है। इसकी रचना पद्यों से हुई है, जिन्हें मन्त्र, ऋक् या ऋचा कहा जाता है। वहां गायत्री, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें अधिकांश चार चरणों के छन्द हैं, कुछ तीन चरणों के भी। अनेक मन्त्र प्रार्थनापरक हैं। उनके अतिरिक्त यज्ञ और दार्शनिक भाव से सम्बद्ध मन्त्र भी हैं। ऋग्वेद दश भागों में विभक्त है । वे 'मण्डल' कहे जाते हैं। विभाजन का एक और क्रम भी है, जो आठ भागों में सन्निहित है। इसके प्रत्येक भाग की 'अष्टक' संज्ञा है। अधिक प्रचलन इसी का है। बताया जाता है कि प्रारम्भ में ऋग्वेद की पांच शाखाए थीं-१-शाकल, २-वाकल, ३-आश्वलायन, ४-शांख्यायन तथा ५-माण्डूकेय। इस समय केवल शाकल शाखा ही प्राप्त है। पाश्चात्य विद्वानों का अभिमत है कि समग्र ऋग्वेद की रचना किसी एक ही स्थान पस नहीं हुई। उनके अनुसार ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक का भाग पंचनद प्रदेश में रचा गया। अवशिष्ट भाग अर्थात् प्रथम, अष्टम, नवम तथा दशम मण्डल उनके पूर्व की ओर आगे बढ़ जाने के बाद बने। इसका यह कारण बताया जाता है कि प्रथम बार में बने भाग में गंगा नदी, शेस और चावल का उल्लेख नहीं है, क्योंकि पंचनद में इनका अस्तित्व नहीं था। तत्पश्चात् बने भाग में इनका उल्लेख है; क्योंकि पूर्व में ये सब थे। यजुर्वेद यजुर्वेद में कुछ ऋग्वेद के मन्त्र हैं और कुछ दूसरे । मार्यों द्वारा किये जाने वाले विभिन्न ____ 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [६१ यज्ञ, उनका महत्व, वाजपेय, राजसूय, अश्वमेघ प्रभृति भिन्न-भिन्न यज्ञों में वेद-मन्त्रों का यथास्थान पाठ आदि विषयों का इस वेद में विस्तृत एवं व्यवस्थित विवेचन है। यह गद्यपद्यात्मक है। विशेषतः इसका व्याख्या-भाग गद्यात्मक है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद के नाम से दो शाखाए हैं। यद्यपि महाभाष्यकार पतंजलि ने इसकी एक सौ एक शाखाओं की चर्चा की है, पर, वे प्रायशः अप्राप्त हैं। शुक्ल यजुर्वेद-वैदिक परम्परा में ऐसी मान्यता है कि सूर्य ने इसे प्रकट किया था । सूर्य ज्योतिर्मय, उज्ज्वल या शुक्ल है; अतः शुक्ल यजुर्वेद नामकरण हो गया। एक कारण और भी बताया जाता है इसमें मन्त्र क्रम-बद्ध तथा स्पष्ट रूप में आकलित हैं । व्यवस्थापन की स्पष्टता या स्वच्छता होने से यह शुक्ल यजुर्वेद कहा गया। इसमें वे मन्त्र समाविष्ट हैं, जिनका वैदिक यज्ञों के सन्दर्भ में उच्चारण किया जाना अपेक्षित है। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाए-काण्व और माध्यन्दिन प्राप्त हैं। ___ कृष्ण यजुर्वेद-शुक्ल यजुर्वेद में मन्त्रों की अवस्थिति में क्रम-बद्धता व स्पष्टता है; वहां कृष्ण यजुर्वेद इसके प्रतिरूप है। वहां मन्त्र यथावत् क्रम के साथ नहीं दिये गये हैं। स्यात् इसी अस्पष्टता या अस्वच्छता के कारण उसका नाम कृष्ण यजुर्वेद पड़ गया हो । शुक्ल यजुर्वेद से एक अन्य अन्तर भी है। शुक्ल यजुर्वेद की तरह भिन्न-भिन्न यज्ञों के सन्दर्भ में उच्चारणीय मन्त्र को इसमें हैं ही, साथ-ही-साथ यज्ञों के सम्बन्ध में विचार-चर्चा भी है। यह इसका वैशिष्ट्य है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाए हैं—काठक-संहिता, कापिष्ठलकठ संहिता, मैत्रायणी संहिता, तैत्तिरीय संहिता। वेद-भाष्यकार महीधर ने यजुर्वेद-भाष्य की भूमिका में इस प्रसंग में बड़ी रोचक व अद्भुत कथा लिखी है । उसके अनुसार महर्षि व्यास के शिष्य वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि अपने शिष्यों को चारों वेद पढ़ाये। एक दिन कोई ऐसी घटना घटी। पैशम्पायन याज्ञवल्क्य पर बहुत ऋद्ध हुए और बोले-“तूने जो कुछ मुझसे पढ़ा है, उसे छोड़ दे।" याज्ञवल्क्य भी यह सुनकर क्रोधाविष्ट हो गये। उन्होंने जो कुछ पढ़ा था, उसे उगल दिया । गुरु (वैशम्पायन ) की आज्ञा से अन्य शिष्यों ने तित्तिर बन कर उसे खा लिया। यही उद्वान्त (वमन किया हुषा ) -ज्ञान तैत्तिरीय संहिता है। कतिपय भारतीय विद्वानों का विश्वास है कि रावण वेदों का बड़ा विद्वान् था। उसने वेद-भाष्य रचा। उसके साथ मिला हुआ यजुर्वेद का भाग कृष्ण या काला यजुर्वेद कहलाया। सामवेद सामवेद संगीत-प्रधान है। इसमें अधिकांशतः ऋग्वेद के मन्त्र संगृहित हैं। इसमें स्वतन्त्र मन्त्र बहुत कम हैं, केवल पचहत्तर हैं। इसका संकलन यज्ञों में किये जाने वाले ____ 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ साम-गान की दृष्टि से हुआ है; अतः मन्त्रों की पुनरावृति बहुत है। कुल १,८१० मन्त्र हैं । यदि पुनरावृत्त मन्त्रों को निकाल दिया जाए, तो आधे से थोड़े से अधिक ६८५ मन्त्र बच जाते हैं, पूर्वाद्ध में ५८५ और उत्तरार्द्ध में ४००। सामवेद दो भागों में विभक्त है। उसका पूर्वाद्ध आचिंक तथा उत्तराद्ध उत्तराधिक कहा जाता है। आर्चिक शब्द ऋक् या ऋचा से बना है, जिसका अर्थ ऋचाओं का समूह है। उतराचिंक की अपनी एक विशेषता है। उसमें मन्त्रों को बड़े सुन्दर क्रम से रखा गया है। जिन मन्त्रों का किसी एक यज्ञ में उपयोग होता है. उन्हें एक स्थान पर रखा गया है। इससे यज्ञ विशेष में प्रयोज्य मन्त्रों को पृथक-पृथक ढूंढ़ना नहीं पड़ता। पृथक्-पृथक यज्ञों के लिए अपेक्षित मन्त्र पृथक-पृषक स्थानों पर एकत्र प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जिन मन्त्रों का जिस देवता से सम्बन्ध है, वे एकत्र संग्रहीत हैं । जो मन्त्र किसी एक ही छन्द में रचित हैं, उनको एकत्र रखा गया है। इससे मन्त्रों के प्रयोग में विशेष सुविधा होती है। गान-सम्बन्धी महत्वपूर्ण वाङमय इस संहिता के अन्तर्गत समाविष्ट है, जिसमें मन्त्रों के गान का प्रकार, गान के समय इस्व मात्राओं का दीघ अथवा लुप्त के रूप में परिवर्तन, लयात्मकता की दृष्टि से शब्दों की पुनरावृत्ति, स्वर, विश्राम, मूच्छंना आदि संगीतोपयोगी क्रमों के सम्बन्धों में नियम दिये गये हैं। भारतीय संगीत का जो बहुमुखी विकास हुआ, सामवेद उसका मुख्य आधार रहा, विद्वानों की ऐसी मान्यता है। परम्परया ऐसा विश्वास किया जाता है कि कभी सामवेद की हजार शाखाएं विद्यमान थीं। आज उसकी केवल दो शाखाए सम्पूर्ण रूप में तथा एक आंशिक रूप में प्राप्त है। प्रथम 'राणायनीय' है, जो पूरी प्राप्त है। द्वितीय शाखा का नाम 'कौथुम' है, जिसका केवल सातवां अध्याय प्राप्त है। अवशिष्ट अंश नष्ट हो गया है। तृतीय शाखा 'जेमिनीय' के नाम से विश्रुत है, जो सम्पूर्णतया प्राप्त है। अथर्व वेद अथर्व वेद में प्रायः ऐसे मन्त्रों का संग्रह है, जिनका सम्बन्ध शत्रु-नाशन, मारण, उच्चाटन आदि से है। इसमें विपत्ति, पाप, अशुभ एवं दुर्भाग्य से अपने बचाव के लिए रचित अनेक प्रार्थनाए भी हैं। अपने लिए मंगल तथा दूसरों-अपने शत्रुषों के लिए अमंगलजनक १. पं ब्रह्मा वरुणेन्द्रवमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै वंदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ॥ 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं सामग्री इसमें आकलित है। इसी कारण पिण्टरनित्ज ने इसे टोना-टोटका और यन्त्र-मन्त्र करने वाले पुरोहितों की रचना कहा है। अन्य वेदों की तरह उपयुक्त सामग्री के अतिरिक्त इसमें धार्मिक संस्कारों में प्रयुक्त होने वाले कुछ सूक्त तथा देवताओं के अभिनन्दन व प्रशस्ति में रचित प्रार्थनाए भी हैं। अथर्व वेद को अथर्वाङ्गिया, भृग्वाङ्गिरा तथा ब्रह्मवेद भी कहा जाता है । सम्भवतः अंगिरा शब्द का प्रयोग हानि और विनाश करने वाले कार्यों के लिए है। अथर्वा शब्द का अर्थ पुरोहित है, विशेषतः वह पुरोहित, जो मन्त्र आदि के प्रयोग में सिद्ध हो । इस वेद को 'शोनक' और 'पप्पलाद' नामक दो शाखाए हैं, जिनमें विशेषतः प्रथम का ही अधिक प्रचलन है। अमंगल, अशुभ और विनाशपरक विषयों से सम्पृक्त होने के कारण कुछ लोग अथर्व वेव को आसुरी विद्या में गिनते हैं । यही कारण है कि इसे वेदत्रयी में नहीं गिना जाता रहा है। वस्तुतः विशुद्ध वेदों के रूप में ऋक्, यजुष और साम की ही गणना थी। बहुत समय तक यही परम्परा रही। आचार्य पुष्पदन्त रचित सुप्रसिद्ध महिम्नः स्तोत्र के निम्नांकित श्लोक से यह प्रकट है : त्रयी सांस्यं योगः पशुपतिमंतं वैष्णवमिति, प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां, नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इति ॥ पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार यह वेद सबके अन्त में बना, सम्भवतः आर्यों के बंगाल में पहुंचने के पश्चात् । वहाँ जादू-मन्त्र, टोने-टोटके आदि पहले से ही प्रचलित रहे है। बहुत . समय बाद इसे वेदों में परिगणित किया गया । ब्राह्मारा-मान्थ याज्ञिक कर्म-काण्ड का एक विस्तृत विधि-क्रम या पूरा शास्त्र है। वैदिक विद्वानों ने ब्राह्मण-ग्रन्थों में इसका विशद विवेचन किया है । यजमान', पुरोहित, होता , उद्गाता', १. यज्ञ करने वाला गृहस्थ । २. उच्च तथा स्पष्ट स्वरों से मन्त्रों का उच्चारण कर देवताओं को आह्वान करने वाला । ३. संगीत के नियमों के अनुसार सामवेद के मन्त्रों का गान कर देव-स्तुति करने वाला। ____ 2010_05 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अध्वयु'', ब्रह्मा आदि यज्ञ-सम्पादन में भाग लेने वाले विशिष्ट व्यक्तियों के कार्य, विधि, यशवेदी का निर्माण यश-सम्पादकों की अवस्थिति, भिन्न-भिन्न यज्ञों में भिन्न-भिन्न मन्त्रों का विनियोग, यज्ञों और मन्त्रों का सम्बन्ध, मन्त्रों की व्याख्या प्रभृति नियमों का इन ग्रन्थों में बड़ा सूक्ष्म और विस्तृत उल्लेख है। इनमें प्रसंग-क्रम से अनेक आख्यानों का भी समावेश है। आगे चलकर अधिकांशतः ये ही भाख्यान पुराणों के रूप में विकसित हुए हों; ऐसी सम्भावना की जाती है। वेदों के जिन-जिन विषयों से जो-जो ब्राह्मण-ग्रन्थ सम्बद्ध हैं, वे उन-उन वेदों की उनउन शाखाओं के ब्राह्मण कहे जाते हैं। वेद-मन्त्रों के अर्थ निर्धारण में निःसन्देह इन ग्रन्थों को बहुत बड़ी उपयोगिता है। उनकी सहायता से ही वेद-मन्त्रों का हादं यथावत् रूप में समझा जा सकता है। आरण्यक __ आरण्यक भी वेदों के कर्म-काण्डात्मक भाग के अन्तर्गत स्वीकृत हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थों में जहां याज्ञिक विधि-विधानों का विस्तृत, गम्भीर और परम्परानुस्यूत विश्लेषण है, आरण्यकों में अर्थवाद के आधार पर तलस्पर्शी व्याख्या-विवेचना है। वैदिक यज्ञ-विधान के अन्तर्गत करणीय कार्यों के उद्देश्य, लाभ आदि के बहुमुखी विश्लेषण के साथ-साथ आरण्यकों में वेदों के उन स्थलों का उल्लेख है, जिनसे याज्ञिक विधि-भाग में किये गये निर्देशों का तात्पर्य स्पष्ट होता है। ___ कहा जाता है, ब्रह्मचर्य में निमग्न ऋषियों द्वारा वैदिक यज्ञ-याग से सम्बद्ध गम्भीर विषयों पर 'अरण्यों'-धनों में चिन्तन किये जाने के कारण ये अर्थवाद-प्रधान ग्रन्थ आरण्यक शब्द से अभिहित हुए । अथवा अरण्य एव पाठ्यात् आरण्यकमितीर्यते के अनुसार अरण्यों में पढ़ाये जाने के कारण इनकी आरण्यक संज्ञा हुई। सम्भवतः इसी कारण इनका उपयोग विशेषतः वानप्रस्थियों के लिए माना गया है। वानप्रस्थ में अरण्य-वास का विधान है, जहां व्यक्ति लौकिक जीवन से शाश्वत आनन्द की ओर अग्रसर होने को प्रयत्नशील होता है । पर, वह एकाएक गृही जीवन के संस्कारों से छूट सके, यह कम सम्भव होता है। आरण्यक १. अनुच्च स्वर से मन्त्र उच्चारण करते हुए पुरोडास प्रभृति याज्ञिक द्रव्यों को तैयार करने वाला और देवताओं को उद्दिष्ट कर आहुति देने वाला। २. चारों वेदों का पूर्ण ज्ञाता, यज्ञों के विधि-क्रम व नियमोपनियम को सूक्ष्मता से जनने वाला; अतः यज्ञ संलग्न सभी पुरोहितों के कार्यों का निरीक्षण तथा अपेक्षित होने पर परिष्कार करने वाला। 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाए' [ ९५ वानप्रस्थी साधकों को ऐसा मार्ग उपदिष्ट करते हैं, जिससे क्रमशः ब्राह्मो स्थिति की ओर गति कर सकें। ब्राह्मण-ग्रन्थों की तरह आरण्यकों की रचना भी सरल, संक्षिप्त और क्रिया-बहुल है। भिन्न-भिन्न वेदों से सम्बद्ध भिन्न-भिन्न आरण्यक हैं । उपनिषद् उपनिषद् वैदिक वाङमय के शान-काण्ड के अन्तर्गत हैं । यद्यपि वहां वैदिक यज्ञयागादि कर्म-काण्डों का निषेध नहीं है, पर स्वर्गकायोयजेत के अनुसार इनका फल मात्र स्वर्ग-प्राप्ति है। स्वर्ग-फल शाश्वत नहीं है। पुण्य-क्षय के अनन्तर स्वर्ग से पुनः मत्यलोक में आना पड़ता है। आशय यह है कि यज्ञ-यागादि कर्म-काण्ड-परक कार्यों से आवागमन नहीं मिटता, शाश्वत सुख नहीं मिलता। जो स्वर्गिक सुख मिलता है, वह भी भोग-प्रधान है। भोग का अवसान सुख में नहीं है, दुःख में है। आवागमन-जन्म-मरण, भौतिक अनुकूलता, प्रतिकूलता, वैभव, विलास और समृद्धि, इन सबसे परे एक स्थिति है, जिसे उपनिषद् की भाषा में ब्रह्मानन्द कहा जाता है। वह केवल ज्ञान द्वारा साध्य है । ज्ञान के बिना बन्धन से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। उपनिषद्-साहित्य का यही विषय है, जिस पर विभिन्न दृष्टियों से सूक्ष्म चिन्तन और पर्यालोचन किया गया है। उपनिषद् के ज्ञान का कितना अधिक महत्व समझा जाता रहा है, इस सन्दर्भ में छान्दोग्य उपनिषद् का एक प्रसंग हैं : अनेक विद्याओं में निष्णात देवर्षि नारद सनत्कुमार के पास आते हैं और उनसे अभ्यर्थना करते हैं-"मुझे अध्ययन करवाइए, शिक्षा दीजिए।" इस प्रकार कहकर वे शिष्य-भाव से उनके सान्निध्य में उपसन्न होते हैं।" ___ सनत्कुमार ने कहा-"आप जो कुछ जानते हैं, मुझे बतलाए । तदनन्तर मैं आपको आगे कहूंगा, उपदेश करूंगा।" नारद बोले-"भगवन् ! मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद पढ़ा है। इतिहास और पुराण जो पंचम वेद कहे जाते हैं, मैंने पढ़े हैं । व्याकरण, पितृकल्प-श्राद्धकल्प, गणित-शास्त्र, उत्पात-ज्ञान, महाकालादि निधिशास्त्र, तर्क-शास्त्र, नीति-शास्त्र, देष विद्या-निरुक्त, ब्रह्मविद्या-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का शिक्षा शास्त्र, वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण और स्वर-प्रयोग के लिए निर्धारित नियमों के उद्बोधक ग्रन्थ-प्रातिशाख्य, कल्प-कर्मकाण्डविधि, छन्द-शास्त्र, भौतिक विज्ञान, धनुर्वेद, सर्पविद्या, देवजनविद्या-नृत्य, गान, वाद्य और शिल्प आदि विज्ञान भी मैंने पढ़े हैं।" . १. क्षीणे पुण्ये मत्यलोकं विशन्ति । २. ऋते शानान्न मुक्तिः । ____ 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ - "भगवन् ! बह में यह सब जानते हुए भी केवल मन्त्र-वेता-शब्दार्थमात्र का जानने वाला हूं, आत्म-बेत्ता नहीं है। मैंने आप जैसों से सुना है, वात्मषित् शोक को पार कर लेता है। भगवान् ! मैं शोकान्वित हूं। आप मुझं शोक के पार कर दीजिए ।" सनत्कुमार ने कहा-"आप जो कुछ जानते हैं, वह मात्र नाम ही है।' परिचय-सम्भाषण के बाद आत्म-वेत्ता सनत्कुमार नारद को आत्म-ज्ञान ( ब्रह्म-ज्ञान ) का उपदेश करते हैं। वृहदारण्यकोपनिषद् का प्रसंग है । याज्ञवल्क्य प्रश्नजित होना चाहते हैं। उनके दो पत्नियां थीं-मैत्रेयी और कात्यायनी । याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-“मैं गृहस्थ आश्रम से सन्यास आश्रम में जाना चाहता हूं, इसलिए कात्यायनी के साथ तेरा बंटवारा कर दूं।" मैत्रेयी ने कहा-"भगवन् ! यदि यह धन से परिपूर्ण सारी पृथ्वी मेरी हो जाए, वो क्या में उससे अमर हो सकती हूं ?" याज्ञवल्क्य ने कहा-“ऐसा नहीं हो सकता। उससे तुम्हारा जीवन वैसा ही होगा, जैसा दूसरे साधन-सम्पन्न व्यक्तियों का होता है। धन से अमरत्व की आशा नहीं की जा सकती।" मैत्रेयी बोली-"जिसे लेकर मैं अमर नहीं हो सकती, उसका मैं क्या करू ? अमृतत्व का जो साधन आप जानते हैं, वह मुझे बतलाए।" १. ओं अवीहि भगव इति होपससाद सनत्कुमारं नारवस्त ७ हीवाच यद्धत्य तेन नोपसीद ततस्त ऊर्ध्व वक्ष्यामीति स होवाच । ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि पजुर्वेद ७ सामवेदमार्गणं चतुर्थमितिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदं पित्र्य वं राशि दैनं निधि वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्या भूतविद्यानक्षत्रविद्यां सपेदेवजनविद्यामेतद् भगवोऽध्येमि । सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छूत ७ ह येव मे भगवदृशैभ्यस्तरति शोकमात्मविदिति सोऽहं भगवः शोचामि तं मा भगवाञ्छोकस्य पार तारयत्विति त थ होवाच यद्वै किञ्चेतदध्यगीष्ठा नामैवैतत् । -छान्दोग्योपनिषद्, सप्तम अध्याय, प्रथम खण्ड, १-३ २. मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यया अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त तेऽनया कात्यान्यतं करवाणोति । सा होवाच मैत्रेयी । यन्तु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी पित्तन पूर्णा स्यात्कथं तेनाऽ मृता 2010_05 | Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ ९७ मैत्रेयी की तीव्र उत्कण्- पूर्ण जिज्ञासा पर याज्ञवल्क्य उसे आत्म-ज्ञान का उपदेश देते हैं, जो प्रस्तुत उपनिषद् का महत्वपूर्ण भाग है। मुण्डकोपनिषद् का प्रसंग है । "शौनक नामक महागृहस्थ-समृद्ध तथा भरे-पूरे परिवार वाला गृहस्थ अंगिरा के पास आया और उसने उनसे पूछा-किसके जान लिये जाने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है ?" अंगिरा ने कहा-ब्रह्मवेत्ता कहते हैं, दो विद्याए जानने योग्य हैं - एक परा और दूसरी अपरा । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र और ज्योतिष अपया विद्या हैं । परा विद्या वह है, जिससे अक्षर-ब्रह्म का स्वरूप अधिगत होता है ।" उपनिषद् परा विद्या के उद्बोधक हैं। उनमें ब्रह्म, जीव, प्रकृति उनके स्वरूप से सम्बद्ध अनेक विषयों का विशद विवेचन किया गया है। वैदिक परम्परा में तत्त्व-ज्ञान की दृष्टि से उपनिषदों का सर्वाधिक महत्व है। इस परम्परा के अन्तर्गत सभी सम्प्रदायों में उनका समान रूप से आदर किया जाता है। इतना अवश्य है, भिन्न-भिन्न मतानुयायी उनकी व्याख्या में अपने-अपने विचारों की पुट लगा देते हैं। उपनिषदों के तत्त्व-ज्ञान से कतिपय पाश्चात्य विद्वान भी प्रभावित हुए । प्रो० मैक्स मूलर ने इस सम्बन्ध में लिखा है : "उपनिषद् वेदान्त दर्शन के आदि स्रोत हैं। ये ऐसी स्यामिति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जोवितयं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्त नेति । सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्या यदेव भगवान्वेद तदेव मे होति। -वृहदारण्यकोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ ब्राह्मण, १-३ १. शौनको ह वै महाशालोऽडिगरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतोति। तस्मै स होवाच । विद्य वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च । तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथ वेदः शिक्षा करपो याकरणं निश्वतं छदो ज्योतिषमिति । अथ परा पया तवक्षरमधिगम्यते। . -मुण्डकोपनिषद्, प्रथम खण्ड, ३-५ 2010_05 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ रचनाए हैं, जिनमें मुझे मानवीय भावना अपने उच्चतम शिखर पर पहुंची हुई प्रतीत होती है।" 1 शोपेनहर ने लिखा है : “संसार में इस प्रकार का कोई अध्ययन (तत्त्व-चिन्तन ) नहीं है, जो उपनिषदों के समान लाभप्रद तथा उन्नयन की ओर ले जाने वाला हो। वे उच्चतम मानवीय मेघा की उपज हैं । शीघ्र या बिलम्ब से एक दिन ऐसा होना ही है कि यही जनता का धर्म होगा।' वेदों को स्मरण रखने की विशेष परम्परा रही है। चारों वेदों को आद्योपान्त अक्षरशः एवं स्वरशः कण्ठाग्र रखने वाले वेदपाठी ब्राह्मण होते रहे हैं कुछ आज भी मिल सकते है । द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि ब्राह्मणों की जातीय उपाधियां, सम्भव है, कभी वेदों के अभ्यास के कारण ही प्रवृत्त हुई हों । शिष्य गुरु से श्रवण कर वेद को ग्रहण करता था । वेद, जो श्रुति कहे जाते हैं, इसी आशय की ओर संकेत करते हैं। विद्या को गुरु से सुनकर हृद्गत तथा आत्मसात् करने का प्राचीन काल में बहुत बड़ा महत्व रहा है । बल या सत्व-सम्पन्न व्यक्ति किस प्रकार ज्ञानोपासना के क्रम में अग्रसर होता हुआ विज्ञातृत्व तक पहुंचता था, इसका छान्दोग्योपनिषद् में सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां कहा गया है : “.."जब पुरुष बल या सत्व-सम्पन्न होता है, तभी वह उत्थानोन्मुख होता है। उत्थानोन्मुख होता हुआ वह परिचर्याशील होता है। परिचरिता होकर यह उपसदन करता है-गुरु के सान्निध्य में उपस्थित होता है। उपसन्न होकर वह आचार्य का दर्शन करता हैं अर्थात् उनके जीवन का एकाग्र भाव से दृष्टा बनता है । तब श्रोता, उनके कथन का तन्मय भाव से श्रवण करने वाला, बनता है । आचार्य का कथन-प्रतिपादन इस प्रकार उपपन्न है, ऐसा मनन करता है । मनन करने पर वह तथ्य का बौद्धा-ज्ञाता-यह तत्त्व ऐसा ही है, इस प्रकार जानने वाला होता है। ज्ञान की परिणति अनुष्ठान में होती है। वह पैसा आचरण करता है । आपरित जीवन में सहज ही अनुभूत 1. The upanished are the..........Sources of -the vedant philoso phy, a system in which human speculation seems to me have reached its very acme. -कल्याण, वर्ष ७, संख्या ८, 'ब्रह्मविद्या रहस्य' शीर्षक लेख से 2. In the world there is no study.........80 beneficial and so elevan ting as that of upanished.........( They ) are a product of the highest wisdom.........it is destined sooner or later to become the faith of the people. -कल्याण, वर्ष ७, संख्या ८, 'ब्रह्मविद्या रहस्य' शीर्षक लेख से 2010_05 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ ९९ बनता है । अनुभव ही विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान है । इस प्रकार वह पुरुष विज्ञाता की स्थित में पहुंचता है ।" आचार्य के चरणों में बैठकर परिचर्या, दर्शन, श्रवण, मनन तथा बोध के सोपानों से उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते साधक के विज्ञातृ-दशा तक पहुंचने का यह क्रम पुराकाल की ज्ञानोपासना के श्रद्धा, विनय, सेवा, श्रम एवं अनुभूति सम्पृक्त पथ का संसूचक है । वेद-मन्त्रों के पाठ-कम __ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में जरा भी त्रुटि न रह पाए और वेद-मन्त्र युग-युगान्तर तक यथावत् रूप में वेद-पाठियों की स्मृति में बने रहें, इसके लिए पैदिक विद्वानों ने कई प्रकार के उपाय किये। उनमें उनके द्वारा वेदों के पाठ के सम्बन्ध में किया गया क्रमविभाग बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने वेद-पाठ के पांच प्रकार निर्धारित किये : १-संहितापाठ, २-पद-पाठ, ३-क्रम-पाठ, ४-जटा-पाठ, ५-धन-पाठ । संहिता-पाठ-वेद में जो मन्त्र जिस प्रकार स्थित हैं, उनका ज्यों-का-त्यों यथावत् पाठ करना संहिता-पाठ कहा जाता है। पद-पाठ-वेद के किसी मन्त्र को अलग-अलग पदों में विभक्त कर उसका पाठ करना पद-पाठ कहा जाता है। उदाहरणार्थ, एक मन्त्र के प्रतीक के रूप में कखग को लेते हैं। इसका संहिता-पाठ होगा-कखग और पद-पाठ होगा-क, ख, ग । दोनों का भेद स्पष्ट है। संहिता-पाठ में कखग के रूप में मन्त्र के सभी पद एक साथ हैं तथा पद-पाठ में वे पद अलग-अलग हैं । जो पद अलग-अलग किये जाते हैं, उनमें प्रारम्भ तथा अन्त में स्वर-परिवर्तन के भिन्न-भिन्न नियम लागू होते हैं । वेद-पाठी के लिए उन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। तभी पाठ शुद्ध बन पाता है। नियमों का सम्यक्तया अवलम्बन कर किये गये पद-पाठ से पुन: संहिता-पाठ पूर्ण रूपेण शुद्ध बनता है; जैसा वह मन्त्र को पृथक्-पृथक् विभक्त करने से पूर्व था। क्रम-पाठ-पद-पाठ के शब्दों को अर्थात् 'प्रत्येक पद को एक-एक बार लिया जाता था और इस क्रम में पहले पद के शब्द को भी लिया जाता था तथा अगले पद के शब्द को भी। यह क्रम उत्तरोत्तर चलता रहता था। उदाहरणार्थ, किसी मन्त्र के प्रतीक-रूप में कखगघ १. ......." स यदा बलो भवति, अथ उत्थाता भवति। उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति परिचरन् उपसत्ता भवति । उपसीदन् द्रष्टा भवति । श्रोता भवति। मन्ता भवति । बोद्धा भवति । कर्ता भवति। विज्ञाता भवति । -छान्दोग्योपनिषद्, अष्टम खण्ड, १ -छान्यायालय ____ 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ लें। इसका पद-पाठ क, ख, ग, घ- इस प्रकार होगा, जो क्रम-पाठ में कख, सग, गघ के रूप में परिवर्तित होगा। जटा-पाठ-क्रम-पाठ के त्रिविध मेल को मिलाने से जटा-पाठ निष्पन्न होता है अर्थात् जटा-पाठ में पहली बार में प्रथम पद, द्वितीय पद, दूसरी बार में द्वितीय पद, प्रथम पद, तीसरी बार में प्रथम पद, द्वितीय पद, चौथी बार में द्वितीय पद, तृतीय पद, पांचवीं बार में तृतीय पद, द्वितीय पद, छठी बार में द्वितीय पद, तृतीय पद उच्चारित होगा। प्रतीक रूप में कख. खक, कख, गख, खग से इसे समझा जा सकता है। घन-पाठ-जटा-पाठ में दो-दो पदों के तीन मेल बनाये गये। घन-पाठ में इनके स्थान पर दो-दो पदों के दो और तीन-तीन पदों के तीन मेल बना कर मन्त्र-पाठ के पांच रूप तैयार किये जाते हैं। प्रतीक रूप में इसे कख, खक , कखग, गखक, कखग से समझा जा सकता है। संहिता-पाठ को इन पाठ-क्रमों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से चार भागों में बांटा गया था। क्रम इतना व्यवस्थित ओर नियमित था कि भिन्न-भिन्न प्रकार से भिन्न-भिन्न खण्डों में उच्चरित पाठ को पुन: संहिता-पाठ में परिवर्तित करने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती थी। यह विधि-क्रम यद्यपि दुरूह और अभ्यास-साध्य तो था, पर, वेदों के पाठ को सहस्राब्दियों तक सर्वथा शुद्ध, पूर्णतया अपरिवर्तित बनाये रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ । इसी कारण कहा जाता है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जिस भाषा या शब्दावली में वेदों के मन्त्र रचित हुए, उनका ठीक वैसा ही रूप आज भी उपलब्ध है। भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है। उच्चारण स्वर घेदिक मन्त्रों की ध्वनियों को सर्वथा विशुद्ध बनाये रखने के लिए स्वर-विधान वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण प्रसंग है। चंदिकी प्रक्रिया में तीन स्वर माने गये हैं : उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। कण्ठ, तालु आदि उच्चारण-अघयव मुख के भीतर स्थित हैं। इन उच्चारण-अवयवों के ऊपर तथा नीचे के दो-दो भाग या रू.ण्ड है; इसलिए ये सह.ण्ड कहे जाते हैं। अन्तः प्रेरित वायु स्वर-यन्त्र को संस्पृष्ट या संघृष्ट करती हुई जब इन (उच्चारणअधयषों ) पर भाघात करती है, तब वर्ण उत्पन्न होते हैं। जब कोई स्वर इन उच्चारणअषयधों के ऊपर के भाग से उत्पन्न होता है, तब वह अपेक्षाकृत उच्च प्रतीत होता है। उसी का नाम उदात्त है। जब कोई रबर उच्चारण-.धयषों के नीचे के भाग से उचरित होता १. उच्चस्वात्तः ॥ अष्टाध्यायी ११२॥२९॥ ताल्वादिषु समागेषु स्थानछ भागे निम्मानोऽजुदात्तरशः स्यात् । 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य 1 प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १०१ है, तब उसे अनुदात्त। कहा जाता है। जिस स्वर के उच्चारण में उदात्तत्व तथा अनुदात्तत्व; दोनों का मिश्रण हो अर्थात् जो स्वर कण्ठ, तालु आदि उच्चारण-अवयवों के मध्य भाग से उच्चरित हों, वह स्वरित' कहलता है । स्थरों के पृथक्-पृथक् चिन्ह भी माने गये हैं। कतिपय वैदिक पाठ सचिन्ह उपलब्ध होते हैं। इससे उच्चारण में परिपूर्ण शुद्ध बने रहने में बड़ी सहायता प्राप्त होती है। वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर-शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। इतना ही नहीं, स्वरों के विपरीत उच्चारण को दूषित के साथ-साथ अनिष्ट-कारक भी बतलाया गया है। दैत्यराज वृत्र का कथानक स्वर-प्रयोग के पेपरीत्य के दुष्फल पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। दैत्यराज वृत्र ने देवराज इन्द्र के धध को उद्दिष्ट कर यज्ञ किया। आहुतियों के सम्पुट में इन्द्रशत्रवर्धस्व वाक्य रखा गया। इसका अभिप्राय यह था कि इन्द्र का शत्रु ( नाशक ) बढ़े । दैत्य-गुरु शुक्र इस सम्पुट के साथ आहुतियां देते थे। उच्चारण-क्रम में एक त्रुटि बनी। इन्द्रशत्रु पद में तत्पुरुष समास है। नियमतः यहां अन्त्य अक्षर उदात्त होता है। पर, आहुति-दाता ने पूर्वपद में उदात कर दिया। इससे यह समस्त ( इन्द्रशत्रु ) पद तत्पुरुष के स्थान पर बहुव्रीहि हो गया। क्योंकि बहुव्रीहि में पूर्व पद में उदात्त होता है। बहुनीहि होते ही पद का भाशय एकदम परिवर्तित हो गया। बहुव्रीहि होने पर इन्द्रशत्रुः पद की ध्युत्पत्ति इस प्रकार होती है-इन्द्र है शत्रु (नाशक) जिसका, वह इन्द्रशत्रु ।' समास बदलते ही दोनों पदों के अर्थ में सर्वथा विपरीतता हो गयी। तत्पुरुष में इन्द्रशत्रु पद वृत्र के लिये इन्द्र के शातयिता या नाशक रूप में उद्दिष्ट था, बहुव्रीहि हो जाने पर शातयिह-भाव ( नाशकत्व ) इन्द्र के साथ जुड़ गया। परिणामतः वर्धस्व का फल इन्द्र को मिला, वृत्र को नहीं । संग्राम में वृत्र मारा गया, इन्द्र विजयी हुआ, पद्धित हुआ। इसीलिए कहा गया है: १. नीचैरनुदात्तः ॥१२॥३०॥ ताल्गाविषु सभागेषु स्थानेष्वधोभागे निष्पान्नोऽ व् अनुदात्तसंशः स्यात् । २. समाहारः स्वरितः ॥१२॥३१॥ उदात्तानुदात्तत्वे वर्णधर्मों समाहीयेते यत्र सौऽच् स्वरितसंज्ञः स्यात् ॥ ३. इन्द्रस्य शत्रुः-शातयिता ॥ ४. समासस्य ॥६॥१॥२२३॥ अन्त उदात्तः स्यात् । ५. बन्नीहौ प्रकृया पूर्वपदम् ॥६॥२॥१॥ उदात्तस्वरितयोगिपूर्वपदं प्रकृत्या स्यात् । ६. इन्द्रः शत्रुर्यस्य स इन्द्रशत्रुः 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥ ' " यदि मन्त्र स्वर और वर्ण से हीन हो, उसमें स्वर और वर्ण का शुद्ध प्रयोग न हो, मिथ्या या अशुद्ध प्रयोग हो, तो वह अभीप्सित अर्थ को व्यक्त नही कर सकता । मिथ्या प्रयुक्त स्वर वाग्वज्र बन जाता है । वह यजमान का वध कर डालता है स्वर-प्रयोग में हुए अपराध या भूल का परिणाम यजमान वृत्र का मरण था । इन्द्रशत्रुः पद में safनियों के उच्चारण में सर्वथा यथावता और जरा भी इधर से उधर न होने की स्थिति बनाये रखने के लिए वैदिक विद्वान् कितने दृढ़ संकल्प थे, यह इस कथानक से स्पष्ट है । [ खण्ड : वैदिक भाषा के विकास-स्तर ऐसा माना जाता है कि ऋग्वेद पहले और दशवें मण्डल के अतिरिक्त भाषा की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन है । ऋग्वेद और अवेस्ता की की गयी तुलना इन्हीं ( प्रथम व दशम को छोड़कर अन्य मण्डलों ) अंशों से संयोजित करनी चाहिए। ऋग्वेद के प्रथम एवं दशम मण्डल की भाषा परवर्ती प्रतीत होती है । पाश्चात्य विद्वान् प्रो० आन्त्यां मैय्ये आदि का अभिमत है कि वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप आर्यों के पंजाब के आस-पास आने तक के समय का है । इन विद्वानों के मतानुसार वैदिक संस्कृत का दूसरा रूप उस समय का है, जब आर्य मध्य देश तक अग्रसर हो चुके थे। इस बीच वे उन उन भू-भागों में अपने से पहले बसने वाले लोगों के सम्पर्क में आ चुके थे, जिनकी भाषाओं का आर्यों की भाषा पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था । वैदिक संस्कृत के एक तीसरे रूप की और कल्पना की जा सकती है, जो तब विकसित हुआ, जब आर्य मध्य देश से आगे बढ़ते हुए पूर्वीय भू-भाग में पहुंच चुके थे। विद्वानों का अनुमान है कि यह काल सम्भवतः ई० पू० ८००-९०० के समीप रहा होगा । १. पाणिनीय शिक्षा, ५२ 2010_05 लौकिक संस्कृत वेद और लोक; यह शब्द-युगल प्राचीन वाङमय में एक विशेष अर्थ के साथ प्रयुक्त है । जिस कार्य, विधि-विधान, परम्परा, भाषा आदि का सम्बन्ध, अपौरुषेय या ईश्वरीय ज्ञान के प्रतीक वेद के साथ रहा, उनके पीछे वैदिक विशेषण जुड़ा और जो कार्य ऐहिक और Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाए [ १०३ अशाश्वत लोक, संसार या समाज से सम्बद्ध हैं, के साथ लौकिक विशेषण लगा। भाषा के साथ भी ऐसा ही हुआ। एक भाषा थी, जिसके द्वारा समग्र वैदिक विधि-विधान, कार्य-कलाप तथा कर्मकाण्ड चलते थे। छन्दस् या वैदिक भाषा के नाम से अनेक दृष्टियीं से इसका विवेचन-विश्लेषण किया जा चुका है। एक ऐसी भाषा की आवश्यकता अनुभूत हुई, जो रूप-बाहुल्य से मुक्त हो, प्रांजल तथा परिष्कृत हो, सुबोध्य हो, लोक में कार्यकर हो । लोक-प्रयोज्य भाषा तो तब थी ही। उसके शिष्ट, परिमार्जित और संस्कारमय रूप की आवश्यकता पो, जिसकी पूर्ति महान् धयाकरण पाणिनि ने की। वैदिक संस्कृत के जिन तीन रूपों की ऊपर चर्चा की गयी है, ऐसा स्वाभाविक प्रतीत होता है कि इन तीनों रूपों के समकक्ष जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा के भी तीन रूप रहे होंगे। विद्वानों का अभिमत है कि लौकिक संस्कृत बोलचाल की भाषा के जिस रूप पर आधृत है, वह उन तीनों में प्रथम-उत्तर की बोलचाल की भाषा का रूप ही सम्भावित है। लौकिक संस्कृत, सम्भव है, आगे चलकर अन्य दो रूपों से भी प्रभाषित हुई हो। इस सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि लिखते हैं : "शब्दों के प्रयोग का विषय अत्यन्त विशाल है। भिन्न-भिन्न शब्द भिन्न-भिन्न स्थानों में अपना-अपना निश्चित अर्थ लिये हुए दिखाई देते हैं। जैसे, गतिकमक शवति का प्रयोग कम्बोज-देश में ही हिन्दूकुश की घाटियों में ही प्रचलित है । आर्य लोग इसके विकार-इससे बने हुए कृदन्त रूप शव का प्रयोग करते हैं । गत्यर्थ में सौराष्ट्र में हम्मति, प्राच्य तथा मध्य देश में रंहति का प्रचलन है, परन्तु, आर्य गम् का ही प्रयोग करते हैं। प्राच्य देश में काटने के अर्थ में वाति का प्रयोग चलता है, परन्तु, उत्तर के लोगों में कृदन्त नाम-दात्र का प्रयोग ही प्रचलित है।"] ___ महाभाष्यकार ने कम्बोज, प्राच्य, मध्य, सौराष्ट्र और उदीच्य के नाम से भारत के भिन्नभिन्न भू-भागों अथवा वहां के निवासियों की ओर संकेत किया है तथा.आर्यों के नाम से अलग चर्चा की है। उनमें ( भिन्न-भिन्न स्थानों के लोगों में ) एक ही क्रिया या तदर्थ-सम्बद्ध प्रयोगों के विषय में जो अन्तर है, उसकी व्याख्या है। यहां जिज्ञासा होती है, आर्यों को इमसे भिन्न बताकर महाभाष्यकार क्या प्रकट करना चाहते हैं ? उक्त प्रदेशों के लोगों द्वारा किये गये शब्द-प्रयोग के भेद की वे चर्चा करते हैं। यहाँ भेद मात्र शन्द-प्रयोग का है, उन १. एतस्मिंश्चाति महति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते । तद्यथा शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति । विकारमेनमार्या भाषन्ते शव इति । हम्मतिः सुराष्ट्र षु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु, गमिमेव त्वार्याः प्रयुजते । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु । महाभाष्य, प्रथम आहिक, पृ० ३३ ___ 2010_05 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ सबकी भाषा तो एक ही थी, जिनका महाभाष्यकार निरूपण कर रहे हैं। ऐसा लगता है, महाभाष्यकार का मार्यों से उन लोगों का आशय है, जो भाषा के शिष्ट या परिनिष्ठित रूप का प्रयोग करते थे, जो उस समय भाषा का स्तर ( Standerd ) था । सम्भवतः भौगोलिक दृष्टि से वे पश्चिमोत्तर प्रदेश के लोग रहे हों। जातीय दृष्ट्या तो सभी आयं ही थे और आर्य-भाषा ही बोलते थे। धातु आदि के प्रयोग में प्रादेशिक भेद के कारण जो कुछ भिन्नता आ गयी थी, उससे उन-उन प्रदेशों में प्रचलित लोक-भाषाओं का संस्कृत पर प्रभाव पड़ना समर्थित होता है। पाणिनि द्वारा संस्कार और सम्मान प्राप्त कर शिष्ट भाषा के रूप में लौकिक संस्कृत का उद्भव हुआ। आगे चल कर इसे केवल संस्कृत के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। 'संस्कृत नाम पाणिनि के काल से चला अथवा उनसे पूर्व ही प्रवृत्त हो चला था, निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता । भाषा के अर्थ में संस्कृत शब्द का सबसे पहला प्रयोग वाल्मोकी रामायण में प्राप्त होता है । सुन्दर काण्ड का प्रसंग है । हनुमान सीता से वार्तालाप आरम्भ करने से पूर्व सोच रहे हैं कि उन्हें उनसे किस भाषा में बातचीत करनी है। उस प्रसंग में उल्लेख है : अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः । वाचं चौदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम् ॥1 -मेरा शरीर बहुत छोटा है तथा मैं विशेषतः बन्दर हूं। मैं मानवोचित संस्कृत भाषा में बोलूंगा। वाचम् पद के साथ जुड़ा हुआ यहां संस्कृताम् पद व्यक्ति-वाचक संज्ञा है या गुणवाचक विशेषण, यह विचारणीय है। मानुषी संस्कृतां वाचम् का अर्थ मजी हुई लोक-भाषा भी हो सकता है। वस्तुस्थिति क्या है, निश्चय की भाषा में कुछ नहीं कहा जा सकता, पर, शाब्दिक कलेवर की दृष्टि से तो संस्कृत शब्द प्रयुक्त हुआ ही है। अंग्रेजी में लौकिक संस्कृत का अनुवाद Classical Sanskrit किया गया है। लोक और Class शब्द की संगति नहीं प्रतीत होती। सम्भवतः एक विशेष वर्ग-सुशिक्षित ब्राह्मण वर्ग की भाषा या शिष्ट भाषा का आशय ध्यान में रख कर यह अंग्रेजी शब्द दिया गया हो। Classical शब्द के आधार पर कुछ विद्वान् लौकिक संस्कृत के स्थान पर श्रेण्य संस्कृत का प्रयोग भी करने लगे हैं । १. सुग्दर काण्ड, सर्ग ३०, श्लोक १७ 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य । प्राचीन भारतीय आर्य भाषाए [ १०५ वैदिक और लौकिक संस्कृत कुछ भेद-रेखाएं आर्य भाषा के विस्तृत विवेचन के प्रसंग में भारोपीय ध्वनियों के साथ पैदिक संस्कृत की ध्वनियों की तुलना की गयी थी। लोकिक संस्कृत को ध्वनियां घेदिक संस्कृत की ध्वनियों से कुछ ही भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में जो भिन्नता है, उस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विशेष रूप से ज्ञातव्य है : धेदिक संस्कृत में ळ, ळट, जिह्वामूलीय और उपहमानीय ध्वनियां थीं । लौकिक में उनका लोप हो गया। वैदिक संस्कृत का दन्तोष्ठ्य व, जो अंग्रेजी के समान ध्वनि है, लौकिक में लुप्त हो गया। लौकिक संस्कृत में जो 'व' प्रयुक्त है, वह तालव्य है । वैदिक संस्कृत में अनुस्वार शुद्ध अनुनासिक ध्वनि माना गया था। वह स्थर है या व्यंजन, इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत रहे हैं। कुछ विद्वानों ने इसे स्वर तथा कुछ ने व्यंजन माना। लौकिक संस्कृत में इस सम्बन्ध में मान्यता बदल गयी। वहाँ अनुनासिक का उच्चारण अनुनासिक स्थर के समान होने लगा। वैदिक संस्कृत में धातु-रूपों की बहलता थी। लौकिक संस्कृत में वह न रह पाई। उदाहरणार्थ, वैदिक संस्कृत में जहां हम इमसि तथा इमः दोनों पाते हैं, वहां लोकिक में केवल इमः मिलता है । इस प्रकार और भी अनेक उदाहरण हैं । घेदिक संस्कृत में जहां स्मसि और स्मः दोनों रूप मिलते हैं, लौकिक संस्कृत में वहां स्मः ही मिलला है। वैदिक संसास में ईष्टये, ईष्टे, ईशे तथा ईशते; ये चार रूप प्रचलित हैं, वहां लौकिक संस्कृत में केवल ईष्टे का प्रयोग मिलता है। वैदिक संस्कृत में श्रृद्धि, श्रुणुहि तथा शृणोधि; भू धातु के लोट् लकार मध्य पुरुष एकवचन के ये तीन रूप व्यवहृत हैं, जब कि लोकिक संस्कृत में केवल शणु का ही व्यवहार होता है। वैदिक संस्कृत में शेये और शेते; दोनों रूपों का प्रचलन है, पर लोकिक संस्कृति में केवल शेते का प्रयोग होता है। सारांश यह है कि पैदिक संस्कृत में वैकल्पिक रूपों का जो बाहुल्य था, लौकिक संस्कृत में वह मिट गया। धातुओं की तरह प्रातिपदिकों की विभक्तियों के रूपों की घेदिक संस्कृत में बहुलता थी, लोकिक संस्कृत में वह घिलुप्त हो गयी। पेदिक संस्कृत में अकारान्त पुल्लिग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में जस विभक्ति के दो रूप बनते थे-माः, मासः; ब्राह्मणाः, ब्राह्मणासः; देवाः, देवासः । लौकिक संस्कृत में माः, ब्राह्मणाः, देवाः; ये एक-एक रूप ही रह गये । अकारान्त पुल्लिग शन्दों के तृतीया बहुवचन की भिस् विभक्ति के वैदिक संस्कृत में देवेभिः, देवैः, पूर्वेमिः, पूर्वः; इस प्रकार दो. ____ 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ दो रूप बनते थे, जबकि लौकिक संस्कृत में देवैः तथा पूर्वेः ही बच पाये । वैदिक संस्कृत में सप्तमी विभक्ति में अग्नौ और अग्नां आदि दो-दो रूप बनते थे, लौकिक संस्कृत में केवल अग्नौ ही बच पाया । वैदिक संस्कृत में क्रिया के ग्यारह लकार होते थे। यहां सम्भावना तथा आज्ञा के लिए लेट् लकार और था। जैसे, भवाति, पताति, तारिषत; आदि। लौकिक संस्कृत में लेट् लकार नहीं मिलता। वहो दश ही लकार रहे। वैदिक संस्कृत में तुमन् ( Infinitive ) के रूप चलने की परम्पया थी। तुमन् के अर्थ में और भी कई प्रत्ययों का प्रयोग होता था। जैसे, तनै —पातगै, ध्ये-मध्ये, असे-जीवसे इत्यादि । लौकिक संस्कृत में तुमन् से निष्पन्न होने वाला एक ही रूप बचा। जैसे, गन्तुम्, मन्तुम, चलितुम्, अध्येतुम्; आदि । वैदिक संस्कृत में लोट् लकार मध्यम पुरुष बहुषचन में त, तन, थन, तात; ये चार प्रत्यय प्राप्त हैं, जिनसे शिणोत, सुनोतन, यतिष्ठन, कृणुतात जैसे, रूप बनते हैं । लौकिक संस्कृत में केवल त प्रत्यय ही रह गया । जैसे, शिणुत। पैविक संस्कृत में यु प्रत्यय से बने अनेक शब्द प्राप्त होते हैं। जैसे यज्यु, देवयु, वाजयु; आदि । लोकिक संस्कृत में वे प्रायः लुप्त हो गये । दस्यु जैसे एक-दो शब्द ही प्राप्त हैं। वेदिक संस्कृत में आत्मनेपद और परस्मैपद; दोनों गणों में जो धातुए निरूपित हैं, उनमें से कतिपय लौकिक संस्कृत में केवल आत्मनेपद में ही मिलती है। वैदिक संस्कृत में त्वद् सर्वनाम भी प्राप्त है। लौकिक संस्कृत में केवल तद् ही मिलता है। वैदिक संस्कृत में स्तिी के रूप चलते थे। स्वस्तये रूप से यह प्रमाणित है । लौकिक संस्कृत में स्वस्ति को अध्यय! माना गया है। इनके रूप नहीं चलते। पैदिक संस्कृत में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित; तीन प्रकार के स्वर प्राप्त हैं । लौकिक संस्कृत में उनका प्रयोग नहीं होता। वैदिक संस्कृत में संगीतात्मकता है, जैसे कि ग्रीक में है। लौकिक संस्कृत में संगीतात्मकता का अभाव हो गया। धैदिक संस्कृत में य और व के स्थान पर इय और उव का प्रपोग भी देखा जाता है। जैसे, लौकिक संस्कृत के वीर्यम् शब्द के समकक्ष पीरियम् भी है और त्वम् के समकक्ष तुवम् भी। वैदिक संस्कृत का कत्वान प्रत्यय लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गया है। वैदिक संस्कृत में सप्तमी के एकवचन में डि का लोप हो जाता है। जैसे, व्योमन् । लौकिक संस्कृत में व्योममि होता है। पैदिक संस्कृत में उपसर्ग क्रिया से दूर रहते हैं। जैसे; प्र बभ्रवै शिवतिमाय शिवतीचे लौकिक संस्कृत में वे ठीक क्रिया के पूर्व पाये जाते हैं। वैदिक संस्कृत में स्वर के कारण समास में अन्तर हो जाता है। जैसे, यदि आद्योदात्त हो तो बहुवीहि समास होता है और यदि अन्त्योदात्त हो, तो तत्पुरुष । जैसे, इन्द्रशत्र । वंदिक संस्कृत में चौसठ वर्ण प्राप्त होते हैं तथा लोकिक संस्कृत में पचास । १. सदृशं त्रिषु लिंगेषु सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न ध्ये ते तवव्ययम् ॥ - ___ 2010_05 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य } प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १०७ पुराकालीन आय-भाषा के वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृत के रूप में एक नूतन आकारप्रकार लेने के पीछे कई कारण रहे होंगे। उनमें एक कारण यह भी हो सकता है कि वैदिक भाषा मुख्यतः ऋग्वेद की भाषा स्थिर बन गयी थी। उसके समकालीन अन्य आर्य-भाषाए, जो देश-भेद से बोलचाल में प्रयुक्त होती थीं, क्रमशः कालानुसार बदलती गयीं, विकसित होती गयों, अर्थात् विकास, जो किसी भाषा की जीवितता का लक्षण है, विद्यमान रहा। वैदिक भाषा में यह सम्भब नहीं था । फलतः यह जन-सामान्य से दूर होती गयी। ऐसा होते हुए भी राष्ट्र में उसका साहित्यिक महत्व था, इसलिए उसका अध्ययम-अध्यापन अवरुद्ध नहीं हुभा। फिर भी साहित्यिक भाषा के रूप में वेदिक भाषा के एक सरल, संक्षिप्त तथा सुबोध्य रूप की अपेक्षा थी। फलतः लौकिक संस्कृत का अभ्युदय हुआ। घेदिक और लोकिक संस्कृत के जो भेदमूलक तथ्य उपस्थित किये गये हैं, उनसे स्पष्ट है कि लौकिक संस्कृत वैदिक संस्कृत का सरलीकृत रूप है। वैदिक संस्कृत में जहां रूपों की बहुलता और वैकल्पिकता की प्रचुरता थी, लोकिक संस्कृत में उनका लोप या संक्षिप्तीकरण हुमा । वैदिक भाषा से सम्बन्ध जन-समुदाय के वंशजों ने इस नूतन भाषा को अपना लिया। यह उन आर्यों की साहित्यिक भाषा बन गयी, जो भारतवर्ष में दूर-दूर तक फैले हुए थे। ___ उत्तर की या उत्तर-पश्चिम की जन-भाषा सम्भवतः लौकिक संस्कृत का मुख्य मापार रहो हो । फलतः भाषा की शुद्धि, स्तर आदि की दृष्टि से उत्तर का वैशिष्ट्य माना जाता है। कहा गया है-उत्तर दिशा का भाषा-प्रयोग अधिक वेदुष्य-पूर्ण है । भाषा या वाणी की शिक्षा लेने के लिए लोग उत्तर को जाते हैं। अथवा जो विद्वान उत्तर से आते हैं, विद्योत्सुक जन उनसे पाणी के सम्बन्ध में श्रवण करते हैं। उत्तर के लोगों द्वारा पाणी के शुद्ध प्रयोग करने की जो चर्चा की गयी है; यह सम्राट अशोक के उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों से भी प्रकट होती है। एक समय था, काश्मीय संस्कृत विद्या के सर्वप्रधान केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित था। संस्कृत-वाङमय के अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थों का वहाँ प्रणयन हुआ । उपर्युक्त निरूपण इससे समर्थित होता है। मध्यवर्ता रूप वैदिक और लौकिक संस्कृत की भेद-रेखाओं का जो विवरण उपस्थित किया गया है, उस प्रकार की भिन्नता दोनों भाषाओं के मध्य एक ही बार में नहीं हो पाई थी। क्रमशः वंसा होता गया, जिसकी परिणति लौकिक संस्कृत के व्याकर नियन्त्रित, परिनिष्ठित रूप में हुई । इस परिवर्तन-क्रम के तीन स्तर माने जा सकते हैं। भारतीय माय-भाषा पा 2010_05 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] आगम और त्रिपिटक अनुशीलन [ खण्ड : २ वेदिक संस्कृत का पहला रूप ऋग्वेद व तत्समकक्ष पुरातन वाङमय में प्राप्त होता है। वहां रूप- बहुलता, विकल्प प्रचुरता जैसी प्रायः सभी बातें मिलती हैं । ब्राह्मण-ग्रन्थों में इस भाषा का दूसरा रूप प्राप्त होता है। ॠग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है । ब्राह्मण-ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि दुरूह अर्थं वाले शब्दों के प्रयोग से बचने का वहां प्रयत्न है । धातुओं के गणात्मक विभाजन में जहां भाषा के प्रथम रूप में व्यवस्था नहीं दीखती, यहां गण - विभाजन व्यवस्थित प्रतीत होता है । : से भाषा के प्रथम रूप व द्वितीय रूप के बीच मुख्यतः जिन पहलुओं में परिवर्तन हुआ, उनमें कुछ इस प्रकार हैं : प्रथम स्तर की भाषा में अकारान्त पुलिंग प्रथमा बहुवचन में देवाः और देवासः जैसे दो रूप व्यवहृत थे, ब्राह्मणों में केवल देवा: जैसे एक ही प्रकार के रूप रह गये । तृतीया बहुवचन में देवैः और देवेभिः; इन दो प्रकार के रूपों में ब्राह्मणों में केवल वेब: जैसे एक ही प्रकार के रूप व्यवहृत होने लगे । ब्राह्मणों में लेट् लकार का प्रयोग भी प्रायः अप्राप्त है । तुमनर्थक अनेक प्रत्यय, जो भाषा के प्रथम रूप में प्रयुक्त थे । ब्राह्मणों में लुप्त हो गये 1 केवल तुम् ( तुमुन् ) ही बचा रहा। ब्राह्मणों में ळड लकार के रूप तथा अर्थ में पाणिनीय व्याकरण से सर्वथा सादृश्य प्रतीत होता है । ब्राह्मणों की भाषा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत के रूप में परिणत होने के क्रम में से गुजर रही थी, यह उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है। पर, साथ ही साथ यह भी ज्ञातथ्य है कि तब तक शब्दों के प्रयोग, विभक्तियों के अर्थ व व्यवहार तथा कतिपय धातुओं के रूप आदि में ब्राह्मण-ग्रन्थ वैदिक भाषा का अनुसरण करते रहे हैं । ब्राह्मण-ग्रन्थ भारतीय आर्य भाषा का तीसरा रूप यास्क के निरुक्त में प्राप्त होता है । वेद के अन्तर्गत गिने गये हैं । निरुक्त के लिए ऐसा नहीं है । उसकी रचना वैदिकी प्रक्रिया के नियमों के आधार पर नहीं हुई है । वह संस्कृत में रचित है | पर लौकिक संस्कृत का जो भी साहित्य उपलब्ध है, भाषा की दृष्टि से उसमें निरुक्त बहुत प्राचीन है। निरुक्त का सूक्ष्म दृष्टि से परिशीलन करने पर यह अवगत होता है कि उसमें अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है; जो उत्तरकालीन साहित्य में अप्राप्त है । डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री ने इस प्रकार के कतिपय शब्दों का उल्लेख किया है, जो निम्नांकित हैं : उपजन मास पास ) उपेक्षितव्य ( परीक्षितव्य या प्राप्तव्य ) कर्मन् (अभिप्राय ) १. भारत की आये- भाषाएं, पृ० ७३-७४ 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०६ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं यथो (यथा ) उपदेशाय ग्लपयन्तः ( अध्यापन में असमर्थ ) शिशिक्ष राज्येन ( राज्य पर आरुढ़ किया ) बिल्म ( विविधता ) नघण्टुक ( गौण ) अनिर्वाह ( ब्रह्मचर्य ) कुछ पारिभाषिक शब्द, जो उत्तरकालीन साहित्य में नहीं मिलते : faęfe F977 (weak terminations ) उपजन (Prepositions ) उपबन्ध ( भागम ) नामकरण ( संज्ञाओं से आने वाले प्रत्यय ) निरुक्तकार यस्क के समय से संस्कृत के स्वरूप में शैली की दृष्टि से परिवर्तन दिखाई देता है। उसे दो प्रकार की शैलियों के रूप में आंका जा सकता है-क्रिया-प्रधान शैली और नाम-प्रधान शैली। क्रिया-प्रधान शैली नाम ओर क्रिया पाक्य के मुख्य भाग होते हैं। किसी भी व्यक्ति का दिन भर का अस्तित्व क्रियामूलक होता है। हर समय वह किसी-न-किसी प्रकार की क्रिया के सम्पादन में संलग्न रहता है। जब व्यक्ति की क्रियाशीलता अभिव्यक्ति का रूप लेती है, तो वाक्य में स्वतन्त्र और विशिष्टार्थक क्रियाओं का प्रयोग होता है। वहां अर्थ-प्रतिपादन मुख्य होता है; अतः वाक्य छोटे-छोटे होते हैं, सुबोध्य हते हैं, ताकि सीधे रूप में अर्थ निरूपित हो सके । इसे क्रिया-प्रधान शैली कहा जा सकता है। यास्क और पाणिनि के समय संस्कृत-साहित्य में इसी प्रकार की शैली का प्रचलन था। उस समय रचित साहित्य में वाक्य छोटे-छोटे हैं, क्रियापदों की बहुलता है, रचना में सरलता है । नाम-प्रधान शैली ___क्रिया के द्वारा अभिबोधित भाष की व्यंजना को फोर जब अधिक झुकाव होता है, तो वाक्य में क्रिया-पदों का प्रयोग आवश्यक होता है, पर जब तत्कर्तृक व्यक्ति का वैशिष्ट्य मुख्य और क्रिया की प्रगति गौण हो जाती है, तब क्रिया-पदों का पूर्वोक्त प्रकार का प्रयोग अवरुद्ध हो जाता है, कम हो जाता है अथवा क्रियाओं का प्रयोग विशेषणों के रूप में होने लगता है। ____ 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ___ धातु स्वरूप में प्रायः दो तत्त्व सन्निहित रहते हैं-क्रिया और उसके सम्पादन का प्रकार । उदाहरण के लिए दृश् धातु को लें। दृश् प्रेक्षणे। दृपा धातु प्रेक्षण अर्थ में है। प्रेक्षण का आशय ईक्षण–देखना मात्र नहीं है, प्रकृष्टतापूर्वक ईक्षण है। तात्पर्य यह है कि दृश् धातु में देखने रूप क्रिया का अभिप्राय भी सन्निहित है और देखने के प्रकृष्ट प्रकार का विशेष भाशय भी। यदि प्रकृष्ट प्रकार को गौण कर दें, तो क्रिया का विशेष महत्व नहीं रह जाता। करोति, अस्थि, भवति जैसी सामान्य क्रियाए भी वहां काम दे सकती है। साथ-ही-सा यह भी है, ऐसी क्रियाओं की विद्यमानता, अविद्यमानता का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। फलत: वाक्य में क्रियाओं का स्थान सर्वथा गौण हो जाता है अथवा वे आवश्यक न रहने से गौण या अदृष्ट हो जाती हैं। इसे नाम-प्रधान शैली कहा जा सकता है। इसमें धातु को विशेषण तथा सामान्य क्रिया में परिणत करके भी वाक्य बना लिया जाताहै। विभक्तियों का भी विशेषणों के रूप में परिणमन हो जाता है। कुछ उदाहरण ध्यातव्य हैं : क्रिया-प्रधान नाम-प्रधान नरो रथमारूढः तैर्मतम् नरो रथमारुरुक्षत् तेऽमन्यन्त स यन्त्रं चालयति अहं ग्रन्थमपठम् स क्रीडति अहं विवदामि धर्म आचार्यते पुस्तकं पठ्यते स भाषते ते स्तुन्वन्ति शास्त्रस्य वार्ता कुम्भकारेण कृत: घटः रोगेण कृता पीड़ा यन्त्रचालकः सः अहं ग्रन्थं पठितवान् स क्रीडां करोति अहं विवादं करोमि धर्म आचरितो भवति पुस्तकं पठितं भवति स भाषणं करोति ते स्तुतिं कुर्वन्ति शास्त्रसम्बन्धिनी वार्ता कुम्भकारकर्तृकः घटः रोगकर्तृका पीड़ा उत्तरवर्ती संस्कृत-साहित्य में इस शैली का विशेष रूप से प्रचलन हुआ। इसमें समासों का अधिक प्रयोग होने लगा । समग्र वाक्य का विशेषण में संक्षिप्तीकरण किया जाने लगा। संस्कृत के पुराकालीन साहित्य में क्रिया-प्रधान शैली का प्रवर्तन था। वैदिक साहित्य के ब्राह्मण-प्रन्यों में यह शैली दृष्टिगत होती है। यास्क और पाणिनि की चर्चा की ही जा चुकी है। पतंजलि के महाभाष्य में भी क्रिया-प्रधान शैली की मुख्यता है। पर, साथ-ही-साथ 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १११ यह भी ज्ञातव्य है कि तब से नाम प्रधान शैली क्रिया-प्रधान शैली का स्थान लेने लग गयी थी । एक ही बात को विभिन्न प्रकार से यथावत् रूप में व्यक्त कर सकने की संस्कृत की अपनी अनुपम विशेषता तो इससे सिद्ध होती ही है । दर्शन, तर्क और भाष्य-सम्बन्धी ग्रन्थों में क्रिया-प्रधान शैली का विशेष विकास हुआ । इतिहास, पुराण, स्मृति आदि ग्रन्थ नाम प्रधान शैली में लिखे गये । गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन-रचित भाष्य, मीमांसासूत्रों पर जेमिति द्वारा रचित शाबर भाष्य श्रोत सूत्रों के अन्यान्य भाष्यों में नाम प्रधान शैली का व्यवहार हुआ है । वहां रचना में सरलता और सजीवता है । पर, आगे चलकर नव्य न्याय के युग तक पहुंचते-पहुंचते यह शैली बहुत कठिन तथा दुरूह हो गयी । क्रियाओं का प्रयोग बहुत कम हो गया । विभक्तियों में भी प्रायः प्रथमा और पंचमी का ही अधिक प्रयोग होने लगा । जैसे - इयं पृथिवी, गन्धवत्वात, अयमग्निः, धूमवत्वात् इत्यादि । कहने का आशय यह है कि विचाराभिव्यक्ति का माध्यम विशेषण और भाववाचक संज्ञाएं ही रह गयीं । अव्ययों का प्रयोग भी लुप्त जैसा हो गया । संस्कृत के पंडित आज भी विशेषतः नैयायिक विद्वान् शास्त्रार्थ में इसी शैली का उपयोग करते हैं । पाण्डित्य तो इसमें अवश्य ही है, पर, लोकोपयोगिता नहीं है; क्योंकि इसमें भाषा की सहजता के स्थान पर पाण्डित्य प्रदर्शन के निमित्त सर्वथा कृत्रिमता दृष्टिगोचर होती है । संस्कृत का विशाल वाङ्मय वैदिक और लौकिक संस्कृत के बीच के काल की दो महान् रचनाएं हैं— रामायण और महाभारत । ये ऐतिहासिक महाकाव्य कहे जाते हैं । रघुवंश, कुमारसम्भव, शिशुपालबध, किरातार्जुनीय, अभिज्ञान शाकुन्तल, उत्तररामचरित, अनर्धराघव जैसे अनेकानेक महत्वपूर्ण काव्यों और नाटकों के ये ही उपजीव्य रहे हैं । इनकी भाषा लौकिक संस्कृत के काफी सहा है, पर शब्दों के प्राचीन रूप, शैली की सरलता, आत्मनेपद तथा परस्मैपद की विभक्तियों के विशेष भेद के बिना धातुओं के रूपों का स्वतन्त्र प्रयोग आदि अनेक ऐसे पहलू भी हैं, जिनके कारण इनकी भाषा वैदिक संस्कृत के भी निकट है । भाषा की दृष्टि से दोनों को जोड़ने बाली कड़ी के रूप में इन्हें स्वीकार किया जा सकता है। दोनों ग्रन्थ तत्कालीन भारतीय संस्कृति, लोक-जीवन, सामाजिक परम्परामों और नीतियों के सजीव चित्र उपस्थित करते हैं । इतिहास, आख्यान, पुराण जैसे शब्द वैदिक काल से ही चले आ रहे हैं । वैदिक साहित्य में पुरुरवा व उर्वशी तथा शुनः शेष आदि के कथानक प्राप्त हैं, जो मानव की इतिवृत्तात्मक सर्जन की अभिरुचि के सूचक हैं। इतिहास की एक विशेष व्याख्या प्राचीन काल से स्वीकृत है । उसके अनुसार जिसमें 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपदेश अथित हो, जो पूर्व-वृत्तों और कथाओं से युक्त हो, वह इतिहास कहा जाता है। रामायण और महामारत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपवृहयेत् जैसी उक्तियों से प्रकट है कि इतिहास और पुराण, वैदिक ज्ञान का उपवहण ( संबद्धन ) करने वाले माने गये । रामायण-मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन के माध्यम से इस महाकाव्य में आदर्श शासन, कर्तव्य-निष्ठा, न्याय, सदाचार, नीति, सहृदयता, करुणा, त्याग, सेवा, समर्पण, स्नेह तथा आदर्श गृही-जीवन का एक मोहक चित्र उपस्थित किया गया है। इसके रचयिता वाल्मीकि थे। एक व्याध द्वारा आह्वाद एवं क्रिया-रत क्रौंच के मार डाले जाने पर क्रौंची के अन्तर्वेधक विलाप को सुनकर वाल्मीकि का हृदय द्रवित हो उठता है और उनका शोक श्लोक बन जाता है-शोकः श्लोकत्वमागतः । सहसा उनके मुह से शब्द निकल पड़ते हैं: मा निषाद ! प्रतिष्ठास्त्वमगमः शाश्वतीः सभाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधोः काममोहितम् ।' ये शोक-प्रसूत शब्द सहज भाव से अनुष्टुप् छन्द का रूप लिये आते हैं। महाभारत अनेक कषियों की लेखिनी से निःसृत भनेक काव्य-कृतियों का एक पिराट विश्वकोश है, रामायण वैसी रचना नहीं है। यह सारा काव्य प्रायः एक ही मनीषी द्वारा प्रणीत हुआ है। विश्वास किया जाता है कि वैदिक साहित्य के बाद मानव कषि का रचा हुआ यह प्रथम काव्य है। यही कारण है, इसके रचनाकार वाल्मीकि आदि कवि हैं और यह उनका आदि-काव्य । विद्वानों द्वारा किये गये परीक्षण, समीक्षण और पर्यालोचन से यह सिद्ध हुआ है कि निःसन्देह अलंकृत काग्य विधा के ग्रन्थों में यह सबसे पहला ग्रन्थ है। इसमें कवित्व का प्रशस्त प्रस्फुटन हुआ है । शैली की सुकुमारता, सरल एवं प्रचलित शब्दों का प्रयोग, अलंकारों का सहज समावेश, सभी रसों का सम्यक् परिपाक, चरित्र-चित्रण की सूक्ष्मता आदि मौलिक विशेषताए हैं। कहा जाता है कि विश्व के समग्र वाङमय में इस प्रकार के लोकजातीय काव्य-ग्रन्थ कम हैं। रामायण के कलेवर के सम्बन्ध में स्वयं वाल्मीकि ने लिखा है : धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम् । पूर्ववृराकथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते ॥ २. रामायण, वालकाण्ड, २, ४० ३. वही, बालकाण्ड, २, १५ ____ 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं' चतुर्विशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः । तथा सर्गशतान् पंच षट् काण्डानि तथोत्तरम् ॥ 1 - ऋषि ने रामायण में २४ हजार श्लोकों की रचना की तथा उसे पांचसौ सर्गों और छः काण्डों में विभक्त किया । वर्तमान में प्राप्त रामायण में चौबीस हजार से कुछ अधिक श्लोक हैं । सर्गों की संख्या ६४५ है | उससे यह स्पष्ट है कि रामायण की मूल सामग्री कुछ इधर-उधर अवश्य हुई है । कुछ प्रक्षिप्त अंश जुड़े हैं, कुछ सगं लुप्त हो गये हैं, कुछ नये आ गये हैं; अतः प्राप्त रामायण को अक्षरश: वाल्मीकि-रचित तो नहीं माना जा सकता, पर, उसका बहुत अधिक भाग मौलिक है और कुछ ही भाग प्रक्षिप्त या नये रूप में योजित है । निश्चय ही इसके कलेवर में उतना मिश्रण नहीं हुआ है, जितना महाभारत में । शोधपूर्ण छंटनी से सम्भव है, कुछ भाग छंट जाये, पर, अधिकांश भाग यथावत् रह सकता है । प्रो० टालस्वायज़ पाश्चात्य विद्वानों के रामायण के सम्बन्ध में अनेक मत-मतान्तर हैं । बौद्ध ग्रन्थ दशरथ जातक और होमर के इलियड पर आधारित मानते हैं । ॠ वेद में प्राप्त इन्द्र और वृत्र की कथा से इसकी समानता स्थापित करते हैं । होलर का मन्तव्य है कि १३ वीं शती में विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों द्वारा जो दक्षिण विजय किया गया, रामायण उस पर आधारित है । लेसेन ऐसा मानते हैं, आर्यों द्वारा दक्षिण भारत की विजय का जो प्रथम अभियान हुआ, रामायण उसकी पद्यात्मक अभिव्यंजना है। वस्तुतः ये मत एकांगी हैं, अपरिपक्व अध्ययन के द्योतक हैं । भारतीय विद्वानों ने इस विषय में बहुत लिखा है; अतः यहां विशेष ऊहापोह अपेक्षित नहीं है । [ ११३ १. रामायण, १, ४, २, २. महाभारत, आदि पर्व, ६२-२६ ३. यन्न भारते सन्म भारते 2010_05 महाभारत - भारतः पंचमो वेदः कहकर महाभारत को रामायण से भी विशिष्ट स्थान दिया गया। भारत में वैदिक परम्परा में वेद-वाक्य से अधिक प्रामाणिक कोई भी वाक्य नहीं माना जाता । महाभारत को पंचम वेद कहकर भारतीय मानस ने इसे अपनी सर्वोच्च श्रद्धा अर्पित की। महाभारत की स्वयं को अपनी घोषणा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्ध में उसमें जो प्रतिपादित हुआ है, अन्यत्र भी वही प्रकारान्तर से वर्णित हुआ है : यदि - हास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् " जो महाभारत में नहीं है, वह कम-से-कम भारतवर्ष में तो और कहीं नहीं है ।" यह केवल अतिरंजन नहीं माना जाना चाहिए । महाभारत के एक छोटे से अंश गीता का विश्व साहित्य में जो स्थान है, उससे यह अनुमेय 2 बंबर इसे प्रो० जैकोबी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : २ है । व्यासदेव ने आदि पर्व में स्वयं इसे इतिहास के नाम से अभिहित किया है : जयो नामेतिहासोऽ यं श्रोतव्यो विजिगीषुणा । इतिहास के रूप में स्वीकृत रहा होगा । उहिष्ट कर उनका वचन है : कृतं मयेदं उनसे कहा : त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात् काव्यं भविष्यति । ऐसा लगता है, प्राक्तन समय में महाभारत ही व्यासदेव स्वयं इसे काव्य भी कहते हैं । ब्रह्मा को भगवन् ! काव्यं परमपूजितम् । ब्रह्मा ने उत्तर में आलंकारिक परम्परा के अनेकानेक महाकाव्यों के जन्मदाता इस महाभारत को सुप्रसिद्ध 'काव्यशास्त्री आचार्य आनन्दवर्धन ने महाकाव्य के रूप में स्वीकार किया । उन्होंने महाभारत के अन्तःस्पर्शी एवं भाव-विह्वल अंशों को स्थान-स्थान पर उद्धत कर उनकी व्यंजनाओं का विश्लेषण किया और यह स्थापना की कि यद्यपि अन्यान्य रस भी वहां उपस्थित हैं, पर, शान्त रस ही महाभारत का प्रधान रस है । विश्व के इतिहास - साहित्य में गुण और विस्तार; दोनों ही अपेक्षाओं से महाभारत सबसे बड़ा महाकाव्य है | विद्वज्जन व्यास की होमय और दान्ते से तुलना करते हैं, परन्तु होमर के इलियड तथा आडिसी; दोनों को मिलाकर भी देखा जाये, तो महाभारत उनसे कहीं आठ गुना विस्तृत सिद्ध होगा । इसमें अठारह पर्व हैं । शान्तिपर्व सबसे बड़ा है । एक ही पर्व में १४ सहस्र श्लोक हैं। हरिवंश को महाभारत का परिशिष्ट भाग या १६ व पर्व माना जा सकता है । महाभारत में कौरवों तथा पाण्डवों और हरिवंश में कृष्ण तथा यादवों का अनेक दृष्टियों से विस्तृत वर्णन है । हरिवंश को मिलाने पर महाभारत में एक लाख श्लोक होते हैं । महाभारत निःसन्देह बहुत महत्व और भारवत्ता - अतिविशालता लिये हुए है । इसीलिए उसके नाम के विश्लेषण में कहा गया है : महत्वाद् भारवत्वाच्च महाभारतमुच्यते । 2 समग्र महाभारत दार्शनिक विवेचन, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विषयों से सम्बद्ध निगूढ़ तत्वों से ओतप्रोत है । वर्णाश्रम धर्म सम्बन्धी विधि-विधान, कर्तव्य तथा धर्म और मोक्ष तस्व-सम्बन्धी मार्मिक विश्लेषणों से भरा है । शब्दों के प्राचीन रूपों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है । भाषा प्रांजल तथा प्रवाहपूर्ण है । यद्यपि रामायण जैसा यहां efore तो नहीं है, पर शब्दों तथा लोकोक्तियों के बड़े सुन्दर प्रयोग स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं, जो रामायण की छाप के परिचायक हैं। व्यासदेव की शैली के मुख्य गुण हैंओजस्विता और स्पष्टता । उनके पात्रों के चरित्र में ओजस् और स्पष्टता की सहज व्यासि १. महाभारत, आदि पर्व, ६२, २२ २. महाभारत, आदि पर्व, १.३०० 2010_05 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ ११५ परिलक्षित होती है । महाभारत का बहुत बड़ा भाग परिसंवादों का है । व्यास परिसंवाद लिखने में निःसन्देह असाधारण प्रतीत होते हैं । व्यासदेव की एक और अनुपम विशेषता यह है कि वे मानव-चरित्र की विचित्रता का बड़ा सूक्ष्म तथा मार्मिक चित्रण करने में सिद्धहस्त हैं । एक प्रसंग है । अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांचों पुत्रों के मस्तक काट डाले गये । सभी पुत्रों की हत्या की असह्य वेदना और अपरिसीम व्यथा से द्रोपदी चीत्कार कर उठती है । अर्जुन अश्वत्थामा को ढूंढ़ लेता है और उसे पशु की तरह बांध कर घसीटता हुआ द्रौपदी के सामने लाता है । जब अर्जुन अश्वत्थामा का सिर काटने को उद्यत होता है, तो द्रौपदी उसके चरणों में बिछ जाती है और अश्वत्थामा को क्षमा कर देती है । महाभारत में मानवीय संवेदना, भावनाओं की कोमलता, विचारों की उदात्तता के न जाने ऐसे कितने प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़ कर, सुन कर वज्रोपम कठोर हृदय भी द्रवित हो जाता है । धर्मप्राण, शान्तिप्रिय देश के महान् कवि व्यासदेव ने महाभारत के अन्त में अपना मार्मिक सन्देश इन शब्दों में प्रस्तुत किया है : न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । — काम से, भय से, लोभ से और जीवन की कीमत पर भी धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए । गद्यात्मक भाग भी प्राप्त हैं । वे गद्यांश भिन्नवन पर्व और शान्ति पर्व में सात-सात हैं । वर्तमान में उपलब्ध महाभारत में कुछ भिन्न पर्वों में हैं। आदि पर्व में तीन हैं । अनुशासन पर्व में तीन हैं । इस प्रकार कुल संख्या में बीस है । शैली और भाषा आषं है । afaaiशतः विभिन्न महर्षियों द्वारा वर्णित उपाख्यान हैं । उनकी भाषा से स्पष्ट है, ये आर्ष गद्यात्मक अंश प्राचीन हैं; अतः इनके आधार पर पाश्चात्य विद्वानों का मन्तव्य कि महाभारत रामायण से प्राचीन है। पर, एक पहलू विशेष रूप से विचारणीय है । महाभारत में रामायण की घटनाएं अनेक स्थानों पर उल्लिखित या संकेतित हैं । यदि महाभारत रामायण से पहले का होता, तो यह कैसे होता ? यह अनुमान करना असंगत नहीं है कि ये गद्यांश बहुत प्राचीन काल में लिखे गये और बाद में महाभारत में जोड़े गये । विशेष परिशीलन से अनुमित होता है कि महाभारत में बहुत सारा भाग बाद में मिला है | व्यास ने कौरवों और पाण्डवों की कथा के रूप में इस महाकाव्य का प्रणयन किया । उनके द्वारा रखा हुआ नाम जय था । ऐसा लगता है, आदि पर्व के ६५ वें अध्याय से व्यासदेव ने महाभारत का आरम्भ किया । इससे पहले का अंश बाद का प्रतीत होता है । 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ६५ व अध्याय में क्षत्रियों की उत्पत्ति का निरूपण है । आगे चल कर महाभारत में जितना जो मिलाया जाता रहा, उससे यह निकाल पाना बड़ा कठिन हो गया कि वस्तुतः भ्यासदेव की यथार्थ रचना कितनी है और कौन-सी है। कौरवों और पाण्डवों की मृत्यु के पश्चात् व्यास ने इस ग्रन्थ को प्रसृत किया। इसे ग्रन्थ का प्रथम संस्करण कहा जा सकता है। अर्जुन का पौत्र और अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित था। शृगी ऋषि के शाप के कारण सर्प-दंश से उसकी मृत्यु हुई । उसके पुत्र का नाम जनमेजय था। उसने समग्र सो को नष्ट करने के लिए नाग-यज्ञ किया। कहा जाता है, महर्षि व्यास भी इस यज्ञ में उपस्थित हुए थे। जनमेजय ने उनसे प्रार्थना की कि उसके पूर्वजों-पाण्डवों तथा कौरवों के युद्ध का वर्णन कृपा कर सुनाए । व्यासदेव ने स्वयं तो अपना जय महाकाव्य नहीं सुनाया, पर, अपने शिष्य वैशम्पायन को वैसा करने की आज्ञा दी। गुरु के आदेश से वैशम्पायन ने वेसा किया। वैशम्पायन उक्त ग्रन्थ सुनाते जाते थे। जनमेजय बीच-बीच में कुछ जिज्ञासाए एवं प्रश्न करते जाते थे। वैशम्पायन उनका समाधान करते जाते थे। ऐसा प्रतीत होता है, पैशम्पायन जो समाधान देते थे, वे व्यास-रचित महाभारत में नहीं थे । धेशम्पायन अपनी ओर से ऐसा करते थे या किसी दूसरे स्थान से उन्हें वे प्राप्त थे, यह ज्ञात नहीं है। व्यास के मूल भाग के साथ ये समाधानात्मक अंश मिल गये या मिला दिये गये । इस प्रकार महाभारत का एक दूसरा संस्करण तैयार हो गया, जो पहले से विस्तृत था । वैशम्पायन के माध्यम से परिवद्धित इस संस्करण का नाम भारत संहिता पड़ा । आदि पर्व में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : चतुर्विशतिसाहस्री चक्र भारतसंहिताम्, उपाख्यानविना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः । उपाख्यानों को छोड़कर भारत संहिता में २४ सहस्र श्लोक हैं। इससे अनुमान होता है कि व्यास ने जो जय महाकाव्य की रचना की, उसमें २४ सहस्र से कम श्लोक रहे होंगे। परन्तु, 'बहुत कम नहीं हो सकते। वैशम्पायन ने कुछ ही अंश जोड़ा होगा। कुछ ही समय बाद एक और प्रसंग बना। शौनक ऋषि ने नैमिषारण्य में बारह वर्ष तक चलने वाले एक यज्ञ का आयोजन किया। अनेक वेदपाठी विद्वान्, ज्ञानीजन और ऋषिगण उसमें उपस्थित हुए। आगप्त ऋषियों में रोमहर्षण ऋषि के पुत्र सोति ऋषि भी थे। सौति परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा किये गये नाग-यज्ञ में भी सम्मिलित हुए थे और उन्होंने वहां वैशम्पायन द्वारा उपस्थापित महाभारत के पाठ का भी श्रषण किया था। सौति ने महाभारत का वह पाठ वहां सुनाया। साथ-ही-साथ उपाख्यान भी सुनाये। महाभारत की कथा सुनाते समय सौति ने बीच-बीच में जहां अपेक्षित १. महाभारत, आदि पर्व, १,७८ 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आय भाषाए [ ११७ हुमा अथवा जहां जिज्ञासाए की गई, अपने विचार तथा भाव भी व्यक्त किये । इस प्रकार महाभारत का एक तीसरा संस्करण तैयार हो गया, जिसमें हरिवंश भी संयुक्त है। प्रारम्भ में भी सौति ने कुछ नया अंश जोड़ दिया। वह महाभारत की एक प्रकार से प्रस्तावना, प्राक्कथन या विषयानुक्रम कहा जा सकता है। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ का कलेवर एक लाख श्लोकों का हो गया। ग्रन्थ के भाग-विभाजन को भी सौति ने एक नया क्रम दिया। महाभारत मूलतः एक सौ पर्यों में विभक्त था। सौति ने विषयों का सूक्ष्मता से परिशीलन करते हुए इसे अठारह बड़े पर्यों में विभक्त किया। पर्वो को अध्यायों में बांटा। इस प्रकार महाभारत का अति विशाल और भारी कलेवर तैयार हो गया। महत्वाद् भारवत्वाच्च महाभारतमुच्यते यह उक्ति सम्भवत: इस संस्करण की प्रस्तुति होने पर अस्तित्व में आई हो। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि महाभारत को इतना विशाल आकार क्यों दिया गया, जिससे मूल ही पहचान से बाहर हो जाए । मूल का अज्ञात हो जाना लाभ-प्रद नहीं कहा जा सकता। उससे भाषा की एकरूपता भी मिट जाती है । पर, यह सब हुआ। इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। सम्भवतः एक विचार यह रहा होगा कि महाभारत ज्ञानविज्ञान, आचार-शास्त्र तथा नीति-शास्त्र का एक प्रकार का विश्वकोश बन जाए; इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसमें उन सभी विषयों का समावेश किया जाता रहा होगा, जिनसे उक्त लक्ष्य की पूर्ति हो । तभी तो यदिहास्ति तत् सर्वत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् की उक्ति फलित हो सकती थी। एक और कारण भी रहा हो, समय पाकर मूल महाभारत का कुछ अंश नष्ट हो गया हो। उसे पूरा करने के लिए विद्वानों ने अनेक श्लोक, अध्याय आदि जोड़ दिये होंगे। कितना नष्ट हुआ, कितने से उसकी पूर्ति हो, इत्यादि वहां गोण हो गया हो, यह स्वाभाविक था। उस क्रम में अपेक्षित, अनपेक्षित बहुत सारे अश जुड़ गये हों। इसका अच्छा परिणाम तो यह हुआ कि महाभारत को नीति-शास्त्र, कर्तव्य-शास्त्र, आचार-शास्त्र, तत्त्व-ज्ञान, दर्शन, धर्म इत्यादि सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान का विशाल विश्व-कोश बना डालने की योजना की बहुत सीमा तक पूर्ति हुई। पर, भाषा-तत्त्व की दृष्टि से एक अपूरणीय क्षति भी हुई । महाभारत की मूल भाषा इतने विशाल कलेवर में इस प्रकार समा गयी है कि उसे बहुत स्पष्ट रूप में संचीर्ण कर पाना वास्तव में कठिन हो गया है। महाभारत के परिवद्धन में उल्लिखित घटनाओं के अनुसार तीनों संस्करणों के तैयार होने में बीच का व्यवधान बहुत लम्बा नहीं रहा; अत: भाषात्मक स्तर आदि में बहुत बड़ा भेद नहीं सोचा जाना चाहिए, पर, इसके साथ-ही-साथ परिषद्ध'न से सम्बद्ध जो घटनाक्रम व्याख्यात हुए हैं, वहीं तक यह क्रम समाप्त हो जाता, तब तक तो यह समुचित था, पर, ऐसा अनुमान है कि आगे भी वह क्रम चलता रहा, जिससे नवीन सामग्री का मिलना 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ रुका नहीं। विस्तृत विषय-वस्तु का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर यह भी विदित होता है कि श्रमण-संस्कृति के अहिंसा, निर्वेद, धराग्य, तितिक्षा और अध्यात्म जैसे तत्त्व भी इसमें मिश्रित हो गये। संस्कृत-धाङमय में महाभारत का जो महत्व है, वह सदा अक्षुण्ण रहेमा । भाषा-तत्त्व, दर्शन तथा संस्कृति के तुलनात्मक एवं गवेषणात्मक परिशीलन को दृष्टि से उसमें पर्याप्त सामग्री भरी है। रामायण और महाभारत के आधार पर तथा स्वतन्त्र रूप में आगे संस्कृत में जो विशाल साहित्य निर्मित हुआ, विश्व के वाङमय में उसकी अनेक दृष्टियों से अप्रतिम विशेषताएं हैं । रामायण महाभारत काल से मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल तक संस्कृत में विभिन्न विषयों पर उच्च कोटि के साहित्य-ग्रंथ रचे जाते रहने का एक अविश्रान्त स्रोत रहा है। एक सीमा तक, वर्तमान काल पर्यन्त उसकी गति अकुण्ठित अस्तित्व लिये हुए है। स्था संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ? संस्कृत का जन-साधारण के दैनन्दिन व्यवहार में प्रचलन था या नहीं, इस सम्बन्ध में विद्वानों के दो प्रकार के अभिमत हैं। पाश्चात्य विद्वानों में हॉर्नली, जाज ग्रियर्सन तथा वेबर आदि की मान्यता है कि संस्कृत का जन-साधारण द्वारा अपने पारस्परिक व्यवहार या बोलचाल में प्रयोग नहीं होता था। इसके विपरीत डा० सर रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर तथा डा० पी० डी० गुणे आदि ने यह स्वीकार किया है कि संस्कृत कभी बोलचाल की भाषा थी। उन्होंने ऐसा न मानने वाले पाश्चात्य विद्वानों के मत का खण्डन किया है। उनके अनुसार दूर से आह्वान, अभिवादन, परिचय, वार्तालाप आदि से सम्बद्ध कतिपय ऐसे नियम व्याकरण में प्राप्त हैं, जो किसी बोलचाल की भाषा पर ही लागू हो सकते हैं। साहित्य में प्रयुक्त भाषा और बोलचाल में प्रयुक्त भाषा का किंचित् भेद वे अवश्य स्वीकार करते हैं; क्योंकि साहित्यिक भाषा मर्यादानुगत तथा नियमानुबद्ध अधिक होती है और उसी का बोलचाल का रूप अपेक्षाकृत कम नियन्त्रित और कम मर्यादित होता है। फिर भी उनमें परस्पर उतनी भिन्नता नहीं होती कि उन्हें दो कह सके। संस्कृत का जो रूप पाणिनि ने प्रतिष्ठित किया, ठीक उसी रूप में संस्कृत सर्वसाधारण में भाषितं थी, ऐसा तो सम्भव नहीं लगता। उससे सम्बद्ध, सन्निकटस्थ या मिलते-जुलते प्रचलित भाषा के रूप को बोलचाल की संस्कृत मान लिया जाये, तब भले ही ऐसा हो । पर, ऐसा माना नहीं जा सकता। क्योंकि व्याकरण के नियमों से अप्रतिबद्ध और एक सीमा तक स्वच्छन्द भाषा को संस्कृत नहीं कहा जा सकता । ऐसा होने पर उसका संस्कृतत्व या संस्कारवत्ता स्थिर नहीं रह पाती। वास्तव में भाषा का साहित्य-प्रयुक्त रूप ही ऐसा हो सकता है, जो नियमों के नियन्त्रण में रह सके। बोलचाल के रूप में ऐसा रहने की 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाए [ ११६ सम्भावना नहीं बनती । बोलचाल की भाषा सदा विकासोन्मुख होती है। भाषा के विकास को धिकार भी कहा जाता है । उसका अर्थ भी भिन्न रूप लेता है, कुत्सित नहीं। ___संस्कृत के स्वरूप-गठन में यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह शिष्ट भाषा रही है । पह वर्ग जो विशेषत: विद्या-निष्णात था, जब कभी परस्पर मिलता, इसका अवश्य प्रयोग करता रहा होगा। आज भो यदा-कदा ऐसा देखा जाता है, जब पण्डितवृन्द मिलते हैं, तो इसका पारस्परिक वार्तालाप में उपयोग करते हैं । आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी ऐसा निर्देश प्राप्त होता है कि वैद्य जब परस्पर में वार्तालाप करें, तो वे संस्कृत का व्यवहार करें। संस्कृत व्याकरण-परिष्कृत भाषा तो थी, पर, बोलचाल की भाषा से अत्यधिक दूर नहीं थी; अतः ऐसा सम्भव जान पड़ता है कि पुरातन युग में शिष्ट और विद्ववन्द द्वारा प्रयुक्त संस्कृत भाषा को साधारण जनता सामान्यतः समझ तो लेती थी, पर, उसे बोल नहीं सकती थी। उसका सुदृढ़ प्रमाण उत्तरवर्ती काल के संस्कृत नाटकों में प्राप्त होता है । वहां विभिन्न पात्रों द्वारा भाषाओं के प्रयोग की एक विशेष व्यवस्था है। परिव्राजक, ब्राह्मण, राजा, न्यायाधीश, अमात्य, सेनापति आदि उच्च वर्ग के व्यक्तियों द्वारा नाटकों में संस्कृत-भाषा का प्रयोग किया जाता है। स्त्री, शूद्र, किसान, मजदूर, दास, दासी, दुकानदार आदि दूसरी श्रेणी ( साधारण या निम्न वर्ग आज की भाषा में जिसे जन-साधारण या आम जनता कहा जा सकता है ) के व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग करने का विधान है । जब एक भृत्य राजा से वार्तालाप करता है, तो वह राजा द्वारा संस्कृत में कथित बात को सुनकर उसका प्राकृत में उत्तर देता है। यदि वह राजा द्वारा संस्कृत में कथित बात को अच्छी तरह नहीं समझता, तो उसका उतर कैसे दे पाता ? इससे निश्चय ही यह प्रकट होता है कि संस्कृत के काल में जन-साधारण के बोलचाल के उपयोग में जो भाषा आती थी, वह संस्कृत नहीं थी, संस्कृत के बहुत निकट अवश्य थी। ___ संस्कृत के जो नाटक कहलाते हैं, वास्तव में उनमें प्राकृत का भाग कम नहीं, प्रत्युत अधिक है। नाटक में संस्कृत बोलने वाले पात्रों की अपेक्षा प्राकृत बोलने वाले पात्र भी प्रायः अधिक मिलते हैं। उदाहरणार्थ, शूद्रक के मृच्छकटिक में तीस पात्र हैं, जिनमें केवल चार पात्र' संस्कृत बोलते हैं, बाकी के छब्बीस पात्र प्राकृत । कभी-कभी किन्हीं नाटकों में प्राकृत-भाषी पात्र बीच में किसी प्रसंग में थोड़ी-सी संस्कृत बोलते हुए भी दिखला दिये जाते हैं । उदाहरणार्थ, भास के चारुदत्त में नायक चारुदत्त की पत्नी कुलजा होने के कारण संस्कृत बोलती हुई भी दिखलाई गयी है, पर, साधारणतया वह प्राकृत ही बोलती है। नाटकों के इस क्रम से सहज ही यह अनुमान होता है कि सामान्यतया प्राकृतों का लोक १. नायक चाश्वत्त, विट, आर्यक और ब्राह्मणजातीय तस्कर शर्षिलक । 2010_05 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भाषाओं के रूप में प्रचलन था और उच्च कहे जाने वाले व्यक्तियों में संस्कृत का प्रयोग चलता था, पर, कादाचित्क और साथ-ही-साथ प्रयत्नपूर्ण । लोक प्रयुक्त भाषा जीवित होती है। जीवित भाषा में सर्वत्र एकरूपता नहीं होती । स्थान -भेद, जाति-भेद, व्यवसाय-भेद आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे उसका रूप कुछ-कुछ परिवर्तित हो जाता है और वह भी भिन्न-भिन्न प्रकार से । नाट्य शास्त्र के प्रणेता आचार्य भरत ने नाटक में किन-किन पात्रों द्वारा किन-किन प्राकृतों का उपयोग किया जाना चाहिए, इसका विस्तृत ब्यौरा दिया है। प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण के हेतु उसकी चर्चा यहां अपेक्षित है । भरत ने अग्रांकित रूप में प्रस्तुत विषय में सूचन किया है ' पात्र भृत्य ( नौकर ) राजपुत्र सेठ धू हाथी, घोड़े, बकरे, ऊंट आदि के घोष स्थान में बसने वाले लोग - खस, शकाक्ष्य, घोषक तथा। इस प्रकार के अन्य व्यक्ति पुल्कस तकार, नगर-रक्षक, सुभट वनचर राजा के अन्तःपुर में सुरंग खोदने वालों का ध्यान रखने वाला, अश्व-रक्षक, आपद्ग्रस्त नायक विदूषक प्रभृति उदीच्य अङ्गारकार, आखेटक, काष्ठयन्त्रोपजीवी }} १. नाट्य शास्त्र, १७, ५१-५८ नायिका, सखी भाषाओं के ये जो अनेक नाम सूचित आदि पर आवृत प्राकृतों के अनेक रूप हैं। 2010_05 } भाषा अद्धमागधी अवन्तिजा आभीर अथवा शाबरी खस देश की भाषा ( खासी ) चाण्डाली दाक्षिणात्या द्रामडी मागधी प्राच्या चाह्निक शकार भाषा ( शकारी ) अशतः धनौवासी शौरसेनी किये गये हैं, वे स्थान भेद, वर्ग-भेद, व्यवसाय-भेद भाज भी देखा जाता है, एक ही प्रदेश की भाषा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १२१ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, व्यवसायों, जातियों व वर्गों के लोगों द्वारा थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ ब्राह्मण जाति के लोगों के बोलने का कुछ अलग विशेषता रहती है, जबकि व्यापारी समाज लिये रहता है । वही भाषा हरिजन जातियों उनकी अपनी विशेषता तथा औरों से बोली जाती है। एक ही नगर या गांव में लहाजा, थोड़ी-सी भिन्न शब्दावली आदि की का बोलने का प्रकार कुछ अपनी विशेषताए में परस्पर बोली जाती है, तब उसमें भिन्नता रहती है । उपयुक्त विवेचन का अभिप्राय यह है कि नाटकों में लोक-भाषाओं के प्रयोग की जो इतनी विविधता निर्दिष्ट की गयी है, उससे यह सिद्ध होता है कि शिष्टजनों और सामान्य लोगों की भाषा में एक अन्तर था । शिष्टजन संस्कृत का प्रयोग करने में गौरव भी अनुभव करते रहे होंगे, क्योंकि संस्कृत को बहुत समय तक राज्याश्रय भी प्राप्त रहा । वैदिक आम्नाय में आस्था रखने वाले राजाओं ने इसे वेदों और धर्म शास्त्रों की भाषा होने से पवित्र माना । फलतः उसे राज-भाषा का स्थान मिला । ताम्र पत्रों, दान-पत्रों, प्रशस्ति-पत्रों आदि में इसी का प्रयोग चलता रहा। जहां भारतीय राजाओं ने अन्य देशों में अपने उपनिवेश तथा सम्बन्ध प्रतिष्ठापित किये, वहां के लिए भी सम्पर्क भाषा संस्कृत ही रही । वहां की भाषाओं पर भी संस्कृत का कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा। यही कारण है, तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, अफगानिस्तान तथा पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों की भाषा में संस्कृत के शब्द प्राप्त होते हैं । शिष्टजन प्रयोज्य भाषा होने के कारण संस्कृत में साहित्य सर्जन की एक अविच्छिन्न परम्परा चलती रही। इसी का परिणाम है कि संस्कृत की अद्भुत प्रतिभाओं से इस कोटि का साहित्य प्रसूत हुआ, जो विश्व के समृद्धतम साहित्यों में गिना जाता है। संस्कृत ने कालिदास, माघ, भारवि और श्रीहर्ष जैसे कवि उत्पन्न किये, जिनकी विशेषताएं अपने आप में अप्रतिम हैं । 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए ( Middle-Indo-Arayan Languages ) ____ 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा वैज्ञानिकों ने भारतीय आर्यभाषाओं के विकास का जो काल-क्रम निर्धारित किया है, उसके अनुसार प्राकृत का काल ई० पू० ५०० से प्रारम्भ होता है । पर, वस्तुतः यह निर्धारण भाषा के साहित्यिक रूप की अपेक्षा से है । यद्यपि वैदिक भाषा की प्राचीनता में किसी को सन्देह नहीं है, पर, वह अपने समय में जन-साधारण की बोलचाल को भाषा रही हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । वह ऋषियों, विद्वानों तथा पुरोहितों की साहित्य भाषा थी । यह असम्भव नहीं है कि उस समय वैदिक भाषा से सामंजस्य रखनेवाली अनेक बोलियां प्रचलित रही हों । महाभाष्यकार पतंजलि ने प्रादेशिक दृष्टि से एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रयोग के सम्बन्ध में महाभाष्य में जो उल्लेख किया है, सम्भवतः वह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि कुछ प्रदेशों में वैदिक भाषा के कतिपय शब्द उन-उन प्रदेशों की बोलियों के संसर्ग से कुछ भिन्न रूप में अथवा किन्हीं शब्दों के कोई विशेष रूप प्रयोग में आने लगे ये । यह भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता कि इन्हीं बोलियों में से कोई एक बोली रही हो. जिसके पुरावर्ती रूप ने परिमार्जित होकर छन्दस् या वैदिक संस्कृत का साहित्यक स्वरूप प्राप्त कर लिया हो । कतिपय विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि वेदों का रचना - काल आर्यों के दूसरे दल के भारत में प्रविष्ट होने के बाद आता है । दूसरे दल के आर्य पंचनद तथा सरस्वती व दृषद्वती के तटवर्ती प्रदेश में होते हुए मध्यदेश में आये । इस क्रम के बीच वेद का कुछ भाग पंचनद में तथा सरस्वती व दृषद्वती की घाटी में बना और बहुत सा भाग मध्यदेश में प्रणीत हुआ । अथववेद का काफी भाग, जिसके विषय में पूर्व इंगित किया गया है, जो परवर्ती माना जाता है, सम्भवतः पूर्व में बना हो । पहले दल के आर्यों द्वारा, जिन्हें दूसरे दल के आर्यों ने मध्यदेश से खदेड़ दिया था, वेद की तरह किसी भी साहित्य के रचे जाने का उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि मध्यदेश के चारों ओर लोग जिन भाषाओं का बोलचाल में प्रयोग करते थे, उनका कोई भी साहित्य आज उपलब्ध नहीं है । इसलिए उनके प्राचीन रूप की विशेषताओं को नहीं जाना ना सकता, न अनुमान का ही कोई आधार है । वेदिक युग में पश्चिम, उत्तर, मध्यदेश और पूर्व में जन-साधारण के उपयोग में आने वाली इन बोलियों के बंदिक युग से पूर्ववर्ती भी 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कोई रूप रहें होंगे, जिनके विकास के रूप में इनका उद्भव हुआ। वैदिक काल के पूर्व की ओर समवर्ती जन-भाषाओं को सर जाजं नियसन ने प्राथमिक प्राकृतों ( Primary Pras) के नाम से उल्लिखित किया है। इनका समय ई० पू० २००० से ई० पू० ६०. .. माना जाता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्राथमिकता प्राकृतें स्वरों एवं . .नों के उच्चारण, विभक्तियों के प्रयोग आदि में वैदिक भाषा से बहुत समानताए रखती थीं। इन भाषाओं से विकास पाकर उत्तरधर्ती प्राकृतों का जो साहित्यिक रूप अस्तित्व में आया, उससे यह प्रमाणित होता है। __ महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में व्याकरण या शब्दानुशासन के प्रयोजनों की चर्चा की है। दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करने पर बल देते हुए उन्होंने श्लोक उपस्थित किया है : पस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे, शब्दान् यथावद् व्यवहार काले। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।। अर्थात् जो शब्दों के प्रयोग को जानता है, वैसा करने में कुशल है, वह व्यवहार के समय उनका यथोचित प्रयोग करता है, वह परलोक में अनन्त जय-उत्कर्ष-अभ्युदय प्राप्त करता है। जो अपशब्दों का प्रयोग करता है, वह दूषित-दोष-भागी होता है। दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की ओर संकेत करते हुए आगे वे कहते हैं : एक-एक शब्द के अपभ्रश हैं। जैसे, गौ शब्द के गावो, गौणी, गोपोतलिका इत्यादि हैं। अपभ्रंश शब्द का यहां प्रयोग उन भाषाओं के अर्थ में नहीं है, जो पांचवीं शती से लगभग दशवीं शती तक भारत ( पश्चिम, पूर्व, उत्तर और मध्यमण्डल ) में प्रसृत रहीं, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकसित रूप थीं। यहां अपनश का प्रयोग संस्कृतेतर लोकभाषाओं के शब्दों के लिए है, जिन्हें उस काल को प्राकृतें कहा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है, तब लोक-भाषाओं के प्रसार और प्रयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चला हो। उनके शब्द सम्भवतः वैदिक और लौकिक संस्कृत में प्रवेश पाने लग गये हों; अतः भाषा की शुद्धि के पक्षपाती पुरोहित विद्वान् उस पर रोक लगाने के लिए बहुत प्रयत्नशील हुए हों। पतजलि के विवेचन की ध्वनि कुछ इसी प्रकार की प्रतीत होती है। १. महाभाष्य, प्रथम आह निक, पृ० ७ २. एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः। अद्ययागौरित्येतस्य शब्दस्य गावी गोणी गोपोतलिकेत्येवमादयो । पनशाः। -महाभाप्य, प्रथम आह निक, पृ० ८ 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १२७ पतंजलि कुछ आगे और कहते हैं-"सुना जाता है कि "यणिः तर्वाणः" नामक ऋषि थे। वे प्रत्यक्ष धर्मा-धर्म का साक्षात्कार किये हुए थे। पर और अपर-परा और अपरा विद्या के ज्ञाता थे। जो कुछ ज्ञातव्य-जानने योग्य है, उसे वे जान चुके थे। वे वास्तविकता को पहचाने हुए थे। वे आदरास्पद ऋषि "यद् वा न: तद् वा नः"-ऐसा प्रयोग जहां किया जाना चाहिए, यहां "यर्वाणः तर्वाणः" ऐसा प्रयोग करते । परन्तु, याज्ञिक कम में अपभाषण-अशुद्ध शब्दों का उच्चारण नहीं करते थे। असुरों ने याज्ञिक कम में अपभाषण किया था; अतः उनका पराभव हुआ।" पतंजलि के कहने का अभिप्राय यह है कि पेदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभीकभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। इसे तो वे क्षम्य मान लेते हैं, परन्तु, इस पहलू पर जोर देते हैं कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए। वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उनके कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गयी थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुमा प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुंच जाये। वे यहां तक कहते हैं : “याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि आहिताग्नि ( याज्ञिक अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति ) द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये, तो उसे उसके प्रायश्चित-स्वरूप सारस्वती-दृष्टि-सारस्वत ( सरस्वती देवता को उद्दिष्ट कर ) यज्ञ करना चाहिए।" एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं : ........ जिन प्रतिपादकों का विधि-वाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुपूर्वी के शान के लिए उपदेश-संग्रह इष्ट है, ताकि शश के स्थान पर षष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मञ्जक का प्रयोग न होने लगे।"3 १. एवं हि श्रूयते-यणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवुः प्रत्यक्षधर्माणः परावरज्ञा विदित वेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः। ते तत्र भवन्तो यद्धान इति प्रयोक्तव्ये यर्वाणस्तर्वाण इति प्रयुंजते. याज्ञ पुनः कर्मणि नापभाषन्ते। तैः पुनरसुरैर्याने कर्मण्यपभाषितम्, ततस्ते पराभूताः। -महाभाष्य, प्रथम माह निक, पृ० ३७-३८ १. याशिकाः पठन्ति आहिताग्निरपशब्द प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टिं निर्वपेत् । -वही, पृ. १४ २. .... यानि तह र्यगृहणानि प्रातिपदिकानि, एतेषामपि स्वरवर्णानुपूर्वी मानार्थ उपदेशः कर्तव्यः । शशः षष इति मा भूत् । पलाशः पलाष इति मा भूत् । मञ्चको मञ्जक इति मा मूत् । ____ 2010_05 -वही, पृ०४८ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो उनके समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही । ऊष, तेरा, चक्र तथा पेच; इन चार शब्दों को उन्होंने उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है । उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, ते के स्थान पर तोर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है । " " इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे पुनः लिखते हैं: "हो सकता हैं, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों—स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों। उन्हें प्राप्त करने का यत्न कीजिए। शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल है । यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है । चार वेद हैं । उनके छह अंग हैं । उसके रहस्य या तत्त्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएं हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। सामवेद की एक हजार मार्ग - परम्पराएं हैं। ऋग्वेदियों के आम्नाय - परम्पराक्रम इक्कीस प्रकार के हैं । अथववेद नौ रूपों में विभक्त है । वाकोवाक्य ( प्रश्नोत्तरात्मक ग्रन्थ ) इतिहास, पुराण, आयुर्वेद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं । शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना इस प्रकार कहना कि अमुक शब्द अपयुक्त हैं, केवल दुःसाहस है 12 पतंजलि के उपयुक्त कथन में मुख्यतः दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं । एक यह है - संस्कृत के कतिपय शब्द लोक भाषाओं के ढांचे में ढलते जा रहे थे। उससे उनका व्याकरण-शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता ? लोक भाषाओं के ढांचे में ढला हुआ - किंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर वे बल देते हैं; क्योंकि १. अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दानां न्याय्यः । कुतः प्रयोगान्यत्वात् । यदेषां शब्दानामर्थेऽ न्याञ्छन्दान्प्रयुंजते । यद्यथा ऊषेत्यस्य शब्दस्यार्थे षव यूयमुषिताः, तेरेत्यस्यार्थे क् यूयं तीर्णाः, चक्र त्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्तः, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति । - महाभाष्य; प्रथम आह निक, पृ० ३१ २. सर्वे खल्बप्येते शरदा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महाञ्छब्दस्य प्रयोग विषयः । सप्तद्वोपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदा: सांगा : सरहस्या:, बहुधा भिन्ना एकादशमध्वर्युशाखा:, सहस्रवर्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह-वृच्यं, नवधाऽथर्वणो वेद:, वाकोवाक्यम्, इतिहास, पुराणम्, वैद्यकमित्येतावाञ्छन्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमानमेव । 2010_05 -वही, पृ० ३२-३३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १२९ वसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी। शश-षष, पलाश-पलाष, मञ्चक-मञ्जक, जो उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक है। दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक-भाषाओं में इतने घुल-मिल गये होंगे कि उनमें उनका प्रयोग सहज हो गया । सामान्यतः वे लोक-भाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों। संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रति क्रिया हुई। वहां उनका प्रयोग बन्द हो गया। हो सकता है, मापाततः संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिये गये हों या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गयी हो। पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवतः इन बातों का असर रहा हो; इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रान्ति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं। शुद्ध वाक-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक्-व्यवहार को अक्षुण्ण बनाये रखने की उनको कितनी चिन्ता थी, यह उनके उस कथन से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उन्होंने अक्षर-समाम्नाय के ज्ञान को परम पुण्य-दायक एवं श्रेयस्कर बताया है। उन्होंने लिखा है : "यह अक्षर-समाम्नाय ही वाक्समाम्नाय है अर्थात् वाक्-वाणी या भाषारूप में परिणत होने वाला है। इस पुष्पित, फलित तथा चन्द्रमा व तारों की तरह प्रतिमण्डित अक्षरसमाम्नाय को शब्द रूप ब्रह्म-तत्त्व समझना चाहिए। इसके ज्ञान से सब वेदों के अध्ययन से मिलने वाला पुण्य-फल प्राप्त होता है। इसके अध्येता के माता-पिता स्वर्ग में गौरवान्वित होते हैं।" साधारणतया भाषा-वैज्ञानिक प्राकृतों को मध्यकालीन आर्य-भाषा-काल में लेते हैं। वे ई० पू० ५०० से १००० ई० तक के समय का इसमें निर्धारण करते हैं। कतिपय विद्वान् ई०पू० ६०० से इसका प्रारम्भ तथा ११०० या १२०० ई० तक समापन स्वीकार करते हैं । स्थूल रूप में यह लगभग मिलता-जुलता-सा तथ्य है। भाषाओं के विकास-क्रम में काल का सर्वथा इत्थंभूत अनुमान सम्भव नहीं होता। मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा-काल को प्राकृत काल भी कहा जाता है। यह पूरा काल तीन भागों में और बांटा जाता है-प्रथम प्राकृत-काल, द्वितीय प्राकृत-काल, तृतीय प्राकृत-काल। प्रथम प्राकृत-काल प्रारम्भ से अर्थात् ई० पू० ५०० से ई० सन् के आरम्भ तक माना जाता है। इसमें पालि तथा शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है। दूसरा काल ई० सन् से ५०० ई० तक का माना जाता है । १. सो ऽ यमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो रितव्यो ब्रह्मराशिः, सर्ववेदपुण्यफलावातिश्चास्य ज्ञाने भवति, मातापितरौ चास्य स्वर्ग लोके महीयेते। . -महाभाष्य, द्वितीय आह निक, पृ० ११३ ____ 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ इसमें प्रवृत्त भाषा प्राकृत के नाम से अभिहित की गयी है। प्राकृत के अन्तर्गत कई प्रकार की प्राकृतों का समावेश है, जिनके स्वतन्त्र रूप स्पष्ट हो चुके थे। तीसरे काल की अवधि ५०० ई० से १००० ई. तक मानी जाती है। इसकी भाषा का नाम अपभ्रंश है, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकास था। पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ ने भी पाइअसहमहष्णवो की भूमिका में इस प्राकृत-काल को, जिसे उन्होंने, द्वितीय स्तर की प्राकृतों का समय कहा है, तीन युगों में विभक्त किया है। प्रस्तुत प्रसंग में यह विशेष उपयोगी है; मतः यहाँ उद्धत किया जा रहा है : प्रथम युग ( रिव्रस्त पूर्व ४०० ई० से रिव्रस्त के बाद १०० ई०) (क) हीनयान बौद्धों के त्रिपिटक, महावंश और जातक प्रभृति ग्रन्थों की पालि भाषा। (ख) पैशाची और फूलिका पैशाची। (ग) जैन भागम-प्रन्थों की अद्धमागधी भाषा । (घ) अंग-ग्रन्थ-भिन्न प्राचीन सूत्रों को और पउमचरिउ आदि प्राचीन ग्रन्थों की जैन महाराष्ट्री भाषा। (छ) अशोक-शिलालेखों की एवं पस्वर्ती-काल के प्राचीन शिलालेखों की भाषा । (घ) अश्वघोष के नाटकों की भाषा। मध्ययुग (रिवस्तीय १०० से ५०० ) (क) त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित भासरचित नाटकों और बाद के कालिदास प्रभृति के माटकों की शौरसेनी, मागधी पौर महाराष्ट्री भाषाए। () सेतुबन्ध, गाथा सप्तशती आदि काव्यों की महाराष्ट्री भाषा। (ग) प्राकृत-व्याकरणों में जिनके लक्षण मोर उदाहरण पाये जाते हैं, वे महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पदाची भाषाए। (घ) दिगम्बर जैन ग्रन्यों की शौरसेनी और परवर्ती-काल के श्वेताम्बरों की जेन महाराष्ट्री भाषा। (क) पण्ड के व्याकरण में निर्दिष्ट मौर विक्रमोर्वशीय में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा । शेषयुग (रिवस्तीय ५०० से १००० वर्ष) भिन्न-भिन्न प्रदेशों की परवर्ति-काल की अपनश भाषाए। ___ 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १३१ पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ का यह विभाजन प्राकृत के भेदों पर विस्तार से प्रकाश डालता है। प्राकृत के नाम-नामान्तर प्राकृत के लिए पाइय, पाइअ, पाउय, पाउड, पागड, पागत, पागय, पायम, पागय, पायड जैसे अनेक नाम प्राप्त होते हैं । जैन अंग-साहित्य के तोसर अंग स्यानांग सूत्र में पागत शब्द व्यवहृत हुआ है। क्षमाश्रमण जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यक भाष्य की टीका में भाचार्य हेमचन्द्र ने पागय शब्द का प्रयोग किया है। राजभेखर द्वारा रचित कपूरमंजरी नामक सट्टक में पाउअ शब्द आया है। वाक्पतिराज ने गउडवहो नामक प्राकृत-काव्य में पायय शब्द का प्रयोग किया है। ये सभी शब्द प्राकृत के अर्थ में हैं। नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृत के नाम से इस भाषा को अभिहित किया है। प्राकृत को उत्पति-झोत ___ भाषा-ज्ञानिक साधारणतया ऐसा मानते आ रहे हैं कि आर्य भाषाओं के विकास-क्रम के अन्तर्गत वैदिक भाषा से संस्कृत का विकास हुआ और संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ। इसीलिए भाषा वैज्ञानिक इसका अस्तित्व संस्कृत-काल के पश्चात् स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन अपेक्षित है। वैयाकरणों की मान्यतारा सुप्रसिद्ध प्राकृत घेयाकरण भाचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत की परिभाषा करते हुए कहा है: "प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगत वा प्राकृतम्"-प्रकृति संस्कृत है; यहां होने वाली या उससे आने वाली भाषा प्राकृत है। मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत का "प्रकृति : संस्कृतम्, तत्र भवं प्राकृतमुच्यते"---प्रकृति संस्कृत है, वहां होने वाली भाषा अर्थात् उससे निष्पन्न होने वाली भाषा प्राकृत कही जाती है, ऐसा लक्षण किया है। प्राकृत-चन्द्रिका में "प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम्"-प्रकृति संस्कृत है, वहीं होने से या उससे उद्भूत होने से यह भाषा प्राकृत कही गयी है, ऐसा उल्लेख किया गया है। नरसिंह ने १. स्थानांगसूत्र, स्थान ७, सूत्र ५५३ २. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४६६ की टीका ३. कर्पूर मंजरी, जवनिका १, श्लोक ८ ४. गउडवहो, गा० ९२ ५. नाटयशास्त्र, अ० १७, श्लो० १ ____ 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ षडभाषाचन्द्रिका में "प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता"-संस्कृत रूप प्रकृति का विकार-विकास प्राकृत माना गया है, ऐसा विवेचन किया है। प्राकृत संजीवनी में कहा गया है कि "प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतं योनिः" -प्राकृत का मूल स्रोत सर्वथा संस्कृत ही है। नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् धनिक ने दशरूपक में "प्रकृतिः आगतं प्राकृतम्, प्रकृति संस्कृतम्"-जो प्रकृति से मागत है, वह प्राकृत है और प्रकृति संस्कृत है, ऐसा विश्लेषण किया है । सिंहदेवगणी ने वाग्भटालंकार को टीका में "प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्"संस्कृत रूप प्रकृति से जो भाषा आई-उद्भूत हुई, वह प्राकृत है, ऐसी व्याख्या की है। काव्यादर्श के टीकाकार प्रेमचन्द्र तकंवागीश ने लिखा है : "संस्कृतरूपायाः प्रकृतेः उत्पन्नत्वात प्राकृतम्"-संस्कृतरूप प्रकृति से उत्पन्नता के कारण यह भाषा प्राकृत नाम से अभिहित हुई है। नारायण ने रसिक-सर्वस्व में प्राकृत और अपनश के उद्भव की चर्चा करते हुए कहा है : "संस्कृतात् प्राकृतमिष्टम् ततोऽपभ्रंशमाषणम्"-संस्कृत से प्राकृत और उससे अपन अस्तित्व में आई। प्राकृत के वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के कतिपय टीकाकारों के उपयुक्त विचारों से सामान्यतः यह प्रकट होता है कि उन सब की प्रायः एक ही धारणा थी कि संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ है। सबसे पहले यह विमर्षणीय है कि संस्कृत का अर्थ है संस्कार, परिमार्जन या संशोधन की हुई भाषा है, तब उससे प्राकृत जैसी किसी दूसरी भाषा का उद्भूत होना कैसे सम्भव हो सकता है ? या तो प्राकृत के उपयुक्त वैयाकरणों और काव्यशास्त्रीय विद्वानों ने भाषा-तस्व या भाषा-विज्ञान की दृष्टि से सोचा नहीं पा या उनके कहने का अभिप्राय कुछ अन्य था । प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ जन-साधारण या स्वभाव होता है । जन-साधारण की भाषा या स्वाभाधिक भाषा-वस्तुतः प्राकृत का ऐसा ही अर्थ होना चाहिए । अग्रिम प्रकरणों में की गयी कुछ विद्वानों के मतों को चर्चा से यह संगत प्रतीत होगा। उपयुक्त विद्वानों ने यदि वस्तुतः संस्कृत को प्राकृत का मूल स्रोत स्वीकार किया हो, इसी अर्थ में संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहा हो तो यह विचारणीय है। जैसा कि सिद्ध है, संस्कृत भाषा व्याकरण से सर्वथा नियमित एवं प्रतिबद्ध हो चुकी थी। ऐसा होने के अनन्तर भाषा का अपना स्वरूप सो यथावत् बना रहता है, पर, उसका विकास रुक जाता है । उससे किसी नई भाषा का प्रसूत होना सम्भव नहीं होता, क्योंकि वह स्वयं किसी बोलचाल की भाषा (जन-भाषा) के आधार पर संस्कार-युक्त रूप धारण करती है । आचार्य हेमचन्द्र जैसे विद्वान्, जिनकी धार्मिक परम्परा में प्राकृत को जगत् की आदि भाषा तक कहा गया है, इसे संस्कृत से निःसुत माने, पह कैसे सम्भव हो सकता है ? भाचार्य हेमचन्द्र भादि घेयाकरणों ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति के रूप में जो निरूपित किया है, उसका 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' एक विशेष भाशय प्रतीत होता है। ये वैयाकरण तथा काव्यशास्त्रीय टीकाकार प्रायः प्राकृत-काल के पश्चाद्वर्ती हैं। इनका समय अपभ्रशों के अनन्तर आधुनिक भाषाओं के उद्गम तथा विकास के निकट का है। तब प्राकृत का पठन-पाठन लगभग बन्द हो गया था। यहां तक कि प्राकृत को समझने के लिए सस्कृत-छाया से काम लेना पड़ता था। पुरातन भाषाओं के सीखने का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इसका मुख्य कारण यह है कि संस्कृत यद्यपि लोक-भाषा का रूप कभी भी नहीं ले सकी, परन्तु, भारत की आर्यभाषाओं के आदि-काल से लेकर अनेक शताब्दियों तक यह भारत में एक शिष्ट भाषा के रूप में प्रवृत्त रही। इस दृष्टि से उसकी व्याप्ति और महत्व क्षीण नहीं हुआ। तभी तो काल-क्रमवश जन-जन के लिए अपरिचित बनी प्राकृत जैसी भाषा को, जो कभी सबंजनप्रचलित भाषा थी, समझने के लिए संस्कृत जैसी शिष्ट भाषा का अवलम्बन लेना पड़ा। सम्भवतः प्राकृत-वैयाकरणों के मन पर इसी स्थिति का असर था। यही कारण है कि उन्होंने प्राकृत का आधार संस्कृत बताया। यहां तक हुआ, जैन विद्वान्, जैन श्रमण, जिनका मौलिक वाङमय प्राकृत में रचित है, अपने आर्ष ग्रन्थों को समझने में संस्कृत छाया और टीका का सहयोग आवश्यक मानने लगे थे। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के सम्बन्ध में कुछ और विशेषता बापनीय है। आचार्य हेमचन्द्र ने कोई स्वतन्त्र प्राकृत-व्याकरण नहीं लिखा। उन्होंने सिद्धहेमशब्दानुशासन के नाम से वृहत संस्कृत-व्याकरण की रचना की। उसके सात अध्यायों में संस्कृत-प्याकरण के समग्र विषयों का विवेचन है। आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण का वर्णन किया गया १. आचार्य हेमचन्द्र की व्याकरण-रचना के सम्बन्ध में एक घटना है। गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह गुर्जरदेश को काश्मीर, काशी और मिथिला को तरह संस्कृत-विधा का प्रशस्त पीठ देखना चाहता था। उसने अपने राज्य के विद्वानों से यह अनुरोध किया कि वे एक नूतन व्याकरण की रचना करें, जो अपनी कोटि को अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति हो। सिद्धराज जयसिंह को विशेषतः यह प्रेरणा तब मिली, जब उसने अपने द्वारा जीते गये मालव देश के लूट के माल में आये एक ग्रन्थ-भण्डार की गवेषणा करवाई। उसमें धाराधीश भोज द्वारा रचित एक व्याकरण-ग्रन्थ पर सिद्धराज की दृष्टि पड़ी, जिस (अन्य) की पण्डितों ने बड़ी प्रशंसा की। सिद्धराज को साहित्यिक स्पर्धा जगी। फलतः उसने विद्वानों से उक्त अनुरोध किया। सिद्धराज को राजसमा में माचार्य हेमचन्द्र का सर्वातिशायी स्थान था। ये अप्रतिम प्रतिमा के धनी थे, अनेक विषयों के मार्मिक विद्वान् थे। प्रभावकवरित में इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार किया गया है : सर्वे सम्भूय विद्वान्सो, हेमचन्द्र व्यलोकयन् । महामस्या राज्ञासावभ्यर्च्य प्रार्थि ( तस्तता) ॥ 2010_05 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ 1 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरण का विश्लेषण ग्रन्थ का मुख्य विषय नहीं था। युग-प्रवाह को देखते हुए उन्हें सम्भवतः यही समीचीन लगा हो कि संस्कृत के माध्यम से प्राकृत तक पहुंचा जाये । प्राकृत को सीधे व्याख्यात करना उन्हें रुचिकर भी नहीं लगा होगा, क्योंकि बोलचाल में प्राकृत का व्यवहार नहीं रहा। इतना ही नहीं, बल्कि उसके स्वतन्त्र अध्ययन की प्रवृत्ति भी क्षीण हो चुकी थी। उसका अध्ययन संस्कृत-सापेक्ष बन ही गया था। लगता है, इसीलिए उन्हें प्राकृत के आधार को स्वीकार करना समयानुकूल और अध्ययनानुकूल प्रतीत हुआ है। शब्दों के संस्कृत रूप इन-इन परिवर्तनों से प्राकृत रूप बम जाते हैं; यही प्राकृत भाषा में प्रवेश पाने का सुगमतम मार्ग था। अस्तु; इसी परिपावं में उन्हें संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहना उचित लगा है, यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है। आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रान्त नहीं थे। काव्यानुशासन की पहली कारिका में वे कहते हैं : अकृत्रिमस्वादुपदां, परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वभाषापरिणतां, जैनीं वाचमुपास्महे ॥ अलंकारचूड़ामणि नामक स्वोपज्ञ व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं : अकृत्रिमाणि-असंस्कृतानि अतएव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्या मिति विग्रहः । ......"तथा सुरनरतिरश्या विचित्रासु भाषासु परिणतां तन्मयतां गतां सर्वभाषापरिणताम् । शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मन्मनोरथम् । पूरयस्व महर्षे ! त्वं, बिना त्वामत्र कः प्रभुः ॥ यशो मम तव ख्यातिः, पुण्यं च मुनिनायक । विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरण नवम् ॥ -प्रभावकचरित १२, ८१, ८२, ८४ भाचार्य हेमचन्द्र के इस व्याकरण की गुजरात में तथा अन्यत्र बहुत प्रशस्ति हुई। इस सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है : किं स्तुमः शब्दपायोधेहेमचन्द्रयतेमतिम् । एकेनापि हि येनेहा , कृतं शब्दानुशासनम् ॥ सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् जिनमण्डल ने भी इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किये हैं : जयसिंहदेववपणाउ निम्मियं सिद्धहेमवागरणं । नीसेस सद्दलणखणनिहाण मिमिणा मुणिदेणं ॥ (जयसिंहपचनात् निर्मितं सिद्धहैमव्याकरणम् । विशेषशानिधानमनेन मुनीन्द्रग॥) 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं' [ १३५ meerrst हि भगवन्तोऽधर्मागधीभाषा वारिवविमुक्तवारिवद् आश्रयानुरूपतया परिणमति । " इस तथ्य को और पुष्ट करने के लिए वे निम्नांकित पद्य भी वहीं उद्धत करते हैं : देवा देवीं नरा नारी शबराश्चापि शावरीम् । तिर्यचो ऽपि हि सैरश्वों मेनिरे भगवद्गिरम् ॥ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या में किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि वे संस्कृत को कृत्रिम भाषा मानते थे । प्राकृत उनकी दृष्टि में अकृत्रिम —- स्वाभाविक या प्राकृतिक भाषा थी। अस्तु, इस विचारधारा में विश्वास रखने वाला मनीषी यह स्थापना कैसे कर सकता है कि प्राकृत संस्कृत से निकली है । आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती महान् नैयायिक एवं कषि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी इस प्रकार उल्लेख किया है : अकृत्रिमस्वादुपदेर्जनं जिनेन्द्रः साक्षाविवपासि भाषितैः । " आचार्य हेमचन्द्र ने इसी परम्परा का अनुशरण किया है। यहां तक कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों को भी यथावत् रूप में स्वीकार किया है । सुप्रसिद्ध अलंकार शास्त्री नमि साधु ने महाकवि रुद्रट के काव्यालंकार पर अपने द्वारा रची गई वृत्ति में द्वितीय अध्याय के १२ वें श्लोक की व्याख्या करते हुए जहां 'प्राकृत' शब्द आया है, विवेचन किया है : "सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव दा प्राकृतम् । ""प्राक् पूर्व कृत प्राकृतं बालमहिलाfayari सकलभाषा निबन्धभूतं वचनमुध्यते ।"3 नमि साधु ने यह भी उल्लेख किया है कि जिस प्रकार बादल से गिया हुआ पानी यद्यपि एक रूप होता है, पर, भूमि के भेद से वह अनेक रूपों में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार वह ( प्राकृत भाषा ) अनेक रूपों में परिणत हो जाती है । वही पाणिनि आदि के व्याकरण के नियमों से संस्कार पाकर -- सम्मार्जित होकर संस्कृत कहलाती है । 4 नमि साधु उक्त विशेषण के सन्दर्भ में एक बात की और चर्चा करते हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण है । वे कहते हैं : मूल ग्रन्थकार आचार्य रुद्रट ने विवेचन-क्रम के मध्य प्राकृत का पहले तथा-संस्कृत आदि का बाद में निर्देश किया है। यह स्पष्ट है, इस प्रकार कहकर वे इस १. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका; १।१८ २. ४. ५. ****** प्राकृत - संस्कृत-मागध-पिशाचमाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ पाइ असद्द महण्णवो, उपोद्घात, पृ० २४ ......... "मेघनिर्मुक्त जलमिवैकस्वरूपं तदेव विमेदानाप्नोति । व्याकरणोदित शब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते । 2010_05 000 अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तद्नुसंस्कृतादीनि । पाणिन्यादि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ तथ्य पर बल देना चाहते है कि प्राकृत पूर्वधर्ती है तथा संस्कृत तत्पश्चाद्व: । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उनके विचार महत्वपूर्ण और मननीय हैं। पूर्वोद्धत वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के टीकाकारों से ये मेल नहीं खाते। नमि साधु प्रायः इन सभी से पूर्ववर्ती थे। राजशेखर जैसे अजेन विद्वानों ने भी इसी ओर इंगित किया है। उनका समय लगभग नौवीं ईस्वी माना गया है। बाल रामायण में एक प्रसंग पर वे लिखते हैं : यद् योनिः किल संस्कृतप्य सुदृशां जिह्वासु यन्मोदते, यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कदुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्य चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वधः, ताल्लाटल्लिलितांगि पश्य नुदती दृष्टेनिमेषव्रतम् ॥ जो संस्कृत का उत्पत्ति-थान है, सुन्दर नयनों वाली नारियों को जिह्वाबों पर जो प्रमोद पाती है, जिसके कान में पड़ने पर अन्य भाषाओं के अक्षरों का रस कडुमा लगने लगता है, जिसका सुललित पदों वाला गद्य कामदेव के मद जैसा हृद्य है, ऐसी प्राकृत भाषा जो बोलते हैं, उन लाट देश ( गुजरात ) के महानुभावों को हे सुन्दरि! अपलक नयनों से देख । __प्राकृत की विशेषताओं के वर्णन के सन्दर्भ में राजशेखर ने इस उल्लेख में प्राकृत को जो संस्कृत की योनि-प्रकृति या उद्गम-स्रोत बताया है, भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है। गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत की महत्ता और विशेषता के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका उल्लेख किया ही जा चुका है। उन्होंने प्राकृत को सभी भाषाओं का उद्गम-स्रोत' बताया है। प्राकृत के सन्दर्भ में उन्होंने एक बात और कही है, जो भाषा-विज्ञान की दृष्टि १. बाल रामायण, ४८-४९ २. सयलाओ इमं पाया विसंति एतो पन्ति वायाओ। एन्ति समुद्द चिप गेन्ति सायराओ च्चिय जलाई॥ -गउडवहो, कवि-प्रशंसा, ९३ ( सफला एतद् वाचो विशन्ति इतश्च निर्यान्ति वाचः। आयान्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि ॥) इस (प्राकृत) भाषा में सब भाषाएं प्रवेश पाती हैं। इसी से सब भाषाएं निकलती हैं। पानी समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही ( वाष्प के रूप में) निकलता है। 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य.] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' [ १३७ से मननीय है। उन्होंने कहा है : 'प्राकृत की छाया-प्रभाव से संस्कृत-वचनों का लावण्य उद्घाटित या उद्भासित होता है । संस्कृत को संस्कारोत्कृष्ट करने में प्राकृत का बड़ा हाप है।" संस्कृत भाषा की विशेषता संस्कारोत्कृष्टता है, इस उक्ति से यह प्रकट होता है कि उत्कृष्टतापूर्वक उसका संस्कार-परिष्कार या परिमार्जन किया हुआ है। ऐसा होने का कारण प्राकृत है। दूसरे शब्दों में प्राकृत कारण है, संस्कृत कार्य है। कार्य से कारण का पूर्वभाविस्व स्वाभाविक है। रानशेखर तपा वाक्पतिराज के कथन पर गौर करना होगा। वे जैन परम्परा के नहीं थे, घेदिक परम्परा के थे। जैन लेखक प्राकृत को अपने धर्म-शास्त्रों की भाषा मानते हुए अपनी परम्परा के निर्वाह अथवा उसका बहुमान करने की दृष्टि से ऐसा कुछ कह सकते हैं, पर, जहां अजैन विद्वान ऐसा कहते हैं, वहां अवश्य कुछ महत्व होना चाहिए। दोनों का कथन निःसन्देह प्राकृत के अस्तित्व, स्वरूप आदि के यथार्थ अंकन की दृष्टि से है। आचार्य सिर्ष का अभिमत संस्कृत वाङमय के महान् कथाशिल्पी आवाय सिद्धर्षि ने 'उपमितिमवप्रपञ्चकया नामक महान् संस्कृत-कथा ग्रन्थ में भाषा के सम्बन्ध में चर्चा की है, जो प्रस्तुत विषय में बड़ी उपयोगी है। वे लिखते हैं : "संस्कृत और प्राकृत; ये दो भाषाए प्रधान हैं। उनमें संस्कृत दुर्विदग्ध जनों के हृदय में स्थित है। प्राकृत बालकों के लिए भी सद्बोधकर है तथा कर्णप्रिय है। फिर भी उन्हें ( दुर्विदग्ध जनों को) प्राकृत रुचिकर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में, जब उपाय है, (संस्कृत में अन्य रचने की मेरी क्षमता है ) तब सभी के चित्त का रंजन करना चाहिए । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए में संस्कृत में पह रचना करूंगा।" १. उम्मिलई लायणं पययच्छायाए सक्कयवयाणं । सक्कयसकारुकरिसणेण पययस्स वि पहावो ॥ -गउडवहो; ६५ ( उम्मील्यते लावण्यं प्राकृतच्छायया संस्कृतपदानाम् । __संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ॥ ) २. संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्रधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद्द विदग्धहृदि स्थिता। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते । उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ॥ -उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव, ५१-५३ ____ 2010_05 ___ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ____ स्पष्ट है, आचार्य सिद्धषि संस्कृत को दुविदग्ध लोगों के हृदय में स्थिति मानते हैं । प्राकृत उनकी दृष्टि में बालकों द्वारा भी समझे जा सकने योग्य है और कर्णप्रिय है। कोश के अनुसार दुर्विदग्ध' का अर्थ पण्डितंमन्य या गर्विष्ठ है। परम्परया यह शब्द श्रेयान् अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका प्रयोग दम्भिता या अलंकारिता जैसे कुत्सित अर्थ में है। यद्यपि आचाय' सिद्धर्षि का यह विश्वास था कि प्राकृत सर्वलोकोपयोगी भाषा है, पर, वे यह भी जानते थे कि पाण्डित्याभिमानी जनों को प्राकृत में रचा ग्रन्थ रुचेमा नहीं। कारण स्पष्ट है, उनका समय ( १० वी, ११ वीं शती ) उस प्रकार का था, जब प्राकृत का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका था और प्रन्थकार सिद्धान्ततः प्राकृत की उपयोगिता मानते हुए भी संस्कृत को और झुकते लगे थे। ऐसा करने में उनका यह आशय प्रतीत होता है कि उनकी रचना विद्वज्जनों में समाहत बने; अतएव संस्कृत में; जो Lingua franca का रूप लिये हुए पी, प्रचना करने में उन्हें गौरव का अनुभव होता था। दूसरी बात यह है कि प्राकृत को जो सर्वजनोपयोगी भाषा कहा जाता था, वह उसके अतीत की झलक थी। उस समय प्राकृत भी संस्कृत की तरह दुर्बोध हो गयी थी। दुर्बोध होते हुए भी संस्कृत के पठन-पाठन की परम्परा तब भी अक्षुण्ण थी। प्राकृत के लिए ऐसा नहीं था; अतः संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कुछ अर्थ हो सकता था, जब की प्राकृत में लिखना उतना भी सार्थक नहीं था। ऐसे कुछ कारण थे, कुछ स्थितियां थीं, जिनसे प्राकृत भाषा वास्तव में लोक-जीवन से इतनी दूरा चलो गई कि उसे गृहीत करने के लिए संस्कृत का माध्यम अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक हो गया। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति बताने में याकरण जिस प्रवाह में बहे हैं, उस स्थिति की एक झलक हमें आचार्य सिद्धषि की उपयुक्त उक्ति में दृष्टिगत होती है। यही प्रवाह आगे इतना वृद्धिंगत हुआ कि लोगों में यह धारणा बद्धमूल हो गयी कि संस्कृत प्राकृत का मूल उद्गम है। पं० हरगोबिन्दास टी० सैठ ने प्राकृत की प्रकृति के सम्बल 4 उक्त माघार्थों * विचारों का समीक्षण और पर्यालोधन करने के अनन्तय प्राकृत की जो व्युत्पत्ति की है, वह पठनीय है। उन्होंने लिखा है- “प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्" अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् ।" यह वास्तव में संमत प्रतीत होती है। प्राकृत के देश्य शब्द : एक विचार प्राकृत में जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, प्राकृत पेयाकरणों ने उन्हें तीन भागों में बांटा है : १. शानलबदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रंजयति । -भर्तृहरिकृतनीतिशतक, ३ २. पाइपसहमहण्णबो; प्रथम संस्करण का उपोद्घात्, पृ० २३ 2010_05 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए । १३९ (१) तत्सम, (२) तद्भव, (३) देश्य (देशी)। तत्सम-तत् यहां संस्कृत के लिए प्रयुक्त है । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में एकजैसे प्रयुक्त होते हैं, वे तत्सम कहे गये हैं । जैसे—रस, वारि, भार, सार, फल, परिमल, नवल, विमल, जल, नीर, धवल, हरिण, आगम, ईहा, गण, गण, तिमिर, तोरण, तरल, सरल, हरण, भरण, करण, वरण आदि । तद्भव-वर्गों के समीकरण, लोप, भागम, परिवर्तन आदि वारा जो शब्द संस्कृत शब्दों से उत्पन्न हुए माने जाते हैं, वे तद्भव' कहे जाते हैं। जैसे-धर्म> धम्म, कर्म> कम्म, पक्ष> जक्स, बाह्मण> बम्हण, क्षत्रिय > खत्तिम, ध्यान>माण, दृष्टि> विछि, रक्षति> रक्खइ, पृच्छति> पुच्छइ, अस्ति> अस्थि, नास्ति- नत्थि; इत्यादि । देश्य (देशी)-प्राकृत में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है, जो न संस्कृत-शब्दों के सदृश है और न उनसे उद्भूत जैसा प्रतीत होता है । वैयाकरणों ने उन शब्दों को देश्य कहा है। उनके उद्गम की संगति कहीं से भा नहीं जुड़ती। जैसेउअपश्य, मुंड-सूकर, तोमरी लता, खुप्पइ-निमज्जति, हुत्त अभिमुख, फुटा=केशबन्ध, बिट्ट-पुत्र, डाल शाखा, टंका-जंघा, धयण-गृह, झडप्प-शीघ्र, चुक्कड़-भ्रश्यति, कन्वोट्ट-कुमुव, घढ-स्तूप, विच्छ-समूह । देश्य शब्दों पर कुछ विधार अपेक्षित है। इससे प्राकृत की उत्पत्ति को समझने में सहायता मिलेगी, जो एक सीमा तक अब भी विवादास्पद बनी हुई है। पदि प्राकृत संस्कृत से १. प्राकृत में जो तत्सम शब्द प्रचलित हैं, वे संस्कृत से गृहीत नहीं हैं। वे उस पुरातन लोक भाषा पा प्रथम स्तर की प्राकृत के हैं, जिससे वैदिक संस्कृत तथा द्वितीय स्तर की प्राकृतों का विकास हुआ। अतएव इन उत्तरवर्ती भाषाओं में समान रूप से वे शब्द प्रयुक्त होते रहे । वैदिक संस्कृत से वे शब्द लौकिक संस्कृत में आये। २. प्रथम स्तर की प्राकृत से उत्तरवर्ती प्राकृतों में आये हुए पूर्वोक्त शब्दों में एक बात और घटित हुई। अनेक शब्द, जो ज्यों-के-त्यों बने रहे, तत्सम कहलाये। पर, प्राकृतें तो जीवित भाषाएं थीं। कुछ शब्दों के रूप उनमें परिवर्तित होते गये। पद्यपि वे शब्द संस्कृत और प्राकृत में प्रथम स्तर की प्राकृत से समान रूप में आये थे, पर, व्याकरण से नियमित और प्रतिबद्ध होने के कारण संस्कृत में वे शब्द ज्यों-के-त्यों बने रहे। प्राकृत में वैसा रहना सम्भव नहीं था। वे ही परिवर्तित रूप वाले शब्द तद्भव कहलाये, अतः तद्भव का अभिप्राय, जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, यह नहीं है कि वे संस्कृत शब्दों से निकले हैं। 2010_05 | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ निकली होती, तो देश्य शब्दों का संस्कृत के किन्हीं-न-किन्हीं शब्दों से तो अघश्य सम्बन्धस्रोत जुड़ता। पर, ऐसा नहीं है। यद्यपि संस्कृत-प्रभावित कतिपय घेयाकरणों ने इन देश्य शब्दों में से अनेक नामों तथा धातुओं को संस्कृत के नामों और धातुओं के स्थान पर आदेश द्वारा प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-बाकरण में इस प्रकार का उपक्रम द्रष्टव्य है। एतत्सम्बद्ध कुछ सूत्र यहां उद्धत किये जाते हैं : वृक्षमितयो मछुढौ ॥ २॥१२७ । वृक्षक्षिप्तयोर्यवासंख्य' सक्ख छुढ इत्यादेशौ वा भवतः । वृक्ष और क्षिप्त शब्दों को (विकल्प से) क्रमश: रुक्ख और छूढ़ आदेश होते हैं । यथा वृक्ष:रुपसो, क्षिसम्-छूढं, उत्क्षिसम्-उच्छूढं । मारस्य मंजरवंजरी ॥ २॥१३२॥ मार्जारशब्दस्य मंजर वंजर इत्यादेशो वा भवतः। मार्षाप शब्द को ( विकल्प से ) मंजर और बंजर आदेश होते हैं । यथा-मारि:-मंजरो, वंजरो। प्रस्तस्य हित्य-तट्ठौ ॥२॥ १३६ । प्रस्तशब्दस्य हित्य तह इत्यादेशो वा भवतः । त्रस्त शब्द को ( विकल्प से ) हित्य और तह बादेश होते हैं । यथा-वस्तम्-हित्यं, तटुं। अघसो हेढ़ ॥ २१४१ । अधस् शम्बस्य हेठ इत्ययमादेशो भवति। अधस पद को हे आदेश होता है । यथा-अधः - हेटठं। गौणावयः ॥ ११७४ । गोणादयः शब्दा अनुक्तप्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते । जिनके प्रकृति, प्रत्यय, लोप, मागम तथा वर्ण-धिकार अव्याख्यात हैं, ऐसे गोणादि शब्द निपात से सिद्ध होते है। यथा-गो = गौणो; गावी, गाव: = गावीमो; पलीव = बइल्लो; मापः = आऊः, पंचपंचाशत् = पंचावण्णा, पणपन्ना, व्युत्सर्गः = विउसगौ; व्युत्सर्जनम् = पोसिरणम्', वहिमैथुनं वा = बहिद्धा; अपस्मार: = बम्हलो; उत्पलम् = कन्तुळं; धिकधिक् = छि छि; स्थासकः = चचिचक्क; निलया = निहेलणः जन्म = जन्मणं; क्षुल्लकः = खुडो, कुतूहलम् = कुटु'; विष्णुः = मट्टिओ; श्मशनम् = करसी; असुराः = अगया; पोष्यं रमः = तिगिच्छि; विनम् = अल्लं, समर्थः = पक्कलो; पण्डकः = णेलच्छो; कर्पासः = पलही; बली = उज्जलो, ताम्बूलम् = झसुरं; पुंश्चलो = छिछई; शाखा = साहुली, इत्यादि। कथर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ॥४॥२॥ कथेर्धातोर्वज्जरायो मादेशा वा भवन्ति। कथ धातु से (विकल्प से) वज्जय नादि दश आदेश होते हैं । से-वजारइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघई, बोल्लइ, चवह, जम्पइ, सीसइ, साहइ, १. मित्रववागमः, शत्रुबदादेशः। ____ 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १४१ उages इति तत्पूर्वकस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । एते चान्यैर्देशीषु पठिता अपि उस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति तथा च वज्जरितौ कथितः, वज्जरिऊण कथयित्वा वज्जरणं कथनम्, वज्जर तो कथयन् वज्जरिअध्वं कथयितव्यमिति रूपसहस्राणि सिद्ध यन्ति । संस्कृत धातुबच्च प्रत्ययलोपागमविधिः । दुःखे गिव्वरः ||४|४| दुःखविषयस्य कथेर्णिव्वर इत्यादेशो वा भवति । णिव्वरइ - दुःखं कथयतीत्यर्थ: । दुःखविषयक कथ् धातु को ( विकल्प से) णिम्बर आदेश होता है । जैसे— जिव्रह - दुःख का कथन करता है । पिज्ज: डल्ल - पट्ट - घोट्टाः || ४|११ | पिबतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिब को (विकल्प से ) पिज्ज, डल्ल पट्ट तथा घोट्ट; ये चार आदेश होते हैं । जैसे -- पिबति - पिज्जइ, डल्लइ, पट्ट, घोट्टई निद्रातेरोहोरोधौ ||४|१२| निपूर्वस्य द्रातेः ओहीर उंघ इत्यादेशो वा भवतः । नि पूर्वक द्राति को ( विकल्प से) ओहीर और उंध आदेश होते हैं । जैसे- निद्राति-ओहीरइ, उंघइ । वैयाकरणों ने आदेशों द्वारा देशी शब्दों और क्रियाओं को संस्कृत के सांचे में ढालने का जो प्रयत्न किया, वह वस्तुतः कष्ट कल्पना थी, जिसे समीचीन नहीं कहा जा सकता आचार्य हेमचन्द्र के सोदाहरण पूर्व उद्धत सूत्रों से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं। एक यह है कि अन्य प्राकृत- वैयाकरणों की तरह वे भी आदेशों के रूप में उसी प्रकार की कष्ट कल्पना के प्रचाह में बह गये | दूसरा यह है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रणयन, उद्देश्य, कथन - प्रकार आदि पर पिछले पृष्ठों में जो चर्चा की गयी है, उसी सन्दर्भ को यहां जोड़ा जा सकता है अर्थात् आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के पुल से प्राकृत के तट पर पहुंचाना चाहते थे; इसलिए देशी शब्दों के आधार, व्युत्पत्ति, स्रोत आदि कुछ भी न प्राप्त होने पर भी उन्हें व्याकरण को परिपूर्णता देने की दृष्टि से आवश्यक लगा है कि देशी शब्दों और धातुमों को भी क्यों छोड़ा जाए ? उनके लिए कुछ जोड़-तोड़ की जा सकती है । सम्भवतः इसी का परिणाम आचार्य हेमचन्द्र द्वारा निरूपित आदेश हैं । व्याकरण के चतुर्थ पाद के दूसरे सूत्र में आचार्य हेमचन्द्र कथ् धातु के स्थान पर होने वाले आदेशों का उल्लेख कर एक अन्य संकेत करते हैं । यद्यपि दूसरे ( सम्भवतः उनसे पूर्ववर्ती ) वैयाकरणों ने इनको देशी ( रूपों ) में गिना है, पर, वे ( हेमचन्द्र ) घात्वादेशपूर्वक इन्हें विविध प्रत्ययों में प्रतिष्ठित करने की व्यवस्था कर रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र के इस कथन से यह स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती वैयाकरण अनेक देशी शब्दों और धातुओं को देशी ( रूपों ) में पढ़ देते थे । वे सभी देशी रूपों को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करते थे । आचार्य हेमचन्द्र ने तो कथा के अर्थ में प्रयुक्त होने वाले दश देशी क्रिया रूपों को उपस्थित कर दिग्दर्शन 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ मात्र काया है । अभ्य भी ऐसे अनेक देशी रूप रहे होंगे, जिन्हें पुरावर्ती वैयाकरण देशी में गिनाते रहे हों । यह वस्तुस्थिति थी । संस्कृत के ढांचे में प्राकृत को सम्पूर्णतः डालने के अभिप्रेत से चला यह आदेशमूलक क्रम भाषा विज्ञान की दृष्टि से समुचित नहीं था । बलात् व्याकरण के सांचे में उतारने से भाषा के वास्तविक स्वरूप को समझने में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है। पर, क्या किया जाता, युग का मोड़ हो सम्भवतः बेसा था । संस्कृत-नाटकों पर दृष्टिपात करने से इस तथ्य पर और प्रकाश पड़ता है । प्रसंगोपाततया जैसी कि चर्चा की गयी है, संस्कृत - प्राकृत-रचित नाटकों में सम्भ्रान्त या उच्च कुलोत्पन्न पुरुष पात्र संस्कृत में बोलते हैं तथा साधारण पात्र ( महिला, बालक, भृत्य आदि) प्राकृत में बोलते हैं । नाटकों को यह भाषा सम्बन्धी परम्परा प्राकृत की जन भाषात्मकता की द्योतक है । यहां ज्ञातव्य यह है कि इन ( उत्तरवर्ती काल में रचित ) नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का सुक्ष्मता से परिशीलन करने पर प्रतीत होता है कि सोचा संस्कृत में गया है और उस ( सोची हुई शब्दावली ) का प्राकृत में अनुवाद मात्र कर दिया गया है। भारचयं तब होता है, जब नाटकों के कई प्रकाशनों में यहां तक देखा जाता है कि प्राकृत भाग की संस्कृत-छाया तो मोटे टाइप में दी गयी है और मूल प्राकृत छोटे टाइप में । अभिप्राय स्पष्ट है, प्राकृत को सर्वथा गौण समझा गया । मुख्य पठनीय भाग तो उनके अनुसार संस्कृतछाया है । नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत स्वाभाविक कम प्रतीत होती हैं, कृत्रिम अधिक प्राकृतों को नाटकों में रखना नाट्यशास्त्रीय परम्परा का निर्वाह मात्र रह गया । सारांश यह है कि जहां साहित्य-सर्जन का प्रसंग उपस्थित होता, सर्जक का ध्यान सीधा संस्कृत की ओर जाता । देश्य शब्दों का उद्गम किया है । उनमें से कइयों का सोचना है, आर्यों का पहला समुदाय, देश्य भाषाओं के उद्गम स्रोत के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से विचार जो पंचनद व सरस्वतीती की घाटी से होता हुआ मध्यदेश में आबाद हो चुका था, जब बाद में आने वाले मार्थों के दूसरे दल द्वारा वहां से खदेड़ दिया गया, तब वह मध्यदेश के चारों मोर बस गया। पहला समूह मुख्यतः पंचनद होता हुआ मध्यदेश में रहा, जहां वैदिक वाङमय की सृष्टि हुई । जो मायं मध्यदेश के चारों और के भूभाग में रहते थे, उनका वाख्यवहार अपनी प्रादेशिक प्राकृतों में चलता था । प्रदेश भेद से भाषा में भिन्नता हो ही जाती है । इसलिए मध्यदेश में रहने वाले भार्यों की प्राकृत से मध्यदेश से बाहर रहने वाले आर्यों की प्राकृते किन्हीं अंशों में मिलती थीं, किन्हीं अंशों में नहीं । मध्यदेश के आर्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं छन्दस् के अधिक मिकट रही होंगी; क्योंकि चन्दस् उसी भूभाग की 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य } मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १४३ या उसके आस-पास की किसी प्राक्तन लोक भाषा का परिनिष्ठित रूप थीं । मध्यदेश के बाहर की लोक- भाषाएं या प्राकृत अपने प्रादेशिक भेद तथा वैदिक परम्परा से बसंलग्नता के कारण छन्दस् से अपेक्षाकृत दूर थीं । प्राकृत-साहित्य में जो देश्य शब्द गृहीत हुए हैं, उनका स्रोत सम्भवतः ये ही मध्यदेश के बाहर की प्रादेशिक भाषाए हैं । इन लोक भाषाओं का कोई भी प्राक्तन या तत्कालीन रूप वैदिक भाषा का आधार या उद्गम स्रोत नहीं था; अतः इनसे आये हुए शब्दों के, जो देश्य नाम से अभिहित किये गये, अनुरूप संस्कृत में शब्द नहीं मिलते। देश भाषा : व्यापकता देशी भाषा या देशभाषा बहुत प्राचीन नाम है । प्राचीन काल में विभिन्न प्रदेशों की लोक- भाषाएं या प्राकृत देशी भाषा या देशभाषा के नाम से प्रचलित थीं । महाभारत में स्कन्द के सैनिकों और पार्षदों के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख है "वे सैनिक तथा पार्षद विविध प्रकार के धर्म अपने देह पर लपेटे हुए थे। वे अनेक भाषाभाषी थे । देशभाषाओं में कुशल थे तथा परस्पर अपने को स्वामी कहते थे ।"1 नाट्य शास्त्र में इसी प्रकार देश भाषाओं के सम्बन्ध में चर्चा है । वहां उल्लेख है । "अब मैं देशभाषाओं के विकल्पों का विवेचन करूंगा अथवा देशभाषाओं का प्रयोग करने वालों को स्वेच्छया वैसा कर लेना चाहिए ।" 2 कामसूत्र में भी लिखा है : "लोक में वही बहुमत या बहुसमाहत होता है, जो गोष्ठियों में न तो अधिक संस्कृत में और न अधिक देशभाषा में कथा कहता है ।"3 1 उदाहर न वाङमय में अनेक स्थानों पर देशी भाषा-सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते णार्थ, सम्राट् श्रोणिक के पुत्र मेघकुमार के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है : "तब वह मेघ १. नाना - चर्माभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत । - कुशला देशभाषासु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः ॥ -- महाभारत, शल्यपर्व, ४५, १०३ अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि देशभाषा विकल्पनम् । अथवाच्छन्दतः कार्या देशभाषाप्रयोक्तृभिः ॥ --नाट्यशास्त्र, १७, २४-२६ नात्यन्तं संस्कृतेनैव नात्यन्तं देशभाषया । कथां गोष्ठीषु कथयंलौके बहुमतो मवेत् ॥ - कामसूत्र, १.४. ५० २. 2010_05 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में प्रवीण हुआ । "1 ज्ञातृषमंकथासूत्र का एक दूसरा प्रसंग है : " वहां चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी । वह धन सम्पन्न तथा अठारह देशी भाषाओं में निपुण थी । "" 'वह दृढ़प्रतिज्ञ बालक" 'अठारह १४४ ] कुमार".". जैन वाडमय के और भी अनेक प्रसंग हैं । जैसे ". प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद था । "3 .......... हड़प्रतिज्ञ बालक 'अठारह देशी भाषाओं में चतुर था।" "वहाँ वाणिज्यग्राम में कामोद्ध वा नामक वेश्या थी, जो अठारह देशी भाषाओं में कुशल पी ।"5 इन प्रसंगों से यह अनुमित होता है कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जो लोकजनीन भाषाए या पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ के शब्दों में प्रथम स्तर की प्राकृत, जिन्हें सर जार्ज ग्रियर्सन ने Primary Prakrits कहा है, प्रचलित थीं, उन्हें देवभाषा या देशीभाषा के नाम से अभिहित किया गया है। इस सम्बन्ध में कतिपय पाश्चात्य भाषा-वैज्ञानिकों का मत है कि प्राकृत भाषाओं में जो देशी शब्द और धातुएं प्रचलित हैं, वे वास्तव में द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार से आई हैं, जो अनार्य भाषा-परिवार हैं; क्योंकि आर्यों के भारत आने से पूर्व यहां मुख्यतः द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार की भाषाएं बोलने वाले लोग बसते थे । आर्यों द्वारा भारत की भूमि ज्यों-ज्यों अधिकृत की जाती रही, वे ( अनायं) १. तते गं से मेहेकुमारे " होत्या । "अट्ठारसविहिपगारदेसी मासाविसारए - शातृधर्मकथा सूत्र, अ० १ २. तत्य णं चंपाए नयरीए देवदत्ता माम गणिया परिवसइ अड्ढा " 0.00 विसारया । ३. तए ण बढपद्दष्णे बारए -ज्ञातृधर्मकथा सूत्र, ३८.९२ ****** ... अट्ठा रस विहदे सिप्पगारभासा विसारए । - राजप्रश्नीय सूत्र, पत्र १४८ - ४. तन बढपणे दारए... अट्ठारसदेसीभासाविसारए । - औपपातिक सूत्र, अवतरण १०९ 2010_05 [ लण्ड : २ ५. लक्ष्य ण वाणियगामे कामज्झया णामं गणिया होत्या. अट्ठारसवेसीमासा विसारया । - विपाक श्रुत, पत्र २१.२२ 2004 'अट्ठा रसवेसीमाता Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १४५ अन्य सुरक्षित स्थानों की ओर सरकते रहे । बाद में वहां भी आयं 1 पहुंच गये । संघर्ष के बाद आर्य, अनायें दोनों जातियों के लोग वहां स्थिर हो गये । साथ-साथ रहने से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ना स्वाभाविक था । फलतः अनार्य भाषाओं के कुछ शब्द आर्यों की बोलचाल की भाषाओं ( या तत्कालीन प्राकृतों ) में समा गये 1 महाभारत का जो उद्धरण देश-भाषाओं के सम्बन्ध में पहले उपस्थित किया गया है, उसके सन्दर्भ पर गौर करने से उक्त तथ्य परिपुष्ट होता है । उन सैनिकों और पार्षदों की वेष-भूषा, चाल-ढाल, 2 आदि से प्रकट है कि वे सम्भवतः अनायं जाति के लोग थे । देवताओं के सेनापति और असुरों के विजेता के रूप में स्कन्द हिन्दू-शास्त्रों में समादृत हैं I १. सम्भवतः ये वे आर्य थे, जो आर्यों के दूसरे दल के मध्यदेश में आ जाने पर वहां से भाग उठे थे और मध्यदेश के पाश्ववर्ती क्षेत्रों में बस गये थे । इस सम्बन्ध में यथाप्रसंग चर्चा की जा चुकी है । २. नानावेषधराश्चैव नानामाल्यानुलेपनाः । नानावस्त्रधराश्चैव चर्मवासस एव च ॥ उष्णीषिणो मुकुटिनः सुग्रीवाश्च सुवर्चसः । किरीटिन: पंचशिखास्तथा कांचनमूर्धजाः ॥ त्रिशिखा द्विशिखाश्चैव तथा सप्तशिखा: परे । शिखण्डिनो मुकुटिनो मुण्डाश्च जटिलास्तथा ॥ चित्रमालाधराः केचित् केचित् रामाननास्तथा । विग्रे हरसा नित्यमजेयाः सुरसत्तमैः ॥ कृष्णा निर्मा सवत्राश्च दोर्धपृष्ठास्त दराः । प्रलम्बोदर मेहनाः ॥ स्थूलपृष्ठा ह्रस्वपृष्ठा महाभुजा ह्रस्वभुजा हस्वगात्राश्च वामनाः । कुब्जाश्च ह्रस्वजंघाश्च हस्तिकर्ण शिरोधराः ॥ हस्तिनासा कूर्मनासा वृकनासास्तथापरे । दीर्घोच्छ्वासा दोर्धजंघा विकराला हृयधोमुखाः ॥ महादंष्ट्रा हस्वदंष्ट्राश्चतुर्वास्तथा परे । वारणेन्द्र निभाश्चान्ये भीमा राजन् सहस्रशः ॥ सुविभक्तशरीराश्च दीप्तिमन्तः स्वलंकृताः । पिंगाक्षा: शंकुकणाश्च रक्तनासाश्च भारत । पृथुदंष्ट्रा महादंष्ट्रा स्थूलौठा हरिमूर्धजाः । नाना पादौष्ठदंष्ट्राश्च नानाहस्तशिरोधराः ॥ 2010_05 - महाभारत, शत्य पर्व, १४५. ९३-१०२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ ऐसा अनुमान है कि आदिवासियों की विभिन्न जातियों को उन्होंने संगठित किया हो । महाभारतकार उन भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों का विस्तृत वर्णन कर देने के बाद उन्हें देश-भाषाओं में कुशल बतलाते हैं । ___आर्थों और अनार्यों के पारस्परिक सम्पर्क तथा साहचर्य से प्रादेशिक भाषाओं ने एक विशेष रूप लिया हो । सम्भवतः उन्हें ही यहां देश-भाषा से संजित किया गया हो । पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ द्रविड़-परिवार तथा आग्नेय-परिवार की तमिल, कन्नड़, मुण्डा आदि भाषाओं से देशी शब्दों के आने पर सन्देह करते हैं । उनके कथन का अभिप्राय है कि ऐसा तभी स्वीकार्य होता, यदि अनार्य भाषाओं में भी इन देशी शब्दों तथा धातुओं का प्रयोग प्राप्त होता । सम्भवतः ऐसा नहीं है। ___ इस सम्बन्ध में एक बात और सोचने की है कि ये देशी शब्द अनार्य भाषाओं से ज्यों-केत्यों प्रादेशिक ( मुख्यतः मध्यदेश के चतुःपाश्र्ववर्ती ) प्राकृतों में आ गये, ऐसा न मान कर यदि इस प्रकार माना जाए कि अनार्य भाषाओं तथा उन विभिन्न प्रादेशिक प्राकृतों के सम्पर्क से कुछ ऐसे नये शब्द निष्पन्न हो गये, जिनका कलेवर सम्पूर्णत: न अनार्य-भाषाओं पर माधृत था और न प्राकृतों पर हो। उन देशी शब्दों के ध्वन्यात्मक, संघटनात्मक स्वरूप के विषय में निश्चत रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता । देशी शब्दों, देश-भाषाओं या देशी भाषाओं के परिपाश्वं में इतने विस्तार में जाने का एक ही अभिप्राय था कि प्राकृत के उद्भव और विकास पर कुछ और प्रकाश पड़े; क्योंकि यह विषय आज भी सन्दिग्धता की कोटि से मुक्त नहीं हुआ है। वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत का सादृश्य प्राकृतों अर्थात् साहित्यिक प्राकृतों का विकास बोलचाल की जन-भाषाओं, दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृतों से हुआ, ठीक वैसे ही जैसे वैदिक भाषा या छन्दस का । यही कारण है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ ऐसा सादृश्य, खोज करने पर प्राप्त होता है, जैसा प्राकृत और लौकिक संस्कृत में नहीं है। उदाहरणार्थ, संस्कृत ऋकार के बदले प्राकृत में अकार', आकार', इकार' तथा उकार होता है। ऋकार के स्थान में उकार की प्रवृत्ति १. ऋतोत् ॥८।१।१२६ आदेकारस्य अत्वं भवति। -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् २. आत्कृशा-मृदुक मृदुत्वे वा ॥८।१।१२७ एषु आदेत आद वा भवति। -वही इत्कृपादौ ॥८।१ । १२८ कृपा इत्यादिषु शब्देषु आदेऋत इत्वं भवति। --वही ४. उद्दत्वादौ ॥८।१।१३२ ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद्भवति। -वही ____ 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १४७ वैदिक वाङमय में भी प्राप्त होती है। जैसे, ऋग्वेद १. ४६. ४ में कृत के स्थान पर कुठ का प्रयोग है। अन्य भी इस प्रकार के प्रयोग प्राप्य हैं। प्राकृत में अन्त्य व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसे-यावत् = जाव, तावत् = ताव, यशस् = जसो । तमस् = तमो। वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र ऐसी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। जैसे-पश्चात् के लिए पश्चा ( अथर्ववेद संहिता १०.४.११ ), उच्चात् के लिए उचचा ( तैत्तिरीय संहिता २.३.१४ ), नीचात् के लिए नीचा ( तैत्तिरीय संहिता ४ ५.६१ )। प्राकृत में संयुक्त य, र, ७, श, ष, स् का लोप हो जाता है और इन लुप्त अक्षरों के पूर्व के हस्व स्वर का दीर्घ' हो जाता है। जैसे—पश्यति = पासइ, कश्यपः = कासवो, आवश्यकम् = आवसय, श्यामा = सामा, विश्राभ्यति = वीसमइ, विश्रामः = विसामो, मिश्रम् = मीसं, संस्पर्श: = संफासो, प्रगल्भ = पगल्भ, दुर्लभ = दुलह । पैदिक भाषा में भी इस कोटि के प्रयोग प्राप्त होते हैं। जैसे-अप्रगल्भ = अपगल्भ ( तैत्तिरीय संहिता ४.५.६१ ), त्र्यच = त्रिच ( शतपथ ब्राह्मण १.३.३.३३ ), दुर्लभ = दूलभ ( ऋग्वेद ४.६.८) दुर्णाश = दूणाश ( शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य ३.४३ )। प्राकृत में संयुक्त वर्गों के पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है। जैसे, ताम्रम् = तम्बं, विरहाग्निः = विरहग्गी, आस्यं = अस्सं, मुनीन्द्रः = मुणिन्दो, तोर्थम् = तित्थं, चूर्णः = चुण्णौ; इत्यादि । वैदिक संस्कृत में भी ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त होती है। जैसे-रोदसीप्रा = रोदसिप्रा (ऋग्वेद १०.८८.१०), अमात्र = अमत्र ( ऋग्वेद ३.३६.४ )। - प्राकृत में संस्कृत द के बदले अनेक स्थानों पर ड4 होता है। जैसे-दशनम् = डसणं, दृष्टः = डट्ठो, दग्धः = डड्ढ़ो, दोला = डोला, दण्ड = डण्डो, दरः = डरो, दाहः = डाहो, दम्भ = डम्भो, दर्भः = डब्भो, कदनम् = कडणं, दोहदः = डोहलो। वैदिक संस्कृत में भी यत्र-तत्र इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे-दुर्दभ = दूडभ ( वाजसनेय १. अन्त्यव्यंजनस्य । ८ । १ । ११ "शब्दानां यद् अन्व्यंजनं तस्य लुग भवति। -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् २. लुप्त य - र - व - श - ष - सां दीर्घः ॥ ८।१। ४३ प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि अधो बा येषां शकारषकारसकाराणां तेषामादे: स्वरस्य दीर्धा भवति । -वही ३. हस्वः संयोगे ॥८।१।८४ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । -वही ४. दशन - दष्ट - दग्ध - दोला - दण्ड - दर - दाह - दम्भ - दर्भ - कदन - दोहदे दो वा डः ॥ ८।१। २१७ एषु दस्य डो वा भवति। -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ संहिता ३.३६ ), पुरोदास = पुरोडाश ( शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य ३. ४४ )। प्राकृत में संस्कृत के ख, घ, थ तथा भ को तरह ध का भी ह' होता है । जैसे-साधु: = साहु, वधिरः = बहिरो, बाधते = बाहइ, इन्द्रधनुः = इन्दहणू, सभा = सहा। वैदिक वाङमय में भी ऐसा प्राप्त होता है। जैसे—प्रतिसंधाय = प्रतिसंहाय ( गौपथ ब्राह्मण २. ४ ) प्राकृत ( मागधी को छोड़ कर प्रायः सभी प्राकृतों ) में अकारान्त पुल्लिंग शब्दी के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में घो' होता है। जैसे—मानुषः = माणसो, धर्मः = धम्मो। एतत् तथा तत् सर्वनाम में भी विकल्प से ऐसा होता है। जैसे--सः = सो, एषः = एसो। वैदिक संस्कृत में भी कहीं-कहीं प्रथमा एकवचन में बो दृष्टिगोचर होता है। जैसेसंवत्सरौ अजायत ( ऋग्वेद संहिता १०.१६०.२ ) सो चित् ( ऋग्वेद संहिता १. १६१ - संस्कृत अकारान्त शब्दों में सि' (पंचमी) विभक्ति में जो देवात्, नरात, धर्मात् आदि रूप बनते है, उनमें अन्त्य त् के स्थान पर प्राकृत में छः आदेश होते हैं। उनमें एक त का लोप भी है। लोप के प्रसंग को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि पंचमी १. ख - घ - 2 - ध भाम् ॥८।१।१८७ स्वरात्परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख घ थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । -वही २. अतः सेझैः ॥ ८।३।२। अकारान्तान्नामः परस्य स्यादे: सेः स्थाने डो भवति। - वही ३. वेतत्तदः । ८ । ३ । ३ एतत्तदोरकारात्परस्य स्यादेः सेझै भवति। -वही ४. स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिसङ भ्यांभ्यसङसिभ्यांभ्यस्ङ सोसाम्ङ योस्सुप्। -अष्टाध्यायी ४।१।२ सु औ जस् इति प्रथमा । अम् औट शस् इति द्वितीया । टा भ्यां भिस् इति तृतीया। हु म्यां भ्यस् इति चतुर्थी । इसि भ्यां भ्यस् इति पंचमी । उस औस आम् इति षष्ठी । ङिऔ स सुप् इति सप्तमी। ५. डसेस् त्तौ - दो - दु - हि - हिन्तो - लुकः ॥ ३।१।८ . अतः परस्य उसेः तौ दो दु हि हिन्तो लुक् इत्येते षडादेशा भवन्ति । जैसे-वत्सात् = वच्छतो, वच्छाओ. वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो वच्छा। 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं [१४९ विभक्ति में एकवचन में ( अकारान्त शब्दों में ) आ प्रत्यय होता है। जैसे—देवात् = देवा, नरात् = णरा, धर्मात् = धम्मा; आदि । वैदिक वाङमय में भी इस प्रकार के कतिपय पंचम्यन्त रूप प्राप्त होते हैं । जैसे—उच्चात् = उच्चा, नीचात् = नीचा, पश्चात् = पश्चा। प्राकृत में पंचमी विभक्ति बहुवचन में भिस्1 के स्थान पर हि आदि होते हैं। जैसेदेवेहिः आदि। वैदिक संस्कृत में भी इसके अनुरूप देवेभिः, ज्येष्ठेभिः; गम्भीरेभिः आदि रूप प्राप्त होते हैं। ___ प्राकृत में एकवचन और बहुवचन ही होते हैं, द्विवचन नहीं होता। वैदिक संस्कृत में वचन तो तीन हैं, पर इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहां द्विधचन के स्थान पर बहुवचन के रूपों का प्रयोग हुआ है। जैसे—इन्द्रावरुणौ = इन्द्रावरुणा:, मित्रावरुणौ = मित्रावरुणा:, नरौ = नरा, सुरथौ = सुरथाः, रथितमौ = रथितमाः । वर्तमान युग के प्राकृत के महान् जर्मन वैयाकरण डा. पिशल ने विशाल ग्रन्थ Compara. tive grammar of the Prakrit Language में संस्कृत से प्राकृत के उद्गम का खण्डन करते हुए प्राकृत तथा वैदिक भाषा के सादृश्य के द्योतक कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं : त्वन प्राकृत भाषा वैदिक भाषा त्तण स्त्रीलिंग षष्ठी के एकवचन का रूप 'आए' आये तृतीया बहुवचन का रूप एहि एभिः बोहि ( आज्ञावाचक ) बोधि ता, जा, एत्थ तात, यात्, इत्था अम्हे अस्मे बग्गूहिं वग्नुभिः १. भिसो हि हि हिं ॥ ३ । १७ अतः परस्य भिसः स्थाने केवलः सानुनासिकः, सानुस्वारश्च हिर्भवति । -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् 2. ......This sanskrit was not the baris of the Prakrit dialects, which indeed dialect, which, on political or religions grounds, was rained to the states of a literary medium, But the difficulty is that it does not seem useful that all the Prakrit dialects sprang out from one and the same source, At least they could not have 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [खण्ड : २. . सद्धि आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन सघ्रीम् विदुः घ्रस विउ घिसु रुक्षव उपयुक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि प्राकृतों का उद्गम वैदिक भाषा-काल से प्राग्वर्ती किन्हीं बोलचाल की भाषाओं या बोलियों से हुआ, जैसे कि उन्हीं में से किसी बोली के आधार पर वैदिक भाषा अस्तित्व में आई। प्राकृत के प्रकार प्राकृतें जीवित भाषाए' थीं। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण स्वभाषप्त: उनके रूपों में भिन्नता आई। उन ( बोलचाल को भाषाओं या बोलियों ) के आधार पर जो साहित्यिक प्राकृत विकसित हुई; उनमें भिन्नता रहना स्वाभाविक था। इस प्रकार प्रादेशिक या भौगोलिक आधार पर प्राकृतों के कई भेद हुए । उनके नाम प्रायः प्रदेश-विशेष के आधार पर रखे गये । नाचार्य भरता ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, वाह्नीका और दाक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है। प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृतप्रकाश' के प्रणेता पररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पेशाची; इन भेदों का वर्णन किया है। चण्ड ने मागधी को मागधिका और पैशाची को पैशाचिकी के नाम से उल्लिखित किया है। developed out of Sanskrit, as is generally held by Indian Scholars and Hobber, Lassen, Bhandarkar and Jacoby, All the Prakrit languages have a series of comman grammatical and lexical characteristics with the vedic language and suchare signifi cantly missing from Sanskrit. १. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वालोका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकोर्तिताः॥ -नाट्यशास्त्र; १७-१८ २. प्राकृतप्रकाश, १०. १-२, ११. १, १२. ३२ ३. पैशाचिक्यां रणयोलनौ । मागविकायां रसयोलशो ॥ -प्राकृत-लक्षण ३. ३८-३९ 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य मध्यकालीन भारतीय आय भाषाएं [ १५१ छठी शती के सुपसिद्ध काव्यशास्त्रो दण्डी ने काव्यादर्श' में प्राकृतों की भी चर्चा की है। उन्होंने महाराष्ट्रो ( महाराष्ट्राश्रया ), शौरसेनी, गौड़ी और लाटी; इन चार प्राकृतों का उल्लेख किया है। __ आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वणित चार भाषामों के अतिरिक्त आर्ष, चूलिका पेशाची और अपभ्रश; इन तीनों को प्राकृत भेदों में और बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अद्धमागधी को आर्ष कहा है। त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत-भेदों का प्रतिपादन किया है। अन्तर केवल इतना-सा है, इनमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अद्धमागधी ( जो जैन आगमों की भाषा है ) के प्रति विशेष आदरपूर्णभाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष- नाम से अभिहित किया । मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपनश और पैशाच; इन चार भागों में बांटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है : १. भाषा-महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी । २. विभाषा-शाकारी, चाण्डालो, शबरी आभीरिका और टाक्की । ३ अपभ्रंश-नागर, ब्राचड़ तथा उपनागर । ४. पैशाच-कैकय, शौरसेन एवं पांचाल । नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, आभार, चाण्डाल, शबर, द्रमिल, आन्ध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है। मार्कण्डेय ने भाषा, विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत-चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं, छः धिभाषाओं, ग्यारह पिशाच-भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा की है। इनमें महाराष्ट्री, आधन्ती, शौरसेनी, अद्ध१. महाराष्ट्राश्रयां भाषां, प्रकृष्ट प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां, सेतुबन्धादि यन्मथम् ॥ शौरसेनी च गौडो च, लाटी चान्या च तादृशी। . याति प्राकृतमित्येवं, व्यवहारेषु सन्निधिम् ॥ -काव्यादर्श, २३४-३५ २. ऋषीणामिदमार्षम् । 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ मागधी, वाहीकी, मागधी, प्राच्या तथा दाक्षिणात्या; ये माठ भाषाएं, छः विभाषाओ में से द्राविड़ और ओज; ये दो विभाषाए, ग्यारह पिशाच भाषाओं में से कांचीदेशीय, पाण्ढ्य, पांचाल, गौड़, मागध, ब्राचड़, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़; ये दश पिशाच-भाषाए तथा सताईस अपभ्रंशों में ब्राचड़, लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उडू, हैव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिंग, प्राच्य, कार्णाट, काञ्च, द्राविड़, गोर्जर, आभीर और मध्यदेशीय; ये तैबीस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं। जिन-जिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन था, वं बोलियां उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं। इतनी लम्बी सूची से आश्चर्यान्धित होने को आवश्यकता नहीं है। किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्नभिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और प्रदेश के नामों के अनुरूप उन उपभाषाओं या बोलियों के नाम पड़ जाते हैं। यद्यपि किसी एक भाषा की इस प्रकार की उपभाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नही होता, पर, यत्किंचित भिन्नता तो होती ही है। उदाहरण के लिए राजस्थानी भाषा को लिया जा सकता है। सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है। पर, बीकानेर-क्षेत्र में उसका जो रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है । जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप उससे और भिन्न है । इसी प्रकार चित्तौड़, डूगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर-मेरवाड़ा, कोटा-बूदी आदि हाड़ोती का क्षेत्र, जयपुर या ढूंढाड़ का भाग, अलवर सम्भाग, भरतपुर और बोलपुर मण्डल; इन सबमें जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियां थोड़ी-बहुत भिन्नता लिये हुए हैं। कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं, परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भूभागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण अपनी क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक भिन्नताओं या विशेषताभों के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनको बोलियों पर पृथक्-पृथक् प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य मा ही जाता है। पिशाच-भाषाओं और अपनशों के जो अनेक भेद उल्लिखित किये गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रंश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उपबोलियों के सूचक हैं। प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर विस्तृत विचार आगे किया जाएगा। यहां तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन मात्र किया गया है । प्राकृतों का विकास : विस्तार : पृष्ठभूमि पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही कुछ भेद उपलब्ध होते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे साजाओं के पुराण-प्रसिद्ध युद्धों की 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] मध्यकालीन भारतीय आय भाषाएं खला इसकी परिचायक है। आर्यों के भारत में आगमन, प्रसार आदि के सन्दर्भ में विभिन्न प्रसंगों में अपेक्षित चर्चा की गयी है। उसके प्रकाश में कुछ चिन्तन अपेक्षित है। भारत में आने वाले आयं पश्चिम में टिके, मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर सम्भवतः मगध तक उनका पहुंचना नहीं हुआ होगा । हुआ होगा तो बहुत कम । ऐसा प्रतीत होता है कि कौशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े । मगध आदि भारत के पूर्षीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक संस्कृति के चिह्न नहीं प्राप्त होते । ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में बहुत बाद में पहुंची, भगवान महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियों पूर्व । वेदमूलक आर्य-संस्कृति के पहुंचने के पूर्व मगध आर्यों की दृष्टि में निन्ध था। निरुक्तकार यास्क ने मगध को अनार्यों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकट शब्द माया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है । ब्राह्मण-काल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का - सा व्यवहार रहा था । शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिसमें निम्नता या घृणा का भाव था। पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आयं जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओय. विशेषतः पूर्व की ओर बस गये, तो उनका भगाने वाले ( बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए ) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहुत सम्भाव्य है । उनका वहां के मूल निवासियों से मेलजोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेलजोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, इस प्रकार एक मिश्रित नृवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो । वैदिक वाङमय में प्राप्त वात्य शब्द सम्भवतः इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का द्योतक है, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे। व्रात्य शब्द की विद्वानो ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह हैं कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर प्रतधारी यायावर सन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, प्रात्य कहे जाते थे। व्रात्यों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक म्यवस्था है। यदि वे शुद्ध होना चाहते, तो उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप शुद्ध यथं यज्ञ करना पड़ता। बात्य-स्तोम में उसका वर्णन है। उस यज्ञ के करने के अनन्तर वे बहिभूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिये जाते थे। भगवान् महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियां पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे माय, वो 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहुंच गये हों। व्रात्य-स्तोम के अनुसार प्रायश्चित के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम, बहिष्कृत आर्यों का वर्ण-व्यवस्था में पुनः ग्रहण इत्यादि तश्य इसके परिचायक हैं। पूर्व के लोगों को पश्चिम के आर्यों ने अपनी परम्परा से बहिर्भूत मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिर्भूत नहीं माना। ब्राह्मण-साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में व्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि वे अदुरुक्त को भी दुरुक्त 1 कहते हैं अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं । व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषा-प्रियता का परिचायक है। संस्कृत की तुलना में प्राकृत में बेसी सरलता है हो । इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है कि यहां प्राकृत-भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं। व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण, के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असुरों के पराभूत होने का जो उल्लेख किया गया है; वहां उन्होंने उन पर है अरय: के स्थान पर हैलयः प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में रा के स्थान पर ल की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में बहुत पहले हो चुका था । उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हुआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है । उसका काल ई० पू० चौथी शतो है। यह स्थान पूर्वी प्रदेश के अन्तर्गत पाता है। इसमें र के स्थान पर ल का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। ___ ऐसा भो अनुमान है कि पश्चिम के आर्यो द्वारा मगध आदि पूर्वीय भूभागों में याज्ञिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयाण किया गया होगा। उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही, एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर, जन-साधारण तक सम्भवतः वह सफलता व्याप्त न हो सकी। . . भगवान् महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्मकाण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्म-गत उच्चता आदि के प्रतिकूल एक व्यापक आन्दोलन का समय था। जन-साधा१. अदुरुक्तवाक्यं दुरुक्तमाहुः ! -ताण्ठ्य महाब्राह्मण, पंचविंश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हैलय इति कुवन्तः पराबभूवुः । तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वे नापभाषित ६. व। म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः। -महाभाष्य, प्रथम माह निक, पृ० ६ 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य मध्यकालीन भारतीय आय भाषाएं [ १५५ रण का इससे प्रभावित होना स्वाभाविक था ही, सम्ध्रान्त कुलों और राज-परिवारों तक पर इसका प्रभाव पड़ा | महावीर और बुद्ध के समकालीन कुछ और भी धर्माचार्य थे, जो अपने आपको तीर्थ कर कहते थे। पूरण कश्यप, मक्खलि गोसाल, अजितकेसकंबलि, पकुध कच्चायन तथा संजयवेलट्ठिपुत्त आदि उनमें मुख्य थे। बौद्ध वाङमय में उन्हें अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद के प्रवतंक कहा गया है। यद्यपि आचार-विचार में उनमें भेद अवश्य था, पर, वे सबके सब श्रमण-संस्कृति के अन्तर्गत माने गये हैं। ब्राह्मण-संस्कृति यज्ञ-प्रधान यो और श्रमण-संस्कृति त्याग-वैराग्य और संयम-प्रधान । श्रमण शब्द को विद्वानों ने कई प्रकार से व्याख्या की है। कुछ विद्वानों ने इसे श्रम, सम और शम पर आधृत माना है। फलतः तपश्चर्या का उग्रतम स्वीकार, जातिगत जन्मगत उच्चत्व का बहिष्कार तथा निर्वेद का पोषण; इन पर इसमें अधिक बल दिया जाता रहा है । श्रमण-परम्परा के अन्तर्वर्ती ये सभी आचार्य याज्ञिक तथा कर्मकाण्ड-बहुल संस्कृति के विरोधी थे। यह एक ऐसी पृष्ठभूमि थी, जो प्राकृतों के विकास और व्यापक प्रसार का आधार बनी। भगवान महावीर और बुद्ध ने लोक-भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। सम्भव है, उपयुक्त दूसरे धर्माचार्यों ने भी लोक-भाषा में ही अपने उपदेश दिये होंगे। उनका कोई साहित्य आज प्राप्त नहीं है। ___ महावीर और बुद्ध द्वारा लोक-भाषा का माध्यम स्वीकार किये जाने के मुख्यतः दो कारण सम्भव हैं । एक तो यह हो सकता है, उन्हें आर्यक्षेत्र में व्याप्त और व्याप्यमान याज्ञिक व कर्मकाण्डी परम्परा के प्रतिकूल अपने विचार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' जनजन को सीधे पहुंचाने थे, जो लोक-भाषा द्वारा ही सम्भव था। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि संस्कृत के प्रति भाषात्मक उच्चता किंवा पवित्रता का भाव था, जो याज्ञिक परम्परा और कर्म-काण्ड के पुरस्कर्ता पुरोहितों की भाषा थी । उसका स्वीकार उन्हें संकीर्णतापूर्ण लगा होगा, जो जन-मानस को देखते यथार्थ था। प्राकृतों को अपने उपदेश के माध्यम के रूप में महावीर और युद्ध द्वारा अपना लिये जाने पर उन्हें (प्राकृतों को ) विशेष वेग तथा बल प्राप्त हुआ। उनके समय में मगध ( दक्षिण बिहार ) एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। उत्तर बिहार में वज्जिसंध के कतिपय गणराज्य स्थापित हो चुके थे और कौशल के तराई के भाग में भी ऐसी ही स्थिति थी । महाघोर धज्जिसंघ के मन्तघर्ती लिच्छवि गणराज्य के थे और बुद्ध कौशल के अन्तर्घर्ती मल्लगणराज्य के । यहां से प्राकृतों के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का काल गतिशील होता है । तब तक प्राकृत ( मागधी ) मगध साम्राज्य, जो मगध के चारों और दूर-दूर तक फैला हुआ था, में राज-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। प्राकृतों का उत्कर्ष 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ केवल पूर्वीय भूभाग तक ही सीमित नहीं रहा। वह पश्चिम में भी फैलने लगा। लोग प्राकृतों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का होत्र बढ़ने लगा। बोलचाल में तो वहां (पश्चिम) भी प्राकृतें पहले से थी ही, उस समय वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्याय लोकजनोन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगी। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा। फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवद्ध नशील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हुई। तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था। उस समय उसमें अनेक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, अर्थनीति, राजनीति, सदाचार, समाजव्यवस्था, लोक-रंजन; प्रभृति जीवन के विविध अंगों का संस्पर्श करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी। प्राकृत में यह सब चल रहा था। लोक-जीवन में रची-पची होने के कारण लोक-चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी; अतः उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सृजन हुआ, उसमें चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का । उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा सकता है। महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संवद्धित होता रहा है। उसमें श्रमण-संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चचित हुए हैं, वे सब इसी स्थिति के परिणाम हैं। भाषा-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। . एतन्मूलक (संस्कृत) साहित्य प्राकृत-भाषी जन-समुदाय में भी प्रवेश पाने लगा। इस क्रम के बीच प्रयुज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ । यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवर्तन का अवकाश नहीं है, पर, फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने योग्य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है, तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसा समाविष्ट होने लगता है, जो उन अन्य भाषा-भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकूलता लाने वाली होती है। उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है। उसका शब्द-कोश भी समृद्धि पाने लगता है। शब्दों के अर्थों में भी यत्र-तत्र परिवर्तन हो जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है, वे नये-नये अर्थ ग्रहण करने लगते हैं। विकल्प बोर अपवाद कम हो जाते हैं। साथ-ही-साथ यह घटित होता है, जब अन्य भाषा-भाषी किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं, तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। सब कुछ होते हुए भी भगवान् महावोर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोत्तर गतिशील ____ 2010_05 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' [ १५७ और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपर्युक्त रूप में सरलता और लोकजनीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी। अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषतः विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गयी। लम्बे-लम्बे समास, दुरूह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर, कृत्रिमतापूर्ण पद-रचना और वाक्य-रचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया। सामान्य पाठकों की पहुंच उस तक कैसे होती? उपयुक्त विविध परिस्थितियों के परिपाश्व में प्राकृत भाषा के विभिन्न पहलुओं पर अग्रिम अध्यायों में चिन्तन करना मुख्य अभिप्रेत है। ____ 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाली-भाषा और पिटक-वाङमय | Pali Language and The Buddhist Canonical Literature ) ____ 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारतीय आर्य भाषा-काल या प्राकृत-काल का समय ईस्वी पूर्व पांचवी शती से ईस्वी सन् के आरम्भ तक का माना गया है। इसमें पालि और शिलालेखी प्राकृत ली गयी हैं। जिस भाषा में भगवान बुद्ध की वाणी त्रिपिटक के रूप में अवस्थित है, जिसमें तत्परक तदुपजोवो विशाल वाङमय बौद्ध भिक्षुओं और मनीषियों द्वारा प्रणीत हुआ, वह भाषा पालि के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु, भाषा के लिए पालि शब्द का प्रयोग बहुत प्राचीन नहीं है। पिटक-साहित्य में उसकी भाषा के लिए पालि का कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ। लगभग १४ वीं शती के अनन्तर इस शब्द का प्रयोग भाषा के अर्थ में आरम्भ हुआ। पालि शब्द का इतिहास आचार्य बुद्धघोष ( चौथी-पांचवीं ईसवी शती ) ने विसुद्धिमग्ग और अट्ठकथाओं में पहले-पहल पालि शब्द का भगवान बुद्ध के वचन या मूल त्रिपिटक के लिए प्रयोग किया । दोघनिकाय को अट ठकथा सुमगल विलासिनी को सामअफलसुत, वणना, धम्मसंगणि की अट्ठकथा अटुसालिनी तथा पुग्गलपति अट्ठकथा में भी उन्होंने पालि शब्द का इस अभिप्राय से व्यवहार किया है। आचार्य बुद्धघोष पालि का प्रयोग त्रिपिटक के पाठ के अर्थ में भी करते हैं। मूल त्रिपिटक या त्रिपिटक-पाठ कोई भिन्न नहीं है, केवल कथन-प्रकार का अन्तर है। जहां आचार्य बुद्धवोष को त्रिपिटक के पाठान्तर को संकेतित करना अपेक्षित हुआ, वहां उन्होंने पाठ के लिए पालि शब्द का व्यवहार किया है। उदाहरणार्थ, सुमंगल विलासिनी के सामञ्जफलसुत्तवण्णना में महच्चराजानुभावेन पद आया है। आचार्य बुद्धघोष ने इसका अर्थ महता राजानुभावेन किया है। 'महच्च' के स्थान पर महच्चा पाठ भी है, ऐसा सूचित करने के लिए महच्च इति पि पालि अर्थात् महच्चा ऐसा पाठ भी है, इस प्रकार उल्लेख किया गया है। ___ चौथी शताब्दी में लंका में दीपवंश ग्रन्थ लिखा गया। यह आचार्य बुद्धघोष से कुछ ही समय पहले की रचना है । वहां पालि शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के अर्थ में हुआ है । आचार्य बुद्धघोष के पश्चात् लंका में बौद्ध आचार्य और लेखक उपयुक्त दोनों अर्थों में, जो वस्तुत: एक ही हैं, पालि का प्रयोग करते देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ, पांचवीं-छठी शती में हुए आचार्य धर्मपाल ने खुद्दकनिकाय के कतिपय ग्रन्थों की अट ठकथा के रूप में परमत्यदीपमो की रचना की । उसमें उन्होंने मूल त्रिपिटक के अर्थ में पालि शब्द का प्रयोग किया है। तेरहवीं पाती 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ में रचे गये चूलवंस में भी पालि शब्द का प्रयोग बुद्ध-धवन के अर्थ में हुआ है । चूलवंस महावंस (५वीं शती) का उत्तरकालीन परिवद्धित अंश है। उसके अनन्तर १४वीं शती में रचित सद्धमसंगह में भी पालि शब्द को उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। चौथी शती से १४वीं शती तक पालि शब्द बुद्ध-वचन या त्रिपिटक के पाठ के रूप में व्यवहत होता रहा है। चौथी शती से पूर्व के पिटक-साहित्य और तदुपजीवी साहित्य में पालि शब्द का प्रयोग बुद्ध वचन के अर्थ में नहीं प्राप्त होता; अतः यह विचारणीय है कि भाचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द का उपयोग मूल त्रिपिटक या त्रिपिटक-पाठ के अर्थ किस माधार पर किया ? वह कौन-सी परम्परा थी, जिसका अवलम्बन दीपवंसकार और आचार्य बुद्धघोष ने लिया, इस पर विशेष रूप से विचार किया जाना अपेक्षित है। शब्दों की ध्वनियों, रूपों व अर्थ का संकोच, विकास, परिवर्तन आदि अकस्मात् नहीं होते। उनके पीछे भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से एक कारण-परम्परा रहती है, जिसका बाह्य रूप स्पष्ट नहीं दीखता, पर, गवेषणा करने पर उसका ओर-छोर मिल जाता है । पालि सब्द की व्याख्या विश्लेषण ___भारतीय विद्या ( Indology ), विशेषत: संस्कृत, पालि, प्राकृत पर विशेष कार्य करने पाले कतिपय विद्वानों ने पालि शब्द का अनेक प्रकार से व्याख्यान-विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। संस्कृत में पालि शब्द का अर्थ क्ति है। पं० विधुशेखर भट्टाचार्य ने इसी अयं को मुख्यता देते हुए पालि शब्द की बुद्ध-वचन या त्रिपिटक-पाठ के साथ अर्थ-संगति करने का प्रयत्न किया है। पालि धामय में पानि शब्द बुद्ध-धचन के साथ-साथ पंक्ति अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। श्री भट्टाचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि पंक्त्यर्थक पालि शब्द आगे चल कर अन्य की पंक्ति के अर्थ में स्वीकार कर लिया गया। यही कारण है कि दीपवंसकार और प्राचार्य बुद्धघोष ने त्रिपिटक या त्रिपिटक-पाठ के अर्थ में इसे अपना लिया । श्री भट्टाचार्य पंक्ति शब्द पालि शब्द तक पहुंचने का क्रम इस प्रकार मानते हैं : पंक्ति> पन्ति > पत्ति> पट्ठि> पल्लि>पालि । विद्वानों ने इस मत पर विशेष ऊहापोह किया है। भिक्षु जगदीश काश्यप ने पालिमहाव्याकरण 1 में इस मत की समीक्षा की है । उन्होंने इसमें तीन प्रकार की असंगतियों का उल्लेख किया है। पालि या पंक्ति का ग्रन्थ की पंक्ति अर्थ किया जाना उन्हें संगत नहीं लगा। उनका कथन है कि पंक्ति लिखित ग्रन्थ की होती है। पिटक ई० पू० प्रथम शती से पहले लेख-बद्ध नहीं हुए थे; अतः उस समय अर्थात् ई० पू० प्रथम शती से पहले त्रिपिटक के पाठ के लिए ग्रन्थ-पंक्ति की कल्पना संगत नहीं हो सकती। पालि शब्द को पंक्ति-अर्थ में १. पालि-महाव्याकरण, पृ० ८ ( वस्तुकथा ) ___ 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय १६३ वे सर्वथा अप्रयुक्त मानते हैं । पदि पालि शब्द का अर्थ पंक्ति होता, तो उस अवस्था में उदानपालि जैसे प्रयोगों में उदान-पंक्ति ऐसा अर्थ करने से कोई संगत आशय नहीं निकलता। व्याकरण की दृष्टि से एक पहलू पर वे और प्रकाश डालते हैं कि पालि शब्द पंक्तिवाची होता, तो उसका बहुवचन में प्रयोग मिलना चाहिए था। पर, ऐसा नहीं मिलता। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने इस प्रसंग में लिखा है-"भिक्षु जगदीश काश्यप ने को आपत्तियां उठाई हैं, उनमें से प्रथम के उत्तर में आंशिक रूप में कहा जा सकता है कि त्रिपिटक की अलिखित अवस्था में 'पालि' या 'पंक्ति' शब्द से तात्पर्य केवल शब्दों की पठित पंक्ति से लिया जाता रहा होगा और उसके लेख-बद्ध कर दिये जाने पर उसकी लिखित पंक्ति हो पालि कहलाई जाने लगी होगी।"1 पंक्ति शब्द के माशय के सम्बन्ध में डा० उपाध्याय जो कल्पना करते हैं, वह चिन्त्य प्रतीत होती है। अलिखित ग्रन्थ अर्थात् मौखिक परम्परा में अवस्थित शास्त्र-विशेष का विभाजन गाथाओं, श्लोकों, पदों आदि में होता है, पंक्तियों में नहीं। पंक्ति में अक्षरों के परिमाण की कोई इयत्ता नहीं होती। पत्र का जितना विस्तार होता है, उसके अनुरूप छोटी या बड़ी पंक्ति होती है । भिक्षु जगदीश काश्यप भिक्षु जगदीश काश्यप ने पालि-महाव्याकरण में पालि का व्यौत्पत्तिक विश्लेषण करते हुए इसे 'परियाय' शब्द से जोड़ा है। परियाय शब्द का त्रिपिटिक में अनेक बार प्रयोग हुआ है-अकेले भी और 'धम्म' शब्द के साथ भी। भिक्षु जगदीश काश्यप ने अनेक संदर्भो से यह स्पष्ट किया है कि परियाय शब्द का प्रयोग बुद्ध के उपदेश या वचन के अर्थ में हुआ है। परियाय शब्द ही आगे चलकर पलियाय के रूप में परिवर्तित हो गया। अशोक के भाव शिलालेख में पलियाय शब्द व्यवहृत हुआ है। वहां अशोक का मगध के भिक्ष ओं को उद्दिष्ट कर सन्देश है—'भन्ते ! ये धम्मपलियाय हैं । मैं चाहता हूं कि सभी भिक्षु तथा भिक्षणियां, उपासक तथा उपासिकाएं इन्हें सुनें, धारण करें।": * पलियाय शब्द का पूर्वाद्ध 'पलि', जो उपसर्ग प्रतोत होता है, का प्रथम अक्षर 'प' 'पा' के रूप में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार पलियाय का पालियाय बन गया । संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से उसका उत्तराद्ध' लुप्त हो गया और पूर्वाद्ध मात्र पालि बचा रह गया। उसका प्रयोग मूल त्रिपिटक के अर्थ में बद्धमूल हो गया। १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ७, ८ २. इमानि भन्ते धम्मपलियायानि-एतानि भन्ते धम्मपलियायानि इच्छा मि किं ति बहुके भिखुपाये चा भिबुनिये या अभिखिनं सुनयु चा उपधालेयेयु चा। हैवं मैव उपासका चा उपासिका चा । 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ भिक्षु सिद्धार्थ ..' भिक्ष सिद्धार्थ ने पालि शब्द का सम्बन्ध पाठ शब्द से बताया है। उनका मन्तव्य है कि वैदिक परम्परा में पाठ शब्द का विशेष महत्व रहा है। वस्तुतः संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा-पाठ और धन-पाठ के रूप में वेदों के पाठ की एक वैज्ञानिक परम्परा थी। भिक्ष सिद्धार्थ का प्रतिपादन है कि बुद्ध के समय में भी वेद-पाठी ब्राह्मणों में पाठ शब्द का प्रचलन था। बुद्ध के धर्म-संघ में जहां क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रविष्ट हुए, वहां अनेक ब्राह्मण भी उसमें सम्मिलित हुए। किसी भी जाति या वर्ग में एक संस्कार होता है, जो धार्मिक आस्था के बदलने के बाद भी बदल नहीं पाता। बौद्ध धर्म में दोक्षित ब्राह्मण जिस प्रकार वेद-वाक्यों के लिए पाठ शब्द का प्रयोग करते रहे थे, बुद्ध-वचनों के लिए भी उन्होंने पाठ शब्द का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। बुद्ध के लिए जहां उनके श्रद्धालु अन्तेषासियों और अनुयायियों द्वारा और अनेक विशेषण दिये गये, वहां उनके लिए वेदज्ञ, वेदान्तश जैसे विशेषण भी प्राप्त होते हैं। ये विशेषण बहुत सम्भव है, ब्राह्मण-परम्परा से आने वाले अन्तेवासियों ने श्रद्धाभिनत होकर प्रयुक्त किये हों। अन्य भी ऐसे शब्दों को भिक्षु सिद्धार्थ ने प्रस्तुत किया है, जो मूलतः वैदिक परम्परा से सम्बद्ध थे, पर, बाद में नये स्वरूप के साथ बौद्ध संघ में स्वीकृत हो गये । उदाहरणार्थ, संहिता, तन्त्र और प्रवचन वैदिक परम्परा के शब्द हैं। बौद्ध संघ में संहिता के स्थान पर सहित, तन्त्र के स्थान पर तन्ति और प्रवचन के स्थान पर पावचन हो गया। ऐसी स्थिति में पाठ शब्द भी यदि बौद्ध संस्करण प्राप्त कर ले, उसे असम्भव नहीं कहा जा सकता। पालि-व्याकरण का नियम है कि सभी मूद्धन्य व्यंजन ( ट , , , , ण् ) पालि में ळ हो जाते हैं। भिक्ष सिद्धार्थ का कहना है कि इसी नियम के अनुसार पाठ का पाळ हो गया। वही आगे चलकर पाळि के रूप में परिवर्तित हो गया। भाषाविज्ञान की दृष्टि से तो ऐसा होना असम्भव नहीं कहा जा सकता; क्योंकि पालि और प्राकृत में अन्त्य-स्वर-परिवर्तन का क्रम देखा जाता है। पालि शब्द में जो ल व्यंजन है, वह अन्तःस्थ ल नहीं है, अपितु वैदिक भाषा में व्यवहृत मूद्धन्य ळ. ध्वनि के समकक्ष है। आधुनिक भाषाओं में से कुछ में यह ध्वनि लुप्त हो गयी। कुछ में इसका 'ड' के रूप में विकास हो गया। सूक्ष्मता में न जा कर ळ. और लू के उच्चारण में भेद किये जाने की स्थिति न रही, वहां मिथ्या सादृश्य के आधार पर पालि शब्द को पाळि के साथ मिला दिया गया। ऐसा होने पर पाळि के स्थान पर पालि शब्द का बुद्ध-वचन के लिए व्यवहार चल पड़ा। भिक्ष सिद्धार्थ ने पालि के विकास का जो इतिहास और क्रम प्रस्तुत किया है, भाषा ____ 2010_05 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय विज्ञान की दृष्टि से उसमें औचित्य है। जिस प्रकार भिक्ष जगदीश काश्यप का मत ध्वनिपरिवर्तन-सम्बन्धी नियमों पर खरा उतरता है, उसी प्रकार भिक्ष, सिद्धार्थ का मत भी ध्वनि-परिवर्तन के नियमों के अनुरूप प्रतीत होता है। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने भिक्ष, सिद्धार्थ के मत की निर्बलता बताते हुए लिखा है-"उन्होंने पाठ शब्द का विकृत रूप पाळ बताया है और फिर उससे पाळि या पालि शब्द की व्युत्पत्ति की है। इसे ऐतिहासिक रूप से ठीक होने के लिए यह आवश्यक है कि पाळ शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में उपलब्ध हो। तभी उसके आधार पर पाळि शब्द की व्युत्पत्ति की स्थापना की जा सकती है। ऐसा कोई उदाहरण भिक्ष सिद्धार्थ ने अपने उक्त निबन्ध में नहीं दिया। आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं, उनमें भो 'इति पि पाठो' ही बुद्धघोषोक्त वचन है। डा० उपाध्याय ने भिक्ष सिद्धार्थ के मत की जो आलोचना की है, वह यथार्थ है। केवल व्याकरण के आधार पर किसी शब्द को सिद्ध कर देने मात्र से कोई प्रयोजन फलित नहीं होता। शब्द के एक विशेष रूप के किसी विशेष अर्थ के साथ जुड़ने के सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रामाण्य की नितान्त आवश्यकता होती है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पाठ शब्द से पाळि या पालि बनाने में पाळ शब्द का क्रम बोच में रहा हो, पर, हो सकता है कि वह प्रयोग में न आया हो। आया भी हो तो सम्भवत: बहुत ही कम आया हो और काल के लम्बे व्यवधान के बिना पाळ (पालि) शब्द चल पड़ा हो, वही विशेषतः प्रयुक्त होने लगा हो । पर, ये केवल सम्भावनाए ही हैं। वास्तव में भिक्ष, सिद्धार्थ का मत कम स्वाभाविक प्रतीत होता है। डा० मैक्सवेलसेर ____ जर्मन विद्वान् डा. मैक्सवेलसेर ने लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व पालि के सम्बन्ध में अपना नया अभिमत व्यक्त किया था। उन्होंने पालि का आधार पाटलि माना । उनके अनुसार पाटलि के बदले पाडलि भी माना जा सकता है, उनका प्रतिपादन है कि पाटलिपुत्र ( पटना क्षेत्र ) की भाषा का नाम पाटलि रहा हो। संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से बीच के ट को लुप्त कर 'पालि' बना दिया गया हो। पाटलिपुत्र मगध साम्राज्य का केन्द्र था, राजगृह के पश्चात् राजधानी भी; इसलिए वहां की भाषा राजभाषा या केन्द्रीय भाषा के रूप में मान्य हो सकती थी । १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ६ 2010_05 | Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ क्या पाटलि नाम की कोई भाषा रही है ? जितना भी साहित्य उपलब्ध है, कहीं भी उसमें किसी भाषा विशेष के लिए पाटिल शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। यदि पाटिलपुत्र क्षेत्र की भाषा इस नाम से प्रसिद्ध होती, तो कहीं-न-कहीं उसका उल्लेख अवश्य होता । वस्तुतः डा० मैक्सवेलसेर का मत किसी प्रबल पृष्ठभूमि पर नहीं टिका है। अतएव यह मत विद्वत्समाज में आदृत नहीं है। इसमें ऐतिहासिक सत्य के स्थान पर हा० मैक्सवेलसेर का कल्पना-पटुत्व या बुद्धि-वैचित्र्य ही अधिक प्रतीत होता है। डा. थामस ने इस मत का अनेक युक्तियों द्वारा प्रतिवाद किया है। कुछ विद्वानों ने पालि शब्द को पल्लि से जोड़ने का प्रयत्न किया है। संस्कृत में पल्लि का अर्थ छोटा गांव, झोपड़ी, घर या पड़ाव है। उन्होंने उसे पल्लि की भाषा या गांव की भाषा बताना चाहा है। इस प्रकार इसे जन-साधारण की भाषा से जोड़ने का उनका भाव अनुमित होता है । सम्भवतः उन्होंने पल्लि से पाल्लि और पाल्लि से इसके पालि के रूप में विकसित होने की उद्भावना की। यह भी एक मात्र काल्पनिक-सा कथन है। इतिहास और परम्परालभ्य प्रमाणों का कोई आधार इसके साथ नहीं है । फलतः विद्वज्जगतू में इसे मान्यता नहीं मिली। भण्डारकर और वाकेटनागल भण्डारकर और वाकेटनागल के मतानुसार पालि सबसे पुरानी प्राकृत है; अतः पालि शब्द प्राकृत से ही बना है। जैसे-प्राकृत > पाकट > पाअड > पाअल > पालि । इसे कुछ और परिष्कृत रूप में उपस्थित किया जाये, तो पालि तक विकास होने में एक रूप का व्यवधान और भी हो सकता है। जैसे-प्राकृत > पाकट > पाअड > पाल > पाल > पालि। यह व्युत्पत्ति भी वास्तविक कम और मानुमानिक अधिक है। प्राकृत से वास्तव में कोई एक भाषा नहीं समझी जाती। उसके प्रादेशिक दृष्ट्या कई भेद हैं। पालि उसके किसी एक भेद पर आधृत है; इसलिए उस भेद के साथ शाब्दिक सम्बन्ध जाड़े जाने का प्रयास किया जाता, तो एक बात थी। पर, सीधे प्राकृत से उसका शाब्दिक सम्बन्ध जोड़कर एक कल्पित विकास-क्रम का स्वरूप उपस्थित करना ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों से शून्य है। राजवाडे राजवाडे ने पालि का सम्बन्ध संस्कृत के 'प्रकट' शब्द से जोड़ने की कल्पना की है। तवनुसार प्रकट > पाअड> पामल > पालि; इस प्रकार पालि शब्द की व्युत्पत्ति 1. Indian Historical Quarterly, December 1928, P. 429-30. 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा ओर पिटक-बाङ्मय [ १६७ सधती है। इस व्युत्पत्ति का किंचित् विस्तार और हो सकता है-प्रपट > पाड > पाअल > पाल > पालि। प्राकृत शब्द से की जाने वाली व्युत्पत्ति की तरह यह व्युत्पत्ति भी विशेष सार्थक नहीं है; अतः विद्वानों की दृष्टि में इसका प्रामाण्य नहीं है। प्रकट शब्द और पालि शब्द को अर्थ-संगति भी नहीं बनती। कष्ट कल्पना द्वारा चाहे जो किया जाये। पालेय : प्रालेयक : पालि कुछ विद्वानों ने प्रालेय या प्रालेयक शब्द के साथ पालि का सम्बन्ध जोड़ने या उसकी व्युत्पत्ति बताने का प्रयास किया है । प्रालेय या प्रालयक शब्द के कई अर्थ हैं, जिनमें एक पर्वत या हिमाच्छादित पर्वत भी है। पर, इस मत की चर्चा करते हुए डा. भोलानाथ तिवारी और डा० भरतसिंह उपाध्याय ने प्रालेय या प्रालेयक का अर्थ पड़ोसी लिखा है। प्रचलित अर्थ तो ऐसा प्रतीत नहीं होता। मगध के पास के ( उत्तर के ) पर्वतीय भाग की भाषा या मगध के ही पर्वतीय भाग ( राजगृह आदि ) की भाषा; इस प्रकार दूरान्वित संगति करते हुए प्रालेय > पालेय > पालि; इस तरह की व्युत्पत्ति की कल्पना की जा सकती है। पर, यह तथ्यपरक नहीं है।। समीक्षा पालि की व्युत्पत्ति या विकास के सन्दर्भ में अनेक विद्वानों के विचारों का समीक्षात्मक दृष्टि से चिन्तन अपेक्षित है । बौद्ध वाडमय में अभिधान दीपिका नामक एक प्रसिद्ध कोशग्रन्थ है। उसमें पालि शब्द के अर्थ पर विचार किया गया है। वहां पालि शब्द को तन्तितन्त्र, बुद्ध-वचन और पंक्ति का अर्थ-बोधक मानते हुए उनकी व्युत्पत्ति की गई है। वहां लिखा गया है कि जो पालन करती है, रक्षा करती है, वह पालि है। आगे प्रश्न उपस्थित किया गया है कि किसका पालन करती है ? किसकी रक्षा करती है ? इसका उत्तर देते हुए वहां लिखा गया है-"अत्थं पाति" अर्थात् अर्थ की रक्षा करती है, बुद्ध-वचनों की रक्षा करती है । पालि ने बुद्ध-वचनों का किस प्रकार पालन किया ? किस प्रकार उनकी रक्षा १. (क) प्रालेय = हिम, कुहरा, ओस, तुषार, अद्रि, शैल, हिमाच्छादित पहाड़, हिमालय, रश्मि, चन्द्रमा, कपूर, ओला। -संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ० ६९२, वामन शिवराम आप्टे। (ख) Hail, Snow, Frest, dew, snow-mountain, Hima-vat, frosty___rayed, the moon. -Sanskrit-English Dictionary, P. 702, by Sir Monier Williams. 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ की ? वहां एक उत्तर है कि त्रिपिटक के रूप में उनका संकलन कर उनकी रक्षा की। साथ-ही-साथ दूसरा उत्तर है कि बौद्ध धर्म के परम भक्त और उन्नायक लंकानरेश वट्टगामणि के समय में त्रिपिटक को लेख-बद्ध कर उनकी रक्षा की। पालि बुद्ध-वचन भी है और पालि पंक्ति भी है। त्रिपिटक के संकलन के रूप में पालि बुद्ध-वचन है और उनकी लेख-बद्धता की अपेक्षा से पालि पंक्ति है। अभिधानदीपिकाकार ने पालि शब्द का जो निर्वचन किया है, वह उसके इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। एक बहुत महत्व की बात वहां छूट गयी है। परियाय शब्द पर अभिवान-दीपिकाकार ने कोई विशेष चर्चा नहीं की। उन्होंने वहां केवल उसका पर्यायपायो "बुद्ध-वचन" शब्द ही दे दिया है। ऐसा हो सकता है कि पालि शब्द का निर्वचन करते समय परियाय और पालि को भाषा वैज्ञानिक संगति की ओर उनका ध्यान न गया हो। -भाषा के अर्थ में पालि के प्रयोग के सन्दर्भ में पिछले पृष्ठों में पूर्व विहित चर्चा से स्पष्ट है कि पालि शब्द का प्रयोग १४वीं शती तक कहीं भी उस भाषा के अर्थ में नहीं किया गया, जिसमें बुद्ध-वचन हैं। स्पष्ट रूप में नहीं कहा जा सकता कि भाषा के लिए यह शब्द किस प्रकार प्रयोग में आने लगा। डा० भरतसिंह उपाध्याय ने इस सम्बन्ध में ऐसा मत ध्यक्त किया है-"पहले 'तन्ति' शब्द का प्रयोग मूल त्रिपिटक या उसके किसी ग्रन्थ के लिए पालि के अर्थ में होने लगा, यथा 'विनय-तन्ति' अर्थात् 'विनय पालि'। बाद में तिपिटक की भाषा को घोतित करने के लिए सिंहल में तन्ति-भाषा' जैसा सामासिक शब्द प्रचलित हुमा । उसी का समानार्थवाची शब्द 'पालि-भाषा' भी बाद में प्रयुक्त होने लगा। पालिभाषा' अर्थात् पालि ( बुद्ध-वचन ) की भाषा। बाद में स्वयं पालि शब्द ही भाषा के लिए प्रयुक्त होने लगा। आज 'पालि' से तात्पर्य उस भाषा से लिया जाता है, जिसमें स्थघिरबाद बौद्ध धर्म का लिपिटक और उसका सम्पूर्ण उपजीधी साहित्य रक्खा हुआ है।" - डा० उपाध्याय ने जो क्रम प्रस्तुत किया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। तन्ति-भाषा या पालि-भाषा का जो प्रयोग बौद्ध साहित्य में होने लगा था, वह एक आधार है, जो पालि के वतमान अर्थ को संगति प्रदान करता है । डा० उपाध्याय ने स्पष्ट किया है, तन्ति-भाषा या पालि-भाषा का अर्थ था, बुद्ध के वचनों की भाषा। यह बात सम्भावित प्रतीत होती है कि आगे चल कर भाषा शब्द सहज ही हट गया हो और मात्र पालि' शब्द बच पाया हो । पालि को अाधारभुत भाषा ... पालि की माधारभूत भाषा कोन सी थी, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। जिस १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० १० 2010_05 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १६९ भाषा में त्रिपिटक लिखा गया, उसके लिए मागधी, मगध भाषा, मागधा निरुक्ति तथा मागधिक भाषा जैसे शब्दों का उल्लेख हुआ है। इन शब्दों से यह व्यक्त होता है कि वह भाषा मगध देश में बोली जाने वाली थी। लंका की परम्परा भी उसे मगध की भाषा मानती है। उसके अनुसार मागधी ही वह मूल भाषा है, जिसमें सम्यक् सम्बद्ध भगवान् बुद्ध ने उपदेश किया। कच्चान व्याकरण में भी ऐसा ही उल्लेख है। वहां उसे संसार को मूल भाषा' और वह भाषा कहा गया है, जिसमें सम्यक् सम्बुद्ध ने भाषण किया। आचार्य बुद्धघोष ने भी ऐसा ही माना है। समन्त-पासादिका में उन्होंने लिखा है कि सम्यक् सम्बद्ध (भगवान् बुद्ध के द्वारा प्रयुक्त भाषा मागधी ही है। अपने धर्म से सम्बद्ध भाषा के प्रति व्यक्ति का अनुराग सहज ही बढ़ जाता है । दूसरे शब्दों में वह आसंग या आसक्ति की सोमा में चला जाता है। फलतः व्यक्ति वस्तुपरकता के स्थान पर प्रशस्ति की भाषा में बोलने लगता है। बुद्धघोष विद्वान् होने के साथ-साथ बौद्ध धर्म के आचार्य भी थे, इसीलिए बहु-मानवश यहां तक लिख देते हैं कि मागधी सब प्राणियों की मूल भाषा या आदि भाषा है। संसार की आदि भाषा के सन्दर्भ में यह चर्चा की जा चुकी है। लंका की परम्परा लंका में आज भी यह दृढ़ विश्वास है कि जो भाषा पालि कहलाती है, वह भगवान् बुद्ध के समय में मगध में बोली जाती थी। लंका को परम्परा में भगवान् बुद्ध के त्रिपिटकात्मक वचनों की भाषा को तो मागधी कहा ही गया है, बारहवों-तेरहवीं शती में रचित अट्ठकथाओं तक की भाषा को भी वह मागधी कहने में तुष्टि और गरिमा का अनुभव करती है। तेरहवीं शती का एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, चूलवग्ग। वह महावंस का परिवद्धित संस्करण है। उसका एक प्रसंग है। रेवत स्थविर ने आचार्य बुद्धघोष से कहा कि लंका जाकर सिंहली अट्ठकथाओं का मागधी में अनुवाद करो। उसी प्रसंग में आगे लिखा गया है कि आचार्य बुद्धघोष ने रेषत स्थविर के आदेश के अनुसार ऐसा ही किया। वहां लिखा गया है कि सभी सिंहली अट्ठकथाओं का मूल भाषा मागधी में परिवर्तन कर दिया गया । इससे कुछ पूर्व १२ वीं शती में मौग्गलान ने पालि-व्याकरण की रचना की। वहां उन्होंने प्रारम्भ में कहा है कि वे मागघी का शब्द-लक्षण या व्याकरण वणित करेंगे। ब्रह्मदेश को परम्परा पिटक और तदुपजीवी वाङमय की भाषा के सम्बन्ध में सिंहली परम्परा का ही प्रायः १. सा मागधी मूल भासा.... 'सम्बुद्धा चापि भासरे । २. चूलवग्ग परिच्छेद ३७, गाथा २२९-२३० 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ बर्मी परम्परा में अनुकरण हुआ है। थेरवाद में सिंहल और बर्मा का सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। बर्मी परम्परा में भी ऐसी मान्यता है कि मगध की भाषा में ही, जो उसके अनुसार विश्व की मूल भाषा है, भगवान् बुद्ध ने उपदेश किया, जो त्रिपिटक के रूप में उपलब्ध है। १६ वीं शतो में बर्मा में विधिशास्त्र पर पालि में मोहविच्छेदनी नामक ग्रन्थ रचा गया। बर्मी पालि-वाङमय में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। उसमें भी ऐसा ही निरूपण किया गया है। भगवान बुद्ध के उपदेश को भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों में प्रचलित अनेक मान्यताओं में से उपयुक्त मत एक है। अन्य मतों पर भो संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है, ताकि प्रस्तुत विषय पर समीक्षात्मक दृष्टि से पर्यालोचन किया जा सके । प्रो० रायस डेविड स ... प्रो. रायस डेविड्स ने पालि पर बहुत कार्य किया। उनके मन्तव्य का सारांश है कि भगवान बुद्ध कौशल प्रदेश के थे। उनकी मातृभाषा वही थो, जो कौशल प्रदेश में प्रचलित थी। यह स्वाभाविक है कि उपदेष्टा अपनी मातृ-भाषा में ही उपदेश करता है; भतः जिसे आज पालि कहा जाता है, उसका आधार ई० पू० छठी-सातवीं शती में कौशल प्रदेश में प्रचलित भाषा थी। प्रो0 यायस डेविड्स का यह भी कथन है कि भगवान् बुद्ध के परिनिर्माण के पश्चात् लगभग एक शताब्दी की अवधि में मुख्यतया उनके उपदेश कौशलप्रदेश में ही संकलित किये गये । उज्जयिनी-भाषा और पल __ एक ऐसा मत है, जिसके अनुसार पालि उज्जयिनी-प्रदेश, जिसे आज मालव कहा जाता है, की बोली पर आधारित है। इस मत के उद्भाषक वेस्टर गार्ड और ई० कुहन हैं। उन्होंने मुख्यतया इसके दो कारण दिये हैं। पहला यह है कि गिरनार ( सौराष्ट्र ) में अशोक के शिलालेख की भाषा से इसकी सबसे अधिक समानता है। दूसरा कारण वे यह बतलाते हैं कि सम्राट अशोक के पुत्र कुमार महेन्द्र, जिन्होंने सिंहल में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और पालि त्रिपिटक को पहुंचाया, अपने शैशव से ही उज्जयिनी-प्रदेश में रहे थे। वहीं की भाषा उनको मातृ-भाषा थी, जिसमें वे त्रिपिटक को ले गये । 1. The pali Literature of Burma, p. 88-89 (London, 1909) 2. History of pali Literature, vol. I, p. 50-56 ( Preface ) : Dr. Law 3. Budhistic Studies, P. 233, Edited by Dr. Law ____ 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा मोर पिटक-वाङमय पलि और विन्ध्य प्रदेश की भाषा पालि के उद्भव के सम्बन्ध में एक मत यह भी है कि बह विन्ध्य प्रदेश की भाषा के आधार पर विकसित है। इस मत के पुरस्कर्ता आर० ओ० फ्रैंक हैं। उन्होंने इसका कारण यह बतलाया है कि पालि की गिरनार के शिलालेख की भाषा से सर्वाधिक समानता है। ___वेस्टर गार्ड और ई० कुहन ने भी यही कारण पालि को उज्जयिनी की भाषा पर आधारित बताते हुए उपस्थित किया है। यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या विन्ध्य प्रदेश और उज्जयिनी-प्रदेश की भाषा एक थी या बहुत कुछ समान थी ? आर० ओ० फक ने यह भी उल्लेख किया है कि मध्यदेश के पश्चिमी भाग के शिलालेखों से पालि का स्वरूप बहुत मेल खाता है। उन्होंने उनसे कुछ असमानताएं भी बतलाई हैं । विन्ध्य प्रदेश मध्यदेश का ही एक भाग है। उसकी भाषा का सम्भवतः पश्चिमी मध्यदेश ( उज्जयिनीप्रदेश ) की भाषा पर विशेष प्रभाव रहा होगा। यही आधार आर० ओ० फेंक को पालि का उद्गम-स्थल विन्ध्यदेश के पश्चिमी भाग को मानने में सम्भवतः उत्प्रेरक हुआ हो । स्टैन कोनो स्टैन कोनो' ने भी विध्य प्रदेश को ही पालि का उद्भव स्थान स्वीकार किया है। पर उन्होंने जो कारण दिये हैं, वे पृथक् हैं। उनके विचार आर० ओ० क से मेल नहीं खाते । स्टेन कोनो का कहना है कि पालि पैशाची प्राकृत के बहुत समान है। दूसरी बात उन्होंने यह स्थापित की है कि पैशाची प्राकृत विन्ध्य प्रदेश में उज्जयिनी के आस-पास प्रचलिस थी। स्टेन कोनो ने पैशाची के विन्ध्य प्रदेश के अन्तर्गत उज्जयिनी के परिपार्श्व में बोले जाने का जो उल्लेख किया है, भाषा-वैज्ञानिकों की दृष्टि में वह समीचीन नहीं है। पैशाची उज्जयिनी या मालव में प्रयुक्त नहीं थी। सुप्रसिद्ध भाषा-तत्वविद् सर जार्ज ग्रियसन ने पैशाची को केकय और पूर्वी गान्धार की बोली बतलाया है। स्टेन कोनो का मत प्रियसन के प्रतिकूल है। वस्तुतः विद्व समाज में ग्रियसन का मत ही विशेष समादृत है और युक्ति पुक्त भी है। 1. Pali Literature and Language, p. 3-4 ( Preface ) Dr. Gaigar, 2. History of Indian Literature, vol. II, P. 604 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कलिंग-भाषा और पालि एक मत इस प्रकार है, जो पालि को कलिंग देश की भाषा के आधार पर विकसित मानता है। इस मत के उद्भावक डा. ओल्डन वर्ग हैं। उनके कहने का तात्पर्य है कि लंका के निकटवर्ती होने के कारण कलिंग से ही लंका में बौद्ध धर्म का संचार शताब्दियों तक होता रहा। उनके अनुसार तब जो कलिंग की भाषा थो, घही कुछ विकसित और परिवर्तित होकर पालि के रूप में अस्तित्व में आई और बौद्ध धर्म के माध्यम के रूप में लंका, पहुंची। डा० ओल्डन वर्ग ने दूसरी बात यह कही है कि कलिंग में खण्डगिरि (हाथी गुम्फा) में खारवेल का जो शिलालेख है, उसको भाषा पालि के बहुत निकट है। खारवेल का लेख कलिंग की तत्कालीन भाषा में हो, यह सर्वथा स्वाभाविक प्रतीत होता है। लंका में धर्म-प्रचार के लिए सम्राट अशोक का पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा गये; यह ऐतिहासिकों द्वारा प्रायः स्वीकृत तथ्य है । डा. ओल्डन वर्ग इसे प्रामाणिक नहीं मानते । वे कलिंगवासियों द्वारा ही लंका में बौद्ध धर्म के प्रचारित होने को प्रामाणिकता की कोटि में लेते हैं। उनके अनुसार कई शताब्दियों तक कलिंगवासियों का लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने का प्रयत्न रहा। ई० नुलर डा. ओल्डन बगं को तरह ई० मूलर का भी मत है कि कलिंग ही पालि के उद्भव का देश है। उनकी मान्यता है कि कलिंग से ही सबसे पहले ( भारतीय ) लंका में जाकर बसे और वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया। समीक्षा पालि का आधारभूत भाषा के सम्बन्ध में मत-मतान्तरों के उल्लेख के अनुसार सिंहली परम्परा मागवो भाषा को पालि का जो आधार मानती है, उससे कतिपय विद्वान् सहमत नही हैं। उनके अनुसार मागधी किसी भी तरह पालि का आधार नहीं है। प्रो० रायस डेविड्स का मत सिंहली परम्परा से एक अपेक्षा से मेल खाता है। प्रो० रायस डेविड्स का कहना है कि भगवान् बुद्ध कौशल में उत्पन्न हुए। उन्होंने मुख्यतः मगध में विहार किया। कौशल देश में उत्पन्न होने के कारण उनको मातृ-भाषा कौशल की बोली थी। उनका विहार और कार्य-स्थल मगध रहा; अतः वहां के जन-जन को समझाने के लिए मागधी से भी उनका सम्बन्ध जुड़ता है । मातृ-भाषा के नाते एक निष्कर्ष यह निकलता है कि वे कौशल की भाषा १. विनयपिटक, डा० ओल्डन वर्ग द्वारा सम्पादित, जिल्ब १, भूमिका पृ. १-५६ 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-बाङमय [ १७३ में बोले हों। दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि उन्हें मगध की जनता को समझाना था; अत: बहुत सम्भव है कि उन्होंने कौशल और मगध की भाषा के मिश्रित रूप का व्यवहार किया हो। प्रो० रायस डेविड्स ने इस सन्दर्भ में कहा है कि अशोक के शिलालेखों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह ई० पू० छठी-सातवीं शती में कौशल प्रदेश में बोली जाने वालो भाषा का विकसित रूप है। इसके-परिपावं में प्रो. रायस डेविड्स ने यह भी सम्भावना की है कि अशोक के समय में कौशल प्रदेश को टकसाली भाषा ( Stardard Language ) ही मगध-साम्राज्य की राष्ट्र-भाषा (राज-भाषा) रही हो । . डा० विण्टरनित्ज ने प्रो. रायस डेविड्स के इस मत पर शंका करते हुए कहा है कि ई० पू० छठी-सातवीं शती में कोशल-प्रदेश की भाषा का क्या रूप था, इसकी आज जानकारी ही क्या है ? जानकारी के बिना उसे पालि का मूल किस आधार पर माना जा सकता है। प्रो० रायस डेविड्स की कल्पना के असंगत लगने का एक दूसरा कारण यह भी है कि मगध-साम्राज्य अपने युग का सुप्रतिष्ठित साम्राज्य था। वह अपनी राज-भाषा के लिए किसी पड़ोसी प्रदेश की भाषा को स्वीकार करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अशोक के समय में मगध-साम्राज्य उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचा हुआ था। ऐसी स्थिति में अधिक समोचीन यही प्रतीत होता है कि उस समय मगध में जो भाषा थी, उसे ही राजभाषा का गौरव प्राप्त हुआ हो। इतना अवश्य है कि जब किसी केन्द्रीय राज्य में कई दूसरे प्रदेश सम्मिलित हो जाते हैं, तो जो राज-भाषा बनती है, उसका मुख्य आधार तो एक ही बोली होती है, पर, अन्यान्य प्रदेशों की बोलियों के लिये भी उसमें स्थान रहता है। कोई राज-भाषा या केन्द्रीय भाषा सर्वसम्मत, सर्वग्राह्य तथा सर्वोपयोगी तभी हो सकती है; इसलिए कौशल प्रदेश की बोली को पालि का आधार मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । इसी प्रकार वेस्टर गाडं, कुह न, फंक और स्टेन कोनो के मत एक-एक अपेक्षा को लिये हुए हैं। उनमें सर्वागीणता नहीं है। विन्ध्य प्रदेश की भाषा को पालि का आधार मानना लगभग वैसा ही है, जैसा कौशल की भाषा को पालि का आधार मानना। इन विभिन्न मतों के परिपाश्वं में पालि की कुछ ऐसी विशेषताए या उसके कुछ ऐसे विशेष लक्षण प्रतीत होते हैं, जिनसे विभिन्न प्रदेशों की भाषाओं के साथ उसको सम्बन्ध जोड़ने के आधार मिल जाते हैं। इसका आशय यह हुआ कि किसी एक बोलो को मुख्य आधार के रूप में गृहीत करने पर भी उसे अन्तन्तिीय रूप लेने के लिए आस-पास के प्रदेशों की अनेक बोलियों की विशेषताओं को यथासम्भव स्वीकार कर लेना पड़ा । 1. History of Indian Liteature, vol. II, P. 605 2010_05 | Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] आगम ओर त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ____ फ्रेंक ने एक बात और कही है, जो बड़ी विचित्र प्रतीत होती है। उनके अनुसार आज जिसे पालि कहा जाता है, जिसमें त्रिपिटक और तदुपजीवी साहित्य रचा हुआ है, वह भाषा साहित्यिक पालि है। बुद्धदेव के समय में भारतवर्ष में बोली जाने वाली आर्यभाषाओं को फंक ने पालि कहा है। फ्रंक का यह मत समीचीनी और युक्ति सगत नहीं लगता। भगवान् बद्ध के समय भारतवर्ष में जो आय-भाषाए दैनन्दिन व्यवहार में प्रचलित थीं, उनके विषय में नई स्थापना की आवश्यकता नहीं है । वे तो अपने-अपने प्रदेशों के नामों के अनुरूप भिन्न-भिन्न नाम पाली प्राकृतों के रूप में सुविदित हैं ही। उन सबके लिए पालि जैसा एक नाम कल्पित करना सर्वथा असंगत लगता है। त्रिपिटक की भाषा के लिए पालि शब्द के साथ साहित्यिक शब्द जोड़ना भ्रामक जैसा है। डा. ओल्डन वर्ग और ई• मूलर पालि को कलिंग से सिंहल पहुंचने का उल्लेख करते हैं, वह भी केवल कल्पना मात्र प्रतीत होता है। यदि सिंहल को भाषाओं के साथ भारत के पूर्वी प्रदेश तथा पश्चिमी प्रदेश की भाषाओं की तुलना की जाए, तो सिंहल की भाषाओं का पूर्वी भाषाओं के साथ नहीं, प्रत्युत पश्चिमी भाषाओं के साथ नेकट्य प्रतीत होता है। पालि के मूल आधार के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा तरह-तरह से ऊहापोह किया गया है। मागधी को पालि का आधार मानने में विभिन्न विद्वानों के अपने विशेष चिन्तन हैं। भिक्षु सिद्धार्थ, भिक्ष जगदीश काश्यप, जेम्स एल्विस, चाइल्डसं, विडिश, विण्टरनिरज, ग्रियसन तथा गायगय आदि विद्वानों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से मागधी को पालि का स्रोत स्वीकार किया है। जेम्स एल्विस तथा चाइल्डसं का यह मानना है कि बुद्ध के समय भारतवर्ष के भिन्नभिन्न प्रदेशों में सोलह प्रादेशिक बोलियां प्रचलित थीं। उनमें जो बोली मगध में बोली जाती थी, भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों का माध्यम उसी को बनाया । विडिश के भो लगभग ये ही विचार हैं। विण्टरनित्ज ने भी इसी विचार को प्रश्रय दिया है। उनके मत में थोड़ा-सा भेद अवश्य है। उनका कथन है कि पालि एक साहित्यिक भाषा यो। साहित्यिक भाषा का विकास अनेक प्रादेशिक बोलियों के मिश्रण से होता है। विष्टरनित्ज इतना अवश्य मानते हैं कि उन प्रादेशिक बोलियों में, जिनके समन्वय से पालि अस्तित्व में माई, प्राचीन मागधी का मुख्य स्थान था। सर जान नियसन ने सामान्यतः मागधी को पालि का आधार तो माना है, पर, उन्होंने पालि में उस समय की पश्चिमी बोलियों का प्रभाव देखते हुए कहा है कि पालि 1. History of Indian Literature, Vol. II, p. 13 ____ 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १७५ का आधार विशुद्ध मागधी नहीं है। उसका आधार कोई पश्चिमी बोली है। ग्रियर्सन की कल्पना और आगे बढ़ती है। वे कहते हैं कि पालि का आधार मागधी का वह रूप है, जो तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रचलित पो। उनके अनुसार उसी में त्रिपिटक का संस्करण वहां सम्पन्न हुमा । डा० कीथ ने 'दी होम ऑफ पालि' शीर्षक निबन्ध में इसका खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा के माध्यम के रूप में पालि के व्यवहृत होने के सम्बन्ध में ग्रियसन या किसी दूसरे विद्वान् ने ऐसी कोई युक्ति नहीं दी है, जो काटी न जा सके । त्रिपिटक के वहां संकलित किये जाने के बारे में भी कोई प्रामाणिक आधार या युक्ति उन्होंने प्रस्तुत नहीं की है। वस्तुत: मगध और तक्षशिला के मध्य बहुत अधिक व्यवधान है। मगध से चल कर तक्षशिला पहुंचने तक बोच में अनेक प्रादेशिक बोलियां आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में मागधी का कोई रूप तक्षशिला जैसे दूर पश्चिम के स्थान में प्रयुक्त रहा हो, ऐसा सम्भाग्य नहीं लगता। त्रिपिटक के तक्षशिला में संकलित होने का भाधार भी सर्वथा अनुपलब्ध है। जर्मन विद्वान् डा• गायगर ने प्रस्तुत प्रसंग पर जो मत उपस्थित किया है, वह काफी खोज पूर्ण और विचारणीय है। उनकी मान्यता है कि मागधी किसी प्रदेश-विशेष या जनपद-विशेष की बोली जाने वाली एक ऐसी भाषा थी, जो अन्तरप्रान्तीय रूप लिये हुए थी। वह भगवान् बुद्ध के युग के पूर्व से ही विकासोन्मुख थी। एक अन्तरप्रान्तीय या सामान्य भाषा ( Common Language ) के विविध प्रदेशों में बोले जाने में थोड़ी भिन्नता तो सहज हो ही जाती है, पर, उसकी मौलिक एकता विच्छिन्न नहीं होतो। भगवान् बुद्ध ने इसी भाषा को अपने प्रवचन के माध्यम के रूप में स्वीकार किया। जिस अन्तरप्रान्तीय भाषा की चर्चा की जा रही है, यह स्वाभाविक था कि उसमें अनेक प्रादेशिक बोलियों के तत्व विद्यमान रहें। बुद्ध मगध के नहीं थे, परन्तु, उनके जीवन का अधिकांश कार्य भी वहीं सम्पादित हुआ; अतः यह स्वाभाधिक था कि उनकी भाषा मगध की बोली से प्रभावित हो। साररूप में डा० गायगर का मत यह है कि पालि विशुद्ध मागधी तो नहीं थो, पर, मागधी पर आश्रित एक सामान्य लोक-भाषा थी, जिसमें बुद्ध ने अपना सन्देश प्रसारित किया। 1. R. G. Bhandarkar Commemoration, Volume, P. 117-123 ( 'दी होम ऑफ लिटरेरी पालि' शीर्षक डा० ग्रियर्सन का लेख ) 2. Budhistic Studies, Edited by Dr. Law, P. 739 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ मागधी के जो लक्षण घेयाकरणों ने निरूपित किये हैं, उनके अनुसार क्या पालि को मागधी पर आधारित माना जा सकता है अथवा मागधी का कोई दूसरा रूप, जिसका स्पष्ट दर्शन प्राप्त नहीं है, उसका आधार रहा हो। इस सम्बन्ध में समीक्षात्मक दृष्टि से विचार आवश्यक है। भाषा पहले बनती है और ध्याकरण उसके अनन्तर । मागधी के व्याकरण के साथ भी यह लागू है। व्याकरण किसी भाषा को नियमित, मर्यादित तथा तत्समकक्ष अन्य भाषाओं से पृथक करने का उपक्रम है। यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती व्याकरणों द्वारा भाषा के पूर्ववर्ती रूप को पकड़ा नहीं जा सकता। व्याकरण से बन्ध जाने के पश्चात् भाषा की प्रवाहशीलता-जीवितता ध्याहत हो जातो है। प्राकृत वैयाकरणों ने मागधी का जो विश्लेषण किया है, उसके साथ त्रिपिटक और तदुपजीवी साहित्य की भाषा मेल नहीं खाती। कतिपय अभिलेखों तथा नाटकों में मागधो का जो प्रयोग हुआ है, उनके साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पालि उससे निश्चय ही भिन्न है। कारण यह है कि अभिलेखों, नाटकों और प्राकृतब्याकरणों का अस्तित्व पालि के बाद का है। मागधी की मुख्य विशेषताएं मागधी में 'र' के स्थान पर 'ल' होता है और 'स' के स्थान पर 'श' ।' पुल्लिग अकार न्त शब्दों की प्रथमा विभक्ति एक वचन में अ के स्थान पर ए होता है अथवा पुल्लिंग प्रथमा एकवचन का रूप एकारान्त होता है। शूद्रक-कृत मृच्छकटिक का निम्नांकित श्लोक मागधी के लक्षणों का परिचायक है : किं याशि धावशि पलाअशि पक्खलन्ती, बाशू पशीद ण मलिश्शशि चिट्ठ दाव । कामेण दण्झदि हु मे हडके तवश्शो, अंगाललाशिपडिदे इअ मंशखण्डे ॥ ( किं यासि धावसि पलायसे प्रस्खलन्ती, वासु प्रसीद न मरिष्यसि तिष्ठ तावत् । कामेन दह्यते खलु मे हृदयं तपस्वि, अंगारराशिपतितमिव मांसखण्डम् ॥ ) १. रसौलेशौ ।। ८।४ । २८८ मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकारस्तालठयशकारश्च भवति । -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् २. अत एत्सौ पुसि मागध्याम् ।।८।४ । २८७ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारौ भवति पुसि पुल्लिगे। -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् । 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-माषा और पिटक-वाङमय [ १७७ पालि में रकार यपावत् बना रहता है। कभी-कभी अनियमित रूप में उसका लकार में परिवर्तन हो जाता है। यह सर्वव्यापी नियम नहीं है, कादाविक है। उदाहरणार्थ, संस्कृत का तरुण शब्द पालि में तलुण के रूप में भी प्रयुक्त होता है और तरुण के रूप में भी। पालि में स ( दन्त्य ) श ( तालध्य ) में परिवर्तित होता ही नहीं। मागधी में तालव्य श को बहुलता है। उसमें दन्त्य स की तरह मूर्धन्य ष भी तालव्य बन जाता है। जैसे, पुरुषः-सुलिशे, स:शे । पुल्लिग की तरह अकारान्त नपुंसक लिंग शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति के एक पचन में एकारान्त रूप बनते हैं। पालि में न पुल्लिंग में और न नपुसक लिंग में ही यह नियम लागू होता है। वहां पुल्लिंग में ओकारान्त और नपुसक लिंग में अनुस्वारान्त रूप होते हैं। कहीं-कहीं कादाचित्कतया एकारान्त रूप भी देखें जाते हैं, पर, वैसी नियम-बद्धता जरा भी नहीं है। इसका कारण यह है कि पालि और प्राकृत संस्कृत की तरह व्याकरण के जटिल और कठोर नियमों में प्रतिबद्ध नहीं हैं; अत: यत्र-तत्र ऐसा भी कुछ हो जाता है, जो व्याकरण के नियमों से संगत नहीं है। पर, उसे क्षम्य और सह्य माना जाता है। केवल मगध प्रदेश तक ही सीमित रहने वाली बोली पालि का एक मात्र आधार नहीं हो सकती। पालि उस मिली-जुली टकसाली भाषा या अन्तर प्रान्तीय ( Inter Provincial ) भाषा पर ही आधारित मानी जा सकती है, जो मध्यमण्डल या मध्यदेश की भाषा थी। मध्यदेश का स्वरूप साधारणतया सम्भवत यह रहा होगा-पश्चिम में जनपद अर्थात् आज के हरियाणा के पश्चिमी भाग से लेकर पूर्व में मगध अर्थात् दक्षिण बिहार, उत्तर में आवस्ती ( सेंठ महेठ-उत्तरप्रदेश ) से लेकर दक्षिण में अवन्तो ( उज्जैन या मालव के क्षेत्र) तक विस्तृत भूभाग । इतने विशाल क्षेत्र में वह भाषा, जो सामान्य भिन्नता के साथ सर्वत्र समान रूप से काम में आए, किसी एक ही प्रदेश से सम्बद्ध नहीं हो सकती। इतना हो सकता है कि राजनीति या शासन की दृष्टि से जो केन्द्र-स्थान हो, उस क्षेत्र की भाषा की वहां मुख्यता रहे। उस युग में मगध राजनैतिक दृष्टि से समग्र उत्तर भारत का केन्द्र था। यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्व ऐसा सम्राट मगध में नहीं हुआ, जिसका आधिपत्य समग्र उत्तर भारत में अव्याहत रूप में प्रसृत हो सका हो, फिर भी मगध में अनेक ऐसे शासक होते रहे हैं, जिनका मगध के समीपवर्ती आस-पास के प्रदेशों पर आधिपत्य रहा था। यदि आधिपत्य नहीं रहा, तो उनका प्रभाव तो अवश्य ही था; अतः सारे मध्यमण्डल की समन्वित या सम्मिश्रित भाषा पर मगध की बोली का प्रभाव रहना असंगत नहीं दीखता। केन्द्रीय प्राधान्य को द्योतित करने की दृष्टि से उसका मागधी नाम प्रचलित रहा है, यह सेहजतया सम्भव प्रतीत होता है । अर्द्धमागधी और पालि __ प्राकृत के भेदों में एक भेद अद्ध' मागधी है। बह जैनों के अंग-साहित्य की भाषा है। 2010_05 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १७८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : २ इस पर विस्तृत विवेचन अग्रिम अध्याय में किया जायेगा। पालि के सन्दर्भ में जो चर्चनीय है, उससे सम्बद्ध विचार किया जा रहा है। अद्धमागधी का सामान्यतया यह अर्थ है कि वह भाषा, जो शौरसेनी और मागधी भाषाए बोले जाने वाले क्षेत्र के बीच के भाग में बोली जाती थी। इसका फलित यह होता है, अद्धमागधो वह भाषा है, जिसमें मागधी और शौरसेनी दोनों का समन्वित रूप प्राप्त होता है। अद्ध मागधी का अर्थ एक दूसरे प्रकार से भी किया जाता है। तदनुसार वह भाषा, जिसमें मागधी के आधे लक्षण मिलते हों, भद्धमागधी है। मागधी के मुख्यतः तीन लक्षण हैं। उसमें मूर्धन्य ष और दन य स के बदले तालव्य श तथा र के स्थान पर ल का प्रयोग होता है। अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के कर्ता कारक एक वचन में ए प्रत्यय प्रयुक्त होता है। अद्ध मामधी में तालव्य श का प्रयोग बिलकुल नहीं होता। र के स्थान में ल का प्रयोग कभी-कभी होता है । अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ए प्रत्यय का प्रयोग अधिकांशतः होता है। इस प्रकार मागधी के आधे लक्षण इसमें मिलते हैं। इसकी कारक-रचना में दूसरी विशेषता यह पाई जाती है कि अधिकरण या सप्तमो विभक्ति में ए और म्मि के अतिरिक्त अंसि प्रत्यय भी प्राप्त होता है। जैसे, वणे, वणम्मि, वर्णसि। दशवकालिक सूत्र के निम्नांकित उदाहरण से यह स्पष्ट होता है : लहावित्ति सुमंतुठे अप्पिच्छे सुहरे सिया । आसुरत्त न गच्छेज्जा सोचाणं जिणसासणं ।। ( रुक्षवृत्तिः सुमन्तुष्टः अल्पेच्छः सुमरः स्यात् । . . असुरत्वं न गच्छेत् श्रुत्वा जिनशासनम् ।। ) लूडस का मत है कि प्राचोन अद्धमागधी पालि का मूल आधार है। उनके अनुसार त्रिपिटक साहित्य अद्धमागधी भाषा में लिखा गया । तत्पश्चात् उसका पालि में रूपान्तरण हुआ । लूडर्स पालि को पश्चिमी बोली पर आश्रित मानते हैं । उनका यह भी कहना है कि इस समय त्रिपिटक में जो पालि का स्वरूप प्राप्त है, उसमें मागधी का जो यत्किंचित् दर्शन होता है, वह प्राचीन अद्ध'मागधी के अवशिष्ट अंशों के चले आने से है। पालि में रूपान्तरण करते समय ये अंश बचे रह गये ।। कीथ ने लूडसं का खण्डन किया है। उनके कथन का अभिप्राय है कि आगे चलकर अद्धमागधी का विकास जिस साहित्यिक अद्धमागधी प्राकृत में हुआ, वह लूडर्स द्वारा परिकल्पित प्राचीन अद्धमागधी थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता । 1. 2. Budhistic Studies, P. 734 I bid; P. 734 ____ 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १७९ लूडस ने प्राचीन अद्धमागधी के रूप में जिस भाषा का अंकन किया है, वास्तव में उसका अपना स्वतन्त्र रूप प्राप्त नहीं है। लूडर्स ने अशोक के शिलालेखों तथा अश्वघोष के नाटकों के अवशिष्ट अंशों के आधार पर प्राचीन अद्धमागधी की कल्पना की है। पर, ये आधार उचित नहीं कहे जा सकते; क्योंकि ये पश्चाद्वर्ती हैं। अशोक के शिलालेखों के सम्बन्ध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी। फ्रांस के विद्वान् सिलवां लेवी का भी इसी प्रकार का मत है। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पालि त्रिपिटक भगवान बुद्ध के मौलिक वचन नहीं हैं। वास्तव में पालि के सम्बन्ध में विद्वानों में जो मतानक्य या सन्देहात्मकता रही, उसका मुख्य आधार पालि के रूप की बहुविधि विशेषताए हैं। बुद्ध ने ऐसी भाषा में उपदेश दिया, जो नाम से तो मागधी कहलाती थी, जिसका मुख्य आधार मगध प्रदेश की बोली था, पर, पश्चिम प्रदेश की अन्यान्य बोलियों का मिश्रण भी उसमें था। इस पहलू पर कुछ दूसरी अपेक्षाओं से भी चिन्तन आवश्यक है। साथ-ही-साथ भगवान् बुद्ध के युग, उनका विहरणक्षेत्र, शिष्य-सम्पदा, परिस्थितियां, आदि के सन्दर्भ में भी प्रस्तुत विषय के परिशीलन किये जाने पर कुछ और प्रकाश मिल सके । बुद्ध-युग : पारिपाश्विक स्थितियां भगवान् बुद्ध कुरु जनपद से मगध और विन्ध्य से हिमालय तक अर्थात् इनके मध्यवर्ती अनेक प्रदेशों, जनपदों, क्षेत्रों में विहार करते रहे थे। बौद्ध वाङ्मय में 'मज्झिमेसु' 'पवेसु' के नाम से इस भूभाग का उल्लेख हुआ है। यह भी सर्वविदित है कि भगवान् बुद्ध का धर्म-सघ जातीय उच्चता तथा नीचता के भाव से परे था। उनके धर्म-संघ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, पश्य, शूद्र; सभी जातियों के लोग बिना किसी भेद-भाव के सम्मिलित होते रहे थे। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों के लोग भगवान् बुद्ध के संघ में थे, उसी प्रकार विभिन्न प्रदेशों के लोग भी थे। बुद्ध के उपदेश मौखिक थे। उनके जीवन-काल में नहीं, प्रयुत उनके परिनिर्वाण के दो तीन सदियों के बीच उनके उपदेश संकलित हुए। उनका लेखन तो और विलम्ब से हुआ । अर्थात् ई० पूर्व पहली शताब्दी में वे लंका में लिखे गये । काल की इतनी लम्बी अवधि में उनके रूप में अनेक परिवर्तन तथा परिवर्धन क्या सम्भव नहीं हैं ? डा० गायगर ने विशेष बलपूर्वक यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि भाषा तथा विषय; दोनों की दृष्टि से पालि-त्रिपिटक भगवान् के मूल पचन हैं । विनयपिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा है। दो ब्राह्मण भिक्ष थे। एक का नाम यमेलु और दूसरे का तेकुल था। 2010_05 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ वे वैदिक परम्परा से आये थे। बौद्ध भिक्षु हो जाने पर भी उनके मन पर, कुछ-कुछ वैदिक संस्कार थे। वे देखते हैं कि नाना जातियों और गोत्रों के भिक्षु भगवान् बुद्ध के वचनों को अपनी-अपनी भाषा में रख कर दूषित कर रहे हैं। वहां चुल्लवग्ग में "सकाय निरुत्तिया बुद्ध-वचनं दूसेन्ति" इन शब्दों का प्रयोग है। तब ब्राह्मण भिक्ष भगवान बुद्ध के पास जाते हैं और उनसे निवेदन करते हैं-"भगवन् ! अच्छा हो, हम आपके वचनों को छन्दस में रूपान्तरित कर दें।' भगवान् बुद्ध ने उन्हें कहा-"नहीं। ऐसा करना अपराध होगा।" तदनन्तर उन्होंने भिक्षुओं को विध्यात्मक भाषा में आदेश देते हुए कहा-"भिक्ष ओ। मैं अपनी भाषा में बद्ध-वचन का परिज्ञान करने को अनुज्ञा देता हूं।" प्राक्तन संस्कारवश ब्राह्मण-भिक्षुओं का लोक भाषाओं के प्रति कुछ अरुचि का भाव पा। प्राचीन परम्परा और प्रवृत्तिवश जिस छन्दस् को वे परम पवित्र मानते आ रहे थे, सहसा उसके प्रति उनका आदर सर्वथा मिट जाए, यह सम्भव नहीं था। तभी तो उन्होंने भगवान् बद्ध के समक्ष उक्त प्रस्ताव रखा था। आचार्य बुद्धधोष ने “छन्दसो आरोपेमाति" का आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है : "वेदं विय सक्कटभासाय वाचनामग्गं आरोपेम' अर्थात् वेद की तरह संस्कृत भाषा में आरोपित -रूपान्तरित कर दें। आचार्य बुद्धघोष ने यहां जो 'सक्कट भासा' पद का प्रयोग किया है, उसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं-सत्कृत भाषा तथा संस्कृत भाषा । डा. विमलाचरण लॉ ने केवल संस्कृत भाषा अर्थ को स्वीकार किया है और आचार्य बुद्धघोष की आलोचना की है। डा० भरतसिंह उपाध्याय ने डाः लॉ के विचार को समीक्षा करते हुए लिखा है : 'संस्कृत शब्द पाणिनि के बाद का है और वह लौकिक संस्कृत का वाचक है। छन्दस् शब्द उस प्राचीन आर्यभाषा का द्योतक है, जिसमें संहिताए लिखी गयी हैं। भगवान् बुद्ध को यही अर्थ अभिप्रेत हो सकता था। स्वयं त्रिपिटक में "सावित्थी छन्दसो मुख" जैसे प्रयोगों में छन्दस् शब्द का प्रयोग वेद के लिए ही हुआ है; अतः यहां भी बुद्ध का तात्पर्य वेद की भाषा से ही था, जिसके विपरीत बुद्धघोष का मत भी नहीं है । 3 डा० उपाध्याय सकाय-निरुत्तिया का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : "भगवान् बुद्ध की चारों वर्षों की शुद्धि और उसके विषय में उनकी आचार्य-मुष्टि ( रहस्य-भावना ) १. हन्द मयं भन्ते बुद्धवचमं छन्दसो आरोपेमाति । २. अनुजानामि भिक्षवे सकायनिरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितु। ३. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० २४ 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय १८१ न होने के कारण हम यह तो स्वाभाविक ही मान सकते हैं कि नाना प्रदेशों से आये हुए भिक्ष अपनी अपनी बोलियों में ही बुद्ध-वचनों को समझने का प्रयत्न करते होंगे।"1 ____ बुद्ध ने भिक्षुओं को 'सकाय निरुत्तिया' का जो आदेश दिया, इस सम्बन्ध में डा. गायगर का अर्थ एक भिन्न दिशा में जाता है। उन्होंने बताया है कि भगवान् बुद्ध की अनुज्ञा में जो 'सकाय निरुत्तिया' शब्द आया है, उसका अन्वय 'भिक्खवे' के साथ नहीं, बुद्ध-वचन के साथ है । सकाय निरुत्तिया का अन्वय भिक्खने के साथ होता है, तो अर्थ की संगति के लिए वो ( तुमको ) पद आना चाहिए था। तभी उसका अर्थ भिक्षुओं की अपनीअपनी भाषा हो सकता था। पर मूल-पाठ के साथ 'वो' शब्द नहीं आया है; अतः यह सहज ही सिद्ध होता है कि व्याकरण के अनुसार 'सकाय निरुत्तिया' शब्द बूद्ध-वचन से सम्बद्ध होगा । तदनुसार उक्त वाक्य का अर्थ यह होगा कि "भिक्ष ओ ! बुद्ध-वचन को उसकीबुद्ध-वचन की भाषा में सीखने की मैं अनुज्ञा देता हूं।" इसका निष्कर्ष यह हुआ कि वुद्धवचन को मागधी भाषा में ही सीखने की बुद्धदेव ने आज्ञा दी।' आचार्य बुद्धघोष ने 'सकाय निरुत्तिया' की व्याख्या इसी प्रकार की है : “यहां स का निरुत्ति-स्वका निरुक्ति-स्वकीय भाषा से सम्यक् सम्बुद्ध द्वारा प्रयुक्त मागधी भाषा के व्यवहार का तात्पर्य है।" डा० गायगर ने इस तथ्य पर बहुत बल दिया है कि बुद्ध-वचनों को मौलिक एवं प्रामाणिक रूप में अक्षुण्ण तथा अपरिवत्यं बनाये रखने की उस समय बहुत तत्परता थी और यह सम्भव है कि बाद में भी उसका अनुसरण होता रहा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि न तो भगवान् बुद्ध का ही और न भिक्षुओं का ही मन्तव्य इस प्रकार का हो सकता था कि वे ( भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भिक्षु ) भिन्न-भिन्न भाषाओं में बुद्ध-घचन अधिगत करें। डा• गायगर ने 'सकायनिरुतिया' की अपनी-अपनी भाषापरक व्याख्या को अनुचित ठहराने का प्रयत्न किया है। भिक्षु सिद्धार्थ ने भो आचार्य बुद्धघोष और डा० गायगर के मत का अनुसरण किया । है। उन्होंने लिखा है कि जब भगवान् बुद्ध ने सस्कृत जैसी परिमार्जित और समाहत भाषा में अपने उपदेशों को रखे जाने की स्वीकृति नहीं दी, तब यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वे अपने उपदेशों को साधारण बोलचाल की भाषा में रखे जाने की अनुज्ञा देते। उनके अनुसार १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० २२ । 2. Pali Literature & Language P. 6-7 ३. एत्य सका निरुत्ति नाम सम्भा सम्बुद्धन वुत्तप्पकारो मागधको वोहारो। 4. Pali Literature and Languages, P. 7 2010_05 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन इससे बुद्ध-वचनों को मौलिकता और प्रभावशीलता कैसे टिकतो? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्ध ने अपना उपदेश मगध देश की टकसाली भाषा में ही दिया। उनके शिष्यों ने उसी में उसको सीखा और उसी में दूसरों को सिखाया। संस्कृत जैसी परिमार्जित भाषा में बुद्ध-वचन न रखे जाने का तर्क प्रस्तुत करते हुए भिक्षु सिद्धार्थ साधारण बोलचाल की भाषा में उन्हें रखे जाने को अनुज्ञा कैसे होती, यह जो हेतु दिया है, समीचीन नहीं लगता। संस्कृत व्याकरण-बद्ध एवं रूढ़ भाषा है। उसे बहुत कम लोग समझ सकते थे। उस भाषा में बुद्ध-वचन रखे जाना एक भिन्न बात है और बोलचाल को भाषा में रखा जाना सर्वथा अन्य । दोनों में सादृश्य नहीं है। फिर भगवान् बुद्ध तो बोलचाल की भाषा के पक्षपातो थे ही । मूल बात अपनी-अपनी भाषाओं-अनेक बोलचाल की भाषाओं में बुद्ध-वचन अधिगत किये जाने की है। भिक्षु सिद्धार्थ ने इसी का परिहार किया है। पर, हेतु प्रस्तुत करते समय उन्हें सूक्षमता का ध्यान कम रहा है। उन्होंने निष्कर्ष रूप में जो विचार व्यक्त किये हैं, उनका आशय एक व्यापक अर्थ लिये हुए है। पर, आचार्य बुद्धघोष, डा० गायगर और स्वयं उन्होंने भगवान बुद्ध के उपदेशों की भाषा को मगध की बोलचाल की भाषा के यथावत् रूप से जोड़ने का जो प्रयास किया है, वह उपयुक्त अभिप्राय से मेल खाता हुआ नहीं दीखता। टकसाली मागधी और मगध प्रदेश की बोलचाल की मागधी एक नहीं हो सकतीं। भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों के लिए उस भाषा को अपनाया जो केन्द्रीय राज्य-सत्ता मण्डल या मध्य देश की टकसाली भाषा थी। क्या उन्होंने यह अपेक्षा नहीं को कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भृिक्ष, उसो में उनके बचनों की अनुज्ञात करें। सामान्यतः वह केन्द्र-भाषा, सम्पर्क-भाषा या राष्ट्र-भाषा सभी सम्बद्ध प्रदेशों में समझे जा सकने योग्य थी ही। विण्टरनित्ज ने सकाय निरुत्तिया के सन्दर्भ में डा० गायगर का खण्डन किया है। उन्होंने "भिक्खवे' के साथ 'वो' पद जोड़ने की अनिवार्यता नहीं मानी। उन्होंने कहा है कि प्रसंग से वह स्वयं समझे जा सकने योग्य है। डा० बी० सी० लॉ और डा० कीथ ने भी डा० गायगर के मत का खण्डन किया है। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने भी डा. गायगर के मत को मान्यता नहीं दी है। डपसंहार तथागत को किसो भाषा विशेष के प्रयोग में आग्रह नहीं था, पर, एक स्तर-भाषा को स्वीकार करना तो उनके लिए आवश्यक जैसा था। भिक्षुगण चाहे किसी भी प्रदेश के हों, 1. Budhist Studies, P. 649 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ! पालि भाषा और पिटक - वाङमय [ १८३ बुद्ध वचन का परिज्ञान करने हेतु किसी एक भाषा का ही अवलम्बन उपयुक्त रहा होगा । भविष्य में यह सम्भावना तो हो ही सकती है कि विभिन्न प्रदेश के भिक्षुओं द्वारा परिज्ञात या गृहीत किये गये बुद्ध वचन के पाठ में कुछ अन्तर पड़ जाए । पर, ऐसा हो पाना कम व्यवहार्यं प्रतीत होता है । यदि बुद्ध वचन को इस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं या बोलियों में सीखे जाने की स्थिति होती, तो उसमें एक रूपात्मकतापरक समन्वय कभी सम्भव नहीं था । पालि-ध्वनियों की विशेषता संस्कृत की ध्वनियों से तुलना करने पर पालि-ध्वनियों की कई विशेषताएं ज्ञात होती हैं। पालि में ऋ, ऋ, लृ, ऐ, औ, इन पांच स्वरों का प्रयोग नहीं पाया जाता । प्राकृत में भी ऐसा ही है । पालि में ऋ स्वर अ, इ, उ में से किसी एक में परिवर्तित हो जाता है । प्राकृत में भी ऐसी ही प्रवृत्ति प्राप्त है । पालि में ह्रस्व ए और ह्रस्व ओ के रूप में दो नये स्वर और प्राप्त हैं । प्राकृत में भी ऐसा ही है । पालि में विसर्ग का व्यवहार नहीं होता । प्राकृत में भी विसगं प्रयुक्त नहीं है । मूद्ध न्य ष् और तालव्य श्पालि में प्रयुक्त नहीं होते । मागधी के अतिरिक्त अन्य प्राकृतों में भो मूद्ध न्य ष् और तालव्य श्व्यवहृत नहीं होते । पालि में ळ व्यंजन का प्रयोग होता है । वैदिक संस्कृत में भी ळ का प्रयोग मिलता है, पर, लौकिक संस्कृत में यह प्रयुक्त नहीं होता । प्राकृत में इसका प्रयोग रहा है । यहां यह ज्ञातव्य है कि मिथ्या सादृश्य के कारण कहीं-कहीं ल के स्थान पर भी ळ का प्रयोग हो जाता है । पालि में ह स्वतन्त्र रूप में प्राण-ध्वनि व्यञ्जन माना गया है, किन्तु, यदि वह य्, र्, ल्, व् या अनुनासिक से संयुक्त हो, तो उसके उच्चारण में एक विशेष प्रकार का अन्तर आ जाता है । पालि-व्याकरणों में इस प्रकार के ह को ओरस ( उरस् = हृदय से उत्पन्न ) कहा गया है । ध्वनि-परिवर्तन पालि में अ, इ, उ, ए तथा ओ; ये ह्रस्व स्वर विद्यमान रहते हैं । प्रायः सभी प्राकृतों में भी ऐसा है । उदाहरणार्थ, संस्कृत के मुखम् शब्द का पालि रूप मुखं और प्राकृत रूप मुह होता है। यहां ह्रस्व दोनों जगह विद्यमान है। इसी प्रकार संस्कृत का प्रिय शब्द पालि में पिय और प्राकृत में भी पिय होता है । संस्कृत में यदि अकार संयुक्त व्यंजन पहले हो, तो पालि में कहीं-कहीं उसका ए हो जाता है । जैसे, शय्या शब्द का पालि रूप सेय्या होगा और प्राकृत रूप सेज्जा । 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ पालि के इकारान्त और उकारान्त शब्दों के रूप में विभक्त्यन्त अकार तथा उकारा दीर्घ हो जाते हैं। जैसे, संस्कृत के तृतीया विभक्ति के बहुवचन के रूप अग्निभिः के स्थान पर पालि में अग्गीहि होगा। सप्तमी विभक्ति बहुवचन के अग्नि के स्थान पर अग्गीसु होगा। संस्कृत में संयुक्त व्यञ्जन से पूर्व जो इ और उ होते हैं, पालि शब्दों में वे क्रमशः ए और ओ हो जाते हैं। जैसे, संस्कृत के पुष्कर शब्द का रूप पालि में पोक्खय होगा। ___ऋ का पालि तथा प्राकृत में कहीं अ, कहीं इ और कहीं उ हो जाता है। पालि में लु का भी उ हो जाता है। जैसे, संस्कृत का क्लप्त शब्द पालि में कुत होगा। पदान्त में जहां संस्कृत में दीर्घ स्वर होता है, पालि में वह हस्व हो जाता है। जैसे, देव शब्द की षष्ठि विभक्ति का रूप देवानाम् पालि में देवानं होगा। __ संयुक्त व्यञ्जन से पूर्व संस्कृत में जिन शब्दों में दीर्घ स्वर होता है, पालि में वह हस्व हो जाता है । जैसे, संस्कृत के जीणं शब्द का पालि रूप जिण्ण होगा। प्राकृत-रूप भी यही होगा। पालि में स्वर-भक्ति के व्यवहार का बाहुल्य है। स्वर-भक्ति में जब संयुक्त व्यञ्जन असंयुक्त या पृथक् कर दिये जाते हैं, तब संयुक्त व्यञ्जन से पहले आने वाला दीर्घ स्वर पालि में हस्व हो जाता है। उदाहरणार्थ, चैत्य शब्द का पालि रूप चेतिय और मौय' का मोरिय होगा। पालि और प्राकृत में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता। वहाँ विसर्ग तीन तरह से परिवर्तित होता है। शब्द के बीच में यदि विसर्ग हो, तो आगे आने वाले व्यञ्जन में उसका समावेश हो जाता है। जैसे, दुःसह का पालि रूप दुस्सह होगा। अकारान्त के आगे स्थित विसर्ग पालि में ओ में परिवर्तित हो जाता है। जैसे, बुद्धः-बुद्धो। इकारान्त और उकारान्त शब्दों के आगे आने वाले विसर्ग लुप्त हो जाते हैं; जैसे, अग्निः अग्गि। व्यंजन-परिवर्तन व्यञ्जनों के सम्बन्ध में परिवर्तन-सम्बन्धी कतिपय मुख्य नियम निम्नांकित रूप सामान्यतः संस्कृत शब्द के प्रारम्भ में विद्यमान असंयुक्त व्यञ्जन पालि में यथावत् बने रहते हैं । जैसे, कृ धातु के वर्तमानार्थक लूट लकार प्रथम पुरुष एक वचन का करोति रूप पालि में करोति ही रहता है। प्राकृत में वह करेदि हो जाता है। पालि और प्राकृत में 'क' बथावत रहा है। 2010_05 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा और पिटक -बाङ मयं [ १८५ ड्, भ्, ण्, न् और म्; संस्कृत के इन पांच अनुनासिक व्यञ्जनों में से केवल न और म के अतिरिक्त अन्य व्यञ्जन शब्द के आदि में प्रयुक्त नहीं होते। पालि में भी ऐसी ही स्थिति है | प्राकृत में नू का ण हो जाता है । शब्द के प्रारम्भ में स्थित य् र् ल् व् पालि में यथावत् बने रहते हैं । कहीं-कहीं र्ल् में परिवर्तित हो जाता है, जो मागधी प्राकृत की विशेष प्रवृत्ति है । उदाहरणार्थ, मागधी में राजा का सर्वत्र लाजा होगा । पालि में यह कादाचित्क है । संस्कृत में शब्द के आदि में विद्यमान अघोष अल्पप्राण व्यञ्जन ( क्, त्, प् आदि ) पालि में उसी वर्ग के अघोष महाप्राण ( ख् थ्, फ् आदि ) हो जाते हैं । उदाहरणार्थ, संस्कृत के कोल, कुजः तथा परशु पालि में खीलो, खुज्जो तथा फरसु के रूप में परिवर्तित होंगे | कहीं-कहीं इस नियम को विपरीतता भी दृष्टिगत होती है । अभिप्राय यह है कि संस्कृत अघोष महाप्राण व्यंजनों के स्थान पर पालि में उसी वर्ग के अघोष अल्पप्राण व्यञ्जन भी हो जाते हैं । उदाहरणार्थ, भगिनो के स्थान पर पालि में बहिनी और बहिणी भी देखा जाता है । शब्द के मध्य में स्थित संस्कृत अघोष स्पर्श व्यञ्जन पालि में उसी घगं के घोष स्पर्श व्यञ्जनों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । उदाहरणार्थं, 'माकन्दिय' का 'मागन्दिय' और 'उताहो' का 'उदाह' हो जाता है । शब्द के मध्य में विद्यमान व्यंजनों में अघोष अल्पप्राण व्यंजन पालि में उसी वर्ग के अघोष महाप्राण व्यंजन हो जाते हैं । जैसे, सुकुमार का पालि रूप सुखुमाल हो जाता है । व्यंजन पालि में कहीं-कहीं अघोष भी हो जाते हैं । जैसे, संस्कृत के घोष स्पर्श कुशीद = कुसीत । कहीं-कहीं संस्कृत के दन्त्य व्यंजन पालि में प्रायः मून्य हो जाते हैं । अर्थात् त, थ, द्धू, न्, पालि में ट् ठ् ड् ल्ह और ण हो जाते हैं । जैसे, दाह=डाह, शकुन = सगुण, प्रथम = पठम हो जाता है । यह नियम प्रायः आदि और मध्य दोनों ही स्थानों पर स्थित व्यंजनों के लिए है । शब्द के मध्य में स्थित संस्कृत के तालव्य स्पर्श वर्णों के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं दन्त्य स्पर्श वर्णं हो जाते हैं । जैसे, चिकित्सा = तिकिच्छा । शब्द के मध्यवर्ती मूद्ध न्य स्पर्शं वर्णों के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं दन्त्य स्पर्श वर्षा हो जाते हैं । जैसे, डिण्डिम - देण्डिम् | 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ न के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं र् या ल भी होता है। जैसे, नैरंजना=नेरंजरा, एनएल। संस्कृत के ण वर्ण के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं ळ होता है। जैसे, वेणु-बेलु। यह नियम शब्द के मध्य स्थित व्यंजन की अपेक्षा से है। संस्कृत के र् वर्ण के स्थान पर पालि में बहुलतया ल हो जाता है, र् भी बना रहता है। उदाहरणार्थ, संस्कृत के तरुण शब्द का पालि रूपान्तर तलुण भी है और तरुण भी। शब्द के मध्यवर्ती ल के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं र् हो जाता है। जैसे, आलम्बन-आरम्मण । शब्द के मध्यवर्ती य के स्थान पर पालि में व् हो जाता है। जैसे, आयुध आवुध । शब्द के मध्य स्थित व् के स्थान पर पालि में य हो जाता है। जैसे, दाव-दाय । यह नियम सर्वथा व्यापक नहीं है; अतः कभी दाव का दाव भी रहता है। संस्कृत के व् वर्ण के स्थान पर पालि में म् भी हो जाता है। जैसे, द्रविड-द्रमिल। ठीक इसके विपरीत एक नियम यह भी है, संस्कृत के म् के स्थान पर पालि में व हो जाता है। जैसे, मीमांसा-वीमांसा : पालि में वर्ण-विपर्यय के उदाहरण बहुत मिलते हैं। शब्द के बीच में विद्यमान व्यंजन परस्पर में एक-दूसरे के स्थान लेते हुए भी पाये जाते हैं। किसो खास वर्ण के लिए यह नियम नहीं है, पर, अधिकांशतः इसका सम्बन्ध र व्यंजन से है। जैसे, करेणु-कणेरु । ___ संस्कृत का स् पालि में क्ख या च्छ हो जाता है। जैसे, कक्ष-कच्छ, परीक्षापरिक्खा, अशि-अक्खि या अच्छि । संस्कृत के हग , हन्, हम् , हय , हव; इन संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर पालि में क्रमशः ण ह., नह , म्ह , यह , और वह हो जाते हैं । अर्थात् बाद में आने वाले ण न्, म्, य और व् पहले चले जाते हैं। पहले वाले उनके आगे चले जाते हैं। जैसे, अपराहण=अपरण्ह, चिहन से चिन्ह, जिह वा जिव्हा । संस्कृत के शन्, शम्, षण, म्, स्न्, सम्, यथाक्रम अह , म्ह, णह, मह., न्ह, और मह, हो जाते हैं। से, प्रश्न-पञ्ह, अश्म=अम्ह, उष्ण-उण्ह, ग्राम=गिम्ह, स्नान-न्हाण, विस्मय=विम्हय । संस्कृत शब्दों के अन्त में जो व्यञ्जन आते हैं, पालि में वे लुप्त हो जाते हैं। प्राकृत में भी ऐसी ही प्रवृत्ति है। उदाहरणार्थ, पालि में भगवान् का भगवा और सम्यक का सम्मा होता है। ___ 2010_05 . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और साहित्य ] पालि 5- वाङ मय 1 पालि भाषा और पिटक - वाङ्मय पालि का सबसे प्राचीन वाङमय त्रिपिटक के रूप में प्राप्त है । त्रिपिटक का अर्थं तीन पिटारियां हैं । ऐसा अनुमान करना असंगत नहीं लगता कि भगवान् बुद्ध के वचन संगृहीत किये जाने पर पृथक्-पृथक् विषयों के अनुसार तीन पिटारियों में रखे गये होंगे। कुछ समय पश्चात् वह वाङ्मय अलग-अलग तीन पिटकों के रूप में प्रसिद्ध हो गया । [ १८७ ईसा से पांच सौ वर्ष पूर्व का समय भारत में आध्यात्मिक व धार्मिक दृष्टि से क्रान्ति का समय था । ये क्रान्तियां पूर्वी भारत में हुई । ऐसा लगता है, यज्ञ-प्रधान वैदिक संस्कृत और धार्मिक परम्परा वहां जन मानस को सम्भवतः अधिक परितुष्ट नहीं बनाये रख सकी होगी। लोक-मानस में कुछ ऐसी मांग रही होंगी, जिसका अभिप्रेत शान्ति का मार्ग प्राप्त करना था । फलतः महावीर और बुद्ध के रूप में दो महान् क्रान्तिकारी व्यक्तित्वों का उदय एक ही समय में हुआ यद्यपि अवैदिक परम्परा के और भी कतिपय क्रान्तिकारी आचार्य थे, जिनके सम्बन्ध में पहले इंगित किया गया है, पर, वर्तमान में उनका कोई भी साहित्य प्राप्त नहीं है । केवल भगवान् महावीर तथा तथागत बुद्ध का साहित्य मिलता है । 2010_05 तब स्मृति में रखने की विशेष भगवान् बुद्ध ने उपदेशों के माध्यम के रूप में लोक भाषा को स्वीकार किया । उन्होंने जन-जन को अपने सन्देशों से आप्लावित करने के लिए जीवन और धर्म के तत्व-ज्ञान पर बहुत कुछ कहा । उनके सम्पर्क में लोग आते थे, उनसे प्रश्न पूछते थे । वे उनका उत्तर देते थे । अनेक धर्म-परिषदें होती थीं, जिनमें वे प्रवचन करते थे । सहस्रों लोग उनके प्रवचनों का श्रवण करते थे । बुद्ध का अपनी स्वयं की साधना के साथ-साथ यावज्जीवन यह लोक-कल्याण का क्रम गतिशील रहा । तथागत के वे सभी उपदेश मौखिक थे । उनके समय में उनके उपदेशो का लेखन नहीं हुआ । यद्यपि उस समय लेखन कला या लिपि ज्ञान अनधिगत नहीं था, पर ऐसा लगता है, धर्मोपदेश को परम्परा थी । प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि लेखन कला इसके लिए कोई सन्तोषजनक समाधान तो नहीं मिलता, पर है कि जिस तरह वैदिक परम्परा में वेदों को कण्ठाग्र रखने की एक विशेष प्रवृत्ति थी, सम्भवतः बुद्ध के वचनों के लिए भी यही प्रवृत्ति रही हो । बुद्ध वचनों को धारण करने वाले refभक्षु । इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्ध जब-जब बोलते, तीव्र स्मृति के धनी भिक्षु उन्हें कण्ठस्थ कर लेते । ऐसे भिक्षुओं के लिए विनयधर, धम्मधर, सुत्तन्तिक; मातृकाधर आदि विशेषण प्राप्त होते हैं । जो भिक्षु विनय-पिटक या विनय अथवा आचार-सम्बन्धी वचनों की धारण करने वाले थे; वे विनयधरा कहलाते थे । इसी प्रकार जो धर्म या धर्मंसिद्धान्त अथवा सुत-पिटक को धारण करने वाले थे, वे धम्मघर या सुत्तन्तिक कहलाते थे । ज्ञात थी, तो ऐसा क्यों ? इतना अवश्य कहा जा सकता Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड :२ जो तात्विक उपदेश सम्बन्धी अनुक्रमणिकाओं को धारण करने वाले थे, उन्हें मातृकाधर कहा जाता था। अनुक्रमणिकाओं को ही मातृकाए कहा जाता था। आगे चल कर अभिधम्मपिटक का विकास उनसे ही हुआ। महावग्ग, चुल्लवग्ग ,दोध-निकाय तथा अंगुत्तरनिकाय आदि में एतत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। एक प्रश्न स्वाभाविक है कि त्रिपिटक में जो बुद्ध-वचन आज प्राप्त हैं, क्या वे भगवान् बुद्ध द्वारा दिये गये समस्त उपदेश हैं ? त्रिपिटक का भी स्वयं का ऐसा दावा नहीं है कि भगवान् बुद्ध ने जो कुछ कहा, वह सबका सब उनमें संगृहीत है। अनेक ऐसे भी वचन हो सकते हैं, जो तथागत के मुख से उच्चरित हुए, पर, कण्ठस्थ नहीं रखे जा सके हों। इसके साथ-साथ यह भी समीक्षणीय है कि त्रिपिटक में जो कुछ है, क्या वह अक्षरशः बुद्ध-वचन ही है। त्रिपिटक के लेखन से पूर्व हुए उनके संकलन पर कुछ विचार अपेक्षित है, जिससे ये तथ्य स्वयं स्पष्ट हो जायेंगे। त्रिपिटक का संकलन भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के तीन मास बाद राजगृह में वेभार पर्वत के उतरी पाश्र्व में स्थित सप्तपर्णी गुफा में बौद्ध भिक्षुओं को सभा हुई, जिसका उद्देश्य बुद्ध-वचनों का संगानसंकलन या संग्रह था। बुद्ध के परिनिर्वाण के केवल तीन मास बाद ही ऐसा क्यों आवश्यक प्रतीत हुआ कि बुद्ध के वचन संगृहीत किये जाए ? बुद्ध एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था से आये थे। उन्होने अपने भिक्षु-संघ में उसी प्रकार की व्यवस्था की। उन्होंने कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया और न अपने संघ के भिक्षुओं को किसी उत्तराधिकारी के निर्वाचन के लिए आदिष्ट ही किया। धर्म-संघ पर व्यक्ति विशेष के शासन में सम्भवतः उनकी आस्था न रही हो। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म और विनय ही भिक्षु-संघ की शासन-व्यवस्था का आधार रहे, इस प्रकार का उनका आशय था। एक प्रसंग है, गोपक मोग्गलान ने आनन्द से प्रश्न किया- "भद्र आनन्द ! क्या कोई एसा भिक्षु है, जिसे तथागत ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तर यह तुम लोगों का आधार होगा, इसका तुम सहारा लोगे, मनोनीत किया ?" आनन्द का उत्तर था-"कोई ऐसा श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जिसे पूर्णत्व प्राप्त, स्वयंबोधित भगवान् ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तय यह तुम लोगों का सहारा होगा, जिसका अवलम्बन हम लोग ले सके, मनोनीत किया।" गोपक मोग्गलान ने पुनः पूछा-"पर, क्या आनन्द ! ऐसा कोई भिक्षु है, जिसे संघ ने स्वीकार किया हो और अनेक बुद्ध भिक्षओं द्वारा जिनके सम्बन्ध में यह कहते हुए व्यक्त किया 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा और पिटक - वाङ्मय [ १८९ गया हो कि तथागत के निर्वाण के अनन्तर यह हमारा सहारा होगा, जिसका तुम अवलम्बन ले सकते हो ।" आनन्द ने कहा- - " ऐसा कोई भी श्रमण-ब्राह्मण नहीं है, जिसे संघ ने माना हो.... और जिसका अवलम्बन हम ले सकते हैं । "1 भगवान् बुद्ध के अनन्तर विधिवत् उत्ताधिकारी के रूप में किसी भी व्यक्ति का मनोनयन नहीं हुआ, जो भिक्षु संघ के संचालन का आधिकारिक रूप से कार्य कर सके । क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए; इस सम्बन्ध में भिक्षु संघ के लिए कोई आधार था तो केवल बुद्ध वचन ही । भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे। उनके अन्तेवासी उन्हें सुनते थे, जन-समुदाय भी सुनता था । अन्तेवासियों का सम्भवतः यह प्रयत्न रहता था कि वे वचन उनकी स्मृति में रह सकें; इसलिए वे सम्भवतः इस और विशेष जागरूक भी रहते रहे होंगे । वस्तुतः भिक्षुओं का जीवन ध्यान और साधना का जीवन था। बुद्ध वचनों को वे स्मरण तो रखते थे, पर उनका इससे भी अधिक प्रयास उन्हें जीवन में उतारने की ओर था । भौतिक काया से जब भगवान् बुद्ध नहीं रहे, तो दायित्वशील भिक्षुओं को सहसा यह चिन्ता हुई कि तथागत के वचन स्थिर रहने चाहिए | उनके जीवन काल में तो वे आश्वत थे कि जब भी कोई शंका, विचिकित्सा होगी, भगवान् से समाधान पा लेंगे, किन्तु उनके अनन्तर अब तो उनके पास केवल भगवान् के वचन ही आधार थे, जिनसे वे समाधान पा सकते थे । वे जानते थे कि मनुष्य में अनेक दुर्बलताएं हैं । अवसर पाते ही वे उभय उठती हैं और मानव के सत्व को दबा लेती हैं, उसे पथ-भ्रष्ट कर डालती हैं। बड़ी साथधानी, तत्परता तथा विवेक के साथ मन का नियमन करना होता है । इन्हीं सब कारणों से भिक्षुओं को यह आवश्यक लगा कि बुद्ध के वचनों का संगायन ( संगान ) किया जाए । भिक्षुओं को यह भी चिन्ता थी कि भगवान् के वचनों की धरोहर को अब तक तो वे सहेजे हुए हैं, आगे कौन सहेजेगा ? मानवीय दुर्बलता की जो चर्चा की गयी है, वह कल्पना नहीं है, यथार्थ है । इस सम्बम्ध में दीव - निकाय का एक प्रसंग विशेषतः मननीय है । भगवान् बुद्ध के अनुपाधि-शेष निर्वाण धातु में प्रविष्ट हो जाने को सात दिन भी नहीं हुए थे, सुख पाये थे कि समुद्र नामक एक वृद्ध भिक्षु को यह भिक्षुओं के शोक कहते हुए सुना के आंसू भी नहीं गया - - 'आयुष्मान् The Middle Length Saying, Vol. III, P. 59-60 1. 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भिक्षुओ! बहुत हुआ। अव शोक मत करो। परिवेदना-चिलाप मत करो। हम उस महाश्रमण से सुमुक्त हो गये । हमें वह उपद्रुत–पीड़ित किया करता था—यह तुम्हारे लिए कल्पनीय-विधेय है, यह नहीं कल्पनीय-अविधेय है। अब हम लोगों की जो इच्छा होगी, हम करेंगे। जो इच्छा नहीं होगी, नहीं करेंगे।" । एक वृद्ध भिक्षु के ये वचन निःसन्देह आश्चर्य उत्पन्न करते हैं। वास्तविकता यह है कि जब कोई अभियान या आन्दोलन सभावृत हो जाता है, तो उसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित होने लगते हैं, जिनमें उनके प्रति सच्ची निष्ठा या आस्था तो नहीं होती, पर, जो उससे अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं, सुविधायें भोगना चाहते हैं। यदि इस प्रकार के अवसरवादी लोग बढ़ जाते हैं, तो यह अभियान टूटने लगता है। उससे होने घाले जन-कल्याण का पथ अवरुद्ध होने लगता है। ऐसा लगता है, भगवान बुद्ध के धर्म संघ में ऐसे लोग भी प्रविष्ट हो चुके थे। वृद्ध भिक्षु सुभद्र तो खुल कर सामने आया, पर, न जाने और भी ऐसे कितने ही होंगे। ऐसी कुछ स्थितियां थीं, जिनसे विवेक और साधना के धनी भिक्षु चिन्तित हो उठे थे। चुल्लवग्ग में इस सन्दर्भ में आर्य महाकाश्यप की अन्तर्धेदना का बड़े मार्मिक शब्दों में उल्लेख हुआ है। आयं महाकाश्यप के मुह से कहलाया गया है-"आज हमारे समक्ष अधर्म दीप्त हो रहा है। धर्म प्रतिबाधित हो रहा है। अविनय दीपता जा रहा है और विनय प्रतिबाधित होता जा रहा है। आयुष्मन् भिक्षुओ। हम धर्म और विनय का संगान करें। संगान को आशय बद्ध के वचनों के संग्रह या संकलन में जो संगान या संगीति शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका सम्भवतः एक विशेष अभिप्रेत रहा है। यद्यपि भगवान् बुद्ध ने अन्तर प्रान्तीय १. अलं आवुसो। मा सोचित्थ। मा परिदेवित्य। सुमुत्ता मयं तेन महासमणेन । उपद्रुता च होम। इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पतीति । इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम तं करिस्पाम। यं न इच्छिस्साम तं न करिस्साम । -महापरिनिव्वाण सुत्त, ( दीध०२ । ३ ), विनय-पिटक चुल्लवग्ग पंचसतिक खन्धक । २. पुरे अधम्मो दिप्पति, घम्मो पटिबाहियति अविनयो दिपति, विनयो पटिबाहियति हन्द मयं आवुसो ! धम्मं च विनयं च संगायाम । --विनय-पिटक, चुल्ल-बग्ग ____ 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ १९१ मागधी में अपना उपदेश दिया; अतः जिन भिक्षुओं ने उसे सुना, स्मृति में रखा। उसमें विशेष भिन्नता की आशंका तो नहीं की जानी चाहिए, फिर भी वे भिक्षु भिन्न-भिन्न प्रदेशों के निवासी थे, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में धर्म सन्देश को प्रसृत करने के हेतु विहार करते थे; अतः उन-उन प्रदेशों की तथा अपनी बोली का प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। मौलिक तथ्यों के सम्बन्ध में भेद नहीं हो सका, पर, वचनों के कलेवर या शाब्दिक स्वरूप में कुछ-न कुछ भेद अवश्य पड़ा होगा। ऐसी स्थिति में विभिन्न विशेषज्ञ स्मृतिधर भिक्षों को जैसा-जेसा स्मरण था, उसका अनुमेलन कर, एक सर्वसम्मत स्वरूप स्वीकार करके उसका सामूहिक रूप में उच्चारण, सस्वर या लयपूर्वक पाठ किया गया होगा । उसे संगान या संगीति इसलिए कहा गया होगा। वैदिक परम्परा में स्वर और लय पूर्वक वेद-पाठ का एक विशेष क्रम था ही। साम-गान आदि शब्द इसके द्योतक हैं। ऐसा अनुमान है कि बुद्ध वचन के स्वरूपसमन्वय या पाठ निर्णय के सन्दर्भ में एक साथ सम स्वर से उच्चारित किये जाने के कारण सम्भवतः संगान या संगोति शब्द का प्रयोग बौद्ध परम्परा में चल पड़ा हो । संगान-सम्यक् गान, संगीति-सम्यक् गीति का ऐसा अभिप्राय भी हो सकता है कि तन्मयता पूर्वक ओतप्रोत भाव से बुद्ध-वचनों का उच्चारण किया गया होगा । यह पद्यभाग और गद्यभाग दोनों के लिए लागू हो सकता है । प्रथम संगीति प्रथम संगीति या भिक्षुओं की पहली परिषद् भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के चौथे मास में हुई । बुद्ध का परिनिर्वाण वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को हुआ था। तदनुसार यह परिषद् सम्भवतः भाद्र मास में होनी चाहिए । सभी विनयधर एवं धम्मधर भिक्षुओं को आमन्त्रित किया गया । बौद्ध वाङमय के अनुसार इसमें पांच सौ भिक्षु सम्मिलित हुए थे; अतः इसे पंचशतिका के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इसकी अध्यक्षता आयं महाकाश्यप ने की। भगवान् बुद्ध के निकटतम अन्तेवासो आनन्द भी इसमें उपस्थित थे। बौद्ध परम्परा में आनन्द के लिए 'धम्मवर विशेषण प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है कि आनन्द धम्म ( धर्म ) के विशिष्टतम ज्ञाता थे । विनय के मर्मज्ञ महापति उपालि भी इस परिषद् में उपस्थित थे। उपालि के लिए बौद्ध वाङ्मय में 'विनयधर' विशेषण का प्रयोग हुआ है । विनय बौद्ध परम्परा का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ मुख्यतः आचार-नियम है । उसी प्रकार धम्म का पारिभाषिक अर्थ धार्मिक सिद्धान्त है। उपालि बौद्ध आचार के परम वेत्ता थे। आयं महाकाश्यप ने आनन्द से धर्म के सम्बन्ध में तथा उपालि से विनय के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न किये, जिनका उन्होंने जैसा तथागत से सुना था, उत्तर दिया। आयं महाकाश्यप के शब्दों में धम्मञ्च विनयंञ्च संगायेय्याम अर्थात् धर्म और विनय का संगान करें; सबके 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ समक्ष प्रस्ताव आया । भिक्षुओं ने धर्म और विनय का संगान किया । इसका यह आशय प्रतीत होता है कि आनन्द और उपालि ने जो उत्तर दिये, अन्यान्य स्मृतिमान् और मेघावी भिक्षुओं ने अपनी स्मृति के आधार पर उनका समर्थन किया होगा। कुछ परिष्कार, परिवर्तन, परिवद्धन आदि भी सुझाये गये होंगे। फिर तुलनात्मक और समन्वयात्मक रूप में सबके कथनों पर विचार करते हुए धम्म और विनय का स्वरूप निश्चित किया गया होगा। सबने स्वीकृत पाठ का समवेत स्वरूप से उच्चारण किया होगा । यही सुत्त-पिटक और विनय-पिटक का एक प्रकार से पहला संकलन है। प्रथम संगीति की ऐतिहासिकता बौद्ध परम्परा में इस संगीति की प्रामाणिकता निर्बाध है। चुल्ल वग्ग ( विनय-पिटक ), बीपवंस, महावंस, समन्तपासादिका (विनय-पिटक की बुद्धघोष-रचित अट्ठकथा ) की निदानकथा, महाबोधिवंस, महावस्तु और तिब्बती दुल्व में इस परिषद् का वर्णन है। यद्यपि वर्णन में थोड़ी-बहुत भिन्नता अवश्य है, पर, मूल स्थिति में अन्तर नहीं है। सभा बुलाये जाने के उद्देश्यों में पृथक-पृथक् वर्णनों में कुछ-कुछ अन्तर है, जिसका विशेष महत्व नहीं है। किसी ने वृद्ध भिक्षु सुभद्र के दुर्भाषित पर विशेष जोर दिया है, किसी ने इसका उल्लेख भी नहीं किया है और किसी ने कोई दूसरे साधारण कारण उपस्थित किये हैं। धम्म और विनय के स्वरूप-निर्धारण में इसके अतिरिक्त किस-किस का कितना योगदान था, इस विषय पर भी विद्वानों में मत-भेद है । चुल्लवग्ग में इस सम्बन्ध में जो वर्णन है, उसके अनुसार समग्र कार्य आर्य महाकाश्यप, आनन्द और उपालि द्वारा हो सम्पादित हुआ। दीपवंस में जो वर्णन है, उसके अनुसार कतिपय अन्य भिक्षुओं का भी विशेष योगदान रहा। उन भिक्षुओं में अनिरुद्ध, बंगीश, पूर्ण, कात्यायन और कोट्टित आदि मुख्य थे। वस्तुतः इस संगीति में मुख्य भाग आर्य महाकाश्यप, आनन्द और उपालि का तो था ही, अन्य स्मृतिमान् भिक्ष भी सहायक बने; तभी तो इसने संगान का रूप लिया। अन्यथा संगान नहीं कहा जाता, केवल आयं महाकाश्यप, आनन्द और उपालि द्वारा किया गया बुद्ध-वचन का आवतंन मात्र होता। बुद्धघोष का अभिमत प्रथम संगीति में धम्म ( सुत) और विनय का संगान हुआ। इस समय प्राप्त सुत्तपिटक और विनय पिटक में वह कहां तक यथावत् रूप में है, इस पर आगे विचार किया जायेगा। अभिधम्म के संगान की प्रथम सगीति के सन्दर्भ में कहीं चर्चा नहीं मिलती। 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १९३ इससे सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अभिधम्म का संकलन प्रथम संगीति के अनन्तर हुआ ? बौद्ध परम्परा ऐसा नहीं मानती। वह तीनों पिटकों की रचना में कालभेद स्वीकार नहीं करती। वह उनका साथ-ही-साथ रचा जाना या संकलित किया जाना मानती है । आचार्य बुद्धघोष ने तो स्पष्ट लिखा है-"इस प्रकार पंचशतिक संगीति के समर में समग्र बुद्ध-वचन का विनय-पिटक, सुत्त-पिटक, अभिधम्मपिटक तथा चौरासी हजार धर्म स्कन्धों के रूप में विभाजन कर, व्यवस्थापन कर संगान किया गया ।"] आचार्य बुद्धघोष ने सुमंगलविलासिनी तथा समन्तपासाविका की निदान कथा में भी अभिधम्म-पिटक के विषयों का संकेत करते हुए प्रथम संगीति के अवसर पर ही उसके आकलित होने का उल्लेख किया है ।। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो वर्षों तक भारत में रहे, नालन्दा विद्यापीठ के आचार्य भी रहे, ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है। त्रिपिटक का जो रूप राजगृह की परिषद् में निर्धारित हुआ, अक्षरश: वह वर्तमान त्रिपिटक में सुरक्षित है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वर्तमान त्रिपिटक मूलतः उसी पर आधारित है। त्रिपिटक की प्रामाणिकता के सन्दर्भ में चुल्लवग्ग का एक प्रसंग है। जिस समय राजगृह के वेभार पर्वत पर यह संगीति हुई, पुराण नामक एक भिक्षु उधर विहार करता हुआ आ निकला। उससे कहा गया, वह भो संगोति में भाग ले। उसने उत्तर दिया- "स्थधिरों ने धम्म और विनय का सुन्दर रूप में संगान किया है। किन्तु, जैसा मैंने स्वयं शास्ता के मुह से श्रवण किया है, ग्रहण किया है, वैसा ही आचरण करूगा।"3 कुछ विद्वानों ने इस घटना को लेकर राजगृह में हुई परिषद् की प्रामाणिकता में सन्देह किया है। उनका सोचना है कि पुराण की इस उक्ति में राजगृह की परिषद् में भिक्षुओं १. एवमेतं सव्वं पि बुद्धवचनं पंचसतिकसंगीतिकाले संगायन्तेन इवं विनयपिटकं, इदं सुत्तन्त पिटकं, इदं अभिधम्मपिटकं, इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी ति इमं पभेदं ववत्थयेत्वा व संगीतं । -अट्ठसालिनो, पृ० २३ (पूना संस्करण, १९४२) २. ततो अनन्तरं-धम्मसंगणि विभंगञ्च, कथावत्युश्च पुग्गल, धातु - यमक - पट्टानं, अभिधम्माति वुच्चतीति । एवं संविणितं सुखुम णमोचरं, तन्तिं संगायित्वा इदं अभिधम्म पिटकं नामाति वत्वा पञ्च अरहन्तसतानि सज्झायमकंसु । ३. विनय-पिटक, चुल्लवग्ग, बुद्धचर्या, पृ० ५५२ ____ 2010_05 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ द्वारा संगान किये गये धम्म और विनय के प्रति अप्रामाणिकता का भाव है । सम्भवतः सारा भिक्षु संघ इसमें सहमत भी न रहा हो। डा. रमेशचन्द्र मजूमदार की दृष्टि में भिक्षु संघ के लिए यह घटना अशुभावह थी। उन्होंने इसे संघ के लिए खतरे की घण्टी बताया है। डॉ० भरतसिंह उपाध्याय ने इसे विद्वानों का भ्रम मानते हुए कहा है : "पुराण तो एक साधक पुरुष था। एकान्त-साधना का भाव उसमें अवश्य अधिक था, जिसके कारण वह अपनी उस ध्यान-भाधना में, जो उसे शास्ता के प्रत्यक्ष सम्पर्क से मिली थी, किसी प्रकार का विक्षेप नहीं आने देना चाहता था। दूसरों ने बुद्ध-मुख से जो कुछ सुना है, वह सब ठीक रहे, सत्य रहे। किन्तु, पुराण को तो अपना जीवन-यापन उसी से करना है, जो उसकी आवश्यकता को देखते हुए स्वयं भगवान् ने उसे दिया है। इस दृष्टि से न तो पुराण की उक्ति में राजगृह की सभा में संगायन किये हुए बुद्ध-वचनों की अप्रामाणिकता की ओर संकेत है और न वह भिक्षु-संघ के लिए खतरे की घंटी ही थी। इस प्रकार के स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु संघ ने कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया, यह उसकी एक विशेषता है। धर्मवादो भिक्षुओं ने धर्म का वैसा ही संगायन किया, जैसा उन्होंने स्वयं भगवान् से सुना था और जो उन्होंने संगायन किया, उसके ही दर्शन पालि सुत्त और विनय पिटकों में मिलते हैं, यद्यपि उनके साथ कुछ और भी मिल गया है।" डा. उपाध्याय जैसा कि लिखते हैं, यह बिलकुल सही है कि स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु-संघ में किसो भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं था। पर, भिक्षु पुराण के "किन्तु, जैसा मैने स्वयं शास्ता के मुख से सुना है, मुख से ग्रहण किया है, मैं तो वैसा ही धारण करूगा;" इन शब्दों पर कुछ गहराई से सोचना होगा। इन शब्दों में यदि संगीति या परिषद् में संगान किये गये बुद्ध-वचनों के प्रति विरोध का भाष नहीं है, तो समर्थन का भाव भी नहीं है। "मैं तो वैसे ही धारण करूगा;" इन शब्दों द्वारा जो विशेष दृढ़ता भिक्षु पुराण प्रकट करता है, उससे उसका उक्त संगीति के प्रति उपेक्षा-भाव या अरुचिभाव भी व्यक्त होता है। भिक्षु सिद्धार्थ एकान्त साधक, ध्यानी जो कुछ भी हो सकता है, पर, जहां बुद्ध के वचन संकलित किये जा रहे हों, वहां आहूत किये जाने पर भी उपस्थित न होना और जैसा स्वयं सुना है, उसके अनुसार चलते रहने का दृढ़ निश्चय व्यक्त करना, जहां उसकी अपनी निष्ठा का परिचायक है, वहां संगीति के प्रति अनादर नहीं तो उपेक्षा का भाष तो है ही। १. This was a danger signal for the Church. -Budhistic Studies, Edited by Dr. Law, P. 44 २. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ६१ ____ 2010_05 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १६५ संगीति के समसामयिक कुछ ऐसे भिक्षु भी रहे होंगे, जिनकी दृष्टि में इसका बहुत अधिक महत्व नहीं था। वे जो कुछ तथागत से सुन चुके थे, उतने से परितुष्ट थे। बुद्धवचनों के चिर-स्थायित्व और उससे सम्पत्स्यमान लोक-कल्याण की चिन्ता उन्हें नहीं थी। और नहीं तो कम-से-कम इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि महान् करुणाशील बुद्ध के महाकरुणा के सिद्धान्त का परिपोषण तो इससे नहीं होता। साथ-ही-साथ बौद्ध संघ के लिए इतना महत्वपूर्ण कार्य हो रहा था, उसके प्रति सर्वथा उदासीनता का भाव क्या यह व्यक्त नहीं करता कि जो बहुत प्रसिद्ध भिक्षु थे, उन्होंने ही इस कार्य को प्रारम्भ कर दिया हो। समग्न भिक्षु संघ की सम्मत्ति सम्भवतः नहीं प्राप्त की गयी हो। जो भी हो, संगीति की प्रामाणिकता पर इससे कोई आंच नहीं आती। दुसरी संगीति बुद्ध-वचन प्रथम संगीति में संगृहीत कर लिये गये, यद्यपि उनका रूप मौखिक ही था। तदनुसार भिक्षु संघ चलता रहा। लगभग एक शताब्दी के पश्चात् पुन: एक प्रसंग बना, जिससे यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि बुद्ध-वचन का पुन: संगान किया जाए। चुल्ल वग्ग में इस सम्बन्ध में स्पष्टतया सौ वर्ष का उल्लेख है। नत्सांग की गणना के अनुसार यह समय एक सौ दश वर्ष का था। द्वितीय संगोति का आयोजन वैशाली के बालुकाराम मामक स्थान में किया गया। इसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया। इसलिए इसे सप्तशतिका भी कहा जाता है। परिषद् के बुलाये जाने का कारण विनय-आचार से सम्बद्ध कुछ विषयों को स्पष्ट करना था, जो विवादग्रस्त हो चुके थे। वैशाली के भिक्षुओं पर आरोप था कि वे दश आचारों में बौद्ध विनय के विरुद्ध प्रवृत्ति करते हैं । वे दश आचार थे : १. सिंगिलोण-कप्प ( शृंगि-लवण-कल्प )-सींग में लवण भरकर ले जाना। २. द्वगुल-कप्प ( द्वयंगुल-कल्प )-दो अंगुल छाया बिता कर मध्याह्न के बाद भी . भोजन करा लेना। ३. गामन्तर-कप्प ( नामान्तर-कल्प )-ग्रामान्तय से अर्थात् किसी एक गांव से दूसरे गांव में जाकर एक ही दिन में पुनः भोजन कर लेना । ४. आवास-कप्प ( आवास-कल्प )-एक ही सीमा में स्थित बहुत से आवासों में उपोसप करना। ५. अनुमति-कप्प ( अनुमति-कल्प )-कर्म करने के बाद अनुमति लेना । १. वस्ससतपरिनिन्छुते भगवति । www.jainelibri ____ 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ६. अचिण्ण-कप्प ( आचीर्ण-कल्प )-अपने आचार्य या उपाध्याय द्वारा आचरित किसी कार्य को अपने लिए कल्प्य-विहित बना लेना । ७. अमथित-कप्प ( अमथित-कल्प )-भोजनोत्तर ऐसे दूध का पान करना, जो दही जमने की प्रक्रिया में था, पर, जो अभी दही नहीं बना था और शुद्ध रूप में दूध भी नहीं रहा था। जलोगी-पान-ताड़ी पीना। ६. अवसक-निसीवन ( अवशक-निषीदन )-ऐसे आसन का प्रयोग करना, जिसके किनारे पर मगजी नहीं लगी हुई हो।। १०. जातरूप-रजत-स्वर्ण और रजत ग्रहण करना। वैशाली के भिक्षु इन दश के आचरण में दोष नहीं मानते थे। इसे लेकर भिक्षुओं में दो दल हो गये-पाचीनक ( प्राचीनक ) और पावेय्यक (प्रातीचीनक ) अर्थात् पूर्व के भिक्षु तथा पश्चिम के भिक्षु । पूर्व के भिक्षु वैशाली के भिक्षुओं के पक्ष में थे तथा पश्चिम के भिक्षु वैशाली के भिक्षुओं के उक्त आचरणों को आलोच्य तथा सदोष मानते थे। वैशाली की परिषद् इन्हीं विवादग्रस्त विषयों का निर्णय करने के लिए हुई। यह परिषद् आठ महीने तक चली। निष्कर्ष यह रहा कि इस परिषद् ने वैशाली के भिक्षुषों के उक्त आचरण को विनय के प्रतिकूल घोषित किया। वर्तमान में विनयपिटक जिस रूप में प्राप्त है, उससे उक्त दश आचार, जिनके सम्बन्ध में निर्णय करने के लिए वैशाली में दूसरी संगीति का आयोजन हुआ था, बुद्ध के मन्तव्यों के विपरीत बतलाये गये हैं। इससे क्या यह सम्भावना नहीं बनती कि विनय पिटक का जो संस्करण आज प्राप्त है, वह वैशाली की संगीति के पश्चात् विनय का जो रूप निश्चित हुआ, के आधार पर निर्मित हुआ। उससे पूर्व, हो सकता है, विनयपिटक का रूप कुछ भिन्न रहा हो। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार प्रभृति विद्वानों ने इस सन्दर्भ में इस प्रकार का निष्कर्ष निकाला है कि वर्तमान विनय-पिटक वैशाली की संगीति के पूर्व का नहीं हो सकता ।। पेशाली की संगीति से पूर्व यदि त्रिपिटक का कोई दूसरा स्वरूप होता और उसमें वे दश आचार, जो उस संगीति में बुद्ध-वचन के प्रतिकूल ठहराये गये, अनिषिद्ध होते, तो फिर विवाद ही कैसे उठता ? वैशाली के भिक्षुओं के पास तब एक आधार होता, जिससे उनका माचार सहज ही समर्थित माना जाता । पश्चिमी प्रदेश के भिक्षुओं को उनके आचार को दुषित बताने का साहस ही कैसे होता और आठ महीनों के लम्बे विचार-विमर्श के बाद ऐसा १. Budhist Studies, Edited by Dr. Law, P. 62 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ १९७ निर्णय करने की स्थिति ही कैसे आती कि वैशालो के भिक्षुओं का आचार दूषणीय है। आठ महीनों के शास्त्र-मन्थन तथा ऊहापोह के पश्चात् एक निर्णय होता है, . तो यह मानना होगा कि उसके पीछे बहुत सुदृढ़ आधार अवश्य रहा होगा। वह आधार विनय-सम्बन्धी बुद्ध-वचनों के अतिरिक्त और क्या हो सकता था? यह संशयास्पद नहीं लगता कि वैशाली को संगीति से पहले विनय का प्रायः वही रूप रहा हो, जो आज विनय-पिटक में है । गौणरूपेण परिष्करण, परिमार्जन, परिवर्तन आदि को छोड़ दिया जाये, जिस पर आगे विचार किया जायेगा, वंशालो की संगोति से पूर्व के और वर्तमान के विनयपिटक में कोई मौलिक अन्तर नहीं माना जा सकता। पर, इसके साथ यह विचारणीय है कि यदि वैशाली को संगोति से पूर्ववर्ती विनयपिटक में उक्त दश आचारों का वर्जन था या उनका समर्थन नहीं था, तो फिर पूर्वी प्रदेश के भिक्षुओं को उनका समर्थन करने के लिए कौन-सा आधार प्राप्त था ? शताब्दियों तक पिटक अलिखित रहे। मौखिक रूप में उनका पठन-पाठन चलता रहा । मौलिकता के साथ एक आशंका भी बनी रहती है। यथार्थ धर्म-निष्ठा से विचलित होकर यदि कोई अपने किसी अविहित आचरण को समर्थित करना चाहे, तो शब्दावली को उलट-पुलट करने, उसमें परिवर्तन, परिवद्धन का अवकाश वह निकाल लेता है। वैशाली के भिक्षुओं और उनके समर्थक भिक्षुओं के साथ भी कोई ऐसी ही स्थिति रही हो । घेशाली पूर्व भारत का राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र था। जब पश्चिम प्रदेश के भिक्षुओं ने वैशाली के भिक्षुओं का विरोध किया, तो मानवीय दुर्बलतावश पूर्व प्रदेश के मित्रों में प्रादेशिकता का भाव उभर आया हो । यद्यपि ये बहुत छोटी बातें हैं । भिक्षु के पवित्र जीवन के साथ इनका मेल नही हो सकता, पर, भिक्षु भी साधारण जन-समाज से ही गये थे, उनमें भी यह सब सम्भावित था। स्वर्ण-रजत रखने, ताड़ी पीने, खान-पान में लोलुप बनने को छूट भगवान् बुद्ध के शासन में कैसे सम्भव हो सकती थी? ऐसा अनुमान करना सत्य से परे नहीं लगता कि वैशाली के भिक्षुओं में निःसन्देह कुछ दुर्बलताए पनपी हों और उन्होंने इन सदोष कार्यों को भी निर्दोष प्रमाणित करने का आग्रह रखा हो। नये बुद्ध-वचनों की सृष्टि वैशाली के भिक्षु और उनके समर्थक पूर्व के भिक्षु वैशाली की परिषद् में पराजित हुए । उनके मन्तव्य बुद्ध-वचनों के प्रतिकूल घोषित किये गये। इसके दो परिणाम सामने आये । पहला था-विनय का जो स्वरूप था, वह स्पष्ट हुआ, अविकृत रूप में वह पुनर्गठित हुआ। दूसरा परिणाम निकला-जो भिक्षु पराजित हुए, वे संगीति के निर्णय के सामने नहीं भुके। उन्होंने उसका बहिष्कार किया और एक नयी महा-संगीति आयोजित की। उसमें नये बुद्धवचनों की सृष्टि की, जिन्हें उन्होंने वास्तविक कहा । अपमानित भिक्षुओं की उत्तेजना का 2010_05 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन | खण्ड :२ यह फल निकला। दीपवंस में इस महासंगीति की बड़े कड़े शब्दों में आलोचना की गयी है । "महासंगीति आयोजित करने वाले भिक्षुओं ने भगवान् बुद्ध के शासन को दूसरा ही संघ खड़ा कर वहां लिखा है विपरीत बना डाला । उन्होंने मूल संघ में भेद पैदा करके एक दिया । उन्होंने धर्म के यथार्थ आशय को भेद डाला । उन्होंने दूसरे हो सुत्तों का संग्रह किया, दूसरे ही अर्थ किये। पांच निकार्यों के यथार्थ आशय और धर्म प्ररूपण को उन्होंने भेद डाला 11 सब कुछ हुआ तो सही, पर, स्थायी नहीं बन पाया । पालि त्रिपिटक के समक्ष उसकी कोई प्रामाणिकता स्थापित नहीं हो सकी । फलतः आगे चल कर उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं यह पाया । वैशाली की संगीति में विवादास्पद विषयों पर निर्णय हो जाने के पश्चात् प्रथम संगीति की तरह भिक्षुओं ने महास्थविर रेवत के नेतृत्व में धम्म का संगान और संकलन किया । आचार्य बुद्धघोष ने जिस प्रकार प्रथम संगीति के समय बुद्ध वचन के संगान, तीन पिटकों में विभाजन आदि का उल्लेख किया है, उसी प्रकार द्वितीय संगीति के समय बुद्ध वचन के अनुसंगान का उल्लेख किया है । संगान और अनुसंगान शब्दों के प्रयोग से आचार्य बुद्धघोष ने त्रिपिटक की एकात्मकता की ओर इङ्गित किया है । तीसरी संगीति बौद्ध धर्म उतरोत्तर अधिकाधिक विकास पाता गया । अशोक द्वारा दिये गये राज्याश्रय के कारण उसकी आशातीत वृद्धि हुई । पर, साथ-ही-साथ एक बुराई यह भी आई कि अशोक जैसे धर्मानुरागी सम्राट् से बौद्ध धर्म संघ और भिक्षुओं को प्राप्य दान, सुविधा, सत्कार आदि के कारण अनेक स्वार्थी लोग जो विचारों से बौद्ध नहीं थे, उसमें प्रविष्ट होते गये । इस प्रकार धर्म का स्वरूप विकृत होने लगा । अशोक के समय तक बौद्ध धर्म भिन्न-भिन्न अठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था । तब यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि संगीति आयोजित की जाए, धम्म और विनय का पुनः संगान हो, जिससे जो अनधिकारी धम्म संघ में घुस आये हैं, उनका संघ से निष्कासन किया जा सके । फलतः सम्राट् अशोक के शासन काल में भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद पाटलिपुत्रस्थ अशोकाराम में १. महासंगीतिका भिक्खू विलोमं अकंसु सासनं । भिन्दित्वा मूलसंघ अञ्ञं अकंसु संघं ॥ अज्ञत्थ संगहितं सुरां अत्थ अकरिंसु ते । अत्यं धम्मं च भिन्दिसु ये निकायेसु पंचसु ॥ - दीपवंस, ५, ३२-३८ 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा और पिटक -वाङमय [ १ee तृतीय संगीति का आयोजन किया गया । अठारह सम्प्रदायों में थेरवादी ( स्थविरवादी ) या विभज्यवादी मुख्य ( सम्प्रदाय ) था । बौद्ध धर्म का वास्तविक प्रतिनिधि वही सम्प्रदाय है, ऐसा उसका दावा था । तृतीय संगीति का अन्तिम निर्णय भी उसी के पक्ष में रहा अर्थात् वही बौद्ध धर्म का वास्तविक प्रतिनिधि घोषित किया गया । थे या स्थविर का शब्दार्थ वृद्ध होता है । वृद्ध केवल अवस्था के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है; ज्ञान, तत्व-दर्शन और आचार - ज्येष्ठता के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है । बुद्ध के प्रथम शिष्यों को स्थविर शब्द से अभिहित किया गया है । भगवान् बुद्ध के मन्तव्यों के सम्बन्ध में उन्हीं का मत प्रामाणिक माना जाता है । स्थविर भिक्षुओं की विभज्यवाद में आस्था थी; अतः वे विभज्यवादी भी कहलाते थे । विभज्यवाद से तात्पर्य उस दर्शन से है, जो प्रत्येक पदार्थ का विभाजन करा अर्थात् उसके संदेश को सत् और असंदश को असत् बतला कर वस्तु- सत्य का निरूपण करे । विशेष गहराई में जाए, तो विभज्यवाद का एक सूक्ष्म तात्विक अर्थ भी है । इसके अनुसार समस्त मानसिक और भौतिक अवस्थाओं का स्कन्ध, आयतन और धातु आदि में विभाजन करा विश्लेषण किया जाता है । दीपवंस, महावंस और समन्तपासादिका में इस संगीति का उल्लेख प्राप्त होता है । महायानी बौद्ध साहित्य में इस संगीति का उल्लेख नहीं है और न ह्वेनत्सांग ने ही इसके विषय में कुछ विवरण दिया है । अशोक के किसी भी शिलालेख में इस संगीति की चर्चा नहीं है । ऐसी स्थिति में मिनयेफ, क्रीथ, मैक्स वेलेसर, बार्थ, फ्रैंक तथा सिल्वालेवी जैसे प्रसिद्ध विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता में शंका की है, जबकि प्रो० रायस डेविड्स, श्रीमती रायस डेविड्स, विष्टरनित्ज एवं गायगर आदि विद्वानों ने इस परिषद् की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता स्वीकार की है । अनुल्लेख का कारण अशोक के समय तक बौद्ध धर्म में अठारह सम्प्रदाय इतिहास में आ चुके थे । सम्भव है, अन्य सम्प्रदायों के अनुयायियों ने इस संगीति को केवल स्थविरवादी या विभज्यवादी सम्प्रदाय की संगीति मानकर इसे समस्त बौद्धों की संगीति नहीं माना हो; इसलिए इसका उल्लेख न किया हो । सम्राट अशोक की विद्यमानता में यह संगीति हुई और अशोक द्वारा कहीं भी इसका उल्लेख न कराया जाना भी आश्चर्यजनक सा लगता है । पर, यहां यह भी स्मर्तव्य है कि स्वयं सम्राट अशोक का लगाव स्थविरवाद से था । अशोक नहीं चाहता होगा कि उसके समर्थन को महत्व मिले । वह अपने को उस संगीति से सर्वथा निर्लिप्त रखना चाहता होगा, ताकि उसके द्वारा ( संगीत ) जो निर्णय हो, वह राज प्रभावित न माना जाए | अशोक बौद्ध धर्म का सर्वसम्मत यथार्थ स्वरूप उद्घोषित करवाना चाहता 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ होगा। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस संगीति के आयोक्ता तथा अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स, जो अपने समय के बहुत बड़े विद्वान्, तत्व-द्रष्टा और परम साधक थे, को ही इसका सारा श्रेय प्राप्त हो, इस दृष्टि से भी अशोक ने अपने को तटस्थ रखा होगा। उसे तटस्थता में अधिक लाभ प्रतीत हुआ होगा। जो भी हो, संगीति की ऐतिहासिकता इन कारणों से बाधित नहीं होती। संगोति के निर्णय अनेक प्रदेशों के बहुश्रुत भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया। यह संगीति नो मास तक चलती रही। इसमें बहुत गहराई और सूक्ष्मता से बुद्ध-वचन के यथार्थ स्वरूप के प्रकाशन का प्रयत्न रहा होगा। नौ महीनों के ऊहापोह और विचार-विमर्श के अनन्तर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय इसमें किये गये। तदनुसार स्थविरवाद के अतिरिक्त जो सतरह अन्य सम्प्रदाय थे उन्हें मिथ्यावाको घोषित किया गया। थेरवादी या विभज्यवादी सम्प्रदाय को बौद्ध धर्म का सच्चा प्रतिनिधि माना गया । बुद्ध-वचनों का अन्तिम रूप से स्वरूप-निश्चय किया गया। मोग्गलिपुत्त तिस्स ने कथावत्थु नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें सतरह सम्प्रदायों का खण्डन या निराकरण किया गया है, जिन्हें इस संगीति के फल-स्वरुप मिथ्यावादी वोषित किया गया था । कथावत्यु को अभिधम्मपिटक में स्थान दिया गया। अभिधम्म : परम्परा कथावत्यु का अभिधम्मपिटक में समावेश करा दिये जाने से यह शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि स्वरूप-गठन में लम्बा समय लगा होगा। आचार्य बुद्धघोष और ह्वेनसांग ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि आर्य महाकाश्यप के सभापतित्व में सम्पन्न प्रथम संगीति में ही इसका विनय और धम्म के साथ संगान किया गया था। इसमें सूक्ष्म तात्विक या दार्शनिक विवेचन है। भगवान् बुद्ध का समय इस प्रकार का था, जब सदाचार, करुणा तथा धर्म के सर्वजनगम्य सिद्धान्तों के प्रसार की आवश्यकता थी। इससे व्यापक लोक-कल्याण सम्भावित था । बौद्ध परम्परा में दार्शनिक विकास का युग आगे चल कर आता है। इसलिए ऐसा मानना अधिक संगत जान पड़ता है कि अंशतः अभिधम्म को विषय-वस्तु प्रथम संगीति में चचित हुई होगी और विनय तथा धम्म के साथ उसका भी सम्पूर्ण न सही, कुछ स्वरूप तो अवश्य अस्तित्व में आया होगा। उसके संघद्धन, संयोजन आदि का क्रम भी चालू रहा होगा। कथावत्य का उसमें समाविष्ट किया जाना ऐसे अनुमान के लिए आधार दे देता है। तृतीय संगीति का एक महत्वपूर्ण फलित तृतीय संगीति में एक महत्वपूर्ण निर्णय यह किया गया कि जन-जन के कल्याण के हेतु बौद्ध भिक्ष धर्म-सन्देश का प्रसार करने के लिए दूर-दूर के प्रान्तों और देशों में भेजे जाए। 2010_05 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय । २०१ इसके लिए कार्यक्रम निर्धारित किया गया। दीपवंस, महावस और समन्तपासादिका में उन भिक्षुओं की नामावली का उल्लेख है, जिन्हें पृथक्-पृथक् स्थानों में जाकर धर्म-प्रसार करने का कार्य सौंपा गया था । त्रिपिटक का लेखन ___ सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए जो कार्य किया, उसको अप्रतिम सेवाए कीं, वे सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेंगी। सम्राट को अपने इस कार्य से बड़ा परितोष मिला । कहा जाता है, सम्राट ने एक बार महास्थविर तिस्स मोग्गलिपुत्त से कहा कि उसने बौद्धधर्म के लिए जो कुछ किया है, वह पर्याप्त है न ? महास्थविर बोले-"सम्राट् तुमने धर्म के लिए, धर्म-संघ के लिए बहुत कुछ किया, जो स्तुत्य है। परा, एक बहुत बड़े महत्व का कार्य अभी अपशिष्ट है, जिसे तुम नहीं कर सके हो।" सम्राट ने पूछा-"भन्ते ! कृपया बतलाए, वह कौन-सा कार्य है, जिसे पूरा कर मैं परितोष का अनुभव कर सकू।" महास्थविर ने कहा-"राज-परिवार का कम-से-कम एक सदस्य धर्म-संघ ( भिक्षु-संघ ) में प्रवजित होना चाहिए।" सम्राट ने श्रद्धा से मस्तक झुका लिया और कहा-“भन्ते ! एक नहीं, मैं राज-परिवार के दो सदस्य धर्म-संघ को भेज दूंगा-एक पुत्र और एक पुत्री।" तदनुसार सम्राट अशोक का एक पुत्र और एक कन्या बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणी के रूप में दीक्षित हो गये, जो इतिहास में महेन्द्र और संघमित्रा के नाम से देश-देशान्तर में तथागत के धर्म-सम्देश के प्रसार के निर्णय के अन्तर्गत महेन्द्र और संघमित्रा को लंका भेजा गया। राजकुकार भिक्षु और राजकुमारी भिक्षुणी अपने साथी भिक्षु-भिक्षुणियों के साथ अत्यन्त उत्साह एवं उल्लासपूर्वक तथागत का पावन सन्देश लिये लंका पहुंचे। तृतीय संगीति में अन्तिम रूप से स्वीकृत त्रिपिटक वे अपने साथ लेते गये अर्थात् त्रिपिटक का वे सांगोपांग अध्ययन किये हुए थे, वह उनकी स्मृति में था। तब लंका का राजा देवानंपिय तिस्स था। तथागत के धर्म-सन्देश-वाहक भारतीय भिक्षुओं का उसने हार्दिक स्वागत किया। स्वागत-सत्कार ही नहीं, उसने स्वय तथागत के सन्देश को अंगोकार किया। लंका के अनुराधापुर नगर में महाविहार की स्थापना हुई और वहां त्रिपिटक के अध्ययन का व्यवस्थित क्रम प्रारम्भ किया गया। शताब्दियों तक वह चालू रहा, पर, मौखिक रूप में । लंका के गाजा पट्टगामणि अभय ( समय ई० पूर्व २६-१७) के शासन-काल में लंका 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ में चतुर्थ धर्म-संगीति का आयोजन हुआ। उसमें त्रिपिटक के परिशीलन और संगान के अनन्तर ऐसा निर्णय किया गया कि उसे लेख-बद्ध किया जाए । तदनुसार त्रिपिटक का ताड़पत्रों पर लेखन हुआ। यह वही त्रिपिटक था, जिसे राजकुमार ( भिक्षु ) महेन्द्र और राजकुमारी (भिक्षुणो) संघमित्रा तथा उनके साथी भारत से अपने साथ लंका ले गये थे। भिक्षु महेन्द्र के लंका-गमन और लंका-नरेश वट्टगामणि अभय के समय त्रिपिटक के लेख-बद्ध किये जाने के मध्य लंका में दो और संनीतियां हुई थीं, पर, उनका विशेष महत्व नहीं समझा जाता; क्योंकि उनमें त्रिपिटक के स्वरूप के सन्दर्भ में कोई विशेष चर्चा नहीं हुई। भिक्षु महेन्द्र जिस रूप में त्रिपिटक को ले गये थे, लगभग उसी रूप में वहां चलते रहे थे; अत: मध्यवर्ती दो संगीतियां त्रिपिटक की बावृत्ति-मात्र कही जा सकती हैं। यही कारण है कि प्रमुख संगीतियों में उनकी गणना नहीं की जाती। पहली संगीति देवान पिय तिस्स (२४७-२०७ ई. पूर्व) के समय में सम्पन्न हुई, जिसने भिक्षु महेन्द्र और संघमित्रा के नेतृत्व में लंका आई हुई भिक्षु-मण्डली का हार्दिक स्वागत किया था और स्वयं बौद्ध उपासक बन गया था। दूसरो संगीति राजा दुट्ठगामणि के शासन काल में हुई। दुट्ठगामणि का समय १०१-७७ ई० पूर्व माना जाता है । लंका में त्रिपिटक के लेख-बद्ध किये जाने पर उसका एक अपरिवत्यं च स्थायी स्वरूप निर्धारित हो गया। वहीं आज प्रामाणिक रूप में मान्य है। आधुनिक कालीन संगोलियां सगीतियों का आयोजन जिस अभिप्राय अथवा उद्देश्य से होता रहा, त्रिपिटक के लेखबद्ध हो जाने के पश्चात् वैसी अपेक्षाएं नहीं रहीं। स्मृतिगत पाठों का मिलान, संगान आदि का कार्य लेख-बद्धता के साथ परिसमाप्त हो जाता है । फिर भी त्रिपिटक के सम्पादन, पाठसंशोधन आदि को दृष्टि से कुछ कार्य अवशिष्ट रह जाता है, जो उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में सम्पन्न हुआ। इसके लिए विद्वान् भिक्षुओं को जो सभाए या गोष्ठियां हुई, उन्हें भी ऐतिहासिक परम्परा को कड़ियों के साथ जोड़ने के लिए संगीतियां कहा जाता है। इस प्रकार की दो संगीतियां हुई और दोनों ही ब्रह्मदेश में हुई। ब्रह्मदेश का भी सिंहल की तरह थेरवादी बौद्ध देशों में महत्वपूर्ण स्थान है। पहली संगीति ब्रह्मदेश के मांडले नगर में हुई, जिसे सजा मिण्डन का संरक्षण प्राप्त था। इसमें पालि-त्रिपिटक का सम्पादन किया गया। स्थायित्व की दृष्टि से विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक को संगमर्मर की शिला-पट्टिकामों पर उत्कीर्ण कराया गया। तीनों पिटक क्रमशः १११, ४१० और २०८ पट्टिकाओं पर बर्मी लिपि में उत्कीर्ण हुए। सन् १९५४-५६ में इसके पश्चात् ब्रह्मदेश के रंगून नगस में अन्तिम रूप से त्रिपिटक का ____ 2010_05 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [२०३ पाठ संशोधित करने के अभिप्राय से एक परिषद् का आयोजन हुआ, जिसे छठी संगीति कहा जाता है। उसकी उपलब्धि के रूप में पालि - त्रिपिटक का अन्तिम रूप में संशोधित पाठ तैयार किया गया तथा उसका बर्मी-लिपि में प्रकाशन किया गया। सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् भिक्षु जगदीश काश्यप के सम्पादकत्व में देवनागरी लिपि में जो पालि-त्रिपिटक का संस्करण निकला है, वह मुख्यतः इसी बर्मी त्रिपिटक के पाठ पर आधारित है। निष्कर्ष त्रिपिटक के स्वरूप-गठन को दो भागों या दो कालों में बांटा जा सकता है। पहला भगवान बुद्ध से लेकर लंका - वट्टगामणि अभय तक का समय, जब त्रिपिटक ताडपत्रों पर लेख-बद्ध हुए। दूसरा लेख-बद्ध होने से लेकर अब तक का काल, जबकि त्रिपिटक मुद्रित रूप में उपलब्ध हैं। पहला काल बहुत महत्वपूर्ण है। इसी में वे तीन संगीतियां आयोजित हुई, जो त्रिपिटक के स्वरूप - निर्धारण की दृष्टि से ऐतिहासिक गरिमा लिये हुए हैं । संगोतियों का क्रम कहने के लिए आगे भी चला, पर, उनकी कोई ऐसी विश्वेषता नहीं थी, जो उल्लेखनीय हो । आयोजित संगीतियों, उनके कारणों आदि के सम्बन्ध में पुन: समीक्षा आवश्यक है। बुद्ध कौशल के राजकुमार थे। मगध उनका मुख्य कार्य-क्षेत्र था। वे जीवन - पर्यन्त विशेषतः मगध में विचरण करते रहे। जो उन्हें उपलब्धि हुई थी, जन-जन को उससे परिचित कराने के लिए जब भी अवसरा होता, वे कुछ बोलते रहे। किसी प्रदेश का व्यक्ति यदि किसी दूसरे प्रदेश में रहता है, तो वह वहां उसी शिष्ट भाषा में बोलता है, जो उसके अपने प्रदेश में भी शिष्ट जनों द्वारा व्यवहृत होती है और उस प्रदेश में भी। ऐसी शिष्ट भाषा अन्तप्रान्तीयस्तर लिये हुए होती है। उदाहरणार्थ, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार; ये सभी हिन्दी भाषी प्रान्त हैं। साहित्यिक स्तर और शिष्ट प्रयोग की दृष्टि से इन प्रदेशों के निवासियों की एक ही भाषा हिन्दी है, जिसका पुराना नाम खड़ी . बोली था। पर, इसके साथ-साथ इस अन्तरप्रान्तीय या शिष्ट-भाषा की अनेक बोलियां हैं, जो बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के भिन्न-भिन्न भागों में बोली जाती हैं । एक मध्यप्रदेशी, उत्तरप्रदेशो या राजस्थानी किसी बिहारी के साथ बातचीत करने में उस हिन्दी या खड़ी बोली का उपयोग करेगा, जो दोनों प्रदेशों में शिक्षित जनों में समान रूप से व्यवहृत है। यही बात एक बिहारी के लिए भी है। वह भी यदि मध्यप्रदेश, राजस्थान या उत्तरप्रदेश में यहां के किसी व्यक्ति से बातचीत करेगा, तो उसका माध्यम हिन्दी होगा, न कि मध्यप्रदेश, राजस्थान या उत्तरप्रदेश की कोई एक क्षेत्रीय बोली। यद्यपि इन सभी प्रदेशों की क्षेत्रीय उपभाषाए या बोलियां हिन्दी की ही बोलियां कही जाती हैं, पर, वे 2010_05 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ बोलियां एक क्षेत्र विशेष तक सीमित होती हैं; अतः अन्तरान्तीय दृष्ट्या एक ही भाषाभाषी दो भिन्न प्रदेशों के व्यक्तियों के लिए यह सहज ही सम्भव नहीं होता कि वे उन भिन्न क्षेत्रों की बोलियों को ठीक-ठीक समझ सके। इसी दृष्टि-बिन्दु के सन्दर्भ में तथागत के काल का समीक्षण करना होगा। भगवान बुद्ध की भाषा मगध की शिष्ट भाषा थी। निःसन्देह वे अपने युग के एक क्रान्तिकारी महापुरुष थे। बोधि लाभ के अनन्तर 'बहुजन हिताय बहुजनसुखाय' का अभिप्रेत लिये उनका सन्देश लगभग समस्त उत्तर भारत में व्याप्त हो गया था। अनेक प्रदेशी के पुरुष-स्त्रियां उनके संघ में प्रवजित हुए। उनकी अपनी-अपनी बोलियां थीं। सम्भवतः कार्य-क्षेत्र भी उनको भिन्न-भिन्न मिले होंगे। यह भी हो सकता है, जो भिक्षु जिन-जिन प्रदेशों से आये थे, अधिकांशतः उन - उन प्रदेशों में धर्म प्रचार का कार्य उन्हें सौंपा गया होगा। वहां जिन लोगों में उन्होंने तथागत का सन्देश प्रसारित किया, सम्भव है, उनको भलीभांति हृदयंगम कराने के लिए उन्होंने उन - उन प्रादेशिक भाषाओं या बोलियों को अल्पांशतः ही सही, किसी-न-किसी रूप में व्यवहृत किया होगा। भिक्षुओं को अपनी ओर से उपदेश नहीं देना था, उन्हें तथागत के वचनों से जन - जन को अवगत कराना था; अतः उन वचनों का शाब्दिक रूप उन्हें उन-उन प्रदेशों के साधारण जनों द्वारा समझी जा सकने योग्य शैली में प्रस्तुत करना पड़ा होगा। सारांश यह है, भिक्षुओं ने बुद्ध-वचन स्मृतिगत तो किया उसी शब्दावली में, जिसमें स्वयं तथागत ने भाषित किया था, पर, उसके रूप में मौलिकतया तो नहीं, परन्तु, शाब्दिक आदि दृष्टि से गोणतया परिवर्तन की यत्किंचित् स्थिति अवश्य आई होगी। संगीतियों की लम्बी कालावधि से यह ध्वनित होता है कि विभिन्न प्रदेशों से आने वाले भिक्षुओं की स्मृति में बुद्ध-वचन के जो पाठ थे, उन्हें तुलनात्मक रूप में मिलाया जाता रहा होगा। भेदों के अपाकरण के लिए एक सर्वसम्मत पाठ स्वीकृत किया जाता रहा होगा। इसका प्रयोजन हुआ कि बुद्ध वचनों के स्वरूप में परिष्कार आता गया; यद्यपि तत्वतः उनकी मौलिकता नहीं मिटी । परिष्कार और संस्कार तो होता गया, पर, बुद्धवचन में कोई बड़ा परिवर्तन जैसा नहीं हुआ। बुद्ध ने जिस शिष्ट मागधी ( भाषा ) को उपदेशों का माध्यम बनाया था, वह भी आस-पास की प्रादेशिक बोलियों का एक सम्मिश्रित जैसा रूप लिये हुए थी। पहली संगीति के लगभग एक शती के अनन्तर जो दूसरी संगीति धैशाली के बालुकाराम में हुई, उसमें आठ मास का समय लगा। ऐसा प्रतीत होता है, राजगृह में वेभार गिरि की संगोति में घिनिश्चित त्रिपिटक का पाठ इन सौ वर्षों में प्रादेशिक अनुकूलता के कारण इतना रूपान्तय, अधिकांशतः चाहे शाब्दिक ही सही, अघश्य ले चुका होगा कि पाठों के समन्वय तथा अन्ततः निर्धारण में विभिन्न प्रदेशों से समागत भिक्षुओं को इतनी लम्बी अवधि तक ____ 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [२.५ चिन्तन-मनन तथा ऊहापोह करना पड़ा होगा। यद्यपि इस संगीति के आयोजित करने का मुख्य कारण वैशाली के भिक्षुओं के आचार से सम्बद्ध था। पर, यदि केवल आचार-निर्णय ही एकमात्र उद्देश्य होता, तो हरकोई सोच सकता है, आठ मास कैसे लगते ? संगोति में सम्मिलित सातसो भिक्षुओं को वैशालिक भिक्षुओं के आचार पर निर्णय देना तो था ही, साथ-ही-साथ उससे भी गुरुतर कार्य, जो उनके लिए करणीय था, वह था, त्रिपिटक के पाठ का समन्वय और परिष्कार, जो उन्होंने बड़ी लगन से किया। बौद्ध धर्म का वह उत्कर्ष-काल था । समय बीतने के साथ-साथ बौद्ध धर्म की अभिवृद्धि होती गयी। भिक्षुओं की विहार-यात्राए और दूर-दूर होने लगीं। बुद्ध-वचनों का घोष व्यापक रूप में मुखरित होने लगा। पर, धीरे-धीरे वही सब कुछ होता गया, जो पिछली संगीति के पश्चात् हुआ था। परिणामतः तीसरी संगीति में मिथ्यावादियों के निराकरण और निष्कासन का कार्य तो हुआ ही, पाठ-परिष्कार का ऐतिहासिक कार्य भी सम्पन्न हुआ। नौ महीनों का लम्बा समय लगने का यही रहस्य है। तीन संगीतियों की समीक्षा के पश्चात् एक दूसरे मोड़ पर आते हैं। राजकुमार महेन्द्र शैशव से ही उज्जयिनो में रहे थे। पिता सम्राट अशोक की भावना का आदर करते हुए वे भिक्षु-संघ में दीक्षित हो जाते हैं और तथागत के धर्मदूत के रूप में सिंहल जाते हैं। महेन्द्र मगध-नरेश के पुत्र थे, पर, उज्जयिनी में रहने के कारण उनकी भाषा मागधी नहीं थी। उज्जयिनी को बोलचाल की भाषा-प्राकृत, जो अनिवार्य रूप से पश्चिमी प्रभाव लिये हुए थी, उनकी मातृ-भाषा थी। महेन्द्र त्रिपिटक साथ में लेते गये। क्या यह सम्भावित नहीं हो सकता कि महेन्द्र के माध्यम से लंका पहुंचने वाले त्रिपिटक पर उज्जयिनी की भाषा का कुछ भी प्रभाव न रहा हो ? अनेक स्थितियों में से गुजरते हुए त्रिपिटक लंका पहुंचते हैं और वहां भी लम्बे समय तक उनका मौखिक पठन-पाठन ही चलता है। पर, लंका पहुंचने के पश्चात् उनके स्वरूप में अन्तर आने की स्थितियां सम्भवतः उत्पन्न नहीं होतीं। उत्तर भारत के विभिन्न प्रदेशों में पहुंचने पर त्रिपिटक की शब्दावली में न चाहते हुए भी जो रूपान्तरण की स्थिति पैदा हो जाती थी, वह लंका में नहीं रही। महेन्द्र द्वारा त्रिपिटक के लंका पहुंचने और लंका-नरेश वडगामणि अभय के शासन-काल में उनके लिपि-बद्ध होने के बीच दो संगीतियां हुई, पर, सम्भवतः वे परम्परा-निर्वाह मात्र के लिए हुई हों। उनका महत्व केवल नाम मात्र का था। त्रिपिटक के सन्दर्भ में विशेष कुछ करणीय नहीं था, जो उन संगीतियों में किया जाता। तथागत ने अपने उपदेशों में जिस मागधी को ग्रहण किया, वह उपलब्ध त्रिपिटक में क्या यथावत् रूप में विद्यमान रह सकी है, निश्चित रूप में कुछ कहा नहीं जा सकता। विधाय, कपन 2010_05 | Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ प्रकार और अधिकांशतः शब्दावली की भी मौलिकता उसमें अक्षुण्ण है, ऐसा कहना सन्देहास्पद नहीं है। त्रिपिटक वाङमय : संक्षिप्त परिचय सुत्त-पिटक सुत्त-पिटक पालि-त्रिपिटक का सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग है। बुद्ध द्वारा धम्म का यथावत् रूप में परिचय कराना सुत्त-पिटक का मुख्य विषय है। महापरिनिव्वाण-सुत्त ( दीघ-निकाय २, ३ ) में भगवान् बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था-"आनन्द ! मैंने जो धर्म और विनय उपदिष्ट किये हैं, ज्ञापित किये हैं, मेरे अनन्तर ( मेरे निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् ) वे ही तुम्हारे शास्ता होंगे ।" सुत्त-पिटक निस्सन्देह भगवान् बुद्ध द्वारा प्रज्ञाप्त धर्म का प्रतिपादन करने वाला अनुपम वाङमय है। सुत्त का संस्कृत रूपान्तर सूत्र भी होता है और सूक्त भी। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों में पालि सुतों के प्रतिरूप सूत्र कहे गये हैं। सुत्त का अर्थ सूत्र, सूत या धागा होता है। पिटक का अर्थ पिटासी है। पिटक का एक अर्थ परम्परा भी है। आचार्य बुद्धघोष ने अट्ठसालिनी की निदान-कथा में इन दोनों अर्थों की ओर संकेत किया है। मज्झिम-निकाय के चंकी -सुत्त तथा सन्दक-सुत्त में पिटक शब्द-परम्परा या ग्रन्थ-परम्परा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसे ध्यान में रखते हुए सुत्त का पिटक 'अर्थात् सूत्र (धागे ) रूपी बुद्ध-वचनों की परम्परा ऐसा अथं किया जा सकता है। जिस प्रकार सूत के गोले को उधेड़ने पर आगे-से-आगे खुलता जाता है, उसी प्रकार बुद्ध-वचन सुत्त-पिटक में आगे-से-आगे उद्घाटित होते जाते हैं । आचार्य असंग ने ( चतुर्थ शती) महायान-सूत्रालंकार में 'सूचनात् सूत्रम्' अर्थात् विषय-वस्तु को सूचित करने के कारण सूत्र संज्ञा होती है; ऐसी व्याख्या दी है। आचार्य बुद्धघोष ने अटुसालिनी में 'अत्थानं सूचनतो-सुत्त' ति अक्खातं' अर्थात् अर्थों के सूचन से यह ( सुत्त ) सूत्र शब्द से आख्यात हुआ है, ऐसा विवेचन किया है। वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रचुरता से प्रयोग होता रहा है। शब्द कल्पद्रुमकार ने सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है-"जिसमें कम अक्षर हों, जो असन्दिग्ध हो, सारयुक्त हो, जिसका विश्वजनीन उपयोग हो, जो विस्तार रहित हो, निर्दोष हो; सूत्रज्ञ उसे सूत्र १. मज्झिम-निकाय, २, ५, ५ २. वही, २, ३, ६ 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पाली भाषा और पिटक वाङमय [२०७ कहते हैं। विस्तृत अर्थ को संक्षेप में कहने के अभिप्राय से वैदिक परम्परा में सूत्रात्मक शैली का प्रवर्तन रहा। पालि-वाङ्मय में जो सुत्त-सूत्र शब्द चलता है, वह इस अर्थ में नहीं है। वहां बहुत विस्तार है, जो सूत्र शब्द के उपर्युक्त अयं के प्रतिरूप है। सुप्त-पिटक : वर्णित विषय __ सुत्त-पिटक में भगवान बुद्ध के उपदेश-वचन हैं। बुद्ध के कुछ मुख्य शिष्यों के उपदेश भी उसमें संकलित हैं, जो बुद्ध-वचनों पर आधारित थे। बुद्ध-उपदेश के अतिरिक्त वहां ई०पू० पांचवीं-छठी शताब्दी के भारत के समाज एवं लोक-जीवन का जीता-जागता चित्र भी प्राप्त होता है। बुद्ध के समसामयिक धर्म - प्रवर्तकों, श्रमणों, परिवाजकों और उनके सिद्धान्तों के विषय में प्रासंगिक रूप में इसमें विशद प्रकाश डाला गया है। तत्कालीन जन-समुदाय की रुचि, व्यवसाय, विद्या, कला, विज्ञान, राजनीति, ग्राम, नगर, जनपद, लोगों का रहन-सहन, खेती, व्यापार, सामाजिक रीतियां, समाज में स्त्रियों का स्थानं, दास-दासियों और नौकरों की अवस्था प्रभृति अनेक उपयोगी विषय चचिंत हुए हैं। रचना गद्य-पद्य-मिश्रित है। __सुत्त-पिटक के पांच बड़े-बड़े विभाग हैं, जो निकाय कहलाते हैं। वे हैं : (१) दीघनिकाय, (२) मज्झिम-निकाय, (३) संयुक्त-निकाय (४) अंगुत्तर-निकाय (५) खुद्दक-निकाय । दोघ-निकाय : लम्बे-लम्बे उपदेशों का संग्रह है। तीन वर्गों के अन्तर्गत निम्नांकित चौतीस सुत ( सूत्र ) हैं जो इस प्रकार हैं : (क) सीलक्खन्ध-वग्ग १. ब्रह्मजाल-सुत्त ८. कस्स्पसोहनाद-सुत्त २. सामञफल-सुत्त ६. सोट्ठपाद-सूत्त ३ अम्बट्ठ-सुत्त १०. सुभ-सुत्त ४. सोणदण्ड-सुत्त ११. केवड्ड ( केवट्ट )-सुत्त ५. कूटदन्त-सुत्त १२. लोहिच्च-सुत्त ६. महालि-सुत्त १३. तेविज्ज-सुत्त ७. जालिय-सुत्त स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्य च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः । 2010_05 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] आगम और त्रिपटिक : एक अनुशीलन [खण्ड :२ (ख) महावग्ग १४. महापदान-सुत्त १६. महागोविन्द-सुत १५. महानिदान-सुत २०. महासमय-सुत्त १६. महापरिनिवाण (न)-सुत्त २१. सक्कपह-सुत्त १७. महासुदस्सन-सुत्त २२. महासतिपट्ठान-सुत्त १८. जनवसभ-सुत्त २३. पायासिराजज-सुत्त (पायासि-सुत्त) (ग) पाटिक-वम्ग २४. पाटिक-सुत्त ( पाथिक-सुत्त ) ३०. लक्खण-सुत्त २५. उदुम्बरिकसीहनाद-सुत्त(उदुम्बरिक-सुत्त) ३१. सिं (सि) गालोषाद-सुत्त २६. चक्कवत्तिसोहनाद-सुत्त (चक्कत्ति-सुत्त) ३२. आटानाठिय-सुत्त २७. अग्गज्ञ सुत्त ३३. सगीतपरियाय-सुत्त (संगीति-सुत) २८. सम्पसादनी (नि) स-सुत्त ३४. दसुत्तर-सुत २६. पासादिक-सुत्त सोलक्खन्ध-वग्ग के अन्तर्गत संख्या एक पर सूचित ब्रह्मजालसुत्त में बुद्ध के समसामयिक बासठ दार्शनिक मतों का उल्लेख है, जो भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । सीलक्खन्ध वग्ग में संख्या तीन पर निर्दिष्ट सामअफल-सुत्त में बुद्ध के समसामयिक धर्म-प्रवर्तकों का वर्णन है, जो अपने को तीथंडर कहते थे। उनके नाम हैं : पूरण कस्सप, मक्खलि गोसाल, अजितकेसकम्बल, पकुधकच्चायन, निगण्ठनाथपुत्त तथा संजय बेलट्ठिपुत्त । मज्झिमनिकाय : चार आर्य सत्य, ध्यान, समाधि, कर्म आत्मवाद के दोष, निर्वाण आदि विषयों का विशद विवेचन किया गया है। यह पन्द्रह वर्गों के अन्तर्गत एक सौ बावन सुत्तन्तों में विभक्त है। (क) मूलपरियाय-वग्ग १. मूलपरियाय-सुत्त ६. आंकखेय्य-सुत्त २. सब्बासव-सुत्त ७. वत्यूपम-सुत्त ३. धम्मदायाद-सुत्त ८ सल्लेख-सुत्त ४. भयभेरव-सुत्त ६ सम्मादिट्ठि-सुत्त ५. अनंगण-सुत्त १० सतिपट्टान-सुत्त ____ 2010_05 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य [२०६ ११. चूलसोहनाद-सुत १२. महासोहनाद-सुत्त १३. महाहुक्खक्खन्ध-सुत्त १४. चूलदुक्खक्खन्ध-सुत १५. अनुमान-सुत पालि भाषा और पिटक वाङमय (ख) सोहनाद-वग्ग १६. चेतोखिल-सुत्त १७. वनपत्थ-सुत्त १८. मधुपिण्डिक-सुत्त १६. द्वेधावितक-सुत्त २०. चितक्कसंथान-सुत २१. ककचूपय-सुत्त २२. अलगद्दपम सुत्त २३. वम्मिक-सुत २४. रथविनीत-सुत्त २५. निवाप-सुत (ग) ओपम्म-वग्ग २६. अरियपरियेसन-सुत्त (पासरासि-सुत्त) २७. चूलहत्थिपदोपम सुत्त २८. महाहत्थिपदोपम-सुत २६. महासारोपम-सुत ३०. चूलसारोपम-सुत्त (घ) महायमक-वग्ग ३१. चूलगोसिंग-सुत्त ३२. महागोसिंग-सुत ३३. महागोपालक-सुत्त ३४. चूलगोपालक-सुत्त ३५. चूलसच्चक-सुत्त ३६. महासच्चक-सुत्त ३७. चूलतहासंख्य-सुत्त ३८. महातण्हासंखय-सुत्त ३६. महाऊरसपुर-सुत्त ४०. चूलअस्सपुर-सुत्त ४१. सालेय्यक-सुत्त ४२. वेरज्ञक-सुत्त ४३. महावेदल्ल-सुत्त ४४. चूलवेदल्ल-सुत्त ४५. चूलधम्मसमादान-सुत्त (ङ) चूलयमक-वग्ग ४६. महाधम्मसमादान-सुत्त ४७. वीमंसक-सुत्त ४८. कोसम्बिय-सुत्त ४६. ब्रह्मनिमंतनिक-सुत्त ५०. मारतज्जनिय-सुत ५१. कन्दरक-सुत्त ५२. अट्टकनागर-सुत्त (च) गहपति-वग ५३. सेख-सुत्त ५४. पोतलिय-सुत ____ 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ २१० ] ५५. जीवक-सुत्त ५६. उपालि-सुत्त ५७. कुक्कुखतिक-सुत्त ५८. अभयराजकुमार-सुत्त ५६. बहुवेदनीय-सुत्त ६०. अपण्णक-सुत्त ६१. अम्बल टिकराहुलावाद-सुत्त ६२. महाराहुलोषाद-सुत्त ६३. चूलमालुक्य-सुत्त ६४. महामालुक्य-सुत्ता ६५. भद्दालि-सुत्त (छ) भिक्खु-वग्ग ६६. लटुकिकोपम-सुत्त ६७. पातुम-सुत्त ६८. नलकपान-सुत्त ६६. गुलिस्सानि-सुत्त (गोलियानि-सुत्त) ७०. कीटागिरि-सुत्त ७१. तेविजकछगोत्त-सुत्त ७२. अम्गिवञ्छगोत्त-सुत ७३. महापच्छगोत्त-सुत्त ७४. दीघनख-सुत्त ७५. मागन्दिय-सुत्त । (ज) परिब्बाजक-वग्ग ७६. सन्दक-सुत ७७. महासकुलुदायि-सुत्त ७८. समणमण्डिका-सुत्त ७६. चूलसकुलुदायि-सुत्त ८०. वेखनस (स्स)-सुत्त (झ) राज-वग्ग ८१. घटि (टी) कार-सुत्त १२. रटुपाल-सुत्त ८३. मखादेव-सुत्त ८४. मधुर-सुत्त ८५. बोधिराजकुमार-सुत्त १६. अंगुलिमाल-सुत्त ८७. पियजातिक-सुत्त ८८. बाहितिक (य)-सुत्त ८६. धम्मचेतिय-सुत्त १०. कण्णकत्थल-सुत्त ६१. ब्रह्मायु-सुत्त ६२. सेल-सुत्त ६३. अस्सलायन-सुत्त १४. घोटमुख-सुत्त ९५. चक्की-सुत्त (ट) ब्राह्मण-वग्ग ६६. एसुकारी-सुत्त १७. धानजानि-सुत्त ६८. वासेठ्ठ-सुत्त ६६. सुभ-सुत्त १००. संगारव-सुत्त ____ 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] १०१. देवदह-सुत्त पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ २११ (ठ) देवदह-वग्ग १०६. आनेञ्जसप्पाय-सुत्त (आणञ्जसप्पाय-सुत्त या आवञ्जसप्पाय-सुत्त) १०७. गणकमोग्गलान-सुत्त १०६. गोपकमोग्गलान-सुत्त १०६. महापुण्णभ-सुत्त ११०. चूलपुष्णभ-सुत्त १०२. पञ्चत्तय-सुत्त १०३. किन्ति-सुत्त १०४. सामगाम-सुत्त १०५. सुनक्खत्त-सुत्त (ड) अनुपद वग्ग १११. अनुपद-सुत्त ११२. छब्बिसोधन-सुत्त ११३. सप्पुरिस-सुत ११४. सेवितब्ब-असेवितब्ब-सुत्त ११५. बहुधातुक-सुत्त ११६. इसिगिलि-सुत्त ११७. महाचत्तारीसक-सुत्त ११८. आनापानसति-सुत्त ११६. कायागतासि-सुत्त १२०. संखारुप्पत्ति-पुत्त १२१. चूलसुअता-सुत्त १२२. महासुञता-सुत्त १२३. अच्छारियन्भुतधम्म-सुत्त १२४. बक्कुल-सुत्त १२५. दन्तभूमि-सुत्त (ढ) सुजता-वग्ग १२६. भूमिज-सुत्त १२७. अनुरुद्ध-सुत्त १२८. उपक्किलेस-सुत्त १२६. वालपंडित-सुत्त १३०. देवदूत-सुत्त (ण) विभंग-वग्ग १३७. सळायतनविभंग-सुत्त १३८. उद्दसविभंग-सुत्त १३६. अरणविभंग-सुत्त १४०. धातुषिभंग-सुत्त १४१. सच्चविभंग-सुत्त १४२. दक्खिणाधिभंग-सुत १३१. भद्दे करत्त-सुत्त १३. आनन्दभद्द करत-सुत १३३. महाकच्चानभद्द करत्त-सुत १३४. लोभासकंगिय-सुत्त १३५. चूलकम्मविभंग-सुत्त १३६. महाकम्मविभंग-सुत्त (त) सळायतन-वग्ग १४४. छन्नोवाद-सुत्त १४३. अनाथपिण्डिकोषाद-सुत ___ 2010_05 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ १४५. पुण्णेवाद-सुत्त १४६. महासळायत निक-सुत्त १४६. नन्दकोवाद-सुत्त १५०. नगरविन्देय्य-सुत्त १४७. चूलराहुलोवाद-सुत १५१. पिण्डपातपादि-सुत्त १४८. छछक्क-सुत्त १५२. इन्द्रियभावना सुत्त संयुत्त-निकाय : कुल मिला कर छप्पन संयुत्त हैं, जो पांच वर्गों में विभक्त है : (क) सनाथ-वग्ग १. देवता-संयुत्त २. देवपुत्त-संयुत्त ३. कोसल-संयुत ४. मार-संयुत्त ५. भिक्खुणी-संयुत्त ६. ब्रह्म-संयुत्त ७. ब्राह्मण-संयुत्त ८. वंगीस-संयुत्त ६. वन-संयुत्त १०. यक्ख-संयुत्त ११. सक्क-संयुत्त १. निदान-संयुत्त २. अभिसमय-संयुत्त ३. धातु-संयुत्त ४. अनमतग्ग-संयुत्त ५. कस्सप-संयुत्त (ख) निदान-वग्ग ६. लाभसक्कार-संयुत्त ७. राहुल-संयुत्त ८. लक्खण-संयुत्त ६. ओपम्म-संयुत्त १०. भिक्खु-संयुत्त (ग) खन्ध-वग्ग १. खन्ध-संयुत्त २. राध-संयुत्त ३. दिट्ठि-सयुत्त ४. ओक्कन्तिक-संयुत्त ५. उप्पाद-संयुत्त ६. किलेस-संयुत्त ७. सारिपुत्त-संयुत्त ८. नाग-संयुत्त ६. सुपण्ण-संयुत्त १०. गन्धब्बकाय-संयुत्त ११. घलाह-संयुत्त १२. वच्छगोत्त-संयुक्त १३. ज्ञान-संयुत्त . (घ) सळायतन-वग्ग . १. सळायतन-संयुत्त २. वेदना-संयुत ___ 2010_05 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] , पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ २१३ ३. मातुगाम-संयुत्त ७. चित्त-संयुत्त ४. जम्बुखादक-संयुत्त ८. मामणि-संयुक्त ५. सामण्डक-संयुत्त ६. असखत-संयुत्त ६. मोग्गलान-संयुक्त १०. अव्याकत-संयुत्त (ङ) महावग्ग १. मग्ग-संयुत्त ७. इद्धिपाद-संयुत्त २ बोज्झग-संयुक्त ८, अनुरुद्ध-संयुत्त ३. सतिपट्टान-संयुत्त ९. ज्ञान-संयुत्त ४. इन्द्रिय-संयुक्त १०. आनापाण-संयुत्त ५. सम्मप्पधान-संयुत्त ११. सोतापन्नि-संयुत्त ६. बल-संयुत्त १२. सच्च-संयुत्त अंगुत्तर-निकाय : ग्यारह निपातों में विभक्त है। इसका विभाजन संख्या के आधार पर है। एक-एक संख्या से सम्बन्ध रखने वाले, दो-दो संख्या से सम्बन्ध रखने वाले, इस प्रकार क्रमशः ग्यारह तक की संख्या से सम्बन्ध रखने वाले बुद्धोपदेशों का यथाक्रम संकलन है। ग्यारह निपात इस प्रकार हैं : १. एकक-निपात ७. सतक-निपात २. दुक-निपात ८. अट्ठक-निपात ३. तिक-निपात ९. नवक-निपात ४. चतुक्क-निपात १०, दसक-निपात ५. पंचक-निपात ११. एकादसक-निपात ६. छक्क-निपात खुद्दक-निकाय : इसके अन्तर्गत पन्द्रह स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं, जो इस प्रकार हैं : १. खुइक-पाठ २. धम्मपद ३. उदान ४. इतिवृत्तक ५. सुत्त निपात ६. विमानवत्थु ७. पेत-वत्थु ८. थेर-गाथा ६. थेरी-गाथा १०. जातक ११. निद्दस १२. पटिसम्भिदा-मग्ग १३. अपादान १४. बुद्धवंस १५, चरिया-पिटक ____ 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] आगम और त्रियटिक : एक अनुशोलन [खण्ड : ___दूसरी संख्या पर स्थित धम्मपद निःसन्देह बौद्ध वाङ्मय में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। संसार की प्रायः समस्त मुख्य भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। इसमें ४२३ गाथाए हैं, जो भगवान् बुद्ध द्वारा अपने जीवन-काल में उपदिष्ट हुई थीं। इन गाथाओं में धर्म, सदाचार, नीति और प्रशस्त जीवन के सम्बन्ध में बड़ी मनोज्ञ शिक्षाए हैं। यह छब्बीस वर्गों में विभक्त है। प्रत्येक वर्ग का नामकरण उसमें वर्णित विषय और दृष्टान्तों के अनुरूप है। इसकी रचना जहां नैतिक दृष्टि से अत्यन्त गम्भीर है, वहां शब्दावली प्रसादपूर्ण और हृदयस्पर्शी है। धम्मपद को यदि बौद्धों की गीता कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। लंका में बोद्धों में आज भी यह परम्परा प्रवृत्त है कि बिना धम्मपद का पारायण किये किसी भिक्षु की उपसम्पदा नहीं होती । बर्मा, स्याम, कम्बोडिया और लाओस में भी प्रायः प्रत्येक भिक्षु के लिए यह आवश्यक माना गया है कि उसे धम्मपद कण्ठाग्र हो । __ धम्मपद का शब्दार्थ है-धर्म सम्बन्धी पद। पद शब्द से यहां गाथा, वाक्य या पंक्ति का अभिप्राय है। बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म से सम्बद्ध गाथाओं, पदों या वाक्यों को भिक्षु-भिक्षुणियां उनके जीवन-काल में कण्ठस्थ करने लगे थे, ऐसा बौद्ध-साहित्य के परिशीलन से विदित होता है। धम्मपद बुद्ध के जीवन-काल में सकलित एक ऐसा संग्रह प्रतीत होता है, जिसे प्रत्येक भिक्षु कण्ठस्थ करता रहा हो। संयुक्त निकाय में भी धम्मपद शब्द का प्रयोग है, जो सम्भवतः इसो अर्थ का द्योतक है। स्वयं धम्मपद को दो गाथाओं में धर्म सम्बन्धी पदों के अर्थ में यह शब्द आया है। मान्यता और प्रतिष्ठा इसी से प्रकट होती है कि 'निस' और 'कथावत्यु' जैसे ग्रन्थों में धम्मपद को कई गाथाए उद्घ त की गयी हैं । ईसवी सन् के आरम्भ के आस-पास रचित मिलिन्दपञ्हो (मिलिन्द-प्रश्न) ग्रन्थ में 'भासित पेतं भगवता देवातिदेवेन धम्मपद' इन शब्दों के साथ दो गाथाएं उद्धत को गयी हैं । विनय-पिटक ___ बौद्ध वाङ्मय में विनय नियम या आचार - नियम के अर्थ में एक प्रकार से बौद्ध भिक्षु-संघ का संविधान है। भिक्षु-जीवन में आचार का महत्वपूर्ण स्थान था। तथागत ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों के द्वारा पालन किये जाने योग्य नियमों का समय-समय पर जो उपदेश किया, उस सन्दर्म में अपराधों, दोषों, प्रायश्चित्तों आदि का भी वर्णन किया, उनका इसमें संकलन है । वस्तुतः यह आचार-प्रधान ग्रन्थ है । तत्कालीन भारतीय समाज और जीधन का दिग्दर्शन कराने की दृष्टि से इसकी बड़ी उपयोगिता है। यद्यपि यह अपने आप में एक परिपूर्ण ग्रन्थ है, किन्तु, विनय-वस्तु की दृष्टि से सुत-विभंग, खंधक और परिवार; इन तीन १. मिलिन्द-पहो, पृ० १७२, ३९९, बम्बई विश्वविद्यालय संस्करण २. वही, गापा ३२, ३२७ ___ 2010_05 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ २१५ भागों में विभक्त है। सुत्त-विभंग में दोषों का वर्णन है। उन नियमों के उल्लंघनों का भी वर्णन है, जिन्हें भिक्षु प्रत्येक महीने की अमावस्या और पूर्णिमा ( उपोसथ के दिन ) को दुहराते थे। इन्हें पाटिमोक्ष (प्रातिमोक्ष ) भी कहा जाता है। प्रातिमोक्ष के दो भाग हैं-भिक्षु प्रातिमोक्ष ओय भिक्षुणी प्रातिमोक्ष। भिक्षु प्रातिमोक्ष में भिक्षुओं द्वारा और भिक्षुणी प्रातिमोक्ष में भिक्षुणियों द्वारा होने वाले नियमोल्लंघन का वर्णन है। प्रातिमोक्ष का पाठ करते समय जैसे-जैसे अपराधों का विवरण आता, उस सभा में उपस्थित प्रत्येक भिक्षु और भिक्षुणी से यह आशा की जाती थी कि यदि उसने वैसा अपराध किया है, तो वह अपने स्थान पर उठ कर उसे स्वीकार करे । ऐसा करने के पीछे यह भाव था कि भविष्य में वह पैसा दोष न करे। भिक्षु-जीवन में प्रातिमोक्ष का बड़ा महत्व है। महावग्ग में इसके सम्बन्ध में कहा गया है : "प्रातिमोक्ष कुशल-धर्मों का मादि है, मुख है, प्रमुख है। यही कारण है कि वह प्रातिमोक्ष कहलाता है।" एक प्राचीन टीकाकार ने प्रातिमोक्ष का बड़े सुन्दर शब्दों में विश्लेषण करते हुए लिखा है : “जो उस (प्रातिमोक्ष ) को रक्षा करता है, उसके नियमों का परिपालन करता है, वह ( प्रातिमोक्ष ) उसे अपाय-असद्गति आदि दुःखों से छुटकारा दिलाता है, मुक्त करता है, इसलिए वह प्रातिमोक्ष कहलाता है।" खन्धक महावग्ग और चुल्लवग्ग; दो भागों में विभक्त है। भिक्षुओं का संघीय जीवन कैसा होना चाहिए, उन्हें किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए, आदि का महाबग्ग में वर्णन है। सुत विभंग अधिकांशतः निषेधात्मक शैली में लिखा गया है, जबकि महावग्ग उसका विधेयात्मक रूप है। महावग्ग में भगवान बुद्ध के सम्बोधि लाभ से लेकर प्रथम संघ के संस्थापन तक का विवरण भी बड़े सुन्दर रूप में दिया गया है। महावग्ग का यह अंश ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। उपसम्पदा, वर्षावास, प्रातिमोक्ष, प्रवारणा, चोवर रंगना आदि से सम्बद्ध विधि-क्रम और नियमों आदि का भी इसमें विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। चुल्ल-बग्ग एक प्रकार से महावग्ग का परिपूरक है। इसमें भिक्षु के लिए उसके दैनन्दिन जीवन में क्या विहित है, क्या अधिहित है, उसे कैसे चलना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए; १. पातिमोक्खं ति आदिमेतं मुखमेतं पामुखमेतं कुसलानं धम्मानं तेन वुच्धति पातिमोक्खं ति। -गोपक मोग्गलान सुत्त, मज्झिमनिकाय, ३।१।८ २. यो तं पाटिरक्खति तं मोफ्लेति मोचेति अपायकाविदुक्खेहि तस्मा पाविमोक्खं ति वुच्चति । --A Comparative Study of Pratimoksha, P. 4, by Pachova. 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :२ आदि विषयों का विवेचन है। अनाथ पिंडिक की दीक्षा, जेतवन-दान, महाप्रजापति गौतमी की दीक्षा आदि बौद्ध इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं का भी इसमें समावेश है। परिवार को परिवार या परिवार-पाठ भी कहा जाता है। यह विनय-पिटक का अन्तिम भाग है। इसे विनय पिटक में वर्णित विषय वस्तु की अनुक्रमणिका कहा जाना चाहिए। यह उन्नीस परिच्छेदों में विभक्त है। उनमें अभिधम्म की शैली पर विनय-पिटक के विषयों की आवृत्ति की गयी है; अतः विषय को समझने के लिए इसमें कोई नवीनता नहीं की गयी है। परन्तु, विनय पिटक को समझने में यह ग्रन्थ विशेष सहायक होता है। भगवान बुद्ध ने कब, किसे, किस प्रसंग में अमुक शिक्षा-पद कहे, मध्य क्या है, अन्त क्या है, संघ के आन्तरिक संघर्ष कितनी तरह के होते हैं; आदि प्रश्न इस ग्रन्थ में उठाये गये हैं और उनके उत्तर दिये गये हैं। अमुक समस्या, शंका या प्रश्न का विनय पिटक में क्या समाधान है, इस प्रकार के तथ्यों का ज्ञान पाने की दृष्टि से इस ग्रन्थ की अपमी उपयोगिता है । विंटरनित्ज ने परिवार का विनयपिटक के साथ वही सम्बन्ध बतलाया है, जो अपनी अनुक्रमणिका और परिशिष्टों के साथ वेद का है। इसमें कुछ ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे प्रकट होता है कि यह विनय-पिटक के बाद की रचना है। पिटकों के लिपि-बद्ध किये जाने का भी इसमें उल्लेख है। राजकुमार भिक्षु महेन्द्र के लंका जाने, वहां विनय की परम्परा स्थापित करने के साथ-साथ सिंहल के उन उनतीस भिक्षुओं का नामोल्लेख भी किया गया है, जिन्होंने ताम्रपर्णी में विनय-पिटक का प्रकाश किया। इन संकेतों से सहज ही यह अनुमान होता है कि परिवार या परिवार-पाठ को रचना, जैसा वह इस समय प्राप्त है, लंका में बहुत समय बाद हुई। अभिधम्म-पिटक __ अभिधम्म-पिटक पानि-त्रिपिटक का तीसरा मुख्य भाग है। बौद्ध परम्परा में ऐसी मान्यता है कि अभिधम्म पिटक धम्म की अत्यधिक गहराई में जाता है। उसकी रचना विशिष्ट अधिकारियों के लिए हुई है, न कि साधारण लोगों के लिए। अटुसालिनी, मनोरथपूरणी और विभंगअट्ठकथा में उल्लेख है कि देवताओं और मनुष्यों के शास्ता तथागत ने सर्वप्रथम अभिधम्म का उपदेश त्रायस्त्रिंश स्वर्ग में स्थित अपनी माता देवी महामाया और अन्य देवताओं को दिया था। तदनन्तर उन्होंने उसी की पुनरावृत्ति अपने महाप्राज्ञ अन्तेवासी, धम्म सेनापति सारिपुत्त को उद्दिष्ट कर की थी। धम्म सेनापति सारिपुत्त ने उसे अन्य पांचसो भिक्षुओं को उद्दिष्ट कर उपदिष्ट किया। सुत्त-पिटक में अभिविनय शब्द के साथ-साथ अभिधम्म शब्द का भी प्रयोग हुआ है। वहां ये दोनों शब्द क्रमशः विनय और धर्म सम्बन्धी गम्भीर उपदेश के अर्थ में आये हैं। 2010_05 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ २१७ आचार्य बुद्धघोष ने अटुसालिनी और सुमंगलविलासिनी में अभिधम्म का अर्थ 'उच्चतम धम्म या विशेष धम्म' किया है। उसके अनुसार 'अभिधम्म' शब्द में स्थित 'अभि उपसर्ग अतिरेक या विशेष का वाचक है। महायान सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध आचार्य असंग ने अभिधम्म की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की है। उन्होंने अभि उपसर्ग का पहला अर्थ 'अभिमुखतः' करते हुए सत्य, बोधि, सुख, निर्वाण आदि के अभिमुख उपदेश करने के कारण इसे अभिधम्म बताया है । अभि का दूसरा अर्थ 'आभीक्ष्ण्यात्' करते हुए उन्होंने धर्म का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करने या भेदप्रभेद दिखलाते हुए विश्लेषण करने के कारण इसे अभिधम्म कहा है। उनके अनुसार अभि का तीसरा अर्थ 'अभिभवात्' भी हो सकता है। अन्य मतों या विरोधी सिद्धान्तों का अभिभव-खण्डन-निराकरण करने के कारण यह अभिधम्म है। अभि का चौथा अर्थ उन्होंने 'अभिगतितः' दिखलाते हुए इसे मूलत: सुत्त पिटक के हो सिद्धान्तों का अभिगमनअनुगमन करने के कारण अभिधम्म बताया है। - तथागत ने जिस धर्म का सन्देश दिया, तत्त्वतः वह एक है। अन्तर केवल निरूपण का है। सुत्त-पिटक में वह उपदेश की भाषा में है, धिनय-पिटक में अनुशासन, नियमन और संयमन के रूप में है तथा अभिधम्म पिटक में तत्व के रूप में । इसका कारण केवल अधिकारभेद है। सुत्त सब के लिए हैं; क्योंकि वह अधिचित्त शिक्षा के रूप में है, वह व्यवहारदेशना है। अभिधम्म में भी वे ही तत्व है, पर, वे प्राज्ञों की दृष्टि से हैं; अतएव वहां उनका रूप अघिप्रज्ञ शिक्षा का हो गया है। यह परमार्थ-देशना है। सुत्त सबके लिए सुज्ञेय है; क्योंकि वहां बुद्ध-वचन सीधे रूप में आकलित हैं। अभिधम्म में बुद्ध के मन्तव्यों का सूक्ष्म और तात्विक दृष्टिकोण से बहुत प्रकार से वर्गीकरण तथा विश्लेषण किया गया है; अतः वह तत्व-दर्शन के गम्भीर अध्येताओं का विषय है। अभिधम्म : रचना बौद्ध परम्परा में यह स्वीकृत है कि धम्म और विनय की तरह अभिधम्म का भी प्रथम संगीति में संगान हुआ था। यह भी उतना ही प्राचीन है, जितने सुत्त और विनय । आचार्य बुद्धघोष इस सम्बन्ध में आश्वस्त हैं कि बुद्ध के काल में सुत्त और विनय की तरह अभिधम्म भी विद्यमान था। ऐसा माना जाता है कि 'धम्मकथिक' शब्द अभिधम्मिक भिक्ष के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। पाटलिपुत्र में सम्पन्न तृतीय संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने उस समय प्रचलित मिथ्या १. महायान सूत्रालङ्कार; ११. ३ 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन 1 खण्ड : २ वादों के निराकरण के निमित्त 'कथावत्यु' की रचना की, जिसे अभिधम्म में सम्मिलित कर लिया गया। यह स्पष्ट है कि यह बाद की रचना है। अभिधम्म में इसके सम्मिलित कर लिये जाने से यह अनुमान करने का अवसर प्राप्त होता है कि मभिधम्म की रचना या स्वरूप-गठन सुत्त और विनय के अनन्तर समय-समय पर संयोजित होकर पूर्ण हुआ। पर, स्थविर परम्परा को यह किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। उसके अनुसार कथावत्थु की रूपरेखा भगवान् बुद्ध, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे; अतः भविष्य में होने वाले मिथ्या मतवादों को जानते हुए उनके निराकरण के लिए पहले ही निश्चित कर गये। आचार्य बुद्धघोष ने इस: तथ्य को बलपूर्वक समर्थित करने का प्रयत्न किया है। अट्ठसालिनी की निदान कथा में उन्होंने प्रतिपादित किया है कि मधुपिण्डक-सुत्त आदि भगवान् बुद्ध के शिष्यों द्वारा उपदिष्ट हैं, पर, बुद्ध द्वारा अनुमोदित होने के कारण वे बुद्ध-वचन ही कहलाते हैं । उसी प्रकार कथावत्थु को अभिधम्म पिटक का ही ग्रन्थ माना जा सकता है। परम्परा के प्रति विशेष आदर या बहुमान के कारण यह अर्थवाद या प्रशस्ति की भाषा है। यदि प्रथम संगीति के अवसर पर अभिधम्म का स्वरूप अस्तित्व में आया हुआ होता, तो सुत्त और विनय के साथ उसकी अवश्य चर्चा रहती। चुल्लवग्ग में जहां प्रथम संगीति में बुद्ध-वचन के संगान का प्रसंग आया है, वहां धम्म (सुत) और विनय के ही संगान का उल्लेख है, अभिधम्म का नहीं। वैशाली में आयोजित द्वितीय संगीति के अवसर पर अभिधम्म के सम्बन्ध में स्थविरवादियों और सर्वास्तिवादियों का विवाद, स्थविरवादियों द्वारा उसे साक्षात् बुद्ध-वचन सिद्ध करने का प्रयास, दूसरे सम्प्रदायवालों द्वारा अभिधम्म की प्रामाणिकता का विरोध, ऐसी जो स्थितियां बनीं, उनसे यह अनुमान होना स्वाभाविक है कि प्रथम संगीति के अनन्तर अभिधम्म का स्वरूप-निर्माण होने लगा होगा। प्रथम संगीति के अवसर तक अभिधम्म का अस्तित्व किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता। उससे पहले मातिकाओं (मातृकाओं) का वर्णन प्राप्त होता हैं। मातृकाए वर्गीकरण, विश्लेषण आदि विविध रूपों में थीं। ऐसा सम्भव लगता है कि अभिधम्म-पिटक का गठन इन मातृकाओं के आधार पर हुआ। तीसगी संगीति के अनन्तर भिक्षु महेन्द्र जब लंका जाते हैं, तो विनय-धम्म (सुत्त) के साथ अभिधम्म भी वहां ले जाते हैं। ऐसा लगता है, तब तक अभिधम्म-पिटक का सम्पूर्णतः स्वरूप-निर्धारण हो चुका था। लंका में आने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन हुआ हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। अभिधम्म का लेखन-कार्य विनय और सुत्त के साथ-साथ ही लंका-नरेश चट्टगामणि अभय के समय में ही सम्पन्न हुआ। १. विनयपिटक 2010_05 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ २१९ अभिधम्म का स्थान स्थविरवादी या थेरवादी सम्प्रदाय में अभिधम्म-पिटक का उतना ही महत्व है, जितना सुत्त-पिटक और बिनय-पिटक का। बर्मा में अभिधम्म-पिटक का बहुत व्यापक अध्ययन हुमा है। लंका में भी अभिधम्म का अत्यधिक आदर रहा है। 'महावंश' के अनुसार लंका के राजा आदरपूर्वक अभिधम्म का श्रवण करते रहे हैं और कतिपय राजा तो ऐसे हुए हैं, जिन्होंने स्वयं अभिधम्म का उपदेश भी किया है। दशवीं शताब्दी में हुए राजा काश्यप प्रथम ने समस्त अभिधम्म पिटक स्वर्ण-पत्रों पर उत्कीर्ण करवाया। इतना ही नहीं, अभिधम्म के प्रमुख ग्रन्थ 'धम्मसंगणि' को तो उसने मूल्यवान रत्नों से खचित करवाया। राजा विजयबाहु प्रथम (१०५९-१११४ ईस्वी ) अभिधम्म-पिटक का बहुत बड़ा विद्वान् था। उसने धम्मसंगणि को सिंहली भाषा में अनूदित किया। अभिधम्म के प्रति जहां एक ओर इतना आदर रहा, दूसरी ओर स्थविर-सम्प्रदाय से भिन्न अन्य बौद्ध सम्प्रदायों में इसकी प्रमाणिकता स्वीकृत नहीं है। बहुत पहले से स्थविरवादियों में भी ऐसे भिक्षुओं के एक वर्ग की सूचना प्राप्त होती है, जिसके अनुसार अभिधम्म प्रामाणिक बुद्ध-वचन नहीं था। उस वर्ग का सुत्तपिटक में ही सर्वाधिक विश्वास था । अट्ठसालिनी में दो भिक्षुओं के वार्तालाप का एक प्रसंग बहुत मननीय है। यह वार्तालाप है : "भन्ते ! आप इतनी लम्बी पंक्ति उद्धत कर रहे हैं, मानो सुमेरु को ही फेंक देना चाह रहे हों। भन्ते ! यह किसकी पंक्ति है ?" "आयुष्मन् ! यह अभिधम्म की पंक्ति है।" "भन्ते ! आप अभिधम्म की पंक्ति को क्यों उद्धत करते हैं ? क्या यह समुचित नहीं कि आप बुद्ध द्वारा उपदिष्ट किन्हीं और पंक्तियों को उद्धत करते।" "आयुष्मन् ! अभिधम्म का उपदेश किसका है ?" "निश्चय ही वह बुद्ध-भाषित नहीं है।" उपर्युक्त विश्लेषण और ऊहापोह के आधार पर ऐसा मानना अनौचित्य की सीमा में नहीं जा सकता कि प्रणयन या स्वरूप निर्धारण के समय की अपेक्षा से अभिधम्म सुत्त और विनय से निश्चय ही परवर्ती है। अभिधम्म के ग्रन्थ पालि अभिधम्म के निम्नांकित ग्रन्थ हैं : १. धम्मसंगणि २. विभंग 2010_05 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३ ३ पुग्गल-पञ्जति ६. यमक ४. धातु-कथा ७. कत्थावत्थुप्पकरण ५. पट्टान धम्मसंगणि अभिधम्म-साहित्य का सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। धम्मसंगणि में भौतिक और मानसिक जगत् को व्याख्या इस सूक्ष्मता तथा विशदता से की गई है कि विद्वान् अध्येता को एतत्सम्बन्धी समस्त विषयों का अच्छा दिग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। कर्म के कुशल, अकुशल तथा अव्याकृत विपाक, चित्त और चैतसिक अवस्थाओं का कुशल, अकुशल तथा अव्याकृत के रूप में विश्लेषण प्रभृति अनेकानेक विषयों का इसमें जो तलस्पर्शी विवेचन किया गया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि बौद्धमनोविज्ञान की नैतिक व्याख्या का यह अनूठा दिग्दर्शक है। पिटक-वाङमय का एक अन्य वकिरण धर्म-तत्व को विविध प्रकार से हृदयंगम कराने के अभिप्राय से पालि-वाड्मय का अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। श्रोता और अध्येता द्वारा धर्म के विभिन्न पक्ष व्यवस्थित तथा विशद रूप में समझे जा सकें, इस हेतु किये गये विभिन्न प्रकार के वर्गीकरण, विश्लेषण, विवेचन और व्याख्यान सचमुच पालि-साहित्य की अपनी विशेषता है। पर, साथ-हो-साथ समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि बौद्धों द्वारा साहित्य का जो अनेकविध वर्गीकरण, वर्गीकरण का पुनः वर्गीकरण; इस प्रकार वर्गीकरणों की एक शृखला. सी खड़ी कर दी गयी है, उसमें विशद विश्लेषण और व्याख्यान से कहीं अधिक उनकी विश्लेषण-प्रिय वृत्ति की प्रेरणा प्रतीत होती है । त्रिपिटक और उसके उपविभाग या तदन्तर्वर्ती ग्रन्थों के रूप में किये गये विभाजन के अतिरिक्त एक दूसरे प्रकार के विभाजन में समस्त बुद्ध-वचनों को पांच निकायों में बांटा गया है, जो इस प्रकार हैं : १. दीघ-निकाय ४. अंगुत्तर-निकाय २. मज्झिम-निकाय ५. खुद्दक-निकाय ३. संयुत्त-निकाय सुत्त-पिटक के पांच निकायों के भी ये ही नाम है। पर, दोनों के आशय में कुछ अन्तर है। इस विभाजन के इन पांच निकायों में तीनों पिटकों के समग्र ग्रन्थ समाविष्ट कर लिये गये हैं। यह विभाजन विषयों की मुख्यता के आधार पर किया गया है। इसके पहले चार निकाय तो सुत्त-पिटक के प्रथम चार निकायों के समान ही हैं। सुत्त-पिटक के उन 2010_05 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ! पालि-भाषा और पिटक - वाङमय [ २२१ निकायों में जो ग्रन्थ लिये गये हैं, वे ही इन चार निकायों में गृहीत हुए हैं । दोनों में विषयाश्रित संगति है । पांचवें खुद्दक निकाय में सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के पन्द्रह ग्रन्थों के अतिरिक्त विनय-पिटक तथा अभिधम्मपिटक के सभी ग्रन्थ समाविष्ट कर लिये गये हैं । बुद्ध वचन का नवंगी वर्गीकरण बुद्ध वचनों के वर्गीकरण का एक और प्रकार नवांगों के रूप में है । महायान सम्प्रदाय के संस्कृत निबद्ध साहित्य में भी नवांगात्मक विभाजन की चर्चा है । सद्धर्म पुण्डरीक-सूत्र में बुद्ध धर्म-संग्रह के मुख से कहलाया गया है कि मेरा शासन - धर्मशासन नौ अंग वाला है। में भगवान् बुद्ध के प्रवचनों को नवांगात्मक कहा है ।" वे नौ अंग इस प्रकार हैं : १. सुत्त २. गैय्य ३. वैय्याकरण ४. गाथा ५. उदान १. सुत्त - भगवान् बुद्ध के वे उपदेश, जो गद्य में संकलित हैं, इस विभाजन के अन्तर्गत सामान्यतः सुत्त कहे जाते हैं । जैसे, दीघनिकाय, सुत्तनिपात आदि में समाविष्ट भगवान् बुद्ध के जो गद्यात्मक वचन । २. गैय्य - बुद्ध वचन का गद्य-पद्य - मिश्रित भाग । १. ६. इतिवत्तक ७. जातक ३. वैय्याकरण-यह व्याकरण शब्द का पालि रूप है । इसका अभिप्राय धर्म-तत्त्व का व्याकरण, विश्लेषण, विमर्षण या विवेचन है | व्याख्यात्मक साहित्य इस विभाग में गृहीत किया गया है । अभिधम्मपिटक तथा बुद्ध वचन का तत्सदृश दूसरा अंश इसमें सन्निहित है । ४. गाथा - बुद्ध वचन के केवल पद्य - बद्ध भाग 'गाथा' के अन्तर्गत हैं । गाथा शब्द २. अब्भुक्त धम्म ६. दल नवांङ्गमेतन्मम शासन च । - सद्धमं पुण्डरीक सूत्र, पृ० ३४, डॉ० एन० एन० दत्त का देवनागरी संस्करण । 2010_05 नवां प्रवचनानि । - महायानसूत्रसंग्रह, प्रथम खण्ड पृ० ३३२, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा १९६१ संस्करण । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] आर्या छन्द का पर्याय है । चाहे वह किसी भी छन्द में हो, इस (गाथात्मक) विभाग में धम्मपद आदि ग्रन्थ हैं, जो पद्यबद्ध हैं । ५. उदान —— सौमनस्य पूर्ण अवस्था में तथागत के मुंह से ज्ञानमय गाथाओं के रूप में जो उद्गार निकले, जो भावात्मकता और प्रीत्यात्मकता से सम्पृक्त हैं, वे उदान कहे गये हैं । आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : २ पर, बौद्ध और जैन साहित्य में तत्तच्छास्त्रों के पद्य मात्र को, गाथा शब्द से संज्ञित करने की परम्परा है । बुद्ध वचनों के ६. इतिवृत्तक - संस्कृत रूप 'इत्युक्तकम्' अर्थात् ऐसा कहा गया है। 'बुत्रा हेतं = भगवता' - भगवान् द्वारा ऐसा कहा गया; इससे आरम्भ होने वाले बुद्ध वचन 'इतिवृत्तक' में आते हैं । ७. जातक - जात या जातक का अर्थ जन्मा हुआ होता है । बुद्ध के पूर्व जन्म की घटनाए जातकों में संग्रहित हैं । जातकों के अतिरिक्त वे त्रिपिटक में अन्यत्र भी प्राप्त होती हैं । ८. अब्भुत धम्म — योगजन्य विभूतियां, अलौकिक, आश्चर्यजनक या अद्भुत विभूतियों तथा बेसी अद्भुत वस्तुओं का वर्णन । ६. वेदल्ल—–आन्तरिक उल्लास और तुष्टि प्राप्त कर प्रश्न पूछे जाते हैं, उस सन्दर्भ में जो प्रश्न और उत्तर के रूप में उपदेश हैं, वे वेदल्ल संज्ञक हैं । चुल्लवेबल्ल- सुत्तन्त, महावेदल्लसुतन्त, सम्मादिसुरान्त, सक्कपञ्ह- सुत्तन्त आदि इसके उदाहरण हैं । अंगों के उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यह विभाजन केवल शैली या कथनप्रकार के आधार पर है । इसके अनुसार एक ही ग्रन्थ के भिन्न-भिन्न अंश कई अंगों के नमूने हो सकते हैं । यह विभाजन केवल इतना सा ज्ञापित करता है कि इस इस प्रकार से भगवान् बुद्ध के उपदेश हैं, जो पिटक वाड्मय में भिन्न-भिन्न स्थलों पर संगृहीत हैं । के आचार्य हरिभद्र ने बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ अभिसमयालंकार की टीका में बुद्ध वचन अंगों की चर्चा की है । वे इस प्रकार हैं : १. सूत्र ४. गाथा ७. इतिवृत्तक १. 2010_05 २. गेय ५. उदान ८. निदान यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये चतुर्थ पंचदश साऽऽ ॥ बारह ३. व्याकरण ६. अवदान ९. वैपुल्य Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ २२३ १०. जातक ११. उपदेश १२. अद्भुत धर्म एक और वर्गीकरण भी है, जिसके अनुसार बुद्ध वचन चौरासी हजार धर्म-स्कन्धों में विभक्त है। अति विस्तारपूर्ण वर्गीकरण या विभाजन बौद्धों की विस्तीर्ण-विश्लेषण-प्रियता के घोतक हैं। वस्तुतः अध्ययन-क्रम आदि में तीन पिटक तथा उनके उपविभाग ही व्यवहृत हैं। बहुविध विभाजन : परम्परा तीन पिटक, पांच निकाय, नौ अंग तथा चौरासी हजार स्कन्धों के रूप में बुद्ध-वचनों का यह विभाजन-क्रम कब से है, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। तीनों पिटकों का संकेत स्वयं पिटकों में भी प्राप्त है। भाव अभिलेख में सम्राट अशोक द्वारा कुछ धम्म पलियायों या धर्मपरियायों का इस आशय से उल्लेख करवाया गया है कि सभी भिक्षु और भिक्षुणियां, उपासक तथा उपासिकाए उनका सदा श्रवण करें, पालन करें। उस शिलालेख में बुद्धवचनों के जिन-जिन अंशों का उल्लेख है, वे कहीं-कही शब्दशः और अधिकांशतया अर्थशः उन विभागों से कुछ-कुछ जुड़ते हैं। कौन-कौन धम्म ( धम्म-पलियाय ) किन-किन विभागों में आता है, इस पर विद्वानों ने अच्छा प्रकाश डाला है। विस्तारमय से उसका यहां उल्लेख नहीं किया जा रहा है। अशोक के भाव अभिलेख से यह प्रकट होता है कि ई० पूर्व तीसरी शप्ती में त्रिपिटक अपने वर्गीकरण या विभाजन के नामों के साथ प्रायः उसी रूप में विद्यमान थे; जैसा वे आज हैं। सुत्त-पिटक और विनव-पिटक के लिए तो सुनिश्चित रूप में ऐसा माना ही जा सकता हैं। भाव -अभिलेख के अतिरिक्त उसके पश्चाद्धर्ती सोचो और भरहुत ( ई० पूर्व दूसरी शती) १. सूत्रं गेयं व्याकरणं गायोवानावदानकम् । इतिवृत्तकं निदानं वैपुल्यं च सजातकम् ॥ उपदेशाद्भुतौ धौं द्वावशाङ्गमिदं वचः । . -अभिसमयालङ्कार, पृ० ३५, बड़ौदा संस्करण २. ........इमानि मते ! धंमपलियायानि विनयसमुकसे, अलियवसानि, अनागतमयानि, मुनिगाथा, मोनेयसूते, उपतिसपसिने ए चा लाघुलोवादे मुसावादं अधिगिच्य बुधेन मासिते । एतानि भंते धंमपलियायानि इच्छामि किं ति बहुके भिखुपाये चा भिखुनिये चा अभिखिनं सुनयु चा उपधालेयेयु चा। हेवं मेना उपासका चा उपासिका चा। एतानि भते ! इमं लिखापयामि अभिपेतं मे जानंतू ति । ____ 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:२ के स्तूप-लेखों में पंचनेकायिक, सुत्तन्तिक और पेटकी आदि शब्द आये हैं। पंचनेकायिक पांच निकायों के, सुत्तन्तिक सुत्त-पिटक के और पेटकी पिटकों के ज्ञाता के अर्थ में प्रयुक्त है। वहां जातकों के कुछ ऐसे दृश्य भी दिखलाये गये हैं, जिनसे पिटकों और निकायों के रूप में बुद्ध वचन के विभाजन की प्रामाणिकता सूचित होती है। विद्वानों का अभिमत है कि इन अभिलेखों के युग से पहले बुद्ध-वचन का तीन पिटकों और पांच निकायों के रूप में आज की तरह विभाजन निश्चित हो गया था। इन अभिलेखों के अनन्तर मिलिन्द पन्हों, बुद्धघोष की अट्ठकथाएं, दीपवंस, महावंस आदि में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख है। ___चौरासी हजार धर्म-ग्रन्थों के रूप में बुद्ध-वचन के विभाजन का जो एक स्वरूप और चर्चित हुआ है, वह भी बहुत प्राचीन मालूम होता है। थेरगाथा में आनन्द ने कहा कि मुझे चौरासी हजार उपदेशों का ज्ञान है। उनमें से बयासी हजार मैंने भगवान् बुद्ध से और दो हजार सघ से सीखे हैं। आचार्य बुद्धघोष द्वारा समन्तपासादिका में किये गये उल्लेख के अनुसार प्रथम संगोति में इन (चोरासी हजार धर्म-स्कन्धों) का संगान हुआ था। महावंस का इस सम्बन्ध में एक प्रसंग है, "सम्राट् (अशोक) ने स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स से पूछा- "भगवान् बुद्ध द्वारा दिये हुए उपदेश कितने हैं ?" स्थविर ने उत्तर दिया"धर्म के चौरासी हजार स्कन्ध ( भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट) हैं।" सम्राट ने कहा"मैं प्रत्येक के लिए विहार बनवाकर उन सबकी पूजा करूगा ।" तदनन्तर सम्राट् ने चौरासी हजार नगरों में विहार बनवाने आरम्भ किये। बौद्ध परम्परा में सम्राट अशोक द्वारा चौरासी हजार विहार बनवाये जाने की बहुत प्रसिद्धि है। १. Buddhist India. Royas Devids. P. 167 २. समन्तपासादिका, प्रथम जिल्द, पृ० २९ ३. महावंस, ५. ७६. ८० ____ 2010_05 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखी प्राकृत ( Inscriptional Prakritas ) [अशोक के शिलालेख व उनकी भाषा ] ____ 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के इतिहास में अशोक का नाम एक ऐसे महान् सम्राट के रूप में स्मरण किया जाता है, जिसने शस्त्र-बल से ही नहीं, मैत्री, करुणा और सेवा के आदर्शों द्वारा भी बहुत बड़ी विजय-सफलता प्राप्त की। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का महान् सेघी तो था ही, वह अन्य धर्मों का भी सम्मान करता था। प्राणि-मात्र के हित में उसे आस्था थी। उस ओर वह जीवन-भर प्रयत्नशील भी रहा । अशोक के जीवन, धर्म, व्यवहार, नीति, शासन और व्यवस्था के सम्बन्ध में सबसे बड़ा प्रमाण उसके शिलालेख हैं। उसने विशेषतः अपने साम्राज्य के सीमा-पानों तथा जन-संख्या. बहुल अन्तर्ती भागों में ये अभिलेख उत्कीर्ण करवाये । शिलालेखों का भाषा : महत्व भारत की प्राचीन भाषा के विश्लेषण तथा अनुसन्धान के सन्दर्भ में इम लेखों का बहुत महत्व है । जिस भाषा में ये लेख लिखे गये हैं, वह अशोक के साम्राज्य में अर्थात् लगभग ई. पूर्व तीसरी शती में उत्तर भारत में प्रचलित भाषा का एक साहित्यिक या शिष्ट रूप प्रस्तुत करती है । उत्तर भारत से यहां विन्ध्य के उत्तर में स्थित पश्चिम, मध्य और पूर्व भारत से भाशय है। इन अभिलेखों की भाषा के सम्बन्ध में पहले विद्वानों का ऐसा अभिमत रहा कि ये पालि भाषा में लिखे हुए हैं । इस सम्बन्ध में उत्तरोत्तर अनुसन्धान एवं गवेषणा चलती रही और अन्ततः विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ये अभिलेख वास्तव में प्राकृत भाषा में लिखे हुए हैं, जो उस समय यत्किंचित् प्रादेशिक भेद के साथ समग्र उत्तर भारत में फैली हुई थी। शिलालेखों का वर्गोकरण प्राकृत भाषा के लिपि-बद्ध प्राप्त होने वाले ये अभिलेख सबसे प्राचीन उदाहरण हैं । ये तीन रूपों में मिलते हैं । इनमें से कुछ चट्टानों पर, कुछ गुफामों की दीवारों पर तथा कुछ स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक और पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त ( पाकिस्तान ) से लेकर बिहार और उड़ीसा तक फैले हुए हैं। समयापेक्षया ये अभिलेखमाठ समूहों में बांटे जा सकते हैं । 2010_05 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ १. दो लघु शिलालेख ई० पूर्व २५८ या २५७ के लगभग इनका लेखन हुआ । इनमें से प्रथम शिलालेख कर्नाटक के सिद्धपुर, जतिंग रामेश्वर और ब्रह्मगिरि, मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में रूपनाथ तथा दतिया जिले में गुर्जरा ग्राम के निकट, बिहार के शाहाबाद जिले में सहसराम, राजस्थान के जयपुर जिले में वैराठ तथा आन्ध्र में मास्की, गविमथ, पाल्कीगुड व इरागुड़ी में प्राप्त होता है । सम्भवतः अशोक के राज्य-काल के तेरहवें वर्ष में इसका लेखन हुआ। इस (प्रथम लघु) शिलालेख का अर्थ लगाने में विद्वानों को जितनी कठिनता का सामना करना पड़ा, पेसा और किसो लेख के सम्बन्ध में नहीं हुआ। सम्राट अशोक के व्यक्तिगत जीवन का कुछ वृत्तान्त इस शिलालेख से ज्ञात होता है; अत: ऐतिहासिक दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। द्वितीय लधु शिलालेख केवल उत्तरी कर्नाटक के सिद्धपुर, जतिंग रामेश्वर और ब्रह्मगिरि; इन तीन स्थानों में प्राप्त होता है । इसमें अशोक द्वारा धर्म के व्यावहारिक पक्ष का विवेचन किया गया है। २. भाबू शिलालेख ई.पूर्व २५७ के लगभग उसका लेखन हुआ। यह जयपुर (राजस्थान ) जिले के अन्तर्गत वैराठ नामक स्थान में एक पहाड़ी की चट्टान पर प्राप्त हुआ था। कहा जाता है कि चैराठ वही स्थान है, जो महाभारत्त-काल में मत्स्य देशाधिपति महाराज विराट की राजधानी था, जहां पांडवों ने एक वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत किया था। बौद्ध धर्म के इतिहास में इस शिलालेख का बहुत महत्व है। इसमें सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म और संघ की शरण ग्रहण करने का वर्णन है। साथ-ही-साथ बौद्ध धर्म-ग्रन्थों के उन सात स्थलों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें सम्राट अशोक इस योग्य मानता था कि भिक्षु और भिक्षुणियां तथा उपासक व उपासिकाएँ उनका अनुशीलन करें, उन पर विशेष ध्यान दें। वे सातों स्थल बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में यथावत् रूप में प्राप्त हैं । ऐसा अनुमान किया जाता है कि अशोक ने जब यह शिलालेख उत्कीर्ण करवाया, तब वह सम्भवतः घेराठ स्थित किसी संघाशाम में प्रवास करता था। ३. चतुर्दश शिलालेख ई. पूर्व २५७ या २५६ के आस-पास ये शिलालेख लिखवाये गये थे। ये आठ भिन्नभिन्न स्थानों में प्राप्त हैं, जो इस प्रकार है : १. शाहबाजगढ़ी ( पेशावर से ४० मीक उत्तर-पूर्व में स्थित ) 2010_05 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शिलालेखी - प्राकृतं [ २२६ २. मानसेरा ( जिला हजारा-पाकिस्तान ) । ३. कालसी ( मंसूरी से लगभग १५ मील पश्चिम की ओर स्थित जिला देहरादून, उत्तरप्रदेश) ४. गिरनार ( जूनागढ़ के समीप, गुजरात ) ५. सोपारा ( जिला थाना, महाराष्ट्र ) ६. धौली ( जिला कटक, उड़ीसा) ७. जोगढ़ ( गंजाम, तमिलनाडु) ८. इरागुड़ी ( आन्ध्र ) .. धर्म, नीति, मनुष्यों और पशुओं की चिकित्सा, सार्वजनिक कार्य, राजा के कर्तव्य, राजा की महानता के आधार, प्रादेशिक अधिकारियों के कर्तव्य, जन-साधारण से सम्पर्क, धार्मिक सहिष्णुता, वास्तविक कीति, वास्तविक दान, कलिंग-विजय, उसके कारण, युद्ध के प्रति घृणा, भेदी-घोष के स्थान पर धर्म- घोष द्वारा देशों की विजय प्रभृति विषयों पर इन शिलालेखों में अशोक के विचार, मादेश भादि उल्लिखित हैं । ४. दो कलिंग - शिलालेख ई० पूर्व २५६ में इनका लेखन हुमा था। ये लेख धौली और जौगढ़ में प्राप्त हुए हैं। इन दोनों लेखों का सम्बन्ध नव-विजित कलिंग देश के शासन से है। इनमें सम्राट अशोक द्वारा अपने अधिकारियों को दिये गये उन आदेशों का उल्लेख है, जिनमें कलिंग देश और उसकी सीमा पर बसने वाली जंगली जातियों पर किस प्रकार शासन किया जाना चाहिए। ये लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । वस्तुतः ये दोनों लेख धौलो और जौगढ़ के चतुर्दश शिलालेखों के परिशिष्ट के समान हैं। चतुर्दश शिलालेखों के लिखे जाने के पश्चात् ये उनमें जोड़े गये थे। ५. तान मुहा-लेख ____ गया (बिहार ) की समीपवर्ती बराबर की पहाड़ियों में ये प्राप्त हुए हैं। ये लेख अशोक के राज्य-काल के १३वें और २० वर्ष अर्थात् ई. पूर्व २५७ और २५.० में उत्कीर्ण करवाये गये थे। इनमें उल्लेख किया गया है कि राजा प्रियदर्शी ने अपने राज्याभिषेक के बारह वर्ष पश्चात् ये गुफाए आजीवकों को प्रदान की। बुद्ध और महावीर के समय में श्रमण-परम्परा के अन्तर्गत आजीवक भी एक सम्प्रदाय था। उसके भिक्ष निघस्त्र रहते थे। मंखलि गोशाल उस सम्प्रदाय के अधिनायक थे। सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध था, पर, अन्य ___ 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन सम्प्रदायों के प्रति भी उसका आदर था। धार्मिक सहिष्णुता का यह एकउत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त आजोधक-सम्प्रदाय के प्रति सम्राट अशोक के आकर्षण का एक और कारण भी सम्भावित जान पड़ता है। महावंश सतिका में उल्लेख है कि अशोक की माता धर्मा थी। वह मौर्यवंशोत्पन्न थी। वह बिन्दुसार की अग्रमहिषी या पटरानी थी। उसका पितृ-कुल आजीवक-सम्प्रदाय का अनुयायीथा । उनके धर्माचार्य का नाम जनसेन था। यह रानी भी अपनी पैतृक परम्परा के अनुसार आजीवक-सम्प्रदाय में श्रद्धा रखती थी। डा. राधाकुमुद मुकों का कथन है कि सम्भवत: इसी कारण अशोक का आजीवकों के प्रति झुकाव रहा हो। दिव्यावदान में अशोक की माताका नाम शुभद्रोगी लिखा है। उसे एक ब्राह्मण-कन्या बतलाया है। जो भी हो, अशोक द्वाशा आजीवकों को गुफा-दान किये जाने के प्रसंग का उसकी माता के आजीवक-सम्प्रदाय की अनुयायिनी होने से जोड़ा जाना अधिक संगत नहीं लगता। षष्ठ स्तम्भ लेख में अशोक द्वारा सत्व पासंडा मे पूजिता जो कहा गया है, वह उसकी सभी धर्म-सम्प्रदायों के प्रति उदास्तापूर्ण नोति और बादर का स्पष्ट परिचायक है। ६. तराई के दो स्तम्भ-लेख नेपाल की तराई में रुम्मिनदेई तथा निग्लीव या निग्लीवा नामक गांव में ये लेख प्राप्त हुए हैं । इसका समय ई० पू० २५. माना जाता है। यद्यपि कलेवर में ये लेख बहुत छोटे है, पर, कई ऐसे कारण हैं, जिनसे इनका महत्व बढ़ जाता हैं। इन लेखों से निश्चित रूप से यह ज्ञात होता है कि अशोक ने बौद्ध-धर्म के पवित्र स्थानों की यात्रा की थी। रुम्मिनदेई के लेख से लुम्बिनी वन का पता चल जाता है, जहां तथागत ने जन्म ग्रहण किया था। बौद्ध इतिहास में इस स्थान का विशेष महत्व है। निग्लीव का लेख यह प्रकट करता है कि सम्राट अशोक की भक्ति गौतम बुद्ध के प्रति तो थी ही, पूर्व काल के बुद्धों के प्रति भो थी । साथही-साथ ये लेख व्यक्त करते हैं कि नेपाल को तराई तक अशोक की साम्राज्य-सीमा थी। ७. सप्त स्तम्भ-लेख ई० पू० २४३ से २४२ इनका समय माना जाता है । ये लेख टोपारा ( हरियाना में अम्बाला के निकट ), मेरठ ( उत्तर प्रदेश ), कौशाम्बी ( इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश ). रामपुरवा ( चम्पारण, बिहार ), लोरीया ( अयराज, बिहार ), लौरिया ( नन्दनगढ़, बिहाय ) तथा आरा (बिहार) में प्राप्त हुए हैं । टोपारा और मेरठ स्थिति स्तम्भों को फिरोज शाह दिल्ली उठवा लाया था, जो इस समय वहीं हैं। कौशाम्बो के लेख वाला स्तम्भ इस समय इलाहाबाद के किले में है। वह ____ 2010_05 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] शिलालेखी. प्राकृत [ २३१ कौशाम्बी से इलाहाबाद लाया गपा। लगभग तीस वर्ष तक राज्य करने के बाद सम्राट अशोक ने अपने जीवन के अन्तिम भाग में ये स्तम्भ-लेख उत्कीर्ण करवाये थे। जिन विषयों का चतुर्दश शिलालेखों में उल्लेख किया गया है, प्रायः उन्हीं का इन स्तम्भ लेखों में शब्दान्तर से वर्णन है। एक प्रकार से ये चतुदंश शिलालेखों के परिशिष्ट कहे जा सकते हैं)। इन स्तम्भ-लेखों में उन उपायों तथा व्यवस्थाओं का उल्लेख है, जिन्हें अशोक ने अपने सुदीर्घ शासन-काल में धर्म-प्रसार के हेतु व्यवहृत किया था । इन लेखों में अशोक की धार्मिक नीति, नैतिक आदर्श, राज्याधिकारियों के कर्तव्य, अहिंसा की सार्वजननीन तथा व्यापक क्रियान्विति के निमित्त वर्ष के अन्तर्गत कुछ दिनों के लिए विभिन्न पशुओं का वध न करने के सम्बन्ध में आदेश आदि महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है। 5. लघु स्तम्भ-लेख - ऐसा समझा जाता है कि इनका उत्कीर्णन ई० पूर्व २४८ से ई० पू० २३२ के मध्य हुआ। ये सापनाथ ( वाराणसी के समीप, उत्तर प्रदेश ) में प्राप्त हुए हैं। कौशाम्बी का स्तम्भ-लेख उसी स्तम्भ पर खुदा हुभा है, जो इलाहाबाद के किले में स्थित है। तीनों स्तम्भ-लेखों में कहा गया है कि जो भिक्षु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे, उन्हें संघ से पृथक् कर दिया जायेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्राट अशोक के समय बौद्ध धर्मसंघ में बढ़ते जा रहे वैमनस्य, विद्वष या फूट को रोकने के लिए जो सभा हुई थी, उसमें किये गये निश्चयों को प्रसारित करने की दृष्टि से ये लेख लिखवाये गये । सम्राट अशोक धर्मसंघ की फूट को रोकने के लिए कितना चिन्तित और जागरूक था, इससे यह प्रकट होता है । इलाहाबाद के किले में स्थित स्तम्भ पर एक लेख और है, जो रानो के लेख के नाम से प्रसिद्ध है । अशोक की द्वितीय पत्नी का नाम कारुषाकी था, जो राजकुमार तीवर की माता थी। इस लेख में पानी कारुषाकी की दानशीलता का उल्लेख है। अशोक के शिलालेखों का यह संक्षिप्त परिचय है। प्रस्तुत प्रयोजन शिला-लेखों की भाषा का विश्लेषण है। इसलिए यह आवश्यक है कि पहले उनका स्थान-भेद तथा भाषाभेद की दृष्टि से विभाजन किया जाये । इस अपेक्षा से ये शिलालेख उत्तर-पश्चिम, पश्चिम, पूर्व, पूर्व-दक्षिण, मध्य देश और दक्षिण; स्थूल रूप से इम छः भागों में बांटे जा सकते हैं । अशोक ने ये लेख अपनी राज-भाषा में लिखवाये। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र पूर्व भारत में थी। उसकी राज-भाषा पूर्वीय प्राकृत पी। राज-भाषा बोलचाल की भाषा की अपेक्षा शिष्टत्व की ओर झुकी रहती है। दूसरे शब्दों में यह बोमचाल की भाषा से कुछ परिमार्जित होती है, अतः अशोक के काल में पूर्व भारत में नो भाषा बोलचाल में प्रयुक्त थी, ___ 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ट : २ को राज-भाषा उससे कुछ भिन्न, कुछ परिनिष्ठित रूप लिये हुए थी। यद्यपि राज-भाषा का क्षेत्र समस्त राज्य होता है। राज्य-सम्बन्धी कार्यों में उसका उपयोग सर्वत्र होता है। बोलचाल में प्रादेशिक भेदों के अनुसार उसमें कुछ-कुछ भिन्नता रहती है । सम्राट अशोक ने जो शिलालेख लिखवाये, वहीं उनका दृष्टिकोण था कि जहां-जहां राज-भाषा को लोग समझ सकते हों, वहाँ उसी में आदेशों ध विचारों का उत्कीर्णन हो; ताकि जन-जन उन शिक्षाओं तथा भावनाओं से अवगत हो सके। अशोक के वे शिलालेख, जो पूर्व भारत में हैं, उसी भाषा में हैं, जिसका उसके राज्यकार्य में प्रचलन था। मध्यदेश में भी उस भाषा को समझने में असुविधा नहीं थी। बोलचाल में यहां कुछ नगण्य भिन्नता अवश्य थी। इस प्रकार गंगा-यमुना की घाटियों से लेकर महानदी तक के शिलालेखों की भाषा लगभग समान है। जहां-तहां कुछ भेद है, पर, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । __ अशोक का गाज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। उसमें ऐसे भाग भी थे, जहां अशोक की राज-भाषा अर्थात् पूर्व की भाषा लोगों द्वारा सुगमता से नहीं समझी जा सकती थी । वहां की भाषा भिन्न थी। ऐसे स्थानों पर जो शिलालेख लिखवाये गये, इस बात का ध्यान रखा गया कि उनमें घेसी भाषा का प्रयोग किया जाए, जिसे वहां के निवासी जन-साधारण सरलतापूर्वक हृदयंगम कर सकें । इसका अर्थ यह हुआ कि उन-उन स्थानों की प्रादेशिक बोलियों से शिलालेखों की भाषा अत्यधिक प्रभावित हुई। यह तथ्य उत्तर-पश्चिम के शाहबाजगढ़ी तथा मानसेरा के शिलालेखों से स्पष्ट है। यहां की तथा पूर्व व अन्य स्थानों के शिलालेखो की भाषा में सूक्ष्म दृष्टया रहे हुए अन्तर को विवेचना मागे को जायेगी। . गिरनार सौराष्ट्र : गुजरात ) में स्थित है। यहां की बोलचाल की भाषा पूर्व की भाषा से अपेक्षाकृत भिन्न थी। गिरनार के शिलालेख को भाषा पूर्व के शिलालेखों की भाषा से कुछ भिन्न होना स्वाभाविक ही है । उस पर मध्यदेश की बोलचाल की भाषा का कुछ प्रभाव अवश्य है, जो उसमें प्रयुक्त भाषा से स्पष्ट है। दक्षिण-आय-भाषा-परिवार की भाषामों के बाहर का क्षेत्र है। अशोक के समय में भी यहां लमभग उसी प्रकार द्रविड़-परिवार की भाषाओं का प्रचलन था, जैसा मान है। इतना अवश्य है, वे द्रविड़ परिवारीय भाषाए' आज की ( द्रविड़-परिवारीय ) भाषाओं की पूर्वजा थीं। भाषा-परिवारीय भिन्नता के कारण ही दक्षिण के शिलालेखों की भाषा स्थानीय भाषा से अप्रभावित रही। वहां के लेखों की भाषा में पूर्व की भाषा से जो थोड़ी-बहुत भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह पविषम का प्रभाव है। यही कारण है कि दक्षिण के शिलालेखों की घेराठ, सांची भौर रूपनाथ के लेखों से यत्किंचित् समानता दृष्टिगत होती है। 2010_05 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [ २३३ उन ( दक्षिण के ) शिलालेखों में भाषा की दृष्टि से और कुछ विशेष उल्लेखनीय नहीं है । सिलालेखों को भाषा तुलनात्मक विवेचन : अशोक के शिलालेखों में चतुर्दश शिलालेख भौगोलिक दृष्टि से ऐसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित हैं, जो एक-दूसरे से बहुत दूर हैं, उदाहरणार्थ, शाहबाजगढ़ी जहां दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है, वहां घौली दूर पूर्व-दक्षिण में । इसी प्रकार कालसी जहां हिमाद्रि के अंचल में उत्तर में स्थित है, वहां जौगढ़ दूर दक्षिणापथ में । उत्तर-पश्चिम चतुर्दश शिलालेखों की भाषा में स्थूलदृष्ट्या तीन रूप प्राप्त होते हैं का, पूर्व व मध्य देश का तथा पश्चिम का 1 शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख एक विशेष भाषा-रूप को लिये हुए हैं, जो ईरान आदि पश्चिम के देशों में प्रचलित आर्यपरिवारीय भाषाओं से प्रभावित और संस्कृत के अधिक निकट है । गिरनार का शिलालेख पश्चिम भारत की भाषा से विशेष प्रभाषित है । इनके अतिरिक्त अन्य शिलालेखों की भाषा इनसे कुछ भिन्न रूप लिये हुए है, जो अशोक की राज-भाषा के निकट का रूप है । शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के अभिलेख जिस भू-भाग में स्थित हैं, सम्भवतः सम्राट् अशोक के साम्राज्य की वह उत्तर-पश्चिमी सीमा थी । वह प्राकृतों का युग था । इस उत्तर-पश्चिमी भू-भाग में कोई एक प्राकृत प्रचलित थी, जो पूर्व की प्राकृत से अपेक्षाकृत विशेष भिन्न थी । कहीं की भी जन-भाषा पाश्र्ववर्ती देशों या प्रदेशों की भाषा से सदा प्रभावित रहती है । क्योंकि उसे बोलने वाले लोगों का सम्बन्ध, व्यवहार पास-पड़ोस के लोगों से नित्य प्रति रहता है । इसीलिए उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में बोली जाने वाली भाषा पर पश्चिम देश की भाषा का प्रभाव स्वाभाविक था । वह चीनी तुर्किस्तान के अन्तर्गत निय नामक स्थान पर मिले अभिलेखों की प्राकृत से, जिसे निय प्राकृत कहा जाता तथा खेतान में मिले प्राकृत - धम्मपद की भाषा के अधिक निकट है । अशोक के अभिलेखों की भाषा के सम्बन्ध में परिपूर्ण विवरण या विश्लेषण तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें बहुत कुछ गवेषणीय है, पर जितना जो कहा जा सकता है, तदनुसार अभिलेखों की भाषा के सम्बन्ध में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं : - १. उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में ऋकार का विकास रि और रु के रूप में दो प्रकार से दृष्टिगोचर होता है । जैसे, शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में मृगः का गो' तथा मानसेरा के १. मृगो सो पि स्रुगो नो ध्रुवं । 2010_05 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ अभिलेखों में निगे रूप प्राप्त होता है। कहीं-कहीं ऋकार रकार में भी परिवर्तित हुआ है। गिरनार के अभिलेख में सुगो या म्रिगे के स्थान पर मगो रूप प्राप्त होता है। इससे प्रकट है कि उस और ऋकार का विकास अकार में होने की प्रवृत्ति थी। कालसी और जौगढ़ के अभिलेखों में मृगः के लिए मिगे' रूप प्राप्त होता है । ये अभिलेख प्रायः पूर्व की भाषा के अनुरूप हैं । पूर्व में ऋ का विकास इ में होने की प्रवृत्ति रही है। शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में रकार के प्रभाव से उसका अनुगामी तालव्य वर्ण मूर्धन्य वण के रूप में परिवर्तित दृष्टिगोचर होता है। जैसे, वृद्धषु के लिए वहां बुढेषु प्रयोग है, जब कि मानसेरा के अभिलेखों में वृद्धषु के लिए बुध्रषु प्रयुक्त हुआ है। सभी शिलालेखों में तालव्य वर्गों के मूर्धन्य वर्गों में परिवर्तित होने की नियामकता नहीं दिखाई देती । उदाहरणार्थ, द्वितीय शिलालेख में औषधानि के लिए गिरनार में औसुढानि कालसी में औसुधानि, जोगढ़ में औसधानि, शाहबाजगडी में औषुढानि तथा मानसेरा में औषढिनि का प्रयोग हुआ है । चतुर्थ शिलालेख में वर्धित: के लिए सर्वत्र वढितो या वढिते १. .."एके निगे से पि चु निगे नो ध्रुवं । (एकः मृगः सः अपि च मृगः न ध्रुवः।) -प्रथम शिलालेख २. ..."एके मिगे से पि च मिगे नो ध्रुवे। ३. एके मिगे से पि चु मिगे नो ध्रुवं । ४. बुढेषु हित सुखये ध्रमयुतस अपलिबोधे वपट............ ५. बुध्रषु हिवं सुखये ध्रमयुत अपलियोधये वियपुट ............ ( .."वृद्धषु हितसुखाय धर्मयुक्तस्य अपरिबाधाय व्यापृता: ") -पंचम शिलालेख १. गिरनार-औसुढानि च यानि मनुसोपगानि च ....... । कालसी-औसधानि मुनिसोपगानि चा........ । जौगढ़-औसपानि आनि मुनिसोपगानि........ शाहबानगढ़ी-औषुढानि मनुशोपकानि मनुशोपकानि........। मानसेरा-औषढिनि........ (औषधानि मनुष्योपगानि च....... ।) ____ 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शिलालेखी • प्राकृत [ २३५ प्रयुक्त हुआ है। . उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों में तालव्य श मूर्धन्य व तथा दन्त्य स प्रायः पथावत् रूप में प्राप्त होते हैं। जैसे, दोषं, समजस, प्रिय-द्रशि, अनुदिवस, प्रणशतसहस्रनि, अरमियिसु, पशोपकानि, नस्ति, सनत्र आदि। ___शाहबाजगढ़ी के अभिलेख में इसका अपवाद भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ, द्वितीय शिलालेख में मनुष्य-चिकित्सा के लिए मनुशधिकिस तथा मनुष्योपगानि के लिए मनुशोपकानि रूप प्राप्त होते हैं । शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेखों में र के स्थान परिवर्तन के सम्बन्ध में एक धिमेश क्रम दिखाई देता है। रेफ अपने से पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती वर्ण में मिल जाता है । १. गिरनार - अतिकांतं अंतर बहूनि वाससतानि वढितो एवं प्राणारंभो....। कालसी-अतिकतं अंतलं बहुनि वाससतानि बढिते व पानालमे....... । धौली–अतिकतं अंतलं बहूनि वाससतानि बढिते व पानालंभे........। जोगढ़-अतिकतं अंतलं बहूनि वाससतानि वढिते व पानाल मे........ । शाहबाजगढ़ो-अतिक्रतं अंतरं बहनि वषशतानि वढितोब प्रणरंभो..॥ मानसेरा-अतिक्रतं अंतर महुनि वष-शनि वढिते व प्रणरंभे........। (अतिक्रान्तमन्तरं बहूनि वर्षशतानि वर्धित एवं प्राणालामः... ।) २. बहुकहि बोषं समजस देवन प्रियो प्रियदशि रप दखति । - (बहुकान् हि दोषान् समाजस्य देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा पश्यति।) -प्रथम शिलालेख ३. ... अनुविवसो बहुनि प्रणशतसहस्रनि अरमियिसु... । (.."अनुविवसं बहूनि प्राणशतसहस्राणि आलप्सत्..) -प्रथम शिलालेख ४. ... पशोपकानि च यत्र-पत्र नस्ति सवन हरोपित च.... । (..."पशुपगानि च यत्र यत्र न सन्ति सर्वत्र हारितानि च.... ।) -द्वितीय शिलालेख ५. ..."प्रियदशिस रजो दुवि चिकिस किट मनुशचिकिंस पशुचिकिस च । औषुढानि मनुशोपकानि । ( प्रियदर्शिनः राज्ञः चिकित्से कृते मनुष्यचिकित्सा च पशुचिकित्सा च । मौषधानि मनुष्योपगानि....... ।) ____ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ जैसे. धर्म-लिपि के लिये प्रमदिपि', सर्वत्र के लिए सनत्र तथा प्रियदर्शिनः के लिए प्रिम्दशिस प्रभृति रूप पाये जाते हैं। रकार के स्थान-परिवर्तन की ऐसी प्रवृत्ति अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती। जिन संयुक्त व्यञ्जनों के अन्त में यकार होता है, उस ( यकाय ) का लोप हो जाता है। यह प्रवृत्ति उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, वहां कल्याण के लिए कलण तथा कर्तव्य के लिए कटव' आया है । यकार-लोप की यह स्थिति अधिकांशतः शाहबाज़गढ़ी के अभिलेखों में प्राप्त होती है। मानसेरा के अभिलेखों में इससे भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। जैसे, बारहवे और पहले शिलालेख में शाहबाजगढ़ी में जहां कल्याण के लिए कलण और कर्तव्य के लिए कटव आया है, मानसेरा में कयण और कटविय' का प्रयोग हुआ है। उत्तर-पश्चिमी अभिलेखों में जिन व्यंजनों में र मिला रहा होता है, वे व्यंजन प्रायः १. (अ) यं ध्रमदिपि देवन प्रिअस-रओ लिखपितु। ( इयं धर्मलिपि: देवानां प्रियेण राज्ञा लेखिता।) -प्रथम शिलालेख २. सवत्र विजिते देवनं प्रियस प्रियदशिस ये च अंत....। ( सर्वत्र विजिते देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः ये च अन्ताः.... ।) -द्वितीय शिलालेख ३. पुर महनसि देवनं प्रियअस प्रिअद्रशिस रो। (पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिन: राज्ञः ...") _ -प्रथम शिलालेख ४. एवं हि देवनं प्रियस इछ किति सन्न प्रचंड बहुश्रु त च कलण वतवो... । (एवं हि देवानां प्रियस्य इच्छा किमिति सर्वपाषण्डाः बहुश्रु ताः च कल्याणवन्त:।) -द्वादश शिलालेख ५. हिद नो किचि जिवे आरमित प्रयुहोतविये। नो पि च समज कटब । (इह न कश्चित् जीवः आलभ्य प्रहोतव्यः । नापि च समाज: कर्तव्यः ।) --प्रथम शिलालेख ६. एवं हि देवनं प्रियस इछ किति सन्न पषड बहुश्रुत च कयण तविये...। ७. हिद नो कि चि जिवे आरभित प्रयुहोतबिये नोपि च समज कटविय । 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शिलालेखी - प्राकृत [ २३७ यथावत् बने रहते हैं। जैसे, प्रज, ब्रमण, श्रमण' इत्यादि। कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप (द्वयर्थ के लिए ) दियट' जैसे रूप भी मिलते हैं। जिन संयुक्त व्यंजनों में ल मिला रहता है, उनमें ल का प्रायः लोप हो जाता है । विशेषत: यह प्रवृत्ति उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में प्राप्त होती है। अन्य शिलालेखों में ऐसा नहीं पाया जाता। इसके अनुसार कल्प के लिए कप तथा अल्प के लिए अप जैसे प्रयोग प्राप्त होते हैं। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में क्ष के लिए छ का प्रयोग पाया जाता है। जैसे, मोछये, छमितविय, छमनये । १. ""तथं च मे प्रज अनुवटतु। ( ..."तथा च मे प्रजा अनुवर्तन्ताम् ) -पंचम शिलालेख २ (क) मित्रसंस्तुत अतिकनं च ब्रमणश्रमणन....। ( मित्रसंस्तुत ज्ञानीनां च ब्राह्मणश्रमणानां""1) -तृतीय शिलालेख (ख) तत्र हि वसंति ब्रमण व श्रमण व." (तत्र हि वसन्ति ब्राह्मणा वा श्रममा वा" ।) -त्रयोदश शिलालेख ३. त्रयोदश शिलालेख ४. .."इमं अवकप प्रमे शिले च तिस्तिति ध्रम अनुशशिशंति । ( इदं यावत् कल्पं धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति ।) -चतुर्थ शिलालेख ( शाह० ) ५. अपवयत अपमंडत सधु । ( अल्पव्ययता अल्पमाण्डता साधु । ) -तृतीय शिलालेख ६ मौछये इयं अनुबधं....। (.."मोक्षाय च एवमनुबन्ध... ।) -पंचम शिलालेख ७ (क) यो पि च अपकरेय ति छमितवियमते वो देवनं प्रियस यं शको छमनये। ( योऽपि च अपकरोति क्षन्तव्यमत एव देवानां प्रियस्य यः शक्यः क्षमणाय ।) (ख) इच्छति हि देवनं प्रियो सबभूतन अछति..." ( इच्छति हि देवानां प्रियः सर्वभूतानामक्षति...) ... -त्रयोदश शिलालेख ____ 2010_05 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ उत्तर-पश्चिम के अतिरिक्त क्ष के लिए ख के प्रयोग की प्रवृत्ति प्रायः सभी शिलालेखों में प्राप्त होती है । कहीं-कहीं उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में भी क्ष के लिए ख प्राप्त होता है । उदाहरणार्थं, शाहबाजगढ़ी और मानसेा के दशम शिलालेख में क्षुद्रण के लिए खुद्रकेन' का प्रयोग हुआ है । उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में श के लिए प्रायः ञ का प्रयोग हुआ है । जैसे, रो तिकनं । अन्यान्य शिलालेखों में ञ् और नू; दोनों प्रकार के प्रयोग प्राप्त होते हैं । कहीं-कहीं उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में भी न् आया है, पर, बहुत कम । उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों न्य के लिए भी प्रायः ञ का प्रयोग हुआ है । जैसे अजूनि अजे' इत्यादि । मानसेरा में क्वचित् य के लिए ग भी प्राप्त होता है । अन्यान्य अभिलेखों में प्रायः न्य के स्थान पर न प्राप्त होता है । गिरनार में भी मिलता है । १. डुकरं तु खो एवे खुद्रकेन वग्रन उसटेन व २. ४. ' ( दुष्करं तु खलु एतत् क्षुद्रकेण वर्गेण उशता ......... -शाहबाजगढ़ी, वशम शिलालेख ५. अयं प्रमदिपि देवन प्रिअस रओ लिखयितु । ( इयं धर्म लिपि: देवानां प्रियेण राज्ञा लेखिता ) ३. मित्र संस्तुततिकनं श्रमणब्रमणनं दनं प्रणनं अनरंमो । (.... मित्रसंस्तुतज्ञातिकानां श्रमणब्राह्मणानां दानं प्राणानामनार्लभ ) -शाहबाजगढ़ी, एकादश शिलालेख अनि च विनि रुपनि ब्रशयितुजनस । ................ - शाहबाजगढ़ी, प्रथम शिलालेख एषे अत्रे च बहुविधे धमचरणे वर्धिते । ( एतत् अन्यत् च बहुविधं धर्मचरणं वर्द्धितम् ।) - मानसेरा, चतुर्थ शिलालेख " अन्यानि च दिव्यानि रूपाणि दर्शयित्वा जनस्य । ) - शाहबाजगढ़ी, चतुर्थ शिलालेख ६. इमये धमनुश स्तिये यथं अणये पिक्रमने । ( अस्ये धर्मानुशिष्ट्यै यथा अन्यस्मै अपि कर्मणे । ) -- मानसेरा, तृतीय शिलालेख 2010_05 3 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [ २३९ पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में दन्त्य और मूर्धन्य वर्गों की नियतता दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे, चतुर्थ शिलालेख (शाहबाजगढ़ी ) में तिष्ठति के लिये तिस्तिति बोर श्रेष्ठम् के लिए ले प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् एक ही स्थान पर दन्त्य और मूर्धन्य दोनों प्राप्त होते हैं। उत्तर-पश्चिम के अभिलेखों में कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं, जिनमें र का लोप दृष्टिगोचर होता है। जैसे, षष्ठ शिलालेख में कृतम् के लिए किटं रूप प्राप्त होता है । वास्तव में इन शिलालेखों की प्रयोग-परम्परा के अनुसार कृत का क्रिट होना चाहिए; जैसा कि पूर्वोल्लेख हुभा है, ऋकार का विकास इन शिलालेखों में रि, रु और कहीं-कहीं र के रूप में देखा जाता है। पूर्व के शिलालेखों में इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं है। वहां ऋकार, इकार उकार या अकार में परिवर्तित दृष्टिगोचर होता है। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में क्रिट के स्थान पर किट जैसे प्रयोग ( अर्थात् रकार का लोप ) की प्रवृत्ति पूर्व से आई हुई प्रतीत होती है। उत्तर-पश्चिम के अभिलेखों में आकार को कार में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है । जैसे, चिकित्सा के लिए चिकिस', यथा के लिए यप तथा . १. ध्रमे शिले च तिस्तिति प्रमं अनुशशिशंति । एत हि ले क्रमं यं धमनुशशनं प्रम चरणं पिच। (....."धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति । एतत् हि श्रेष्ठ कर्म पत् धर्मानुशासनम् ) -शाहबाजगढ़ी, चतुर्थ शिलालेख २. तं मय एवं किट सत्र कलं............) (तत् मया एवं कृतं सर्व कालं......) -शाहबाजगढ़ी, षष्ठ शिलालेख' ३. प्रिपद्रशिस रो दुवि चिकिस किट मनुशचिकिस पशुचिकिस च । ( प्रियदर्शिनः राज्ञः वि चिकित्से कृते मनुष्यचिकित्सा च पशुचिकित्सा च ।) -शाहबाजगढ़ी, द्वितीय शिलालेख ४. .."इमिम ध्रमनुशस्ति यथ अ ये पि क्रमये । (-अस्ये धर्मानुशिष्टय यथा अन्यस्मै अपि कर्मणे ।) -शाहबामगढ़ी, तृतीय शिलालेख ____ 2010_05 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] आगम और त्रिपटिक : एक अनुशीलन [खण्ड :२ के लिए तक, अधुना के लिए अधुन, पश्चात् के लिए पछ, तीव्र के लिए तिव तथा अपराधेन के लिए अपरधेन जैसे प्रयोग हुए हैं। - पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में अकारान्त नामों के प्रथमा एकवचन में ओ तथा ए दोनों मिलते हैं। वहां कोई निश्चित नियामकता दृष्टिगोचर नहीं होती। गिरनार के शिलालेख में ओ का प्रयोग अधिक हुआ है, जबकि धौली, जोगढ़ तथा कालसी के शिलालेखों में ए अधिक प्रयुक्त हुआ है। . गिरनार के शिलालेखों में राजा के लिए अधिकांशतः राजा का प्रयोग हुआ है तथा कालसी, धौली और जोगढ़ के शिलालेखों में प्रायः राजा के लिए लाजा' आया है । शौरसेनी में र का परिवर्तन नहीं होता, जब कि मागधी में र ल में बदल जाता है। १. "सौ च पुन तथ करतं बढ़तर' उपहति अतप्रषडं । ( ........ सच पुनः तथा कुर्वन् वाढतरमुपहन्ति आत्मपाषण्डे । ) - शाहबाजगढ़ी, द्वादश शिलालेख २. ततो पछ अधुन लघेषु कलिगेषु तिने धमलन......। ... (ततः पश्चात् अधुना लब्धेषु कलिगेषु तीन धर्मपालने.......... -शाहबाजगढ़ी, त्रयोदश शिलालेख ३. ..."संखयकरण व अलोचेति विपिकरस व अपरधेन । (.........."संक्षेपकारणं वा आलोचयतु लिपिकरापराधेन वा ) -शाहबाजगढ़ी, चतुर्दश शिलालेख ४. देवानं प्रियो पियवसि राजा एवं आह ।-गिरनार, तृतीय शिलालेख देवानं पिये पियवसि राजा हेवं आहा ।-कालसी देवानं पिये पिहदसि लाजा हेवं आहा।-धौली देवानं पिये पियवसो लाजा हेवं आहा ।--जौगढ़ देवानं प्रियो प्रियदशि रज अहति ।-शाहबाजगढ़ी देवानं प्रिये प्रियदशि रज एव अह ।-मानसेरा देवानं प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह ।) ५. देवानं पि......"पियवसि राजा एवं आह ।-षष्ठ शिलालेख, गिरनार देवानं पिये पियवसि लाजा हैवं आहा ।- कालसी देवानं पिये पियवशी लाजा हेवं आहा । -घौलो ......."नं पिये पियवसी लाजा हेवं आहा। -जौगढ़ ____ 2010_05 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [ २४१ शाहबाज़गढ़ी के शिलालेखों में रज और रय दोनों रूप मिलते हैं। इसी प्रकार की स्थिति मानसेरा के शिलालेखों में है। इस सम्बन्ध में दोनों ही स्थानों में कोई नियामकता नहीं दिखलाई देती। मानसेरा के चतुर्थ शिलालेख में राज्ञः के लिए रजिने का प्रयोग हुआ है, जबकि शाहबाजगढ़ी के शिलालेख में र का प्रयोग हुआ है । पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में प्रायः ज्ञ के लिए ञ का प्रयोग ही मिलता है। शाहबाजगढ़ी और मानसेवा के अभिलेखों में तु के लिए प्रायः चु का प्रयोग हुआ है। गिरनार के लेखों में ऐसा नहीं है । वहां तु यथावत् रहा है, पर, कालसी, धोली और जौगढ़ में उत्तर-पश्चिम की तरह चु' ही दृष्टिगोचर होता है। सप्तम शिलालेख में तु के लिए गिरनार में तु, कालसी में चु, धौली में च, जौगढ़ में च, १. देवनं प्रियो प्रियदर्शि रय एवं अहति ।-शाहबाजगढ़ी देवनं प्रिये प्रियदशि रज एवं अह ।-मानसेरा ( देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह । ) २. .."तदिशे अज वढिते देवनं प्रियस प्रियदशिस रजो ध्र मनुशस्तिय अनरंभो प्रणनं..। - शाहबाजगढ़ी, चतुर्थ शिलालेख तदिशे अज वढिते देवन प्रियस प्रियदशिने रजिने ध्रममुशस्तिय अनरंभे प्रणन...। -मानसेरा (......"तादृशममघवर्द्धित: देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः धर्मानुशिष्टया अनालंभः प्राणामाम्....."1) ३. यो तु एत देस पि हायेसति सो दुकतं कासति । --गिरनार, पंचम शिलालेख ए चु हेता देस पि हापयिसंति से दुकट कछति ।-कालसी ए......"हेत देसं पि हापयिसति से दुकटं कछति ।-धौलो यो चु अतो......."पि हयेशति सो दुको कषंति ।-शाहबाजगढ़ी ये चु अत्र देश पि हपेशति से दुकट कषति । -मानसेरा ( ये तु अत्र देशमपि हापयिष्यन्ति ते दुष्कृतं करिष्यन्ति ।) ____ 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड :२ शाहबाजगढ़ी में चु और मानसेरा में चु आया है।' धौली और जौगढ़ में जो च प्रयुक्त हुआ है, उसका कोई कारण दिखाई नहीं देता । सम्भवतः लिपि-दोष से ऐसा हुआ हो । धौली और जौगढ़ के शिलालेख में, जैसा कि टिप्पणी में उद्भत किया गया है, जनों या जने के बदले मुनिसा का प्रयोग हुआ है, जो मनुष्य का प्राकृत रूप है। इन शिलालेखों में तु के प्रसंग में ही प्रायः त के लिए च का प्रयोग मिलता है, अन्यत्र नहीं । पर, चतुर्थ शिलालेख में कालसी और धौली में तिष्ठन्तः के लिए चिठितु का प्रयोग हुआ है । शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेखों में लिपि के लिए प्रायः रिपि शब्द का प्रयोग हुआ है । अन्यत्र प्रायः सभी स्थानों पर लिपि या लिपी शब्द आया है । - - - १. जनो तु का उचावचछंदो उचावचरागो । --गिरनार जने चु उचावुचाछंदे उचावुचलागे । -कालसी मुनिसा च उचावुचछंदा उचावुचलाग । –धौली मुनिसा घ उचवुचछंदा उचावुचलागा। -जौगढ़ जनो चु उचवुचछंदो उचवुचरगो। -शाहबाजगढ़ी जने चु उचवुचछंदे उच्चवुचरगे। -मानसेरा ( जन : तु उच्चाबचच्छन्दः उच्चावचरागः ।) २. धंमसि सिलसि चा चिठितु धर्म अनुसासिसंति । -कालसी धमसि सीलसि च चिठितु धर्म अनुसासिसंति । –धौली ( धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति ।) ३. (क) (अ) यं भ्रमदिपि देवन प्रियअस......."रो लिखपितु । -शाहबाजगढ़ी, प्रथम शिलालेख अयि ध्रमविपि ( दे ) वन ( प्रि ) येन (प्रिय ) द ( शिन ) रन ( लि ) खपित । -मानसेरा ( इयं धर्मलिपि : देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखिता ।) (ख) एतये अठये अयं प्रमदिपि विपिस्त............ एतये अध्रये अयि प्रमदिपि लिखित............ -मानसेरा ( एतस्मै अर्थाय इयं धर्मलिपि: लिखिता........।) (ग) अयो ध्रमविपि घेवनं प्रियेन प्रिशिन रो दिपपितो। ____-शाहबाजगढ़ी, चतुर्वश शिलालेख ( इयं धर्मलिपिः देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखिता।) ____ 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य । शिलालेखी - प्राकृत [ २४३ इन अभिलेखों में सप्तमी विभक्ति के लिए मिह, सि और ए; तीनों प्रत्यय प्राप्त होते हैं । गिरनार में म्हि, कालसी, धौलो आदि में सि तथा शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में ए का प्रयोग प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ, चतुथे शिलालेख में सप्तमी के शीले रूप के लिए गिरनार में सोलम्हि', कालसी में सिलसि', धौली में सीलसि', शाहबाजगढ़ी तथा मानसेरा में शिले रूप प्राप्त होते हैं । अभिलेखों की भाषा : कुछ सामान्य तथ्य पश्चिमोत्तर के शिलालेखों के अतिरिक्त प्रायः सभी शिलालेखों में तालव्य श, मूर्धन्य व और दन्त्य स के स्थान पर दन्त्य सकार का ही प्रयोग हुआ है । कालसी के शिलालेख में तालव्य श और मूर्धन्य ष भी मिलता है । कालसी के प्रथम नौ शिलालेखों में तो तालव्य श और मूर्धन्य ब के स्थान पर दन्त्य स प्राप्त होता है, पर, उनके अतिरिक्त अन्य शिलालेखों में अधिकांशतः मूर्धन्य ष तथा क्वचित् तालव्य श प्राप्त होता है। प्रियदर्शी के लिए पियदषी, यशः के लिए यषो, धर्म-शुश्रूषा के लिए धमसुसुषा, - १. ... ......"धमम्हि सोलम्हि तिस्तो धम अनुसासिसति । -गिरनार, चतुर्थ शिलालेख २. धमसि सिलसि चा चिठितु अंमं अनुसासिसंति । –कालसी ३. धंम ( सि ) सीलसि च ( चिठि ) तु धर्म अनुसासिसंति ! -धौली ४. ध्रमे शिले च तिस्तिति प्रमं अनुशशिशंति ।....... --शाहबाजगढ़ो ५. प्रमे शिले च तिस्तितु ध्रम अनुशशिशंति । -मानसेरा ( धर्मे शोले व तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति ।) ६. देवानं पिये पियदषी लाजा यलो वा किति वा न महाथावहा मनति । ( देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कोर्ति वा न महार्मवहं मन्यते । ) -दशम शिलालेख 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन | खण्ड : २ शुश्र षताम् के लिए सुसुषातु सर्वम् के लिए षवं, अपपरिस्रवः के लिए अपपलाषवे, स्यात् इति के लिए षियातिति, एषाः के लिए ऐषे, उशता के लिए उषुटेन, ईदृशम् के लिए हेडिषे, यादृशम् के लिए आदिष, धर्मसंविभागः के लिए धमषं विभागे, धर्मसम्बन्ध के लिए धर्मष बधे, दाषभट (त) कपि, सम्यक् प्रतिपत्ति के लिए षम्यापटिपति, शुश्रूषा के लिए पुषुषा , संस्तुत १. धंमसुसुषा सुसुषातु मे ति धमवतं वा अनुविधीयतुति । (... - धर्मशुश्रूषां शुश्रूषतां मम इति धर्मव्रतमनुविधसामिति ।। -दशम शिलालेख २. ......त षवं पालतिक्याये वा............ । ( ..."तत् सर्व पारत्रिकाय एव..... ....।) -दशम शिलालेख ३. किति सकले अपपलाषवे षियातिति । ( किमति सकल: अपपरिस्रवः स्यात् इति ) -दशम शिलालेख ४. एषे चु पलिसवे ए अपुनै । __ (एष तु परिस्रवः यत् अपुण्यम् ।) -दशम शिलालेख ५. .........."उषुटेन वा अनत अगेना पलकमैना षवं पलितिरितु । (.... "उशता वा अन्यत्र अग्रयात् पराक्रमात् सर्वं परित्यज्य । ) -दशम शिलालेख ६. नथि हेडिषे दाने आदिषं घंमदाने...........। (.......... नास्ति ईदृशं दानं यावां धर्मदान........।) -एकादश शिलालेख ७. धमषं विभागे, धमषंबंधे............। (....... धर्मसंविभागः धर्मसम्बन्धः वा ।) -एकादश शिलालेख ८. तत ऐष दाषभटकषि षम्यापटिपति मातापितिषु षुषुषा........। ( तत्र इदं भवति-दासमृतकेषु सम्यक् प्रतिपत्तिः, मातापित्रौः शुश्रुषा -एकादश शिलालेख ___ 2010_05 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [ २४५ के लिए थुत', स्वामिना के लिए षवामिक्येन सः के लिए शे", प्रसूते के लिए पशवति', 1 पाषण्डान् के लिए पाषंडनि', सारवृद्धि के लिए शालवढि स्यात् के लिए शिया, सर्वपाषण्डानाम् के लिए शवपाशंडानं ", तस्य के लिए तश 7, अप्रकरण के लिए अपकलनशि, तस्मिन् के लिए तशि, प्रकरण के लिए पकलनशि, साधु के लिए षाधु, अन्योन्यस्य के लिए १. मितष थुतनातिक्यानं समनबंभनानं दाने ( मित्रसंस्तुत ज्ञातिकानां श्रमणब्राह्मणानां दानं । ) - एकादश शिलालेख २. पितिना पि पुते पि भातिना पि षवामिक्येन पि........। ( पित्रापि पुत्रेणापि भ्रात्रापि स्वामिना पि... 1) ३. शे तथाकलंत हिंदलोकिक्ये च आलधे होति । ( स तथा कुर्वन् एहलौकिकं च आराद्धा भवति । - एकादश शिलालेख ४. ........ पलत च अनंत पुंन पशजति तेना धंमदानेना । .........परत्र च अनन्तं पुण्यं प्रसूते तेन धर्मदानेन । ) ७. तश चु इयं मुले अ वचगुति' ८. ५. देवाना पिये पियदषि लाजा षवा पाषंडनि......। ( देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा सर्वान् पाषण्डान् ....... | ) - द्वादश शिलालेख ६. अथा कित शालवढि शिया ति शवपाशंडानं । (........ यथा किमिति सारवृद्धिः स्यात् सर्वपाषण्डानाम् । ) - द्वादश शिलालेख ( तस्य तु इदं मूलं या वचोगुति - एकादश शिलालेख शिया तशि तशि पकलनशि । "I - एकादश शिलालेख 1 ) - द्वादश शिलालेख 'किति त अतपाशंडे पुजा पलपाशंडगलहा व नो शया अपकलनशि । लहका बा 2010_05 (...... किमितिआत्मपाषण्डे पूजा परपाषण्डगर्हा वा न स्यात् अप्रकरणे । लघुता वा स्यात् तस्मिन् तस्मिन् प्रकरणे । ) - द्वादश शिलालेख Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अनमना 1, शृणुयुः के लिए बुनेयु, शुश्रूषेरन् के लिए षुषुषेयु, देवानां प्रियस्य के लिए देवानं पियषा, अभि के लिए अठवषाभिसितषा, प्राणशतसहस्रम् के लिए पानषतषहशे, लब्धेषु के लिए लधेषु +, धर्मानुशिष्टः के लिए धर्मानुषधि, तत् के लिए षं, अनुशयः के लिए अनुषये, जनस्य के लिए जनषा, वसन्ति के लिए बति, येषु १. समवाये व बाधु किति अंनमनषा धमं षुनेयु चा षषुषेयु चा ति । हैवं हि देवानं पियवा इछा **** | ( समवायः एव साधुः किमिति अन्योन्यस्य धर्मशृणुमुः च शुश्रूषेरन् इति । एवं हि देवानां प्रियस्त इच्छा"। २. अठवसाभिसितषा देवानं पियष पियदषिने लाजिने ... " ( अष्टवषाभिषिक्तस्य देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः .... | ) ३. दिढमाते पानवतष हशे ये तफा अपवृढे " ४. तता पछा अधुना लधेषु कलिग्येषु तिव्र ......... ( ततः पश्चात् अधुना लब्धेषु कलिगेषु तीव्र ....। - द्वादश शिलालेख ( दूर्घमात्र प्राणशतसहस्र ं यत् ततः अपव्यूढं .... ८. ७. तता वध ं वा मलने वा अपबहे वा जनषा ........। ५. धंमवाये धमकामना धंमानुषथि वा देवानं पियणा ( धर्मपालनं धर्मकामता धर्मानुशिष्टिः च देवानां प्रियस्य... 1) - त्रयोदश शिलालेख - त्रयोदश शिलालेख ६ वे अथि अनुषये देवानं पियषा विजिनितु कलिग्यानि । ( तत् अस्ति अनुशयः देवानां प्रियस्य विजित्य कलिंगान् । *) - त्रयोदश शिलालेख 'वर्षाति बंभना व बम ( ना ) व ' **** ....बसन्ति ब्राह्मणाः वा श्रमणाः वा... ) 2010_05 - त्रयोदश शिलालेख " तत्र वधः वा मरणं वा अपवाहः वा जनस्य .........) त्रयोदश शिलालेख - त्रयोदश शिलालेख - त्रयोदश शिलालेख Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी , प्राकृत [ २४७ के लिए येशु', मित्रसंस्तुतसहायज्ञातिकेषु के लिए मितष थुतषहायनातिकेषु , दासमृत केषु के लिए दाशमतकषि", तेषाम् के लिए तेष, स्नेहः के लिए षिनेहे, व्यसनं के लिए वियषने ', श्रमणेषु के लिए बमने,, मनुष्याणां के लिए मनुषानं, एकतरस्मिन् के लिए एकतलषि, प्रसादः के लिए पधादे, शतभागः के लिए पते भागे, सहस्रभागः के लिए पहषभागे', संयमम् के लिए षयम, समचर्या के लिए षमचलियं, अलिकसुन्दरः के लिए १. ... येशु विहिता एष अगभुत धुसुषा.... । ('...येषु विहिता एषा अग्रयभूतशुश्रूषा--1) ---त्रयोदश शिलालेख २. मित्र थुतषहायमातिकेषु दाशमतकषि षम्यापठिपति........। ( ......."मित्रसंस्तुतसहायज्ञातिकेषु दासमृतकेषु सम्यक् प्रतिपत्तिः.........) -त्रयोदश शिलालेख ३. तेषं तता होति उपधाते वा वधे वा.......। (तेषां तत्र भवति उपधातः वा वधः वा ...) -त्रयोदश शिलालेख ४. ......."षिनेहे अविपहिने एतानं मितशंथुतषहायनातिय विषने........ । ....."स्नेहः अविप्रहीणः एतेषां मित्रसंस्तुतसहायज्ञातिका: व्यसनं ।) -त्रयोदश शिलालेख ५. ......."यता नथि इमे निकाया आनंता येनेष बह्मने चा षमने चा... । (......"यत्र न सन्ति इमे निकाया अनन्ताः , ब्राह्मणेषु च श्रमणेषु च...। -त्रयोदश शिलालेख ...."यता नथि मनुषानं एकतलषि पि पाषडषि नौ नामपषादे .. ....। (......."यत्र नास्ति मनुष्याणामैकतरस्मिन् अपि पापण्डे नाम प्रसादः........) -त्रयोदश शिलालेख ७. तता षते भागे वा षहषमागे वा अज गुलुमते वा देवानं पियषा । ("ततः शतभागः वा सहस्रभागः वा गुरुमत एव देवानां प्रियस्य ।) -~-त्रयोदश शिलालेख ८. ......"षयम षमचलियं मदव ति । (....."संयम समचर्या मार्दवमिति ।) त्रयोदश शिलालेख - 4 ____ 2010_05 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ अलिक्यादलो', विषवज्रिा के लिए विशवषि, नामपंक्तिधु के लिए नामपंतिषु भोज प्रितिनिकेषु के लिए भोजपितिनिक्येषु, आन्ध्रपुलिन्देषु के लिए अन्ध्रपुलिंदेषु , सर्वत्र के लिए पवता, धर्मानुशिष्टि के लिए घमानुषथि, मन्येरन् के लिए मनिषु', शराकर्षिणः के लिए षयकधि, विजये के लिए विजयषि लेखयिष्यामि के लिए लेखापेशामि तस्य के लिए तषा, अर्थस्य के लिए अथषा', स्यात् के लिए षिया, संक्षेपकारणं के लिए १. अलिक्यषुदले नाम निचं चौड पंडिया अवं तंबपनिया । (... अलिकसुन्दर: नाम नीचाः चौडाः पाण्ड्याः यावत् ताम्रपर्णीयाः । -त्रयोदश शिलालेख २. विशवषि यौनकंबोजेषु नामके नामपंतिषु....... (......"विषवर्जिषु यवनकांबोज नामकेषु नामपंक्तिषु ...."1) -त्रयोदश शिलालेख ३. भोजपितिनिक्येषु अधपलदेषु षवता देवानं पियषा धमानुषथि अनुवतंति । (......."मोजपितिनिकेषु आन्ध्रपुलिन्देषु सर्वत्र देवानां प्रियस्य धर्मामुशिष्टिमनुवर्तन्ते ।) -त्रयोदश शिलालेख ४. . ."नवं विजय म विजयंतषिय मनिषु । ( ...."नवं विजयं मा विजतेव्यं मन्येरन् । ) -त्रयोदश शिलालेख ५. षयकषि नो विजयषि खंति चालहुदंडता चा लोचेतु.......। ....... शराकर्षिणः विजये क्षान्ति च लघुदण्डतां च रोचयन्तां......।) -त्रयोदश शिलालोला ६. बहु च लिखिते लेखापेशामि चैव निक्यं । ( ......."बहु च लिखितं लोखयिष्यामि चैव नित्यम् ।) शलालेख ७. पुन पुन लपि तथा तथा अथवषा मधुलियाये येन जने तथा पटिपजेया । (पुनः पुनः लपितं तस्य तस्य अर्थस्य म्पधुर्याय येन जना तथा प्रतिपयेत । -चतुर्दश शिलालेख ८. ......."षे षिया अत किछि असमति लिखिते........। ( यत् स्यात् अव किंचित् असमाप्तं लिखितं .... ." ।) -चतुर्वश शिलालेख ____ 2010_05 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [२४९ पं खेपेकालने का प्रयोग हुआ है। षकार और शकार के इस प्रकार उच्छृखल प्रयोग की स्थिति कैसे बनी, यह विचारणोय है। अन्य किन्हीं भी अभिलेखों में ऐसी स्थिति प्राप्य नहीं है। लगता है, यह स्थिति लिपिदोष जैसे किसी कारण से हुई हो; क्योंकि कालसी के अभिलेखों में श और ष का जो प्रयोग मिलता है, वह व्यवस्थित और नियमित नहीं है और न ही उसकी संस्कृत के श और ष के साथ कोई संगति जुड़ती है। उद्धत अंशों से यह भी स्पष्ट है कि कहीं-कहीं एक ही शब्द में दो भिन्न स्थानों पर तालव्य शकार भी आया है और मूर्धन्य षकार भी। क्या यहां यह सम्भावना नहीं की जा सकती कि मंसूरी के पास हिमालय के अंचल में अवस्थित कालसी के समीपवर्ती क्षेत्र में सम्राट अशोक के समय जो बोली प्रचलित थी, उसमें बोलने वालों की प्रवृत्ति के कारण सम्भवतः षकार का प्रयोग बहुत अधिक होता रहा होगा, शकार का उससे कम तथा सकार का बहुत ही कम या बिलकुल नहीं ? क्या इसी कारण सम्राट अशोक ने वहां के अभिलेखों में षकार और शकार का प्रयोग उसी परिमाण में करवाया हो ? एक ही शब्द में दो भिन्न स्थानों पर जो भिन्न-भिन्न मूर्धन्य ष भी और तालव्य श भी मिलते हैं, उनके लिए भी समाधान खोजा जा सकता है । हो सकता है, उन लोगों में कुछ ऐसे शब्दों का प्रचलन रहा हो, जिनमें मूर्धन्य ष और तालव्य श दोनों प्रयुक्त होते रहे हों। केवल लिपि-दोष जैसे किसी बाह्य कारण से ऐसा हो गया हो, यह समाधान-कारक नहीं लगता। कालसी और टोपा के अभिलेखों में एक विशेषता और प्राप्त होती है। वहां कण्ठ्य क और ग का तालव्यीकरण हो जाता है। यह प्रवृत्ति क में अधिक प्राप्त होती है। तालव्यीकरण का आशय यह है कि वहां अपेक्षाकृत क या ग य से युक्त हो जाते हैं । जैसे, अलि कके लिये अलिक्य, कलिंग के लिए कलिग्य, ज्ञातिक के लिए नातिक्य, पारित्रिक के लिए पालतिक्य जैसे प्रयोग कालसी के अभिलेखों में हुए हैं। टोपरा के अभिलेखों में भी इनके उदाहरण प्राप्त होते हैं। पूर्व के अभिलेखों में तालव्य श क्यों नहीं ? पूर्व के अभिलेख अशोक की राज-भाषा में बिना किसी परिवर्तन के उत्कीर्ण करवाये गये थे; क्योंकि वह भाषा वहां सुज्ञेय थी। यह भी चर्चित हुआ है कि अशोक की राज-भाषा का मुख्य आधार मागधी थी। मागधी में मूर्धन्य ष, तालव्य श और दन्त्य स; तीनों के लिए ६. खेये कालनं वा अलोचयितु लिपिकलपलाधेन। ( ......"संक्षेपकारणं वा आलोचयतु लिपिकरापराधेन । ) -चतुर्दश शिलालेख 2010_05 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ केवल तालव्य शकार का ही प्रयोग प्रचलित था। यह परवर्ती मागधी नहीं है, प्राचीन मागधी में भी ऐसा ही था, जो जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलेख से भी प्रकट है। यह एक छोटा-सा अभिशेख, है पर, भाषा की दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। यह लगभग सम्राट अशोक का समकालीन है। इसमें मागधी के प्रायः सभी लक्षण घटित होते हैं । यहाँ र के लिए ल का प्रयोग हुआ है। क का तालव्यीकरण हुआ है । अकारान्त प्रथमा एक वचन में ए प्रत्यय प्रयुक्त हुमा है। सबसे अधिक विशेषता यह है कि इसमें श और स के लिए श का प्रयोग हुआ है। मागधी में शकार-प्रधान प्रवृत्ति रही है। अश्वघोष के नाटक इसके उदाहरण हैं । उनमें मागधी का भी प्रयोग हुमा है। प्रो. ल्यूडसं ने अश्वघोष के नाटकों को मागषी को प्राचीन मागधी बताया है। ___ इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक यह है कि सम्राट अशोक के पूर्व के अभिलेखों में शकार का प्रयोग प्रायः नहीं मिलता। तालव्य श के लिए वहां दन्त्य स प्राप्त होता है। मागधी-आधृत राज-भाषा में मागधी का मुख्य लक्षण घटित होना चाहिए था। तदनुसार वहां तालव्य, मूर्धन्य और दन्त्य सकारों के लिए तालव्य शकार हो आना चाहिए था । ऐसा न होने का कोई कारण अवश्य होना चाहिए । सुप्रसिद्ध भाषा-शास्त्री डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने एक कल्पना की है । तदनुसार मागधी का मुख्य लक्षण होने के उपरान्त भी शकार का प्रयोग शिष्टसम्मत नहीं गिना जाता रहा होगा । उसे ग्राम्योचित समझा जाता रहा होगा । अन्याय प्राकृतों में सर्वत्र बहु-प्रचलित दन्त्य सकार को अधिक शिष्ट-सम्मतता रही होगी। इसलिए हो सकता है कि तालव्य शकार अशोक के पूर्व के अभिलेखों में स्थान न पा सका हो । इस सम्बन्ध में यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाता है, तो वर्ण-विशेष की शिष्ट-सम्मतता और ग्राम्यसम्मतता का कोई तत्कालीन मापदण्ड तो सामने नहीं आता, पर, डा० चटर्जी की कल्पना असार्थक भी नहीं लगती। क्योंकि आगे चल कर नाटकों में प्राकृतों के प्रयोग की जो व्यवस्था हुई, उसमें मागधी का प्रयोग उच्च पात्रों के लिए नहीं बताया गया। उपलब्ध नाटकों में अश्वघोष के नाटक सबसे प्राचीन हैं। उनके एक नाटक का खल पात्र, जो दुष्ट नाम से अभिहित है, मागधी का व्यवहार करता है। यद्यपि अश्वघोष के नाटक सम्राट अशोक के अभिलेखों भोर जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलोख से तीन-चार शताब्दी बाद के हैं, फिर भी उनसे तुलनीय हैं। क्योंकि कोई भी साहित्यिक भाषा अपने प्राचीन स्तर से शीघ्र मुक्त नहीं १. शुतनुक माम देवदशिक्यि तं कमयिथ बलनशेये देवपिने नाम लुपदले ____ 2010_05 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शिलालेखी-प्राकृत [ २५१ हो सकती। उसमें उस ( प्राचीन स्तर ) की झलक विद्यमान रहती है । अश्वघोष को मागधी जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलेख से मेल खाती है । अश्वघोष के दुष्ट नामक पात्र द्वारा जिस मागधी का प्रयोग हुआ है, वहां दन्त्य सकार और तालव्य शकार के लिए केवल तालव्य शकार ही प्रयुक्त हुमा है । र के लिए यहां ल आया है। अकारान्त प्रथमा एक वचन के लिए वहां ए प्रत्यय का प्रयोग हुआ है। ये प्राचीन मागधी के लक्षण हैं, जो अश्वघोष की मागषी में घटित होते हैं । इतना अवश्य है, उत्तरवर्ती मागधी के लक्षणों से अश्वघोष की मागधी किसी अंश में कम मेल खाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष की मागधी प्राचीन मागधी के अनुरूप है। आचार्य भरत ने नाटक में प्राकृतों के प्रयोग का जो विधान किया है, तदनुसार शाजाओं के अन्तःपुर में रहने वालों, सुरंग खोदने वालों-सेंथ लगाने वालों, कलालों-शराब मिकालने वालों,घोड़ों की देखभाल करने वालों को नाटक में मागधी का प्रयोग करना चाहिए। नाटक का नायक यदि संकट में पड़ जाये तो वह भी अपने को बचाये रखने के लिए मागधी का व्यवहार करे ।। भाचार्य भरत ने जिन पात्रों के मागधी-भाषी होने का विधान किया है, स्पष्ट है, ये निम्न कोटि के पात्र हैं। नायक उच्च कुलीन होता है। आपत् में उसे अपने आपको छिपाये रखना होता है। अपनी भाषा से वह पहचाना जा सकता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह अधम जनों द्वारा व्यवहृत भाषा का प्रयोग करे। इससे अपने भापको बचाये रखने में उसे सहयोग मिलता है। डा. चटर्जी के कपन का उपयुक्त तथ्य पोषण करते हैं। प्राचीन काल में मागधी के प्रति अथवा तालव्य शकार जैसे उसके किसी अंग-विशेष के प्रति ग्राम्यता, असुन्दरता या अग्राह्यता का भाव रहा हो, यह कल्पनातीत नहीं लगता । अश्वघोष द्वारा मागधी के व्यवहार और भरत द्वारा मागधी के व्यवहार के सम्बन्ध में किये गये विधान से जो झलक मिलती है, वह इसी ओर इंगित करती है। यह भी सम्भाव्य प्रतीत होता है कि मागधी की अनुचता का विशेष सम्बन्ध तालव्य १. मागधी तु नरेन्द्राणामन्तः पुरनिवासिनाम् । -नाट्यशास्त्र, १७.५० सुरंगाखनकादीनां शुण्डकारावरक्षिणाम् । व्यसने नायकानां स्यावात्मरक्षासु मागधी ॥ -नाट्यशास्त्र, १७.५६ ____ 2010_05 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलम । खण्ड :२ शकार के प्रयोग के साथ कल्पित कर लिया गया हो । सामान्यतः यदि आज भी दन्त्य स और तालव्य श की उच्चारण-सम्बन्धी सरसता-असरसता ( सुन्दरता-असुन्दरता ) पर गौर किया जाये, तो तालव्य श का बार-बार उच्चारण करना कुछ अप्रिय-सा लगता है । इसका एक कारण यह भी हो सकता है, दन्त्य सकार के विशेष अभ्यस्त हों। पूर्व के अभिलेखों में तालव्य शकार के अप्रयुक्त रहने के सम्बन्ध में डा० चटर्जी के निरूपण से बहुत कुछ समाधान प्राप्त हो जाता है। के अभिलेखों में स्वार्थक क का प्रयोग अधिक प्राप्त है। कालसी और टोपरा के अभिलेखों में इसका प्रयोग और अधिक बढ़ा हुआ मिलता है। संयुक्त व्यंजन में त और व के पश्चात् जो य आता है, वह (य) इय में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरणार्थ, चतुर्दश शिलालेखों में प्रहोतव्यः के लिए कालसी में पजोहितविये का प्रयोग हुआ है। जौगढ़ में भी पजोहितविये ही आया है। मानसेरा में प्रयुहोतधिये व्यवहृत हुमा है। गिरनार और शाहबाजगढ़ी में यह परम्परा घटित नहीं दीखती । गिरनार में प्रजूहितइवं माया है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं मिलता। शाहबाजगढ़ी में प्रयुहोतवे का प्रयोग हुआ है, जो संस्कृत के अधिक निकट है। इसी शिलालेख में कर्तव्यः के लिए कालसी में कटविये, जोगढ़ में भी कटविये तथा मानसेगा में कटविय आया है । चतुदंश शिलालेखों के अन्तर्गत तृतीय शिलालेख में अल्पव्ययता के लिए कालसी में अपविपाता तथा धौली में अपवियति का प्रयोग हुमा है। अर्थात् त् और व् के अनन्तर आने वाले य के इय में परिवर्तित होने की परम्परा यहां घटित होती है । पर, गिरनार, मानसेरा और शाहबाजगढ़ी में एतदनुरूपता दृष्टिगत नहीं होती। गिरनार में अपव्ययता का प्रयोग हुआ है, जिससे स्पष्ट है कि इस समस्त-पद में व्ययता ज्यों-का-त्यों रह गया है और अल्प का अप हो गया है। शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में अपवयत का प्रयोग हुआ है। मास्की के प्रथम लघु शिलालेख में द्रष्टव्यम् के लिए दखितविये तथा वक्तव्यः के लिए पतविया का प्रयोग हुआ है । संयुक्त व्यंजनों में व्यंजन का अनुगमन करने वाले वकार का उव में परिवर्तन हो जाता है । प्रथम शिलालेख में द्वौ के लिए कालसी में दुवे, जौगढ़ में दुवे, मानसेरा में दुवे तथा शाहबाजगढ़ी में दुवि का प्रयोग हुआ है। यहां वकार के उव में परिवर्तित होने की बात तो १. न हैवं दखितवीये उडालके व इम अधि गद्दे या ति । खुदके च उडालके च वतीबया........। (न एवं दृष्टव्यमुदारा एव इम मधिगच्छेयुः इति । क्षुद्रकाः च उवारकाः च वक्तव्याः:... 1) -मास्की, प्रथम लघु शिलालेख ____ 2010_05 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शिलालेखीं - प्राकृत [२५३ घटित होती है, पर, व के साथ जुड़े स्वरों में वैभिन्य है, जो इन शिलालेखों के सन्दर्भ में असम्भाव्य नहीं है । क्योंकि इन शिलालेखों में किसी भी प्रकार की नियामकता या परम्परा में सर्वथा इत्थंभूतता प्राप्त नहीं होती। चतुर्थ शिलालेख में द्वादशवर्षाभिषिक्तेन पद के अन्तर्वर्ती द्वादश शब्द के लिए कालसी में दुवाडस, धौली में दुवादस तथा मानसेरा में दुवदश का प्रयोग हुमा है। शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में यह शब्द स्पष्ट नहीं है। गिरनार में द्वादस आया है। प्रथम शिलालेख में आये द्वौ के लिए भी गिरनार में द्वौ आया है । तात्पर्य यह है कि गिरनार में ऐसी प्रवृत्ति नहीं है। दो ( गिरनार में उत्कीर्ण ) रूप संस्कृत के बहुत निकट हैं या संस्कृत जैसे हैं । इसका कारण ऐसा प्रतीत होता है कि गिरनार के अभिलेख की भाषा शौरसेनी प्राकृत का विशेष रूप से अनुसरण करती हुई है। गिरनार शौरसेनी के क्षेत्र में आता है । शोरसेनो का संस्कृत से नेकट्य होने के कारण उसके कुछ रूप संस्कृत के समान ही प्राप्त होते हैं । नधम शिलालेख में स्वामिकेन के लिए कालसी में सुविमिकेना, धौली में सुवामिकेन तथा जोगढ़ में भी सुधामिकेन का प्रयोग हुआ है। इनमें व के उव में परिवर्तित होने की परम्परा घटित होती है । गिरनार में स्वामिकेन आया है, जो संस्कृत रूप का अनुगामी है । शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में स्पमिकेन शब्द प्राप्त होता है । यहां सम्भवतः लिपि की अस्पष्टता भी हो सकती है। सप्त स्तम्भ लेखों में प्रथम स्तम्भ लेख में स्वस्मिन के लिए सुवे' का प्रयोग हुआ है। टोपरा, इलाहाबाद, लोडिया अरराज तथा लौड़िया नन्दनगढ़ में यह शब्द समान रूप में प्रयुक्त हुआ है । मेरठ और रामपुरवा के अभिलेख में यह पंक्ति अस्पष्ट है । चतुर्थ स्तम्भ लेख में इस सम्बन्ध में भिन्न स्थिति प्राप्त होती है । वही स्वस्थाः के लिए १. धमापेखा धमकामता चा सुवे सुवे बढिता.... .... -टोपरा, प्रथम स्तम्भ लेख धमापेखा धमकामता च सुवे सुवे वढिता........ -इलाहाबाद, प्रथम स्तम्भ-लेख धमापेख धमकामता च सुवे सुवे वढिता....... -लौडिया अरराज, प्रथम स्तम्भ लेख धंमापेख धमकामता च सुवे सुवे वढित.......। -लौडिया नन्दनगढ़, प्रथम स्तम्भ लेख ......"धर्मापेक्षा धर्मकामता च स्वस्मिन् स्वस्मिन् वर्धिता".....) ____ 2010_05 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ 1 मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन अस्वय' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह विचित्र स्थिति प्रतीत होती है। ऐसा क्यों हुआ, कोई कारण नहीं बताया जा सकता । क्या यह सम्भावना करना असंगत होगा कि जिन स्थानों में ये अभिलेख लिखवाये गये, वहां दो प्रकार के उच्चारण रहे हों, जिनमें एक में ऐसे शब्दों के प्रारम्भ में उच्चारण सुकराता के लिए अकार को जोड़ने की प्रवृत्ति चलती हो। स्पष्ट रूप में कुछ कहा नहीं जा सकता । यह कल्पना मात्र है । सम्राट अशोक के तीन गुहालेखों में प्रथम तथा द्वितीय में दरवस शब्द के लिये दुवाडस' का प्रयोग हुआ है । किसी शब्द के अन्तर्ती त्व पर उक्त नियम लागू नहीं होता। वहां त्व का त हो जाता है। जैसे, चत्वारि> चत्तालि। स्म और धम के लिये फ का प्रयोग भी अभिलेखों में प्राप्त होता है। जैसे, द्वितीय कलिंग शिलालेख में पुष्मासु के लिये तुफेसु, १. .... ... किंति लजूका अस्वथ अभोता कंमानि पवतयेवू ...। -टोपरा, चतुर्थ स्तम्भ लेख ..........."किंति लजूक अस्वथ अभीत कमानि पवतयेवू......। -लौड़िया अरराज, चतुर्थ स्तम्भ लेख .... ..."किंति लजूक अस्वथ अभीत कमानि पवतयेवू......। -लौड़िया नन्दमगढ़, चतुर्थ स्तम्भ लेख (... ""किमित रज्जुकाः स्वस्थाः अभीता कर्माणि प्रवर्तयेयुः...... 1 ) २. लाजिना पियवसिना दुवाडस ( वसामिसितेना ) इयं ( निगो) ह कुभा दि (ना ) आ (जी.) विकेहि । ( राज्ञा प्रियदर्शिना द्वादशवर्षाभिषिक्तेन इयं न्यग्रोध-गुहा दत्ता आजीवकेभ्यः । ) -प्रथम गुहालेख लाजिना पियदसिना दुवाडसवसाभिसितेना इयं कुभा खलतिक परतसि दिना ( आ-) जीविकेहि। ( राजा प्रियदर्शिना द्वायसवर्षाभिषिक्तेन इयं गुहा खलतिक-पर्वते दत्ता मालीवकेभ्यः । ) -द्वितीय गुहालेख ३. .... .एतस अथस अं तुफेसु मनुस ( थि ।। -नौगढ एतसि उठसि अं तुफे ( सु).......। -धौली (......"एतस्य अर्थस्य यत् युष्मासु अनुशिष्टिः ) 2010_05 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेली - प्राकृत [ २५५ अस्मासु के लिये अफेसू,1 अस्माकम् के लिए अफाक', युष्मान् के लिये तुफेमि मौर तुके तथा प्रथम कलिंग शिलालेख में युस्माभिः के लिये तुफेहि का प्रयोग हुआ हैं। सारनाथ के लघु स्तम्भ लेख में युस्माकम् के लिये तुफाकं का प्रयोग हुआ है। सारनाथ के इस लेख से एक विशेष तथ्य पर और प्रकाश पड़ता है। वहां ययम् के लिए भी (टिप्पणी में उद्धत पंक्ति में) तुफे का प्रयोग हुआ है । इससे यह प्रकट होता है कि म या स्म जहां प्रत्यक्ष तो नहीं होते, पर, जिनका अन्तःस्थित रूप या मूल शब्द उस प्रकार का है, वहां १. सिया अंतान अविजितानं कि छदे सु लाजा अफेसू ति । -जोगढ़ सिपा अंतानं अविजितानं किं छंद सुलाज (अ) फेस......। -धौली ( स्थात् अन्तानामविजितानां किं छन्दः असो राजा अस्मासु इति । ) २. हेव पापुनेवू ति खमिसति ने देवानं पिये अफाकं .. ... (एवं च प्राप्नुयुः इति क्षमिष्यते नः देवानां प्रियः अस्माकम् ... ।। -धौलो ३. एताये च अठाये हकं तुफेनि अनुसासामि । -जौगढ़ एतसि अठसि हकं अनुसासामि तुफे। -धौलो ( एतस्मै च अर्थाय अहं युष्मान् अनुशास्मि ।) -द्वितीय कलिंग, शिलालेख ४. तत तुफेहि इछितये किति मझ पटिपातयेम । -जौगढ़ तत इछिसबिये तुफेहि किंति मझ पटिपादयेम ति। -चोली (ततः एष्टव्यं युष्माभिः किमिति मध्यं प्रतिपावयेम ति।) -प्रथम कलिंग, शिलालेख ५. आवतके च तुफाकं आहाले सवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन । (पावत् च युष्माक माहारः सर्वत्र विवासवत यूपमेतेन व्यंजनेन ।) -लघु स्तम्भ लेख, सारनाथ ____ 2010_05 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन भी यह प्रवृत्ति प्राप्त होती है। यद्यपि सप्तमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय स्मिन् में भी स्म है, पर, वहां स्मं के फ मेंपरिवर्तित होने की परम्परा नहीं है। गिरनार के अतिरिक्त प्रायः सभी अभिलेखों में स्मिन् के लिए सि का प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ, ब्रह्मगिरि के प्रथम लघु शिलालेख में जंबुबीपसि, भाव शिलालेख में बुधसि, धांमसि, संघसि, सांची के स्तम्भलेख में अनाससि, चतुर्दश शिलालेखों के अन्तर्गत प्रथम शिलालेख, कालसी, जोगढ़, शाहबाजगढ़ी तथा मानसेरा में महानससि तथा टोपण ( दिल्ली ) के सप्तम स्तम्भ लेख में दानविसगसि, सवसि, १. इमिना चु कालेन अमिसा समाना मुनिसा जंबुदीपसि। ( अमुना तु कालेन अमृषा समानाः मनुष्याः जम्बूद्वीपे मृषा देवैः ।) -ब्रह्मगिरिः, प्रथम लघु शिलालेख २. विदित वे भंते आवतके हमा बुधसि धमसि संघसीति गलवे च पसादे च । (विदितं वो भदन्ताः ! यावत् अस्माकं बुद्ध धर्मे संघे इति गौरवं च प्रसादः च ।। ३. .... ये संघ मोखति मिखु वा भिखुनि वा औदातानि दुसानि सनंघापयितु अनाससि विसयेतविये। ( यः संघ भक्ष्यति भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अवदातानि दूष्याणि संनिधाप्य अनावासे आवासयितव्यः । ४. पुले महानससि देवानं पियसा प्रियदसिता लाजिने ; अनुदिवसं बहुनि पानसहसानि आलभियिसु......। -कालसो पुलुवं महानससि देवानं पियस पियदसिने लाजिने अनुदिवसं बहूनि पानसतसहसानि आलभियिसु....... -जौगढ़ पुर महनससि देवनं प्रियस प्रियदशिस रजो अनुदिवसो बहु नि प्रणशतसहस्रनि अरभियिसु । -शाहबाज़गढ़ी पुर महनससि देवन पिस प्रिय.."शिस रजिने अनुदिवः बहुनि प्रणशतसहस्रनि अर......"सु.......। -मानसेरा (पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहुनि प्राणशतसहस्राणि आलप्सत......") ___ 2010_05 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ]. आलोधनसि' आदि का प्रयोग हुआ है । शिलालेखी प्राकृत द्वितीय कलिंग शिलालेख में क्षणे के लिए धोली में खनसि' और जौगढ़ में खने का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार चतुर्दश शिलालेखों के अन्तर्गत द्वादश शिलालेख में कालसी में पकलनशि, शाहबाजगढ़ी में प्रकरणे तथा मानसेरा में पकरणसि का प्रयोग हुआ है । आशय यह है कि सप्तमी एकवचन के लिए ए प्रत्यय का प्रयोग भी इन शिलालेखों में पत्र- छत्र होता रहा है । · गिरनार के अभिलेख में सप्तमी एकवचन के लिए प्रायः म्हि का प्रयोग हुआ है । कहींकहीं म् का अनुस्वार हो गया है, हि यथावत् रहा है । एकतर म्हि , धमन्हि, सीलम्हि ", १. एते च अने च बहुका मुखा दानविसगसि बियपट से मम चैव देविनं च सवसि च मे आलोधनसि ......... ५. लहुक व सिय तसि तसि प्रकरणे । ६. लहुक व सिय तसि तसि पकरणसि । 7 ( एते च अन्ये च बहुका: मुख्याः दानविसर्गे व्यापृताः ते मम चैव देवीनां च, सर्वस्मिन् च मम अवरोधन" ) २. इयं च लिपिखनसि अंतला पि तिसेन एकेन पि सोतविये । ३. इयं च लिपी ...खने अंसला पि तिसेन एकेन पि सोतवियो । ( इयं च लिपि....क्षणे अन्तरा अपि तिष्येन एकेन अपि श्रोतव्या । ) ४. लहका वा शिया तशि तशि पकलनशि । लघुता वा स्यात् तस्मिन् तस्मिन् प्रकरणे । > [ २५७ ७. ......... यत्र नास्ति मनुसानं एकतर म्हि पासंडन्हि न नाम प्रसादो । यत्र नास्ति मनुष्याणामेकतरस्मिन् अपि पाषण्डे नाम प्रसादः । ) - चतुर्थ शिलालेख के अन्तर्गत त्रयोदश शिलालेख 2010_05 ८. आव संवट कपा धंमम्हि सोलम्हि तिस्टंतौ धर्म अनुसासिसंति | ( ........यावत् संवत् कल्पं धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति । ) - गिरनार चतुर्दश शिलालेख के अन्तर्गत चतुर्थ शिलालेख Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ महानसंहि', विजितंहि' आदि इसके उदाहरण हैं। इन अभिलेखों में सप्तमी एकवचन के लिए ए का प्रयोग भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है । जैसे, विजिते', विनये' तथा प्रकरणे आदि इसके उदाहरण हैं। शाहबाजगढ़ी तथा मानपेरा आदि स्थानों के अन्यान्य शिलालेखों में भी कहीं-कहीं सप्तमी एकवचन में एकाय प्रयुक्त हुआ है; जैसे, प्रमे, शिले' आदि । पर, ऐसा बहुत कम हुआ है। चतुर्थी एकवचन के एतस्मै, अमुष्मै आदि रूप, जिनमें स्म या म है, में भी सप्तमी १. पुरा महानसंहि देवानं प्रियस प्रियदासिनो रा अनुदिवसं बहूनि प्राणसतसहस्रानि आरभिसु। (पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः रामः अनुदिवसं बहूनि प्राणशतसहस्राणि आलप्सत्""""" -गिरनार चतुर्दश शिलालेख के अन्तर्गत प्रथम शिलालेख .२. सर्वत विजितंहि देवानं प्रियस प्रियदसिनो राजो..... ।) . ( सर्वत्र विजिले देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राशः.... । -चतुर्दश शिलालेख के अन्तर्गत द्वितीय शिलालेख ३. सर्वत विजिते मम पुता च रालुके व प्रादेसिके चपंचसु पंचसु वासेसु अनुसंधान नियातु....। (सर्वत्र विजिते मम युक्ताः रज्जुकाः प्रादेशिकाः पंचसु पंचसु वर्षेसु अनुसंधानं निष्क्रमन्तु।) -चतुर्दश शिलालेख में तृतीय शिलालेख ४. सरसके एव विजये छाति च........ । (शराकर्षिणः विजये शान्ति व........., शलालेख में प्रयोदश शिलालेश ५. लका व अस तम्हि तम्हि प्रकरणे। (लघुका वा स्यात् तस्मिन् तस्मिन् प्रकरणे ) -चतुर्दश शिलालेख में द्वादश शिलालेख १. .."अवकप प्रमे शिले- तिस्तिति प्रमं अनुशशिशंति । -शाहबाजगढ़ी चतुर्दश शिलालेख में चतुर्थ शिलालेख ........"अवकपं ध्रमे शिले - तिस्तितु प्रमं अनुशशिशंति । ( ......."यावत् कल्पं धर्मे शोले व तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति ।) ____ 2010_05 For Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत [ २५९ एकवचन के स्मिन् की तरह फ नहीं होता। एतस्मै के लिए एताय व एताये तथा अमुष्मै के लिए इमाय' का प्रयोग हुआ है। लेख में अस्माकम् के लिए हमा' तथा मया के लिए हमियाए का प्रयोग हुआ है। इस आदेश - विधि पर सूक्ष्मता से विचार किया जाना चाहिए। १. एताय ठाय इयं सावणे सावापिते । एतस्मै अर्था इदं श्रावणं श्रावितम् । -ब्रह्मगिरि का प्रथम लघु शिलालेख बहका च एताय अथा......"व्यापता धंममहाभातां । ( बहुकाः च एतस्मै अर्थाय व्यापृताः धर्ममहाभात्रा:........।) चतुर्दश शिलालेख में द्वादश शिलालेख, गिरनार २. एताये अथाये इयं लिपि लिखित......। -धौली, दो कलिंग शिलालेख के अन्तर्गत प्रथम शिलालेख एताये च अठाये......। -जौगढ़, दो कलिंग शिलालेखों के अन्तर्गत प्रथम शिलालेख ( एतस्मै अर्थाय इयं लिपिः लिखिता....... ) एताये मे अठाये धंमसावनानि सावापितानि........) -सप्तम स्तम्भ लेख, टोपरा ( बिल्ली) ( एतस्मै अर्थाय धर्मश्रावणानि श्रावितानि...... ।) ३. यि इमाय कालाय बुदिपसि अमिसा देवा हुसु ते दानि मिसा कटा। ( ये अमुस्मै अमुष्मै कालाय जंबूद्वीपे अमृषा देवाः अभूवन्, ते इदानीं मृषा कृताः।) -रूपनाथ का प्रथम लघु शिलालेख ४. विवितं वे मंते आवतके हमा बुधसि धमसि संघसीति गलवे च प्रसादे च । ( विदितं बो भदन्ताः ! यावत् अस्माकं बुद्ध धर्मे सधे इति गौरवं च प्रसावः ।) -भाव शिलालेख ५. ए चु खो भंते हमियाये विसेया हेवं संघमे चिल ठितीके होसतीति........ ( यत् तु खलु मदन्ताः ! ममा दिश्यते एवं सद्धर्मः चिरस्थितिकः भविष्यति इति .... ) -भाब शिलालेख ६. शत्रुवनादेश: 2010_05 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ अशोक के अभिलेखों की भाषा के सन्दर्भ में अनेक विद्वानों ने कार्य किया है, जिनमें फ्रक, सेना तथा गुणे आदि के नाम मुख्य हैं। इस ओर गवेषणा करने वाले विद्वानों के अभिमत परस्पर मेल नहीं खाते। किन्हीं के अनुसार अशोक के अभिलेखों में दो प्रकार की भाषा प्राप्त होती है। कई तीन प्रकार की भाषा का होना मानते हैं। किन्हीं के मत से चार और किन्हीं के मत से उक्त अभिलेखों में पांच प्रकार की बोलियां प्राप्त होती हैं। निश्चित और इयता की भाषा में कुछ नहीं कहा जा सकता। उनमें गवेषणा के लिए बहुत अवकाश है। भिन्न-भिन्न शिलालेखों में प्रयुक्त कुछ विशिष्ट शब्दों की चर्चा एवं विवेचना की गयी है । उस चर्चा के प्रारम्भ में सूचित किया गया है कि उक्त अभिलेखों में मुख्यतः भाषा के तीन रूप दिखाई देते हैं। वे तीनों रूप सर्वथा व्यवस्थित और नियमित हों, ऐसा तो नहीं है, पर, एक समान-सी भाषा - सरणि को अवश्य लिये हुए हैं। पश्चिमोत्तर के शिला-लेखों का अन्य शिलालेखों से जो शब्द - प्रयोग - सम्बन्धी भेद है, यह विशेष प्रकार का है। उससे यह अनुमान करना सर्वथा संगत प्रतीत होता है कि उस समय उत्तर - पश्चिमी भारत में जो प्राकृत प्रचलित थी, उसकी अपनी कुछ विशेषताएं थीं। इस भिन्नता का कारण आर्यपरिवारीय निकटवर्ती पश्चिमी भाषाओं का प्रभाव रहा हो। यह वह भूभाग था, जो अफगानिस्तान से लगा हुआ था; अतः वहां की बोली का भी यहां की बोली पर प्रभाव पड़ना स्वाभाषिक था। हो सकता है, यह पैशाची प्राकृत्त का प्रदेश रहा हो। अश्वघोष के नाटकों की प्राक्त, खरोष्ठी ( प्राकृत )-धम्मपद की प्राकृत, तथा निय प्राकृत से भी ये शिलालेख बहुत कुछ मेल खाते हैं, जिसके सम्बन्ध में आगे चर्चा की जाएगी। पूर्व भारत और मध्यप्रदेश के शिलालेखों की भाषा में विशेष अन्तर नहीं है। वे शिलालेख पूर्व की प्राकृतें, जिनमें मागधी मुख्य है, का दिग्दर्शन कराते हैं। यद्यपि पूर्व और मध्य के शिलालेखों में शब्द प्रयोग-सम्बन्धी यत्किंचित् भेद अवश्य है, पर, यह भाषाविज्ञान की दृष्टि से गौण है। गिरनार, जो सौराष्ट्र में है, शूरसेन देश की सीमा के भन्तर्गत था। वहां के शिलालेखों से शौरसेनी के पुराने रूप की प्रतीति होती है । विविध नाम अशोक के अभिलेखों की प्राकृत का नाम - निर्देश भी विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में किया है । सेना ने इसे शिलालेखी प्राकृत कहा है। अन्य विद्वानों ने इसे असंमत ठहराया है; क्योंकि अशोक के अभिलेख केवल शिलाओं पर ही नहीं है। पिशेल ने इसे लेण-विभाषा के नाम से अभिहित किया है। लेण लयन का प्राकृत-रूप है। लयन का अर्थ कोठरी, 2010_05 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] शिलालेखी-प्राकृत [२६१ घर या गुफा होता है। पिहोल का मन्तव्य है कि अशोक के लेख गुफाओं में भी हैं; अतः उनकी भाषा के लिए यही नाम संगत है। डा. गुणे के अनुसार यह संगत नहीं है। कतिपय अन्य विद्वानों ने इसे 'लाट विभाषा' नाम भी दिया है। लाट शब्द यष्टि शब्द का विकसित ( यष्टि > लट्ठि> लाट ) रूप है। अशोक के अनेक लेख लाटों पर उत्कीर्ण हैं; अतः उन विद्वानों ने इस नाम को उपयुक्त बतलाया है। कुछ विद्वानों ने इसे अशोकीय प्राकृत ( Ashokan Prakritas ) शब्द से संज्ञित किया है। इस प्रकार अशोक के अभिलेखों की भाषा का कई प्रकार से नामकरण हुआ है, पर, वह शिलालेखी प्राकृत्त के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है और यह नाम अपेक्षाकृत अधिक संगत भी लगता है। क्योंकि यहां प्रयुक्त शिला शब्द पाषाण - खण्ड के अर्थ में न लिया जाकर वत्कोटिक सामान्य (Common ) पाषाणीय लेखाधार के रूप में लिया जाए, यह अधिक समीचीन होगा। अन्य प्राकृत-अभिलेख अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त प्राकृत के कुछ और अभिलेख भी प्राप्त होते हैं । उनमें कुछ तो विस्तृत और कुछ केवल एक- एक पंक्ति के ही हैं। इनका समय ई० पूर्व ३०० से ४०. ई० तक का है। बड़े-छोटे ये सभी शिलालेख संख्या में लगभग दो हजार तक पहुंच जाते हैं। उनमें उत्तर बंगाल का महास्थान का शिलालेख ( Mahasthan Stone Plaque Inscription ) मध्यप्रदेश का जोगीमार गफा लेख (Jogimara Cave Inscription ) पश्चिमोत्तर बिहाथ का सोहगौरा ताम्रपत्र लेख ( Sohgaura Copper Plate Inscription ) ग्वालियर का बेसनगर स्तम्भ लेख ( Besnagar Pillar Inscription ) पश्चिमोत्तर भारत का खरोष्ठी लिपि में शिन काट कास्केट बेख ( Shinkot Casket Inscription ) उड़ीसा के सम्राट् खारवेल का हाथी गुम्फा लेख, उदयगिरि खण्ड गिरि के शिलालेख तथा पश्चिमी भारत के आन्ध्रवंशीय राजाओं के शिलालेख विशेष प्रसिद्ध हैं। आकार में भी बड़े हैं। सिंहल के प्राकृत-अभिलेख सिंहल में भी ई० पूर्व १०० से ३०० ई. तक के प्राकृत अभिलेख प्राप्त होते हैं। ये अभिलेख गुफाओं में तथा प्रस्तरों पर प्राप्त होते हैं। प्रस्तर-लेख प्राय: सरोवरों के तटों पर मिलते हैं, जिनमें मन्दिों के निमित्त सरोवरों के दान का उल्लेख है। भाषा का सुकाव सिंहल में प्राप्त अभिलेखों की भाषा का झुकाव अधिकांश पूर्व और मध्य के शिलालेखों की ओर है। पर, उसकी अपनी भी कुछ विशेषताएं हैं। जैसे, प्रथमा विभक्ति एकवचन 2010_05 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ के लिए मध्य व पूर्व में अधिकांशतः प्रयुक्त ए के जिए यहां इ का प्रयोग हुआ है। ___सप्तमी धिभक्ति एकवचन में यहां सि के लिए हि आया है। षष्ठी विभक्ति एकवचन में 'ह' का प्रयोग हुमा है, जैसे, अपभ्रश में 'स' का प्रयोग होता है। कहीं-कहीं मूर्धन्य ष तालग्य श में भी परिवर्तित हुमा मिलता है। गाइगर ( Geiger ) ने इन अभिलेखों की भाषा को सिंहली प्राकृत नाम दिया है। अशोकीयेतर जिन अभिलेखों की चर्चा की गयी है, उनका ऐतिहासिक महत्व तो है ही, पर, विस्तार, भाषा-प्रयोग के वैविध्य-भाषा-तत्व के सन्दर्भ में पुष्कल सामग्री आदि अनेक दृष्टियों से मशोक के अभिलेखों का ही सर्वाधिक महत्व है। 2010_05 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रान्ति-काल की प्राकृतें (Prakritas of Transional Period) ____ 2010_05 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत से बाहर प्राप्त प्राकृत - लेख पालि पिटक बाङ्मय तथा प्राकृत ( अद्धमागधी ) - जैन आगम वाङमय की प्राचीनता और मूल्यवत्ता अनेक दृष्टियों से समकक्षता लिये हुए है । क्रमागत रूप में उनसे सम्बद्ध यहां विचार किया जाना चाहिए, पर, यह अधिक उपयुक्त होगा कि भारत से बाहर प्राप्त प्राकृतों पर पहले विचार करें । अशोक के शिलालेखों - विशेषतः उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों से उनकी विशेष निकटता है । संक्रान्ति-काल मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं ( Middle Indo-Aryan Languages ) का काल ई० पू० ५०० से १००० ई० तक माना गया है। इसे प्राकृत काल कहा गया है । यह ( प्राकृत- काल ) भी तीन भागों में बांटा गया है- १. प्रथम प्राकृत (Early Middle Indo-Aryan) काल, २. द्वितीय प्राकृत (Middle Middle Indo-Aryan ) काल तथा ३. तृतीय प्राकृत ( Later Middle Indo-Aryan Language ) काल प्रथम प्राकृत काल का समय मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा-काल के प्रारम्भ से अर्थात् ई० पू० ५०० से ई० सन् के प्रारम्भ तक माना जाता है । शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है । द्वितीय प्राकृत-काल माना जाता है । इस काल की भाषा का नाम प्राकृत है । शौरसेनी, पेशाची, महाराराष्ट्री आदि प्राकृते जाती हैं। १००० ई० तक माना जाता है । यह अपभ्रंश के उद्भव, विकास एक दूसरा विभाजन इस प्रथम काल में पालि और ईसवी सन् से ५०० ई० तक उसके अन्तर्गत अर्द्धमागधी, तृतीय प्राकृत-काल ५०० ई० से और प्रसार का समय 1 - कुछ विद्वानों ने मध्य भारतीय भायं भाषा काल के अन्तर्वर्ती विभाजन में एक भिन्न क्रम भी अपनाया है । उनके अनुसार प्रथम प्राकृत अर्थात् पालि और शिलालेखी प्राकृत का काल ई० पू० ७०० से ई० पू० २०० तक या चार सौ वर्षों का है । द्वितीय प्राकृतकाल उनके मन्तव्यानुसार २०० ईसवी से ७०० ईसवी तक है । इस प्रकार ई० पू० २०० से २०० ई० तक का बीच का समय बच जाता है, जिसे संक्रान्ति-काल माना गया है । 2010_05 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ इस संक्रान्ति-काल में वे प्राकृत आती हैं, जो भारत से बाहर प्राप्त हुई हैं। बाहर से प्राप्त प्राकृत - सामग्री तीन रूपों में है-अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत और निय प्राकृत। अश्वघोष के नाटक : प्राकृतों का प्रयोग अश्वघोष बौद्ध भिक्षु, दार्शनिक और कवि थे। उनका रचना-काल ईसा की प्रथम शती माना जाता है। उनके द्वारा रचित दो संस्कृत नाटकों की खण्डित प्रतियां मध्य एशिया में प्राप्त हुई हैं। सुप्रसिद्ध जर्मन धिद्वान् प्रो. ल्यूडस ( Luders ) ने उनका विद्वतापूर्ण सम्पादन किया है। उन नाटकों में कुछ पात्र प्राकृत बोलते हैं। उत्तरवर्ती नाटकों में प्राकृतों का जैसा प्रयोग, जो कृत्रिम अधिक है, स्वाभाधिक कम, हुआ है । अश्वघोष के नाटकों में पैसा नहीं है। वहां प्रयुक्त प्राकृत प्राचीन रूप लिये हुए हैं, जो स्वाभाविक है। तीन प्राचीन प्राकृते प्रो० ल्यूडस मे अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का विश्लेषण करते हुए जो बताया है, उसके अनुसार यहां तीन प्रकार की प्राकृत प्रयुक्त हुई हैं : प्राचीन मागधी, प्राचीन शौरसेनी तथा प्राचीन अद्धमागधी। प्रो० ल्यूडर्स के अनुसार दुष्ट संज्ञक पात्र की भाषा प्राचीन मागधी, विदूषक तथा गणिका की भाषा प्राचीन शौरसेनी एवं गोमस-तापस की भाषा प्राचीन भद्धमागधी है। पहो प्रयुक्त भाषा अशोक के शिलालेखों से भी कुछ मेल जाती है। प्राचीन मागधी दुष्ट संशक पात्र द्वारा प्रयुक्त भाषा के अनुशीलन से जो तथ्य उद्घाटित होते हैं, वे प्राचीन मागधी के स्वरूप के ज्ञापक हैं। वहां र के स्थान पर ल का प्रयोग हुआ है। तालव्य शकास के लिए तो श है ही, मूर्धन्य षकार और दन्त्य सकार के लिए तालव्य शकार का प्रयोग हुआ है। प्रथमा एकवचन में ए विभक्ति का प्रयोग है। अहम् के लिए अहकं आया है, जो आगे चलकर हगे बन गया है तथा षष्ठी विभक्ति एकवचन में 'हो' प्रत्यय ध्यपहृत हुआ है। ये प्रयोग प्राचीन मागधी के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं, जो प्राक्तन मभिलेखों में प्रयुक्त मागधी से तुलनीय है। प्राचीन शौरसेनी विदूषक तथा गणिका द्वारा प्रयुक्त प्राचीन शौरसेनी की विशेषताए' इस प्रकार है :प्रथमा विभक्ति एकवचन में अः (सु) के लिए ओ प्राप्त होता है। और न्य के लिए वहां अका प्रयोग हुमा है। ऋके लिये इमाया है। व्य के लिए स्व तथा क्ष के लिए ख 2010_05 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] संक्रान्ति-काल की प्राकृत [ २६७ व्यवहृत हुआ है । भवान् के लिए भवां, खलु के लिए खु , कृत्वा के लिए करिय, त्वम् के लिए तुवब जैसे कुछ विशेष प्रयोग भी प्राप्त होते हैं । त्वम् के लिये जो तुवब होता है, वह प्राचीन फारसी के तुवम् से, जो त्वम् के अर्थ में है, नुलनीय है। कर्तृवाच्य में आत्मनेपदी धातु के साथ संयोजित होने वाले, वर्तमान कालवाची शानच प्रत्यय से निष्पन्न रूप इस प्राचीन शौरसेनी में अपने प्राकृत-परिवेश में सुस्थिय हैं । मुलमानो, पाठ्यमानो आदि इसके उदाहरण है। __ प्राकृत में आत्मनेपदी तथा परस्मैपदी के रूप में धातुओं का विभेद प्रचलित नहीं है; अतः इस भाषा में प्राप्त होने वाले शानच् प्रत्ययान्त रूपों पर इस दृष्टि से चिन्तन की आवश्यकता नहीं है। शामच् प्रत्यय का प्रयोक्तम्य रूप आन है, जो शकार और कार को इत्संज्ञा होने से बचा रहता है। प्राचीन अद्धमागधी गोमस-तापस द्वारा प्रयुक्त प्राचीन अर्द्धमागधी की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं : मुख्यतः प्रथमा एकवचन की विभक्ति अ. (सु) के लिए ओ प्राप्त होता है। जैन भागमों में तथा उत्तरवर्ती अद्धमागधी में प्रथमा एकवचन के लिए ओ तथा ए दोनों प्रास होते हैं । तालम्य शकार का प्रयोग वहां प्राप्त नहीं होता। वहां क, आक तथा इक प्रत्यय बहुलतया प्रयुक्त हैं । र के लिए वहां ल का प्रयोग हुआ है। अस्पष्टता या अल्प-स्पष्टता अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राचीन मागधी, प्राचीन शौरसेनी तथा प्राचीन भदमागधी की जो कतिपय विशेषताएं उल्लिखित की गई हैं, उनसे प्राचीन मागधी और प्राचीन शौरसेनी का स्वरूप जितना स्पष्ट लगता है, पैसा अद्धमागधी का नहीं। अद्धमागधी के सन्दर्भ में किये गए विवेचन से उसका स्वरूप कोई विशेष स्पष्ट तो नहीं प्रतीत होता, फिर . भी अद्धमागधी की प्रवृत्ति के कुछ संकेत वहां माने जा सकते हैं। संक्षेप में कहें तो केवल इतना-सा यहाँ गम्य है-र का ल होना मागधी से भद्धमागधी में आई हुई विशेषता है, जो अन्यत्र उपसम्ध नहीं है । शकार के प्रयोग का अभाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता; क्योंकि मागधी के अतिरिक्त प्रायः सभी प्राकृतों में केवल दन्त्य सकार का ही प्रयोग होता है। १. तस्य लोपः॥ तस्येतो लाप: स्यात् । -पाणिनीय अष्टाध्यायी, १॥३॥ ____ 2010_05 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्राकृत (खरोष्ठी) धम्मपद भारत से बाहर अर्थात् खोतान में एम० दुइल द (M, dutreiul De Rhine) नामक फ्रांसीसी यात्री को सन् १८६२ में कुछ महत्वपूर्ण लेख प्राप्त हुए । तब तक उन लेखों के सम्बन्ध में विशेष कुछ ज्ञात नहीं था। डी० आल्डेनवर्ग नामक रूसी विद्वान् ने उन पर अन्वेषण-कार्य किया तथा उनके सम्बन्ध में कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये। एक दूसरे फ्रांसीसी घिद्वान् सेना ने उस कार्य को आगे बढ़ाया तथा सन् १८९७ में घोषित किया कि ये प्राकृतलेखों के अंश हैं । तदनन्तर अंग्रेज तथा भारतीय विद्वानों का इस ओर ध्यान आकृष्ट हुआ। उन्होंने उन लेखों के सम्बन्ध में गवेषणा का प्रयत्न किया। इन सब प्रयासों का परिणाम या कि सन् १९२१ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रो० बी० एम० बरुआ तथा प्रो० एस० मित्रा द्वारा उनका प्रकाशन हुआ, जिसे प्राकृत-धम्मपद नाम दिया गया। खरोष्ठी लिपी में होने के कारण खगोष्ठी-धम्मपद भी उसका नामकरण हो गया। प्रो० ज्यूल्स ब्लाक ने इसकी रचना, भाषा, ध्वनियों आदि के सम्बन्ध में विशेष अन्वेषण किया। उनका निष्कर्ष था कि यह मूल रूप में भारतवर्ष में ही लिखा गया। वहीं से यह पश्चिम में गया। प्रो. ज्यूल्स ब्लाक का मन्तव्य संगत प्रतीत होता है; क्योंकि तब तक बौद्ध धर्म बाहर भी विस्तार पा चुका था। यह भारत के निकटवर्ती पश्चिमी देशों में भी पहुंचा, यह सम्भावना से परे नहीं है। इसके और भी प्रमाण प्राप्त होते हैं। वहां पहुंचने पर यह भी सम्भव है कि उसकी भाषा उधर की भाषाओं से प्रभाषित हुई हो। इसकी भाषा का अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों की भाषा से भी कुछ-कुछ सादृश्य है। धम्मपद बारह परिच्छेदों में विभक्त है। कुल २३२ गाथाए हैं । रचना-काल ईसा की दूसरी शती के लगभग माना जाता है। निय प्राकृत . भारत के बाहर प्राप्त प्राकृतों में निय प्राकृत का भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। चोनी तुर्किस्तान के निय नामक प्रदेश में सर आँरेल स्टेन को तीन बार की यात्राओं में खरोष्ठी लिपी के कुछ लेख प्राप्त हुए। उनकी पहली यात्रा ई. सन् १६००१९०१ में. दूसरी यात्रा १६०६-१९०७ में तथा तीसरी यात्रा १९१३-१९१४ में हुई । अर्थात् १९०० से १९१४ तक के उनके १५ वर्ष के प्रयास का यह फल था। एक अज्ञात तथ्य प्रकाश में आया। विद्वानों का उस ओर ध्यान गया। सन् १९२० में ए. एम. ब्वायर ने, सन् १९२७ में ई० जे० रेप्सन ने तथा सन् १९२६ में सेनाटं ने खरोष्ठी शिलालेखों (Kharoshthi Inscriptions) के नाम से इनका सम्पादन किया । इन लेखों पर महत्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य करने वाले टी० बरो थे। उन्होंने इन लेखों को किसी भारतीय प्राकृत में लिखित बतलाया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह वह प्राकृत है, जो ____ 2010_05 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६९ भाषा और साहित्य ] संक्रान्ति-काल की प्राकृते तीसरी शती में 'शनशन' नामक प्रदेश में राज-भाषा के पद पर अधिष्ठित थी। निय प्राकृत के स्वरूप तथा गठन के पर्यवेक्षण से प्रतीत होता है कि इसका मूल स्थान सम्भवतः पेशावर का समीपवर्ती भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश रहा हो। खरोष्ठी धम्मपद के साथ यह भाषा कुछ मेल खाती है। अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों से इसका विशेष सादृश्य है। इस कारण से भी इसके मूल स्थान से सम्बद्ध सम्भावना और बलवती हो जाती है। अधिकांशतः इन लेखों के निय नामक प्रदेश में प्राप्त होने के कारण यह भाषा निय प्राकृत के नाम से अभिहित की जाने लगी। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों के साथ यह भाषा तुलनात्मकतया विशेष रूप से विश्लेषणीय है । निय प्राकृत में जो लेख प्राप्त हुए हैं, उनमें कुछ ऐसे उल्लेख हैं, जिनमें शासकों (माजाओं) की ओर से जिलाधिकारियों को दिये गये आदेश हैं । क्रय-विक्रय-सम्बन्धी पत्र भी उनमें हैं । साथ-ही-साथ कुछ निजी पत्र भी उनमें समाविष्ट हैं। उन लेखों में अनेक प्रकार की सूचियां भी प्राप्त हैं। इन सबसे प्रकट होता है कि उन लेखों का विशेष सम्बन्ध शासन-व्यवस्था और व्यवसाय आदि से है। कुछ लिपि-चिन्ह भो इस भाषा में प्राप्त होते हैं, जो भारतवर्ष में व्यवहृत प्राकृतों में नहीं पाये जाते । दीर्घ स्वर, इतर स्वर, सघोष ऊष्म ध्वनियों आदि पर उन लिपि-चिन्हों का प्रयोग हुआ है। यह भारतीयेतर भाषाओं के प्रभाव का प्रतिफल प्रतीत होता है। विदेश में प्रचलित होने पर किसी भी भाषा पर इस प्रकार प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। भाषावैज्ञानिक निय प्राकृत का समय लगभग तीसरी शताब्दी स्वीकार करते हैं। निय प्राकृत को एक दूसरी विशेषता है, ध्वनियों की दृष्टि से उसके व्याकरण की अत्यन्त विकसितता। सम्भवत: इसका यह कारण रहा हो, यह भारत से बाहर व्यवहृत थी; अतः इस पर संस्कृत का प्रभाष नहीं पड़ सका। भारत में प्रचलित प्राकृतों के साथ ऐसा नहीं है । उन पर संस्कृत का प्रभाव पड़ता रहा; अत: इवनियों आदि की दृष्टि से वे निय प्राकृत की तरह सुरक्षित नहीं रह सकीं। निय प्राकत की स्वरूपात्मक विशेषताएं भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से निय प्राकृत का विशेष महत्व है; अतः उसकी स्वरूपात्मक विशेषताए' अध्येतव्य हैं । “प्राकृत-विमर्श" में निय प्राकृत के सम्बन्ध में जो विवेचन किया गया है, उसके अनुसार उसके मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं : निय प्राकृत के अन्तर्गत-य-या, - ये - इ मिलता है। उदा. समादाय > समदि, भावये> भवइ, मूल्य> मूलि, ऐश्वर्य > एश्वरि। मध्य ए>इ का प्रयोग होता है। उदा. मध्य एक जना समादाय > समवि, 2010_05 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ इमे > इमि, उपेतः> उवितो, क्षेत्र> छ् इत्र, अन्त> अ>उ का वैकल्पिक प्रयोग मिलता है । उदा० प्रातः> प्रतु। स्वरमध्यवर्ती सशे ऊषम और स्पर्शसंघर्षी अघोष व्यंजन सघोष में बदल जाते हैं । ऊष्म के अतिरिक्त अन्य व्यंजन का लोप और उसके स्थान पर इ-या य के प्रयोग मिलते हैं। उदा० यथा> यधा, सन्तिके > सदिइ, त्वचा> त्वया, प्रथम> पढम, अवकाश> अवगजअ, कोटि> कोडि, गोचरे> गोयरि, भोजन> भोयंन । यदि संयुक्त व्यंजन में अनुनासिक अथवा कोई उपम पनि सन्निविष्ट हो, तो अघोष व्यंजन सघोष का रूप ले. लेता है। उदा० पंच> पज, सिञ्च > सिज, सम्पन्न > सबन्नो, दुष्प्रकृति > दुबकति, संस्कार> सघर, अन्तर> अवर, हन्ति> हदि आदि । सघोष के स्थान पर अघोष के मी कुछ उदाहरण मिलते हैं । उदा० विराग> विरकु, समागता> समकत, विगाह्म> विकय, योग> योक, ग्लानः> किलेन, दण्ड> तण्ट, भोग> योग आदि । महाप्राण व्यंजनों के स्थान पर अल्पप्राण व्यंजनों का प्रयोग ईरानी और अनार्य भाषाओं के प्रभाव का कारण माना गया है। उदा० भूमि> बूम, धनानाम् > तनना। शब्द में विसर्ग के अनतर 'ख' और स्वतंत्र रूप से 'क्ष' का परिवर्तन ह में मिलता है। उदा० दुःख> दुह, अनपेक्षिणः> मनवेहिनो, अपेक्ष> अवेह धादि। __ शब्द में सघोष ऊष्म ध्वनि रूप में उच्चारण के कारण ध के स्थान पर ऊपम व्यंजम का प्रयोग मिलता है। उदा० मधुर> मसुरु, गाथानाम् > गशन, शिथिल> शिशिल, मधु> मसु, अधिमात्रा> असिमत्र आदि । तीनों ऊष्म ध्वनियों श, ष, स का प्रयोग होता है, परन्तु, इनमें 'स' का प्रयोग अधिक व्यापक मिलता है। सघोष ऊष्म ध्वनि ज का स, झ लिखित रूप मिलता है। शब्दों में ऋ के स्थान पर अ, इ, उ, रू, रि का विकास मिलता है । उदा. मृतः> मुतु, संवृतः> सवतो, स्मृति> स्वति, वृद्ध> विढ, कृत> किड, पृच्छितव्य> पुछिवयो आदि। संयुक्त व्यंजन में यदि - , -ल सनिविष्ट हों, तो उनका परिवर्तन नहीं होता। उदा. प्राप्नोति> प्रनोदि, कीर्ति> कीर्ति, धर्म> धर्म, धम, मार्ग> मर्ग, परिव्रजति> परिवयति, दीर्धम्> द्रियम्, मैत्र> मेत्र आदि । संयुक्त व्यंजन की एक अनुनासिक ध्वनि में दूसरी निरनुनासिक ध्वनि का समीकरण हो जाता है। उदा० पण्डित> पणिदो, दण्ड> वण, प्राप्नोति> प्रनोवि, गम्भीर> गमिर, कुंजरः> कुंजरु, प्रशा>प्रञ, शून्य> शुञ, विज्ञप्ति> विनति आदि । संयुक्त व्यंजन श्र>ष का परिवर्तन मिलता है। उदा. श्रावक - षवक, श्मश्रु> मषु । संयुक्त व्यंजन क्र, प्र, त्र, द्र, प्र, ब, भ्र, स्त का प्रयोग स्थिर रहता है। उदा. त्रिमिः> त्रिहि, प्रियाप्रिय> प्रिअप्रिअ, संभ्रम>संम्रमु आदि । संयुक्त व्यंजन ए, ष्ठ का समीकृत रूप हो जाता है। उदा. श्रेष्ठ:> शेठो, दृष्टि> दिठी, 2010_05 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] संक्रान्ति-काल को प्राकृतें [२७१ ज्येष्ठ > जेठ भादि । स्था धातु में स्थ >ठ मिलता है। उदा० स्थान> ठणेहि, उत्स्थान > उठन, काष्ठ > कठ, उष्ट्र> उठ । संयुक्त व्यंजन में यदि ऊल्म इवनि निहित हो, तो उसका परिवर्तन नहीं होता। उदा० अस्ति> अस्ति, वत्स> वत्स आदि । द्वितीया एक० -म् और प्रथमा एक० -स् का लोप मिलता है। द्विवचन का प्रयोग केवल दो उदाहरणों में मिलता है। उदा० पदेन्यां और पदेयो। षष्ठी एक० का रूप -अस विभक्तियुक्त मिलता है। क्रियाओं की काल-रचना में वर्तमान निश्चयार्थ, आज्ञा, विधि, भविष्य निश्चयाथं आदि के रूप मिलते । वर्तमान, विधि लिंग के रूप अशोकी प्राकृत के सदृश मिलते हैं। उदा० करेयसि, फरेयति, स्यति; अशोकी प्राकृत में उपकरेयति, सियति आदि रूप मिलते हैं। भूतकाल का विकास कर्मवाच्य कृदन्त में प्रथम पु• बहु. में -न्ति और उत्तम पु०, मध्यम पु. में वर्तमान निश्चयार्थ कर्तृवाच्य अस् के सदृश विभक्ति रूपों को जोड़ कर किया जाता है। उदा० श्रु तोस्मि> श्रु तेमि, श्रुतः स्मः> श्रुतम, वत्तोसि> दिसि आदि । कतृवाचक संज्ञा का विकास पश्चिमोत्तर अशोकी प्राकृत के सदृश त्वी, त्वा और इ प्रत्ययों के योग से होता है। उदा० श्रु निति, अपुछिति । पूर्वकालिक कृदन्त का विकास क्रियाक पंज्ञा अन के चतुर्थी एक० के रूप से होता है। उदा० गच्छनाय> गच्छनए, देयंनए । कुछ रूप तुमन् में भी मिलते हैं। उदा० कर्तु और करंनए, विसजिदूं और विसर्जनए। समीक्षा : तुलना उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में य संयुक्त व्यंजन अपरिवर्तित रहते हैं । निय प्राकृत में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में संयुक्त व्यंजनों में र के स्थानपरिवर्तन की जो विशेष प्रवृति प्राप्त होती है, निय प्राकृत में वैसा बहुत कम है, लगभग नहीं के तुल्य है और न उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में ही ऐसा है । प्राकृत-धम्मपद में ऐसा अवश्य मिलता है। . उतर-पश्चिम के शिलालेखों में ल-युक्त संयुक्त व्यंजनों में ल-लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है, किन्तु, निय प्राकृत में वैसे शब्दों में ल-युक्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे, शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में अल्प के लिये अप तथा कल्प के लिए कप का प्रयोग हुआ है, किन्तु, उदाहरणार्थ, निय प्राकृत में अल्प के लिये अल्प तथा जल्पित के लिए अल्पित ही मिलते हैं, न कि अप और जपित। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः क्ष के लिए छ आता है। निय प्राकृत में भी ऐसा ही है । स के लिये स का प्रयोग हुआ है। जैसे, चिकित्सा के लिए पहां चिफिस आया है। निय प्राकृत में ऐसा नहीं होता। वहां वत्स और संवत्सर के लिए 2010_05 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ क्रमश: वत्स और संवत्सर का ही प्रयोग हुमा है । कहीं-कहीं अपवाद भी दृष्टिगोचर होते हैं, पर, बहुत कम । सप्तमी विभक्ति का स्मिन् प्रत्यय स्मि रहता है । निय प्राकृत में स्म प्रायः म्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है; अतः सप्तमी विभक्ति एकवचन का स्मिन् प्रत्यय यही मिम मिलता है। प्राकृत धम्मपद स्म, स्व और स तीनों को विद्यमानता देखी जाती है। इससे पश्चिमोत्तर की भाषा की एक विशेष प्रवृत्ति झलकती है-वहां सप्तमी विभक्ति के लिए प्रयुज्यमान रूप में बहुत बैकल्पिकता थी । सम्बन्धक भूत कृदन्त अर्थात् हिन्दी व्याकरण के अनुसार पूर्वकालिक क्रिया का प्रत्यय स्वी वैदिक संस्कृत में बहुलतया प्रयुक्त रहा है। लौकिक संस्कृत में पैसा नहीं रहा । निय प्राकृत में यह त्वी प्रत्यय ति के रूप में प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ, वहां श्रुत्वा के लिए भ्रनिति और अपृष्ट्वा के लिए अपुछिति का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकाय धम्मपद में उपजित्वा के लिए उपजिति और परिवर्जयित्वा के लिए परिधति आया है। हेत्वर्थ में अशोक के शिलालेखों में और निय प्राकृत में 'नये' प्रत्यय का प्रयोग मिलता है। अन्यत्र हैत्वर्थ में तवे का प्रयोग दृष्टिगत होता है। निय प्राकृत में तुमन् प्रत्ययान्त रूप भी मिलते है, पय, बहुत कम । अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में प्रथमा एकवचन में अ और ए दोनों प्रत्यय प्राप्त होते हैं । शाहबानगढ़ी के अभिलेखों में औ का और मानसेरा के अभिलेखों में ए का अधिक प्रयोग हुआ है। निय प्राकृत में भी ए का प्रचलन अधिक प्राप्त होता है। उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में औ और ए दोनों का प्रयोग रहा है। सिन्धु नदी के पश्चिम में जो अभिलेख प्राप्त हुये हैं, वहां ए अधिक है तथा अन्य स्थानों पर औ। प्राकृत धम्मपद में ए का प्रयोग प्रायः अनुपलब्ध है । औ मिलता है और उ भी मिलता है। उ का मिलना आश्चर्यजनक है; क्योंकि उ उत्तरवर्ती काल की प्रवृत्ति है, विशेषत: अपभ्रश-काल की। उ का समावेश अर्वाचीनता के प्रभाव का द्योतक कहा जा सकता है। पंचमी विभक्ति एकवचन में प्रयुक्त तसिल् प्रत्यय, जिसके इकार और लकार की इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है और तस्=तः के रूप में बचा रहता है, के लिए भी निय प्राकृत में ए का प्रयोग प्राप्त होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि इस ए प्रत्यय का प्रयोग मागधी प्राकृत की अपनी एक विशेषता है। निय प्राकृत में नामों (संकाओं) के सब रूप प्रायः अकारान्त नामों के अनुसार होते हैं । नामों के अन्त में अ लगा कर ऐसो स्थिति निष्पन्न की गई है, जो उत्तरवर्ती अपभ्रश की ओर ध्यान आकर्षित करती है। प्रथमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति में कोई प्रत्यय-भेद महीं है । अपभ्रश में भी ऐसी ही स्थिति है। तुलनात्मक विवेचन से यह प्रकट होता है कि संक्रान्ति-कालीन प्राकृतों में, चाहे संकड़ी ही सही, सादृश्य की धारा प्रवहमान है। 2010_05 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास ( The Origin of Script and Its Develop:nent in India ) ____ 2010_05 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अभिलेख : लिपियां प्राकृत के जो प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुये हैं, वे मुख्यतः ब्राह्मी लिपि में हैं। एक अन्य लिपि का भी उनमें प्रयोग हुआ है, जो खरोष्ठी के नान से प्रसिद्ध है। अशोक के पश्चिमोत्तय शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं । कांगड़ा के दो ऐसे शिलालेख हैं, जिनमें खरोष्ठी लिपि का भी प्रयोग हुआ है और ब्राह्मी का भी। ऐसा अनुमान होता है कि वहां सम्भवतः इन दोनों लिपियों का व्यवहार रहा हो.। आश्चर्य है, ब्राह्मी लिपि के क्षेत्र मथुरा का भी एक प्रसिद्ध शिलालेख खरोष्ठी लिपि में है। पटना में भी इस प्रकार का एक शिलालेख है। उन अभिलेखों की लिपियों के सन्दर्भ में भारत में लिपि-कला के उद्भव, विकास तथा विस्तार मादि पर संक्षेप में विचार करना आवश्यक होगा। ब्रामी लिपि भारतवर्ष में प्रयुक्त लिपियों में ब्राह्मी लिपि सबसे प्राचीन है । जिस प्रकार भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न धर्मों में आस्था रखने वालों के अपने-अपने धर्म-ग्रन्थों की भाषाओं के सम्बन्ध में आता या अनादिता के सुधक मत हैं, उसी प्रकार उन सबका ब्राह्मी लिपि के सम्बन्ध में विचाय है । यहां प्रशस्तिपरकता (Superlativeness) की मात्रा अधिक है, तथ्यपरकता कम । मानव की कुछ इस प्रकार की दुर्बलता है कि जिसे वह 'स्व' से जोड़ता है, उसे प्रशस्त भी बताना चाहता है। वैदिक अभिमत बैदिक परम्परा में विश्वास रखने वालों का यह अभिमत है कि ब्राह्मी शब्द ब्रह्मा से निष्पन्न हुआ है। त्रिदेवों में ब्रह्मा जगत के स्रष्टा या विधाता है। जिस प्रकार जगत् की, समस्त जागतिक पदार्थों की उन्होंने रचना की, लिपि का भी उन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ। जगत् के साथ-साथ जन्मने वाली वह लिपि ब्राह्मी लिपि थी। ब्रह्मा द्वारा त लिपि १. ब्रह्मा सर्जक, विष्णु-पालक, शिव-संहारक 2010_05 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ रचना की उपादेयता का वर्णन करते हुए नारद-स्मृति में लिखा है : “यदि ब्रह्मा लिखित या लेखन-कला, दूसरे शब्दों में लिपि रूप उत्तम नेत्र का सर्जन नहीं करते, तो इस जगत् की शुभ गति नहीं होती।" ललितविस्तर में चर्चा ललितविस्तर बौदों का प्रसिद्ध संस्कृत-ग्रन्थ है। उसके दशम अध्याय में लिपियों की चर्चा है। वहां चौसठ लिपियों का उल्लेख है, जिनमें ब्राह्मी पहली है। ६४ नामों में कतिपय ऐसे नाम हैं, जिनका आधार देश-विशेष, प्रदेश-विशेष या जातिविशेष है। जैसे, अंग-लिपि, धंग-लिपि, मगध-लिपि, ब्रह्मवल्ली - लिपि, द्राविड़-लिपि, कनारि-लिपि, दक्षिण - लिपि, दरद-लिपि, खास्य-लिपि, चीन-लिपि, हूण-लिपि, देव-लिपि, नाग-लिपि, यक्ष-लिपि, गन्धध-लिपि, किन्नर-लिपि, महोरग-लिपि, असुर-लिपि, गड-लिपि, १. नाकरिष्यद्यवि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम् । तत्रयमस्य लोकस्य नामविष्यच्छुभा गतिः ।। २. १. ब्राह्मी, २. खरोष्ठी, ३. पुष्करसारी, ४. अंग-लिपि, ५. बंग-लिपि, ६ मगध लिपि, ७. मांगल्य-लिपि, ८. मनुष्य-लिपि, ९. अंगुलीष-लिपि, १०. शकार-लिपि, ११. ब्रह्मवल्ली-लिपि, १२. द्राविड़-लिपि, १३. कनारि-लिपि, १४. दक्षिण लिपि, १५. उग्र-लिपि, १६. संख्या-लिपि, १७ अनुलोम-लिपि, १८. ऊर्ध्वधमुर्लिपि, १६. बरदलिपि, २०. खाल्य-लिपि, २१. चीन-लिपि, २२. हूण-लिपि, २३. मध्याक्षर-विस्तर-लिपि, २४. पुष्प-लिपि, २५. देव-लिपि २६. नाग-लिपि, २७. पा-लिपि, २८. गन्धर्व-लिपि, २९. किन्नर-लिपि, ३०. महोरग-लिपि, ३१. असुर-लिपि, ३२. गरुड़-लिपि, ३३. मृगचक्रलिपि, ३४. चक्र-लिपि, ३५. वायुमद-लिपि, ३६ भीमदेव-लिपि, ३७. अन्तरिक्षदेव-लिपि, ३८. उत्तरकुरुद्वीप-लिपि, ३६. अपरगौडादि-लिपि, ४०. पूर्वविदेह-लिपि, ४१. उत्क्षेपलिपि, ४२. निक्षेप-लिपि, ४३. विक्षेप-लिपि, ४४. प्रक्षेप लिपि, ४५ सागर-लिपि, ४६. बज्र-लिपि, ४७. लेखप्रतिलेख-लिपि ४८. अनव्रत-सिपि, ४६. शास्त्रावर्त-लिपि, ५०. गमावर्त-लिपि, ५१. उत्ोपावर्त-लिपि ५२. विक्षेपावर्त शिपि, ५३. पावलिखित-लिपि, ५४. निरुत्तरपबसविलिखित-लिपि, ५५. वशोत्तर-पदसन्धिलिखित-लिपि, ५६. अध्या हारिणी-लिपि, ५७. सर्वक्षतसंग्रहणी-लिपि, ५८. विद्यानुल्योम-लिपि, ५९. विमिश्रितलिपि, ६०.षितपस्तम सिपि, ६१. धरणीप्रेक्षपण-लिपि, ६२. सर्वोषधनिष्यन्द-लिपि, ६३. सर्वसारसंग्रहणी-लिपि, ६४. सर्वभूतस्तग्रहणी-लिपि । पूल १२५-१२६ ____ 2010_05 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ २७७ उत्तरकुरुद्वीप-लिपि, अपरगोडादि-लिपि, पूर्व विदेह-लिपि । कुछ ऐसे नाम हैं, जो सम्भवतः वर्णो के आकार, लेखन-विधि या लेखन-शिष्ट्य से सम्बद्ध हैं । जैसे, अनुलोम-लिपि, चक्र लिपि, उत्क्षेप-लिपि, प्रक्षेप-लिपि, लेख-प्रतिलेख-लिपि, पादलिखित-लिपि, द्विरुनर-सन्धिलिखित लिपि, दशोत्तरपदसन्धिलिखित-लिपि, विमिश्रितलिपि, इत्यादि। कुछ नाम ऐसे हैं, जो देवप्रशस्तिमूलकता तथा विषयविशेष-प्रयोज्यता आदि से सम्बद्ध हैं। कुछ नाम अन्यान्य कारणों पर भी आद्ध त हो सकते हैं । जैन मान्यता जैन ग्रन्थों में भी ब्राह्मी लिपि के विषय में विशेष रूप से उल्लेख है। जैन अंगवाट मय के पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र के प्रारम्भ में जहां अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु को नमन किया गया है, वहां ब्राह्मी लिपि को भी नमन करने का उल्लेख है। व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे अत्यन्त मान्य ग्रन्थ में ब्राह्मी लिपि का उल्लेख निःसन्देह उसकी प्राचीनता का द्योतक हैं । ऋषभ द्वारा लिपि-शिक्षण ___ लिपियों के उद्भव के सम्बन्ध में जन पौराणिक साहित्य में उल्लेख है कि श्रामण्य अंगीकार करने से पूर्व आद्य तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ ने जब वे राजा थे, सभी प्रकार की लोक-व्यवस्थाओं का प्रतिष्ठापन किया। विद्याओं, कलाओं आदि का भी शिक्षण दिया। कहा जाता है, ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को पुरुष-प्रयोज्य बहत्तर कलाओं को शिक्षा दी और साथ ही परम-तत्व का ज्ञान भी दिया। पुत्र बाहुबली को प्राणि-लक्षण का ज्ञान, पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान और पुत्रो सुन्दरो को गणित का शिक्षण दिया। विद्याओं तथा कलाओं को आत्मसात् करने वाले ऋषभ के पुत्रों और पुत्रियों ने जगत् में उनका प्रसार किया। ब्राह्मो द्वारा प्रसारित लिपियों में जो मुख्य लिपि थो, उसी के नाम से यह ब्राह्मो कहलाई। - १. गमो अरहताणं णमो सिद्धाणं, गमो आयरियाणं गमो उवझायाणं णमो लोए सन्य साहणं। पनो बंभीए लिवीए । २. लेह लिबी विहाणं, जिणेण बंभीए वाहिण करेण । -अनिधान राजेन्द्र कोष, पंचम भाग, पृ० १२५४ 2010_05 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन समवायांग सूत्र में उल्लिखित अठारह लिपियों में पहला नाम ब्राह्मी लिपि का है। प्रशापना सूत्र में वर्णित अठारह लिपियों के नाम समवायांग सूत्र से पूरी तरह तो नहीं मिलते, पर, बहुलांश में सादृशता है। उनमें भी पहला नाम ब्राह्मी लिपि का है । विशेषावश्यक टीका' तथा कल्पसूत्र में उल्लिखित अठारह लिपियों के नाम समवायांगसूत्र व प्रज्ञापना सूत्र में दिये गये नामों से भिन्न हैं। आश्चर्य है, दोनों में दी गयी लिपि नामावली में ब्राह्मी लिपि का नाम ही नहीं आया। इन दोनों सूचियों में जो नाम हैं, उनसे प्रतीत होता है कि ये नाम बहुत अर्वाचीन हैं. जब इस देश में ब्राह्मी का प्रयोग तो अवरुद्ध हो ही गया था, महत्व भी समाप्त प्राय: हो गया था। विशेषावश्यक की टीका में आये हुए नामों में यवनी, तुरुक्की, धिड़ी, सिंधधीय, मालवीनी, नागरी, लाट, पारसी आदि कुछ ऐसे हैं, जो देशों और प्रदेशों के आधार पर दिये हुए हैं। ऐसा लगता है, विशेषावश्यक के टीकाकार के समय जिन-जिन भू-भागों में जो भिन्न-भिन्न लिपियां प्रचलित थीं, सम्भवतः उन्हीं के आधार पर उनके नाम दे दिये गये । १. १. ब्राह्मी, २. यावनी, ३. दोष उपरिका, ४. खरोष्टिका, ५. रूर-शविका, ६. पहरातिगा, ७. उपचतरिका, ८. अक्षर पृष्ठिका, ९. भौगवतिका, १.. वेणकिया, ११. निण्हविका, १२. अंकलिपि, १३. गणितलिपि, १४. गन्धर्वलिपि, १५. आदर्श-लिपि, १६. माहेश्वरी, १७. दामिलिपि, १८. बोलिव लिपि -समवायांग सूत्र, समवाय १८ २. १. ब्राह्मो, २. यावनी, ३. दोसापुरिया, ४. खरोष्ठी, ५. पुक्खरासारिया, ६. भोगवतिका ( भोगवइया ), ७. पहराइया ८. अन्तक्खरिया, ६. अक्खरपुटिया, १०. बैनयिकी, ११. निविकी, १२. अंक लिपि, १३. गणितलिपि, १४. गन्धर्बलिपि, १५. आयंसलिपि, १६. माहेश्वरी, १७. दोमि लिपि, १८. पोलिन्दी । -प्रज्ञापना सूत्र, पद १, सूत्र ३७ ।। ३. १. हंस, २. भूत, ३. पक्षी, ४. राक्षसी, ५. उड्डी, ६. यवनी, ७, सुरजी, ८. कीरी, ९. द्रविडी, १०. सिंधवीय, ११. मालवीनी, १२. नडि, १३. नागरी, १४. लाट, १५. पारसी, १६ अनिमित्ती, १७. चाणक्की, १८. मूलदेवी। -पृ० ४६४ ४. १. लाटी, २. चौसरी ३. बाहाली, ४. कानी, ५. गूजसी, ६. सोरठी, ७. मरहटी, ८. कोंकणी, ९. खुरासानी, १०. मागधी, ११. सिंहली, १२. हाड़ी, १३. कीड़ी, १४. हम्मीरी, १५. पारसी, १६. मती, १७, मालवी, १८. महायोधी । 2010_05 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में लिपि कला का उद्भव और विकास [ २७६ मावा और साहित्य ] इन नामों में स्पष्ट रूप में मघतो, पारसी और तुरुक्की; तीन अभारतीय हैं। अन्य बहुत से नाम भारत के अन्तत प्रदेशों के आधार पर दिये हुए प्रतीत होते हैं, जिनकी भिन्न-भिन्न लिपियां ब्राह्मी से उद्भूत हुई। हंस आदि कुछ नाम ऐसे हैं, जिनका स्पष्ट आधार दिखलाई नहीं पड़ता । कल्पसूत्र में माये नामों में लाटी, चौड़ी', डाहाली, कानड़ी, गुजरी, सौरहठी, मरहठी, कोकणी, मागधी, हाड़ी, मालवी आदि नाम विशेषावश्यक के टीकाकार द्वारा प्रस्तुत अधिकांश नामों की तरह भारत के प्रदेशों के नामों पर आधृत लिपि-नाम हैं । उनके लिए उसी प्रकार कहा जा सकता है, जैसा विशेषावश्यक के टीकाकार द्वारा प्रस्तुत नामों के सम्बन्ध में कहा गया है। ब्राह्मी और खरोष्ठी पर अनेक लिपि-विज्ञान वेत्ताओं ने अनुशीलन और अन्वेषण किया है । उनके भिन्न-भिन्न मत हैं। उन मतों की चर्चा, विश्लेषण तथा समीक्षा करने से पूर्व यह आवश्यक है कि अब तक लिपि के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में जो सोचा गया है, उसकी कुछ चर्चा की जाए । लिपि का उद्भव : कल्पना आदि मानव का एक अबूझ उपक्रम विद्वानों का मन्तव्य है कि आदिकालीन मानव विभिन्न देवताओं की पूजा में विश्वास करता था । टोनों-टोटकों में भी उसकी आस्था थी । तब तक उसकी तर्कणा शक्ति विकसित नहीं हो पाई थी । पर, स्वभावतः वह कल्पनाशील तो था ही । अपने इष्ट देवता का प्रतीक या चित्र बनाने का उसमें भाव जगा हो । उसने उसे पूरा करने का कुछ प्रयत्न किया हो । कुछ आड़ी-टेढ़ी रेखाएं खींची हों । इसी प्रकार सौभाग्य और शुभ की प्राप्ति, दौर्भाग्य और अशुभ की निवृत्ति के हेतु कुछ जा मन्त्र, टोने-टोटके साधने के लिए भी उसके द्वारा कुछ ऐसा ही प्रयत्न चला हो। इस प्रकार रेखाएं खींचने, कुछ चिह्न बनाने के प्रयत्न का एक अन्य कारण भी सम्भावित है । अपने बर्तन माड़े, घड़े आदि वस्तुए जब कभी किसी समादोह आदि के अवसर पर या और किसी कारण से एकत्र रखी जाती हों, तब लगभग एक जैसी होने से वे परस्पर मिल न जाए, बाद में अपनी-अपनी वस्तु की पहचान में कठिनाई म हो, इसके लिए भी हो सकता है, मानव मे कुछ चिह्न बनाये हों । यह उपक्रम, जिसके पीछे कोई गहरा चिन्तन नहीं था, तात्कालिक कम विकसित समाज के लोगों की एक भाव-प्रवण प्रेरणा थी। यह क्रम चलता रहा । मानव अपने अभिलषित की एक कल्पित. परिपूर्ति माता रहा । यह एक सन्दर्भ है, जो लिपि-कला के उद्भव से सम्बद्ध कहापोह में उपयोगी है । १. चौड़ी लिपि सम्भवतः बोल- राजाओं द्वारा शासित राज्य की लिपि रही हो । 2010_05 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० 1 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ व्यवहार-निर्वाह और भाव-स्थायित्व तात्कालीन मानव भाषा का आविष्कार कर चुका था। सुनकर भोर बोलकर दूसरों के विचार जानने और ज्ञापित करने की क्षमता उस युग के मनुष्य को प्राप्त थी। उसका कार्य चलता रहा। भाषा के अभाव में उसे व्यवहार में जो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, वह मिट गया था। पर, ज्यों-ज्यों विभिन्न लोगों के साथ उसके व्यवहार का बेत्र विस्तृत होता गया, उसे कठिनाइयां अनुभव होने लगी। जिन किन्हीं के साथ उसका व्यवहार था, वे सब उसके सामने उपस्थित होते या होते रहते, तो उसे पारस्परिक व्यवहार को निभाने में कठिनाई नहीं होती; क्योंकि स्वयं बोलकर अपने भाव शापित कर देता और उनके छाया बोलकर व्यक्त किये गये भाव ज्ञात कर लेता। पर, यह सम्भव नहीं था। इसलिए तत्कालीन मानष ऐसा कोई माध्यम खोजने के लिए बेचैन हो उठा हो, जिससे उसकी यह कठिनाई दूर हो सके। अन्य कारण भी सम्भाव्य है । ज्यों-ज्यों मानव को बौद्धिक चेतमा उबुद्ध होती गयी, वह चिन्तन तथा विचार के क्षेत्र में कुछ आगे बढ़ा। वैचारिक दृष्टि से विकसित होते मानव के मन में स्वभावत: यह भाव उठता है, वह अपने विचारों को स्थायित्व दे सके। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसे ऐसा करने में तुष्टि प्राप्त होती है। साथ ही उसके विचारों से दूसरे लोग तभी लाभान्वित होते रह सकते हैं, जब दैहिक दृष्टि से उसकी विचमानता न रहे; अतः प्रबुद्धचेता मानव को भी यह खोज थी कि उसे कोई ऐसा साधन या सहारा प्राप्त हो, जिससे उसका यह अभाव मिट जाये । एक आधार मानव अपनो मनोभावनाओं, एषणाओं और कामनाओं की परितुष्टि के लिए कुछ प्रतीकात्मक तथा चाहें बहुत अस्पष्ट ही क्यों न हो, चित्रात्मक आड़ो-टेढ़ी रेखाए खींचने में प्रवृत्त हो चुका था। अपने भावों को मूर्त रूप देने के अभिलाषक मानव का उस प्रयत्न की ओर झुकाव हुआ। उसे शान्ति मिली कि उसका वह उपक्रम उसके लिए आधार बन सकता है। वह उस ओर प्रवृत हुआ। अपनी भावनाओं को चित्रों या प्रतीकों के माध्यम से, चाहे वे अपूर्ण, अस्त-व्यस्त व असुन्दर जैसे रहे हों, प्रकट करने का उसमें उत्साह जगा। चित्रलिपि के उद्भव की यह कहानी है। चित्रों या प्रतीकों को उद्दिष्ट कर जिस प्रकार खींची जाने वाली टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं ने लिपि-कला के आदि-स्रोत का काम किया, चित्र-कला का भी उन्हें ही मूल आधार माना जा सकता है। अन्वेष्टाओं और विद्वानों ने अब तक लिपि के सम्बन्ध में जो अध्ययन तथा गवेषणा को है, उसके अनुसार ईसा से लगभग चार सहमान्दियों पूर्व तक लिपि जैसा कोई व्यवस्थित 2010_05 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२८१ रूप अस्तित्व में नहीं आया। विद्वानों की मान्यता है कि इस प्रकार के माध्यम की खोज मानव ने ईसा से लगभग दश सहस्राब्दी पूर्व प्रारम्भ की थी। उसके छः सहस्राब्दियों के प्रयत्न के परिणाम स्वरूप लिपि अस्पष्ट और मव्यवस्थित ही सही, प्रादुभूत हुई, जो उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। चित्र-लिपि चित्रों के माध्यम से अपने मनोभाव व्यक्त करने के उपक्रम को चित्र-लिपि को संज्ञा दी गयी। इस उपक्रम में प्रारम्भ के चित्र बहुत ही अपूर्ण और भद्दे रहे होंगे। उस समय के मानव का क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था; अतः मानव, मानव के साथी पशु, जीव-जन्तु, उसके द्वारा प्रयोज्य वनस्पतियां आदि के चित्र उसने बनाये होंगे। इस प्रयत्न में कुछ ऐसे टेढ़े-मेढ़े चित्र भी बन गये होंगे, जो कुछ-कुछ ज्यामितीय आकारों से मिलते-जुलते होंगे। देववाद का युग था। पूजा, उपासना, तत्सम्बन्धी कर्मकाण्ड सम्पादित करने के हेतु देवी-देवताओं के चित्र भी बने होंगे। ऐसे चित्र पर्वतीय कन्दराओं, भित्तियों आदि पर बने होंगे। पत्थर, हड्डी, पशुओं के चम, वृक्षों की छाल, मिट्टी के बर्तन, हाथी-दांत आदि का भी इन चित्रों के हेतु उपयोग हुआ प्रतीत होता है। अभिव्यंजना अविकसित दशा से विकास की ओर गति करना मानव का स्वभाव है। आदि काल में मानव का अधिकतम सम्बन्ध स्थूल जगत् से षा; अतः जिन प्राणियों, पदार्थों व वस्तुओं के सम्बन्ध में कुछ प्रकट करना होता, तो वह उन प्राणियों, पदार्थों तथा वस्तुओं के चित्र अंकित करने का प्रयत्न करता । जैसे, मनुष्य के लिए मनुष्य का चित्र, उसके अंगोपांगों के लिए उसके अंगोपांगों के चित्र, पशुओं के लिए पशुओं के चित्र, सूर्य-चन्द्र ष तारों के लिए बड़े-छोटे गोल आकार । सूर्य को रश्मियां द्योतित करने के लिए अपेक्षाकृत बड़े गोले से उसके चारों ओर निकलती हुई रेखाए अंकित करना, ऐसा कुछ उपक्रम था। इस प्रकार उस युग में मानव को अपना कुछ बताने और दूसरों का समझ लेने में किंचित् सन्तोष प्राप्त हो जाता । * ऐसा प्रतीत होता है; चित्रात्मक आधार से मानव का कुछ समय काम चला होगा। एक तथ्य ज्ञातव्य है कि चित्र-लिपि केवल स्थूल वस्तु को व्यक्त करने मात्र की क्षमता के कारण अपरिपूर्ण थी। पर, इसमें सार्वजनीनता और सघदेशीयता अवश्य थी, क्योंकि स्थूल दृष्ट्या मनुष्य, पशु, पर्वत, नदी आदि प्राय: सर्वत्र सदृश होते हैं। उदाहरणार्थ, उनका आकार जो पश्चिम एशिया में बनता, वैसा ही अमेरिका के किसी देश में बनता और उसे उसी अर्थ में समझ भी लिया जाता, यद्यपि दोनों के बीच बहुत दूरी होती। इस तरह एक प्रकार से यह लिपि, चाहे जैसी ही सही, विश्वजनीन या अन्तर्राष्ट्रीय कही जा सकती है। 2010_05 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन परिवर्तन भी पूर्ण सक्षम नहीं चित्र-लिपि भावाभिव्यक्ति का एक माध्यम था, पर, बहुत सक्षम नहीं । स्थल पदार्थों का बोध तो उससे हो जाता, पर, तद्गत या तत्सम्बद्ध भावों को व्यक्त करने का जब प्रसंग आता, तो मानव को कठिनता अनुभूत होती। चित्र में कुछ संयुक्त करने का एक प्रयम और हुआ। यदि एक प्यासी गाय को दिखाना है. तो दौड़ती हुई गाय और पास ही पानी दिखा दिया जाता । इसी प्रकार यदि दुर्भिक्ष का भाव व्यक्त करना होता, तो ऐसा मनुष्य दिखाया जाता, जो दुबैल दीखता, जिसकी पसलियां निकली हुई होती। दुःख या विषाद का भाव ध्यक्त करना होता, तो ऐसी आंखों का चित्र प्रस्तुत किया जाता, जिनसे आंसू ढल रहे हों। चलने का भाव दिखाना होता, तो केवल पैर दिखा दिये जाते, पर, इससे काम नहीं चला। चीन में प्राचीन काल में चित्र-लिपि का प्रचलन था। वहां भी आन्तरिक भावों को व्यक्त करने हेतु कुछ इसी प्रकार का प्रयास हुआ। यदि वहां मैत्री का भाव व्यक्त करना होता, तो दो मिले हुए हाथों का चित्र बना दिया जाता। यदि सुनने का भाव व्यक्त करना होता, तो एक ऐसे मनुष्य का चित्र बना दिया जाता, जो दरवाजे के पास कान लगाये खड़ा हो। मिन भी चीन की तरह प्राचीन काल से ही सभ्यता और कला कौशल में उन्नत रहा है। वहां चित्र लिपि का प्रचलन रहा । भावाभिव्यक्ति के सन्दर्भ में वहां भी इसी प्रकार के प्रयास हुए, जो आवश्यकता के बास्तविक पूरक नहीं हो सके । उनसे एक सीमा तक काम तो चलता रहा, पर, विविध भावों की अभिव्यक्ति ऐसे उपायों से सम्भव नहीं हो सकी। दूसरी विसेष कठिनता यह भी थी कि जाति-वाचक संज्ञाए तो चित्रों द्वारा व्यक्त कर दी जातीं, जैसे, किमो मनुष्य का बोध कराना है, तो मनुष्य का चित्र बना दिया जाता पर, यदि किसी मनुष्य-विशेष-अमुक मनुष्य का बोध कराना हो तो कठिनाई थी । अर्थात् व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को व्यक्त करने का कोई मार्ग नहीं था। अनेक नामों के अनेक व्यक्ति, उनके भिन्न-भिन्न रूप, कभी सम्भव नहीं थे, जो चित्रों द्वारा प्रकट किये जा सकते। अकलात्मकता और चित्र : एक दुविधा चाहे सुन्दर न सही, पर, चित्र बनाना भी तो एक कला है । वह सबसे सध सके, सम्भव नहीं; अतः उन लोगों को बड़ी असुविधा होती, जो चित्र बनाने में अक्षम थे। जो चित्र तो बना सकते थे, पर, अतिशीघ्र कोई अभिव्यक्ति करनी होती, तो शीघ्रता में चित्र बनाने में उन्हें बड़ी कठिनता होती । चित्र और उनके योग द्वारा केवल वर्तमान का भाव व्यक्त होता, पर, अतीत तथा भविष्य की अभिव्यंजना के लिये कोई साधन नहीं था। चित्र-लिपि के युग में इस प्रकार मानव येन-केन-प्रकारेण अपने को व्यक्त करने का प्रयत्म ____ 2010_05 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ २८३ तो करता, पर, उसे सन्तोष नहीं था, अनेक कठिनाइयां थीं। वह कुछ खोज में था, ताकि यह असन्तोष, वे कठिनाइयां मिट सके। प्रतीक-लिपि चित्र-खोंचने में असुविधा थी और साथ-ही-साथ अमनोनुकूल कालक्षेप भी था। सतत गतिशोल मानव लम्बे समय तक कैसे सह पाता ! शीघ्रातिशीघ्र भाष व्यक्त करने के लिये समय बचाने के लिए वह बहुत तत्परता से चित्र बनाता। चित्र ठीक नहीं बनते । विकृत चित्रों से भी कुछ काल तक वह काम चलाता रहा । लेखिनी की शीघ्रता के कारण चित्रों का उत्तरोत्तर घसीट रूप होता गया । तब पूरे चित्र के प्रतीक के रूप में कुछ रेखाओं का प्रयोग होने लगा । उदाहरणार्थ, पहले पर्वत को दिखाना होता तो उसका एक रेखा-चित्र-सा बनाया जाता, उसकी चोटियां रेखाओं द्वारा विशेष रूप से दिखाई जातीं। पर, आगे चल कर यह सारा कुछ रेखाओं के रूप में ही बचा रहा । इस प्रकार चित्रों के स्थान पर प्रतीक-चिह्नों से काम चलने लगा । चित्र में समझने की दृष्टि से एक सुविधा थी। उसे देखते ही वस्तु समझ ली जाती । प्रतीक चिह्नों में यह नहीं रहा। उन्हें स्मरण रखना पड़ता, यह चिह्न अमुक वस्तु के लिए है और यह किसी अन्य के लिए। चित्रों में एक सीमा तक सदृशता थी; अतः उन्हें समझाने में भिन्न-भिन्न देशों या स्थानों के लोगों को कठिनाई नहीं होती। रेखाचिह्नों में यह बात नहीं रही । वहां जिस वस्तु के लिए, जिस भाव के लिए जो रेखा-चिह्न कल्पित कर लिये गये, उन चिह्नों को देखने मात्र से वैसा कुछ बात नहीं होता, जब तक उन चिह्नों से सम्बद्ध मान्यता को आत्मगत न कर लिया जाता । इस प्रकार चित्रों द्वारा तत्कालोन लिपि में जो सार्वजनीनता आई थी, वह नहीं रह पाई। भिन्न-भिन्न देशों के व्यक्तियों ने भिन्न-भिन्न वस्तुओं के लिए एक ही समान रेखा-चिह्न स्वीकार किये हों, ऐसा भी सम्भव नहीं। भाव-वनिमलक लिपि वस्तु और भाष दोनों के लिए अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त प्रतीकात्मक लिपि में अगला विकास हुआ कि कुछ तो भावमूलक प्रतीक, जिनसे भावों के समझने में तत्कालीन मानव कुछ सुविधा अनुभव करता था, जो चित्रों के संक्षिस या संकेतक रूप थे, विद्यमान रहे और बुछ प्रतीक भावों के परिवर्तन में ध्वनियों के साथ संयुक्त कर दिये गये । इस प्रकार मानव को लिपि-विकास के अभियान में कुछ सुविधा मिली। इस पद्धति को भाव-ध्वनिमूलक लिपि कहा जाता है। ध्वनिमूलक-लिपि प्रतीक-भिह भाष और पनि; दोनों के लिए प्रयुक्त थे। दोनों में होने वाली सुविधा 2010_05 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ j आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : २ अबुविधा को मानव ने अनुभव किया। सम्भवतः उसे प्रतीत हुआ, चिह्नों का प्रयोग ध्वनियों के लिए अधिक संगत तथा समोचोन है। जो चिद जिस ध्वनि के लिये प्रयुक्त था, उससे सर्वत्र वही बनि समझी जातो थो। भावमूलक चिह्नों में बहुत स्पष्ट रूप में वैसी स्थिति नहीं बनती थी; इसलिये भाष-ध्वनिमूलक लिपि का विकास स्वनिमूलक लिपि में हुआ। ध्वनिमुलक लिपि के भेद ध्वनिमूलक लिपि दो प्रकार को है। एक अक्षरात्मक ( Syllabic ) और दूसरी वर्णात्मक ( Elphabetic )। अक्षरात्मक लिपि-धर्ण और भक्षर में एक अन्तर है। वर्ण एक ध्वनि का उद्बोधक है मौर अक्षर एक से अधिक मिलित ध्वनियों का सूचक है । स्थूल दृष्टि से अक्षरात्मक लिपि के प्रयोग में कोई अभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, पर, यदि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से सूक्ष्मता में जायें, तो वहां कुछ न्यूनता लगेगी। उदाहरण के लिये हिन्दी के 'प्रिय' शब्द को लें। देवनागरी लिपि में इसके 'प्रि' और 'य' दो भाग दृष्टिगोचर होंगे। 'प्रिय' शब्द में समस्त वणे कितने हैं, उसके बाह्य दर्शन से कुछ ज्ञात नहीं होता। पर, यह शब्द यदि रोमम लिपि में शिला जायेगा, तो इसमें P, R, I, Y तथा A; वे पांच ध्वनियां स्पष्ट दिखाई देंगी। संस्कृत भाषा के देवनागरी में लिखे हुये शब्दों के वर्गों को संस्कृतक तत्काल जान सकते हैं, पर, वह राण्ड अपने कलेवर से उन वर्गों का पृथक-पृथक् स्वरूप प्रकट नहीं कर सकता; जैसे संस्कृत का वृक्ष शब्द । बाह्य दृष्टि से देखने पर इसमें केवल दो भाग हैं-- दो अक्षर दिखाई देते हैं, पर, पस्तुतः इसमें ब, ऋ, क्, ष, तथा अ; ये पांच वर्ण हैं, जो वृक्ष शब्द के कलेवर से प्रतीत नहीं होते । यह लिपि की परिपूर्णता में एक कमो है। आधुनिक लिपियों में देवनागरी की तरह बंगला, गुजराती, उड़िया, तमिल, तेलुगु, अरबी, फारसी आदि लिपियां अक्षरात्मक हैं । वर्णात्मक लिपि-लिपि के विकास में जो उत्तरोत्तर प्रगति होती गई, उसको पराकाष्ठा या चरम उत्कर्ष वर्णात्मक लिपि है। रोमन लिपि इसका उस्कृष्ट उदाहरण है। वर्णात्मक लिपि को यह विशेषता है कि उसकी प्रत्येक पनि के लिये पृथक-पृथक चिह्न होते है; इसलिये उसमें किसी भी भाषा का शब्द जितने वर्षों का होगा, उतने वर्षों में लिखा जायेगा। जहां रोमन लिपि में लिखे गये शब्दों के उचारण में भिन्नता पाई जाती है, जैसे अंग्रेजी के Should, Could, Would आदि शब्द अपने अन्तवर्ती वर्गों के उच्चारण के अनुरूप उच्चारित न होकर शुड, कुड, वुड जैसे विभिन्न उच्चारणों में बोले जाते हैं, वहां उस लिपि में लिखी गयो भाषा की न्यूनता है या उसकी अपनी विशेष प्रवृत्ति है, उसमें लिपि का दोष नहीं है। ____ 2010_05 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] विश्व की लिपियाँ: दो वर्ग भारत में लिपि कला का उद्भव और विकास I विश्व को लिपियों अपने स्वरूप के आधार पर दो वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं पहला वर्ग उन लिपियों का है, जिनमें चिह्न पृथक् पृथक् वर्णों या बक्षरों के बोतक नहीं हैं, एक शब्दात्मक ध्वनि के द्योतक है। दूसरा वर्ग उन लिपियों का है, जिनमें प्रयुक्त चिह्न आकार पृथक्-पृथक् वर्णों या अक्षरों के द्योतक हैं । भाषा वैज्ञानिकों ने इस दृष्टि से उनका freafter रूप में वर्गीकरण किया है : दूसरा पहला वर्ग - मुख्य लिपियां : १. क्यूनीफार्म २. हीरो ग्लाइफिक ३. क्रीट की लिपियां ४. सिन्धु घाटी की लिपि ५. हिट्टाइट लिपि ६. चीनी लिपि ७. प्राचीन मध्य अमेरिका तथा मैक्सिको की लिपियां वर्ग - मुख्म लिपियां : १. दक्षिण सामी लिपि २. हिब्रू लिपि ३. फिनिशियन लिपि ४. खरोष्ठी लिपि ५. आर्मेइक लिपि ६. अरबी लिपि ७. भारतीय लिपि ८. ग्रीक लिपि ६. लैटिन लिपि - 2010_05 [ २६५ ब्राह्मी की उत्पत्ति : मत-मतान्तर ब्राह्मो के सम्बन्ध में जो मत-मतान्तर हैं, उनका विश्लेषण अपेक्षित है । यह विषय ऐसा है, जिस पर अनेक विद्वानों ने विचार किया है । पर अब तक किसी सर्वसम्मत मत पत्र नहीं पहुंचा जा सका है। स्थिति ऐसी रही है, भिम्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कों के आधार पर अपने-अपने मत प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया है । अब भी प्रस्तुत विषय Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.] भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पप सूक्ष्मता से गवेषणा की जानी अपेक्षित है। यूनानी से ब्राही कुछ विद्वानों का अभिमत है कि ब्राह्मी-लिपि का उद्गम-खोत यूनानी लिपि है। इस मत के परिपोषक विद्वानों में डा. अल्फेड मूलय, जेम्स प्रिन्सेप तथा सेनाट आदि मुख्य हैं। सेना ने इस सम्बन्ध में जो विश्लेषण किया है, उसके अनुसार सिफन्दर के भारत-आक्रमण के अनन्तर यूनानियों तथा भारतीयों का पारस्परिक सम्पर्क बढ़ा । तब तक भारतीयों में लेखन-कला प्रचलित नहीं थी। उन्होंने यूनानियों से उसे सीखा। उसके आधार पर उन्होंने वाह्मी-लिपि की रचना की। यूनानियों के साथ सम्पर्क जुड़ने से बहुत पहले भारत में लिपि-कला का प्रसार था। यहां के निवासी लिखना जानने थे; अतः यूनानी लिपि के साथ ब्राह्मी का सम्बन्ध जोड़ने की स्थिति नहीं आती। इस प्रकार के विचार बूलर तथा डिरिंजर आदि विद्वानों ने व्यक्त किये, जो महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य के काल के आस-पास ब्राह्मी-लिपि की उत्पत्ति मानी जाये तो उसके पौत्र अशोक के समय तक वह इतनी विकसित व समुन्नत हो जाये, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? फच विद्वाम् कुपेटी - कभी कभी प्रबुद्ध जन भी कुछ ऐसी कल्पनाए कर लेते हैं, जो स्पष्टतया असंगत होती हैं। ऐसी ही एक कल्पना फ्रेंच विद्वान् कुपेटी की ब्राह्मी लिपि के उद्भव के सम्बन्ध में है। उनकी मान्यता है कि ब्राह्मी-लिपि की उत्पत्ति चीनी लिपि से हुई । लिपि-विज्ञान पर कार्य करने वाले विद्वान् तथा अध्येता जानते हैं कि पीनी और ब्राह्मी का कोई मेल नहीं है। चीनी मूलतः चाहे कितना ही परिवर्तित सही, एक प्रकार से चित्र-लिपि का ही कलेवर लिये इए है। जैसा कि पहले कहा गया है, चीनी लिपि में वर्णात्मक व अक्षरात्मक ध्वनियां नहीं हैं। उसमें शब्दात्मक ध्वनियों के परिचायक चित्रात्मक चिह हैं । ऐसे चिह उसमें बहुत अधिक हैं। वे चालीस-पचास हजार की सीमा तक पहुंच जाते हैं। यद्यपि अब चीनी विद्वानों ने उनमें से सर्वाधिक प्रचलित एवं प्रयुक्त चिह्नों को लिया है, जिनकी संख्या लगभग पांच सौ है। उन्हें भी जितना हो सका, सरल बनाने का प्रयास किया है और अब उन्हीं चिह्नों से सारा काम लिया जा रहा है। यह स्वयं सोचा जा सकता है, ब्राह्मी जैसी लिपि से जिसके चिह्न अक्षतात्मक ध्वनियों के अभिव्यंजक हैं, दूसरे शब्दों में जो लिपि भक्षय-गठित है, पीनी लिपि का केसे मेल हो सकता है ? माना कि पीनी लिपि बहुत प्राचीन है। चीनी किंवदन्ती के अनुसार ई० पूर्व ३२०० ___ 2010_05 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ २८७ में उसका आविष्कार हुआ। दूसरे मत के अनुसार वह ई. पूर्व २७०० वर्ष में निर्मित हुई। पर, प्राचीनता मात्र कोई कारण नहीं है, जिससे संगत-असंगत सब कुछ उसके साथ जोड़ दिया जाये। जहां लिपि-विश्लेषण और समीक्षा का प्रश्न भाता है, घिद्वाम् इस मत की चर्चा तक नहीं करते। उत्तरी सेमेटिक लिपि ___ भाषा-विज्ञान में सेमेटिक और हेमेटिक दो शब्द आते हैं, जो दो विशिष्ट भाषा-परिवारों को व्यक्त करने के हेतु विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सेमेटिक भाषा-परिवार, हेमेटिकभाषा-परिवार। सेमेटिक शब्द लिपि के साथ भी जुड़ा है। ___ कहा जाता है, हजरत नौह ( नूह ) के दो पुत्र थे। बड़े का नाम सेम और छोटे का हेम था। परम्परया सेम को दक्षिण-पश्चिम एशिया के निवासियों का आदि पुरुष माना जाता है। उस भू-भाग में प्रसृत भाषा-परिवार सेम के नाम पर सेमेटिक कहलाया । भाषा की तरह वहां प्रयुक्त प्राचीन लिपि के साथ भी यह विशेषण जड़ा। सेमेटिक का हिन्दी में सामी अनुवाद किया गया है। सेमेटिक भाषा-परिवार के दक्षिणी क्षेत्र में जो लिपि प्रयुक्त होती थी, उसे दक्षिणी सेमेटिक लिपि कहते हैं । बहुत से विद्वानों की मान्यता है कि उत्तरी सेमेटिक लिपि से ब्राह्मी का सभव हुआ। उनमें बूलर का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। बेबर, बेमफे, वेस्टरगार्ड हिटमी, जॉनसन, विलियम जॉन्स आदि विद्वानों के अभिमत भी बहुत कम भेद के साथ, लगभग इसी प्रकार के हैं। बूलर के मन्तव्यानुसार ईसधी सन् से लगभग आठ सौ वर्ष पूर्व सेमेटिक अक्षरों का भारत में प्रवेश हुआ 11 फिनिशियम और ब्राही उत्तरी सेमेटिक लिपि की एक मुख्य शाखा फिनिशियन थी। फिनिषिया (देश) में प्रचलित होने के कारण यह फिनिशियन कहलाई। प्राचीन काल में एशिया के उत्तरपश्चिम में स्थित भू-भाग (सीरिया) फिनिशिया कहा जाता था। फिनिशिया प्राचीन काल से ही शिक्षा, सभ्यता, कला-कौशल व व्यापार आदि में बहुत समुन्नत पा। भारतीय लोग व्यापारायं फिनिशिया आते-जाते थे। उन विद्वानों के अनुसार तब तक भारत में लेखनकला का प्रादुर्भाव नहीं हआ था; अतः पारस्परिक व्यवहार में सविधा रहे. इस रेत सम्हें फिनिशियन लिपि का अक्षर सीखना आवश्यक लगा । उन्होंने पेसा किया। उनकी कठिनाई दूर हो गयी। उन ग्यापारियों के साथ वे फिनिशियन अक्षर भारत नाये। वे अक्षय 1. Indian Palaeography, P. 17 ___ 2010_05 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] आमम मौर त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ ब्राह्मणों के द्वारा क्रमशः परिवर्तित, परिष्कृत और परिधारित होकर एक विशिष्ट अक्षरमाला में परिणत हो गये। संस्कृत वषा प्राकृत के लिखने में सरलता से प्रयुक्त होने लगे। ब्राह्मणों द्वारा मूतन रूप दिये जाने के कारण सम्भवतः इस लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा। अधिकांश विहान् ब्राह्मी के फिनिशियन से निकलने के पक्ष में है । नई स्थापना ___डा० राजबली पाण्डेय ने एक मई स्थापना की है। उन्होंने फिनिशिया वासियों को मूलतः भारतीय बताया है। उनके अनुसार भारत से चल कर कुछ लोग फिनिशिया बस गये थे। वे जाते समय अपनी ब्राह्मी लिपि भी साथ लेते गये। वह लिपि वहां अन्य लिपियों और स्थितियों से प्रभावित होती हुई फिनिशियन के रूप में परिवर्तित हो गई। यही कारण है कि फिनिशियन और ब्राह्मी में सादृश्य प्राप्त होता है। डा. पाण्डेय ने ऋग्वेद ६-५१, १४, ६१, १ के प्रमाणों से इस तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। डा. पाण्डेय उच्चकोटि के विद्वान् हैं। तर्क और युक्ति से उन्होंने प्रस्तुत सन्दर्भ में जो नई स्थापना करने का प्रयत्न किया है, वह निःसन्देह लिपि-विज्ञान के क्षेत्र में एक दिशा-दर्शन है, पर, भारतवासी फिनिशिया गये, अपनी लिपि साथ ले गये, उनकी अर्थात् ब्राह्मी लिपि का ही विकास फिनिशियन लिपि है, इत्यादि तथ्य बहुत महत्व के हैं। उनके लिए कुछ ठोस प्रमाण चाहिए, केवल शास्त्रीय प्रमाण पर्याप्त नहीं हैं । दक्षिणी सेमेटिक और ब्राही कुछ विद्वानों का ऐसा अभिमत है कि ब्राह्मी का विकास दक्षिणी सेमेटिक लिपि से हुआ है। ऐसा मानने वालों में टेलर, सेय बादि के नाम मुख्य हैं । ___ कुछ विद्वान ब्राह्मी-लिपि का उद्भव दक्षिणी सेमेटिक की शाखा अरबी लिपि से मानते हैं । पर, वस्तुतः दक्षिणी सेमेटिक लिपि और उसकी शाखा-लिपियों से ब्राह्मी का सादृश्य नहीं है। अरबवासियों का भारतीयों के साथ पुराना सम्बन्ध रहा है केवल इस आधार पर अरबी से बालो के उद्भव की कल्पना करना संगत नहीं है। ऐतिहासिक साक्ष्य है कि अरबवासियों और भारतीयों का सम्पर्क इतना पुराना नहीं है, जिससे ब्राह्मी लिपि के अरबी लिपि से निकलने की कल्पना की जा सके, जो सम्राट अशोक के समय एक समृद्ध लिपि थी। डो० राइस डेविड्स डा. राइस डेविड्स ने एक ऐसी लिपि की परिकल्पना की है, जो सेमेटिक अक्षरों के उद्भव से पूर्व ही यूफेटिस नदी की घाटी में ज्यवहृत थी। डा. राइस डेविड्स के अनुसार 2010_05 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२८९ ब्राह्मी का सीधा सम्बन्ध उस प्राक्तन लिपि से है, जो सेमेटिक लिपियों की भी जनयित्री थी। इस अभिमत के समक्ष बहुत से ऐसे स्पष्ट प्रश्न-चिह्न हैं, जो असमाधेय प्रतीत होते हैं; अतः इस पर ऊहापोह संगत नहीं लगता। भारत : ब्राह्मी का उत्पक्ति-स्थान । कतिपय पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् यह नहीं मानते कि ब्राह्मी किसो वैदेशिक लिपि से उद्भूत हुई। उनका मन्तव्य है 6ि ब्राह्मी का उत्पत्ति-स्थान भारतवर्ष है। एडवर्ड थामस, गोल्ड स्टूकर, राजेन्द्रलाल मित्र, लास्सेन, डासन, कनिधम आदि के नाम इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस विचारधारा के कतिपय विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में भारतवर्ष में आर्यभाषी जनता द्वारा किसी चित्र-लिपि का प्रयोग किया जाता था। सम्भवतः उसी से ब्राह्मी का प्रादुर्भाव हुआ। बूलर ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि भारत में जब कोई प्राचीन चित्र लिपि मिलती ही नहीं, तब यह कैसे कल्पना की जा सकती है कि ब्राह्मी का चित्र-लिपि से विकास हुआ। जब बूलर ने यह मत व्यक्त किया था, तब तक मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा का उत्खनन नहीं हो पाया था। इस उत्खनन के परिणाम स्वरूप ऐसे प्रश्न और शंकाएं स्वयं समाहित हो जाती हैं। डा० चटर्जी का विचार भारत के महान् भाषा-विज्ञानवेत्ता डा० सुनीतिकुमार चटर्जी के विचार इस सन्दर्भ में अनेक दृष्टियों से मननीय हैं। उन्हें अविकल रूप में यहां उद्धत किया जाता है : "भारत की जो लिपियां अभी तक पढ़ी जा सकी हैं, उनमें ब्राह्मी-लिपि सबसे प्राचीन है। यही भारतीय आर्यभाषाओं से सम्बन्धित प्राचीनतम लिपि है । हमारी हिन्दू-सभ्यता का इतिहास बहुत प्राचीन है। पुराण ईसा पूर्व बहुत हजार वर्षों की बात बतलाते हैं, लेकिन भारतवर्ष में ई. पू. ३०० के पूर्व की आर्य-भाषा में रचित कोई लेख अभी तक नहीं मिला है और न पढ़ा हो गया है। मौर्य युग की ब्राह्मी-लिपि को ही वर्तमान क्षेत्र में आधुनिक भारतीय लिपियों में आदि-लिपि कहना पड़ता है। ब्राह्मो-लिपि की उत्पत्ति के बारे में मतभेद है । अब तक करीब सभी समझते थे कि यह फिनिशीय अक्षरों ( जो ई० पू० १००० के पहले ही सीरिया देश के Phoenicia फिनिशिया में प्रचलित शैमोय परिवार की फिनिशीय भाषा के आधार पर बने ), से उत्पन्न हुई; या तो दक्षिण-अरब के रास्ते, नहीं तो ईरान की खाड़ी के रास्ते, द्राविड़ जाति के वणिकों की मार्फत ये अक्षर ई० पू० ८००-६०० के लगभग भारत में लाये गये और बाद में ब्राह्मणों के द्वारा परिवर्तित और परिवर्द्धित होकर इस अक्षरमाला 2010_05 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ ( ब्राह्मी ) की सम्पूर्णता साधित हुई। कोई-कोई फिनिशीय अक्षरों से ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते थे। वे अनुमान करते थे कि भारतवर्ष की मायभाषी जनता द्वारा सम्पूर्ण स्वतन्त्र रूप से, किसी प्रकार की मौलिक चित्र-लिपि से, ब्राह्मी की उत्पत्ति हुई है, सम्प्रति मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा में मिली सैकड़ों मुद्रालिपियों से एक नया मत प्रतिपादित हो रहा है कि प्राग-आयं युग की चित्र-लिपि का विकास ही ब्राह्मी-लिपि है। जो कुछ भी हो, यह बात ठीक है कि ई० पू० १००० के लगभग, अशोक आदि मौर्य सम्राटों के काल में व्यवहृत हमारी प्राप्त ब्राह्मी-लिपि की प्रतिष्ठा का काल माना जा सकता है।" ___ डा. चटर्जी ने कई विचारधाराओं का नवनीत उपस्थित करते हुए यहां जो संकेत किया है, प्रस्तुत प्रकरण के उपसंहार में समीक्षात्मक विवेचन के सन्दर्भ में यह उपयोगी होगा। भारत में लिपि-कला ऋग्वेद प्रभृति वेद भारतीय वाङमय में प्राचीनता की दृष्टि से ऋग्वेद का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय वाङमय ही नहीं, भारोपीय भाषा परिवार के समस्त उपलब्ध साहित्य में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उसका असाधारण महत्व है। ऋग्वेद में यत्र-तत्र इस प्रकार के संकेत ढूढ़े जा सकते हैं, जो लेखन-परम्परा के अस्तित्व को प्रकट करते हैं। उदाहरणार्थ, एक प्रयोग है"सहस्र मे वदतो अष्टकर्ण्य:' । यहां आठ कानों वाली हजार गौए देने का उल्लेख है । अष्टकर्ण्य का अभिप्राय उन गौओं से है, जिनके कानों पर किसी कारण से, जो धार्मिक परम्परा से सम्बद्ध हो सकता था अथवा किसी शुभ फल का द्योतक हो सकता था, आठ का अंक लिखा जाता रहा होगा । वसी गोओं को अष्टकर्णी कहा जाता होगा। आठ का अंक लिखने का ज्ञान होने का स्पष्ट आशय यह है कि ऋग्वेद के काल में लेखन-परम्परा या लिपि-कला विकसित रूप में थी। ऋग्वेद में गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों के नाम प्राप्त होते हैं। छन्दों के नाम प्राप्त होने का अर्थ है, धर्णों या मात्राओं की एक निश्चित संख्या-बद्ध पंक्ति-सूचक रचना, जिससे लिपि-ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध होता है। वाजसनेयी संहिता अर्थात् शुक्ल यजुर्वेद संहिता में इस प्रकार के संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे लिपि के अस्तित्व का सूचन होता है। कृष्ण यजुर्वेद की काष्क संहिता, मैत्रायणी संहिता और दैतिरीय संहिता में कई छन्दों का उल्लेख है तथा उनके पादों के वर्गों की संख्या १. भारत की भाषाएं और भाषा सम्बन्धी समस्याए', पृ० १७०-७१ 2010_05 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२९१ तक गिनाई गयी है। अथर्व-वेद में भी इस प्रकार के संकेत प्राप्त होते हैं, जिनमें छन्दों की संख्या तक का उल्लेख है । वहां एक स्थान पर छन्दों की ग्यारह संख्याए सूचित की गयी हैं। उपनिषद एवं ब्राह्मण ग्रन्थ छान्दोग्योपनिषद् में अक्षर व ईकार, ऊकार एवं एकार संज्ञाओं तथा तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्ण, स्वर, मात्रा व बल की चर्चा है। ऐतरेह ब्राह्मण में ओं को अकार, उकार तथा मकार के संयोग से निष्पन्न कहा है । शतपथ ब्राह्मण में एकवचन, बहुवचन, तीन लिंग आदि का विवेचन है। पंचविंश ब्राह्मण आदि में भी ऐसी सूचनाएं प्राप्त होती हैं, जिनसे लेखन-कला का अस्तित्व प्रमाणित होता है। ये ग्रन्थ निरुक्तकार यास्क और मष्टाध्यायीकार पाणिनि से पूर्ववर्ती माने जाते हैं । इससे अनुमित होता है कि वैदिक काल, उपनिषद्काल और ब्राह्मण काल में भारतवर्ष में लिपि-कला प्रचन्ति थी। तत्परक इतर वाङमय रामायण और महाभारत बहुत प्राचीन माने जाते हैं। फिर भी उन्हें यदि उतना प्राचीन न माना जाये तो कम-से-कम ई० पू. ४००-५०० तक तो उनका अस्तित्व सम्पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुका था। उनमें भी लिपि-कला सूचक उल्लेख हैं। संस्कृत-व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ अष्टाध्यायी है । उसके रचयिता पाणिनि थे। गोल्डस्टुकर ने अष्टाध्यायो का रचना-काल बुद्ध से पूर्व माना है। डा. बासुदेव शरण अग्रवाल ने उसका समय ई० पू० ४००-४३० स्वीकार किया है। उन्होंने पाणिनि-कालीन भारत नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ में प्रस्तुत विषय पर भी प्रकाश डाला है, जो पठनीय है। लिपि, लिपिकर, उन्हीं के परिवर्तित रूप लिबि, लिविकर आदि का अष्टाध्यायी में उल्लेख भाया है। वहां यवनानी शब्द बनाने के सम्बन्ध में भी नियमोल्लेख है । पातिककार कात्यायन और महाभाष्यकारा पतंजलि ने यवनानी का तात्पर्य यवनों को लिपि बतलाया है। ग्रन्थ आदि शब्द भी वहां आये हैं । इन सबसे पाणिनि के समय में भारत में लिपिशान था, यह सूचित होता है। प्रो० मैक्समूलर ने पाणिनि का समय ई० पू० चार सौ वर्ष माना हैं। उन्होंने लिखा है कि अष्टाध्यायी में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है, जिससे लिपि-ज्ञान का अस्तित्व सूचित होता हो । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के उक्त ग्रन्थ के प्रकाशन के पश्चात् इस सम्बन्ध में सब स्पष्ट हो गया है । वस्तुतः प्रो० मैक्समूलर की उक्त धारणा भ्रान्त थी। सम्भवतः टाध्यायी का उस दृष्टिकोण से वे सूक्ष्म अनुशीलन न कर पाये हों। 2010_05 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ऐसी सूचनाएं प्राप्त हैं, जो लिपि-ज्ञान को द्योतक हैं । अर्थशास्त्र का समय भो ई० पूर्व चौथी शती माना जाता है । वशिष्ठ धर्मसूत्र, मनुस्मृति, वात्स्यायन कामसूत्र आदि अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी लिपि-संकेतक उल्लेख हैं। बौद्ध वाङमय में अटिका बौद्ध पिटक वाङमय के ब्रह्मजालसुत्त नामक ग्रन्थ में किसी प्रसंग में एक खेल का वर्णन है, जिसका नाम वहां अक्खटिका दिया गया है। इसका संस्कृत रूप अक्षरिका होता है । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है --एक व्यक्ति द्वारा आकाश में कुछ अक्षर लिखे जाते या किसी अन्य व्यक्ति की पीठ पर अक्षर लिखे जाते, जिन्हें किसी दूसरे व्यक्ति को पहचानना होता । आकाश में अक्षर लिखे जाने का आशय है, अंगुली से आकाश में अक्षरों के आकार बनाने का उपक्रम करना । उसो तरह किसी की पीठ पर अक्षर लिखने का तात्पर्य भी वैसा ही है, अंगुली से पीठ पर अक्षर का स्वरूप आंकना । दूसरे व्यक्ति को उसे पहचान कर बताना होता कि आकाश में क्या लिखा गया ? जिसकी पीठ पर अंगुली से अक्षर स्वरूप अंकित किया जाता, उसे भी बताना होता कि वे कौन-कौन अक्षर थे। पहचान पाने और न पाने पर ही उस खेल में विजय-पराजय आघृत थी। यदि अक्षरों के स्वरूप या लिपि का प्रचलन नहीं होता, तो इस प्रकार के खेल की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। ब्रह्मजालसुत्त, जिसमें 'अक्खरिका' का उल्लेख है, सुत्तपिटक के दोघ निकाय के अन्तर्ती सोलक्खन्ध वग्ग का प्रथम सूत्र है। विनय पिटक और जातक ट्रान्ध पिटक वाङमय के प्रमुख अंग विनय पिटक में ऐसे प्रसग हैं, जिनसे लेखन-कला की प्रशस्ति तथा लेख, लेखक आदि शब्दों का सूचन प्राप्त होता है । आल्डन वर्ग ने विनय पिटक की ऐतिहासिकता ई० पू० चार शताब्दी से पहले की स्वीकार की है। जातक ग्रन्थ प्राचीन भारत के समाज, जीवन, कला, कौशल, विद्या, व्यवसाय आदि का चित्र उपस्थित करने वालो महत्वपूर्ण कृतियां हैं। महामहोपाध्याय डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जैसे विद्वानों के अनुसार इनमें लगभग ई० पूर्व छठी शताब्दी या उससे भो पहले के भारतीय जन-जीवन का चित्र उपस्थित है । जातक ग्रन्थों में लेखिनी, पुस्तक, पाठशाला, लेख, लेखक, अक्षर तथा काठ, बांस, पत्र, सुवर्ण-पत्र, काष्ठफलक आदि लेखनोपयोगी सामग्री का उल्लेख प्राप्त होता है। इनसे स्पष्टतया लेखन या लिपि-कला का संकेत मिलता है। ___ 2010_05 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२९३ जैन वाङमय में व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतो ) सूत्र में ब्राह्मी-लिपि का नाम आया है। समवायांग सूत्र तथा प्रज्ञापना सूत्र में १८ लिपियों का नामोल्लेख हुआ है। लिपियों के नाम-सम्बन्धी दूसरे उद्धरण भी पाद-टिप्पण में उल्लिखित किये गये हैं। जैन वाङमय में और भी अनेक स्थलों पर ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे लेखन तथा उससे सम्बद्ध उपकरणों पर प्रकाश पड़ता है । राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव का प्रसंग है । वहां पुस्तक-रत्न का वर्णन है । पुस्तक-रत्न शब्द के प्रयोग का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि पुस्तक को तब रत्न की तरह प्रशस्त माना जाता रहा हो । उस प्रसंग में उल्लेख है : "तब सूर्याभदेव के सामानिक परिषद् का (सामानिक परिषद् से उपपन्न ) देवता सूर्याभदेव को पुस्तक-रत्न देता है। सूर्याभदेव पुस्तक-रत्न को ग्रहण करता है, पुस्तक-रत्न को खोलता है, पुस्तक-रत्न को विधाटित करता है-पत्र उलटता है, पुस्तक-रत्न का वाचन करता है, ( उससे ) धार्मिक व्यवसाय ग्रहण करता है, पुस्तक-रत्न को वापिस प्रतिनिक्षिप्त करता है।" समवायांग सूत्र में ब्राह्मी लिपि के छयालीस मातृकाक्षर-मूल अक्षर बतलाये गये हैं। वृहत्कल्पभाध्य में पुस्तकों के पांच भेद किये गये हैं : गंडी, कच्छवि, मुट्ठि, संपुटफलक तथा छेदपाटी । आचार्य हरिभद्र रचित दशवकालिक सूत्र की टीका में भी प्राचीन आचार्यों की एतद्विषयक मान्यता के सन्दर्भ में पांच प्रकार की पुस्तकों की चर्चा है। निशीथ-चूर्णि में भी इनका उल्लेख है। समवायांग सूत्र की टीका में ताम्र, लोह, काष्ठ, पल्कल, दन्त, पत्र, रजत आदि पर अक्षर लिखने, उत्कीर्ण करने आदि का वर्णन है । वासुदेव हिण्डी में ताम्नपत्र पर पुस्तक लिखने-उत्कीर्ण करने आदि की चर्चा है। १. देखें, इसी अध्याय में 'जैन मान्यता' शीर्षक के अन्तर्गत पाद-टिप्पण। २. तएणं तस्स सूरियामस्स देवस्स सामाणिय परिसोववन्नगो देवो पोत्थरयणं उवणेंति, ततेणं सूरियामे देवे पोत्यरयणं गिण्हइ, पोत्थयणं मुयई, पोत्थरयणं विहाडेइ, पोत्थरयणं वाएति, धम्मिवं ववसायं गिण्हइ पोत्थरयणं पडिणिक्खमति । -राजप्रश्नीय सूत्र, पृ० १६७ ३. बंभीएणं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा । -समवायांग सूत्र, ४६ ४. वृहत्कल्पभाज्य, ३.३८२२ ५. समवायांग सूत्र टीका, पृ० ७८ ६. पृ०, १८९ -- 2010_05 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन जैन परम्परा में ऐसा भी प्राप्त होता है कि चक्रवर्ती चक्रवर्तित्व साध लेने के अनन्तर पर्वत पर अपना नामोल्लेखन करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में एक ऐसा ही प्रसंग है, जहां भरत चक्रवर्ती द्वारा ऐसा किये जाने का वर्णन है। वहां लिखा है :.........."तत्पश्चात् राजा भरत ने अपने अश्वों को निगृहीत किया, उन्हें मोड़ा और वह ऋषभकूट पर्वत के पास आया। अपने रथ के अग्रभाग से ऋषभकूट पर्वत का तीन बार स्पर्श किया और अश्वों को रोका। फिर छः तल वाले, बारह अंश वाले, आठ कोने वाले, अधिकरणी' के समान आकार वाले, सुन्दर वर्ण वाले काकिणी रत्न को लिया। उसे लेकर ऋषभकूट पर्वत की पूर्व दिशा के समतल भाग में लिखा : ''मैं भरत नामक चक्रवर्ती हूं। इस अवसर्पिणीकाल में तृतीय आरे के पश्चिम भाग में प्रथम राजा हूं। भरत क्षेत्र का अधिपति हूं। नरवरेन्द्र हूं। मेरा कोई प्रतिशत्रु नहीं है। मैंने भरत क्षेत्र को विजिवत किया है। इस प्रकार उसने आलेखन किया। आलेखन कर अपने रथ पर लौट आया।" कल्पसूत्र की टीका में भगवान् गहावीर के जीवन-वृत्त के प्रसंग में लिखा है कि जब वे आठ वर्ष के हुए, तब उनके पिता सिद्धार्थ ने महोत्सव पूर्वक उन्हें लेखशाला भेजा । अध्यापक को बहुमूल्य उपहार दिये और लेखशाला के विद्यार्थियों को अन्यान्य वस्तुओं के साथ मसीपात्र, लेखनी तथा पट्टी (स्लेट) आदि पठनोपकरण भी प्रदान किये 13 ___ अनुयोग-द्वार सूत्र में आवश्यक पर चार निक्षेपों के प्रसंग में 'आगमतः द्रयावश्यक' का वर्णन करते हुए अन्यान्य विशेषणों के साथ उसके अहीनाक्षण, अनत्यक्षर तथा अव्याधिद्धाक्षर, ५. लोहार का एक उपकरण। -पाइअसहमहण्णवो, पृ० ९६ १. तएणं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ २ ता रहं परावत्तइ २ ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ २ ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ २ ता तुरए णिगिण्हइ २ ता रहं वेइ २ ता छतलं दुगलसंसियं अट्ठकण्णिय अहिगरणिसं ठियं सोवण्णियं कागणिरयणं परामुसइ २ ता उसहकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि जामगं आउडेइ। अस्सपिणी इमीसे, तइआइ समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चक्कवट्टी, भरहोइअ नामविज्जेण । अहमंसि पढम राया, अहमं भरहाहिवो परवरिंदो। णत्यि महं पडिसत्त , जियं भए भारहं वासं। इति कटटू णामगं आउडेइ २ ता रहं परावत्तेइ .....। -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चक्रवर्ती-अधिकार, पृ० २१७-१८ २. कल्पसूत्र टोका ५, पृ० १२० ____ 2010_05 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास २६५ ये तीन विशेषण और दिये गए हैं, जिनसे अक्षरों का सूक्ष्म प्रयोग ध्वनित होता है। अक्षरों का सूक्ष्म प्रयोग जहां होगा वहां लिपि का अस्तित्व न हो, यह कैसे सम्भव होगा ? पोत्थकम्म और पोत्यकार शब्दों का प्रयोग भी इसी सूत्र में हुआ है । 'पोत्य' शब्द 'पुस्त' का प्राकृत रूप है। पुस्त से ही स्वार्थिक क प्रयय लगाकर पुस्तक शब्द बना है। टोकाकार ने पोत्थकम्म का अर्थ ताड़पत्र आदि पर वर्तिका आदि से लिखना बताया है। इसी प्रकार पुस्तक का प्राकृत रूप है। टोकाकार के अनुसार इसका तात्पर्य पुस्तक के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाला है । पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने का अर्थ पुस्तक को लेख-बद्ध या लिपि बद्ध करके पारिश्रमिक प्राप्त करना है। नई पुस्तक लिखने का अभिप्राय यहां नहीं है । आज की भाषा में उसे प्रतिलिपिकार या Copyist कहा जा सकता है। भारत में बहुत प्राचीन काल से लेखन-कला विद्यमान थी, यह इन उल्लेखों के साक्ष्य से प्रकट होता है। वैदिक और बौद्ध वाड मय के आधार पर किये गये विवेचन की तरह इन प्रसंगों की भी अपनी ऐतिहासिक महत्ता है। चीनी विश्वकोश ___ चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध विश्वकोश फा-बान-शु-लिन (रचना-काल ६६८ ई०) में ब्राह्मीलिपी के सम्बन्ध में उल्लेख है कि इसकी रचना ब्रह्म या ब्रह्मा नामक आचार्य ने की थी। ब्रह्म या ब्रह्मा द्वारा रचित होने के कारण इसका नाम ब्राह्मो पड़ गया। चीनी विश्वकोश का उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। भारतवर्ष को ब्राह्मी का उद्भव-स्थल मानने वाले विद्वानों में एडवर्ड थामस आदि के मन्तव्यानुसार मूलत: ब्राह्मो लिपि का आविष्कार द्राविड़ों द्वारा हुआ । डा० राजबली पाण्डेय ने इस मत का खण्डन किया है। उनका अभिमत है कि द्रविड़ों का मूल स्थान दक्षिण भारत है, न कि उत्तर भारत । दक्षिण भारत में ब्राह्मी-लिपि के अभिलेख प्राप्त नहीं होते, वे उत्तर भारत में ही पाये जाते हैं। यदि द्रविड़ों द्वारा ब्राह्मी-लिपि आविष्कृत होती, तो दक्षिण भारत में ब्राह्मी के अभिलेख प्रभृति सामग्री मिलनी चाहिए, जो नहीं मिलती। डा० पाण्डेय भाषा-विज्ञान को दृष्टि से भी इस प्रश्न पर विचार करते हैं। द्रविड़१. से किं तं आगमओ दव्यावस्सयं ? आगमओ दवावस्सयं-जस्सणं आवस्सएति पदं सिक्खितं ठितं जित मितं परिजितं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । --अनुयोगद्वार सूत्र, पृ० ७ 2010_05 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ भाषाओं में तमिल सबसे प्राचीन भाषा है। उनके कथन का सार है कि तमिल में कवर्ग, घवर्ग, टवर्ग आदि धर्गों में केवल पहले और पांचवें वर्गों का ही उच्चारण होता है अर्थात् बीच के वर्षों की ध्वनियां तमिल में अनुच्चारित रहती हैं। ब्राह्मी में वर्गो के पांचों वर्ण हैं । यदि ब्राह्मी का उद्भव द्रविड़ों से होता, तो उसमें तमिल का अनुसरण अवश्यम्भावी था, जो नहीं मिलता । डा० भोलानाथ तिवारी ने इसकी आलोचना करते हुए जो लिखा है, प्रस्तुत विषय में अत्यन्त उपयोगी है। वे लिखते हैं : "किसी ठोस आधार के अभाव में यह कहना तो सचमुच ही सम्भव नहीं है कि ब्राह्मी के मूल आविष्कर्ता द्रविड़ ही थे, पर पाण्डेयजी के तर्क भी बहुत युक्तिसंगत नहीं दृष्टिगत होते । यह सम्भव है कि द्रविड़ों का मूल स्थान दक्षिण में रहा हो, पर, यह भी बहुत से विद्वान् मानते हैं कि वे उत्तर भारत में भी रहते थे और हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो जैसे विशाल नगर उनकी उच्च संस्कृति के केन्द्र थे । पश्चिमी पाकिस्तान में ब्राहुई भाषा का मिलना ( जो द्रविड़ भाषा हो है ) भी उनके उत्तर भारत में निवास की और संकेत करता है। बाद में सम्भवतः आर्यों ने वहां पहुंचकर उन्हें मार भगाया और उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली।..........."पाण्डेयजी की दूसरी आपत्ति तमिल से ब्राह्मी में कम ध्वनि होने के सम्बन्ध में है। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव नहीं है कि आर्यों ने तमिल या द्रविड़ों से उनकी लिपि ली हो और अपनी भाषा की आवश्यकता के अनुकूल उनमें परिवद्धन कर लिया हो। किसी लिपि के प्राचीन या मूल रूप का अपूर्ण तथा अवैज्ञानिक होना बहुत सम्भव है और यह भी असम्भव नहीं है कि आवश्यकतानुसार समयसमय पर उसे वैज्ञानिक तथा पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया हो। किसी अपूर्ण-लिपि से पूर्ण लिपि के निकलने की बात तत्त्वतः असम्भव न होकर बहुत सम्भव तथा स्वाभाविक है।"1 क्या आर्य जाति के लोग वस्तुतः भारत से बाहर के थे ? क्या द्रविड़ जाति के लोग ही भारत के मूल निवासी थे ? क्या मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से उद्घाटित सहस्रों वर्ष पूर्व की संस्कृति द्रविड़ संस्कृति थी ? क्या वहां से प्राप्त चित्र-लिपि-सूचक सामग्री भारत के मूल निवासियों द्वारा प्रयुक्त किसी लेखन-क्रम की द्योतक है ? इत्यादि अनेक पहलू हैं, जिन पर सूक्ष्म परिशीलन और गवेषणा की अब भी बहुत आवश्यकता है। यदि विद्वज्जनों का अनवरत प्रयास रहा, तो हो सकता है, कुछ ऐसे नूतन तथ्य प्रकाश में आयें, जिनसे अब तक जो तमसावृत हैं, ऐसे प्रश्न समाधान पा सकें, नया आलोक प्रकट हो सके। इसके अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती है। १. भाषा विज्ञान, पृ० ५०२ 2010_05 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२६७ महामहोपाध्याय डा० ओझा महामहोपाध्याय डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा लिपि-विद्या के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उन्होंने भारत की प्राचीन लिपियों पर महत्वपूर्ण गवेषणा-कार्य किया। इस सम्बन्ध में प्राचीन लिपि-माला उनकी बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है। ब्राह्मी-लिपि के सम्बन्ध में डा० ओझा लिखते हैं : "जितने प्रमाण मिले हैं, चाहे प्राचीन शिलालेखों के अक्षयों की शैलो और चाहे साहित्य के उल्लेख, सभी यह दिखाते हैं कि लेखन-कला अपनी प्रौढ़ावस्था में थी। उसके आरम्भिक विकास का पता नहीं चलता। ऐसी दशा में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मी-लिपि का आविष्कार कैसे हुआ और इस परिपक्व रूप में वह किन-किन परिवर्तनों के बाद पहुंची ।""निश्चय के साथ इतना ही कहा जा सकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं, वहां तक ब्राह्मो-लिपि अपनी प्रौढ़ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता।" बहुत अन्वेषण-अनशीलन के पश्चात् डा. ओझा ने जो निष्कर्ष निकाला, उसके अनुसार ब्राह्मो-लिपि और फिनिशियन लिपि का केवल एक ही अक्षर ( ब्राह्मी का ज और फिनिशियन का गिमेल ) मिलता है। इतने से आधार पर किन्हीं दो लिपियों की परस्पर सम्बद्धता या किसी एक को टूसरी का उद्गम मानना कैसे सगत हो सकता है ? आधार बहुत साधारण तथा अत्यल्प और उस पर निर्णय इतना बड़ा, कैसे संगत हो सकता है । डा० ओझा निःसन्देह अपने विषय के अधिकारी विद्वान थे । उन्होंने इस विषय पर अनवरत काम किया। उनके निष्कर्ष उपेक्ष्य नहीं माने जा सकते । उन पर और चिन्तन तथा अनुशीलन किया जाना चाहिए। अशोक के पूर्ववर्ती दो शिलालेख सम्राट अशोक के ही शिलालेख प्राचीन भारत में व्यवहृत लिपि के प्राचीनतम वृहत् प्रतीक हैं, पर, छोटे-छोटे दो शिलालेख और प्राप्त हुए हैं, जिनमें एक राजस्थान में अजमेरा जिले के अन्तर्गत बदली ( बर्ली ) नामक गांव में है तथा दूसरा नेपाल की तराई में पिप्राधा नामक स्थान में 1 यद्यपि इनमें सामग्री बहुत कम है, पर, जो है, ऐतिहासिक दृष्टि से अशोक के अभिलेखों से भी प्राचीन है ; अत: प्राचीन लिपि के सन्दर्भ में उनके आधार पर कुछ और सोचने का, थोड़ा ही सही, अवकाश मिलता है। डा० ओझा ने उनके सम्बन्ध में लिखा है : “पहला एक स्तम्भ पर खुदे हुए लेख का १. प्राचीन लिपिमाला 2010_05 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ टुकड़ा है, जिसकी पहली पंक्ति में 'वीर (1) य भगव (त) ' और दूसरी में 'चतुरासिति व (स) खुदा है । इस लेख का ८४ वां वर्ष जेनों के अन्तिम तीर्थंकर वीरा ( महावीर ) के निर्वाण संवत् का ८४वर्ष होना चाहिये । यदि यह अनुमान ठीक हो, तो यह लेख ई० पू० ५२७ - ८८ = ४४३ का होगा । इसकी लिपि अशोक के लेखों से पहले की प्रतीत होती है । इसमें 'बोराय' का 'वी' अक्षर है । उक्त 'वी' में जो 'ई' की मात्रा का चिह्न है, वह न तो अशोक के लेखों में और न उनसे पीछे के किसी लेख में मिलता है, अतएव यह चिह्न अशोक से पूर्व की लिपि का होना चाहिए, जिसका व्यवहार अशोक के समय तक मिट गया होगा और उसके स्थान में नया चिह्न व्यवहृत होने लग गया होगा । दूसरे अर्थात् पिप्रावा के लेख से प्रकट होता है कि बुद्ध की अस्थि शाक्य जाति के लोगों ने मिल कर उस स्तूप में स्थापित की थी । इस लेख को बूलर ने अशोक के समय से पहले का माना है । वास्तव में यह बुद्ध के निर्वाण-काल अर्थात् ई० पू० ४५७ के कुछ ही पीछे का होना चाहिये इन शिलालेखों से प्रकट है कि ई० पू० की पांचवीं शताब्दी में लिखने का प्रचार इस देश में कोई नई बात नहीं थी ।"" । डा० ओझा ने जो विचार व्यक्त किये हैं, उनके सन्दर्भ में सिन्धु घाटी में मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में निकली चित्र-लिपि की ओर पुनः हमारा ध्यान जाता है । यद्यपि उस चित्र-लिपि का अब तक इतना विश्लेषण नहीं हो सका है, जिस पर कहा जा सके कि ब्राह्मी लिपि उसी का विकसित रूप है, पर, इस प्रकार की सम्भावना ही है । तो बलवत्तर होती उपसंहार एक प्रश्न-चिह्न ? विद्वानों द्वारा किये गए वैचारिक ऊहापोह और मत-स्थापन के वैविध्य के सन्दर्भ में प्रस्तुत विषय पर निश्चित भाषा में कुछ कहा जा सके, यह सम्भव नहीं है । पर कुछ पहलू हैं, जिन पर कुछ विचार करना है, जिनमें एक यह है, जो एक प्रश्न-चिह्न के रूप में विद्यमान है | शिलालेखों के रूप में प्राप्त मिले हैं, वे लिपि की दृष्टि से ब्राह्मी लिपि के स्पष्ट प्राचीनतम उदाहरण अशोक के हैं । बड़ली (बर्ली) और पिप्राबा के जो छोटे-छोटे अभिलेख अधिक और स्पष्ट तथ्यपरक नहीं हैं; अतः इस प्रकार कहना यथार्थ से दूर नहीं होगा कि अशोक के शिलालेखों से पूर्ववर्ती कोई ठोस - चक्षुगंय आधार नहीं है, जो ब्राह्मी लिपि १. प्राचीन लिपिमाला, पृ० २, ३ 2010_05 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-शाला का उद्भव और विकास [२६ का सूचक हो । यदि ब्राह्मी लिपि बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रचलित रही हो, तो फिर ऐसा क्यों है कि अशोक से पूर्व का कोई भी शिलालेख, गुहालेख, स्तम्भ लेख आदि नहीं मिलता, जो ब्राह्मी या और किसी लिपि का सूचक हो । इनके अतिरिक्त और भी कोई ऐसी वस्तु नहीं मिली, जिस पर कुछ लिखा हो । धार्मिक ग्रन्थों के लिए तो कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी, इसलिए वे लिपि-बद्ध नहीं किये गये; क्योंकि वैसा करना आवश्यक नहीं समझा गया । ऐसी भी मान्यता रही हो कि शास्त्र-ज्ञान लेखन द्वारा सर्व-सुलभ हो जाने से कहीं अनाधिकारी के पास न चला जाये, इसलिए सम्भवतः शास्त्र-लेखन वर्जित रहा हो। पर, धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी ऐसी अनेक स्थितियां सम्भाव्य थीं, जहां लिपिप्रयोग हो सकता था। ताम्रपत्र, सुवर्णपत्र, रजतपत्र, सिक्के, मुद्राए आदि कुछ भी तो नहीं मिलते । पुनः-पुनः यह प्रश्न उठता है, ऐसा कैसे हुआ ? एक कल्पना भारतवर्ष में एक प्रवृत्ति रही है, बहुत बड़े विद्वान्, लेखक या साहित्यकार अपनी रचना में अपना नाम नहीं देते रहे हैं, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से साहित्यिक क्षेत्र में एक दुःखद परिणाम देखा जा सकता है। उनके ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं, जो कर्ता और काल आदि की दृष्टि से सन्दिग्ध हैं । केवल कल्पना द्वारा अथवा इधर-उधर से बटोरे हुए अस्त-व्यस्त आधारों द्वारा रचयिता और रचना-काल का कुछ अनुमान बांधा जाता है। ऐसा करने के पीछे विद्वानों का अभिप्राय अपनी चर्चा से दूर रहना था, क्योंकि वे आत्म-प्रचार, भात्मइलाधा या लोकेषणा से सदा बचे रहना चाहते थे। केवल इतनी-सी उनकी भावना रहा करती, वे एक उत्कृष्ट तथा उपादेय कृति का सर्जन करा सके। इस सन्दर्भ में क्या यह कल्पना करना अतिरंजित होगा कि हो सकता है, विद्वानों के अनुसरण पर प्राचीन काल के सम्राटों, शासकों और विशिष्ट जनों की भी सम्भवतः यह प्रवृत्ति रहो हो, वे उत्तमोत्तम कार्य तो करें, पर, ऐसा कोई मूर्त या स्थूल प्रतीक खड़ा न करें, जो उनकी प्रशस्ति और कीर्ति को उज्जीवित बनाये रख सके । ___एक अन्य पहलू भी विचारणीय है, शिलालेख आदि केवल प्रशस्तिमूलक ही हों, ऐसा नहीं है । वे घटनामूलक, सत्प्रचारमूलक भो तो हो सकते थे। पेसा होने में क्या बाधा थी? प्रश्न यथार्थ की कोटि से बाहर का नहीं है, पर, वास्तविक समाधान पकड़ में नहीं आता । डा० चटर्जी आदि विद्वानों के अनुसार लगभग एक हजार वर्ष ई० पू० ब्राह्मी अपने विकसित रूप में थी। डा. ओझा भी प्राचीन काल से ही इसकी परिपक्वता और व्यवहायोपयोगिता की पुष्टि करते हैं। ____ 2010_05 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ऋग्वेद के लिपि-सूचक संकेतों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि यदि विलम्बित से विलम्बित भी मानें तो ऋग्वेद का अन्तिम मण्डल ई० पू० १२०० से पश्चाद्वी नहीं है, अन्य मण्डल तो और भी प्राचीन हैं। इस प्रकार ई० पू० १२०० से पहले ब्राह्मी लिपि का अस्तित्व होना चाहिए। एक ओर यह सब, दूसरी ओर अशोक के अभिलेखों के पूर्व वैसा कुछ न मिलना, जिससे लेखन सिद्ध हो, कुछ निराशा उत्पन्न करता है। एक और कल्पना कहीं ऐसा तो नहीं हुआ हो, ब्राह्मो का पूर्ववर्ती कोई रूप रहा हो, जो उतना समृद्ध और व्यवहार्य न हो, जिसका अभिलेखों में समीचीनता से प्रयोग हो सके । फिनिशिया आदि पश्चिम एशिया के देशों के लोगों के साथ भारतवासियों का व्यावसायिक प्रयोजन से जो सम्पर्क बढ़ा, तब यह स्वाभाविक था, एक-दूसरे की विशेषताओं का आदान-प्रदान हो । उस प्रसंग में भारतीयों ने अपनी लिपि को कुछ परिष्कृत किया हो। क्योंकि उन्हें वैसे वैदेशिक लोगों के साथ व्यवहार चलाना था, जिनकी अपनी लिपि थी। उस परिष्कार के परिणाम-स्वरूप उन ( भारतीयों ) को लिपि विकसित हुई हो। शताब्दियों की अवधि बीतने पर उसका और अधिक सम्मान हुआ हो और बह शिलालेख आदि में प्रयोग-योग्य हो गयी हो। ___ भारत के पुरातन कला-कौशल की प्रशस्ति के पक्षपाती इस कल्पना पर अन्यथा भी सोच सकते हैं। सम्भवतः ऐसा भी उनके मन में आ सकता है, यह अधुनातन पाश्चात्य मोवृत्ति का द्योतक है। किन्तु, प्रस्तुत प्रयोजन ऐपा नहीं है। जब तक कोई ठोस आंधार प्राप्त नहीं होता, उस तक पहुंचने के प्रयत्न में कल्पनाए. करनी ही होती हैं, जो अनेक प्रकार की हो सकती हैं; अतः प्रस्तुत उल्लेख केवल कल्पना मात्र है। बिद्वज्जन इस पक्ष पर भी विचार करें। केवल इतने मात्र से आज के अनुसन्धान-प्रधान युग में काम नहीं चल सकता कि हमारे ग्रन्थों में ब्राह्मी की प्रशस्ति प्राप्त है। वह प्राचीन काल से परम समृद्ध रही है। अनुसंधान और गवेषणा का पथ अवरोध नहीं सहता। वह सदा गतिशील रहता है। वह इयता और इत्थंभूतता के जड़ बन्धन में जकड़ा नहीं रहता। वह नवनवोन्मेषशाली होता है; इसलिए केवल प्रशस्ति की भाषा ( Superlative Language ) में ही नहीं कहना होगा, न्याय और युक्ति द्वारा प्रमाणित तथ्य प्रस्तुत करने होंगे। ब्राह्मी-लिपि के प्रसंग में इन्हीं कुछ करणीयताओं की मांग है। आशा है, अनुसन्धित्सु जन इसे पूरा करने में संलग्न होंगे। यह किसी एक का नहीं, सब का काम है। वे ज्यों-ज्यों गम्भीर परिशीलन और गवेषणा ____ 2010_05 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ ३०१ में आगे बढ़ेंगे और नूतन तथ्य प्रकाश में आयेंगे, ऐसी आशा करना अनुचित नहीं होगा । ब्राही से विभिनलिपियों का विकास ब्राह्मी के अक्षर बहुत सरल थे। उनके लिखने में अपेक्षाकृत अधिक सुविधा थी। उनमें मात्राओं की अनावश्यक बहुलता नहीं थी। अक्षरों की रचना ग्रीक या लैटिन कैपिटल लेटस ( Capital Letters ) जैसी थी। निम्नांकित अक्षरों के उदाहरण से यह भली-भांति प्रकट होता है : ब्राह्मी देवनागरी ब्राह्मी देवनागरी 500 + N AF : -1007 R1 व्यंजनों से मिलने वाले स्वरों के विशेष चिह्न व्यंजनों के मस्तक, पर, शरीर आदि पर लगाये जाते थे। इस पद्धति का प्रभाव आज भो भारतीय अक्षरों पर प्राप्त होता है। ब्राह्मी-लिपि के अक्षर जब तक प्रस्तर-शिलाओं पर छैनी से उत्कीर्ण किये जाते रहे, तब तक कोई परिवर्तन नहीं आया; क्योंकि यह कार्य बहुत धीमी गति से होता है। यह शीघ्रता का काम नहीं है। . शिलालेखों के पश्चात् वह युग आता है, जब अक्षर भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाने लगे। शिलालेखों की तुलना में इन पर लिखे जाने की गति में अन्तर आया। कीलक या लेखिनी छैनी से तेज चलती है। गति में शीघ्रता या तीव्रता आने के कारण अक्षरों का रूप कुछ परिवर्तित होने लगा। ब्राह्मी-लिपि का आदि रूप अधिकांशतः सीधी आकृति का था। लेखन में प्रयुक्त होने के परिणाम-स्वरूप वह जटिल होने लगा। भारत के भिन्नभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की प्रादेशिक भाषाओं के साहचर्य से ब्राह्मो की परिवर्तित होती हुई अक्षरमाला परस्पर कुछ-कुछ जटिलतापूर्ण भिन्न रूप लेने लगी। यदि आज विभिन्न प्रदेशों में व्यवहृत होती अक्षरमालाओं की ब्राह्मी अक्षरों से तुलना की जाये, तो यह स्पष्ट ___ 2010_05 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्रतोत होगा । सारांश यह है कि भारतवर्ष में प्रचलित लिपियां ब्राह्मी से भारत की भाषाएं और भाषा सम्बन्धी समस्याएं नामक पुस्तक कुमार चटर्जी ने ब्राह्मी से विकसित लिपियों का एक मानचित्र दिया है । उपयोगी होने से उसे यहां दिया जार हा है : 2010_05 [ खण्ड : २ विकसित हुई हैं । में डा० सुनीति विवेच्य प्रसंग में Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ 2010_05 प्राचीन भारत की ब्राह्मी-लिपि कुषाण लिपि दक्षिण भारत की लिपि (घट्ट झ० तु ) गुप्त लिपि पल्लव ग्रन्थ मलयालम तमिल तेलुगु कानडी ब्रह्म, कम्बोज और श्याम के अक्षय मध्य एशिया उत्तर-पश्चिम भारत (शारदा) मध्यदेश और राजस्थान गुर्जर ( नागर) पूर्व भारत (कुटिल) प्राचीन कुची तथा खोतानी भाषा के अक्षर देवनागरी, गुजराती, कैथी बगला, आसामी, मैथिली, नेपाली, उड़िया यवद्वीप और बलि द्वीप आदि के अक्षर (पूर्व प्रभाष ) कश्मीरी, गुरुमुखी तिब्बती Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ब्राह्मी लिपि के विकास के मानचित्र से ज्ञात होता है कि वह भारत से बाहर भी प्रसूत हुई । अन्य लिपियों पर उसका प्रभाव भी पड़ा 1 प्राचीन कुची, खोतानी, यवद्वीप तथा बलिद्वीप आदि की भाषाओं के अक्षरों की निष्पत्ति और विकास में वह सहायक हुई । गान्धार देश, जिसमें पेशावर, यावलपिण्डी तथा काबुल आदि का क्षेत्र रहा है, मैं भी यह लिपि प्रचलित थी । वहां के पुराने ध्वंसावशेषों में ऐसे अनेक सिक्के मिले हैं, जिन पर ब्राह्मो तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों में अक्षर खुदे हुए हैं । सारांश यह है कि एक ऐसा समय रहा है, जब ब्राह्मी भारत की राष्ट्रीय लिपि थी तथा उसने आस-पास के देशों क लिपियों को भी प्रभावित किया । खरोष्ठी लिपि खरोष्ठी : प्रयोग ब्राह्मी के अतिरिक्त खरोष्ठी लिपि में भी कतिपय शिलालेख हैं, अत: उस लिपि पर संक्षेप में विचार करना प्रसंगोपात्त है । खरोष्ठी लिपि के प्राचीनतम उदाहरण अशोक के पश्चिमोत्तर के -- शाहबाजगढ़ी और मानसेवा के शिलालेख हैं । कांगड़ा आदि के भी कुछ शिलालेख हैं, जिन में खरोष्ठी का प्रयोग हुआ है । इस लिपि का प्रयोग वैदेशिक राजाओं के अभिलेखों तथा सिक्कों आदि में भी होता रहा है । इस लिपि के प्रयोग का समय लगभग ई० पू० चौथी शती से ईस्वीं तीसरा शताब्दी तक का है अर्थात् सात शताब्दियों तक इसका प्रयोग होता रहा । खरोष्ठी इण्डो- वेक्ट्रियन, वैक्ट्रियन, बैक्ट्रो-पालि, चेक्ट्रो आर्यन तथा काबुलियन आदि नामों से भी अभिहित की गयी है । जैन वाङमय 1 ब्राह्मो लिपि के विवेचन के प्रसंग में जैन ग्रन्थों के जो अंश उद्धत किये गये हैं, उनमें से कुछ में ब्राह्मी के साथ-साथ खरोष्ठी का भी उल्लेख है, समवायांग सूत्र में जिन अठारह लिपियों का उल्लेख है, उनमें चौथे स्थान पर खरोष्ठिका नाम आया है, जो खरोष्ठी का पर्यायवाची है । प्रज्ञापना सूत्र के उद्धरण में भो चौथे स्थान पर खरोष्ठी का उल्लेख है । विशेषावश्यक टीका तथा कल्पसूत्र में जिस प्रकार ब्राह्मो का उल्लेख नहीं है, उसी प्रकार खरोष्ठी का भी कोई उल्लेख नहीं है। I कल्पनाएं : हेतु इस लिपि का खरोष्ठी नाम पड़ा, इस सम्बन्ध में विद्वानों ने अनेक प्रकार से कल्पनाएं कर उसे सिद्ध करने का प्रयास किया है । इस लिपि के नाम के शाब्दिक स्वरूप के आधार पर कुछ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में विश्लेषण किया है । उनके अनुसार इसमें खरा और उष्ट्र 2010_05 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] भारत में लिपि कान का उद्भव और विकास [३०५ दो शब्द मिले हुए है । खरा का गधा घोष उष्ट्र का अर्थ अट होता है। इसके अक्षर गधे भोर ऊट की तह कार में कुछ बेडंगे थे; अतः यह खरोष्ट्री कहलाई । खरोष्ठी खपेष्ट्री का ही विकार है। नर और उष्ट्र के शाब्दिक आधार पर व्याख्या तो हो गयो, पर, इसमें संगति प्रतीत नहीं होती। गधे और ऊंट दोनों के आकार का कोई मेल नहीं है । दोनों के आकार परस्पर में सर्वथा भिन्न है। खरोष्ठी के आकार का दोनों ( गधे और ऊंट के आकार ) के समन्वय से साहश्य घटित नहीं होता। यदि ऊंट के आकार के बेढंगेपन के साथ मेल बिठाने की बात होतो, तो वह किसी तरह सम्भाग्य थी। डा० प्रजिलुको ने भो इस शब्द के आधार पर विचार किया है। उनके अनुसार इसका नाम खरपृष्ठी है। गधे के चमड़े पर लिखे जाते रहने के कारण इसका यह नामकरण हुआ, जो बाद में खरोष्ठी के रूप में परिवर्तित हो गया। ___ डा. राजबली पाण्डेय ने जो इसको शाब्दिक व्याख्या की है, उसके अनुसार इसके अधिकांश अक्षर खर (गधे) के मोष्ठ की तरह है। इस प्रकार खर और मोष्ठ के मेल से खरोष्ठी कहलाई। डा० सुनोतिकुमार चटर्जी के अनुसार खरोष्ठी नाम खरोमेष (Kharosheth ) के संस्कृत रूप खरोष्ठ से बना है । खयोशेष हिम भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ लिखावट है। हिन भाषा से यह शब्द इधर पाया है। चीनी भाषा के विश्वकोश फा-बान-शु-लिन में खरोष्ठ नामक व्यक्ति को इस लिपि का निर्माता कहा है । उसो के नाम पर इस का खरोष्ठी नामकरण हुआ। कुछ विद्वानों का कहना है कि यह लिपि सीमाप्रान्त के खरोष्ठ संज्ञक अधे सभ्य लोगों द्वारा व्यवहृत रही है, इसलिए उनके नामानुरूप इसका नाम खरोष्ठो पड़ गया। . सिलवा लेषी के मन्तण्यानुसार काशगर कभी इस लिपि का मुख्य केन्द्र रहा है। चीनी भाषा में काशगर का नाम "किया -शु-ता-ले" है। उसका परिवर्तन होते-होते खरोष्ठ हो गया, जिससे खरोष्ठी शब्द बना। मामक व्युत्पत्ति कुछ लोग आर्मेइक भाषा के सरो? शब्द के साथ इसे संयुक्त करते है। कभी-कभी भ्रामक युत्पत्ति के कारण ऐसी गडबड़ी हो जाती है। दो शब्दों की पारस्परिक ध्वनि-समता को देखकर किसो और ही अर्थ के शब्द को अन्य समझ लेना और तत्सदृश किसी अन्यायक शब्द 2010_05 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ को परिष्कृतता की दृष्टि से उसके स्थान पर रख देना भ्रामक व्युत्पत्ति है। खरोट के साथ भी ऐसा ही हुआ, इस प्रकार. कहा जाता है । खरोट को खरोष्ठ में परिवर्तित कर दिया गया और उससे खरोष्ठी बना लिया गया । विभिन्न विद्वानों ने खरोष्ठी के नाम के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे अधिकांशतः अपनी-अपनी दृष्टि से सम्भावनात्मक कल्पनाए हैं । ऐतिहासिक तथ्य या ठोस प्रमाण जैसा उनके साथ नहीं है। आमइक भाषा के खरो? शब्द की भ्रामक व्युत्पत्ति का जो उल्लेख किया गया है, वह विशेष रूप से विचारणीय है। ‘खरोष्ठी के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में जब आगे विचार करेंगे तब आर्मेइक का प्रसंग आयेगा, जिससे यह पहलू कुछ स्पष्ट होगा। खरोष्ठी का उदभव ___ डा. राजबली पाण्डेय खरोष्ठो को भारतवर्षोत्पन्न स्वीकार करते हैं। Indian Palaeography ( भारतीय प्राचीन शिलालेखों का अध्ययन ) नामक पुस्तक में उन्होंने अपने इस मत का प्रतिपादन किया है। उनका मत विशेषतः तार्किक ऊहापोह पर आधृत है। प्रस्तुत विषय को यथार्थतः सिद्ध करने के लिए जैसे प्रमाण चाहिए, नहीं दिखाई देते। आमइक लिपि में खरोष्ठी की उत्पत्ति अनेक विद्वान् खरोष्ठी लिपि का उद्भव आर्मेइक लिपि से मानते हैं । उसकी दो शाखाए थीं-एक फिनिशियन तथा दूसरो आर्मेइक । आर्मेइक लिपि से अनेक लिपियां उद्भूत हुई, जिनमें हिब्रू, पहलवी तथा नेबातेन के नाम विशेष रूप से लिये जा सकते हैं । इनमें नेबातेन से सिनेतिक नामक लिपि का उद्भव हुआ और उससे पुरानो अरबी का । ऐसा माना जाता है कि ई० पूर्व चतुथं या पंचम शताब्दी में आर्मे इक लिपि एशिया माइनर से लेकर गान्धार तक अर्थात् लगभग समग्र पश्चिम एशिया में प्रसृत पारसीक साम्राज्य में व्यवहृत थी। प्राचीन काल से ही भारत का पश्चिम-एशिया के देशों से, विशेषत: ईरान आदि से सम्बन्ध रहा है । ई० पू० पांचवीं शती ( ५५८-५३० ) में ईरान में साइरस नामक बादशाह हुआ, जो एक उग्र विजयाभिलाषी शासक था । गान्धाय तक का भू-भाग उसने अधिकृत कर लिया था। तत्पश्चात् ईरान के बादशाह द्वारा (प्रथम) ने ( लगभग ई० पू० ५०० में ) भारतवर्ष का सिन्धु नदो तक का प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है, तब इन विजित प्रदेशों में आमइक से विकसित खरोष्ठी का प्रसार हुआ। काल-क्रम से इसमें उत्तरोत्तर विकास होता गया और इसे प्राकृत लिखने योग्य बना लिया गया। 2010,05 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्मेइक व खरोष्ठी भारत में लिपि कला का उद्भव और विकास प्रो० बूलर लिपि-विज्ञान के विशिष्ट वेत्ता थे । उन्होंने उस पर बहुत काम किया । खरोष्ठी पर भी उनका महत्वपूर्ण कार्य है । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो उपलब्धियां प्रस्तुत कों, वे ममनीय हैं । उनके अनुसार आर्मेइक लिपि खरोष्ठी से पूर्ववर्ती है । उन्होंने बताया कि तक्षशिला में आर्मेइक लिपि में जो शिलालेख प्राप्त हुआ है, उससे सिद्ध होता है कि आर्मेइक लोगों का भारतवासियों से सम्पर्क रहा है । खरोष्ठी लिपि का क्रम दाहिनी और से बाई ओर लिखे जाने का है। ठीक वैसा ही क्रम आर्मेइक लिपि का है। खरोष्ठी लिपि के ग्यारह अक्षरों की रचना और ध्वनि की आर्मेइक लिपि के अक्षरों से तुलना करते हुए बूलर ने बताया है कि वे परस्पर बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं । [ ३०७ बूलर ने जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे खोजपूर्ण हैं, प्रामाणिक हैं । महान् लिपि-विज्ञानवेत्ता महामहोपाध्याय डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा भी इन विचारों से सहमत हैं । युग के प्रमुख लिपि - विज्ञान वेत्ता डिरिंजय ने भी इसी मत को प्रश्रय दिया है । इस ब्राह्मी का प्रभाव खोष्ठी आमँइक, उससे निःसृत अरबी आदि की तरह दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती थी { उसका पश्चिमोत्तर भारत के लोगों में प्रचलन हुआ । भारत की राष्ट्रीय लिपि ब्राह्मी थी । खरोष्ठी पर ब्राह्मी का प्रभाव पड़ना अनिवार्य था । फलतः खरोष्ठी ब्राह्मो की तरह बाईं ओर से दाईं ओर लिखी जाने लगी । डिरिंजर आदि विद्वानों ने कुछ और तथ्यों का भी अनुमान किया है, जो ब्राह्मी के साहवयं से खरोष्ठी में आये । मूलतः खरोष्ठी में स्वर नहीं थे । ह्रस्व-स्वरांकन हेतु इसमें अक्षरों के साथ रेखा, वृत्त आदि लगाने का उपक्रम चला, जो ब्राह्मी का प्रभाव कहा जा सकता है । इसी प्रकार भ घ आदि कुछ वर्ण जो आर्मेइक में मूलत: नहीं थे, वे खरोष्ठी में भी नहीं थे । ब्राह्मी के आधार पर वे खरोष्ठी में बढ़ाये गये । 2010_05 एक परिपूर्ण लिपि खरोष्ठी पर ब्राह्मी के प्रभाव से यह प्रकट है कि खरोष्ठी लिपि - विज्ञान की दृष्टि से एक परिपूर्ण लिपि नहीं है । लिपि द्योतक है, अक्षरात्मक या वर्णात्मक ध्वनि द्योत्य । परिपूर्ण लिपि में कोई ध्वनि अद्योत्य नहीं होती । खरोष्ठी में वैसा है । ऊपर खरोष्ठी की जिन कमियों की ओर संकेत किया गया है, उनके अतिरिक्त उसमें और भी कमियां हैं । जेसे, उसमें दोघं स्वरा बिलकुल नहीं हैं । संयुक्त व्यंजनों के द्योतक अक्षर नगण्य से हैं; प्रायः नहीं हैं, ऐसा कहा जाना चाहिए । इसके वर्णों की मूलतः कुल संख्या ३७ है 1 · Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्डः २ संस्कृत-लेखन के लिए अनुपयुक्त खरोष्ठी संस्कृत भाषा के लिखे जाने के लिए उपयुक्त नहीं है। संस्कृत में संयुक्ताक्षर बहुत आते हैं । सन्धि-नियमों के अनुसरण के कारण उनकी संख्या और बढ़ जाती है । उन्हें व्यक्त करने में खरोष्ठी सक्षम नहीं है । यही कारण है कि संस्कृत-ग्रन्थ इसमें बिलकुल नहीं लिखे गये। तीसरी शताब्दी के अनन्तर खरोष्ठी का कोई अभिलेख नहीं मिलता। अर्थात् पश्चिम एशिया के विजेताओका शासन समाप्त होने के अनन्तर क्रमश: खरोष्ठी का प्रयोग अवरुद्ध होता गया । तब तक (तीसरी शताब्दी तक ) ब्राह्मी की भी वैसी ही स्थिति हो गयी थी। पर, उससे अभिनव लिपियां उद्भूत होने लगी थीं और वे क्रमशः उसका स्थान लेने लगो थीं। खरोष्ठी के साथ ऐसा नहीं था । वैसी स्थिति में अपने क्षेत्र में उसका प्रयोग चालु रहना चाहिए था, यदि वह मूलत: भारतीय लिपि होती। एक महत्वपूर्ण पहलू और है । संस्कृत लिखे जाने के लिए खरोष्ठी योग्य नहीं थी। यहां यह विचारणीय है कि मूलत: जो भारतीय लिपि हो और संस्कृत भाषा उसमें न लिखी जा सके, यह कैसे हो सकता है ? लिपि का सर्जन भाषा को मूर्त रूप देने के लिए होता है । यदि खरोष्ठी मूलतः भारतीय लिपि होतो, तो उसका प्रारम्भ से ही इस प्रकार का गठन होता कि भारत की प्रमुख भाषा संस्कृत के लिये वह व्यवहार्य हो सके। ऐसा नही होने से यह सिद्ध होता है कि इसका उद्गम किसो वैदेशिक स्रोत से है और मेइक से इसको सम्भावना है। ब्राह्मण-धर्म से सम्बद्ध कोई भी ग्रन्थ इस भाषा में नहीं लिखा गया। संस्कृत में ग्रन्थ न लिखा जाना समझ में आता है; क्योंकि उसमें तदनुरूप क्षमता नहीं थी। पर, ब्राह्मण-धर्म के किसी भी ग्रन्थ के इसमें लिपि-बद्ध न किए जाने के पीछे एक और हेतु भी हो सकता है। सम्भवतः खरोष्ठी के वैदेशिक स्रोत के कारण, उसे अपवित्र मानते हुये ब्राह्मण विद्वानों का ऐसा प्रयत्न रहा हो कि उनके धर्म का कोई भी ग्रन्थ उसमें न लिखा जाये । जैनों और बौद्धों के लिये पैसा नहीं था, क्योंकि उनका दृष्टिकोण भिन्न था। जैसा भी रहा हो, ब्राह्मणों द्वारा इसके सर्वथा न अपनाये जाने से यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि इसमें जुड़ा हुआ कोई कारण अवश्य था, जिससे इसकी पवित्रता बाधित यो और वह कारण इसकी वैदेशिकता के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता । . समवायांग सूत्र में लिपियों के अठारह नामों में पहला ब्राह्मी का, दूसरा यावनी का तथा चोथा खरोटिका या खरोष्ठी का है । यह स्पष्ट है कि यहां यावनो लिपि से यूनान देश की 2010_05 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [३०९ लिपि का आशय है । ऐसो ही स्थिति प्रतापना सूत्र के वर्णन के साथ है। वहां भी ब्राह्मी के अनन्तर अर्थात् दूपरी संख्या पर यावनी का नाम भाया है तथा चौथी संख्या पर खरोष्ठी का । इन तालिकाओं में और भी ऐसो लिपियां उल्लिखित हैं, जो नाम से वैदेशिक प्रतीत होतो हैं। अन्य देशों को लिपियों के नामों से यह आशय स्पष्ट हो जाता है कि लिपियों की जो तालिका समवायांग सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में है, वह सारी भारतीय लिपियों से सम्बद्ध हो, यह सम्भव नहीं है । यदि ऐसा होता, तो 'यावनी' जैसा शब्द क्यों आता, जो स्पष्ट ही यवनानी लिपि के अर्थ में है ? भगवान् ऋषभ ने पुत्री ब्राह्मी को लिपि-ज्ञान दिया, उसका यथार्थ अभिप्राय यही हो सकता है कि तब तक जो-जो भारतीय और अभारतीय लिपियां प्रचलित थीं, उन सबका ज्ञान उन्होंने कराया । विशेषावश्यक टीका में उल्लिखित लिपियों के नामों में पारसी लिपि का भो समावेश है। वह पारसोक साम्राज्य की लिपि होनी चाहिए, जो उत्तरी सैमेटिक लिपियों की आर्मेइक शाखा में से कोई एक लिपि हो सकती है। कल्पसूत्र में दी गई लिपियों की सूची में दो नाम खुरासानी और परसी वेदेशिक लिपियों से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं । पयसो सम्भवतः पायसी के लिए व्यवहृत हुआ है । ललितविस्तर में ६४ लिपियां बतलाई गई हैं, उममें दरद-लिपि, खास्य-लिपि, चीन-लिपि तथा हूण-लिपि के भो नाम हैं । ये लिपियां भारत से बाहर की प्रतीत होतो हैं । खरोष्ठी लिपि का मूल उद्गम-स्रोत कोई वेदेशिक लिपि था। भारत के कुछ भाग में कुछ समय तक घेदेशिक शासन पहने के समय इस लिपि को पल्लवन और विस्तार का विशेष अवसर मिला, जो बाद में वैदेशिक शासन को समाप्ति के साथ-साथ कम होता गया । शासक वर्ग की लिपि होने से उनके शासन काल में उसका समादृत रहना और उनके द्वारा शासित प्रजा में इसका प्रचलित होना स्वाभाविक था। शासन के चले जाने पर भी उसके परिपाठ ओर प्रश्रय में प्रसत कोई वस्तु तत्काल नहीं मिट जाती। किसो भी प्रचलित परम्परा के मिटने में समय लगता है, जिसके लिए संख्यात्मक दृष्टि से शताब्दियां भी अधिक नहीं हैं; अत: पारसोक सम्राटों के शासन के उन्मूलित हो जाने पर भी कुछ समय तक खरोष्ठो का प्रचलन यहाँ अवरुद्ध नहीं हुआ । अन्तत: तो अवरुद्ध हुआ हो, जो निश्चय ही होना था । 7 ____ 2010_05 2010_05 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ८ : आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय (Arsa (Ardhamagadhi) Prakrita and the Jaina Canonical Liturature) 2010_05 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-देशना __ तीथंडर अद्धमागधी में धर्म-देशना देते हैं। उनका अपना वैशिष्टय होता है, विषिष भाषा-भाषी श्रोतृगण अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे भावात्मक पुद्गल श्रोताओं को अपनी-अपनी भाषाओं में परिणित हो जाते हैं । जैन वाङमय में अनेक स्थलों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं । समवायांग सूत्र में जहां तीर्थङ्कर के चौंतीस अतिशयों का वर्णन है, वहां उनके भाषातिशय के सम्बन्ध में कहा गया है : "तीर्थकर अद्धमागधी भाषा में धर्म का भाख्यान करते हैं। उनके द्वारा भाष्यमान पद्ध'मागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद चतुष्पद, मृग, पशु पक्षी तथा सरीसृप प्रभृति जीवों के हित, कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणित हो जाती है।" प्रज्ञाफ्ना सूत्र में आर्य की बहुमुखी व्याख्या के सन्दर्भ में सूत्रकार ने भाषा-भायं का वर्णन करते हुये कहा है : "भाषा-बाय किन्हें कहा जाता है ? अनेक प्रकार के भाषा-आर्य प्राप्त हुए हैं-कहे गए है; जैसे-"जो अद्धमागधी भाषा बोलते हैं और ब्राह्मी-लिपि का प्रयोग करते हैं ( वे भाषा-आय हैं )।" ____ोपपातिक सूत्र का प्रसंग है : “........तब भगवान् महावीर अनेकविध परिषद-परिवृत (णिक ) बिम्बिसार के पुत्र कूणिक (अजातशत्रु) के समक्ष शरद् ऋतु के नव स्तमितनूतन मेघ के गर्जन के समान मधुर तथा गम्भीर, कौंच पक्षी के घोष के समान मुखर, दुन्दुभि की ध्वनि की तरह हृद्य वाणी से, जो हृदय में विस्तार पाती हुई, कण्ठ में धतुलित होती हुई तथा मस्तक में आकोण होतो हुई व्यक्त, पृथक्-पृपक स्पष्ट अक्षरों में उच्चारित, मम्मगा१. संप आदि रेंग कर चलने वाले प्राणी। २. भगवं च णं अवमागहीए भासाए धम्ममाइक्बइ। सावि य गं असमागही भासा मासिज्जमाणी तेसिं सोसिं आरियमणारियाणं दुष्पय-चउपय-मिष-पसु-पक्लि-सरीसिवाणं अस्पप्पणो हिय-सिव-सुहदाय भासताए परिणमइ । -समवायांग, ३४ ३. से किंत मासारिया ? भासारिया अगेगविहा पण्णता । तं जहा-जेणं ममागहाए भासाए मासइ जत्य वियणं बंमी लिवी पवत्तइ । -प्रज्ञापना, पर १.३१ 2010_05 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ अध्यक्त वचनता रहित, सर्वाक्षरसमन्वययुक्त, पुण्यानुरक्त, सर्वभाषानुगामिनी, योजनपर्यन्त श्रूयमाण अद्धमागधी भाषा में बोलते हैं, धर्म का परिकथन करते हैं । भगवान् वहां उपस्थित सभी आर्यों, अनार्यों को अग्लान रूप में धर्म का उपदेश करते हैं। वह अद्ध'मागधी भाषा उन सभो मार्यों, अनार्यों की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।' आचार्य हेमचन्द्र ने जिस प्रकार काव्यानुशासन के मंगलाचरण में जैनी वाक्, जिसकी उन्होंने स्वयं अद्धमागधी भाषा के रूप में व्याख्या को है, को सर्वभाषापरिणताम् पद से प्रशस्तता प्रकर की है, उसी प्रकार अलंकार-तिलक के रचयिता वाग्भट ने सर्वज्ञाश्रित अद्धमागधी भाषा की स्तवना करते हुए भाव व्यक्त किये हैं : "हम उस अद्धमागधी भाषा का आदरपूर्वक ध्यान-स्तवन करते हैं, जो सब की है, सर्वज्ञों द्वारा व्यवहृत है, समग्न भाषाओं में परिणत होने वाली है, सार्वजनीन है, सब भाषाओं का स्रोत है।" एक विशेष कथन-परम्परा को ज्ञापित करने को दृष्टि से उपयुक्त प्रसंग उद्धत कय गए हैं । भाषा-प्रयोग की अनेक विधाए होती हैं । जहां श्रद्धा, प्रशस्ति तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहां भाषा अर्थवाद-प्रधान ( Super lative ) हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता । पर, जहां भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप में समझ लें, तो कठिनाई नहीं होती। इसो दृष्टिकोण से ये प्रसंग श य और व्याख्येय हैं । महावीर इस युग के अन्तिम तोयंकर थे। इस समय उपलब्ध अद्धमागधी आगम-वाङमय उन्हीं की देशना पर आधृत है। प्रत्यागम : सुत्तागम आगम दो प्रकार के कहे गये हैं- १. अत्यागम (अर्थागम), २. सुत्तागम (सूत्रागम)। १. समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रणो भंमासार पुत्तस्स.............."सारदनवत्थणिय महुरगभीर कोचणिग्योसदुंदुभिस्सरे उवेवोत्थडाए करे वटियाए सिरे समाईणाए अगरलाए अमम्मणाए सवखरसणिवाईयाए पुणरताए सबभासाणु गामणिए सरस्सईए जोयण्णहारिणासरेणं अदमागहाए भाषाए भासंति अरिहा धम्म परिकहेंति तेसिं सम्बे सिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म-माइक्खंति । सा वि य गं अर्द्ध मागहा मासा तेसि सव्वेसिं आरियमणारियाणं अपणो सभासाए परिणमंति। –औपपातिक सूत्र, पृ० ११७, ११८ २. सर्वार्धमागधों सर्व भाषासु परिणामिनीम् । सार्वीयां सर्वतोवाचं सार्वज्ञों प्रणिदध्महे ॥ -अलंकार-तिलक, १.१ 2010_05 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आवं (अद्धमागयो) प्राकृत और आगम वाङमय [३१५ तीर्थकर प्रकीर्ण रूप में जो उपदेश करते हैं, वह अर्थागम है। अर्थात् विभिन्न अर्थों-विषयवस्तुओं पर, जब-जब प्रसंग आते हैं, तोर्थकर प्ररूपणा करते रहते हैं। उनके प्रमुख शिष्य जो गगधय कहे जाते हैं, तीर्थकर द्वारा अर्थात्मक दृष्ट्या किये गये उपदेशों का सूत्ररूप में संकलन या संग्रथन करते रहते हैं । आचार्य भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति में इसी आशय को अग्रांकित शब्दावलो में कहा गया है : "अर्हत् अर्थ का भाषण या व्याख्यान करते हैं। धर्मशासन के हित के लिए गणधर उनके द्वारा व्याख्यात अर्थ का सूत्र रूप में प्रथन करते हैं। इस प्रकार सूत्र प्रवृत्त होता है।" महावीर के गणधर : मागम-संकलन भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. इन्दूभूति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुवर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ६. अचलभ्रावा, १०. मेतार्य, ११. प्रभास । भगवान महावीर का श्रमण-संघ नो गणों में विभक्त था: १. गोदास गण, २. उत्तरबलियस्सय गण, ३. उद्देह गण, ४. चायण गण, ५. ऊवधातिक गण, ६. विश्ववादि गण, ७. कामर्षिक गण, ८. माणव गण तथा ६. कोटिक गण ।। गणधर : विशेषताएं गणवर आगम-वाङमय का प्रसिद्ध शब्द है । आगमों में मुख्यतया यह दो अर्थों में व्यवहृत हुआ है । तार्थ करों के प्रधान शिय गणवर कहे जाते हैं, जो तीथंकरों द्वारा अर्थागम के रूप में उपदिष्ट बान का द्वादश अगों के रूप में संकलन करते हैं। प्रत्येक गणवर के नियत्रण में एक गण होता है, जिसके संयम-जोवितव्य के निर्वाह का गणत्रय पूमा ध्यान रखते हैं। गणत्रय का उससे भी अधिक आवश्यक कार्य है, अपने अधीनस्थ गण को आगम-वाचना देना। तीर्थकर अयं रूप में जो आगनोपदेश करते हैं, उन्हें गणपस शब्द-बद्व करते हैं। अर्थ को दृष्टि से समस्त आगम-वाङमय एक होता है, परा, भिन्न-मिन्न गणवों द्वाया संग्रथित होने के कारण वह शाब्दिक दृष्टि से सर्वथा एक हो, ऐसा नहीं होता । शाब्दिक अन्तय १. समणस्य भगवओ महावोरस्त नव गणा होत्या। तं जहा-गोवास गणे, उत्तरबलि यस्सय गणे, उद्देह गणे, चारण गणे, उड्ढवाइय गणे, विस्सवाइ गणे, कामिदिव्य गणे, माणव गणे, कोडिय गणे। -स्थानांग, ९.२६ ____ 2010_05 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खड।२ स्वाभाविक है; अत: भिन्न-भिन्न गणधरों की वाचनाए शाब्दिक दृष्टि से सदृश नहीं होती। तत्वतः उनमें ऐक्य होता है। गणधर की तीर्थंकर-सापेक्षता गणधर का जो सीधा अर्थ गण का धारक, अधिपति, पावनादाता आदि है, वह एक विशेष परम्परा को लिये हुए है। इस शब्द का व्यवहार तोर्थकर-सापेक्ष है। तीर्थकरों की विद्यमानता में उनके प्रमुख शिष्य गणधर संज्ञा से अभिहित होते हैं। तीर्थकरों के अनन्तर या दो तीर्थंकरों के समय गणधर नहीं होते। इस प्रकार का गणधर का एक पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग है। मात्र अपने शब्दानुगामी साधारण अर्थ में गणधर शब्द प्रयोज्य नहीं है। गणधर का एक विशेष अर्थ स्थानांग सूत्र की वृत्ति में गणधर की एक विशेष व्याख्या की गयी है। वहां उसे साध्वियों का प्रतिजागरक' कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि गणधर का एक यह कार्य भी होता था कि यह साध्वीवृन्द को प्रतिजागृत रखने-उन्हें संयम-जीवितम्म में उत्तरोत्तर गतिशील रखने में प्रेरक रहे, उनका मार्गदर्शन करे। इस व्याख्या से यह प्रतीत होता है कि जैन संघ में साध्धियों की प्रगति, अध्यात्म-विकास एवं सुखपूर्वक संयमोत्तय जोवन-यापन की ओर सजगता बरती जाती रही है, जो जेन आम्नाय की उबुद्ध चेतना का परिचायक है। ग्यारह गणधर : नौ गण भगवान महावीर के संघ में गणों और गणधरों की संख्या में जो दो का अन्तर था, उसका कारण यह है कि पहले से सातवे तक के गणधर एक-एक गण की व्यवस्था देखते थे, पृषक्-पृथक् उसे आगम-वाचना देते थे, पर, आगे चाय गणधरों में दो-दो का एक-एक गण था। इसका तात्पर्य यह है कि आठ और नौवे गण में श्र..ण-संख्या कम थी; इसलिए पो-दो गणपरों पर सम्मिलित रूप से एक-एक गण का दायित्व था। तदनुसार अकम्पित और अचलभ्राता के पास आठवें गण का उत्तरदायित्व था तथा मैतार्य और प्रभास के पास नोवें गण का । महावीर की विद्यमानता : नौ गणधरों का निर्वाण कल्पसूत्र में कहा गया है : "भगवान् महापोर के सभी ग्यारहों गणधर द्वादशांग-वेता, १. आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । -स्वानागपूत्र वृत्ति, ४. ३. ३२३ ____ 2010_05 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और गम वाङमय [३१७ चतुर्दश पूर्त तथा समस्त गणि-पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशन पूर्वक वे कालगत हुए, सबंदुःख प्रहीण बने अर्थात् मुक्त हुए। स्थविर इन्द्रभूति (गौतम) तथा स्थषिय आयं सुधर्मा; ये दोनों ही महावीर के सिद्धिगत होने के पश्चात् मुक्त हुए।। ज्यों-ज्यों गणधर कालगत होते गये, उनके गण सुधर्मा के गण में अन्तर्भावित होते गये । द्वादश अंगों के रूप में भूत-संकलना तीर्थकर सर्वज्ञतत्व प्राप्त करने के अनन्तर उपदेश करते हैं। तब उनका ज्ञान सर्वथा स्वाश्रित या आत्म-साक्षात्कृत होता है, जिसे दर्शन की भाषा में पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। सर्वज्ञ होने के बाद भगवान् महावीर ने समस्त जगत् के समग्र प्राणियों के कल्याण तथा श्रेयस के लिए धर्म-देशनाएं दीं। उनकी धर्म-देशनाओं के सन्दर्भ में बड़ा सुन्दर क्रम मिलता है। उनके निकटतम सुधिनीत अन्तेवासी गौतम, यद्यपि स्वयं भी बहुत बड़े ज्ञानी थे, पर, लोक-कल्याण की भावना से भगवान महावोर से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे । भगवान उनका उत्तर देते थे । श्रुत का वह प्रधहमान स्त्रोत एक विपुल ज्ञान-राशि के रूप में परिणत हो गया। भगवान महावीर द्वारा अद्धमागधी में उपदिष्ट अर्थागम का आर्य सुधर्मा ने सूत्रागम के रूप में जो संग्रथन किया, अंशतः ही सही, द्वादशांगी के रूप में वही प्राप्त है । श्रुत-परम्परा के (महावीर से उत्तरवर्ती) स्रोत का आयं सुधर्मा से जुड़ने का हेतु यह है कि वे ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी हुए। इसमें कुछ परम्परा-भेद है। भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती श्रमण-परम्परा के अधिनायक आर्य सुधर्मा हुए; इसलिए आगे की सारी परम्परा आयं सुधर्मा को (धर्म-) अपत्य-परम्परा या (धर्म.) वंश-परम्परा कही जाती है। कल्पसूत्र में लिखा है: “जो आज श्रमण-निग्रन्थ विद्यमान हैं, वे सभी अनागार आर्य सुधर्मा की अपत्यपरम्परा के हैं; क्योंकि और सभी गणधर निरपत्य रूप में निर्वाण को प्राप्त हुए।"3 १. सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुग्विणो समसगणिपिडग धरा रायगिहे नगरे मासिएणं भतेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्सपाहीणा । थेरे इंदमूई थेरे अज्ज सुहम्मे सिद्धिं गए महाबीरे पच्छा देन्नि वि परिनिव्वुया ॥ २०३ ॥ २. बारहवां अंग दृष्टिवाद अभी लुप्त है। ३. जे इमे अज्जताते समणा निगाथा विहरति ए ए गं सव्वे अज्ज सुहम्मस्स अणगारस्स __माहाबच्चिज्जा, भवसेसा नणहरा निरवच्या पोच्छिन्ना। 2010_05 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ आर्य सुधर्मा : भूत-सवाहक परम्परा कल्पसूत्र में आर्य-सुधर्मा के परिचय में कहा गया है : "काश्यप-गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी आयं सुधर्मा स्थविर अग्निवैश्यायन गोत्रीय थे। आयं सुधर्मा का जन्म ई० पू० ६०७ के आस-पास हुआ। उनका पचास वर्ष का जीवन-काल गार्हस्थ्य में बोता। तीस वर्ष वे संघीय श्रमण के रूप में रहे । भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर गौतम के द्वादशवर्षीय केबल-ज्ञान-काल में वे संघाधिपति रहे । गौतम के निर्वाण के पश्चात् आठ वर्ष तक वे केवल-ज्ञानी के रूप में रहे । इस प्रकार एक सौ वर्ष का उनका आयुष्य होता है। दिगम्बर-परम्परा में उनका केवल ज्ञान-काल दश वर्ष का माना जाता है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में दो वर्ष का अन्तर रहता है। __ वयं विषय यद्यपि यहां अद्धमागधी आगम वाङमय है; अतः ऐतिहासिक प्रसंगों की विशद विवेचना ग्राह्य नहीं है, पर कुछ पहल ऐसे हैं, जो ज्ञान संवाहकता के स्रोत से जुड़े हैं। उनको चर्चा छोड़ना समुचित नहीं है । उदाहरणार्थ, भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी गौतम थे या सुधर्मा, इस सम्बन्ध में मत-वैभिन्न है। इस पहलू पर संक्षेप में विवेचन अपेक्षित है। दिगम्बर-मान्यता दिगम्बर-परम्परा में माना गया है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद गौतम संघाधिपति हुए और गौतम के कालगन होने के पश्चात् सुधर्मा । ईस्वी दूसरी या तीसरी शतो के यति वृषभ द्वारा रचित दिगम्बर-परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिलोयपण्णति में सर्वज्ञानियों (केवलज्ञानियों या सर्वज्ञों) की परम्परा का वर्णन करते हुए कहा है: “जिस दिन महावीर सिद्धावस्था को प्राप्त हुए, गौतम को परम ज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ। गौतम के निर्वाण-प्राप्त कर लेने पर सुधर्मा सर्वज्ञ हुए। सुधर्मा द्वारा समस्त कर्मों का उच्छेद कर दिये जाने पर या वैसा कर मुक्त हो जाने पर जम्बू स्वामी को सर्वज्ञत्व-लाभ हुआ। जम्बू स्वामी के सिद्धि-प्राप्त हो जाने के पश्चात् सर्वज्ञों की अनुक्रमिक परम्परा विलुप्त हो गयी। गौतम प्रभृति ज्ञानियों के धर्म-प्रवर्तन का समय पिण्डरूप में-सम्मिलित रूप में बासठ वर्ष का है।" १. समणस्स गं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अज्ज सुहम्मे थेरे अंतेवाती अग्गिवेसायणगोते। २ जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परम णाणी। जादे तस्सिं सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥ १४७६ तम्मि कवकम्मणासे जंबू सामि त्ति केवली जादो । तत्य वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा ॥ १४७७ वासठ्ठी वासाणिं गोदम पहुदोण जाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं ॥ १४७८ ____ 2010_05 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३१९ तिलोयपण्णत्तिकार ने गौतम, सुधर्मा और जम्बू के कैवल्यावस्था के समय को धर्मप्रवर्तन-काल शब्द से संशित किया है। इसके अनुसार गौतम के बारह वर्ष', सुधर्मा के बारह वर्ष तथा जम्बू के अड़तीस वर्ष कुल बासठ वर्ष होते हैं । गौतम पट्टधर क्यों नहीं? गौतम भगवान् महावीर के निकटतम अन्तेवासी थे। जीवन भर उनका सान्निध्य पाया। दैनन्दिन चलते रहने वाले उनके प्रश्न और महावीर के उत्तर जेन काङमय की एक अमूल्य थाती बन गये । वे भगवान् महावीर के प्रथम गणधर थे। यह स्वाभाविक था कि देहिक दृष्टि से भगवान के न रहते पर संघ का उत्तरदायित्व उन पर आता। वे उसे सम्भालते । यह सब नहीं हुआ, इसके पीछे क्या तथ्य था ? यह विचारणीय है। श्वेताम्बर-परम्परा : एक समाधान श्वेताम्बर-परम्परा ऐसा विश्वास करती है कि कैवल्य प्राप्त हो जाने के अनन्तर वह श्रमण-केवलज्ञानी संघाधिपति, पट्टधर अथवा आचार्य जैसा कोई भी पद नहीं सम्भालता । इतना अवश्य है, यदि कोई पद पर रहते केवली हो जाए, तो वह पद छोड़ना आवश्यक नहीं होगा। केवली के ज्ञान को अपरिसीमता इतनी बड़ी होतो है कि उसमें कुछ भी ज्ञेय अवशिष्ट नहीं रह जाता। तभी तो वे सर्वज्ञ कहे जाते हैं। सर्वज्ञ को भाषा साक्षात्कृत ज्ञान पर आश्रित होती है। उसमें किसी भो पूर्ववर्ती ज्ञानी का सन्दर्भ, उद्धरण या आधार नहीं रहता । केवली यदि पट्टासीन हो जाए और धर्म-देशना दें तो वे इस भाषा में नहीं बोल सकते कि जैसा उन्होंने तीर्थंकर (धर्म-संघ के संस्थापक; कैवल्य प्राप्त श्रमण ) से सुना है, वैसा वे प्रतिपादित कर रहे हैं। उनकी भाषा यही होती है, जो वे साक्षात् जान रहे हैं, पैसा ही निरूपित कर रहे हैं। इसका परिणाम यह होता है कि तीर्थकर द्वारा जो व्रत प्रसृत हुआ, जिसका स्रोत आगे भो प्रवहमान रहना चाहिए, वह अवरुद्ध हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए श्वेताम्बर-परम्परा को गौतम का संघ-नायकत्व या महावीर के उत्तराधिकारी के रूप में पट्टधरता स्वीकार नहीं है ; क्योंकि ज्यों ही महावीर का निर्वाण हुआ, गौतम को कैवल्य-लाभ हुआ। दिगम्वर-परम्परा को आधार केवली के पट्टधर होने में जिस बाधा की चर्चा की गई है, दिगम्बर-परम्परा में वैसी बाधा नहीं आती। दिगम्बर तीर्थकर को धर्म-देशना की शब्दात्मकता स्वीकार नहीं करते अर्थात् तीर्थकर उपदेश की भाषा में कुछ नहीं बोलते। उनके रोम-रोम से ओंकार की ध्वनि ____ 2010_05 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन निःसत और समवसरण में प्रसृत होती है। वही ओंकार-धनि श्रोतृगण की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। उसी ( भाषात्मक ) रूप में श्रोतृगण उसे ग्रहण करते हैं, समझते हैं। श्री धर्मघोष सिर का कथन श्वेताम्बर आचार्य श्री धर्मघोष सूरि की एक रचना है सिरिसमाकालमणसंघथयं (श्री दुःषमकालश्रमणसंघस्तवः)। उसकी अवूचरि में वे लिखते हैं : 'श्रो जिन भगवान् महावीर के निर्वाण-गमन की रात्रि में उज्जयिनी में चण्डप्रघोत का मरण होने पर पालक राजा के रूप में अभिषिक्त हुआ। पाटलिपुत्र के राजा उदायी के निष्पुत्र रूप में मरणगत हो जाने पर उसने कोणिक (अजातशत्रु) का पाटलिपुत्र का राज्य भी अधिकृत कर लिया। उसके साठ वर्ष के राज्य-काल में गौतम १२ वर्ष, सुधर्मा ८ वर्ष तथा जम्बू ४४ वर्ष तक युगप्रधान रहे।" अवरिकार ने जो ६० वर्ष की संख्या दी है, वह गौतम, सुधर्मा तथा जम्बू के युगप्रधान-काल (१२+८+४४-६४) से मेल नहीं खातो। अवचूरिकार ने आगे इसे स्पष्ट कर दिया है। जम्बू का ४४ वर्ष का युगप्रधान-काल जो उन्होंने बतलाया है, उसमें ४० वर्ष' तो पालक के राज्य के हैं और अगले ४ वर्ष नो नन्दों के राज्य के हैं। जम्बू के समग्र काल को कहने के लिए ऐसा किया गया है। आचार्थ धर्म-घोष ने यहां युगप्रधान के रूप में जहां सुधर्मा और जम्बू को लिया है, गौतम को भो लिया है। युगप्रधान शब्द के साथ रहा आशय विशेष रूप से विचारणीय है। युगप्रधान : सातिशायी प्रतिष्ठापन्नता यद्यपि संघ में निर्धारित आचार्य, उपाध्याय, गणी, प्रवत्तक आदि पदों की तरह युगप्रधान कोई पद नहीं था, पर, इसके साथ जो गरिमा, समादर और उच्चता का भाष देखते हैं, उससे स्पष्ट है कि यह सर्वातिशायी प्रतिष्ठापन्नता का सूचक था। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र में स्थविरावलियां (पट्टावलिया) वर्णित हैं। वे परस्पर कुछ भिन्न हैं । इसका कारण यह है कि कल्पसूत्र में दो गयी स्पधिरावली सम्भवतः पट्टानुपट्टक्रम या आचार्यानुक्रम से दो गयो है और नन्दीसूत्र की स्थधिरावली युगप्रधानानुक्रम से। अतएष इन दोनों में जहां-जहां भिन्नता है, उसका कारण नन्दीकार द्वारा कुछ ऐसे महान् प्रमणों १. अवचूरिः ॥८॥ सिरिजिणमिव्वाणगमणरयणिए उज्जोणीए चंडपज्जोममरणे पालो ___ राया अहिसिलो। तेण य अपुरा उदाइमरणे फोगिमरजं पाडलिपुरं पिमटिअं। तस्स य बरिसं ६० रज्जे-गोयम १२, सुहम्म ८, जम्बू ४ जुगप्पहाणा । - ____ 2010_05 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३२१ को लिया जाना है, जो वैधानिक दृष्ट्या आचार्य-पद पर अवस्थित नहीं थे, पर धार्मिक अभ्युदय की दृष्टि से युग प्रवतंक थे-युगप्रधान थे। जो आचर्य भी थे और युगप्रधान भी, ऐसे नाम दोनों पट्टावलियों में सदृश हैं । युगप्रधान की विशेषताएं नन्दीकार ने युगप्रधान स्थविरावली के समापन पर दो गाथाओं में युगप्रधान की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा है : "जो तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आश्रवे, शांति और मार्दव में अभिरत हैं, जो शील गुण से विधुत हैं, जो सुकुमार और सुकोमल देहसम्पदा के धनी हैं, जो उत्तमोत्तम लक्षणों से तथा प्रवाचनीयता आदि विशेषताओं से युक्त हैं, सैकड़ों श्रमणों द्वारा जो समादृत हैं, मैं उन युगप्रधानों को प्रणमन करता हूं।" युगप्रधान का विरुद कब मिलता ? जैन परम्पशा में समय-समय पर महान् गौरवास्पद, प्रभावक, तेजस्वी, परमोज्ज्वल ज्ञान एवं चारित्र्य के धनो श्रवण होते रहे हैं, जिनका विराट व्यक्तित्व युग के लिए प्रेरणा का दिव्य स्रोत रहा है। इस प्रकार के महापुरुष युग को एक नया मोड़ देते रहे हैं, जन-जन को सत् की ओर आगे बढ़ते जाने को प्रेरित एवं उद्बोधित करते रहे हैं। ऐसे संयमोत्तर, मनीषिप्रवर मुनियों का स्थान समग्र जैन संघ में बहुत उच्च और पवित्र माना जाता रहा है। संघ के शाखा-प्रशाखात्मक भेद उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान में कभी बाधक नही बने, प्रत्युत् पोषक ही रहे । इस प्रकार के विदाट व्यक्तित्व के धनी और युग को झकझोरने वाले महान् श्रमण 'युगप्रधान' के विरुव से विभूषित किये जाते रहे हैं। युगप्रधान के साथ संघ के विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों का व्यवस्थात्मक दृष्टि से किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है, इस विषय में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्य उनका आदर करते थे, उनको चा मानते थे। उनका नेतृत्व स्वीकार करते थे। उनका स्थान किसी एक सम्प्रदाय, गण, गच्छ, शाखा आदि में ही नहीं, समग्र जैन संघ-जिसमें साधु, साध्वी, श्रावक एवं धाविका; इस चतुष्टय की समन्विति थी, सर्वोत्कृष्ट था। १. तव-णियम-सच्च-संजम-विणयज्जवखंतिमद्दवरयाणं । सोलगुणगहियाणं, अणुओगे जुगप्पहाणाणं । सुकुमालकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे । पए पवायणीणं, पाडित्थगस एहिं पणिवइ एहिं।। -नन्दोसूत्र, ४८-४९ ____ 2010_05 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ ___ युगप्रधान का धिरुद या पद समग्र संघ की ओर से उपयुक्त विशिष्टातिविशिष्ट गुणों के धारक किसी महान् श्रमण को दिया जाता है। युगप्रधान अपने व्यक्तित्व की व्यापकता, गुणों की अप्रतिमता आदि की दृष्टि से सर्वमान्य तो थे, पर, वे भी दैनन्दिन संयम-जीवितव्य के निर्वाह की दृष्टि से किसी एक सम्प्रदाय या शाखा से जुड़े रहते थे, इसलिए समाचायात्मक दृष्टि से उनका सम्बन्ध उस शाखा से रहता। नम्दीसूत्र की युगप्रधान-परम्परा पर आधृत स्थविरावली से अनुमान होता है कि उत्तरोत्तर युगप्रधान मनोनीत करने की परम्परा सम्भवतः जैन संघ में काफी समय तक चलती रही हो। एक युगप्रधान के दिवंगत हो जाने पर उनके स्थान पर सभी सम्प्रदायों या शाखाओं में से योग्यतम, प्रभावक श्रमण को चतुर्विध संघ युगप्रधान के पद पर अधिष्ठित करता रहा है। यह परम्परा निरवच्छिन्नतया चली हो, निश्चित रूप में पेसा कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है, ऐसा भी कभी रहा हो, उस कोटि का महिमामण्डित, परमोच्च व्यक्तित्व का धनी श्रमण चतुर्विध संघ के सामने न आया हो और कुछ समय तक यह पद खाली रहा हो या इस विरूद से विभूषित व्यक्ति का अभाव रहा हो । धर्मघोष का डल्लेख : ऊहापोह श्रमण भगवान महावीर के मुक्तिगामी होने के पश्चात् गौतम बारह वर्ष तक जीवित स्छे और सुधर्मा बीस वर्ष तक। जिस दिन मौतम का निर्वाण हुमा, उसी दिन सुधर्मा को कैवल्य-प्राप्ति हुई । सुधर्मा का कैवल्य-काल आठ वर्ष का है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सुधर्मा का आचार्य-काल बीस वर्ष का है; क्योंकि महावीर का निर्वाण होते ही वे इस पद पर आ गये थे। आचार्य धर्मघोष ने जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार सुधर्मा २० वर्ष तक संघ के आचार्य-पद पर अधिष्ठित रहे तथा आठ वर्ष तक आचार्य और युगप्रधान, दोनों पदों के धारक रहे। सुधर्मा के प्रारम्भ के बारह वर्ष के आचाय काल में युगप्रधान गोतम रहे। इस पर कुछ सूक्ष्मता से विचार करना है। भगवान महावीर के जीवन-काल में गौतम का आगम-वाङमय में पुनः-पुनः उल्लेख प्राप्त होता है, पर, उसके पश्चात् वैसा नहीं है । गौतम महान् थे, परिसीम प्रज्ञा के धनी थे, पस्मोज्ज्वल चारित्र्य के धारक थे। यह सब कुछ था, पर, युगप्रधान के साथ कुछ जो और होता है, जिसका सम्बन्ध लोकोन्नयन, जन-जागरण, धर्म-प्रभावना और युग-प्रवर्तन से होता है, उनके साथ सम्भवतः न रहा हो अथवा कम रहा हो । हो सकता है, उनका अधिकतम झुकाव आत्म-साधना और स्वरूपोपलब्धि की ओर रहा हो। सहज ही प्रासंगिक रूप में जो लोक-जागरण का कार्य बन पड़ता, पैसा होता रहा हो, उस और विशेष अध्यवसाय न रहा हो; अतः युग-प्रधानोचित विशेषताओं की संलग्नता सुधर्मा के ____ 2010_05 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३२३ साथ प्राप्त होती है। भगवान महावीर के अनन्तर उनके द्वारा प्रवाहित श्रुत की धारा को उत्तरोत्तर गतिशील रखते हुए, चतुर्विध संघ को धर्मानुप्राणित करते हुये अध्यात्मोत्कर्ष की दृष्टि से आर्य सुधर्मा ने जो महान् कार्य किये, वे जैन-परम्परा के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे। भाचार्य धर्मघोष तो स्वयं श्वेताम्बर-परम्परा में आस्थावान् थे, फिर उन्होंने ऐसा उल्लेख कैसे किया, जिसकी श्वेताम्बर मान्यता के साथ संगति नहीं बैठती ? ऐसा सम्भाष्य प्रतीत होता है कि आचार्य धर्मघोष पर भगवान् महावीर की पट्टधर परम्परा के सम्बन्ध में दिगम्बर-माम्यता का प्रभाव पड़ा हो; क्योंकि वे श्वेताम्बर थे; अतः पट्टानुपट्टता के क्रम में तो उनके लिए यह शक्य नहीं था कि वे गौतम का समावेश कर सकें, पर, युगप्रधानों के क्रम में उन्हें ( गौतम को ) जोड़ देने में उन्हें बाधा नहीं थी। हो सकता है, ऐसी ही कुछ स्थिति बनी हो। आर्य सुधा : द्वादशांग भगवान् महावीर ने जो अब कहे, व्याख्यात किये, सुधर्मा ने द्वादश अंगों के रूप में उनका आकलन किया । वर्तमान जो जितना बच पाया है, प्राप्त है; उन्हीं के अनुग्रह का फल है। द्वादश अंग इस प्रकार हैं : (१) वाचारोग (७) उपासकदशांग (२) सूत्रकृतांग (८) अन्तादशांग (३) स्थानांग (E) अनुत्तरोपपातिक दशा (४, समवायांग (१०) प्रश्नव्याकरण (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) (११) विपाक (६) ज्ञातृधर्मकयांग (१२) दृष्टिवाद एक अन्य परम्परा भगवान महावीर के पश्चाद्वर्ती पट्टानुक्रम के विषय में एक और उल्लेख मिलता है, जिसमें पूर्वोक्त परम्परा से कुछ भिन्नता है । पार्श्वनाथ वसति में एक शिलालेख है। उसका लेखन-काल ५२२ शक-संवत् के आस-पास का है। उसका एक अंश निम्नांकिस प्रकार से है : ........... महावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्षिगौतमगणधरसाक्षाच्छिष्यलोहार्यजम्बुविष्णुदेवापराजितगोवर्द्ध नभद्रबाहुविशाखप्रोष्ठिलकृत्तिकायजयनागसिद्धार्थधृतिषेणबुद्धिलादिगुरुपरम्परीण वक्र (क्र) माभ्यागतमहापुरुष सन्ततिसमवद्योतितान्वयमद्रबाहुस्वामिनो उज्यपन्या मष्टांग महानिमित्ततत्वहन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुफ्लम्य कथिते सर्वसंघ उत्तरापथाद् दक्षिणापथं प्रस्थितः।" 2010_05 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्रस्तुत शिलालेख में गौतम नणघर के पश्चात् लोहाय तथा तदनन्तर जम्बू का उल्लेख आता है । सुधर्मा का नामोल्लेख नहीं है। इसके अनुसार गौतम के उत्तराधिकारो लोहाय' हुए और लोहाय के उत्तराधिकारी जम्बू । सुधर्मा का ही दूसरा नाम या उपनाम लौहार्य रहा हो, ऐसा अनुमान किया जाता है । यदि वस्तुतः ऐसा ही रहा हो, तो दिगम्बर-परम्परा से भिन्नता को स्थिति नहीं आती। पर, इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण देखने में नहीं आया। पट्टामुक्रम में अन्य नाम : भिमता प्रस्तुत शिलालेख में क्रमशः जो और नाम दिये गये हैं, वे भी दिगम्बर-परम्परा द्वारा स्वीकृत पट्टानुक्रम से पूर्णतया मेल नहीं खाते । इस सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ति एक प्रामाणिक आधार माना जाता है । इसका रचना-काल सम्भवतः ईसा की दूसरी शती है। शिलालेख में वर्णित आचाय-परम्परा के समकक्ष तिलोयपण्णत्ति में वर्णित आचाय-परम्परा इस प्रकार है : शिलालेख तिलोयपण्णत्ति गौतम सुधर्मा १. गौतम २. लोहायं ३. जम्बू ४. विष्णु जम्बू नन्दी नन्दिमित्र ५. देव ६. अपराजित ७. गोवद्धन ८. भद्रबाहु अपराजित गोवर्द्धन भद्रबाहु विशाल प्रोष्ठिल क्षत्रिय जय ९. विशाल १०. प्रोष्ठिल ११. कृत्तिकाय १२. जय १३. नाग १४. सिद्धार्थ १५. धृतिषण १६. बुदिल नाग सिद्धार्थ धृतिषेण विजय ____ 2010_05 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३२५ शिलालेख तिलोयपण्णत्ति बुद्धिल दोनों नामावलियों में द्वितीय, चतुर्थ, पंचम तथा एकादश संख्या पर आये हुए नाम परस्पर नहीं मिलते। पार्श्वनाथ-वसति के शिलालेख में बुद्धिल सोलहवां नाम है तथा तिलोयपण्णत्ति में वह सतरहवां है। तिलोयपण्णत्ति में सोलहवां नाम विजय है, जिसका शिलालेखीय नामावलि में कोई उल्लेख नहीं है । इस प्रकार बुद्धिल तक दोनों नामावलियों में एक का अन्तर पड़ता है। शिलालेख में एक नाम कम है। एक ही क्रम संख्या पर दोनों नामावलियों में जो अदृश्य नाम मिलते हैं, उनके सम्बन्ध में सम्भावना यह भी हो सकती है कि ये आचार्य दो-दो नामों से प्रसिद्ध रहे हों। पर, सुधर्मा और लोहार्य एक ही व्यक्ति थे, विद्वानों के लिए यह गवेषणा का विषय है। उपयुक्त विधेचन के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि बहुत थोड़े से अपवादों के अतिरिक्त प्रायः सबंश आयं सुधर्मा ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी माने गये हैं। भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित श्रुत-स्रोत आर्य सुधर्मा के माध्यम से ही आगे प्रवहणशील रहा। १. जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥ तम्मि कवकम्मणासे जंबू सामि त्ति केवलो जादो । तत्य वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णत्षि अणुबद्धा ॥ वासष्टो वासाणि गोदमपहुदीण जाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिण्डरूपेणं ।। गंदो मा गंदिमित्तो बिदिओ अवराजिवो तइज्जो य। गोवद्धणो चउत्थो पंचमी भद्दबाहु त्ति ॥ पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुवी जगम्मि विक्खादा । ते बारस अंगधरा तित्थे सिरि वढमाणस्स ॥ पढमो विसाहणामो पुठिलो खत्तिओ जओ गागो। सिद्धत्यो धिरिसेणो विजओ बुद्धिल गंगदेवा य॥ एकरसो य सुधम्मो दस पुव्वधरा इमे मुविक्खादा पारंपरिमओवगवो तेसीवि सदं च ताण वासाणं । -तिलोयपण्णत्ति, १४७६-७८, ८२-८३, ८५-८६ ____ 2010_05 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ) [खण्ड : २ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन आर्य सुधर्मा : एक परिचय जन्म - आर्य सुधर्मा का जन्म विदेह प्रदेश में हुआ था। प्राचीन मान्यता के अनुसार उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पूर्व में कौशिकी और पश्चिम में गण्डको नदी से घिरा प्रदेश विदेह कहा जाता था। आवश्यक-नियुक्ति में गणधरों को जाति, गोत्र, माता-पिता, शरीर-सम्पदा, ज्ञानवैशिष्ट्य आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है। तद्नुसार सुधर्मा अग्निवैश्यायन-गोत्रीय ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता का नाम धम्मिल और माता का नाम भद्दिला था। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने आर्य सुधर्मा का जन्म उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में होना लिखा है। उन्होंने सभी गणधरों के जन्म के नक्षत्रों का वर्णन किया है। इससे प्रतीत होता है, उन दिनों (आचार्य भद्रबाहु के समय ) लोगों को सम्भवतः ज्योतिष में विशेष अभिरुचि रही हो अथवा एक कारण यह भी हो सकता है कि तीर्थंकरों के वर्णन में अन्याय पहलुओं के साथ उनके जन्म के नक्षत्रों का भी उल्लेख किया जाता रहा हो। उसी पद्धति का अनुकरण करते हुए नियुक्तिकार ने गणधरों के गोत्रों का उल्लेख करना आवश्यक समझा हो । ऐतिहासिक दृष्टि से भी जन्म के मुहूर्त, नक्षत्र आदि का उल्लेख करने की उपयोगिता है। 'काल-गवेषणा में किसी अपेक्षा से यह सहायक होता है। विद्वता : वैभव भगवान महावीर के समय में राजनैतिक दृष्टि से तो विदेह विशेष जागृत था। विश्व की प्रागितिहासकालोन गणराज्यात्मक शासन-पद्धति के प्रयोग का यह सम्भवतः सर्वाधिक १. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० २२ २. तिन्नि य गोयमगुत्ता भारद्दा अग्गिवेस वासिठ्ठा । कासव गोअम हारिअ कोडिन्नदुगं च गुत्ताइ ॥ -आवश्यक-नियुक्ति , गाथा ६४९ ३. वसुभूई धणमित्तो धम्मिल धणदेव मोरिए चैव। देवे घसू अ दत्ते बले अ पिअरो गणहराणं ॥ -गाथा ६४७ ४. जेट्ठा कत्तिय साई सवणो हत्थुत्तरा महाओ अ। रोहिणि उत्तरसाढ़ा मिगसिर तह अस्सिणी पुस्सो॥ -आवश्यक-नियुक्ति, गाथा ६४६ 2010_05 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ] आर्ष ( अद्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३२७ प्राचीन भू-भाग था। पर, उन दिनों धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से लोगों की विचार. चेतना कुछ कुण्ठित जैसी बनी जा रही थी। पुरातन परम्परा का नेत्र मूदे अनुसरण करते जाने में लोग अभ्यस्त से होने लगे थे। कर्मकाण्ड और यज्ञवाद का प्राबल्य था। इस वातावरण के परिपार्श्व में आय' सुधर्मा का लालन-पालन हुआ । वे एक विद्वान् पिता के पुत्र थे। वेद, वेदांग आदि अनेक विषयों का गम्भीर अध्ययन करने का सुअवसर उन्हें मिला। नियुक्तिकार ने गणधरों की जाति, विद्या आदि का विवेचन करते हुए जो गाथा' कहों है, अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण विऊ भी है। विऊ 'विव:' का प्राकृत रूप है। आचार्य मलयगिरि ने इसका विश्लेषण करते हुए लिखा है : . ___...........विदन्तीति विदः-विद्वानाः, चतुर्दशविद्यास्थान पारगमनात् । तानि चतुर्दश विद्यास्थानान्यमुनि-अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या हताश्चतुर्दश। तत्रांगानि तद्यथा शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुवत छन्दो ज्योतिष चेति, एष गृहस्थाश्रम उक्तः ।"" _ विद्वद्धश-परम्परा में उत्पन्न होने के नाते आर्य सुधर्मा ने ऋक्, यजुष् , साम और अथवं; इन चारों वेदों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष; इन छहों वेदांगों, मोमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र तथा पुराणि, आदि सब मिलकर इन चवदह विद्याओं का सम्यक्तया अध्ययन किया, उनके पूर्ण अधिकारी विद्वान् बने। शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रति लोगों में श्रद्धा थो, आदर था; अतः उन्हें असाधारण ख्याति तथा प्रतिष्ठा भी मिली हो, ऐसा सम्भाव्य है। __नवोन तथा क्रान्तिपूर्ण चिन्तन का मानस लोगों का अपेक्षाकृत कम था, पर, विभिन्न शास्त्रों का परम्परा से विधिपूर्वक बहुश्रु त गुरु के पास अध्ययन करने की लोगों में अभिरुचि रहती थी। विशेषतः ब्राह्मण-जाति में वेद, वेदांग, मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र आदि के अध्ययन का एक व्यवस्थित क्रम था। प्राचीन वैदिक-परम्परा की गुरुकुल प्रणालो पूर्णतया तो नहीं, पर, अंशत: प्रचलित थी। यही कारण है कि इन्द्रभूति, सुधर्मा • आदि विद्वान् सेकड़ो शिष्यों के (विद्या) परिवार वाले थे। आर्य सुधर्मा के पांच सौ अन्ते. वासी थे, जो उनके पास विद्याध्ययन करते थे। सम्भवतः उनके यहीं रहते हों। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनको विद्याशाला, गृह-व्यवस्था एवं सामाजिक स्थिति १. सव्वे य माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ । ___सव्वे दुवालसंगिआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ॥ -आवश्यक-नियुक्ति, गाथा ६५७ २. श्री आवश्यकसूत्रम्, द्वितीय भागः, पृ० ३३९ ___ 2010_05 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कितनी समृद्ध तथा सम्पन्न थी। जिज्ञासा : मुमुक्षा का द्वार ___ सौमिल ब्राह्मण के यहां इन्द्रभूति आदि अन्य विद्वानों की तरह आर्य सुधर्मा भी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ यज्ञ-भूमि में उपस्थित थे। वहां से भगवान् महावीर के सान्निध्य में उपस्थित होना, धार्मिक दृष्टि से एक उत्क्रांत मोड़ लेना, श्रामण्य-धर्म स्वीकार करना, अयन्त जिज्ञासु तथा विनम्र भाव से भगवान महावीर के चरणों में अपने को समर्पित कर देना; सब ऐसी घटनाए थों, जिनसे आर्य सुधर्मा के सत्योन्मुख, निष्पक्ष एवं मुमुक्ष-जोधन का स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है । आहती दीक्षा स्वीकार करने के समय आर्य सुधर्मा की आयु पचास वर्ण की थी। तब वे अवस्था में भगवान महावीर से लगभग आठ वर्ष ज्यायान् थे। इसका अर्थ हुआ, वे तब तक बहुत प्रौड़ हो चुके थे, ख्याति प्राप्त तो थे हो। जिन विषयों में उनका अध्ययन था, वह भी तब तक विशेष परिपक्क हो चुका था, पर, जिज्ञासा का भाव उनके अन्तर्मन में उस समय भी परिव्याप्त था। सत्य को उपलब्धि के लिए बुद्धि का द्वारा सर्वथा उन्मुक्त था; अतएव ज्यों हो भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सत्य से वे अवबुद्ध हुए, बिना किसी ननुनच या संकोच के शिशु की तरह अत्यन्त सरल और विनीत भाव से उसे अपनाने को तत्पर हो गये। उनके मन में नहीं आया, वर्षों तक जिन सिद्धान्तों के आधार पर जीवन चला है, प्रतिष्ठा अर्जित की है, उनका सहसा कैसे परित्याग किया जाय । न यह भी भाव उनके मन में उत्पन्न हुआ कि अपने अनुयायियों, श्रद्धालुओं एवं शिष्यों में उनकी कितनी ख्याति और यश है। उनके (सुधर्मा )द्वारा नये पथ का अवलम्बन कर लिये जाने से उन सबके मन में क्या आयेगा ? क्या वे उनकी दृष्टि में अवहेलना के पात्र नहीं बनेंगे ? यही वे प्रतिबन्ध, विघ्न या अन्तराय हैं, जो मानव को उन्मुक्त रूप से विकास के पथ पर अग्रसर नहीं होने देते । आयं सुधर्मा इन अवरोधों से, जिन्हें वस्तुतः दुर्बलता कहा जाना चाहिए, ऊपर उठे हुए थे। वे स्वाभिमानो थे, पर, अहंकायी नहीं। स्वाभिमान में मानव का विवेक उबुद्ध रहता है और अहंकार में मूच्छित । आर्य सुधर्मा ने पोढ़ियों से स्वीकृत, पालित और पोषित परम्परा को अयथार्थ समझ लिया, उसका तत्क्षण परित्याग कर दिया। वास्तव में जिनको अन्तश्चेतना जागृत होती है, ऐसे व्यक्ति, कौन क्या कहता है, उससे जरा भी प्रभावित नहीं होते। वस्तु-सत्य या तथ्य क्या है, इसका उनके जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अन्तेवासियों पर प्रभाव आर्य सुधर्मा ने जो मोड़ लिया, उसकी प्रतिक्रिया दूसरों पर भी उसी प्रकार की हुई, ____ 2010_05 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३२९ जैसी एक सत्यान्वेषक के मन पर होनी चाहिए। उन के पांचसो अन्तेवासी, जो उनके सान्निध्य में रहते हुए विद्यार्जन करते थे, उन्होंने ऐसा नहीं सोचा, यह उनके आचार्य की पराजय है । क्यों नहीं, वे इसका प्रतिशोध ले ? जहां अपने द्वारा स्वीकृत पक्ष का ऐका न्तिक आग्रह होता है, वहां मानव का चिन्तन मुक्त नहीं होता, वह प्रतिबद्ध बना रहता है। पर, जहां सत्य का आग्रह होता है, वहां यह सब नहीं होता। वहीं मान-अपमान, सत्कारतिरस्कार, आदर-अनादर की तुच्छ भूमिका अपगत हो जाती है। यह तो नितान्त व्यावहारिक किंवा स्थूल दृष्टि है, प्रबुद्ध मन इसमें कैसे उलझेगा ? परिणाम यह हुआ, आर्य सुधर्मा के सबके सब अन्तेवासियों ने अपने आचार्य के साथ श्रामण्य स्वीकार कर लिया। आर्य सुधर्मा का छद्मस्थ-काल : ज्ञानाराधना आर्य सुधर्मा विद्वान थे। उन्होंने अपनी शास्त्रीय विद्वता और प्रजा को अध्यात्म से जोड़ दिया। भगवान महावीर जैसे सर्वज्ञता, सवंद्रष्टा, मार्गदर्शक उन्हें मिले । साधक को और क्या चाहिए। उन्होंने भगवान् महावीर के सान्निध्य में ज्ञानाराधना और चारित्र्याराधना में अपने को लगा दिया । बहुत शीघ्र ही उन्हे भगवान् महावीर से द्वादशांग रूप जान का प्रसाद प्राप्त हो गया। भगवान् के वे पांचवें गणधर बने । आत्म-साधना में संलग्न रहते हुए वे अपने अनुशासन और देख-रेख में स्थित गण के श्रमणों को अध्यात्म की सुधा पिलाते रहें तथा जन-जन को धर्म की ओर प्रेरित करते रहे । भगवान महावीर का सानिध्य आर्य सुधर्मा को परम गुरु भगवान् महावीर का तीस वर्ष तक साक्षात् सान्निध्य प्राप्त रहा, जिस बीच उन्होंने अपने आराध्य से बहुत कुछ पाया, पाते ही गये । भगवान् महावीर ने अपनी साधना का चरम साध्य साध लिया। साधक, साधना और सिद्धि का तादात्म्य हो गया, विभेद मिट गया। अत्यन्त गौरवशील दिन वह था, जब अध्यात्म के अनन्त भालोक का कभी न बुझने वाला दीप जला, जिसकी लौकिक स्मृति आज का दीपावली पर्व है, जिस दिन टिमटिमाते दीपकों का प्रकाश उसी अपरिसीम, अप्रतिम एवं अनन्त प्रकाश की ओर इगित करता है, जिसको प्राप्ति प्रत्येक साधक के जीवन का उस्कृष्टतम किंवा पवित्रतम ध्येय है। संघ-नायक के रूप में ____ भगवान् महावीर का निर्वाण हो जाने पर आर्य सुधर्मा उनके उत्तराधिकारी हुए। समग्र श्रमण संघ की व्यवस्था, निर्देशन, संरक्षण, संवर्धन आदि का उत्तरदायित्व उनके सबल कन्धों पर आया। भगवान महावीर के ग्यारह गणधों में से नौ गणधर उनके जीवन ____ 2010_05 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ काल में ही निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। आय सुधर्मा को दीर्घायु और साथ-ही-साथ भावी आचार्य जान वे निर्वाण से पूर्व अपने-अपने गण उन्हें सम्भलाते जाते थे। दो गणधर-गौतम और सुधर्मा भगवान महावीर के निर्धाण के अनन्तर विद्यमान रहे । भगवान महावीर के निर्वाण के दिन गणधर गौतम को कैवल्य प्राप्त हो गया; अतः भगवान् महावीर के श्रमण-संघ के अधिनायक के रूप में कार्य करना आयं सुधर्मा ने अंगीकार किया। उस समय आर्य सुधर्मा की आयु अससी वर्ष की थी। पर, उनका धर्मोत्साह अपरिसीम था तथा धर्म-प्रभावना व जन-जागरण के पावन अभियान में वे अनवरत प्रयत्नशील थे। भगवान् महाबोर के मिर्वाण के अनन्तर वे बीस वर्ष तक सदेह विद्यमान रहे। इन बीस वर्षों में उनके प्रारम्भ के बारह वर्ष छद्मस्थता के और अन्तिम आठ वर्ष सर्वज्ञता के थे। आयं सुधर्मा की अस ज्ञावस्था का कार्य-काल भी बड़ा महत्व का था। उत्तर भारत के अनेक ग्रामों, नगरों, जनपदों में उन्होंने पर्यटन किया, जन-जन को अध्यात्म से अनुप्राणित किया। जम्बू जैसे सुयोग्य मुमुक्ष जन उनसे प्रनजित हुए। आर्य सुधर्मा का विराट व्यक्तित्व आयं सुधर्मा एक बार अपने विहार-क्रम के बीच चम्पा नगरी पधारे। यह बिहार के भागलपुरा नगर के समीप था। गायधम्मकहाओ नामक षष्ठ अंग का प्रारम्भ इसी ( आयं सुधर्मा के चम्पा-आगमन के ) प्रसंग से होता है। वहां आयं सुधर्मा के कतिपय विशेषणों का उल्लेख है, जो उनके विराट एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के द्योतक हैं। आर्य पहला विशेषण आयं है। आर्य शब्द अनेक दृष्टियों से अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्मे णाम थेरेजाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बल-रूव-विणय-णाण-दसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जिइ दिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियासामरणमयविष्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणपहाणे, एवं करण-चरणणिग्गह-णिच्छप-अज्जव-मद्दव-लाधव-खंति-गुत्ती-मुत्ती विज्जामंत-बंभचेर-वेय-णय - णियमसच्च-सोयगाण-दसण-चरित्तापहाणे, ओराले, घोरे, धोरत्रए, घोरतवस्सो, घोरबंभचेरवासो, उच्छूढसरीरे, सखित्तेविउलतेयलेसे, चौद्दसे पुवी चउणाणोवगए ....................... विहरह। -ज्ञातृधर्मकथा, प्रथम अध्ययन ____ 2010_05 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३३१ रहा है। आगम-वाङमय में उसका विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। प्रज्ञापना-टीका में कहा गया है : आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणेरित्यार्यः अर्थात् जो हेय धर्मों से-त्याज्य कर्मों से दूर हट गये, जिन्होंने उनका परित्याग कर दिया, फलतः जो उपायग्रहण करने योग्य धर्मों से जुड़ गये, वे आर्य कहे जाते हैं। प्रज्ञापना में आर्य के विवेचन में क्षेत्र-आय; जाति-आयं, कुल-आय', कर्म-आय' शिल्पआय', भाषा-आय', ज्ञान-आय, दर्शन-आय तथा चारित्र-आय आदि भेदों पर प्रकाश डाला गया है। सुधर्मा के विश्लेषण के रूप में प्रयुक्त आय शब्द साधारणतया सात्विक, प्रशस्त या सद्गुण-सम्पन्न के अर्थ में आया है। जैसा कि कहा गया है : प्रमाद मिथ्यात्वकषायदोषा दाराद् गतः सद्गुणराशिमाप्तः । बुद्धः परेषां प्रतिबोधको य: तमाहुरार्य विबुधा गुणज्ञाः॥ जो प्रमाद-धर्म या आत्म-स्वभाव के प्रति अनुत्साह, मिथ्यात्व, कषाय आदि दोषों से रहित, अनेक उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, स्थय प्रतिबुद्ध तथा दूसरों को प्रतिबोध देने वाले हैं, उन्हें ज्ञानी और गुणी जन आय' नाम से सम्बोधित करते हैं। आगम-वाङमय में आय विशेषण प्राय: सभी महापुरुषों के नाम के पहले प्रयुक्त होता रहा है। स्थविर सुधर्मा का दूसरा विशेषण स्थविर है, जो आय की भांति प्रायः सभी उत्तम कोटि के श्रमणों के नाम के साथ प्रयोग में आता रहा है। यह विशेषण चारित्रिक दृढ़ता, स्थिरता और निश्चल भाव का द्योतक है। स्थविर स्वयं तो अविचल भाव से संयम-रत होते ही हैं, औरों को भी उसमें सुदृढ़ बनाये रखने के हेतु प्रयत्नशील रहते हैं। मानव में, जब तक वह पूर्णरूपेण विकास नहीं कर पाता, अनेक दुर्वलताए समय-समय पर उभरती रहती हैं। उनके कारण साधना-निरत व्यक्ति भी अपने स्वीकृत पथ से कभी-कभी विचलित होने लगते हैं। उस समय किसी प्रबल, प्रौढ़ एवं उदात्त व्यक्तित्व के धनी महान् श्रमण द्वारा दी गयी प्रेरणा उनके लिये डूबते को तिनके का सहारा सिद्ध होती है। यह कार्य स्थविर का है। १. प्रज्ञापना, पद १; स्थानांग, स्था० ४, उद्देशक २; दशवकालिक, अध्ययन ६, आचारांग, १.५.२, व्यवहार, उद्देशक १; वृहत्कल्प, १ २. प्रज्ञापनोपांगम्, पूर्वार्द्धम्, पद १, ३४-३५ 2010_05 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ इसी गरिमा के कारण इसका आचाय', उपाध्याय जैसे पदों पर आसीन पुरुषों के लिये भी विशेषण के रूप में प्रयोग होता रहा है । प्रन जाति-सम्पन्न : कुल-सम्पन्न आय सुधर्मा का मातृ-पक्ष और पितृ-पक्ष उत्तम था, जो उनके जाति-सम्पन्न तथा कुल-सम्पन्न विशेषणों से प्रकट होता है। यहां कुल और जाति शब्द एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। जैसा कि कहा गया है : कुलं पेइयं माइया जाई अर्थात् पितृवंश कुल तथा मातृवंश जाति कहा जाता है। आगे चल कर इन दोनों शब्दों के अर्थ परिवर्तित हो गये, जिसे भाषा-वज्ञानिक दृष्टि से अर्थ-विस्तार कहा जा सकता है। ___ जो महान् और प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी होते हैं, उनमें सभी प्रकार की विशेषताए होती हैं। दैहिक सुष्ठता, दृढ़ता एवं सबलता भी उनमें होती है, पर, इन सबका उपयोग आत्म-परिष्कार तथा अन्तविजय में होता है। आर्य सुधर्मा में यह सब था। एक विशेष सबल, सुदृढ़ शरीर-संहनन के धारक होने के कारण वे दैहिक शक्ति-सम्पन्न थे। घोर तप एवं साधना-सम्बन्धी ऐसे अनेक उपक्रम हैं, जो अत्यन्त दृढ़ देह-संहनन या शारीरिक गठन के बिना सध नहीं पाते। विनय-लाघवादि सम्पन्न विशेषण-क्रम के मध्य कहा गया है कि सुधर्मा विनय, शान, दर्शन, चारित्र तथा लाघवसम्पन्न थे। लाघव शब्द लघु से बना है। लघु शब्द के दो अर्थ हैं-छोटा तथा हल्का । हल्कापन दो प्रकार का है-पादार्थिक और भावात्मक । पदार्थों या वस्तुओं की दृष्टि से एक जैन श्रमण होने के नाते आय सुधर्मा बहुत कम उपधि या उपकरण रखते थे; अतएव वे लघु या हल्के थे। भावात्मक दृष्टि से वे गवं, अहंकार या अभिमान का त्याग कर चुके थे; अत: हल्के थे। दोनों ही दृष्टियों से यह विशेषण उन पर लागू होता था। ओजस्वी : तेजस्वी : वर्चस्वी : यशस्वी आय सुधर्मा ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी थे। तप आदि के कारण व्यक्तित्व में जो एक प्रभावपूर्ण आभा निखर उठती है, उसे ओज शब्द से अभिहित किया जाता है । आन्तरिक और बाह्य तप से व्यक्ति में जो दीप्तता होती है, उसे तेज कहते हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से तेजस्वी का अर्थ तेजोलेश्या (विशेष यौगिक शक्तियां ) आदि से युक्त भी हो सकता है। लब्धियों या विशेष प्रकार की यौगिक अभिसिद्धियों द्वारा व्यक्ति में जो प्रभाव-प्रवणता उत्पन्न होती है, उसे वर्ष स्विता कहा गया है। वर्चस्वी के लिए मूल १. लघोभविः-लाघवम् ____ 2010_05 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आi ( अ मागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ३३३ -- वचसी आया है, पाठान्तर में उसके स्थान पर वय सी भी आया है, - वचनवान् -- आदय, हितावह और निरवद्य निर्दोष - निष्पाप वचन बोलने वाला होता है । यशस्वी विशेषण का आशय यह है कि उत्कृष्ठ साधक को यद्यपि जा भी यश की कामना नहीं होती, पर उनकी उग्र तपःशीलता, कठोर संयम-चर्या, तितिक्षामय जीवन-पद्धति, ज्ञान और अनुभूति की दिव्यता आदि विशेषताओं के कारण स्वतः उनका यश सर्वत्र प्रस्फुटित होने लगता है । आय सुधर्मा भगवान् महावीर के पट्टधर थे । उत्तमोत्तम गुणों से वे अलंकृत थे; अतः सर्वत्र उनकी ख्याति, यश और प्रशस्ति का प्रसृत होना स्वाभाविक था । इसी अपेक्षा से उनके लिए यशस्वी विशेषण का प्रयोग किया गया है । क्रोधादि विजेता आर्यं सुधर्मा क्रोध, अहंकार, माया, प्रवंचना, इन्द्रिय, निद्रा तथा परिषहों को जीत चुके थे । जीने की आशा या कामना तथा मृत्यु की भीति से वे छूट चुके थे । तप उनके जीवन का प्रधान अंग था । वे गुणों से विभूषित - सुशोभित थे। यहां प्रयुक्त गुण शब्द सयममूलक गुणों के अर्थ में है । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि तप द्वारा पूर्व सचित कर्मों के निर्जरण तथा संयम या संवर के द्वारा नये कर्मों के बंधन का निरोध करते हुए वे अपने पावन पथ पर गतिशील थे । आर्यं सुधर्मा शास्त्र वर्णित पिण्ड विशुद्ध आदि उत्तर गुण रूप करण, महाव्रत आदि मूल गुण रूप करण में सतत जागरूक थे । वे इन्द्रिय और मन का निग्रह कर चुके थे । जीव, अजीव आदि तत्वों के ज्ञान में उनके निश्चयात्मकता थी अर्थात् उनका तत्व ज्ञान सन्देह - वर्जित था । उनमें स्वभावतः ऋजुता, मृदुता, निरभिमानिता, क्षमाशीलता - सहिष्णुता, गुप्ति - अकुशल मन, वाणी और काय का निवर्तनमन, वचन और देह की अकुशल-अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति, निर्लभता आदि उदात्त गुण थे । वे विद्वान थे, मन्त्रवित् थे । ब्रह्मचारी -- ब्रह्म-आत्मा में चरणशोल थे। भाषा और साहित्य ] अर्द्धमागधी पाठ जो जिसका अर्थ वचस्वी वेद - प्रधान वेद का सामान्य अर्थ ज्ञान है । जिससे जीव, अजीव आदि का स्वरूप जाना जाता है, उसे वेद कहा जा सकता है। यहां वेद का आशय जैन आगम वाङमय से है । प्रस्तुत प्रसंग में वेद का दूसरा अर्थ स्व-सिद्धान्तों और पर-सिद्धान्तों का ज्ञान है । आये सुधर्मा वेद-प्रधान अर्थात् आगम- प्रधान, नय प्रधान, नियम-प्रधान तथा सत्य - प्रधान थे । वे शौचशुचिता - आन्तरिक शुद्धि से विशेषतः युक्त थे । वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र से भूषितविराजित थे । उदार : घोर आय सुधर्मा उदार थे। 2010_05 क्रोध आदि को जीत लेने के कारण उनके जीवन में उदारता Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :२ एवं प्रशस्तता परिव्याप्त थी। उदार के बाद दूसरा विशेषण घोर है। जिन तपों के आचरण में बहुत कठिनाई होली है, उनका सहजतया आचरण करने के कारण आर्य सुधर्मा घोर कहे गये हैं। घोर का अर्थ यहाँ भयानक या डराधना नहीं है। क्योंकि आय सुधर्मा तो अत्यन्त उदार, सरल और कोमल वृत्तियों के धनी थे। उनमें कठोरता या घोरता कैसे हो सकती थी? स्वकल्प-आत्मबली जिन व्रतों और तपश्चर्याओं को बड़ी कठिनाई से साध सकते थे, आय' सुधर्मा अत्यन्त सहज भाव से उनका परिपालन करते जाने के कारण इस विशेषण से विशेषित किये गये हैं। इसी प्रकार घोर तपस्थी शब्द भी उनके लिए प्रयुक्त हुआ है। घोर ब्रह्मचर्यवासी ___ आय सुधर्मा की ब्रह्मचर्य-साधना परम उच्चकोटि की थी; अतः उन्हें घोर ब्रह्मचय:वासी-उत्कट ब्रह्मचारी कहा है। अपने देह के प्रति वे सर्वथा अनासक्त थे। उनके लिए अपना देह उत्क्षिप्त या परित्यक्त जैसा था। उनको तेजोलेश्या जैसी विपुल - विशाल और दुधर सिद्धियां प्राप्त थीं, पर, उनका प्रयोग करना तो दूर, वे उन्हें सम्यक्तया संगोपित किये रहते थे। यदि ऐसा न होता, तो अतितेजस्तप्त, प्रखर सूर्य' की तरह उनकी ओर देखना कठिन हो जाता। वे मति, श्रुत, अवधि और मनःपय व रूप ज्ञान-चतुष्टय तथा चतुर्दश पूर्षों के धारक थे। आवश्यक नियुक्ति में आर्य सुधर्मा को सभी लब्धियों से युक्त कहा गया है। उनका देहिक गठन वज-ऋषभ-नाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थान मय था। १. मासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिंसहसंघयणा समचउरसा य संठाणे ॥ -आवश्यक-नियुक्ति, गाथा ६५६ २. संहननम्-अस्थिसंचयविशेषः, वजादीनां लक्षणमिदम्-रिसहो य होइ पट्टो वज्जं पुण कोलियं वियाणाहि । उभऔ मक्कडबंधो नारायं तं वियाणा हि ॥ ति तत्र वजं च तत् कीलिका-कीलित-काष्ठसंपुटोपमं सामर्थ्ययुक्तत्वात्, ऋषभश्च लौहादिमयपट्टबद्ध काष्ठसंपुटोपम: सामर्थ्यान्वितत्वात्, वर्षमः, स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठ संपुटोपमं सामर्थ्योपैतत्वात्, वर्षभनाराचम्, तत् संहननम्-अस्थिसंचयविशेषोऽनुत्तमसामर्थ्ययोगात्। -भगवती, शतक १, प्रश्नोत्थान, पृ. ३४ ३. नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यम् । तत्व च तत् चतुरस्र च प्रधानं समचतुरस्रम् । अथवा समाः शरोरलक्षणोक्तप्रमाण विसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्त्रयो यस्य तत् समचतुरस्त्रम्, अस्त्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा इति । अन्ये त्वाःसमा अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽपि अत्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम् । अत्रयश्च पर्यकासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम्, आसनस्य ललाटोपरि भागस्य चान्तरम्, दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम्, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरम् । -वही, पृ० ३४ ____ 2010_05 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३३५ जैसा कि यथाप्रसंग इगित किया गया है, देहिक दृढ़ता का भी उग्र तप साधने एवं घोग परिषह सहने में अपना महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि वहां मुख्य आधार तो आत्म-बल ही होता है, पर, अत्यधिक प्रतिकूल भौतिक स्थितियों-शीत, ताप, वृष्टि आदि प्रबल प्रहार साघात भादि सहने में देह-संहनन भी सहायक होता है। संस्कारी महान् पुरुषों को पूर्वाजित पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप सहज ही दैहिक शक्तिमत्ता, सुगठितता तथा परिपूर्णता प्राप्त होती है। आर्य सुधर्मा में स्वभावतः ये सब विशेषताए विद्यमान थीं। केवली और पट्टधर केवली पट्टासीन नहीं होते; अतः सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है, जब आयं सुधर्मा को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया, तो उनकी क्या स्थिति रही ? जब केवली पट्टधर, संघ-नायक या आचार्य का पद स्वीकार नहीं करते, तो केवली होने पर फिर वे पट्टासीन कैसे रहते ? केवली द्वारा संघाधिपति या पट्टधर का पद स्वीकार किया जाना और संघाधिपति रहते हुए उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त होना; ये दो भिन्न स्थितियां हैं। पहली स्थिति में संघनायक या आचार्य होने में जो बाधा है, वह दूसरी स्थिति में नहीं होती। केवली के पट्ट पर केवली आसीन हों, तो द्वादशांग रूप ज्ञान का परम्परा प्राप्त शृंखलागत स्रोत यथावत् नहीं रह पाता। क्योंकि पट्टासीन नव केवली द्वारा उद्घोष्यमान देशना स्वयं ज्ञात और दृष्ट साक्षात्-प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उसी भाषा में होती है। आय' सुधर्मा का बारह वर्ष का जो असर्वज्ञत्व-काल था, ऐसा मानना बहुत संगत प्रतीत होता है कि वे तब तक अपने अन्तेवासी आर्य' जम्बू को सम्पूर्णरूपेण द्वादशांगी का ज्ञान दे चुके हों। धर्म की सामान्य देशना उजागर करने में कभी किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न होता नहीं। सर्वज्ञता या कैवल्य अधिगत करने के पश्चात् भगवान् सुधर्मा जनपद-विहार करते हुए अपने वचनामृत से जन-जन को धर्म का दिव्य सन्देश देते रहे, जिस और आगम-वाङमय में स्थानस्थान पर संकेत प्राप्त होते हैं । निर्वाण निर्वाण से पूर्व आय सुधर्मा एक मास तक पादोपगमन आमरण अनशन में रहे। नियुक्तिकार ने सभो गणधरों के लिए इसी प्रकार के अन्तिम तप का उल्लेख किया है। जहां यावज्जीवन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है, वह चतुर्विध १. मासं पाओवगया सव्वेऽपि य सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संढाणे॥ -आवश्यक-निर्यक्ति, गाथा ६५६ 2010_05 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ आहार'-त्यागजनित (आमरण) अनशन है। उसका एक भेद पाओवगमण-पादोपगमन है। नियुक्तिकार द्वारा प्रयुक्त पाओवगय शब्द इसी से सम्बद्ध है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में भरत चक्रवर्ती के धर्णन-प्रसंग में प्रयुक्त इसी शब्द का विवेचन करते हुए वृत्तिकार शान्ति चन्द्र ने लिखा है : “पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिस ( गृहीत-अनशन ) व्यक्ति की अप्रकम्प स्थिति होती है, उसे पादोपगत कहा जाता पादोपगमन के स्थान पर कुछ ग्रन्थों में पादपोगमन मान कर व्याख्या की गयी है, जिनका सारांश है : "आमरण-अनशन-प्राप्त साधक, जिसमें पादप-वृक्ष की तरह परिस्पन्दनकम्पन आदि से सपंथा रहित हो जाता है, वह पादपोपगमन अनशन कहा जाता है।" इस अनशन में साधक की सर्वथा निश्चल स्थिति होती है। अनशन स्वीकार करते समय वह पीठ के बल सीधा लेट जाता है। जरा भी हिलता-डुलता नहीं। वह जीवन भर उसी अवस्था में रहने को दृढ़प्रतिश होता है। उसके अचंचल या कम्पन रहित अवस्थान का बोध कराने के लिए पाद या पादप की उपमा दी गई है। उसी के आधार पर उसका नामकरण हुआ है। पादप स्थिरता या अप्रकम्पावस्था का प्रतीक है। उसकी शाखाओं, टहनियों आदि में जो हलचल दिखाई देती है, वह उसकी अपनी नहीं है। वह पचन आदि के कारण है। उसी प्रकार पादपोपगत-अनशन-प्राप्त व्यक्ति अपने किसी भी अंग-उपांग को अपनो ओर से जरा भी हिलने डुलने नहीं देता। किसी अन्य व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण सा हो जाना अन्य बात है। १ चउविहे आहारे पण्णते, तं जहा-असणे, पाणे, खाइमे, साइमे। -स्थानांग सूत्र, स्थान ४ अशनं मण्डकौवनादि, पानं चैव द्राक्षापानादि खादिमं फलादि, स्वादिमं गुडादि-एष आहारविधिश्चतुर्विधो भवति।। -अभिधानराजेन्द्र, भाग २, पृ० ५२४ २. पादो वृक्षस्य भूगतो मूलभागः, तस्येव अप्रकम्पतया उपगतम्-अवस्थानं यस्य स तथा । -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ३, सूत्र ७० वृत्ति ३. (क) पादपो वृक्षः, उपशब्दश्चोपमेयो पि सादृश्ये पि दृश्यते । ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम् पादपवन्निश्चले। -धर्मसंग्रह सटीक, अधिकार ३ (ख) सर्वथा परिस्पन्दवर्जिते चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्ने नशनभेदे । -पंचाशक टीका, विवरण १६ (ग) पावपस्येवोपगमनमस्पन्वतया वस्थानं पावपोपगमनम् । -मगवती सूत्र, शतक २५, उद्देशक ७ ____ 2010_05 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३३७ जम्बूद्वीप-प्राप्ति के वृत्तिकाश शान्तिचन्द्र ने पादप की उपमा के बजाय जो पाद की भूमिगत जड़ की उपमा दी है, वह स्यात् अधिक संगत है। अचंचल, स्थिर तथा निश्चल दशा व्यक्त करने में जड़ अधिक उपयुक्त है। भूमि में गड़े रहने से दूसरे ऐसे निमित्त साधारणतया नहीं मिलते, जो उसे हिलाए डुलाए, जबकि वृक्ष के हिलते-जुलते रहने के बराबर प्रसंग बनते रहते हैं। पादोपगत आमरण अनशन प्राप्त साधक के हिलने डुलने के प्रसंग प्रायः नहीं बनते, बहुत कम बनते हैं। दूसरे लोग भी प्रायः ध्यान रखते हैं तथा यथाप्रसंग उसके साथ ऐसा कुछ नहीं करते, जिससे उसकी अविचल दशा बाधित हो। आर्य सुधर्मा ने एक दीर्घ, पवित्र और सफल जीवन जीते हुए शप्त वर्षीय आयु में जीवन का चरम साध्य, जिसे साधने के लिए वे सर्वस्व त्याग कर साधना के पावन पथ पर चल पड़े थे, प्राप्त किया। उनका निर्वाण मगध की राजधानी राजगृह में हुआ।' उपसंहार आर्य सुधर्मा का जन्म ई. पू. ६०७ में हुआ। इन्द्रभूति गौतम का भी जन्म इसी वर्ष माना जाता है। सुधर्मा ५० वर्ष की आयु तक गृहस्थ-पर्याय में रहे। ३० वर्ष तक साधुपर्याय में रहे । भगवान् महावीर के निर्वाण और गौतम के केवली होने पर गौतम के जीवनकाल में वे १२ वर्ष असज्ञ रूप में संघ के अधिनायक रहे। जिस दिन गौतम का निर्वाण हुमा, सुधर्मा को केवल-ज्ञान प्राप्त हुमा । उनका आठ वर्ष का केवलि काल है; अतः इस अवधि में केवली के रूप में संघ-नायक रहे। . इस प्रकार ५० वर्ष गृहस्थ जीवन +३० वर्ष साधु-जीवन +१२ वर्ष अस रूप में संघप्रधान तथा +८ वर्ष सर्वज्ञ रूप में संघ-प्रधान = कुल १०० वर्ष का षयोमान होता है। दिगम्बर-परम्परा इससे कुछ भिन्न है। वहां इनका केवलि-काल बारह वर्ष का माना जाता है। जम्बूसामिचरिउ के रचयिता घोर कधि (११ वीं शती) ने सुधर्मा के १८ वर्ष तक केवली के रूप में रहने का उल्लेख किया है, जो दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के विरुद्ध है। हो सकता है, वीर कधि के सामने कोई ऐसी पट्टावती यही हो, पर वर्तमान में इस प्रकार का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है । आर्य खम्बू भायं जम्बू इस युग के अन्तिम केवली थे। वे भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्य मार्य १. परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ। इदमूई सुहम्मो अ रायगिहे निव्वुए वीरे। -आवश्यक-निर्यक्ति. गाथा ६५८ 2010_05 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सुधर्मा के अन्तेवासी थे । अर्द्धमागधी आगम वाङमय के अब तक चले जाने वाले स्रोत का बहुत कुछ श्रेय आयं जम्बू को है । भगवान् महावीर ने त्रिपदी के रूप में धर्म देशना दी । गणधरों द्वारा सूत्रात्मकतया उसका ग्रथन हुआ । भगवान् महावीर ने प्रासंगिक रूप में अपने निकटतम अन्तेवासी गणधर गौतम आदि द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर रूप में भी तत्व व्याख्यात किया । सामष्टिकरूपेण यही सब मिला कर द्वादशांगों का कलेवर है । परम जिज्ञासु भगवान् महावीर के अनन्तर आगम वाङमय के उत्तरवर्ती माध्यम गणधर सुधर्मा थे । उनके अनन्य अन्नेवासी आर्य जम्बू परम जिज्ञासु एवं मुमुक्षु थे । उनके मानस में जिज्ञासाए उभरतीं । वे अपने श्रद्धास्पद एवं पूजनीय गुरु आर्य सुधर्मा के समक्ष उन्हें उपस्थित करते । सुधर्मा उनका समाधान देते । अपनी ओर से नहीं, जैसा उन्हें भगवान् महावीर की वाणी के रूप में प्राप्त था, प्रायः वैसा कथन करते । इसी प्रकार कभी भगवान् के प्रथम गणधर आय गौतम जिज्ञासु भाव लिए अपने आराध्य से पूछा करते थे । अन्य गणधर या जिशासु उपा सक जन भी पूछते । भगवान् उन सबका समाधान करते । कुछ अपृष्ट, पर अपेक्षित तथ्य भी भगवान् प्रतिपादित करते । इन्हीं सब का आकलन श्रुत की अप्रतिम निधि के रूप में जुड़ता गया। आयं सुधर्मा अपने अन्तेवासी जम्बू को जब उत्तर देते, तो यह आप्त स्रोत मुख्यतः उनका आधार रहता । जैन आगम वाङमय के अब तक जीवित रहने का यह एक पुष्ट आधार है | आर्यं जम्बू के प्रश्न, आय सुधर्मा द्वारा विवेचन - श्रुत सुरसरी का इस प्रकार उत्तरोत्तर संप्रसार, यह जो सधा, सचमुच जैन इतिहास की एक अविस्मरणीय घटना है, जो आती संस्कृति के विकास तथा विस्तार का मूल है । प्रश्नोत्तर - क्रम प्रश्नोत्तर-क्रम का मनोज्ञ रूप प्रस्तुत करने के लिये नाया धम्मकहाओ के प्रारम्भ का कुछ अंश मननीय है : "उस समय भाय सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य काश्यपगोत्रोत्पन्न आर्य जम्बू अपने गुरु के न बहुत दूर न बहुत समीप, ऊर्ध्वं जानु, प्रवत मस्तक, धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान रूपी कोष्ठ में अवस्थित, संयम और तपस्या से अपने को प्रतिभावित करते हुए उपस्थित थे । उनको श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ । वे उठे। जहां आयं सुधर्मा थे, आये । उन्हें तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा कर वन्दन और नमन किया। आर्य सुधर्मा केन अति असन्न - समीप, न अति दूर, शुश्रूषा से सम्मुख होते हुए, अंजलिपुट किये हुएदोनों जुड़े हुए हाथों पर ललाट रखे हुए, विनय-पूर्वक अभ्यर्थना करते हुए बोले- भगवान् ! श्रमण भगवान् महावीर.... पांचवें (व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवती) अंग का यह अर्थं व्याख्यात किया, as rङ्ग ज्ञातृधर्मकथा (णायधम्मकहाओ ) का क्या अर्थ है ? कृपया बतलाइए । 2010_05 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आये (मागधी प्राकृत और आगम वाङमय आर्य स्थविर सुधर्मा जम्बू को सम्बोधन करते हुए कहने लगे ...]1 जम्बू द्वारा पूछे गये प्रश्न पूछने की विधि आदि से यह प्रकट है कि वे आचार्य के प्रति कितने श्रद्धालु, भक्तिशील और विनयावनत थे । जिज्ञासु शिष्य किस प्रकार श्रद्धा, सम्मान और विनयपूर्वक अपनी जिज्ञासा गुरु के सम्मुख उपस्थित करे, प्रस्तुत प्रसंग में इसकी गौरवपूर्ण झलक है । आये जम्बू के हृदय में आये सुधर्मा के प्रति अप्रतिम श्रद्धा थी । आचार्य से उन्हें सत्य का आलोक प्राप्त होगा, उनका ऐसा दृढ़ विश्वास था । जायसड्डे विशेषण इसी आशय को व्यक्त करता है । उनका प्रश्न क्रम श्रद्धानुस्यूत हो आगे बढ़ता है । उन्हें जो विषय स्पष्ट करने हैं, उनके सम्बन्ध में उनमें अदग्र जिज्ञासा का भाव उभरता है, जिसे सूत्र में जायस सए पद द्वारा प्रकट किया गया है । यह पद वास्तव में तत्व सम्बन्धी आस्था के विषय में सन्देह का सूचक नहीं है । जम्बू अर्थ का विशेष विशदीकरण या सापष्ट्य चाहते हैं, अत्तएव जातसंसए पद व्यवहृत हुआ है । व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र ) में भगवान् महावीर से गणधर गौतम द्वारा पूछे गये प्रश्न के सन्दर्भ में उनके विशेषण के रूप में प्रयुक्त इसी ( जायसंसए) पद की व्याख्या करते हुए नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं: “तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयश्चानवधारितार्थ ज्ञानम्, स चैवं तस्य भगवतो जातः । भगवता हि महावीरेण 'चलमाणे चलिए' इत्यादौ सूत्रे चलन् अर्थश्चलितो निर्दिष्टः । तत्र स एव चलन् स एव चलित इत्युक्तः, ततश्चैकार्थविषयावेतौ निर्देशौ - चलन् इति च वर्तमानकालविषय:, चलित इति चातीतकालविषयः । अतो न संशयः – कथं नाम यः स्वार्थो वर्तमानः, १. तेण कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेट्ठ अंतेवासी अज्जजंबू नामं अणगारे कासवगोत्तणं जाब सत्तुस्से हे अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसांभते उड्ढजाणू अहौसिरे ज्hाणकोट्ठगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं से अज्ज जंबू नामे जायसड्ढे जायसंसए जायको उहले संजाय सड्ढे संजायसंसए संजायको उहले उत्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उष्पन्नको उहले समुप्पन्न सड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहले उट्ठाए, उद्वित्ता जेमेव अज्ज हम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिषखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ बंदs नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता अज्ज सुहम्मट्स थेरस्स तच्चासन्ने नाइ दूरे सुस्सुसमाणे नमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं एवं वयासी - जइ णं भंते ! समणोणं भगवया महावीरेणं - पंचमस्त अंगस्स अयमट्ट पन्नत्त, छटुस्स णं भंते! नायाधम्मकहाणं के अट्ठे पन्नो ? जंबू त्ति अज्जसुहम्मे थेरे अज्जजंबून माणं अणगारं एवं बयासी । 2010_05 [ ३३९ -नायाघम्मकहाओ, अध्ययन १.६ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन स एवातीतो भवति ?" जो ज्ञान यथावत् अधधारित नहीं है अर्थात यथार्थरूपेण जिसकी धारणा नहीं है, प्राचार्य अभयदेव सूरि के अनुसार यह यहां संशय कहा गया है। भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित चलमाणे चलिए का उदाहरण देते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने बतलाया है कि 'चलन' वर्तमान काल का सूचक है और चलितः अतीत का। दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार जो जिज्ञासा होती है, संशय का अभिप्राय उसी से है। इस प्रसंग को इतना स्पष्ट करने का तात्पर्य यह है, आर्य जम्बू वास्तव में सन्दिग्धचेता नहीं थे, वे उत्कट जिज्ञासु थे। जायकोउहले विशेषण से यह स्पष्टतया व्यक्त होता है। कुतूहल का आशय औत्सुक्य है, वास्तव में उत्सुकता जिज्ञासु ध्यक्ति को ही होती है। संशयग्रस्त व्यक्ति विपरीत धारणा बना लेता है। ऐसा होने पर उत्सुकता का भाष मन से निकल खाता है। माय जम्बू नायाधम्मकहानो के उक्त प्रसंग में जिस प्रकार प्रश्न करते हैं, प्रायः अन्यत्र भी वे लगभग उसी शैली से प्रश्न करते पाये जाते हैं। शब्दावली में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रश्न-क्रम का एक अन्य रूप सूत्रकृतांग सूत्र में आर्य जम्बू द्वारा आयं सुधर्मा से प्रश्न किये जाने का एक और प्रकार प्राप्त होता है । आर्य जम्बू कहते हैं : पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो य परतित्यिा य। से केइ गंतहियं धम्ममाहु, अणे लिसं साहु समिक्खयाए॥ कहं च गाणं कह सणं से, सीलं कहं नायसुतस्स आसि। जाणासि गं भिक्खु जहातहेणं, अहासुहं बूहि जहा णिसंतं ॥ -श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ तथा अन्य तीर्थी-अन्य सम्प्रदायानुयायी मुझ से पूछते हैं कि एकान्त रूप से प्राणियों का हित करने वाले धर्म का सम्यक्तया आख्यान किसने किया ? १. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, १.१. प्रश्नोत्थान २. सूत्रकृतांग सूत्र, १.६.१,२ ____ 2010_05 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३४१ वे पूछते हैं कि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीय का ज्ञान, दर्शन और शोल कैसा था ? हे भिक्षो ! आप इसे यथावत् जानते हैं । जैसा आपने सुना है, तदनुसार बतलाए। . उक्त प्रसंग से यह स्पष्ट है कि आर्य जम्बू आयं सुधर्मा के मुख्य शिष्य थे। इसलिए जिज्ञासु व्यक्ति कभी-कभी सीधे प्रश्न पूछ लेते थे। उपर्युक्त गाथाओं में इसी प्रकार का उल्लेख है । जिज्ञासु श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों तथा उत्तर धर्मावलम्बी जनों ने उनसे जो जानना चाहा, वह कोई ऐसा विषय नहीं जान पड़ता, जिसे आयं जम्बू न जानते हों। पर जम्बू सोधा अपनी ओर से उत्तर नहीं देते। वे श्रुत-स्रोत को परम्परा का निर्वाह करते हैं। फलतः अपने आराध्य गुरुवय सुधर्मा से पूछते हैं । इससे उनका यह अभिप्राय स्पष्ट अनुमेय है कि तोथकरानुप्राणित तथा गणवरानुप्रथित, शृंखलानुगत श्रुत-स्रोत अविच्छिन्न या अव्यवहित रूप से जन-जन तक पहुंचे। सूत्रकृतांग सूत्र में आर्य सुधर्मा द्वारा स्वयं भगवान् महावीर से पूछे जाने का उल्लेख है। यह प्रसंग इस प्रकार है : पुच्छिस्स हं केवलियं महेसिं, कहं मितावा पारगा पुरत्या । अजाणो मे मुणि बूहि जाणं, कहं नु बाला नरयं उविति ॥ एव मए पुढे महाणुभावे, इणमोबणी कासवे आसुपन्ने । पवेदइस्सं दुहमदुग्णं, आदोणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥1 -आर्य सुधर्मा कहते हैं, मैंने प्राप्त-कवल्य महामुनि भगवान महावीर से पूछा कि नरक में प्राणी किस प्रकार अभितप्त होते हैं ? बाल-ज्ञान-गहित प्राणी किन-किन कारणों से नएक उपात करते हैं । प्रभो ! मैं नहीं जानता, आप जानते हैं, बतलाए । मेरे द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर महान् प्रभावशील, काश्यपगोत्रोत्पन्न, आशुप्राज्ञ भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा-जो दुःपूर्ण है, जो अर्थ-दुर्ग-छद्मस्थों या असर्वज्ञों के लिए जिसका अर्थ-यथातथ्य दुर्गम है, जो दोन-पापी-कष्टपूर्ण जीवों से परिव्याप्त है, जो दुष्कृतिक है-जहां दुष्कर्मों का फल भोग होता है, उस (नरक) के स्वरूप का आख्यान करूंगा। इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि आर्य सुधमा भो जम्मू से जो कहना चाहते हैं, वह पारस्परिक स्रोतानुगत हो, इस ओर वे पूर्णतया जागरूा प्रतीत होते हैं। भगवान् से मैंने पूछा, १. सूत्रकृतांग सूत्र, १.५.१.१,२ 2010_05 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड :२ वे बोले-ये शब्द आर्य सुधर्मा का विवक्षित विषय पर भगवद्-वाणी को यथावत् रूप में प्रस्तुत करने का मानस सूचित करते हैं । मायं सुधर्मा जो कहते हैं, "अजाणओ में मुणि बूहि जाणं"-मैं अज्ञाता हूं, माप ज्ञाता है, बतलाए-वह उन (आय सुधर्मा के) असीम धिनय, सरलता, श्रद्धा और भाष-प्रवणता का द्योतक है। अत्यन्त उन्नत ज्ञान के धनी, महनीय गणधर-पद के अधिकारी आर्य सुधर्मा नरक के दुःखों और कारणों के सम्बन्ध में नहीं जानते थे, यह कैसे माना जा सकता है ? यह सर्वथा उपपन्न है कि वे जानते-बूझते भी तीर्थकर के मुख से साक्षात् ज्ञात, दृष्ट, अनुभूत वाणी सुनना चाहते रहे हों और उन्हीं के यथावत् शब्दों में कहना भी। जन दर्शन में प्रमाण के दो भेद माने गये हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान इन्दियसापेक्ष और मन-सापेक्ष न होकर एकमात्र आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष है। यह सम्पूर्ण रूप में केवल केवली या सर्वज्ञ के होता है। क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म परिपूर्णरूप में क्षीण हो चुकते हैं। मनःपर्यवज्ञानी और अवधिज्ञानो के वह (शानावरणीय) अंशतः क्षीण होता है अर्थात् उनका ज्ञान भो सोधा आम-सापेक्ष होता है, परन्तु (आंशिकतया ज्ञानापरपीय कमै के क्षय के कारण) वह सोभित होता है। इसके अतिरिक्त मन और इन्द्रिय के माध्यम से जो जाना जाता है, तत्वतः वह प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष है । व्यवहार की भाषा में उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। इसीलिए जैन नेयायिकों ने उसे सख्यावहारिक प्रत्यक्ष को संज्ञा दी है। तब तक आर्य सुवर्मा के ज्ञातावरणीय कर्म का सर्वथा विलय या सम्पूर्णतया क्षय नहीं हो पाया था। वे सर्वज्ञ नहीं हुए थे; अत: साता की अपेक्षा से उनका ज्ञान अपरिपूर्ण था। स्यात् इस अपेक्षा से उन्होंने नारकीय दुःखों के न जानने की चर्चा की हो । जैसा भी हो, यहां मुख्य अभिप्राय ज्ञान को निष्यवधान-धारा यथावत् प्रवहणशील बनाये रखने का ज्ञात होता है। आचारोग, समवायांग, स्थानांग, व्याख्या-प्राप्ति आदि अंग-सूत्रों में आयं सुधर्मा द्वारा विवक्षित विषय का विवेचन प्रायः निम्नांकित शब्दावली की पृभूमि के साथ किया जाता रहा है : सुर्य मे आउसं। तेण भगवया समस्वयं । अर्थात आयुषमन् । जेसा मैंने सुना है, भगवान् महावीर ने (प्रसंगोपात विषय का) इस प्रकार आख्यान -प्रतिपादन किया है। इस आशय के भाषा-प्रयोगों से स्पष्ट है कि आगम-भ्रत की परम्परानुस्यूति बनाये रखने को ओर विशेष ध्यान रखा जाता रहा है । जम्बू के सम्बन्ध में उल्लेख उपयुक्त प्रश्ननोतर-सम्बन्धी प्रसंगों के अतिरिक्त परिचयात्मक दृष्टि से कल्पसूत्र में 2010_05 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३४३ निरूपित स्थविराधली में आयं जम्बू के सम्बन्ध में इतना-सा उल्लेख है : थेरस्स णं अज्जसुहम्मस्स अग्गिवेसायण गुत्तस्स अज्जजवुनामथेरे अतेवासी कामवगुत्तेण अर्थात् अग्निवैश्यन गोत्रोत्पन्न, स्थविर आयं सुधर्मा के काश्यपगोत्रोत्पन्न आर्य जम्बू नामक स्थविर अन्तेवासी थे। नन्दो सूत्र में स्थविरावलो के वर्णन के अन्तर्गत आयं जम्बू का आय सुधर्मा के पट्टधर के रूप में उल्लेख हुआ है : सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जम्बू नामं च कासवं ।। यह स्तुत्यात्मक रचना है । इस गाथा, में आर्य सुधर्मा और आर्य जम्बू का द्वितीया विभक्त्यन्त प्रयोग है। गाथा के उत्तरार्ध में चन्दे पद आया है, जो इनके साथ भी योजनीय है। . आर्य जम्बू के सम्बन्ध में अङ्ग, उपांग तथा तत्सम्बद्ध आगम-वाङमय में ऊपर जो कुछ कहा गया है, उससे अधिक वर्णन प्राप्त नहीं होता। दिगम्बर-वाङमय में आय जम्ब के विषय में प्राचीनतम उल्लेख तिलोयपण्णत्ती' में है। वहां केवल नामोल्लेख मात्र है। मोहक व्यक्तित्व : कवियों और लेखकों का आकर्षण आर्य जम्बू अत्यन्त सुन्दर, सुकुमार, हृद्य और प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी थे। उनका दैहिक सोष्ठध बड़ा आकर्षक था। छोटी-सी आयु में अनेक विद्याओं तथा कलाओं के मर्मज्ञ थे। पैतृक परम्परा से अतुल सम्पदा के अधिपति थे। माता-पिता के इकलौते पुत्र थे; इसलिए जो स्नेह एवं लाड़-प्यार उन्हे मिला, वह कुछ विरले ही सौभाग्यशाली पुरुषों को प्राप्त होता है । जम्बू का जिन आठ श्रेष्ठि-कन्याओं के साथ विवाह हुमा, वे अनुपम सौन्दर्य, प्रेम और सौहार्द की प्रतिमूर्ति थीं। जिसके लिए लोग सतृष्ण भाव से तरसते रहते हैं, अपरिश्रान्त रूप से अहर्निश उद्यम तथा प्रयत्न करते हैं, वह सब सम्पत्, वैभव, समृद्धि जम्बू को सहज ही प्राप्त थी। पर, मुमुक्षानुभाषित जम्बू ने इन सबका अनायास ही परित्याग कर दिया। तीनतम वैराग्य और उत्कृष्टतम त्याग का यह एक ऐसा उदाहरण था, जिसकी समानता जगत् में बहुत कम मिल सकती है । उद्दाम यौवन, अपरिमित १. सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जम्बू नामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वन्दे, वच्छ सिज्जंभवं तहा ॥ -नन्दीसूत्र, स्थविरावली, गाथा २५ २. तम्मि कदकम्मणासे जंबू सामि त्तिकेवली जादो । तस्य वि सिद्धि पवण्णे केवलिणो णत्यि अणुबद्धा ॥ -तिलोयपण्णत्ती, १४७७ 2010_05 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भोग्य वस्तुएं ; यह सब होते हुए भौतिक वासनाओं, एषणाओं और अभिसिद्धियों का अस्वीकार, अध्यात्म-अर्पित नितान्त निरपवाद साधक दशा का स्वीकार - निःसन्देह एक असाधारण एवं आश्चयंकर घटना थी । जम्बू के इस परम पुनीत अत्यन्त विरल, साहस- संवलित, आत्म-साधना की अमिट लो से. उद्दीप्त व्यक्तित्व अनेक कवियों, लेखकों और कथाकारों को आकृष्ट और प्रेरित किया । फलतः आर्य जम्बू के जीवन पर अनेक भाषाओं व शैलियों में विपुल साहित्य सर्जित हुआ । उनके जीवन से सम्बद्ध दूसरी कोटि का साहित्य वह है, जहां अन्य महापुरुषों के चरितों के साथ उनका चरित्र भी समाविष्ट है । इस प्रकार जम्बू जोवन के सम्बद्ध ऐतिहासिक तथ्यों के समाकलन के लिए साहित्यिक दृष्टि से उक्त दो प्रकार के आधार प्राप्त हैं । वसुदेव- हिंडा उपलब्ध साहित्य में वसुदेव - हिंडी' सबसे पुरानो रचना है, जिसमें आर्य जम्बू का भी जोवन वृत्तान्त वर्णित है । वसुदेव हिंडी के रचनाकार श्री संघदास गणी हैं। उनका समय विक्रम की छठी-सातवीं शताब्दी माना जाता है । वसुदेव हिंडी जैन महाराष्ट्री प्राकृत की सबसे पुरातन कृति है । इसके अनन्तर जो आर्य जंबू विषयक चरित-साहित्य रचा जाता रहा, उसका मुख्य आधार प्रायः यही ग्रन्थ यहा । इस ग्रन्थ के कथोत्पत्ति नामक प्रकरण आर्य जम्बू का इतिवृत्त है । आगम-वाङमय के प्रमुख संवाहक होने के नाते यह वांछनीय है कि आर्य जम्बू के चस्ति से पाठक अवगत हों; अतः यहां वसुदेव हिंडी के अनुसार सक्षेप में उसका साथ उपस्थित है । माता-पिता, जन्म, निवास वसुदेव हंडीका ने सर्वप्रथम मगध देश की तथा उसकी राजधानी राजगृह को नैसर्गिक छटा, वैभव, जन-समुदाय के सम्पन्न, समृद्ध एवं उल्लासपूर्ण जोबन का सजीव चित्र अंकित किया है | वहां के राजा श्रेणिक की महत्ता, उदारता, विजिगीषुता और यशस्विता की चर्चा की है । श्रणिक की पटरानी चिल्लणा (चल्लणा) और राजकुमार कोणिक (अजातश ह) का भी यथाप्रसंग उल्लेख किया है । १. प्राकृत में हिंड धातु चलने फिरने या परिभ्रमण करने के अर्थ में है । अतः वसुदेव हिंडी का अर्थ वसुदेव (वासुदेव-कृष्ण के पिता) के परिभ्रमण - वृत्तान्त हैं । इस ग्रन्थ में वसुदेव के परिभ्रमण यात्राओं का विशद वर्णन है । वे घर छोड़कर घूमने निकल जाते हैं। अनेक वर्षों तक परिभ्रमण करते रहते हैं। अनेक कन्याओं से उनका परिणय होता है । इन सब वृन्तों तथा नत्र नव अनुमत्रों का प्रस्तुत कृति में करना-रंजित साहित्यिक शैलो में वर्णन किया गया है । 2010_05 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ३४५ राजगृह में ऋषभदत्त नामक श्रेष्ठी था। उसके पास उसके पूर्वजों द्वारा अर्जित प्रचुर सम्पत्ति थी । वह विनयवान्, विद्वान्, कार्य-कुशल, दयावान्, सत्यप्रतिज्ञ तथा दानशील था । अर्हतु शासन ( जैन धर्म) में उसका अनुराग था । उसकी गृहणी का नाम धारिणी था । निरूपहत स्फटिक मणि के समान उसका निर्मल स्वभाव था । वह शीलअलंकृत थी । उसने एक बार सोते हुए अद्ध' जागृत अवस्था में पांच स्वप्न देखे | उठी । वे स्वप्न इस प्रकार थे : सदाचार से वह जाग १. निघू अग्नि २. विकसित कमल, कुमुद और कुचलय समूह से सुशोभित सरोषय । ३. फल-भाग से झुका हुआ धान का खेत । ४. जो जल - वृष्टि कर चुके हैं, ऐसे बादलों के समान धवल तथा अपने समुच्छ्रितऊर्ध्वकृत चार दांतों से युक्त गजराज । ५. वर्ण, गन्ध तथा रस पूरित जम्बू फल । धारिणी ने अपने स्वप्न पति ऋषभदत्त को सुनाये। ऋषभदत्त ने कहा कि अहंत - सर्वज्ञ द्वारा ऐसे स्वप्नों का जो फल व्याकृत - व्याख्यात किया गया है, उसके अनुसार तुम्हें एक प्रभावापन्न पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। इससे धारिणी का हृदय आनन्द-विभोर हो गया और उसने यह उत्कण्ठा प्रकट को कि ऐसा ही हो, आप ठोक हो कहते हैं । ब्रह्मलोक से युत एक देव उसके गर्भ में आया । धारिणी को अहंतु पूजा और साधुउपासना का दोहद उत्पन्न हुआ । अपनो वेभवपूर्ण स्थिति और सम्पदा के अनुरूप दोहद की पूर्ति की गयो । नवमास पूर्ण होने पर धारिणो ने पुत्र रत्न को जन्म दिया | नव-जात शिशु शायद शशी जैसो कान्ति और भानु जैसा दीप्ति से शोभित था । शुद्ध सोने के कमल तथा कर्णिकार के यस स्निग्ध किंजल्क जैसा उसका वर्ण था । उसके हस्त, पाद तथा मुख पर अशुभ वर्जित सामुद्रिक शास्त्रानुमोदित शुभ तथा प्रशस्त चिन्ह थे । जातकर्म को सम्पन्नता के पश्चात् उसका नामकरण संस्कार हुआ । माता द्वारा स्वप्न में जम्बू फल देखे जाने तथा जम्बू द्वीप के अधिष्ठातृ-देव की सन्निधि के कारण शिशु का नाम जम्बू रखा गया । धात्री द्वारा पालित पोषित होता हुआ शिशु क्रमशः बड़ा हुआ। उसके पूर्व जन्म के संस्कार थे; अतः उसने देखते-देखते शीघ्र हो अनेक कलाएं आयत्त करा लीं । आर्य सुधर्मा से सम्पर्क जम्बू युवा हुए। उन्हें देख लोगों की आंखों में प्रसन्नता fees उठती। वे प्रशंसाविलष्ट शब्दों में कहते - ये कितने दयावान्, मधुर भाषो, दूरदर्शी तथा सत्पुरूषों के प्रति आदय व सेवा के भाव रखने वाले हैं। जम्बू वास्तव में मगध देश की शोभा थे । उनका 2010_05 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड: २ जीवन आनन्द उल्लासपूर्ण था। जिनेश्वर देव की तरह गणधर सुधर्मा भव्य (मोक्ष जाने योग्य) प्राणियों का मन उल्लसित करते हुए अपने श्रमण-समुदाय सहित राजगृह आये। वे वहां गुणशील चैत्य में रुके । जम्बू ने आर्य सुवर्मा का आगमन सुना । मेघ का गर्जन सुनकर जैसे मयूर परम हर्षान्वित होता है, बेसा ही अपरिसीम हर्ष तब जम्बू को हुआ। वे रथ पर बैठे, प्रयाण किया, वहां आये । कुछ दूरी पर वाहन से उतर पड़े । अत्यन्त वैराग्य भाव लिये गणधर सुधर्मा के पास आये । उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा की, मस्तक से प्रणमन और चन्दन किया, बैठे । आर्य सुधर्मा ने कुमार जम्बू तथा समवेत जन परिषद् को उद्दिष्ठ कर जीव, अजीव, आस्रव, सम्बर, निर्जरा, बन्ध तथा अनेक पर्यायात्मक मोक्ष के स्वरूप का विश्लेषण किया । गणधर सुधर्मा का उपदेश बचन सुन जम्बू के मन में वैराग्य भाव जागा । अत्यन्त आत्म-तुष्ट होते हुए वे उठे । विनम्रतापूर्वक बन्वन किया तथा उनसे निवेदन करने लगे- 'प्रभो ! आपसे मैंने धर्म-तत्व श्रवण किया। अब में अपने माता-पिता को स्वीकृति लेकर आपके श्रीचरणों का आश्रय ले आत्म-कल्याण का अनुष्ठान करूंगा ।" 1 गणधर सुधर्मा बोले - " भव्य जनों के लिए यह करणीय - करने योग्य है ।" भाव-जागृति आर्य सुधर्मा को प्रणमन कर कुमार जम्बू रथ पर आरूढ़ हुए। जिन मार्ग से आये थे । उसी से प्रयाण कर सगरा के द्वार पर पहुंचे। वहां सामने उन्हें यानों की भीड़ दिखाई दी । सोचा, इस द्वारा से जाने से अनावश्यक विलम्ब होगा । अधिक अच्छा यह होगा, नगर के दूसरे द्वारा से प्रवेश करू, ताकि शीघ्र पहुंच सकू । वे सारथि से कहने लगे कि रथ वापिस लोटाओ, दूसरे द्वारा से नगर में प्रविष्ट होता है । सारथि ने घोड़े हांके । रथ दूसरे द्वारा पर पहुंचा। वहां जम्बू ने देखा - शिला, शत्वनी, कालचक्र आदि शस्त्र रज्जु द्वारा लटकाये हुए हैं । वे शत्रु सेना के नाश के लिए थे। उन्हें देखने पर जम्मू मन में ऊहापोह करने लगे, यदि संयोगवश ये शस्त्र मेरे यथ पर गिर जाए तो कितना बुरा हो, व्रत स्वीकार किये बिना ही मेयामरण हो जाए और में दुर्गति में जाऊं । मन में इस प्रकार संकल्प करते हुए वे सारथि से बोले कि रथ को वापिस लौटा लो। मैं आर्य सुधर्मा के पास गुणशील चेत्य जाना चाहता । सारथि ने रथ लौटा लिया । कुमार जम्बू आयं सुवर्मा के पास पहुंचे। उनसे अभ्यर्थना की--में आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा । इस प्रकार स्वेच्छापूर्वक उन्होंने ब्रह्मचयं -व्रत स्वीकार किया । रथ पर आरूढ़ हुए । नगर में आये । अपने घर पहुंचे । 2010_05 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३४७ माता-पिता से निवेदन कुमार जम्बू रथ से नीचे उतरे । उनका मुख प्रफुल्लित था। उन्होंने माता-पिता को प्रणाम किया । उनसे कहने लगे-' मैंने आज गणधर सुधर्मा से धर्मोपदेश सुना, प्रभावित हुआ । में वह पद प्राप्त करना चाहता हूँ, जहां न वृद्धावस्था है, न मरण है और न रोग व शोक ही । मैं श्रमण-प्रनज्या स्वीकार करना चाहता हूं। मुझे आज्ञा दीजिए।" कुमार जम्बू का निश्चयात्मक भाषा में वचन सुन कर माता-पिता के मुख पर बांसू छा गये। वे कहने लगे- "तुमने धर्मोपदेश सुना, यह अच्छा है। देखो, हमारे पूर्वज भी जिनशासन में अभिरत थे, पर, हमने नहीं सुना, उनमें से किसी ने भी प्रव्रज्या स्वीकार की हो। हम लोग भी लम्बे समय से धर्म-श्रवण करते आ रहे है, परन्तु, हमारा ऐसा मनोभाध कभी नहीं बना । तुमने केवल एक दिन में ऐसी कौन सी विशेषता प्राप्त कर ली कि प्रवज्या लेने की ठान ली। कुमार जम्बू ने माता-पिता को समझाते हुए कहा- "कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि बहुत काल के पश्चात् भी अपने करणीय का निश्चय नहीं कर पाते हैं और कई व्यक्ति ऐसे होते हैं कि जो थोड़े ही समय में उसे विशेषतः परिक्षात कर लेते हैं। जम्बू कुमार ने इस सन्दर्भ में माता-पिता को विशेष-परिज्ञा के उदाहरण के रूप में एक श्रेष्ठि-पुत्र का दृष्टान्त देते हुए दीक्षा लेने की स्वीकृति देने के हेतु उनसे पुनः अनुसोध किया। माता-पिता ने कहा-"आर्य सुधर्मा विहार करते हुए फिर जब यहां पधारें, अच्छा होगा, तब तुम प्रव्रजित होना ।" दुर्लभ धर्म-प्रासि के सम्बन्ध में कुमार जम्बू ने कई एक मित्रों का दृष्टान्त सुनाते हुए अविलम्ब संयम-पथ अंगीकार करने को तीव उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए कहा-"जिस प्रकार उन मित्रों ने तीर्थकर का उपदेश श्रवण कर समवारण में प्रग्या स्वोकार कर ली तथा जाम-मरण का अन्त किया, इसी प्रकार यदि में अभी ऐसा न करू, तो समय बोतने पर हो सकता है, विषयों में आसक्त हो जाने के कारण मेरा धर्म के प्रति आकर्षण हो न रहे । इसलिए मैं चाहता हूं, मुझे अभी स्वीकृति प्रदान करें। पिता ऋषभदत्त ने कहा-तुम्हारे पास विपुल सम्पदा है, जिससे सभी भोग्य पदार्थ सुलभ हैं। इसलिए अच्छा है, भोगों का पर्याप्त भोग करो, तब दीक्षा लो।" कुमार जम्बू ने इन्द्रियासक्ति के सम्बन्ध में शिलाजीत में चिपक कर मरने वाले एक मकंट का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए कहा-"अभी बचपन के कारण मुझे केवल खाने-पीने के पदार्थों की आसक्ति रहती है। दूसरे शब्दों में केवल जिह्वा के स्वाद में बंधा हूं, जिससे मैं 2010_05 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ अपने को सुगमता से मुक्त कर सकता हूं । पर, जब मैं पांचों इन्द्रियों के भोगों में आसक्त और ग्रस्त हो जाऊंगा, तब जिस प्रकार वह बन्दर दुःख से मया, क्या मैं भी जन्म-मरण का भावो नहीं बनूंगा ? मैं मौत के भय से विभीत हूं । प्रव्रज्या की आज्ञा चाहता हूं।" जम्बू कुमार के कथन पर माता कहण क्रन्दन करने लगी। उसने कहा - " पुत्र ! मेरो चिरकाल से यह अभिलाषा यही है कि मैं वय-वेश में तुम्हारा मुख देखूं, पर तुमने ऐसा निश्चय कर लिया है, जो मेरे मनोरथ की सिद्धि के प्रतिकूल है । यदि तुम मेयी अभिलाषा पूरी करोगे, तो में भो तुम्हारे साथ-साथ दीक्षा ग्रहण कर लूंगी ।" जम्बू ने कहा - "मां ! यदि आपको ऐसो उत्कण्डा है, तो बहुत सुन्दर है । मैं आपके वचन का प्रतिपालन करूंगा। पर, उस शुभ वेला के व्यतीत हो जाने पर आप मुझे नहीं योकेंगी।" माता परितुष्ट हो गयो। कहने लगी, जैसा तुम कहते हो, वैसा ही होगा । उसने आगे कहा - " जम्बू ! पहले से हो आठ श्रेष्ठि-कन्याओं का तुम्हारे लिये वाग्दान हो चुका है । यहीं निवास करने वाले सुमुद्रप्रिय, समुद्रदत, सागरादत, कुत्रे यदत, कुत्रे रसेन, वैश्रमणदत्त, वसुसेन तथा वसुपाल नामक सार्थवाह हैं। जिन शासन में उनका अनुराग है। पद्मावतो, कनकमाला, बिनयत्री, वनश्री, कनकबती, श्रीसेना, हीमतो तथा जयसेवा नामक क्रमशः उनको पत्नियां हैं। समुद्रश्री, सिन्धुमती, पद्मश्री, पद्मसेना, कन हत्री, विजयत्री, कमलावतो तथा यशोमती नामक उनको पुत्रियां हैं। ये कन्याएं तुम्हारे अनुवा हैं । तुम्हारे से इनके पाणिग्रहण का पहले से ही निश्चय किया हुआ है, इसलिए यह आवश्यक है कि उनके पिताओं को यह सब कहलाएं " जम्बू के माता-पिता की ओर से कन्याओं को सन्देश प्रेषित किया गया कि कुमार जम्बू का ऐसा निश्चय है कि वे विवाह सम्पन्न होते ही संयम ग्रहण कर लेंगे । इस पर आप लोगों का क्या विचार है ? सार्थवाहों ने ज्यों ही यह सुना, उनका मन विषण्ण हो गया तथा अनतो पक्षियों के साथ इस सम्बन्ध में वे विचार-विमर्श करने लगे । उनको कन्याओं ने वह वार्तालाप सुन लिया । सभी कन्याओं ने एक जैसा हो निश्चय किया और कहा - "आपने हमें (वचन द्वारारा) कुनाय जम्बू को दे दिया है। धर्मतः वे हो हमारे स्वामी हैं । वे जैसा करेंगे, जैसे मार्ग को ग्रहण करेंगे, हमारा भी वहो पथ होगा ।" कन्याओं का इस प्रकार निश्चित अभिप्राय जान कर उनके पिता - सार्थवाहों ने श्रेष्ठी ऋषभदत्त के पास वह संवाद भेज दिया । दिगम्बर-परम्पा में आठ के स्थान पर चाय कन्याओं का उल्लेख है । 2010_05 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३४६ विवाह सम्पन्न शुभ दिवस में जम्बू कुमार के पीठी लगाई गयी। कन्याओं के भी अपने अपने घरों में पीठी लगी। आवश्यक विधि-विधान के अनन्तर कुमार जम्बू उसी प्रकार कन्याओं के घर गये, जैसे चन्द्र तारिकाओं के सन्निकट जाते हैं। कन्याओं के साथ वे इस प्रकार घर लौटे, मानो श्री, धृत्ति, कीर्ति और लक्ष्मी को साथ लिये आये हों। सैकड़ों आनन्द तथा उल्लासपूर्ण विधि-विधानों द्वारा कुमार जम्बू को स्नान कराया गया तथा अनेकविधि आभरणों से उन्हें अलंकृत किया गया। नागर जनों द्वारा कुमार जम्बू का अभिनन्दन किया गया। इस अवसर पर श्रमण-ब्राह्मणों का आदर-सत्कार किया गया । सन्ध्या समय पारिवारिक जनों तथा नागरिकों को विशेष भोज दिया गया । कुमार जम्बू माता-पिता तथा नवोद्घाहिता वधुओं के साथ अपने वास गृह में आये। तस्करराज प्रभव : आगमन उसी देश-काल में उन्हीं दिनों वहां प्रभव नामक एक प्रसिद्ध चोर था। वह विध्यराज का पुत्र था, जयपुर निवासी था। वह अनेक कलाओं का मम-वेत्ता था । विन्ध्यराज ने उस (प्रभव) के छोटे भाई अर्थात् अपने कनिष्ट पुत्र को राज्य दे दिया था। प्रभव ने इसे अपना अपमान माना । वह घर से निकल पड़ा। वह विन्ध्याचल की दुर्गम धाटियों में रहने लगा और चोरी द्वारा जीवन चलाने लगा। उसने सुना, कुमाय जम्बू अत्यधिक भवशाली हैं। उनके वैवाहिक समारोह में अनेक समृद्धिशाली व्यक्ति सम्मिलित हैं । वह चला । वह तालोद्घाटिनी विद्या जानता था। उसने उसके द्वारा कपाट खोल लिये । अनेक तस्कर-योद्धाओं के साथ यह कुमाष जम्बू के भवन में प्रविष्ट हुआ। वह अवस्वापिनी घिद्या भी जानता था । उसके द्वारा उसने लोगों को अवसुप्त कर दिया। सभी ऊघने लगे। तस्कर उनके आभूषण तथा घस्त्र उतारने लगे । कुमार जम्बू ने यह देखा । उसने असम्भ्रान्त-निर्भय भाष से तस्करदम्ब को कहा-अतिथियों को न छूए । जम्बू के कपनमात्र से लेष्य निर्मित ( मिट्टी से बने ) पक्षों की तरह वे तस्कर स्तम्भित तथा चेप्टा-शून्य हो गये। प्रभव ने देखा, कुमार जम्बू वधुओं सहित सुखासन पर बैठे हुए ऐसे लगते हैं, मानो तारिकाओं से घिरा शरपूर्णिमा का चन्द्र हो। जम्बू और प्रभव : सम्वाद सापी तस्कर योद्धाओं को स्तम्भित तथा निश्चेष्ट देखकर तस्करराज प्रभव ने कुमार जम्बू से कहा-"म विन्ध्यराज का पुत्र प्रभव तस्कर हूं। आपके प्रति सहज ही मेरे मन में मैत्रि-भाव उद्भूत हो गपा है। मेरा अनुरोध है, आप, मुझे स्तम्भिनी तथा मोचनी नामक विद्याए सिखा दें, मैं आपको तालोद्घाटिनी एवं अवस्वापिनी विद्याए सिखला दूंगा।" 2010_05 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कुमार जम्बू ने कहा-"प्रभव ! सुनो, मैं समस्त पारिवारिकों तथा इस विपुल वैभव और सम्पत्ति का परित्याग कर कल प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा । मैंने भावात्मक दृष्ट्या सभी मारंभ-समारंभ त्यक्त कर दिये हैं। मैं एक प्रकार से अप्रमत्त बन गया हूं। मुझ पर विद्या या देवता का प्रभाव कार्यकर नहीं होता। मुझे इन सावध-अवध सहित या पापपंकिल विधाओं से कोई प्रयोजन नहीं है । इन विद्याओं का परिणाम दुर्गति है। मैंने आर्य सुधर्मा से संसार-विमोचनी विद्या प्राप्त की है।" प्रभव ने यह सब सुना। उसके विस्मय का पार नहीं रहा । मन-ही-मन सोचने लगा, कितना आश्चर्य ! जम्बू कुमार इस विपुल सम्पदा का परित्याग करने जा रहे हैं। वास्तव में ये महान् पुरुष हैं, वन्द्य हैं। प्रभव विनयाभिनत हो गया। पर, कहने लगा-"जम्बू कुमार! भोग्य विषय इस मनुष्य-लोक में सारभूत हैं। सपत्नीक उनका परिभोग करो। पण्डितजन, जो सुख प्राप्त हैं, उनके परित्याग की प्रशंसा नहीं करते। यह आपके दीक्षा लेने का समय नहीं है। असमय में ऐसा करने की बुद्धि आप में कैसे उत्पन्न हुई ? जो परिपक्व वृद्ध या प्रौढ़ अवस्था के हैं, वे यदि इस प्रकार का धर्माचरण स्वीकार करें, तो गर्दा नहीं है। कुमार जम्बू ने प्रभव को 'मधु-बिन्दु' आदि दृष्टान्तों द्वारा भोग की त्याज्यता और त्याग की वरेण्यता का सार हृदयङ्गम कराया। फलतः कुमार जम्बू के साथ जहां उनकी नवपरिणीता पत्नियां प्रवजित हुई, तस्करराज प्रभव भी अन्तत: उनके तितिक्षु तथा मुमुक्ष व्यक्तित्व से प्रभावित हो अपने तस्करा-साथियों सहित दीक्षित हो गया। तस्कर-कर्म में प्रभव ने जहां एक असाधारण ख्याति अर्जित की थी, साधना के क्षेत्र में भी उसने वस्तुतः चमत्कार किया। वह आर्य जम्बू का प्रमुख अन्तेवासी हुआ तथा आर्य जम्बू के पश्चात् आचार्य प्रभव के रूप में उनका उत्तराधिकारी, धर्म-संघ का अधिनायक तथा द्वादशांगात्मक श्रुत-संपदा का सफल संवाहक भी। दिगम्बर परम्परा में प्रभव के स्थान पर विद्युच्चर नामक तस्कर का उल्लेख है। पर, जम्बू के प्रधान विष्य या पट्टधर के रूप में उसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। दिगम्बर-परम्परानुसार जम्बू के पट्टधर विष्णु या नन्दी नामक भाचार्य हैं। आर्य जम्बू : काल-कम . आर्य जम्बू के जीवन का काल-क्रम सामान्यतः निम्नांकित रूप में माना जाता है: जन्म : ई० पू० ५४३ दीक्षा : ई० पू० ५२७ । १६ वर्ष की आयु में, भगवान् महावीर के निर्वाण के कुछ 2010_05 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मार्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३५१ केवल-शान : ई० पू० ५०७ निर्वाण : ई० पू० ४६३ । सम्पूर्ण आयु ८० वर्ष । एक और कल्पना प्रायः अधिकांश जैन लेखकों ने इस प्रकार उल्लेख किया है कि मगध नरेश सम्राट श्रेणिक ने भगवान महावीर से या गणधर गौतम से जम्बू के जन्म के सम्बन्ध में प्रश्न किये । इससे यह अनुमान होना स्वाभाविक है कि जम्बू का जन्म सम्राट् श्रेणिक के जोवन-काल में या उसके देहावसान से कुछ पूर्व या उसके आस-पास होना चाहिए। बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ। उससे आठ वर्ष पूर्व अजातशत्रु मगध के राजसिंहासन पर बैठा । लगभग उसी समय श्रेणिक की मृत्यु का समय ई०पू० ५५२ के आसपास ठहरता है। उपयुक्त विचार के सन्दर्भ में जम्बू का जन्म भी इसी के आस-पास होना चाहिए। यदि ऐसा माना जाए तो स्वोकृत मान्यता में लगभग १० वर्ण का अन्तर आता है। तदनुसार जम्बू की आयु ८० वर्षा की न होकर ६० वर्ष की होती है। वीर कवि का अभिमत ____ जंबूसामि चरिउ के लेखक वीर कवि ( ११वीं शती ) ने तथा उसके अनुसार ब्रह्म जिन दास (वि. १३ वीं शती) तथा राजमल्ल (दि. १७ वीं शती) ने भी यह उल्लेख किया है कि कुमार जम्बू ने मगधराज श्रेणिक के राज्य-काल में दीक्षा ग्रहण की थी। इतना ही नहीं, सम्राट् श्रेणिक ने उसका दीक्षोत्सव बड़े मानन्दोत्साह तथा विशाल समारोहपूर्वक आयोजित किया था। इसके अनुसार जम्बू का जन्म श्रेणिक के देहावसान के समय ई० पू० ५५२ से कम-से-कम पन्द्रह-सोलह वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिए । इस प्रकार जन्म का समय लगभग ई० पू० ५६८-५६६ सम्भावित होता है । इसे मान कर चलें, तो आर्य जम्बू की आयु लगभग १०५ वर्ष होती है। भिन्न-भिन्न पहलुओं को लेते हुए यद्यपि विद्वानों ने कुछ विचार किया है, पर, गवेषणात्मक दृष्टि से इन पर और अधिक विचार किया जाना अपेक्षित है। आशा है, विद्वजन ऐसा करेंगे । आर्य जम्बू का निर्वाण शौरसेनी षटखण्डागम के धवला टीका के रचयिता वीरसेन (आठवीं-मौवीं शती), गोम्मट्सार के कर्ता सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ( नौवीं शती), उत्तरपुराण के लेखक गुणधर ( ८६८ ई. से पूर्व ), अपभ्रंश महापुराण ( तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारु ) के प्रणेता १. इनका समय ईसा की आठवीं शती का अन्तिम चरण तथा नौवीं शती का प्रथम चरण माना जाता है। ____ 2010_05 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] . मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पुष्पदन्त (दशम शती ई०); दिगम्बर-परम्परा के इन सभी विद्वानों ने पीर निर्माण के १२ वर्ष पश्चात् गौतम, उसके १२ वर्ष पश्चात् सुधर्मा तथा उसके ४० वर्ष पश्चात् जम्बू का मोक्ष गमन मान्य किया है। इस प्रकार १२+१२+४०=वीर-निर्वाण से जम्बू-निर्वाण तक ६४ वर्ष होते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी गौतम, सुधर्मा और जम्बू के कैवल्य काल की कुल संख्या ६४ वर्ष होती है । पर, वह इस प्रकार है-गौतम का कैवल्य काल १२ वर्ष, सुधर्मा का कंवल्य काल ८ वर्ष तथा जम्बु का कैवल्य काल ४४ वर्ष=कुल ६४ वर्ष । तिलोयपण्णत्तीकार यतिवृषभ यद्यपि दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध थे, पर, प्रस्तुत विषय में उनकी काल- गणना भिन्न है। उन्होंने गौतम, सुधर्मा और जम्बू का केलि-काल ६२ वर्ष का बताया है। अप्रभ्रश जंबूसामि चरिउ के लेखक वीर कवि (११वीं शती) ने जम्बू के कैवल्य-काल के सम्बद्ध में एक नई कल्पना की है। उनके अनुसार जम्बू स्वामी दीक्षित होने के अठारह वर्ष बाद माघ शुक्ल सप्तमी को प्रातः आर्य सुधर्मा मोक्षगामी हुए। सुधर्मा के निर्वाण के अठारह वर्ष बाद जम्बू का मोक्ष हुआ। हिमवत् थैरावली में वीर निर्वाणाब्द ७० में जम्बू का निर्वाण सूचित किया है। इसके अनुसार गौतम, सुधर्मा और जम्बू का सर्वज्ञावस्या का समय ७० वर्ष का होता है। कुछ और ब्रज के धर्म-सम्प्रदायों का इतिहास के प्रसंग में आर्य जम्बू के सम्बन्ध में चर्चा की है। वहां लिखा है :......."उन्होंने १६ वर्ष की किशोरावस्था में ही अपने विवाह के तत्काल पश्चात् महावीरजी के पट्ट शिष्य सुधर्मा स्वामी से प्रव्रज्या ली थी और जीधन-पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था। प्रवज्या लेने के अनन्तर २० वर्ष तक मुनि-वृत्ति धारण करने पर वे केवल-ज्ञानी हुए थे। बाद में ४४ वर्ष तक केवल-ज्ञानी रहने के उपरान्त ८० वर्ष की आयु में उन्होंने महावीर-निर्वाण के १२ वे वर्ष' में मोक्ष-लाभ किया था। उनका देहावसान-काल वि०पू० सं० ४०८ माना जाता है। उन्होंने मथुरा के "चौरासी" नामक स्थान में तपस्या कर सिद्ध-पद प्राप्त किया था और वहां पर ही उनका निर्वाण हुमा था। वे जैन-धर्म के अन्तिम केवल-ज्ञानी थे। १. वासट्टो वासाणि गोवमपटुवीण गाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडस्वेण ॥ -तिकोयपणती, १४७८ २. ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास, भाग २, पृ० ५५ 2010_05 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ) आष (रुद्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३५३ लेखक ने यहां वीर-निर्वाण के ६२ वें वर्ष में ४४ वर्ष की कैवल्यावस्था के अनन्तर जम्बू के निर्वाण प्राप्त करने का जो उल्लेख किया है, वह चिन्त्य प्रतीत होता है । ६२ वर्ष की संख्या तो तिलोयपप्णत्ती से मिलती है, पर, जम्बू का ४४ वर्ष का जो केवलिकाल बताया है, वह कठिनाई उत्पन्न करता है। इसके अनुसार गौतम और सुधर्मा, दोनों के वेवलि-काल के १८ वर्ष बने रहते हैं, जिनकी संगति किसी भी परम्परा से नहीं बैठती ! जम्ब के अनन्तर कतिपय विच्छेद ___ जम्बू अन्तिम केवली थे। प्रायः सभी जैन परम्पराए इस सम्बन्ध में एकमत हैं । जैन मान्यता के अनुसार जम्बू के पश्चात् १. मनःपर्यव ज्ञान, २. परम अवधि ज्ञान, ३. पुलाक लब्धि, ४. आहारक शरीर, ५. उपशम श्रेणी, ६. क्षपक श्रेणी, ७. जिनकल्प साधना, ८. परिहार विशुद्धि चारित्र, ६. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र, १०. यथाख्यात चारित्र, ११. केवल ज्ञान, १२. मोक्ष-गमन का विच्छेद हो गया । इस विच्छेद क्रम का अन्यान्य हेतुओं के साथ काल प्रभाव भी एक कारण हो सकता है । तिलोयपण्णत्ती का एक विवेच्य प्रसंग तिलोयपण्णत्ती में भगवान् महावीर से आर्य जम्बू तक का जो केवलि-क्रम वर्णित हुआ है, वहां अन्त में उल्लेख है कि जम्बू स्वामो द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लिये जाने पर अनुबद्ध केवली' नहीं हुए। साधारणतया इसका यही अर्थ लिया जाता है कि जम्बू के पश्चात् केवल-ज्ञान की परम्परा गतिशील नहीं रही। जम्बू के अनन्तर विच्छिन्न होने वाले दश बोलों में केवल-ज्ञान का विच्छेद है ही। पर, तिलोयपण्णत्ती में एक प्रसंग और आया है, जिसमें अन्तिम केवलज्ञानी, अन्तिम चारण ऋषि, अन्तिम प्रज्ञा-श्रमण, अन्तिम अवधि ज्ञानी तथा आहेती दीक्षा से दीक्षित अन्तिम मुकुटधारी सम्राट् आदि का वर्णन है। वहां कहा गया है १. मण-परमोहि-पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय केवलि सिझणा य जंबूम्मि वोच्छिण्णा ॥ --विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २५९३ २. जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तरिस सिद्दे सुधम्मसामी तदो जादो।। सम्मि कदकम्मणा से जंबू सामि त्ति केवलो जादो । तत्थ वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो गस्थि अणुबद्धा ॥ -तिलोयपण्णत्ती, १४७६-७७ 2010_05 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कि केवल ज्ञानियों में अन्तिम श्रीधर कुण्डलगिरि पर सिद्ध हुए। प्रश्न उपस्थित होता है, यति वृषभ एक स्थान पर जम्बू के अनन्तर ( अनुबद्ध ) वेवली होने का निषेध करते हैं और यहां श्रीधर को वे अन्तिम वेवली बतलाते हैं, इसकी संगति कैसे हो ? गहराई में जाने पर एक तथ्य पकड़ में आता है। यति वृषभ ने केवली के पूर्व जो अनुबद्ध विशेषण दिया है, वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। यह विशेषण सम्भवतः इस अर्थ का द्योतक है कि जम्बू के पश्चात् क्रमबद्ध- अनवरत केवली नहीं हुए अर्थात् केवलि-परम्परा सतत चालू नहीं रही। इससे ध्वनित होता है कि श्रीधर, जो अन्तिम केवली हुए, अनुक्रम में न होकर जम्बू के कतिपय पीढ़ियों के पश्चात् केवली हुए हों। इतना होते हुए भी यह तथ्य जम्बू के पश्चात् विच्छिन्न होने वाले बोलों में के पल ज्ञान के विच्छेद का जो उल्लेख है, उसके प्रतिकूल है ही1 श्रीधर के समय, अपस्थिति आदि पर गवेषणा किया जाना वांछनीय है; क्योंकि अब तक प्रायः यही मान्यता प्रचलित है कि आर्य जम्बू अन्तिम केवलज्ञानी थे। पर, चरम केवली के रूप में पति वृषभ ने नो श्रीधर का प्रसंग उपस्थापित किया है, उससे वह मान्यता टकराती है। श्रत : कण्ठाझा : अपरिवत्य वेदों को श्रुति कहे जाने का कारण सम्भवतः यही है कि उन्हें सुनकर, गुरु मुख से आयत्त कर स्मरण रखने की परम्परा रही है । जेन आगम-वाइ मय को भी श्रु त कहा जाता है। उसका भी यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि उसे सुनकर, आचार्य या उपाध्याय से अधिगत कर याद रखे जाने का प्रचलन था । सुनकर जो स्मरण रखा जाए, उसमें सुनी हुई शब्दावली की यथावता स्थिर रह सके, यह कठिन प्रतीत होता है। पुरा कालीन मनीषियों के ध्यान से यह तथ्य बाहर नहीं था; अतः वे आरम्भ से ही इस ओर यथेष्ट जागरूकता और सावधानी बरतते रहे । वैदिक विद्वानों ने संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम पाठ, जटा-पाठ तथा धन-पाठ के रूप में वेद-मन्त्रों के पान या उच्चारण का एक बैज्ञानिक अभ्यासक्रम १. कंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। चारणरिसीसु चरिमो सुपासचंदामिधाणो य॥ पण्णसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणीसुं। चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादि संपण्णो॥ मउडधरेसुं चरिमो जिणदिवं धरदि चंदगुत्तो य। तत्तो मउडधरा दुप्पव्वजं गेव गेण्हति ॥ -तिलोयपण्णती, १४७६-८१ ____ 2010_05 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आष ( अर्द्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३५५ निर्धारित किया था। इस वैज्ञानिक पाठ क्रम के कारण ही वेदो का शाब्दिक कलेवर आज भी अक्षुण्ण विद्यमान है। ___ जैन आ गमज्ञों ने इसे भलीभांति अनुभव किया। उन्होंने भी आगमों के पाठ या उच्चारण के सम्बन्ध में कुछ ऐसी मर्यादाएं, नियमन या परम्पराए' बांधीं, जिनसे पाठ का शुद्ध स्वरूप अपरिवत्यं रह सके । 3 नुयोगद्वार सूत्र में आगमतः द्रव्यावश्यक के प्रसंग में सूचित किया गया है कि आगमपाठ की क्या-क्या विशेषताए हैं। वे इस प्रकार हैं : १. शिक्षित- साधारणतया पाठ सीख लेना, उसका सामान्यतः उच्चारण जान लेना। २. स्थित-सीखे हुए पाठ को मस्तिष्क में स्थिर करना । ३ जित-क्रमानुरूप आगम-वाणी का पठन करना। यह तभी सधता है, जब पाठ ___ जिम-वर्शगत-अधिकृत या स्वायत्त हो जाता है। ४. मित-मित का अर्थ मान परिमाण या माप होता है। पाठ के साथ मित्त विशेषण जुड़ने का आशय पाठगत अक्षर आदि की मर्यादा, नियम, संयोजन आदि जानना है। ५. परिजित-अनुक्रमतया पाठ करना सरल है। यदि उसी पाठ का व्यतिक्रम से या व्युत्क्रम से उच्चारण किया जाए, तो बड़ी कठिनता होती है। यह तभी सम्भव होता है, जब पाठ परिजित अर्थात् बहुत अच्छी तरह अधिकृत हो । अध्येता को व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से पाठ करने का भी अभ्यास हो। ६. नामसम-हर किसी को अपना नाम प्रतिक्षण, किसी भी प्रकार की स्थिति में सम्यक स्मरण रहता है । वह प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसात् हो जाता है । अपने नाम की तरह आगम-पाठ का आत्मसात् हो जाना । ऐसा होने पर अध्येता किसी भी समय पाठ का यथावत् सहज रूप में उच्चारण कर सकता है । १. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'वेद और उनकी भाषा' शीर्षक विवेचन २. आगमओ वव्वावस्सयं-जस्स " आवस्स एति पद-सिक्खतं, ठितं, जिलं, मितं, परिजितं, नामसमं, घोससमं, अहोणक्खर, अणच्चक्खर, अब्वाइद्धषखरं, अवखलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंट्ठोट्ठविप्पमुक्कं गुरु वायणोवगयं । -अनुयोगद्वार सूत्र, ११ 2010_05 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ख : २ घोषसम-घोष का अर्थ ध्वनि है । पाठ शुद्ध घोष या ध्वनिपूर्वक उच्चरित किया जाना चाहिए । व्याख्याकारों ने घोष का आशय उदात्त', अनुदात्त तथा स्वरित अभिहित किया। जहां जिस प्रकार का स्वर उच्चरित होना अपेक्षित हो, वहां वैसा ही उच्चरित होना । वेद-मन्त्रों के उच्चारण में बहुत सावधानी रखी जाती थी। घोषसम के अभिप्राय में इतना और जोड़ा जाना भी संगत प्रतीत होता है कि जिन वर्गों के जो-जो उच्चारण स्थान हों, उनका उन-उन स्थानों से यथावत् उच्चारण किया जाए। व्याकरण में उच्चारणसम्बन्धी जिस उपक्रम को प्रयत्न किया जाता है, घोषसम में उसका भी समावेश होता है। १. उच्चदात्तः।२. नोचैरनुदातः।३. समवृत्या स्वरितः। -वैयाकरणसिद्धान्त कौमुदी, १.२ २९-३१ ४. मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह। सा वाग्वजो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्र शत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥ -पाणिनीय शिक्षा, ५२ ५. वर्णों के उच्चारण में कुछ चेष्टा करनी पड़ती है, उसे 'यल' कहते हैं। यह दो प्रकार का है। जो वर्ण के मुख से बाहर आने से पहले मुख के भीतर होता है, उसको अभ्यान्तर कहते हैं। यह मुख के भीतर होता हैं और पहले होता है। बिना इसके बाह्य यत्न निष्फल है। यही इसकी प्रकृष्टता है; अतएव इसे प्रयत्न कहा जाता है। 'प्रकृष्टो यत्नः प्रपत्नः' यह अर्थ संगत भी इसीलिए है । इसका अनुभव उच्चारण करने वाला ही कर सकता है; क्योंकि उसी के मुख के भीतर तो यह होता है। दूसरा यत्न मुख से वर्ण निकलते समय होता है; अतएव यह बाह्य कहा जाता है। इसका अनुभव . सुनने वाला भी कर सकता है । यत्नो द्विधा-आभ्यन्तरो बाहश्च । आद्य: पंचधास्पृष्ट-ईषत्स्पृष्ट-ईषद्विवृत-विवृत-संवृत मेवात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम् । ईषद्विवृतभूष्मणाम् । विवृतं स्वराणाम् । हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे सवृतम् , प्रक्रियावशायां तु विवृतमेव । बाह्यस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽ घोषोऽ ल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति । खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथम तृतीयपंचमा मणश्चाल्पप्राणा:। वर्गाणां द्वितीयचतुर्थों शलश्च महाप्राणाः।। -लघु सिद्धान्त कौमुदी, संज्ञाप्रकरणम्, पृ० १८-२० ____ 2010_05 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३५. ८. अहीनाक्षर-उच्चार्यमाण पाठ में किसी भी वर्ण को हीन अर्थात् गायब या अस्पष्ट न करना । पाठ स्पष्ट होना चाहिए। ६. अन्त्यक्षर-अचार्यमाण पाठ में जितने अक्षर हों, ठीक वे ही उच्चरित हों, कोई अतिरिक्त या अधिक न मिल जाए । १०. अध्याविद्धाक्षर-अ+वि+आ+विद्ध के योग से अध्याविद्ध शब्द बना है। विद्ध का अर्थ बिंधा हुआ है और उसके पहले 'आ' उपसर्ग लग जाने से उसका अर्थ सब ओर से या भली-भांति बिंधा हुआ हो जाता है। 'आ' से पूर्व लगा 'वि' उपसर्ग बिंध जाने के अर्थ में और विशेषता ला देता है। अक्षर के ध्याविद्ध होने का अर्थ है, उसका अपहत होना, पीड़ित होना । उपहनन या पीड़न का आशय अक्षरों के विपरीत या उल्टे पठन से है। चैसा नहीं होना चाहिए। ११. अस्खलित- पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण होना चाहिए। प्रवाह में एक लय ( Rhythm ) होती है, जिससे पाठ द्वारा व्यज्यमान आशय सुष्ठुतया अवस्थित रहता है; अतएव पाठ में स्खलन नहीं होना चाहिए। अस्खलित रूप में किये जाने वाले पाठ की अर्थ-ज्ञापकता वैशद्य लिये रहती है। १२. अमिलित - अजागरूकता या असावधानी से किये जाने वाले पाठ में यह आशंकित रहता है कि दूसरे अक्षर कदाचित् पाठ के अक्षरों के साथ मिल जाए। घेसा होने से पाठोच्चारण की शुद्धता व्याहत हो जाती है। वैसा नहीं होना चाहिए। १३. अव्यत्यानेडित-अ+वि+अति+आमेडित का अर्थ शब्द या ध्वनि की आवृत्ति है। इस शब्द का मूल रूप 'अवच्चामेलिय' है। 'अ' उपसर्ग निषेधा थंक 'अ' के बिना इसका रूप 'वच्चामेलिय' है। पाइअसद्दमहण्णवो में ___ 'बच्चामेलिय' और 'विच्चामेलिय' दोनों रूप दिये हैं। दोनों का एक ही अर्थ है। वहां भिन्न-भिन्न अंशों से मिश्रित 'अस्थान में ही छिन होकर चिर प्रथित' तथा 'तोड़ कर सांधा हुआ' अर्थ किया गया है। सूत्र Monier M. १.(क) संस्कृत-हिन्बो कोश, आप्टे, पृ० ११५ (ख) Reduplication : Sanskrit-English Dictionary: Sir Williams, P. 147 २. पाइअसद्दमहण्णवो, पृ० ७७६ 2010_05 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ व्याख्याताओं ने इसका अर्थ अन्य सूत्रों अथवा शास्त्रों के मिलते-जुलते या सामानार्थक पाठ को चालू या क्रियमाण-उच्चार्यमाण पाठ से मिला देना किया है, जो कोशकारों द्वारा की गयी व्याख्या से मिलता हुआ है। शास्त्र पाठ या सूत्रोच्चारण में आम्रडन, अत्यधिक आर्मेडन व्यत्यानंडन नहीं होना चाहिए। १४, प्रतिपूर्ण-शीघ्रता या अतिशीघ्रता से अस्त-ध्यस्तता आती है। जिससे उच्चारणीय पाठ का अंश छूट भी सकता है। पाठ का पूर्णरूप से समग्रतया, उसके बिना किसी अंश को छोड़े उच्चारण करना चाहिए । १५. प्रतिपूर्ण घोष - पाठोच्चारण में जहां लय के अनुरूप ( Rhythmically) बोलना आवश्यक है, वहां ध्वनि का परिपूर्ण या स्पष्ट उच्चारण भी उतना ही अपेक्षित उच्चार्यमाण है। पाठ का उच्चारण इतने मन्द स्वर से न हो कि उसके सुनाई देने में भी कठिनाई हो। प्रतिपूर्ण घोष समोचीन, संगत, वांछित स्वर से उच्चारण करने का सूचक है । जैसे, मन्द स्वर से उच्छवारण करना पज्यं है, उसी प्रकार अति तीन स्वर से उच्चारण करना भी दूषणीय है । १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त-कण्ठ+ओष्ठ+विप्र+मुक्त के योग से यह शब्द निष्पन्न हुआ है। मुक्त का अर्थ छूटा हुआ है। जहां उच्चारण में कम सावधानी बरती जाती है, वहां उच्चायं माणी वर्ण कुछ कण्ठ में, कुछ होठों में बहुधा अटक जाते हैं। जैसा अपेक्षित हो, पैसा स्पष्ट और सुबोध्य उच्चारण नहीं हो पाता। पाठोच्चारण के सम्बन्ध में जो सूचन किया गया है, एक ओर वह उच्चारण के परिष्कृत रूप ओर प्रवाह की यथावत्ता बनाये रखने के यत्न का द्योतक है, वहीं दूसरी ओर उच्चारण, पठन, अभ्यास पूर्वक अधिगत या स्वायत किये गये शास्त्रों को यथावत् स्मृति में टिकाये रखने का भी सूचक है। इन सूचनाओं में अनुक्रम, व्यतिक्रम तथा घुत्का से पाठ करना, पाठ में किसी वर्ण को लुन न कराना, अधिक या अतिरिक्त अक्षर न जोड़ना, पाठगत अक्षरों को परस्पर न मिलाना या किन्हीं अन्य अक्षरों को पाठ के अक्षरों के साथ न मिलाना आदि के रूप में जो तथ्य उपस्थापित किये हैं, वे वस्तुतः बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसके लिये सम्भवतः यही भावना रही हुई प्रतीत होता है कि प्रवण-परम्परा से उतरोतर गति तोल द्वादशांगमय आगम-बाङमय का स्रोत कभो परिवर्तित, विचलित तथा विकृत न होने पाए । श्रत को उद्भव सर्वज्ञ ज्ञान की पहषणा या अभिव्यसना क्यों करते हैं, वह आगम रूप में किस प्रकार ____ 2010_05 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आषं (अद्ध मागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३५६ परिणत होता है, इसका विशेषावश्यक भाष्य में बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है : . 'तप, नियम तथा ज्ञान रूपी वृक्ष पर आरूढ़ अमित-अनन्त-सम्पन्न केवल ज्ञानी भव्य जनों को उद्बोधित करने के हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त प्रथन करते हैं।'' वृक्ष के दृष्टांत का विशदीकरण करते हुए भाष्यकार लिखते हैं : 'जैसे, विपुल धनखण्ड के मध्य एक रम्य, उन्नत तथा प्रलम्ब शाखान्वित कल्प-वृक्ष है। एक साहसिक व्यक्ति उस पर आरूढ़ हो जाता है। वह वहां अनेक प्रकार के सुरभित पुष्पों को ग्रहण कर लेता है। भूमि पर ऐसे पुरुष हैं, जो पुष्प लेने के इच्छुक हैं और तदर्थ उन्होंने वस्त्र फैला रखे हैं। वह व्यक्ति उन फूलों को फैलाये हुए वस्त्रों पर प्रक्षिप्त कर देता है। वे पुरुष अन्य लोगों पर अनुकम्पा करने के निमित्त उन फूलों को गूथते हैं। इसी तरह यह जगत् एक वन-खण्ड है। वहां तप, नियम और ज्ञानमय कल्प-वृक्ष है। चौंतीस अतिशय-युक्त सर्वज्ञ उस पर आरूढ़ हैं । वे केवलो परिपूर्ण ज्ञान-रूपी पुष्पों को छद्मस्थता रूप भूमि पर अवस्थित शान रूपी पुष्प के अर्थी - इच्छक गणधरों के निमल बुद्धिरूपो पट पर प्रक्षिप्त करते हैं।" १. तब-नियम नाणरूवखं आरूढो केवली अभियनाणी। तो मुयइ नाणबुट्टि भवियजणविबोहणाए ॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिव्हिडं निरवसेसं । तित्थपरभासियाहं गंथंति तओ पवयणट्ठा ।। -विशेषावश्यक भाष्य, १०६४-६५ २. रुक्खाइरूवयनिरुवणत्य मिह दव्वरुक्ख दिढतो । जह कोई विउलवणसंऽमज्झयारयिं रम्म । तुगं विडलवरचं साइसओ कप्परुक्खमारूढो । पज्जवगहियबहुविहसुसुरभिकुसुमो ऽणुकंपाए । कुसुमत्थिभूमिचिष्ट्रिय पुरिसपसारिय पडेसु पक्खिवइ । गंयंति तेऽवि घेत सेसजणाणुगहड्ढाए । 'लोगवणसंडमज्झे चौत्तीसाइसयसंपदोवेओ। तब-नियम-नाणाम इयं स कप्परुक्खं समारूढो ॥ मा होज्ज नाणगहणम्मि संसओ तेण केवलिग्गहणं । सोऽवि चउहा तओऽयं सवण्णू अभियनाणित्ति ॥ पज्जतनाणकुसुमो ताइ छउमत्थभूमिसंथेसु । नाणकुसुमत्यिगणहरसियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ ।। -विशेषावश्यक भाष्य, १०९६-११०१ 2010_05 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ एक प्रश्न : एक समाधान भाष्यकार ने स्वयं ही प्रश्न उपस्थित करते हुये इसका और विश्लेषण किया है, जो पठनीय है : "सर्वज्ञ भगवान् कृतार्थ है। कुछ करना उनके लिये भेष नहीं है। फिर वे धर्मप्ररूपणा क्यों करते हैं ? सर्वज्ञ सर्व उपाय और विधि-वेत्ता हैं । वे भव्य जनों को ही बोध देने के लिए ऐसा करते हैं, अभव्यों को क्यों नहीं उद्बोधित करते ?" समाधान प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं : "तीर्थकर एकान्त रूप से कृतार्थ नहीं हैं; क्योंकि उनके जिन नाम कम का उदय है। वह कम वन्ध्य या निष्फल नहीं है; अतः उसे क्षोण करने के हेतु यही उपाय है। अथवा कृतार्थ होते हुये भी जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है, वैसे हो दूसरों से उपकृत न होकर भी परोपकारपरायणता के कारण दूसरों का परम हित करना उनका स्वभाव है । कमल सूर्य से बोध पाते हैं-विकसित होते हैं तो क्या सूर्य का उनके प्रति राग है ? कुमुद विकसित नहीं होते, तो क्या सूर्य का उनके प्रति द्वेष है ? सूर्य की किरणों का प्रभाव एक समान है, पर, कमल उससे जो विकसित होते हैं मौर कुमुद नहीं होते, यह सूर्य का, कमलों का, कुमुदों का अपना अपना स्वभाव है। उगा हुआ भो प्रकाशधर्मा सूर्य उल्लु के लिये उसके अपने दोष के कारण अन्धकार रूप है, उसी प्रकार जिन रूपी सूर्य अभषों के लिये बोध-रूपी प्रकाश नहीं कर सकते । अथवा जिस प्रकार साध्य रोग को चिकित्सा करता हुआ वैद्य रोगी के प्रति रागो और असाध्य रोग की चिकित्सा न करता हुआ रोगो के प्रति द्वेषी नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार भव्य जनों के कम-रोग को नष्ट करते हुए जितेन्द्ररूपी वैद्य उसके प्रति रागी नहीं होते तथा अभव्य जनों के असाध्य कम-रूपी रोग का अपचय न करने से उसके प्रति वे द्वेषी नहीं कहे जा सकते। जसे, कलाकार अनुपयुक्त काष्ठ आदि को छोड़ कर उपयुक्त काठ आदि में रूप-रवा करता हुआ अनुपयुक्त काष्ठ के प्रति द्वेषी और उपयुक्त काष्ठ के प्रति अनुरागी नहीं कहा जाता, उसी प्रकार योग्य को प्रतिबोध देते हुए और अयोग्य को न देते हुए जिनेश्वर देव न योग्य के प्रति रागी और न अयोग्य के प्रति द्वषो कहे जा सकते हैं ।1 १. कोस कहेइ कयत्थो किं वा भवियाण चेव बोहत्थं । सवोपायत्रिहिण्णे किं वाऽभव्वे न बोहैइ ॥ नेगतेण कयत्थो जेणोदिन्नं जिणिभ्वनाम से । तदवंझफलं तस्स य ख वणोवाओऽयमेव जओ ॥ जं व कयत्यस्स वि से अगुवकयपरोवगारिसाभव । परमहियदेसयत्तं भासयसाभवमिव रविणो । किं व कमलेसु राओ रविणो बोहेइ जेण सो ताई। कुमुएसु व से दोसो जं न विवुज्झति से ताई॥ 2010_05 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आषं ( अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३६१ पुष्पमाला की तरह स्त्रमाला को नाथन बोजादि बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति ( गणधर ; उस ज्ञानमयी पुष्प वृष्टि को समग्रतया ग्रहण कर विचित्र पुष्प-माला की तरह प्रवचन के निमित्त सूत्र-माला-शास्त्र-माला ग्रथित करते हैं। जिस प्रकार मुक्त-बिखरे हुए पुष्पों का ग्रहण दुष्कर होता है और गूथे हुए पुष्पों या पुष्प-गुच्छों का ग्रहण सुकर होता है, वही प्रकार जिन-वचन रूपी पुष्पों के सम्बन्ध में है। पद, वाक्य, प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक वे ( सूत्र ) व्यवस्थित हों, तो यह गृहीत है, यह गृहीतव्य है, इस प्रकार समीचीनता और सरलता के साथ उनका ग्रहण, जं बोहमउलणाइ सूरकरामरिसओ समाणाओ। कमलकुमुयाण तो तं साभव्वं तस्स तेसिं च ॥ जह बोलूगाईणं पगास धम्मावि सो सदोसेण । उइओऽवि तमोरूनो एवमभव्याण जिणसूरो ॥ सज्झ तिगिच्छमाणो रोगं रागी न भण्णए वेज्जो। मुणमाणो य असझं निसेहयंतो जह अदो अदोसो ॥ तह भव्वकम्मरोग नासंतो रागव न जिणवेज्जो । न य दोसि अभवासझकम्मरोग निसेहंतो ॥ मोत्त अजोग्गं जोग्गे दलिए रूवं करेइ रूवारो। न य रागदोसिल्लो तहेव जोगे विबोहेतो ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, ११०२-१११० १. जिस बुद्धि द्वारा एक पद से अनेक पद गृहीत कर लिये जाते हैं, उसे बीज-बुद्धि कहते हैं । बीन-बुद्धि के साफ पाठ में उल्लिखित आदि शब्द कोष्ठ-बुद्धि का सूचक है । जैसे, धान्य कोष्ठ अपने में अखण्ड धान्य-भण्डार संजोये रखता है, उसी प्रकार जो बुद्धि अखण्ड सूत्र-वाड्मय को धारण करती है, वह कोष्ठ-बुद्धि कही जाती है। प्रवचन का अभिप्राय प्रसिद्ध वचन या प्रशस्त वचन या धर्मसंघ से है अथवा प्रवचन से द्वादशांग श्रुत लिया जा सकता है । वह ( द्वादशांग श्रुत ) किस प्रकार ( उद्भावित ) हो, इस आशय से द्वादशांगात्मक प्रवचन के विस्तार के लिए या संघ पर अनुग्रह करने के लिए गणवर सूत्र-रचना करते हैं। द्वादशांग रूप प्रवचन सुखपूर्वक ग्रहण किया जा सके, उसका सुखपूर्वक गुणन-परावर्तन, धारण-मरण किया जा सके, सुखपूर्वक दूसरों को दिया जा सके, सुखपूर्वक पृच्छा-विवेचन, विश्लेषण, अन्वेषण कि जा सके, एतदर्थ गगधरों का सूत्र-रवना का प्रयत्न होता है। ____ 2010_05 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ गुणन-परावर्तन, धारण-स्मरण, दान, पृच्छा आदि सध सकते हैं। इसी कारण गणधरों ने श्रुत की अविच्छिन्न रचना की। उनके लिए बेसा अवश्य करणीय था, क्योंकि उन (गणधरों) की वैसी मर्यादा है। गणघर-नाम-कर्म के उदय से उनके द्वारा श्रुत-रचना किया जाना अनिवार्य है । सभी गणधर ऐसा करते रहे हैं।' स्पष्टीकरण के हेतु भाषयकार जिज्ञासा-समाधान की भाषा में आगे बतलाते हैं : "तीर्थकर द्वारा आख्यात वचनों को गणधर स्वरूप या कलेवर देते हैं। फिर उनमें क्या विशेषता है ? यथार्थता यह है कि तीर्थकर गणधरों की बुद्धि की अपेक्षा से संक्षेप में तत्वा ख्यान करते हैं, सर्वसाधारण हेतुक विस्तार से नहीं। दूसरे शब्दों में अर्हत् ( सूक्ष्म ) अर्थभाषित करते हैं । गणधर निपुणतापूर्वक उसका ( विस्तृत ) सूत्रात्मक ग्रथन करते हैं। इस प्रकार धर्म-शास्त्र के हित के लिए सूत्र प्रवर्तित होते हैं।" १. तं नाणकुसुमवुद्धिं घेतुं बीयाइबुद्धओ सव्वं । गंयंति पवयणट्ठा माला इव चित्तकुसुमाणं ॥ पगयं वयणं पवयण मिह सुयनाणं कह' तय होज्जा । पवयणमहवा संघो गति तयणुग्गट्टाए। घेतुं व सुहं सुहगुणणधारणा दाउं पुच्छिउं चेव । एएहिं कारगेहिं जीयं ति कयं गणहरेहि ॥ मुक्ककुसुमाण गहणाइयाई जह दुक्कर करेउ जे। मुच्छाणं च सुहयर तहेव जिणवयणकुसुमाणं ॥ पय-वक-पगरण-उझाय-पाहुडाइनियत कमपमाणं । तवणुसरता सुहं चिय घेप्पइ गहियं इदं गेझ । एवं गुणणं धरणं धाणं पुच्छा य तदणुसारेण । होइ सुहं जीयंति य कोयव्वमियं जओऽवस्सं ॥ सव्वेहिं गणहरेहिं जीयंति सुयं जओ न वोच्छिन्न । गणहरमज्जाया वा जीयं सव्वाणुचिन्नं वा ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, ११११-१७ २. जिणमणिइ च्चिय सुतुं गणहरकरणम्मि को विसेसो त्थ । सो तदविक्खो भासइ न उ वित्थर औ सुय किं तु॥ अत्थं भासइ अरहा सुत्तुं गंथं ति गणहरा निउणं । सासणस्स हिपढाए तो सुत्तं पवत्तेई ॥ --वही. १११८-१९ 2010_05 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] अर्थ को अनभिलाप्यता अर्थ को वाभगम्यता या वागगभ्यता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करने के अभिप्राय से भाष्यकार लिखते हैं: "अयं अनभिलाप्य है - वह अभिलाप या निबंधन का विषय नहीं है । इसलिए शब्दरूपात्मक नहीं है । ऐसी स्थिति में अर्थ का किस प्रकार कथन करा सकते हैं ? शब्द का फल अर्थ - प्रत्यायन है - वह अर्थ की प्रतीति कराता है । इसलिए शब्द में अर्थ का उपचार किया गया है । इस दृष्टिकोण से अर्थ-कथन का उल्लेख किया गया है । पुनः आशंका करते हैं---" तब ऐसा कहा जा सकता है, अर्हत् अर्थ - प्रत्यायक सूत्र ही भाषित करते हैं, अर्थ नहीं । गणधर उसी का संचयन करते हैं । तब दोनो में क्या अन्य हुआ है ?" आष (अद्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय समाधान दिया जाता है - "अर्हत् पुरुषापेक्षया - गणधरों की अपेक्षा से स्तोक-थोडा सा कहते हैं, वे द्वादशांगी नहीं कहते; अतः द्वादशांगी की अपेक्षा से वह (अर्हत्-भाषित) अर्थ है तथा गणधरों की अपेक्षा से सूत्र 11 मातृका पद उत्पाद, व्यय aur gate मूलक तीन पद, जो महंतु द्वारा भाषित होते हैं, मातृका पद कहे जाते हैं । उस सम्बन्ध में भाष्यकार लिखते हैं : "अंगावि सूत्र रचना से निरपेक्ष होने के कारण (तीन) मातृका पद अर्थं कहे जाते हैं । जिस प्रकार द्वादशांग प्रषचन- संघ के लिए हितकर है, उस प्रकार वे ( मातृका पद ) हितकर नहीं हैं। संघ के लिए वही हितकर है, जो सुखपूर्वक ग्रहण किया जा सके । वह गणधरों द्वारा रचित बारह प्रकार का श्रुत है। वह निपुण - नियतगुण या निर्दोष, सुक्ष्म तथा महान् - विस्तृत अर्थ का प्रतिपादक है ।' 2 १. नणु अत्थोऽण भिलप्पो स कहं भासह न सद्दरूवो सो । सम्मि तदुवयारो अत्थपच्चायणफल म्मि ॥ तो सुत्तमेव भासह अत्थपच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणोऽवि तं चिय करिंति को पइविसेसो त्थ । सौ पुरिसा वेषखाए थोवं भणइ न उ बारसंगाई । अत्यो तदविषखाए सुत्तं चिय गणहराणं तं ॥ - विशेषावश्यक भाष्य, ११२०-२२ २. अंगाइ सुत्तरयणानिरवेक्खो जेण तेण सो अत्थो । अहवा न सेसपवयणहियउत्ति जह बारसंगयिणं ॥ पवयण हियं पुण तयं जं सुहगहणाइ गणहरेहिंतो । बारसविहं पवत्तs निउणं सुहुमं महत्यं च ॥ निययगुणं वा निउणं निद्दोसं गणहराऽहवा निउणा । तं पुण किमाइ -पज्जतमाणमिह को वा से सारो ॥ वही, ११२३-२५ 2010_05 [ ३६३ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] आगम और त्रिपिटक एक अनुशोलन [ खण्ड: २ भाष्यकार ने द्वादशांगात्मक आगम-रचना के हेतु, परम्परा, क्रम, प्रयोजन आदि के सन्दर्भ में बहुत विस्तार से जो कहा है, उनका मानसिक झुकाव यह सिद्ध करने की ओर विशेष प्रतीत होता है कि आगमिक परम्परा का उद्गम स्रोत तीर्थंकर है; अतः गणधरों का कर्तृत्व केवल नियू हण, संकलन या ग्रथन मात्र से है । वैदिक परम्परा में वेद अपौरुषेय माने गये हैं । परमात्मा ने ऋषियों के मन में वेद -ज्ञानमय मन्त्रों की अवतारणा को । ऋषियों ने अन्तश्चक्षुओं से उन्हें देखा । फलत: शब्दरूप में उन्होंने उन्हें अभिव्यंजना दी। ऋषि मन्त्र द्रष्टा थे, मन्त्र स्रष्टा नहीं । इसी प्रकार भाष्यकार द्वारा व्याख्यात किये गये तथ्यों से यह प्रकट होता है, गणधर वास्तव में आगम स्रष्टा नहीं थे, प्रत्युत् वे अहंत्-प्ररूपित श्रुत के द्रष्टा या अनुभविता मात्र थे । जो उनके दर्शन और अनुभूति का विषय बना, उन्होंने शब्द रूप में उसकी अवतारणा को । भारतवर्ष की प्रायः सभी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह सिद्ध करने का विशेष प्रयत्न देखा जाता है कि उनका वाडमय अपौरुषेय, अनादि, ईश्वरोय या आषं है । पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग जैन वाङमय में ज्ञानियों को दो प्रकार की परम्पराएं प्राप्त होतो हैं : पूर्वत्रय और द्वादशांग त्रेता । पूर्वी में समत्र श्रुत या वाक्-परिस ज्ञान का समावेश माना गया है । वे संख्या में चतुर्दश हैं । जैन श्रमणों में पूर्वत्ररों का ज्ञान को दृष्टि से उच्च स्थान रहा है । जो श्रमण चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे, उन्हें श्रुत केवल कहा जाता था । पूर्व - ज्ञान की परम्परा एक मत ऐसा है, जिसके अनुसार पूर्व-ज्ञान भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती समय से चला आ रहा था । महावीर के पश्चात् अर्थात् उत्तरवर्ती काल में जो वाङमय सर्जित हुआ, उससे पूर्व का होने से वह (पूर्वात्मक ज्ञान ) 'पूर्व' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । उसकी अभिघा के रूप में प्रयुक्त 'पूर्व' शब्द सम्भवतः इसी तथ्य पर आघ्रत है । द्वादशांगी से पूर्व पूर्व - रचना एक दूसरे अभिमत के अनुसार द्वादशांगी को रचना से पूर्व गणवरों द्वारा अहंदू भाषित तीन मातृका पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये, जिनमें समग्र श्रुत की अवतारणा की गयी - आवश्यक- नियुक्ति में ऐसा उल्लेख है 11 १. धम्मोवाओ पवयणमहवा पुत्राई देसया तस्स । सजिणाण गणहरा चोट्सपुत्री उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकाय भावणा पढमं । एस धम्मोवादो जिणेहिं सव्वेहिं उबट्टो || 2010_05 - आवश्यक नियुक्ति, गाथा २९२-९३ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३६५ द्वादशांगी से पूर्व-पहले यह रचना की गई; अत: ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूओं के नाम से विख्यात हुए । श्रत-ज्ञान के कठिन, कठिनतर और कठिनतम विषय शास्त्रीय पद्धति से इनमें निरूपित हुए । यही कारण है, यह वाडमय विशेषतः विद्वत्प्रयोज्य था, साधारण बुद्धिवालों के लिये यह दुर्गम था; अतएव इसके आधार पर सर्वसाधारण के लाभ के लिए द्वादशांगी की रचना की गई । आवश्यक-नियुक्ति-1 विवरण में आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में जो लिखा है, पठनीय है। दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है१. परिकम, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग,४. पूर्वगत और ५. चूलिका । चतुर्थं विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्व-ज्ञान का समावेश माना गया है । पूर्वज्ञान के आधार पर द्वादशांगी को रचना हुई, फिर भी पूर्व ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा। यही कारण है कि अन्तत: दृष्टिबाद में उसे सत्रिविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्व-ज्ञान के महत्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोग-ज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाड मय अन्तभूत है। परन्तु, अल्प बुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रत का नि!हण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङमय का सर्जन हुआ। स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का वर्जन उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद का शिक्षण देना धजित था। इस १. ननु पूर्व तावत् पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरूपनिबध्यन्ते, पूर्व करणात् पूर्वाणीति पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात्, पूर्वेषु च सकलवाङ्मयस्यावतादो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं, ततः किं शेषांगविरचेननांगबाह विरचनेन वा ? उच्येत; इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात्, तेषां च दुर्मेधवत्वात्, स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात् । -पृ० ४८, प्रकाशक, आगमोवय समिति, बम्बई २. जइवि य भूयावाए सव्वस्स व ओगयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य॥ -विशेषावश्यक भाज्य, गाथा ५५१ ____ 2010_05 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सम्बन्ध में विशेषावण्यक भाष्य में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है : "स्त्रियां तुच्छ, गर्वोन्नत और चंचलेन्द्रिय होती हैं। उनकी मेघा अपेक्षाकृत दुर्बल होती है; अतः उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय या चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है।" भाष्यकार ने स्त्रियों की किन्हीं तथाकथित दुर्बलताओं को ओर लक्ष्य किया है। उनका तुच्छ, गवंबहुल स्वभाव, चपलेन्द्रियता और बुद्धिमान्ध भाष्यकार के अनुसार वे हेतु हैं, जिनके कारण उन्हे दृष्टिवाद का शिक्षण नहीं दिया जा सकता। विशेषावश्यक भाष्य की गाथा ५५ की व्यास्या करते हुए मलधारी भाचार्य हेमचन्द्र जो लिखा है, उसका सारांश इस प्रकार है : "स्त्रियों को यदि किसी प्रकार दृष्टिवाद श्रुत प्राप्त करा दिया जाए, तो तुच्छता आदि से युक्त प्रकृति के कारण वे भी दृष्टिवाद की अध्येता हैं, इस प्रकार मन में अभिमान ला कर पुरुष के परिभव-तिरस्कार आदि में प्रवृत्त हो जाती हैं । फलतः उन्हें दुर्गति प्राप्त होती है। यह जानकर दया के सागर, परोपकारपरायण तीमकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय-चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद स्त्रियों को देने का निषेध किया है। स्त्रियों को श्रुत-ज्ञान प्राप्त कराया जाना चाहिए, यह उन पर अनुग्रह करते हुए शेष ग्यारह अंग आदि वाङ्मय का सर्जन किया गया। भाध्यकार आचार्य बिनभद्रग णी क्षमाश्रमण तथा वृत्तिकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रकृति, प्रवृत्ति, मेघा भादि की जो भालोचना की है, वह विमर्श-साक्षेप है, उस पर तव्यान्वेषण की दृष्टि से ऊहापोह किया जाना चाहिए। गवं, चापल्य तथा बुद्धिदौर्बल्य या प्रतिभा की मन्दता आदि स्त्री-धर्म ही हैं, यह कहा जाना तो संगत नहीं लगता । पर, प्राचीन काल से ही सामान्य लोक-मान्यता कुछ इसी प्रकार की रही है । गर्व का अभावऋजुता, जितेन्द्रियता और बुद्धि-प्रकर्ष संस्कार-लम्य भी हैं और अध्यवसाय-गम्य भी। वे केवल पुरुष नात्याश्रित ही हों, यह कैसे माना जा सकता है ? स्त्री जहां तीर्थकर नाम कर्म तक का बन्ध कर सकती है अर्थात् स्त्री में तीर्थकर-पद, जो अध्यात्म-साधना की सर्वोच्च सफल कोटि की स्थिति है, तक अधिगत करने की क्षमता है, तब उसमें उपर्युक्त दुर्बलताए आरोपित कर उसे दृष्टिवाद-श्रुत की अधिकारिणी न मानना एक प्रश्न-चिह्न उपस्थित करता है। १. तुच्छा गारवबहुला चलिंबिया दुब्बला घिईए य । इति आइसेसज्झषणा भूयावाओ य नो त्पीणं ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५२ 2010_05 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अद्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३६७ नारी और हष्टवाद : एक और चिन्तन प्रस्तुत विषय में कतिपय विद्वानों की एक और मान्यता है। उसके अनुसार पूर्व-ज्ञान लब्ध्यात्मक है। उसे स्वायत्त करने के लिये केवल अध्ययन या पठन हो यथेष्ट नहीं है, अनिवार्यतः कुछ विशेष प्रकार की साधनाए भी करनी होती हैं, जिनमें कुछ काल के लिए एकान्त और एकाकी वास भी आवश्यक है। एक विशेष प्रकार के दैहिक संस्थान के कारण स्त्री के लिये यह सम्भव नहीं है। यही कारण है कि उसे दृष्टिवाद सिखाने की आज्ञा नहीं है। यह हेतु अवश्य विचारणीय है। पूर्व-रचना : काल-तारतम्य पूर्षों की रचना के सम्बन्ध में आचारांग-नियुक्ति में एक और संकेत किया गया है, जो पूर्व के उल्लेखों से भिन्न है। वहां सर्वप्रथम आचारांग की रचना का उल्लेख है, उसके अनन्तर अंग साहित्य और इतर वाङमय का । जब एक ओर पूर्व वाङमय की रचना के सम्बन्ध में प्राय: अधिकांश विद्वानों का अभिमत उनके द्वादशांगी से पहले रचे जाने का है, वहां आचारांग-नियुक्ति में सबसे पहले आचारांग के सर्जन का उल्लेख एक भेद उत्पन्न करता है । अभी तो उसके अपाकरण का कोई साधक हेतु उपलब्ध नहीं है; इसलिये इसे यहीं छोड़ते हैं, पर, इसका निष्कर्ष निकालने को ओर विद्वज्जनों का प्रयास रहना चाहिए। सभी मतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है कि पूर्व-वामय की परम्परा सम्भवतः पहले से रही है और वह मुख्यतः तत्ववाद की निरूपक रही है। वह विशेषतः उन लोगों के लिये थी, जो स्वभाषतः दार्शनिक मस्तिष्क और तात्विक रुचि-सम्पन्न होते थे। सर्वसाधारण के लिए उसका उपयोग नहीं था। इसीलिए बालकों, नारियों, वृद्धों, अल्पमेधावियों या गूढ़ तत्व समझने की न्यून क्षमता वालों के हित के लिए प्राकृत में धर्म-सिद्धान्त की अवतारणा हुई, जैसी उक्तियां अस्तित्व में आई11 पूर्व वाङमय की भाषा - पूर्व धाड मय अपनी अत्यधिक विशालता के कारण शब्द-रूप में पूरा-का-पूरा व्यक्त किया जा सके, सम्भव नहीं माना जाता। परम्परया कहा जाता है कि मसी पूर्ण की इतनी विशाल राशि हो कि अंबारी सहित हाथी भी उसमें ढंक जाये, उस मसी-चर्ण को जल में घोला जाए और उससे पूर्व लिखे जाए, तो भी यह कभी शक्य नहीं होगा कि वे लेख में १. नालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ -वशवका लिक वृत्ति, पृ० २०३ ____ 2010_05 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ बांधे जा सकें । अर्थात् पूर्व ज्ञान समग्रतया शब्द का विषय नहीं है । वह लब्धिरूपआत्मक्षमता नुस्यूत है । पर, इतना सम्भाव्य मानना ही होगा कि जितना भी अंश रहा हो, शब्द-रूप में उसको अवतारणा अवश्य हुई । तब प्रश्न उपस्थित होता है, किस भाषा में ऐसा किया गया? साधारणतया यह मान्यता है कि पूर्व संस्कृत बद्ध थे। कुछ लोगों का इस सम्बन्ध में अन्यथा मत भी है। वे पूर्वो के साथ किसी भी भाषा को नहीं जोड़ना चाहते । लब्रिारूप होने से जिस किसी भाषा मे उनकी अभिध्यंजना सम्भाध्य है। सिद्धान्ततः ऐसा भी सम्भावित हो सकता है, पर चतुर्दश पूर्वधरों की, दश पूर्वधरों की, क्रमशः हीयमान पूर्वधरों को एक परम्परा रही है। उन पूर्वधरों द्वारा अधिगत पूर्व-ज्ञान, जितना भी धाग-विषयता में संचीर्ण हुआ, वहां किसी-न-किसी भाषा का अवलम्बन अवश्य ही रहा होगा। यदि संस्कृत में वैसा हुआ, तो स्वभावतः एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन मान्यता के अनुसार प्राकृत (अद्धमागधी) आदि-भाषा है। तीर्थकर अद्धमागधी में धर्म-देशना देते हैं, जो श्रोतृ-समुदाय की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। देवता इसी भाषा में बोलते हैं। अर्थात् वैदिक परम्परा में विश्वास रखने वालों के अनुसार छन्दस् (वैदिक संस्कृत) का जो महत्व है, जैन धर्म में आस्था रखने वालों के लिए आषत्व के सन्दर्भ में प्राकृत का वही महत्व है। भारत में प्राकृत-बोलियां अत्यन्त प्राचीन काल से लोक-भाषा के रूप में व्यवहृत रही हैं । छन्दस् सम्भवतः उन्हीं बोलियों में से किसी एक पर आधृत शिष्ट रूप है। लौकिक संस्कृत का काल उससे पश्चाद्धर्ती है । इस स्थिति में पूर्व श्रुत को भाषात्मक दृष्टि से संस्कृत के साथ जोड़ना कहाँ तक सगत है ? कहीं परवर्ती काल में ऐसा तो नहीं हुआ, जब संस्कृत का साहित्यिक भाषा के रूप में सर्वातिशायी गौरव पुनः प्रतिष्ठापन्न हुषा, तब जैन विद्वानों के मन में भी वसा आकर्षण जगा हो कि वे भी अपने आदि-वाङमय का उसके साथ लगाव सिद्ध करें, जिससे उसका महात्म्य बढ़े । निश्चयात्मक रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता, पर. सहसा यह मान लेना समाधायक नहीं प्रतीत होता कि पूर्व श्रुत संस्कृत-निबद्ध रहा। पर्वगत : एक परिचय - पूर्व गत्त के अन्तर्गत विपुल साहित्य है। उसके अन्तर्वर्ती चौदह पूर्व हैं : १. उत्पाद पूर्व-समग्र द्रव्यों और पर्यायों के उत्पाद या उत्पत्ति को अधिकृत कर विश्लेषण किया गया है । इसका पद-परिमाण एक करोड़ है। २. अनायणीय पूर्व-अन तथा अयन शब्दों के मेल से अग्रायणीय शब्द निष्पन्न हआ है। ____ 2010_05 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आष ( अद्ध मागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३६९ अग्र का अर्थ - परिमाण और अयन का अर्थ गमन-परिच्छेद या विशदीकरण है। अर्थात् इस पूर्व में सब द्रव्यों, सब पर्यायों और सब जीवों के परिमाण का वर्णन है। पद-परिमाण छियानवे लाख है। ३. वीर्यप्रवाद पूर्व-सकर्म और अकर्म जीवों के छोर्य का विवेचन है। पद-परिमाण सत्तर लाख है। ४. मस्ति-नास्ति-प्रवाद पूर्व-लोक में धर्मास्तिकाय आदि जो हैं और खर-धिषणादि जो नहीं हैं, उनका इसमें विवेचन है अथवा सभी वस्तुए स्वरूप की अपेक्षा से हैं तथा पर-रूप की अपेक्षा से नहीं हैं, इस सम्बन्ध में विवेचन है। पद-परिणाम साठ लाख है। ५. ज्ञान-प्रवाद पूर्व-मति आदि पांच प्रकार के ज्ञान का विस्तारपूर्वक विश्लेषण है। पद-परिमाण एक कम एक करोड़ है। ६. सत्य-प्रवाद पूर्व-सत्य का अर्थ संयम या वचन है । उनका विस्तारपूर्वक सूक्ष्मता से इसमें विवेचन है । पद-परिमाण छः अधिक एक करोड़ है। ७. आत्म-प्रवाव पूर्व-आत्मा या जीव का नय-भेद से अनेक प्रकार से वर्णन है। पद-परिमाण-छब्बीस करोड़ है। ८. फर्म-प्रवाद पूर्व-ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश आदि भेदों की दृष्टि से विस्तृत वर्णन किया गया है। पद-परिमाण एक करोड़ छियासी हजार है। ६. प्रत्याख्यान पूर्व-भेद-प्रभेद सहित प्रत्याख्यान-त्याग का विवेचन है । पद-परिमाण चौरासी लाख है। १. अन परिमाणं तस्य अयनं गमनं परिच्छेद इत्यर्थः। तस्मै हितमग्रायणीयम्, सर्वव्यादि परिमाणपरिच्छेदकारि - इति भावार्थः तथाहि तत्र सर्वदुव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते । –अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ २. अन्तरंग शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम । ३. यद् वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायाऽदि यच्च नास्ति खरभंगादि तत्प्रववतीत्य स्तिनास्ति प्रवादम् । अथवा सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति, पररूपेण नास्तीति अस्तिनास्तिप्रवावम् । -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ ४. सत्यं संयमो वचनं वा तत्सत्यसंयम वचनं वा प्रकर्षण सप्रपञ्च ववतीति सत्यप्रवादम् । -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ ____ 2010_05 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ; आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व - अनेक अतिशय - चमत्कार-युक्त विद्याओं का, उनके अनुरूप साधनों का तथा सिद्धियों का वर्णन है । पद-परिमाण एक कोड़ दस लाख है । ११. अवन्ध्य पूर्व वन्ध्य शब्द का अर्थ निष्फल होता है । निष्फल न होना अवन्ध्य है । इसमें निष्फल न जाने वाले शुभ फलात्मक ज्ञान, तप, संयम आदि का तथा अशुभ फलात्मक प्रमाद आदि का निरूपण है । पद-प्रमाण छब्बीस करोड़ है | १२. प्राणायुप्रवाद पूर्व-प्राण अर्थात् पांच इन्द्रिय, मानस आदि तीन बल, उछूवासनिःश्वास तथा आयु का भेद प्रमेद सहित विश्लेषण है । पद - परिमाण एक करोड़ छप्पन लाख है । १३. क्रिया-प्रवाद पूर्व - कायिक आदि क्रियाओं का संयमात्मक क्रियाओं का तथा स्वच्छन्द क्रियाओं का विशाल- विपुल विवेचन है । पदपरिमाण नौ करोड़ है । १४. लोक बिन्दुसार पूर्व - लोक में या श्रुत-लोक में अक्षरा के ऊपर लगे बिन्दु की तरह जो सर्वोत्तम तथा सर्वाक्षर सन्निपात लब्धि है, तुक है, उस ज्ञान का वर्णन है । पद-परिमाण साढ़े बारह करोड़ है | चूलिकाएं 2 चूलिकाएं पूर्वों का पूरक साहित्य है । इन्हें परिक्रमं सूत्र, पूर्व गत तथा अनुयोग (दृष्टिवाद के भेदों) में उक्त और अनुक्त अर्थ को संग्राहिका ग्रन्थ-पद्धतियां " कहा गया है | दृष्टिवाद के इन भेदों में जिन-जिन विषयों का निरूपण हुआ है, उन उन विषयों में विवेचित महत्वपूर्ण अर्थों - तथ्यों तथा कतिपय अविवेचित अर्थों - प्रसंगों का इन चूलिकाओं में विवेचन किया गया है । इन चूलिकाओं का पूर्व वाङमय में विशेष महत्व है । ये चूलिकाएं श्रुत रूपी पर्वत पर चोटियों की तरह सुशोभित हैं । १. लोके जगति श्रुत-लोके वा अक्षरस्योपरि बिन्दुरिव सारं सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धि हेतुत्वात् लोक बिन्दुसारम् । — अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ २. यथा मेरो चुलाः, तत्र चूला हव दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगोतामुक्तार्थसंग्रहपरा - वही, पृ० २५१५ गन्यपदयतः । 2010_05 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३७१ लिकाओं की संख्या पूवंगत के अन्तर्गत चतुर्दश पूर्षों में प्रथम चार पूर्वो के चूलिकाए हैं। प्रश्न उपस्थित होता है, दृष्टिबाद के भेदों में पूर्वगत एक भेद है । उसमें चतुदंश पूर्वो का समावेश है। उन पूर्वो में से चार-उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्य-प्रवाद तथा अस्ति-नास्ति-प्रवाद पर चूलिकाए हैं । इस प्रकार इनका सम्बन्ध इन चार पूर्वो से होता है। तब इन्हें परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग में उक्त, अनुक्त अर्थों-विषयों की जो संग्राहिका कहा गया है, वह कैसे संगत है ? विभाजन या व्यवस्थापन की दृष्टि से पूर्षों को दृष्टिवाद के भेदों के अन्तर्गत पूर्वगत में लिया गया है । वस्तुत: उनमें समन श्रुत को अवतारणा है; अतः परिकम, सूत्र तथा अनुयोग के विषय भी मौलिकतया उनमें अनुस्यूत हैं ही। चार पूर्वो के साथ जो चूलिकाओं का सम्बन्ध है, उसका अभिप्राय है कि इन चाय पूर्वो के सन्दर्भ में इन धूलिकाओं द्वारा दृष्टिवाद के सभी विषयों का, जो वहां विस्तृत या संक्षिप्त रूप में व्याख्यात हैं, कुछ कम व्याख्यात हैं, कुछ केवल संकेतित हैं, विशदरूपेण व्याख्यात नहीं हैं, संग्रह हैं। इसका आशय है कि पैसे धूलिकाओं में दृष्टिवाद के सभी विषय सामान्यतः संकेतित हैं, पर, विशेषतः जो विषय परिकर्म, पूत्र, पूवंगत तथा अमुयोग में विशदतया व्याख्यात नहीं हैं, उनका इनमें प्रस्तुतीकरण है। पहले पूर्व की चार, दूसरे की बारह, तीसरे की आठ तथा चौथे की दस चूलिकाएं मानी गई हैं। इस प्रकार कुल ४+१३++१=३४ धूलिकाएं हैं। वस्तु-वोड मय चूलिकामों के साथ-साथ 'वस्तु' संज्ञक एक और वाड मय है, जो पूर्षों का विश्लेषक या विषर्धक है । इसे पूर्वान्तर्गत अध्ययन-स्थानीय ग्रन्थों के रूप में माना गया है। । श्रोताओं की अपेक्षा से सूहम जीवादि भाव-निरूपण में भी वस्तु शब्द अभिहित है। ऐसा भी माना जाता है, सब दृष्टियों की उसमें अवतारणा है । वस्तुओं की संख्या प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चवदह, तीसरे में आठ, चौथे में अठारह, पांच में बारह, १. पूर्वान्तर्गतेषु अध्ययनस्थानीयेषु ग्रन्थविशेषेषु । -अभिधान राजेन्द्र, षष्ठ भाग, पृ० ८७६ २. श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवाविभावकथने । ३. सर्वदृष्टीनां तत्र समवतारस्तस्य जनके। -मभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१६ ____ 2010_05 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ छठे में दो, सात में सोलह, आठवे में तीस, नौवें में बीस, दशवें में पन्द्रह, ग्यारह में बारह, बारहवें में तेरह, तेरहवे में तीस तथा चवदह पूर्व में पच्चीस वस्तुए हैं। इस प्रकार कुल १०+१++१+१२+२+१६+३०+२०+१५+१२+१३+३०+२५-२२५ दो सौ पच्चीस वस्तुए हैं। विस्तृत विश्लेषण का यहां अवकाश नहीं है; अतः प्रसंगोपात्ततया पूर्व बाङमय का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आर्य जम्बू के बाद श्रुत-परम्परा आर्य प्रभव एक दुर्दम तथा कुशल तस्कर के रूप में प्रभव का आयं जम्बू से सम्पर्क हुमा । बार्य जम्बू के तितिक्षामय उपदेश सुन, उनका संयमोन्मुख जीवन देख प्रभव का मन इतना बदला कि आयं जम्बू का पदानुसरण करते हुए उसने भो यात्रज्जीवन संयम-पथ पर चलते रहने का दृढ़ संकल्प कर लिया। प्रभव का तस्कर-रूप श्रामण्य में परिवर्तित हो गया। अपनी जिज्ञासा व तितिक्षामय उज्ज्वल वृति तथा संयमानुप्राणित सात्विक चर्या से वह इतना आगे बढ़ा कि जम्बू के अनन्तर भगवान् महावीर के धर्म-संघ का समग्र उत्तरदायित्व उसी के सबल कन्धों पर माया । आयं प्रभव आर्य जम्बू के उत्तराधिकारी हुए। कल्पसूत्र में उनका केवल इतना सा परिचय प्राप्त होता है : "काश्यपगोत्रीय स्थविर आयं जम्बू के अन्तेवासी कात्यायमगोत्रीय स्थविर आय प्रभव थे।"1 बायं जम्बू से समस्त श्रुत-परम्परा आर्य प्रभव के माध्यम से यथावत् रूप में गतिशील रही। वे चतुर्दश पूर्वधारी, श्रुत-केवली थे। आर्य प्रभव का आचार्य-काल आर्य जम्बू के उत्तराधिकारी के रूप में उनका कार्य-काल ग्यारह वर्ष का माना जाता है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष पश्चात् वे स्वगंगामी हुए । यही समय हिमवत् थेरावली में उल्लिखित है। १. थेरस्स णं अज्ज जम्बू नामस्स कासवगोत्तस्स अज्ज पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायणमगोते .. । २. पुणो पाडलीपुरे ११, १०, १३, २५, २५, ६, ६, ४, ५५ नवनंद एवं वर्ष १५५ रज्जे जम्बू शेषवर्षाणि ४, प्रभव ११, शय्यम्भव २३, यशोभद्र ५०, सम्भूतिविजय ८, भद्रबाहु १४, स्थूलभद्र ४५ (१५५) एवं वोर-निर्वाण २१५। . --श्री धर्मघोषसूरि कृत दुःषमाकालश्रीश्रमण संघ स्तोत्रम् ३. मुनि कल्याणविजयजी के अनुसार आचार्य हिमवान् एक प्रसिद्ध स्थविर थे। प्रसिद्ध अनुयोग-प्रवर्तक स्कन्दिलाचार्य और नागार्जुन वाचक का सत्ता-समय ही हिमवान् का सत्ता-समय था, इसमें कोई सन्देह नहीं। क्योंकि देवर्द्धिगणी की नन्दी थेरावली में ____ 2010_05 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्ध मागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३७३ दिगम्बर-परम्परा में तस्कर प्रभव के स्थान पर तस्कर विद्युञ्चर का उल्लेख है । जम्बू को उत्तराधिकार-परम्पया में प्रभव का कोई उल्लेख नहीं है। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार जम्बू के उत्तराधिकारी विष्णु या नन्दो थे। उनका आचार्य-काल चौदह वर्ष का था। तिलोयपण्णती में 'नन्दी' नाम का उल्लेख है। आर्य शय्यम्भव आर्य जम्बू के पश्चात् श्रोत-स्रोतस्विनी के संवाहक एवं सम्प्रसारक मार्य शय्यम्भव थे। वे अपने युग के उद्भट विद्वान थे। वे वेदज्ञ, याज्ञिक एवं कर्मकाण्ड-निष्णात थे। कहा जाता है, आर्य प्रभव को कुछ ऐसी अन्तः प्रेरणा हुई कि उन्होंने विद्वान् शय्यम्भव को प्रतिबोष देने के हेतु दो मुनियों को उनके पास भेजा। उस समय शय्यम्भव यज्ञ-निरत थे। वे मुनियों द्वारा उबुद्ध एवं उत्प्रेरित हुए । आर्य प्रभव के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। प्रगाढ़ विद्वान् तो थे ही, प्रतिभा और मेधा के द्वारा भ्रत को अनवरत उपासना की। चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान अजित किया। श्रुत केवली हुए । जिस समय शय्यम्भव दीक्षित हुए थे, उनकी धर्मपत्नी गर्भवती थी। यथासमय पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम मनक रखा गया । पुत्र सयाना हुमा । उसने जाना, उसके पिता श्रमण हैं। वह उनके पास आया। उनके तपःपूत जीवन से प्रभावित हुआ और दीक्षित हो गया। अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा आचार्य शय्यम्भव ने जाना, मनक का आयुष्य बहुत कम है। उसका जीवन केवल छः मास का है। उन्होंने उसके कल्याण के लिए संयम तथा साधना-मूलक श्रुतागमों में से सास-सार आकलित कर दशवकालिक की रचना की, जिससे वह नवदीक्षित श्रमण उसका परिशीलन करता हुआ अपने संयम-जोषितव्य का सफलतापूर्वक निर्वाह करता जाए । आचार्य शय्यम्भव की श्रुत-जगत को यह एक महत्वपूर्ण देन है। इनका स्कन्दिल के बाद और नागार्जन के पहले उल्लेख है और प्रस्तुत थेरावली में इनको स्कन्दिल का शिष्य लिखा है, पर, यह निश्चय होना कठिन है कि यह घेरावलो प्रस्तुत हिमवत्-कृत है या अन्य कृत । इसमें कई प्राचीन और अश्रुतपूर्व ऐसे उल्लेख हैं, जिनका प्राचीन शिलालेखों से भी समर्थन होता है । इन तथ्यों का प्रतिपादन इसमें देख कर यह अनुमान होता है कि स्यात् यह प्राचीन हो, पर, कतिपय उल्लेख ऐसे भी हैं, जो इस थेरावली को हिमवत् कर्तृ कता में शंका उत्पन्न करते हैं। अतएव अब तक यह अनिर्णित जैसा है कि वस्तुतः यह थेरावलो किसके द्वारा रचित है। १. गंदी य गंविमित्तों विदिओ अवराजिदो तइज्जो य । गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दबाहुत्ति ॥ -तिलोयपण्णत्ती, १४८२ ____ 2010_05 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ 1 मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पर्वो के आधार पर रचना . दशवकालिक की रचना के सम्बन्ध में ऐसा कहा जाता है कि यह पूर्वो पर आधृत है। उदाहरणार्थ, वशवकालिक का धर्मप्रज्ञप्ति नामक अध्ययन आत्म-प्रवाद पूर्व के, पिण्डेषणा नामक अध्ययन कर्म-प्रवाद पूर्व के, पाक्य-शुद्धि नामक अध्ययन सत्य-प्रवाद पूर्व के तथा शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आधार पर प्रणीत हुए। कल्पसूत्र-स्थविराषली में आर्य शय्यम्भव के लिए केवल इतना-सा उल्लेख है : “कात्यायनगोत्रीय स्थघिय मार्य प्रभव के अन्तेवासी आर्य शय्यम्भव थे। वे वत्सगोत्रीय थे और मनक के पिता थे।" आचार्य-काल भाचार्य शय्यम्भव तेईस वर्ष तक संघनायक ( आचार्य ) रहे। हिमवत् थेरापली में उनके स्वर्गवास का समय १८ वीर-निर्वाणान्द लिखा है, जो इससे संगत है। दिगम्बरमान्यता के अनुसार विष्णु या नन्दी के पट्टधर अर्थात् जम्बू के पश्चात् दूसरे पट्टधस नन्दिमित्र थे, जिनका संघ-नायक-काल सोलह वर्ष का माना जाता है। आर्य यशोभद्र भायं यशोभद्र मार्य भय्यम्भव के अन्तेषासी थे। कल्पसूत्र स्थविरावली में उनके परिचय में लिखा है : "मनक के पिता, वत्सगोत्रीय स्थधिर शय्यम्भव के अन्तेवासी मा स्थविर यशोभद्र थे। वे तुगियायन गोत्रोत्पन्न थे।"3 आयं शय्यम्भव के पश्चात् श्रुत-संघाहन तथा संघ-संचालन का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व आयं पशोभद्र पर आया, जिसका उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक निर्वाह किया। वे चतुर्दश पूर्वधर थे। नन्दराजाओं को प्रतिबोध कहा जाता है, आर्य यशोभद्र ने नन्दाजाओं को प्रतिबोध दिया। फलतः उन्होंने आहेत धम स्वीकार कर लिया। हिमवत् थेसावली में उल्लेख है कि आर्य यशोभद्र के समय आठवा नन्द मगध का षा था। वह बहुत लोभी था। उसने विरोचन नामक ब्राह्मण-मन्त्री की प्रेरणा से फलिंग देश १. जैन आगम, पं० दलसुख मालपणिया, पृ० १७ २ थेरस्स गं अज्जप्पमवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अज्जसेज्जभवे अंतेवासीमणगपिता बच्छसगोत्ते। ३. थेरस्स णं अज्ज सेज्जमवस्स मणपिउणो वच्छसगोत्तस्स अज्ज जसम थेरे अंतेवासी तुंगीयायणस गोत्त। - ____ 2010_05 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य । आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३७५ पर चढ़ाई की। उसे ध्वस्त-विध्वस्त कर दिया। साथ-ही-साथ उसने मगध सम्राट् श्रेणिक द्वारा कुमार गिरि पर निर्मापित ऋषभ-प्रासाद का भी ध्वंस किया और भगवान् ऋषभ की स्वर्णमयी प्रतिमा को मगध ले आया । आचार्य-काल आर्य यशोभद्र का संघाधिपत्यकाल पचास वर्ष का माना जाता है। हिमवत् थेरापली में १४८ पीर निर्वाणान्द में उनके स्वर्गगामी होने का उल्लेख है। उनका पचास वर्ष का भाचार्य-काल इससे समर्थित है। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार जम्बू के अनन्तर तीसरे आचार्य अर्थात् आर्य नन्दिमित्र के उत्तराधिकारी अपराजित हैं। उनका आचार्य-काल बाईस वर्ष का माना जाता है । आर्य यशोमन के पश्चात् ___ कल्पसूत्र के अनुसार आर्य यशोभद्र के अनन्तर स्थघिरावली के दो रूप हैं-संक्षिप्त और विस्तृत । वहां उल्लेख है : “संक्षिप्त वाचना के अनुसार आर्य यशोभद्र से आगे स्थविरावली इस प्रकार है-तुगियायम गोत्रीय, स्थविर आर्य यशोभद्र के दो रुथपिय अन्तेवासी थेमाडर गोत्रीय, स्थविर आर्य सम्भूतिविजय तथा प्राचीन गोत्रीय स्थविर आर्य भद्रबाहु ।" 2 १. इस सन्दर्भ में कुछ पहलू विचारणीय हैं । यदि नन्दवंशीय राजा जैन धर्मानुयायी थे, तो कलिंग के जैन राजा पर कैसे चढ़ाई करते, ऋषभ-प्रासाद को कैसे ध्वस्त किया जाता, भगवान् ऋषभ को स्वर्णमयी प्रतिमा को कुमारगिरि से उठा कर मगध क्यों लाया जाता? विद्वानों के इस सम्बन्ध में कई प्रकार के अभिमत हैं। कुछ का कहना है कि नन्द राजा की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा न होती, तो ऋषभ की प्रतिमा को कलिंग से मगध क्यों ले जाया जाता, उसे नष्ट भी किया जा सकता था। वस्तुतः उस काल की राज-मनोवृत्ति के अनुसार अपने किसी धार्मिक राजा पर आक्रमण करना एक बात थी और धर्म की आराधना व विराधना का प्रश्न उससे पृथक् था। जैन मान्यतानुसार मगध-नरेश कुणिक - अजातशत्रु जैन था और लिच्छवि गणाध्यक्ष चेटक भी जैन था, पर, उनमें परस्पर भीषण संग्राम हुआ। फलतः जनतन्त्रात्मक शासन का उन दिनों का एक उत्कृष्ट प्रतीक लिच्छवि-गणराज्य सदा के लिए नष्ट हो गया। २.. संखित्तवायणाए अज्ज जसभद्दाओ अग्गओ एवं शेरावली भणिया, तं जहा-थेरस्सणे अज्जजसमद्दस्स टुंगियायणगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्ज संभूयविजए माढरसगोत्ते, थेरे अज्ज भद्दबाहू पाईणसगोत्ते । ____ 2010_05 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ आर्य यशोभद्र द्वारा निर्व्यूढ़ श्रुतं परम्परा तथा संघ व्यवस्था कार्य सम्भूतिविजय तथा आर्य भद्रबाहु के माध्यम से गतिशील रही । दो उत्तराधिकारी एक नवीन परम्परा आयं यशोभद्र तक धर्म-संघ के अधिनायक या उत्तराधिकारी के रूप में एक ही व्यक्ति का मनोनयन किया जाता रहा। एक ही आचार्य के नेतृत्व में धर्म संघ कार्यरत रहा । आर्य यशोभद्र के अनन्तर एक नई परम्परा का सूत्रपात हुआ। आर्ययशोभद्र को सम्भवतः अपने शिष्यों में पूर्वोक्त दो बहुत ही योग्य लगे हों। दोनों की असामान्य योग्यता और पात्रता को देखते हुए सम्भवतः उन्हें निर्णय लेने में कठिनता का अनुभव हुआ हो, किसे उत्तराधिकारी मनोनीत किया जाए। दोनों में से किसी एक के पक्ष में मनोनयन सम्बन्धी निर्णय न ले सकने के कारण उन्होंने दोनों शिष्य; सम्भूतिविजय तथा भद्रबाहु को ही उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस प्रकार एक विशेष परिपाटी का प्रचलन हुआ । पर, उसका परिणाम असुखावह नहीं हुआ । विधिक्रम इस प्रकार का रहा कि एक पट्ट पर दो संघपतियों के होने पर भी संघ व्यवस्था तथा संचालन में कोई दुविधा नहीं हुई; क्योंकि दोनों का निरपेक्ष उत्तराधिकार नहीं था । संघीय व्यवस्था, संचालन, निर्देशन आदि में प्रथम या ज्येष्ठ पट्टधर का सीधा अधिकार था । द्वितीय या कनिष्ठ पट्टधरा उनके जीवन काल में उसमें कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करते । ज्येष्ठ पट्टधरा का स्वर्गवास होने पर कनिष्ठ पट्टधरा के हाथों में वे सारे अधिकार आ गये, जो ज्येष्ठ पट्टधर के पास थे । केवल अन्तर इतना-सा हुआ, एक ही उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने की परम्परा में अग्रिम उत्तराधिकाची या संघनायक के मनोनयन का अधिकार वर्तमान संघपति को होता, वहां इस नई परम्परा के अनुसार पहले उत्तराधिकारी के पश्चात् दूसरे उत्तराधिकारी के पास संघ का साया दायित्व स्वयमेव आ जाता; क्योंकि उसका मनोनयन पहले से हो किया हुआ था। इस द्वि-आचार्य - परम्परा से संघीय व्यवस्था में किसी भी प्रकार की अस्वस्थता नहीं आई । दूसरे, यह स्थिति तो कादाचित्क थी, वस्तुतः अधिकांशत: एक ही आचार्य या उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने की परम्परा प्रचलित थी । आर्य सम्भूतिविजय आर्य सम्भूतिविजय ज्यामान् थे; अतः आर्य यशोभद्र के पश्चात् संघनायक या आचार्य वे ही हुए । वे चतुदंश पूर्वधर थे । उनका आचार्य काल आठ वर्ष का माना जाता है । हिमवत् थेरावली के अनुसार उनका स्वर्गवास १५६ वीच निर्वाणाब्द में हुआ । दिगम्बर - आम्नाय में जम्बू के पश्चात् चतुर्थ संघनायक अपराजित के उत्तराधिकाची आचार्य पोषद्धन माने गये हैं । उनका आचार्य-काल उन्नीस वर्ष का है । 2010_05 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३७७ महान् प्रभावक आचार्य भद्रबाहु परम्परया ऐसा माना जाता है कि आचार्य भद्रबाहु का दक्षिण में प्रतिष्ठान पुरा (पेडन) में एक ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ था । उन्होंने अपनी वंश-मर्यादा के अनुसार अनेक विद्याओं का अध्ययन किया । उनके पारगामी बने । कहा जाता है, उनकी आर्थिक स्थिति कष्टपूर्ण थी । कोई ऐसा प्रसंग बना हो, आहंत्-दर्शन के प्रति उनका आकर्षण बढ़ा तथा उन्होंने श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली । भाषा और साहित्य ] वराहमिहिर से सम्बन्ध ऐसी भी जन श्रुति प्रचलित है, महान् ज्योतिर्विद् वराहमिहिर आचार्य भद्रबाहु के अनुज थे । पर वराहमिहिरा के प्राप्त साहित्य के आधार पर उनका काल विक्रम की षष्ठ शताब्दी निश्चित होता है | आचार्य भद्रबाहु का समय विक्रम के बहुत पूर्ववर्ती है; अत: भद्रबाहु तथा वराहमिहिर का जो सम्बन्ध कल्पित किया जाता है, वह असंगत है । छेद-सूत्रों के रचनाकार श्रुत वाङमय में निशीथ, महानिशोथ, व्यवहार, दशाशु तस्कन्ध, कल्प (वृहत्कल्प) तथा पंचकल्प (अथवा जीतकल्प) छेद सूत्रों के नाम से प्रसिद्ध हैं | वशा तस्कन्ध में भारत का इतिहास क्रमबद्ध व्यवस्थित रूप में प्राप्त होता है । चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्मानुयायी था या वह वैदिक धर्म को मानता था, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । परिशिष्ट पर्व परिशिष्ट पर्व में उल्लेख किया गया है कि महामात्य चाणक्य जैन था । वह चन्द्रगुप्त को जन बनाने के लिये प्रयत्नशील था । एक बार उसने दो परिषदों में विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के साधुओं को समाहत किया। एक परिषद् में जैन श्रमण भी आमन्त्रित थे । चन्द्रगुप्त जैन श्रमणों से प्रभावित हुआ । उसने जंन धर्म स्वीकार भी कर लिया । प्रायः समस्त श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन वाङमय में चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न प्रसिद्ध हैं, जिनमें भविष्य में धर्म-क्षेत्र में होने वाली हासोन्मुख स्थितियों का सूचन है । चन्द्रगुप्त की राज सभा में रहने वाले यूनान के राजदूत मेगस्थनीज़ ने जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मणों के धर्म-सिद्धान्त के प्रतिरूप जैन श्रमणों के सिद्धान्त या धर्मोपदेश स्वीकार किये थे । सुप्रसिद्ध विद्वान् टामस के अनुसार केवल चन्द्रगुप्त ही नहीं, उसका पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक भी जैन था । टामस ने मुद्राराक्षस, तथा आइने अकबरी आदि ग्रन्थों द्वारा इसे समर्पित करने का प्रयत्न किया है। राजतर गिणी बौद्ध धर्म 2010_05 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार का ब्राह्मण धर्म के प्रति श्रद्धावान होना प्रकट होता है। अशोक के लिए ऐसा सम्भव हो सकता हैं कि वह पहले जेन रहा हो। बाद में उसने धर्म परिवर्तन कर लिया हो । हिमवत् थेरावली में उल्लेख है कि अशोक राज्य-प्राप्ति के चार पष पश्चात् बौद्ध हो गया था। उसके शिलालेखों में घोषणाओं के अन्तर्गत निग्रन्थों को दान देने का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने पर भी सम्राट का निर्गमथों के प्रति आदर तथा श्रद्धा-भाव था। अनुमान किया जा सकता है, उसका मुख्य कारण सम्राट का कभो निनन्थ-मतानुयायी रहना है । डा. ल्यूमैन, हानले, स्मिथ, राइस डेबिड्स, जायसवाल प्रभृति इतिहासकारों का अभिमत है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौय जैन था। वे यह भी मानते हैं कि सम्राट आचार्य भद्रबाहु का शिष्य था। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध आचाय' भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के गुरु-शिष्यात्मक सम्बन्ध के विषय में कोई बहुत पुष्ट प्रमाण अब तक प्राप्त नहीं हो सके हैं। यह विषय गवेषणा और विवेचना-सापेक्ष है। प्रमुख इतिहास-अध्येता मुनि कल्याणविजयजी का भी इसी प्रकार का मत है। उनके अनुसार अभी तक कोई भी उस प्रकार का ठोस प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका है, जिससे यह सिद्ध किया जा सके। उनका कथन है कि चन्द्रगुप्त के समय में जब उसके राज्य में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा, तब पाटलिपुत्र में सुट्ठिम-सुस्थित नामक वृद्ध पाचाय थे, इस प्रकार के पुराने लेख तो प्राप्त होते हैं, पर, दशम शती से पूर्व का कोई भी ऐसा लेख या ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिससे यह प्रमाणित हो सके। हिमवत् थेरावली में जो उल्लेख है, उसके अनुसार आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास १७० वीर-निर्वाणान्द में तथा चन्द्रगुप्त का देहावसान १८४ पीरनिर्वाणाब्द में सूचित होता है। इस प्रकार आचार्य भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त के देह त्याग में चौदह वर्ष का अन्तर है, जो उनको समसामयिकता के सूचन के लिए पर्याप्त है। इन सब स्थितियों के होते हुए भी आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर परवर्ती ही सही, जैन साहित्य व जैन अनुश्रुतियों में जो इतनी चर्चा है, उस पर और गहराई से सोचना कम आवश्यक नहीं है। आगमों को प्रथम वाचना भनेक लोतों से यह विदित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा । जनता अन्नादि खाद्य पदार्थों के अभाव में त्राहि-त्राहि करने लगी। भिक्षोपजीवी श्रमणों को भी तब भिक्षा कहां से प्राप्त होती। स्थपियावली में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : "वह दुष्काल काल-शनि के समान काल था। साधु-संघ (भिक्षापूर्वक) 2010_05 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आष (अद्ध मागधी) प्राकृत और आगम धामय [३७९ जीवन-निर्वाह हेतु समुद्र-तट पर चला गया। अधीत का गुणन-आवृत्ति न किये जाने के कारण साधुओं को श्रुत विस्मृत हो गया। अभ्यास न करते रहने से मेधावी जनों द्वारा किया गया अध्ययन भी नष्ट हो जाता है। दुष्काल का अन्त हुआ। सारा साधु-संघ पाटलिपुत्र में मिला। जिस-जिस को जो अंग, अध्ययन, उद्देशक आदि स्मरण थे, उन्हें संकलित किया गया । बारहवें अंग दृष्टिपाद का संकलन नहीं हो सका। संघ को चिन्ता हुई। आचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर थे, वे नेपाल के मार्ग में थे । श्रीसंघ ने उन्हें बुलाने के लिए दो मुनि भेजे।"1 आचार्य हरिभद्र के प्राकृत उपदेश पद में भी इसी प्रकार का उल्लेख है। मावश्यक चूर्णि में भी इसी तरह का वर्णन है। दक्षिण जाने को कल्पना नीरनिधि अथवा समुद्र-तट पर साधुओं के जाने का जो यहां उल्लेख है, उससे श्रमग-संघ के दक्षिणी समुद्र-तट या दक्षिण देश जाने को कल्पना को जाती है। नीरनिधि से दक्षिणी समुद्र-तट ही क्यों लिया जाए ? उससे बगोपसागर (बंगाल की खाड़ी ) भी लिया जा सकता है, जिसके तट पर उड़ीसा की एक लम्बो पट्टी अवस्थित है, जहां जैन धर्म का संचार हो चुका था। १. इतश्च तस्मिन् दुष्काले, कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहार्थ साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययो ।। अगुण्यमानं तु तवा, साघुनां विस्मृतं श्रुतम् । अनम्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि ॥ संघोऽथ पाटलिपुत्रे, दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदंगाध्ययनोद्देशाद्यासीद् यस्य तवादे ॥ ततश्चैकादशांगानि, श्रीसंघोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमित्त च, तस्थौ किंचिद् विचिन्तयन् ॥ नेपालदेशमार्गस्थ, भद्रबाहुं च पूर्विणम् । ज्ञात्वा संघः समाहवातुं, ततः प्रेषोन्मुनिद्वयम् ॥ --स्थविरावली चरितम्, ६, ५५-५६ २. जाओ अ तम्मि समये दुक्कालो दो य दसम बरिसाणि । सव्यो साहुसमूहो गमो तो जलहितीरेसु॥ तदुबरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागओ विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता किं कस्स अत्यति ॥ जं जस्स आसि पासे उद्दस उझयण माइसंघडिउं । तं सव्वं एक्कारय अंगाई तहेव ठविपाई॥ - ____ 2010_05 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ३६० ] भद्रबाहु द्वारा पूर्वो की वाघना आदाय भद्रबाहु के पास श्रीसंघ का सन्देश पहुंचा । वे महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे 1 उनके लिए पाटलिपुत्र आ पाना सम्भव नहीं था । उससे उनकी साधना व्याहत होती । इसलिए उन्होंने स्वीकृति दी कि वहां रहते हुए वे समागत अध्ययनार्थियों को पूर्वों की वाचना दे सकेंगे--अध्यापन करा सकेंगे । कहा जाता है, तदनुसार श्रीसंघ ने पन्द्रह सौ श्रमणों को नेपाल भेजा । उनमें पांच सौ विद्यार्थी श्रमण थे तथा प्रत्येक अध्ययनार्थी श्रमण के खान-पान आदि आवश्यक कार्यों को व्यवस्था, परिचर्या आदि के हेतु दो-दो श्रमण नियुक्त थे । इस प्रकार कुल एक हजार परिचारक श्रमण थे । [ खण्ड : २ आचार्य भद्रबाहु ने वाचना देना प्रारम्भ किया। आगे उत्तरोत्तर वाचना चलते रहने में कठिनाई सामने आने लगो । दृष्टिवाद - पूर्व ज्ञान को अत्यधिक दुरूहता व जटिलता तथा तदनुरूप ( तदपेक्ष ) बौद्धिक क्षमता व धारणा-शक्ति को न्यूनता के कारण अध्ययनार्थी श्रमण परिश्रान्त होने लगे । अन्ततः वे घबरा गये । उनकी हिम्मत टूट गयी । स्थूलभद्र के अतिरिक्त कोई भी श्रमण अध्ययन में नहीं टिक सका । स्थूलभद्र ने अपने अध्ययन का क्रम निरबाध चालू रखा । दश पूर्वो का सूत्रात्मक तथा अर्थात्मक ज्ञान उन्हें अधिगत हो गया। आगे अध्ययन चल ही रहा था। इस बीच एक घटना घट गयी । उनकी बहिनें जो वियां थीं, श्रमण भाई की श्रुतााधना देखने के लिए आई । स्थूलभद्र इसे पहले ही जान गये । बहिनों को चमत्कार दिखाने के हेतु विद्या-बल से उन्होंने सिंह का रूप बना लिया । बहिनें भय से ठिठक गयीं । स्थूलभद्र तत्क्षण अपने असली रूप में आ गये । बहिनें आश्चर्यचकित हो गयीं । आचार्य भद्रबाहु ने सब कुछ जान लिया । वे विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नहीं थे; अतः इस घटना से वे स्थूलभद्र पर बहुत रुष्ट हुए । आगे वाचना देना बन्द कर दिया । स्थूलभद्र ने क्षमा मांगी, बहुत अनुनय-विनय किया, तब उन्होंने उनको आगे के वाय पूर्वी का ज्ञान केवल सूत्र रूप में दिया, अर्थ नहीं बतलाया । स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का पाठ तो ज्ञात हो गया, पर, वे अर्थ दश ही पूर्वों का जान पाये; अतः उन्हें पाठ की दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर और अर्थ की दृष्टि से दश पूर्वधर कहा जा सकता है । इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से भद्रबाहु के अनन्तर चार पूर्वो का विच्छेद हो गया । 2010_05 प्रथम वाचना के अध्यक्ष या निर्देशक ? ग्यारह अंगों का संकलन पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुआ । इसे प्रथम वाचना कहा जाता है । इसकी विधिवत् अध्यक्षता या नेतृत्व किसने किया, स्पष्ट ज्ञात नहीं होता । आचार्य भद्रबाहु विशिष्ट योग साधना के सन्दर्भ में नेपाल गये हुए थे, अतः उनका नेतृत्व तो सम्भव था ही Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय भाषा और साहित्य ] [ ३८१ नहीं । भद्रबाहु के बाद स्थूलभद्र की ही सब दृष्टियों से वरीयता अभिमत है । यह भी हो सकता है, आचार्य भद्रबाहु जब नेपाल जाने लगे हों, उन्होंने संघ का अधिनायकत्व स्थूलभद्र को सौंप दिया हो । अधिकतम यही सम्भावना है, प्रथम आगम-वाचना स्थूलभद्र के नेतृत्व में हुई हो । आचार्य भद्रबाहु : दिगम्बर- मान्यता दिगम्बर-परम्परा में सामान्यतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि मगध में पड़े द्वादश वर्षीय दुष्काल के समय आचार्य भद्रबाहु जैन संघ सहित दक्षिण चले गये । सम्राट् चन्द्रगुप्त भी उनके साथ गया, एक मुनि के रूप में । श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) के चन्द्रागिरि नामक पर्वत पर उनका स्वर्गवास हुआ । श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) स्थित पार्श्वनाथ वसति के एक शिलालेख में उल्लेख है कि आचार्य भद्रबाहु के वचन से जैन संघ उत्तरापथ (उत्तर भारत ) से दक्षिणापथ ( दक्षिण भारत ) गया। पर, उस शिलालेख में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि आचार्य भद्रबाहु भी उनके साथ दक्षिण गये थे । यह शिलालेख शक संवत् ५२२ के आस-पास का लिखा हुआ है । वृहत्कथा कोष वृहत्कथाकोष ग्रन्थ में भी इस सम्बन्ध में वर्णन है । इसके लेखक आचार्य हरिषेण है और रचना समय शक संवत् ८५३ है । उसमें जो विवरण है, उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है - आचार्य भद्रबाहु किसी समय विहार करते हुए उज्जयिनी पहुंचे। वहां शिप्रा नदी के किनारे एक उद्यान में ठहरे । वे भिक्षार्थ नगर में गये । एक घर में देखा, एक बच्चा झूले में झूल रहा है। बच्चे ने चिल्लाकर कहा- निकल जाओ । इस निमित्त से उन्हें प्रतीत हुआ कि बारह वर्षों का एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। उन्होंने संघ को बुलाया और सारे वृत्तान्त से अवगत कराया। उन्होंने कहा, अच्छा यही है, लोग दक्षिण देश चले जाए । मुझे स्वयं यहीं ठहरना होगा; क्योंकि मेरी आयु अब क्षीण हो चुकी है ।" विशाखाचार्य का दक्षिण-गमन इसी कथाकोष में एक महत्वपूर्ण उल्लेख यह है कि चन्द्रगुप्त ने आचार्य भद्रबाहु से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। वे विशाखाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । गुरु की आज्ञा से वे संघसहित दक्षिण में पन्नाट देश गये । वहां रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य को अपने-अपने संघों सहित सिन्धु आदि देशों में भेजे जाने की चर्चा है । वृहत्कथाकोष में यह भी उल्लेख १. अहमत्रैव तिष्ठामि क्षीणमायुर्ममाधुना । 2010_05 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ है कि आचार्य भद्रबाहु ने उज्जयिनी के भाद्रपद संज्ञक स्थान में समाधि-मरण प्राप्त किया। भट्ट बाहु चरित्र आचार्य रत्ननन्दि रचित भद्रबाहु चरित्र (रचना काल विक्रम की सोलहवीं शताब्दी) में भी लगभग वृहत्कथा कोष के सदृश वर्णन है। वहां लिखा है : “माचार्य भद्रबाहु भिक्षार्थ एक घर में गये । उस सूने घर में एक साठ दिन का बच्चा झूले में झूल रहा था। वह मुनि को उदिष्ट कर बोला-चले जाओ, चले जाओ।" . आचार्य भद्रबाहु ने झट पूछा-कितने वर्ष के लिये ? बच्चे ने कहा-बारह वर्ष ।" आचार्य भद्रबाहु ने इस निमित्त से बारह वर्षों के भयंकर दुर्भिक्ष की आशंका की। वे स्वयं बारह सहस्र श्रमणों सहित दक्षिण को प्रयाण कर गये । श्रावकों के विशेष अनुरोध पर उन्होंने रामल्य, स्थूलभद्र तथा स्थूलाचार्य को वहीं छोड़ दिया। इसी ग्रन्थ में उज्जयिनी के साजा द्वारा आचार्य भद्रबाहु से श्रमण-दीक्षा स्वीकार करने का भी उल्लेख है। वहां उसका नाम 'चन्द्रगुप्त' के स्थान पर चन्द्रगुप्ति लिखा है। .१. प्राप्य भाद्रपदं देशं, श्रीमदुब्जयनी भवम् । चकारानशनं धीरः, स दिनानि बहून्यलम् ॥ समाधिमरणं प्राप्य, भद्रबाहुर्विवं ययौ। २. तत्र शून्यगृहे चैको, विद्यते केवलं शिशुः ॥ झोलिकान्तर्गतः षप्टि-दिवस प्रमितस्तदा । गच्छ गच्छ वचो वादीत्तच्छुत्वा मुनिना दुतम् ॥ शिशुरुक्ता पुनस्तेन, कियन्तोऽब्दाः शिशो! वद । द्वादशाब्दा मुने ! प्रोचे, निशम्य तद्धचः पुनः ॥ -द्वितीय परिच्छेद, श्लोक ५८-६० ३. विवित्वा विश्वसंघोऽसौ गुरुणामाशयं पुनः । रामल्यस्थूलभद्राख्यस्थूलाचार्या दियोगिनः॥ प्रणम्य प्रार्थयामास भक्त्या संस्थितिहेतवे । श्राद्धानामुपरोधेन प्रतिपन्नं तु तद्वचः ॥ रामल्यप्रमुखास्तस्थु सहस्रद्वादशर्षयः। -वही, ८८-९० ४. चन्द्रावदातसत्कीर्तिश्चन्द्रवन्मोवकृन्नृणाम् । चन्द्रगुप्ति पस्तत्राऽचकच्चार गुणोदयः ॥ २.७ चन्द्रश्री मिनी तस्य चन्द्रमः श्रीरिवापरा। सती भतल्लिका जाता रूपादिगुणशानिली॥ २.९ गणिनोऽनुशया भूपो हित्वा संगं द्विधा सुधीः । जग्राह संयम शुद्ध साधकं शिवशर्मणः॥ -वही, ५६ 2010_05 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [१५३ आकाशवाणी आचार्य भद्रबाहु संघ-सहित दक्षिण की ओर बढ़े जा रहे थे कि एक जंगल को पार करते समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी। उससे उन्होंने जाना कि उनकी आयु बहुत कम भेष रही है । उन्होंने दशपूर्व धर विशाखाचार्य को गम्भीर्य आदि अनेक सद्गुणों से युक्त जान कर धर्मसंघ की सारणा-वारणा के लिए अपने पद पर अधिष्ठित कर दिया । गुरुभक्त, नवदीक्षित मुनि चन्द्रगुप्ति उनकी सेवा में रह गया । थोड़े समय बाद आचार्य भद्रबाहु ने वहीं समाधि-मरण प्राप्त किया । विशाखाचाय दक्षिण की ओर बढ़ते-बढ़ते जैन शासन को उद्दीप्त तथा नव-दीक्षितों को अध्यापित करते हुए चोल देश पहुंचे। उनके दक्षिण देश में पर्यटन करते, प्रवास करते तथा धर्म-प्रसार करते हुए बारह वर्ष का समय व्यतीत हो गया। तदनन्तर विशाखाचाय के नेतृत्व में संघ वापिस (उज्जयिनी) लोट आया। पीछे रहे साधुओं में शिथिलता आ गयी थी। विशाखाचाय ने उन साधुओं को समझाने का प्रयत्न किया कि इस प्रतिकूल (शास्त्रविरुद्ध) चर्या का परित्याग कर दें। पर, वे सुविधा-भोगी मुनि नहीं माने । जब स्थूलाचार्य ने भी उन्हें समझाने की चेष्टा की, तो वे उबल पड़े और उन्हें डण्डों से पीटते-पीतते गढ़ में १. अथाऽसौ विहरन्स्वामी भद्रबाहुः शनैः शनैः । प्रापन्महाटवीं तत्र शुश्राव गगन-ध्वनिम् ॥ श्रुत्वा महाद्भुतं शब्दं निमित्तज्ञानतः सुधीः । आयुरल्पिष्ठमात्मीयमज्ञासोद्बोधलोचनः ॥ तदा साधुः समाहूय तत्रैव सकलान्मुनीन् । विशाखाचार्य मापन्नं ज्ञात्वा सद्गुणसम्पदा ॥ वशपूर्वधरं धीरं गम्भीर्यादिगुणान्वितम् । स्वकीयगणरक्षार्थ स्वपदे पर्यकल्पयत् ॥ -तृतीय परिच्छेद, १-४ २. चन्द्रगुप्तिस्तदावादी द्विनयान्नवदीक्षितः । द्वादशांव्दं गुरोः पादौ पर्युपासेऽति भक्तितः ॥ गुरुणा वार्यमाणोऽपि गुरुभक्तः स तस्थिवान् । गुरु शिष्टिवशाहन्ये तस्माच्चेलुस्तपोधनाः॥ -वही, ८-६ १. समाधिना परित्यज्य देहं गेहं रुजां मुनिः । नाकिलोकपदं प्राप्तो देवदेवीनमस्कृतम् ॥ -वही, ३९ ____ 2010_05 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड: २ फेंक दिया 11 कमड़ डान्थ राजावली कन्नड़ भाषा में राजावली नामक ग्रन्थ है, जिसमें आचार्य भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त का कथानक है। राजावलो शक संवत् १७५१ को रचना है। इसके रचयिता देवचन्द्र हैं। अधिकांश वर्णन भद्रबाहु-चरित्र जैसा है। कुछ नये समावेश भी हैं। उदाहरणार्थभद्रबाहु चरित्रकार ने उज्जयिनी के राजा चन्द्रगुप्त (चन्द्रगुप्ति) के सोलह स्वप्नों का वर्णन किया है, वहां राजावलीकार ने उन (स्वप्नों) का सम्बन्ध पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त से जोड़ा है। भिन्न-भिन्न आधारों पर जो उल्लेख किया गया है, उससे यह तथ्य समर्थित नहीं होता कि श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु-दक्षिण गये, वहां टिके, दिवंगामी हुए। वृहत्कथाकोषकार आचार्य भद्रबाहु के उज्जयिनी क्षेत्र में दिवंगत होने का उल्लेख करते हैं, जब कि भद्रबाहु. परित्रकार उनकी दक्षिण-यात्रा के बीच मार्ग में उनके समाधि-मरण की चर्चा करते हैं। ये परस्पर टकराने वाले तथ्य हैं। वृहत्कथाकोषकार ने आचार्य भद्रबाहु द्वारा रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य को सिन्धु मादि देशों में भेजे जाने का संकेत किया है और भद्रबाहुचरित्रकार ने उन्हें उज्जियिनी में ही रखा है। इतना ही नहीं, उन्होंने स्थूलवृद्ध को स्थूलभद्र तथा भद्राचार्य' को स्थूलाचाय तक बना दिया है । भद्रबाहुचरित्रकार द्वारा ये नाम परिपर्तित रूप में कैसे दिये गये, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न उभरता है, जब कि उनसे पूर्ववर्ती लेखक स्थूलवृद्ध और भद्राचाय ही प्रयुक्त करते आये हैं। चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध एक विशेष प्रश्न उपस्थित होता है-उसका सम्बन्ध पाटलिपुत्र से था या उज्जयिनी से । दिगम्बर लेखकों का झुकाव चन्द्रगुप्त को उज्जयिनी का मानने की ओर अधिक है। केवल कन्नड़ ग्रथ राजावली के लेखक देवचन्द्र ही ऐसे हैं, जिनके अनुसार षोडस स्वप्न-द्रष्टा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध पाटलिपुत्र से था-वह वहां का राजा था। १. कुपितास्ते तदा प्रोचुर्वर्षीयानेष वेत्ति न । वक्तीत्य वातुलीभूतो वार्धक्ये वा मतिभ्रमात् ॥ वृद्धोऽयं यावदत्रास्ति तावन्नो न सुखस्थितिः । इति संचिन्त्य ते पापास्तं हन्तुं मतिमादधुः ।। दुष्टश्चण्डेः शिष्यौदण्डैदण्डैह तो हठात् । जीर्णाचार्यस्ततो क्षिप्तो गर्ते फूटेन तत्र वै॥ -चतुर्थ परिच्छेद, १६-१८ 2010_05 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३८५ आचार्य भद्रबाहु तक यद्यपि जैन धर्म भारत में चारों ओर फैल चुका था, पर यह ऐतिहासिक तथ्य है कि तब तक जैन धर्म का मुख्य केन्द्र मगध और समीपवर्ती प्रदेश थे । इसलिये यह सम्भावित माना जा सकता है कि सामान्यतः आचार्य भद्रबाहु का भी अधिक प्रवास और विहार मगध व उसके पाश्ववर्ती भू-भागों में होता रहा हो । इस आधार पर उनसे सम्बद्ध सम्राट् चन्द्रगुप्त का पाटलिपुत्र में स्थित होना कहीं अधिक संगत हैं । पाश्चात्य तथा भारतीय इतिहासज्ञों के अभिमत भी प्रायः चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र से सम्बद्ध मानने की ओर अधिक हैं । सभी श्वेताम्बर लेखक आचार्य भद्रबाहु का विशिष्ट यौगिक साधना ( महाप्राणध्यान ) की दृष्टि से नेपाल जाना स्वीकार करते हैं । पाटलिपुत्र क्षेत्र से नेपाल जाना सर्वथा संगत और सम्भाव्य प्रतीत होता है । नेपाल पर्वतीय प्रदेश है। योग साधना के अनुकूल है । पाटलिपुत्र से बहुत दूर भी नहीं है । यह भो कल्पना की जाती है कि अवन्ती- प्रदेश मगध साम्राज्य का भाग रहा हो । मगध साम्राज्य के पश्चिमी भाग का केन्द्र स्थान, प्रादेशिक राजधानी या साम्राज्य की उपराजधानी उज्जयिनी रही हो । पाटलिपुत्र ( मगध ) - नरेश चन्द्रगुप्त अपने जीवन के उतराद्ध में उज्जयिनी में रहने लगा हो और आचार्य भद्रबाहु से सम्बद्ध घटनाक्रम उस समय के हों । स्थिति आकलन का स्पष्ट रूप इस सम्बन्ध में इस प्रकार है- अशोक के समय में तो ऐसा हुआ था । पाटलिपुत्र मगध साम्राज्य की केन्द्रीय राजधानी या तथा उज्जयिनी का स्तर भी मगध साम्राज्य के पश्चिमी भाग पाटनगर या मगध साम्राज्य की उपराजधानी जैसा था । अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को पश्चिम का प्रादेशिक शासक बना कर वहीं भेजा था । हिमवत् थेरावली में भी उल्लेख है कि २४६ वीर निर्वाणाब्द में संप्रति अशोक का पौत्र ) उज्जयिनी चला गया था। पर, चन्द्रगुप्त ने वैसा किया हो, वह स्वयं वहां रहा हो, इस सम्बन्ध में पुष्ट प्रमाण अप्राप्त हैं; अतः यह कल्पना अस्थानीय है । वस्तुतः चन्द्रगुप्त मौर्य का सम्बन्ध पाटलिपुत्र से ही संगत प्रतीत होता है । फिर भी इसे इत्थंभूत तथ्य न मानते हुए गवेषणा-सापेक्ष माना जाना चाहिए । अन्ततः इस प्रसंग को यही उल्लेख करते हुए समाप्त किया जाता है, आचार्य भद्रबाहु दक्षिण गये होंगे, पर, सम्भवतः वे द्वितीय भद्रबाहु रहे होंगे । प्रथम भद्रबाहु के साथ दक्षिण जाने का प्रसंग वटित नहीं होता । संघाधिपत्य आर्य जम्बू के अनन्तर भगवान् महावीर के धर्म-संघ के पांचवें अधिकारी या 2010_05 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड :२ संघनायक आचार्य भद्रबाहु श्वेताम्बरा तथा दिगम्बर दोनों परम्पराओं द्वारा स्वीकृत हैं। क्रमशः होने वाले पांच पट्टधरों में एकमात्र यही पट्टधर हैं, जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-दोनों पट्टानुक्रमों में एक हैं। इनके संघनायकत्व के काल के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में ऐकमत्य नहीं है। श्वेताम्बर आचार्य भद्रबाहु का आधिपत्य-काल चौदह वर्ष का मानते हैं, जब कि दिगम्बरों के अनुसार यह काल उनतीस वर्ष का है। श्वेताम्बर मान्यतानुसार आयं जम्बू के मोक्षगामी होने से लेकर आचार्य भद्रबाहु के स्वगंगामी होने तक का समय (प्रभव ११ वर्ष + शय्यम्भव २३ वर्ष + यशोभद्र ५० वर्ष + सम्भूतिविजय ८ वर्ष तथा भद्रबाहुँ १४ वर्ष = १०६ वर्ष ) एक सौ छः वर्ष का होता है। महाधीर-निर्वाण से जम्बू-निर्वाण तक का समय चौंसठ वर्ष का है ही। इस प्रकार (६४+१०६-१७०) भगवान महावीर से आचार्य भद्रबाहु तक का समय १७० वर्ष का होता है। दिगम्बर-परम्परानुसार आयं जम्बू के पश्चात् आचार्य भद्रबाहु तक - विष्णु या नन्दी १४ वर्ष + नन्दिमित्र १६ वर्ष + अपराजित २२ वर्ष' + गोवद्ध'न १९ वर्ष + भद्रबाहु २६ वर्ष = कुल समय १०० वर्ष का होता है। ये पांचों आचार्य श्रुत केवलो माने जाते हैं। इनके बाद भरत क्षेत्र में श्रुतकेवली होना वे स्वीकार नहीं करते । । महावीर-निर्वाण से जम्बू-निर्वाण तक का समय ६२ वर्ष' का है। इस प्रकार (१२+१००=१६२ ) महावीर-निर्वाण से आचार्य भद्रबाहु तक का समय १६२ वर्ष का होता है। आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास आचार्य भदबाहु के बारे में दिगम्बर लेखकों द्वारा उनके स्वर्गवास के विषय में भी चर्चा को गयी है। श्वेताम्बर-परम्परा में उनके स्वगंधास के सम्बन्ध में जो संकेत प्राप्त होते हैं, वे उनसे भिन्न हैं। हिमवत् थेरावली में इस विषय में जो उल्लेख है, उसका सारांश इस प्रकार १. गंदो य गंदिमित्तो विदिओ अपराजिदो तइज्जोय । गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दबाहु ति ॥ पंच इमे पुरिसवरा उदसपुवो जगम्मि विक्खादा । बारस अंगधरा तित्थे सिरि वडढमाणस्स ॥ पंचाणं मेलियाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । वीवम्मि य पंचमए भरहे सुदकेवलो णत्थि ॥ -तिलोयपण्णती, १४८२-८४ २. बासट्ठी वासाणिं गोदम पहुदोण गाणवताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं॥ -तिलोयपण्णत्ती, १४७८ ____ 2010_05 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३८७ है : अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर, श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया, जो महामात्य शकटाल के पुत्र थे । इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण के एक सौ सत्तर वर्ष पश्चात् उन्होंने चतुर्विध आहार का त्याग करते हुए आमरण अनशन ( सन्थारा ) किया। पन्द्रह दिन के अनशन में उनका कलिंग प्रदेश के कुमार नामक पर्वत पर विशिष्ट ध्यानावस्था में स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की अंचलगच्छ की पट्टावली में भो इसी तरह का उल्लेख है। आचार्य स्थूलभद्र कहा जाता है, मगध के शासक नव नन्दों में प्रथम नन्द का कल्पक महामात्य था। वह ब्राह्मण था। जैन धर्म में उसकी दृढ़ आस्था थी। नवम मन्द का महामात्य शकटाल कल्पक का घंशज था। आवश्यक चूर्णि तथा परिशिष् पर्व आदि में उल्लेख है कि शकटाल दृढ़ आस्थावान् जैन था। इसी कारण ब्राह्मणों का वह द्वेष-भाजन बना। स्थूलभद्र महामात्य शकटाल के पुत्र थे। इनके सात बहिनें थीं। स्थूलभद्र ने तथा उनकी सातों बहिनों ने श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर ली। ___ कल्पसूत्र स्थविरावली की विस्तृत वाचना या वर्णन के अनुसार स्थूलभद्र ने आर्य सम्भूतिविजय के पास दीक्षा ग्रहण की। वहां लिखा है : माढर गोत्रीय आर्य सम्भूतिविजय के अपत्यवत् के बारह अन्तेवासी थे : १. नन्दनभद्र, २. उपनन्दन भद्र, ३. तिष्यभद्र, ४. यशोभद्र, ५. सुमनभद्र, ( स्वप्नभद्र ), ६. मणिभद्र, ७. पुण्यभद्र (पूर्णभद्र ), ८. स्थूलभद्र, ६. ऋजुमति, १०. जम्बू, ११. दीघ भद्र तथा १२. पाण्डुभद्र । आठवें स्थान पर स्थूलभद्र का उल्लेख है। स्थूलभद्र की बहिनें भी आर्य सम्भूतिविजय से दीक्षित हुई। कल्पसूत्र की विस्तृत स्थघिरावली में लिखा है : माढर गोत्रीय आर्य सम्भूतिविजय के अपत्यवत् सात अन्तेवासिनियां थीं : १. यक्ष, २. यक्षदत्ता, ३. भूता, ४. भूतदत्ता, ५, सेणा, ६. वेणा तथा ७.रेणा। ___आयं जम्बू के पश्चात् तीसरे संघपति-आचार्य भायं यशोभद्र ने अपने दो उत्तराधिकारी मनोनीत किये। आर्य यशोभद्र के दिवंगमन के बाद ज्येष्ठता के कारण आय सम्भूतिविजय पट्टाधिकारी हुए, उनके अनन्तर आचार्य भद्रबाहु । स्थूलभद्र तथा उनकी सात बहिनें आर्य सम्भूतिविजय के आचार्य-काल में उन्हीं से दीक्षित हुई थीं। देहावसान आचार्य धर्मघोषसूरि कृत दुःषमाकाल श्री श्रमण संघ स्तोत्र के अनुसार आचार्य स्थूलभद्र का संघाधिपत्य-काल पैंतालीस वर्ष' का है। तदनुसार वीर-निर्वाणाब्द दो सौ पन्द्रह में उनका स्वगंधास हुआ। ___ 2010_05 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: २ पूर्व-विच्छेद-काल श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार आचार्य स्थूलभद्र के देहावसान के साथ अन्तिम चार पूर्षों ( जो उन्हें सूत्रात्मक रूप में प्राप्त थे, अर्थात्मक रूप में नहीं ) का विच्छेद हो गया । तदनन्तर दश पूर्वो की परम्परा आय वज़ तक चलती रही। नन्दी स्थविरावली के अनुसार आय वज्र भगवान् महावीर के १८ वे पट्टधर थे। उनका देहावसान वीर-निर्वाणाब्द ५८४ में माना जाता है। आय' वज्र के स्वर्गवास के साथ दशम पूर्व विच्छिन्न हो गया। आचार्य स्थूलभद्र से आचार्य वच तक जो दश पूर्व-ज्ञान की परम्परा प्रवृत्त रही, तद्गत ज्ञानियों के नाम और समय इस प्रकार हैं : समय ४५ वर्ष ३० वर्ष ४६ वर्ष ४४ वर्ष नाम आचार्य स्थूलभद्र आचार्य महागिरि आचार्य सुहस्ती आचार्य गुणसुन्दर आचार्य कालक आचार्य स्कन्दिल आचार्य रेवतीमित्र आचार्य मंगू आचार्य धर्म आचर्या भद्रगुप्त आचार्य श्रीगुप्त आचार्य वन ४१ वर्ष ३८ वर्ष ३६ वर्ष २० वर्ष २४ वर्ष ३६ वर्ष १५ वर्ष ३६ वर्ष कुल ४१४ वर्ष पहले के १७० वर्ष ५८४ वर्ष आय वच के पट्टाधिकारी आय रक्षित हुए । विशेषावश्यक भाष्य के दृत्तिकार मलधारी हेमचन्द ने २५११ वी गाथा की व्याख्या में जो विवेचन किया है, उससे प्रतीत होता है कि आय रक्षित को नौ पूर्वो का परिपूर्ण तथा दशम पूर्व के सिर्फ २४ यविकों का शान था। आय रक्षित का युगप्रधान-काल ५८४-५९७ वीर-निर्वाणाब्द माना जाता है। उनके एक शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र थे। कहा जाता है, उन्होंने नौ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया, पर, यथेष्ट अभ्यास न कर पा सकने के कारण उन्हें नौवां पूर्व विस्तृत होने लगा। ___ 2010_05 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधो) प्राकृत और मागम वाङमय [३८९ उनके देहावसान के साथ नवम पूर्व का ज्ञान विच्छिन्न हो गया। उनका देहावसान वीरनिर्वाणाब्द ६०४ में माना जाता है। नन्दी स्थविरावली में दुर्बलिका पुष्यमित्र का उल्लेख नहीं है। नन्दी स्थविरावली वस्तुतः युगप्रधान-क्रम पर आधृत है। उसमें सम्भवतः उन्हीं का उल्लेख है, जो आचाय-पट्टाधिकारी भी थे और युगप्रधान भी। भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर लगभग एक सहस्र वर्ष पर्यन्त पूर्व-ज्ञान का अंशतः अस्तित्व रहा। तत्पश्चात् वह विच्छिन्न हो गया । दिगम्बर-परम्परा पूर्व-ज्ञान के विच्छेद के सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा में स्वीकृत काल-क्रम भिन्न है। दिगम्बर एक समय-विशेष के अनन्तर एकादश अंगों का भी विच्छेद मानते हैं। इस विषय में तिलोयपण्णती में उल्लेख है। (चतुर्दश पूर्वधर परम्परा का आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ विच्छेद हो जाने के अनन्तर ) विशाल, प्रोप्टिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म; ये ग्यारह आचार्य दश पूर्वधरों के रूप में विख्यात हुए। परम्परा से इनका काल एक सौ तिरासी वर्ष का है। 2 कालक्रम से उनके दिवंगत हो जाने पर फिर भरत क्षेत्र में दश पूर्वधर-परम्परा विच्छिन्न हो गयी। ग्यारह अगों के धारक श्रमणों को अवस्थिति के सम्बन्ध में तिलोयपण्णती में उल्लेख है : “नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कस; ये पांच आचार्य भगवान् महावीर के तीर्थ में (पूर्वोक्त परम्परा के अनन्तय ) ग्यारह अंगों के धारक हुए। इनके समय का परिमाण पिण्डरूप से कुल दो सौ बीस वर्ष का है। इनके स्वगंगामी होने पर फिर भरत क्षेत्र में कोई १. बो (वो) लोणम्मि सहस्से, बरिसाणं वीरमोक्खगमणाउ । उत्तरवायगवसमे पुव्वगयस्य भवे छेदो ॥ बरिससहस्से पुण्णे, तित्थोग्गाली ए बदमाणस्स । , नासिहि ई पुत्वगतं, अणुपरिवाडो ए जं जस्स ॥ -तित्थुगाली पयन्ना, ८०१-२ २. पढमो विसाइ णामो पुढिलो खत्तिओ जओ गागो। सिद्धत्यो धिरिसेणो विजओ बुद्धिलगंगदेवा य॥ एक्करसो य सुधम्मो वसपुव्वधरा इमे सुविखादा। पारंपरिओवगदो तेसीवि सदं च ताण वासाणं ॥ -तिलोयपण्णसी, १४८५-८६ ____ 2010_05 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : २ ग्यारह अंगों के धारक नहीं रहे।"1 ___ आचारांगधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में तिलोयपण्णती में लिखा है : "सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु तथा लौहार्य; ये चार श्रमण आचारांग के धारक हुए। इन चारों के अतीत हो जाने पर चौदह पूर्व और ग्यारह अगों के एक देश के-आंशिक धारक रहे। आचारांगधरों का काल-परिमाण एक सौ अठारह वर्ष है। इन ( आचारांगवरों ) के स्वर्गगत हो जाने पर फिर भरत क्षेत्र में कोई आचारांग के धारक नहीं हुए। गौतम से लेकर तब तक का काल परिमाण ( केवली काल १६२ वर्ष + चतुर्दश पूर्वधर काल १८३ वर्ष + दशपूर्वधर काल २२० वर्ष + आचारांगघर काल ११८ वर्ष = ६८३) छः सो तिरासी वर्ष का है ।" तुलनात्मक पर्यवेक्षण केवल-ज्ञान की अवस्थिति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर; दोनों का ऐकमत्य है। दोनों आर्य जम्बू तक उसे स्वीकार करते हैं। चतुर्दश पूर्वो के ज्ञान के विषय में भी दोनों के विचार एक समान हैं। दोनों के अनुसार अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु हैं। केवल काल-गणना में आठ वर्ष का अन्तर आता है। महावीय-निर्धाण से आचार्य भद्रबाहु के देहावसान तक का समय श्वेताम्बरों के अनुसार एक सौ सत्तर वर्ष है और दिगम्बरों के अनुसार एक सौ बासठ वर्ष। इसके अनन्तरा दोनों धाराओं में भिन्नता दिखाई देती है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार आर्य वज्र ( स्वर्गवास पीर-निर्वाणाब्द ५८४ ) तक दश पूर्व रहे, जब कि दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण से ३४५ वर्ष तक उनका अस्तित्व रहा । दोनों परम्पराओं में २३६ वर्ष का अन्तर आता है । दिगम्बए श्वेताम्बरों १. णक्खत्तो जयपालो पंडुयघुवसेणकस आइरिया। एक्कारसंगधारी पंच इमे वोरतित्थम्मि । दोण्णि सया बीस जुदा वासाणं ताण पिंडपरिमाणं । तेसु अदीदे णत्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥ -तिलोषपण्णती, १४८८-८९ २. पढमो सुभद्दणामो जसमद्दो तहय होदि जसबाहू। तुरियो य लोहणामो एदे आयार अंगधरा ॥ सेसेक्करसंगाणं चोद्दसपुत्वाण मेक्कदेसधरा। एक्कसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ॥ तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होंति भरहम्मि । गोदममणिपहुदीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी ॥ -वही, १४९०-९२ 2010_05 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आषं ( अद्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३६१ से २३६ वर्ष पूर्व दश पूर्वो का विच्छेद मानते हैं। श्वेताम्बर उसके बाद भी (वीर-निर्वाणान्द ५८४ तक) उनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं । आय वज्र के पश्चात् २० वर्ष तक वे नौ पूर्वो को विद्यमानता मानते हैं। उससे आगे तीन सौ छियानवे वर्ष तक वे पूर्व-ज्ञान का उत्तरोत्तर हीयमान अस्तित्व स्वीकार करते हैं अर्थात् तब तक पीर निर्वाणाब्द १००० वर्ष तक जिस किसो अश में वे पूर्व-ज्ञान की विद्यमानता में विश्वास करते हैं। ग्यारह अंग : विद्यमानता : विच्छिन्नता श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारह अंगों की स्थिति अब तक स्वीकार की जाती है, जब कि दिगम्बर वीस-निर्वाणाब्द ५६५ तक उनका अस्तित्व मानते हैं। उसके पश्चात् वीर-निर्वाणाब्द ६८३ तक वे आचारांगधरों की स्थिति मानते हैं । तत्पश्चात् न पूर्वज्ञान, न ग्यारह अंग और न आचारांग के परिपूर्ण वेत्ता यहां रहे । पूर्वज्ञान तथा ग्यारह अंगों का आंशिक अस्तित्व ही रहा। श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चाद्वर्ती श्रुत-प्रवर्तन के सम्बन्ध में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों परम्पराओं में बहुत अधिक मत-भेद है। दोनों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि दिगम्बर-मान्यता में वर्तमान में अंगों का अस्तित्व अस्वीकृत है और श्वेताम्बर मान्यता में स्वीकृत। . ___ क्या अनुसन्धित्सु विद्वान इस खाई को पाटने का कोई युक्तिपूर्ण और न्यायसंगत मार्ग निकाल सकते हैं ? ज्ञान और गवेषणा को प्रवृत्ति और आगे बढ़ेगी तथा यह आशा की जानी चाहिए कि इस परिपार्श्व में भी कुछ नये दिशा-बोध प्रस्तुत होंगे। आगमों में अनुयोग अनुयोग को म अनुयोग शब्द अनु और योग के संयोग के बना है। अनु उपसर्ग यहां आनुकूल्यार्थवाचक है। सूत्र ( जो संक्षिप्त होता है ) का, अर्थ (जो विस्तीर्ण होता है। के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग कहा जाता है । आगमों के विश्लेषण तथा व्याख्यान के प्रसंग में प्रयुक्त विषय-विशेष का द्योतक है। १. अणु सूत्रं महानर्थस्ततो महतोऽर्थस्याणुना सूत्रेण योगोऽणुयोगः। अनुयोजन मनुयोगः । अनुरूपो योगोऽनुयोगः। अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः। व्याख्याने विधिप्रतिषेधान्यामर्थ प्ररूपणे। -अभिधान राजेन्द्र, प्रथम माग, पृ०.३४० ____ 2010_05 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अनुयोग के प्रकार ___अनुयोग चार भेदों में विभक्त किये गये हैं। : १. चरणकरणानुयोग', २. धमकथानुयाग, ३. गणितानुयोग तथा ४. द्रव्यानुयोग । आगमों में इन चार अनुयोगों का विवेचन है। किन्हीं में कोई विस्तार से वर्णित हुए हैं और किन्हीं में संक्षेप से । अनुयोग : अपृथकता ___ आर्य बज तक आगम इस स्थिति में रहे कि वहां अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथकता नहीं, थी। प्रत्येक सूत्र चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्यात होता था। आवश्यक नियुक्ति में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : “कालिक श्रुत (अनुयोगात्मक) व्याख्या को दृष्टि से अपृथक थे अर्थात् उनमें चरणकरणानुयोग प्रभृति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वच के अनन्तर कालिक श्रुत और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता ( विभक्तता ) की गयो ।" आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में सूचित किया है कि तब तक साधु तीक्ष्णप्रज्ञ थे; अतः ( अनुयोगात्मक दृष्टया ) अविभक्तरूपेण व्याख्या का प्रचलन था-प्रत्येक सूत्र में चरणकरणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था। नियुक्ति में जो केवल कालिक श्रत का उल्लेख किया गया है, आचार्य मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मुख्यता को दृष्टि से यहां कालिक श्रुत का ग्रहण है अन्यथा अनुयोगों का तो कालिक, उत्कालिक आदि में सर्वत्र अविभाग था ही। १. चत्तारिउ अणुओगा, चरणे धम्मगणियाणुओगे य । दवियाऽणुओगे य तहा, जहकम्मं ते महड्ढीया । -अभिधान राजेन्द्र, प्रथम माग, पृ० ३५६ २. चरण का अर्थ चर्या, आचार या चारित्र्य है। इस सम्बन्ध में जहां विवेचन-विश्लेषण ___हो, वह चरणकरणानुयोग है। ३. द्रव्यों के सन्दर्भ में सदसत्पर्यायालोचनात्मक विश्लेषण या विशद विवेचन जिसमें हो, वह - द्रव्यानुयोग है। ४. जावंत अज्ज वइरा अपुहुत्तं कालिआणुओगस्स। तेणारेण पुहुत्तं कालिअ सुअ दिट्टिवायं य॥ -आवश्यक-नियुक्ति, ७६३ ५. यावदार्यवज्रा-आर्यवज्रस्वामिनो मुखो महामतयस्तवितकालिकानुयोगस्य-कालिकश्रुत व्याख्यानस्यापृथक्त्वं-प्रतिसूत्रं चरणकरणानुयोगादोनामविभागेन वर्तनभासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्ण प्रज्ञत्वात् । कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् । -आवश्यक-निर्यक्ति, पृ० ३८३, प्रकाशक, आगमोदय समिति, बम्बई 2010_05 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्ध मागधो) प्राकृत और आगम वाङमय [३९३ विशेषावश्यक भाष्य में इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हुए कहा गया है : आय वन तक जब अनुयोग अपृथक् थे, तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी। __अनुयोग विभक्त कर दिये जाए, उनकी पृथक्करण कर छंटनी कर दी जाए, तो वहां ( उस सूत्र में ) वे चारों अनुयोग व्यवच्छिन्न नहीं हो जाएगे ? भाष्यकारा समाधान देते हैं कि जहां किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों अनुयोगों में होती थी, वहां चारों में से अमुक अनुयोग के आधार पर व्याख्या किये जाने का यहां आशय है । आर्य रक्षित द्वारा विभाजन ___ अनुयोग विभाजन का कार्य आर्य रक्षित द्वारा सम्पादित हुआ। आर्य रक्षित आर्य वच के पट्टाधिकारी थे। वे महान् प्रभावक थे, देवेन्द्रों द्वारा अभिपूजित थे। उन्होंने युग की विषमता को देखते हुए कहां कौन-सा अनुयोग व्याखेय है, इसकी मुख्यता की दृष्टि से चार प्रकार से विभाजन किया-सूत्र-ग्रन्थों को चार अनुयोगों में बांटा 11 आर्य रक्षित ने शिष्य पुष्यमित्र-दुर्बलिका पुष्यमित्र को, जो मति , मेधा और धारणा आदि समग्र गुणों से युक्त थे, कष्ट से श्रुतार्णव को धारण करते देखकर अतिशय ज्ञानोपयोग द्वारा यह जाना कि लोग क्षेत्र और काल के प्रभाव से भविष्य में मति, मेघा और धारणा से परिहीन होंगे। उन पर अनुग्रह करते हुए उन्होंने कालिक आदि श्रृत के दिमाग द्वारा अनुयोग किये। १ अपुहुत्ते अणुओगे चत्तारि दुवार भासए एगो। पुहुताणुओगकरणे ते अत्थ तओ वि वोच्छिन्ना ॥ किं वट्टरेहिं पुहुत्तं कयमह तदणंतरेहिं मणियम्मि । तदणंतरेहिं तदभिहियगहियसुत्तस्थसारेहिं ॥ देविंदवं दिएहिं महाणुभावेहिं रखियज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ।। -विशेषावश्यक भाष्य, २२८६-८८ २. मति = अवनोध-शक्ति ३. मेधा = पाठ-शक्ति 8. धारणा = अवधारण-शक्ति ५. ऐदयुगोन पुरुषानुग्रहबुद्ध या चरणकरण द्रव्यधर्मकथागणितानुयोग भेदाच्चतुर्धा । -सूत्रकृतांग टीका, उपोद्घात ६. नाऊन रक्खियज्जो मइमेहाधारणासमग्ण पि । किच्छेण धरेमाणं सुयण्णवं पूसमित्त ति ॥ अइसयकओवओगो मइमेहाधारणाइपरिहीणे। नाऊ गमेस्स पुरिसे खेत्त कालाणुभावं च ॥ साणुग्गहोऽणुओगे वीसु कासी य सुयविभागेणं ॥ -विशेषाबश्यक माध्य, २२८९-९१ ____ 2010_05 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण : २ विशेषावश्यक भाष्य के वृत्तिकार मलघारी हेमचन्द्र ने २५११ वी गाथा की व्याख्या में प्रसंगोपात्ततया यह सूचित किया है कि दुर्बलिका पुष्यमित्र के अतिरिक्त आर्य रक्षित के तीन मुख्य शिष्य और थे-विन्ध्य, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । आचार्य रक्षित ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को आदेश दिया, वे विन्ध्य को पूर्वो की याचना दें। दुर्बलिका पुष्यमित्र पाचना देने लगे। पर, पुनरावृत्ति न कर पाने के कारण नवम पूर्व की विस्मृति होने लगी। आचार्य रक्षित को उस समय लगा, ऐसे बुद्धिशाली व्यक्ति को भी यदि सूत्रार्थ विस्मृत होने लगे हैं, तब भविष्य में और कठिनाई उत्पन्न हो जायेगी। उन्होंने इस विवशता से प्रेरित हो कर पृथक्-पृथक् अनुयोगों की व्यवस्था की। आगम : अनुयोग : सम्बन्ध अनुयोगों के आधार पर सूत्रों का विभाजन निम्नांकित प्रकार से हुआ 1 : १. प्रथम-चरणकरणानुयोग में ग्यारह कालिक श्रुत-ग्यारह अंग, महाकल्प श्रुत तथा छेद सूत्र । २. द्वितीय-धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषित । ३. तृतीय-गणितानुयोग में सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । ४. चतुर्थ-द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद । दिगम्बर-आम्नाय में अनुयोग दिगम्बर-परम्परा में भी चार अनुयोग माने गये हैं। श्वेताम्बरों से उनके नाम कुछ भिन्न हैं। वे इस प्रकार हैं : १. प्रथमानुयोग-बोधि तथा समाधि के निधान-तदुपजीवी प्रचुर सामग्री से युक्त पुराण, चरित तथा कथाए-आख्यान-प्रधान ग्रन्थ । . २. करणानुयोग-लोक-अलोक-विभक्ति, गति-चतुष्क, ज्योतिष, गणित आदि से सम्बद्ध ग्रन्थ । ३. चरणानुयोग-चारित्र्य की उत्पत्ति, वृद्धि तथा रक्षण से सम्बद्ध नियमों व उप १. कालियसुयं च इसिमासियाई तइआ य सूरपन्नती। सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्यो होइ अणुओगो॥ जं च महाकप्पसुयं जाणि अ सेसाणि छेयसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगो ति कालियत्थे उवगयाणि ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, २२९४-९५ ____ 2010_05 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य | आष (अद्ध मागधो) प्राकृत और आगम वाङमय [३६५ नियमों के प्रतिपादक ग्रन्थ; जो मुनियों और गृहस्थों के लिए यथोचितरूपेण वांछनीय है। ४. द्रव्यानुयोग-जीव, अजीव, पुण्य पाप, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्वों के विश्लेषण से सम्बन्ध रखने वाले दार्शनिक किंवा सैद्धान्तिक ग्रन्थ ।। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार आगम लुन हैं; इसलिए उन्होंने अपने उत्तरवर्ती ग्रन्थों को जिन्हें प्रामाणिक तथा श्रद्धास्पद मानते हैं, उनके विषयानुरूप इन चार अनुयोगों में निघापित किया है। प्रथमानुयोग-महापुराण, पुराण आदि ग्रन्थ । करणानुयोग-तिलोयपण्णती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), त्रिलोकसार बादि । चरणानुयोग--मूलाचार आदि । द्रव्यानुयोग-प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि । संक्षेप में ही सही, प्रायः सभी सूत्रों में यत्किंचित् सभी अनुयोगों से सम्बद्ध विदारसामग्री है। कहीं किन्हीं विषयों या विचारों की प्रधानता है, किन्हीं की गौणता । व्याख्याक्रम सम्भवत: ऐसा रहा हो, सूत्रवाड्मय में जो विषय अत्यन्त गौण या सांकेतिक रूप में सूचित हैं, उनके विशद विश्लेषण तथा विस्तृत विवेचन की एक विशेष परम्परा या पद्धति थो। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि सूत्रों में मूल रूप में संक्षिप्ततया संकेतित उन-उन विषयों से सम्बद्ध, मौखिक हो सही, कोई व्याख्या-साहित्य रहा हो, जिसे उन मूल विषयों का पूरक व विश्लेषक साहित्य कहा जा सकता है तथा जिसे अध्येतृगण परम्परा से अधिगत करते रहते थे। उसके आधार पर एक ही सूत्र में चारों अनुयोग व्याख्यात होते रहे । पर, कार्य जटिल था। जहां मूल में बहुत कम शब्दावली हो, उसके १. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमविपुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ लोकालोकविभक्त युगपारवृत्तेश्चतुर्गतीनांच । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगच ॥ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरांगम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षोच । द्रव्यानुयोगवीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥ -रलकरावकाचार, प्रथम अधिकार, ४३-४६ ____ 2010_05 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड :२ यथेष्ट, विस्तृत विश्लेषण को यथावत् व्यवस्था बुद्धि में बनाये रखने में अवश्य जटिलता होती है। अतएव आयं रक्षित को ऐसा लगा हो कि इससे अध्ययन तथा व्याख्या स्वस्थ नहीं रह सकेगी; क्योंकि यह शैली प्रखर प्रतिभा, सतत जागरूकता तथा अनवरत अभ्यास-परायणतागम्य है। इसलिये उन्होंने अनुयोग-विभाजन किया, जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न सूत्रों का तद्गत विषय की प्रधानता की दृष्टि से किसो एक अनुयोग में परिसीमन हो जाता है। जैसे, चरण-करणानुयोग में जिन सूत्र-ग्रन्थों का समावेश है, उनमें मुख्यतः चरण-आचार या चारित्र्य का विश्लेषण है। इसी प्रकार धर्मकथानुयोग में उन ग्रन्थों का ग्रहण है, जैसा कि इस नाम से ही स्पष्ट है, जहां मुख्यतः धम-निरूपण में कथाओं का माध्यम परिगृहीत है। गणितानुयोग गणित से सम्बद्ध है औरा. द्रव्यानुयोग पदार्थ-विज्ञान से । यह नूतन विभाग-क्रम बड़ा लाभप्रद सिद्ध हुआ । मेधा और प्रज्ञा को उत्तरोत्तर हीयमानता के होते हुए भी इससे अध्येताओं की श्रुतानुशीलन में सम्यक् गति बनी रही। उनका शास्त्राभ्यास का मार्ग इससे सुगम बना । जिस अनुयोगगत विषय का उन्हें अध्ययन करना हो, उसके लिये उन्हें एक सुनिश्चित सरणि तथा परिशीलनीय वाङमय का स्पष्ट दर्शन प्राप्त हुआ। द्वितीय आगम-वाचना माधुरी वाचना __ आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में सम्पन्न हुई थी। आवश्यक चूर्णि के अनुसार महावीर-निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई। उसमें ग्यारह अंग सकलित हुए । गुरु शिष्य-क्रम से वे शताब्दियों तक चालू रहे, परा, फिर वीर-निर्वाण के लगभग पौने सात शताब्दियों के पश्चात् ऐसो विषम स्थिति उत्पन्न हुई कि आगमों के पुनः संकलन का उद्योग करना पड़ा। बारह वर्षों का भीषण दुर्भिक्ष कहा जाता है, तब बारह वर्षों का भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। लोक-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लोगों को खाने के लाले पड़ गये । श्रमणों पर भो उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । खान-पान, रहन-सहन आदि को अनुकूलता मिट गयी। श्रामण्य में स्थिर रह पाना अत्यधिक कठिन हो गया। अनेक श्रमण काल-कवलित हो गये । नन्दी चूणि में इस सम्बन्ध में उल्लेख है-ग्रहण, गुणन, अनुप्रेक्षा मादि के अभाव से श्रुत नष्ट हो गया। कुछ का कहना है, श्रुत नष्ट नहीं हुआ, अधिकांश श्रुत-वेत्ता नष्ट हो गये। हार्द लगभग समान हो है। किसी भी प्रकार से हो, श्रुत-शृंखला व्याहत हो गयो । ____ 2010_05 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ) आर्ष (अद्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय ( ३९७ दुर्भिक्ष का समय बीता। समाज की स्थिति सुधरी। जो भ्रमण बच पाये थे, उन्हें चिन्ता हुई कि श्रुत का संरक्षण कसे किया जाय ? उस समय आचार्य स्कन्दिल युग-प्रधान थे। उनका युगप्रधानत्व-काल इतिहास-वेत्ताओं के अनुसार वीर-निर्वाण ८२७-८४० माना गया है । नन्दी स्थविरावली में आचार्य स्कन्दिल का उल्लेख भगवान महावीर के अनन्तर चौबीसवें स्थान पर है । नन्दी-कार ने उनकी प्रशस्ति में कहा है कि आज जो अनुयोगशास्त्रीय मथे-परम्परा भारत में प्रवृत्त है, वह उन्ही की देन है। वे परम यशस्वी थे। नगर-नगर में उनकी कीर्ति परित्याप्त थी। नन्दी-सूत्र देवद्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा विरचित माना जाता है। वे अन्तिम आगमवाचना ( तृतीय वाचना ) के अध्यक्ष थे। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने आचार्य स्कन्दिल के अनुयोग के भारत में प्रवृत्त रहने का जो उल्लेख किया है, उसका कारण यह प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने नेतृत्व में समायोजित वाचना में यद्यपि पिछली दोनों ( माथुरी और वालभी ) वाचनाओं को दृष्टिगत रखा था, फिर भी आचार्य स्कन्दिल की (माथरी) वाचना को मुख्य आधार-रूप में स्वीकार किया था; अतः उनके प्रति आदर व्यक्त करने की दृष्टि से उनका यह कहना स्वाभाविक है। । ___मथुरा तब उत्तर भारत में जैन थर्म का मुख्य केन्द्र था। वहां आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम-वाचना का आयोजन हुआ। आगम वेत्ता मुनि दूर-दूर से आये। जिन्हें जैसा-जैसा स्मरण था, सब समन्वित करते हुए कालिक श्रुत संकलित किया गया। उस समय आचार्य स्कन्दिल ही एकमात्र अनुयोगधर थे। उन्होंने उपस्थित श्रमणों को अनुयोग की वाचना दी। यह वाचना मथुरा में दी गयी थी; अतः 'माथुरो वाचना' कहलाई। इसका समय वही अर्थात् वीर निर्वाणान्द ८२७ और ८४० के मध्य होना चाहिए, जो आचार्य स्कन्दिल का युग-प्रधान-काल है। वालमी वाचना है लगभग माथुरी वाचना के समय में ही बलभी-सौराष्ट्र में नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में एक मुनि-सम्मेलन आयोजित हुमा, जिसका उद्देश्य विस्मृत श्रुत को व्यवस्थित करना था। उपस्थित मुनियों की स्मृति के आधार पर श्रुतोद्धार किया गया। आगम तथा उनके अतिरिक्त और भी जो-जो प्रकरण-ग्रन्थ नागार्जुन सूरि और समागत मुनियों को स्मरण थे, सम्पादित-व्यवस्थित किये गये । जो अत्यन्त विस्मृत पाठ वाले स्थल थे, उनका भलीभांति पर्यवेक्षण कर अर्थ-संगति के अनुसार उन्हें ठीक किया गया। इस प्रकार जितना उपलब्ध हो सका, वह सारा वाङमय सुव्यवस्थित किया गया। नागार्जन सूरि ने समागत साधुओं को चाचना दी। 2010_05 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :२ आचार्य नागार्जुन सूरि ने इस वाचना को अध्यक्षता या नेतृत्व किया। उनकी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी, अतः यह नागार्जुनीय वाचना कहलाती है। वलभी की पहली वाचना के रूप में भी इसकी प्रसिद्धि है। एक ही समय में दो वाचनाएं ? कहा जाता है, उक्त दोनों वाचनाओं का समय लगभग एक ही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक ही समय में दो भिन्न स्थानों पर वाचताए क्यों आयोजित को गयों ? बलभी में आयोजित वाचना में जो मुनि एकत्र हुए थे, वे मथुरा भी जा सकते थे। इसका एक कारण यह हो सकता है कि उत्तर भारत और पश्चिम भारत के श्रमण-संघ में स्यात् किन्हीं कारणों से मतक्य नहीं हो। इसलिए पलभी में सम्मिलित होने वाले मुनि मथरा में सम्मिलित नहीं हुए हों। उनका उस (मथुरा में आयोजित) वाचना को समर्थन न रहा हो। इसी कोटि की एक परिकल्पना इस प्रकार भी की जा सकती है कि मथुरा में होने वाली वाचना की गतिविधि, कार्यक्रम, पद्धति तथा नेतृत्व आदि से पश्चिम का श्रमण संघ सहमत न रहा हो। तीसरा कारण यह भी सम्भाव्य है कि माथी वाचना के समाप्त हो जाने के पश्चात् यह धाचना आयोजित की गयी हो । माथुरी वाचना में हुआ कार्य इधर के मुनियों को पूर्ण सन्तोषजनक न लगा हो; अत: आगम एवं तदुपजीधि वाङमय का उससे भी उत्कृष्ट संकलन तथा सम्पादन करने का विशेष उत्साह उनमें रहा हो और उन्होंने इस वाचना की आयोजना की हो । फलतः इसमें कालिक श्रुत के अतिरिक्त अनेक प्रकरण-ग्रन्थ भी संकलित किये गये, विस्तृत पाठ वाले स्थलों को अर्थ-संगति पूर्वक व्यवस्थित किया गया । इस प्रकार की और भी करुपनाए की जा सकती है। पर, इतना तो मानना ही होगा कि कोई-न-कोई कारण ऐसा रहा है, जिससे समसामयिकता या समय के थोड़े से व्यवधान से ये वाचनाए आयोजित की गयीं। कहा जाता है, इन वाचनाओं में वाङमय लेख-वद्ध भी किया गया। दोनों घाचनाओं में संकलित साहित्य में अनेक स्थलों पर पाठान्तर या वाचना-भेद भी दृष्टिगत होते हैं । ग्रन्थ-संकलन में भी कुछ भेद रहा है। ज्योतिष्करण्डक की टीका' में उल्लेख है कि अनुयोगद्वार आदि सूत्रों का संकलन मापुरी घाचना के आधार पर किया गया। ज्योति करण्डक आदि ग्रन्थ पालभी वाचना से गृहीत है । उपयुक्त दोनों वाचनाओं १. पृ० ४१ ___JainEducation International 2010_05 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३९९ को सम्पन्नता के अनन्तर आचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि का परस्पर मिलना नहीं हो सका। इसलिये दोनों वाचनाओं में संकलित सूत्रों में यत्र-तत्र जो पाठ-भेद चल रहा था, उसका समाधान नहीं हो पाया और वह एक प्रकार से स्थायी बन गया। तृतीय वाचना उपर्युक्त दोनों वाचनाओं के लगभग डेढ शताब्दी पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणानन्तर १८. वें या ९९३ वे वर्ष में वलभो में फिर उस युग के महान् आचार्य और विद्वान् देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में तोसरो वाचना' आयोजित हुई। इसे वलभी की दूसरी वाचना भो कहा जाता है। श्रुत-स्रोत की सतत प्रवहणशीलता के अवरुद्ध होने की कुछ स्थितियां पैदा हुई, जिससे जैन संघ चिन्तित हुआ। स्थितियों का स्पष्ट रूप क्या था, कुछ नहीं कहा जा सकता। पर, जो भो हो, इससे यह प्रतीत होता है कि श्रुत के संरक्षण के हेतु जैन संघ विशेष चिन्तित तथा प्रयत्नशील था। पिछली डेढ़ शताब्दी के अन्तर्गत प्रतिफूल समय तथा परिस्थितियों के कारण श्रुत वाङमय का बहुत ह्वास हो चुका होगा, अनेक पाठान्तर तथा वाचना-भेद आदि का प्रचलन था ही; अतः श्रुत के पुनः संकलन और सम्पादन की आवश्यकता अनुभूत किया जाना स्वाभाविक था। उसी का परिणाम यह वाचना थी। पाठान्तरों, वाचना-भेदों का समन्वय, पाठ की एकरूपता का निर्धारण, अब तक असंकलित सामग्री का संकलन आदि इस वाचना के मुख्य लक्ष्य थे। सूत्र-पाठ के स्थिरीकरण या स्थायित्व के लिये यह सब अपेक्षित था। वस्तुतः यह बहुत महत्वपूर्ण वाचना थी। __ भारत के अनेक प्रदेशों से आगमज्ञ, स्मरण-शक्ति के धनी मुनिवृन्द आये। पिछली माथुरी और पालभी वाचना के पाठान्तों, वाचना-भेदों को सामने रखते हुए समन्वयात्मक दृष्टिकोण से विचार किया गया। समागत मुनियों में जिन-जिन को जैसा-जेसा पाठ स्मरण था, उससे तुलना की गयी। इस प्रकार बहुलांशतया एक समन्वित पाठ का निर्धारण किया जा सका। प्रयत्न करने पर भी जिन पाठान्तरों का समन्वय नहीं हो सका, उन्हें टीकाओं, १. पिछलो दोनों वाचनाओं के साथ जिस प्रकार दुर्भिक्ष की घटना जुड़ी है, इस वाचना के साथ भी वैसा ही है । समा चारी शतक में इस सम्बन्ध में उल्लेख है कि बारह वर्ष भयावह दुर्मिक्ष के कारण बहुत से साधु दिवंगत हो गये, बहुत-सा श्रुत विच्छिन्न हो गया, तब भव्य लोगों के उपकार तथा श्रुत को अभिव्यक्ति के हेतु श्रीसंघ के अनुरोध से देवढिगणी अमाश्रमण ने (९८० वीर निर्वाणान्द) दुष्काल में जो बच सके, उन सब साधुओं को बलमी में बुलाया। विच्छिन्न, अवशिष्ट, न्यून, अधिक, खण्डित, अखण्डित मागमालापक उनसे सुन बुखिपूर्वक अनुक्रम से उन्हें संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया। Jain.Education International 2010_05 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ चणियों आदि में संगृहीत किया गया। मूल में और टीकाओं में इस ओर संकेत किया गया है। जो कतिपय प्रकीर्णक केवल एक ही वाचना में प्राप्त थे, उन्हें ज्यों-का-त्यों रख लिया गया और प्रामाणिक स्वीकार कर लिया गया । पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं में संकलित वाङमय के अतिरिक्त जो प्रकरण-ग्रंथ विद्यमान थे, उन्हें भी संकलित किया गया। यह सारा वाङमय लिपिबद्ध किया गया। इस वाचना में यद्यपि संकलन, सम्पादन आदि सारा कार्य तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक शैली से हुआ, पर यह सब मुख्य आधार माथुरी वाचना को मानकर किया गया। आज जो अंगोपांगादि श्रृत-वाङ्मय उपलब्ध है, वह देवद्धिंगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न इस वाचना का संस्करणरूप है। बौद्ध संगोतियां : जैन वाचनाएं . ___ कैसा संयोग बना, बौद्ध पिटिकों की संकलना के हेतु जहां मुख्यतः तीन संगीतियां आयोजित होती हैं, जैन आगमों का संकलन कार्य अन्तत: तीन वाचनाओं में परिपूर्ण होता है। संगोटियों और वाचनाओं के काल-क्रम में बहुत अन्तर है। तीनों बौद्ध-संगीतियां बुद्ध परिनिर्वाण के अनन्तर केवल २३६ वर्षों में समाप्त हो जाती हैं, जब कि जैन वाचनाओं को अन्तिम सम्पन्नता महावीर के निर्वाण के ९८० या ६६३ वर्ष बाद में होती है। बौद्ध-पिटक सिंहल में वहां के राजा वट्टगामणि अभय के शासन काल में ई० पू० २६-१७ में ताड़पत्रों पर लिपि-बद्ध होते हैं। उस सम्बन्ध में संगीति भी आयोजित हुई, पर, ऐसा प्रतीत होता है कि पिटक जिस रूप में राजकुमार महेन्द्र के साथ सिंहल पहुंचे थे, उसमें कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। कथनमात्र के लिये राजकुमार महेन्द्र के लंकागमन और राजा वट्टग्रामणि अभय के समय में पिटक-लेखन के बीच दो संगीतियां और भी हुई थीं। बौद्ध-पिटक जैन आगमों से लगभग साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व अन्तिम रूप से संकलित तथा लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व लिपि-बद्ध कर लिये गये थे। काल-क्रम के इस अन्तर को देखते हुए स्वभावतः यह कल्पना की जा सकती है कि भाषात्मक दृष्टि से जितनी प्राचीनता और प्रामाणिकता पालि-त्रिपिटक में है, वैसी जैन आगमों में कैसे हो सकती है ? बौद्ध-सगीतियों का क्रम बुद्ध-परिनिर्वाण के अनन्तर बहुत शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाता है । यहां तक कि पहली संगीति का आयोजन तो बुद्ध के परिनिर्वाण के केवल चार मास पश्चात् हो हो गया था। इससे सहन ही यह अनुमान किया जा सकता है कि तब तक, बुद्ध ने जिस भाषा में, जिन शब्दों में उपदेश किया, उसकी यथावत्ता या मौलिकता अधिक रहनी चाहिए। १. 'वाचनान्तरे तु पुनः', 'नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' इत्यादि द्वारा संकेतित । २. विस्तार के लिए देखें, इसी पुस्तक का 'त्रिपिटक वाङमय' अध्याय । 2010_05 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०१ নী *ী নিপী ঋ ঋণং बुद्ध और महावीर के धर्म की परिस्थितियां भिन्न-भिन्न थीं। इतिहासजों के अनुसार बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका धर्म मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग का अवलम्बी होने के कारण दूर-दूर के प्रदेशों में फैल गया था। उनके संघ में दीक्षित भिक्षु भी अनेक प्रदेशों के, भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी थे। उनके कार्य-क्षेत्र, प्रचार-क्षेत्र भी बहुत दूर-दूर थे, जहां वे विहार करते थे। इसलिए यह बहुत सम्भावित था कि अपनी मातृभाषा की भिन्नता, अपने प्रचार-क्षेत्रों की भाषाओं की भिन्नता आदि के कारण बुद्ध-वाणी में, जिसका वे उपदेश करते थे, भाषा आदि की दृष्टि से अनिवार्यतः परिवर्तन, सम्मिश्रण आदि हों। यही कारण है कि बुद्ध के परिनिर्वाण को केवल चार ही मास बीत पाये थे कि भिक्षुत्रों को बुद्ध-वचन का संगान करना आवश्यक प्रतीत हुआ। जैन धर्म भी भगवान् महावीर के काल में बहुत विस्तार पा चुका था, पर उतना नहीं, उतने प्रदेशों में नहीं, जितना बौद्ध धर्म ने पाया । इसका मुख्य कारण जैन धर्म के कठोर नियम, व्रत-पालन की कड़ी व्यवस्था तथा उत्कृष्ट संयम व तपमूलक साधना था, जिन्हें आत्मसात् करना उतना सरल नहीं था। जैन धर्म में दीक्षित साधु भी अधिकाशतः विदेह, मगध, कौशल आदि समीपवर्ती प्रदेशों के ही अधिक थे, जिनकी भाषाओं में बहुत अधिक अन्तर नहीं था। उनका प्रचार-क्षेत्र भी उतना विशाल नहीं था, जितना बौद्धों का; अतः महावीर की वाणी अधिक विलम्ब से संकलित होने पर भी अपने सही रूप में अधिक सुरक्षित रह सकी, ऐसा अनुमान करना अयुक्तियुक्त नहीं। समय-समय पर दुष्काल आदि के कारण प्राय: जैन श्रुत नष्ट हो गया था या श्रुतधर मुनि बहुत कम रह गये थे । वैसी स्थिति में आगमों का जो संकलन हुआ, उसमें उनका स्वरूप यथावत् कहां तक रह सकता था ? सब कुछ हुआ, फिर भी जैन आगम भाषात्मक दृष्टि से प्राचीनता लिये हुए हैं। उनमें अनेक ऐसे हैं, जिनमें महावीर और बुद्ध के काल की भाषा का स्पष्ट दर्शन मिल सकता है। इसका प्रधान कारण है, जैन श्रमणों की आगमों को केवल अर्थशः ही नहीं, बल्कि शब्दशः भी स्मृति में बनाये रखने की अत्यधिक जागरूकता। जैन शास्त्रों में उच्चारण सम्बन्धी नियमों का जो विवेचन है, उससे स्पष्ट है कि शाब्दिक दृष्टि से भी श्रुत की अपरिवर्त्यता की ओर बहुत ध्यान रखा गया। यद्यपि यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनमें परिवर्तन हुआ ही नहीं, वे ज्यों-के-त्यों हैं, पर, इतना अवश्य है कि प्राकृत (जैन) आगमों की भाषा पालि-पिटकों की अपेक्षा निश्चय ही अपने मूल स्वरूप को अधिक सुरक्षित रखे हुए है, जो इस सौर जैन श्रमणों के अत्यधिक सावधान तथा कृतप्रयत्न रहने का प्रमाण है। 2010_05 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ [ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ बौद्ध पिटकों की रचना मगध में हुई। वहां से वे सिंहल गये, एक ऐसे राजपुत्र के साथ जो प्रवन्ती में पला-पुसा था। यद्यपि वह मगधराज अशोक का पुत्र था, पर, उसकी मातृभाषा मागधी न होकर प्रावन्ती होना अधिक सम्भावित है। फिर सिंहल में कुछ शताब्दियों के बाद वे लेख-बद्ध किये गये। वही संस्करण प्रायः अन्य त्रिपिटक-संस्करणों का प्रमुख आधार है। इससे तथा पीछे उल्लिखित कारणों से सुगमता से समझा जा सकता है कि पालि-त्रिपिटक के रूप में परिवर्तन व मिश्रण क्यों होता गया ? जैन आगमों की रचना जहां मगध और विदेह में हुई, वहां उनके संकलनार्थ वाचनाए मगध, शूरसेन-व्रजभूमि तथा सौराष्ट्र में हुई। अन्ततः उनका संकलन सौराष्ट्र में हुआ, उन मुनियों द्वारा जो परम्परया मूल पाठ को बनाये रखने के लिए सन्नद्ध थे। पूर्वीय प्राकृतों के क्षेत्र में पागम रचित हुए और पश्चिमी प्राकृतों (उस समय अपभ्रशों) के क्षेत्र में संकलित, सम्पादित तथा लिपि-बद्ध किये जाने में पिटकों की तरह स्थानिक दृष्टि से लम्बा व्यवधान नहीं था। इस व्यवधान का भी (जितना था) भाषात्मक दृष्टि से प्रभाव तो कुछ हुआ ही, पर कम । और भी कुछ ऐसे हेतु रहे हैं, जिनसे भाषा आदि की दृष्टि से भागम-वाङमय में कुछ सम्मिश्रण भी हुआ, पर, आगमों के साथ, जैसा उल्लेख किया गया है, कुछ ऐसी स्थितियां रहीं, जिससे सम्मिश्रण, परिवर्तन आदि का परिमाण पालित्रिपिटक की तुलना में बहुत कम रहा। इसी कारण बुद्ध और महावीर-कालीन भाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से प्राकृत-आगमों का पालि-त्रिपिटक की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व है। অপসাৰ নথা সৰাৰ प्रागम-वाङमय के प्रवहमान स्रोत को अनेक दृष्टियों से चर्चा की गयी । प्रणयन या प्रणेता की दृष्टि से इसे दो भागों में बांटा जा सकता है। १. अंग-प्रविष्ट तथा २. अंगबाह्य । आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अंग अर्थात् अंग प्रविष्ट तथा अनंग अर्थात् अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है : “गणधरकृत व स्थविरकृत, आदेशसृष्ट (अर्थात् तीर्थंकर प्ररूपित त्रिपदी-जनित) व उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत (अर्थात् विश्लेषण-प्रतिपादन जनित) ध्र व-नियत व चल-अनियत इन द्विविध विशेषताओं से युक्त वाङमय अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य नाम से अभिहित है। । गणधरकृत, आदेशजनित तथा ध्रव; ये विशेषण अंगप्रविष्ट से सम्बद्ध हैं तथा स्थविरकृत, उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत और चल, ये विशेषण अंग बाह्य के लिए हैं । १. गणहरंथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुवचलविसेसओ वा अंगारणंगेसु नारणतं ।। -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५० 2010_05 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०३ পলণী ঔষ বাং7 থাইখ। आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने भाष्य की इस गाथा का विश्लेषण करते हुए लिखा है : "गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्रुत अंगप्रविष्ट श्रुत कहा जाता है तथा भद्रबाहु स्वामी प्रादि स्थविर-वृद्ध आचार्यों द्वारा रचित आवश्यक-नियुक्ति प्रादिश्रुत अंगबाह्य श्रुत कहा जाता है। गणधर द्वारा तीन बार पूछे जाने पर तीर्थ कर द्वारा उद्गीर्ण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य मूलक त्रिपदी के आधार पर निष्पादित द्वादशांग श्रुत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा अर्थ विश्लेषण या प्रतिपादन के सन्दर्भ में निष्पन्न आवश्यक आदिश्रुत अंगबाह्य श्रुत कहा जाता है । ध्र व या नियत श्रुत अर्थात् सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य होने वाला द्वादशांग रूप श्रत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा जो सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य हो हो, ऐसा नहीं है, वह तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण रूप श्रुत अंगबाह्य श्रुत है । অাবা পণখাসার ব্ধী কথা ___ नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अंग-प्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रत की व्याख्या करते हुए लिखा है कि सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र, जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे प्राचारांगादि अंगप्रविष्ट श्रुत है। इसके अतिरिक्त अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा रचित श्रुत अंगबाह्य श्रुत है। ___ अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है : (१) सामायिक प्रादि छः प्रकार का आवश्यक तथा (२) तद्व्यतिरिक्त । आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है : (१) कालिक एवं (२) उत्कालिक । जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम प्रहर व अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जाता है, वह कालिक श्रुत है तथा जो काल-वेला को वजित कर सब समय पढ़ा जाता है, वह उत्कालिक श्रुत है, जो दशवकालिक आदि अनेक प्रकार का है। उनमें कतिपय अप्रसिद्ध ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं : १. कल्प-श्रुत, जो स्थविरादि कल्प का प्रतिपादन करता है। वह दो प्रकार का है-एक चुल्लकल्प श्रुत है, जो अल्प ग्रन्थ तथा अल्प अर्थ वाला है। दूसरा महाकल्प श्रुत है, जो- महाग्रन्थ और महा अर्थ वाला है। २. प्रज्ञापना, जो जीव आदि पदार्थों की प्ररूपणा करता है । ३. प्रमादाप्रमाद अध्ययन, जो प्रमाद-अप्रमाद के स्वरूप का भेद तथा विपाक का - ज्ञापन करता है। १. जिसके लिए काल-विशेष में पढ़े जाने की मियामकता नहीं है । ____ 2010_05 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ४. नन्दी, ५. अनुयोगद्वार, ६. देवेन्द्रस्तव, ७ तन्दुलवैचारिक, ८. चन्द्रावेध्यक, ९. सूर्य प्रज्ञप्ति, १०. पोरिषीमण्डल, ११. मण्डल - प्रवेश, १२. विद्याचरण - विनिश्चय, १३. गरिविद्या, १४. ध्यान-विभक्ति, १५. मरण- विभक्ति १६. आत्म-विशुद्धि १७. वीतरागश्रुत, १८. संलेखना श्रुत, १९ विहार- कल्प, २०. चरणविधि, २१. श्रातुर- प्रत्याख्यान, २२. महाप्रत्याख्यान आदि । ये उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत हैं । कालिक श्रुत अनेक प्रकार का है : १. उत्तराध्ययन, २. दशाकल्प, ३. व्यवहार, ४. वृहत्कल्प, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. ऋषिभाषित ग्रन्थ, ८ जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, ९. द्वीपसागर - प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र- प्रज्ञप्ति, ११. क्षुल्लक विमान - प्रविभक्ति, १२. महाविमानप्रविभक्ति, १३. अंगचूलिका, १४. वर्गचूलिका, १५. विवाह - चूलिका, १६. अरुणोपपात, १७, वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १९. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. वेलंघरोपपात, २२. देवेन्द्रोपपात, २३. उत्थान - श्रुत, २४. समुत्थान- श्रुत, २५. नाग-परिज्ञा, २६, निरयावलिका, २७. कल्पिका, २८. कल्पावतंसिका, २९. पुष्पिका, ३० पुष्पचूला, ३१. वृष्णिदशा; इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ के समय में थे । संख्यात हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ बीच के बाईस तीर्थंकरों के समय तथा चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवान् महावीर के समय में थे । अथवा जिस तीर्थंकर के औत्पातिकी श्रादि चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने शिष्य थे, उनके उतने हजार ग्रन्थ थे । प्रत्येक बुद्ध भी उतने ही होते थे । यह ( उपर्युक्त ) कालिक, उत्कालिक श्रुत श्रंगबाह्य कहा जाता है । अंग-प्रविष्ट : अंग बाह्य : सम्यक्ता जैन दर्शन का तत्व ज्ञान जहां सूक्ष्मता, गम्भीरता, विशदता आदि के लिए प्रसिद्ध है, वहां उदारता के लिए भी उसका विश्व - वाङ्गमय (विश्व दर्शन) में अनुपम स्थान है। वहां किसी वस्तु का महत्व केवल उसके नाम पर श्रधुत नहीं है, वह उसके यथावत् प्रयोग तथा फल पर टिका है । अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के सन्दर्भ में जिन शास्त्रों की चर्चा की गयी है, वे जैन परम्परा के मान्य ग्रन्थ हैं । उनके प्रति जैनों का बड़ा आदर है । इन ग्रन्थों की देयता और महनीयता इनको ग्रहरण करने वाले व्यक्तित्व पर अवस्थित है । यद्यपि ये शास्त्र अपने स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् श्रुत हैं, पर गृहीता की दृष्टि से इन पर इस प्रकार विचार करना होगा - यदि इनका गृहीता सम्यक्हष्टि सम्पन्न या सम्यक्त्वी है, तो ये शास्त्र उसके लिये सम्यक् श्रुत हैं और यदि इनका गृहीता मिथ्या-दृष्टिसम्पृक्तमिथ्यात्वी है, तो ये मान्य ग्रन्थ भी उसके लिए मिथ्या श्रुत की कोटि में चले जाते हैं । इतना ही नहीं, जो प्रजैन शास्त्र, जिन्हें सामान्यतः श्रसम्यक् ( मिथ्या ) श्रुत कहा जाता है, यदि सम्यक्त्वी द्वारा परिगृहीत होते हैं, तो वे उसके लिए सम्यक् श्रुत की कोटि में आ जाते 2010_05 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०५ हैं। इस तथ्य का विशेषावश्यक भाष्यकार ने तथा आवश्यक नियुक्ति के विवरणकार प्राचार्य मलयगिरि ने बड़े स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है । সূঃীনা জা হননা নামা কর ? प्रत्येक पदार्थ अस्तित्व-धर्मा है, वह अपने स्वरूप में अधिष्ठित है, अपने स्वरूप का प्रत्यायक है। उसके साथ संयोजित होने वाले अच्छे-बुरे विशेषण पर-सापेक्ष हैं। अर्थात् दूसरों-अपने भिन्न-भिन्न प्रयोक्ताओं या गृहीताओं की अपेक्षा से उसमें सम्यक् या असम्यक् का व्यवहार होता है। प्रयोक्ता या गृहीता द्वारा अपनी प्रास्था या विश्वास के अनुरूप प्रयोग होता है। यदि प्रयोक्ता का मानस विकृत है, उसकी आस्था विपरीत है, विचार दूषित हैं, तो वह अच्छे-से-अच्छे कथित प्रसंग का भी जघन्यतम उपयोग कर सकता है ; क्योंकि वह उसके यथार्थ स्वरूप का अंकन नहीं कर पाता । जिसे बुरा कहा जाता है, उसके गृहीता का विवेक उद्बुद्ध और आस्था सत्परायण है तो उसके द्वारा उसका जो उपयोग होता है, उससे अच्छाइयां ही फलित होती हैं; क्योंकि उसकी बुद्धि सद्ग्राहिणी है । जैन दर्शन का तत्व-चिन्तन इसी आदर्श पर प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि अंगप्रविष्ट श्रुत और अंगबाह्य श्रुत जैसे प्रार्ष वाङमय को मिथ्या श्रत तक कहने में उसको हिचकिचाहट नहीं होती, यदि वे मिथ्यात्वी द्वारा परिगृहीत हैं। वास्तविकता यह है, जिसका दर्शन-विश्वास मिथ्यात्व पर टिका है वह उसी के अनुरूप उसका उपयोग करेगा अर्थात् उसके द्वारा किया गया उपयोग मिथ्यात्व-संवलित होगा। उससे जीवन की पवित्रता नहीं सचेगी। मिथ्यात्व-ग्रस्त व्यक्ति के कार्य-कलाप प्रात्म-साधक न होकर अनात्म-पूरक होते हैं । इसीलिए सम्यक् श्रुत भी उसके लिए मिथ्या-श्रु त है। यही अपेक्षा सम्यक्दृष्टि द्वारा गृहीत मिथ्या-श्रु त के सम्बन्ध में होती हैं । सम्यक्त्वी के कार्य-कलाप १. क) अंगारणंगपविट्ठ सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं । आसज्ज उ सामित्तं लोइय-लोउत्तरे भयरणा। -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५२७ (ख) ........ सम्यक् श्रुतम् –अंगानंगप्रविष्टमाचारावश्यकादि, तथा मिथ्याश्रु तम्-पुराण रामायणभारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक श्रुत-मितर वा, तथाहि-सम्यग्दृष्टौ सर्वमपि श्रुतं सम्यक् श्रुतम्, हेयोपादेयशास्त्राणां हेयोपादेयतया परिज्ञानात्, मिथ्यादृष्टौ सर्व मिथ्याश्रु तम्, विपर्ययात् ।। - आवश्यकनियुक्ति, पृ० ४७, प्रका० आगमोदय समिति, बम्बई 2010_05 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सम्यक् या आत्म-साधक, स्वपरिष्कारक तथा शुद्धिमूलक होते हैं । वह किसी भी शास्त्र का उपयोग अपने हित में कर लेता है। यह ठीक ही है, ऐसे पुरुष के लिए मिथ्या श्रुत भी सम्यक् श्रु त का काम करता है। जैन-तत्व-चिन्तन का यह वह वरेण्य पक्ष है, जो प्रत्येक प्रात्म-साधक के लिए समाधानकारक है। r : Trir : वेद : भूल : संक्षिप्त परिचय अंग प्रविष्ट तथा अगबाह्य के रूप में जिन भागम-ग्रन्थों की चर्चा की गयी है, उनमें कुछ उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उनमें कुछ नियुक्तियों को सन्निहित कर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ प्रागम-ग्रन्थों को प्रमाण-भूत मानता है। वे अंग, उपांग, छेद तथा मूल आदि के रूप में विभक्त हैं। - अंग अ-संज्ञा क्यों ? अर्थ रूप में ( त्रिपद्यात्मकतया ) तीर्थंकर-प्ररूपित तथा गणधर-ग्रथित वाङमय अंगवाङमय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे अंग नाम से क्यों अभिहित किया गया ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। उत्तर भी स्पष्ट है। श्रुत की पुरुष के रूप में कल्पना की गयी। जिस प्रकार एक पुरुष के अग होते हैं, उसी प्रकार श्रुत-पुरुष के अंगों के रूप में बारह श्रागमों को स्वीकार किया गया। कहा गया है : "श्रुत-पुरुष के पादद्वय, जंघाद्वय, ऊरुद्वय, गांत्रद्वय-देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक ( पाद २+ जंघा २ + ऊरु २ + गात्रार्द्ध २ + बाहु २ + ग्रीवा १ +मस्तक १ = १२ ), ये अंग बारह हैं। इनमें जो प्रविष्ट हैं, अंगत्वेन अवस्थित हैं, वे आगम श्रुत-पुरुष के अंग हैं।" बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया। इस समय ग्यारह अंग प्राप्त हैं। १. इह पुरुषस्य द्वादश अंगानि भवन्ति तद्यथा तु पादौ द जंघे द्वं' ऊरुणी द्व', गात्रा दौ बांहू ग्रीवा शिरश्च एवं श्रुतपुरुषस्यापि परमपुरुषस्याचारायोनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि तथा चोक्तम्-- "पायदुर्ग जंघोरु गायद्गद्धं तु दो य बाहू य। गोवा सिरं च पुरिसो बारस अंगेसु य पविट्ठो ॥" श्रु तपुरुषस्यांगेषु प्रविष्टमंगप्रविष्टम् । अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुत भेदे ....... । -अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृ० ३८ ____ 2010_05 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०७ १. आयारंग ( आचारांग) आचारांग में श्रमण के प्राचार का वर्णन किया है। यह दो श्रुत-स्कन्धों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कन्ध का अध्ययनों तथा प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है। प्रथम श्रुत-स्कन्ध में नौ अध्ययन एवं चौवालीस उद्देश हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं, जो १६ अध्ययनों में विभाजित हैं। भाषा, रचना-शैली, विषय-निरूपण आदि को दृष्टि से यह स्पष्ट है कि प्रथम श्रुत-स्कन्ध बहुत प्राचीन है। अधिकांशतया यह गद्य में रचित है। बीच-बीच में यत्र-तत्र पद्यों का भी प्रयोग हुआ है। अद्ध -मागधी प्राकृत के भाषात्मक अध्ययन तथा उसके स्वरूप के अवबोध के लिए यह रचना बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा निर्दिष्ट किया गया है, पर, उसका पाठ प्राप्त नहीं है। इसे व्युच्छिन्न माना जाता है। कहा जाता है, इसमें कतिपय चमत्कारी विद्याओं का समावेश था। लिपि-बद्ध हो जाने से अधिकारी, अनधिकारी; सबके लिए वे सुलभ हो जाती हैं। अनधिकारी या अपात्र के पास उनका जाना ठीक न समझ श्री देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगम-लेखन के समय इस अध्ययन को छोड़ दिया। यह एक कल्पना है, वस्तुस्थिति क्या रहो, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, बाद में इस अध्ययन का विच्छेद हो गया हो। नवम उपधान अध्ययन में भगवान् महावीर की तपस्या का मार्मिक और रोमांचकारी वर्णन है । वहां उनके लाढ (बर्द्धवान जिला), वनभूमि (मानभूम और सिंहभूम जिले ) तथा शुभ्र भूमि ( कोडरमा, हजारीबाग का क्षेत्र ) में विहार-पर्यटन तथा प्रज्ञ जनों द्वारा किये गये विविध प्रकार के घोर उपसर्ग-कष्ट सहन करने का उल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के घोर तपस्वी तथा अप्रतिम कष्ट-सहिष्ण जीवन का जो लेखा-जोखा इस अध्ययन में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। भगवान महावीर की कठोर साधना : परिषह एक वर्ष और कुछ अधिक मास, भगवान् महावीर के कन्धे पर इन्द्र द्वारा प्रक्षिप्त देवदूष्य रहा। पर, उन्होंने कभी यह न सोचा कि मैं इससे हेमन्त ऋतु में अपना शरीर ढकूगा। उक्त काल के पश्चात् उस वस्त्र का त्याग कर दिया। गहस्थी के सम्पर्क में कभी उनका गृहस्थ-संश्लिष्ट प्रवास होता, तो स्त्रियां मोहित और आसक्त होकर उनसे काम-प्रार्थना करतीं, पर, वे अपने को विरक्ति के मार्ग में लगाये ध्यान-निरत रहते । 2010_05 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ गृहस्थों के सम्पर्क में रहने का अवसर प्राने पर भी वे उनसे धुलते-मिलते नहीं। उनकी ओर से ध्यान हटा धर्म या शुक्ल ध्यान में लीन रहते। उनके पूछने पर भी उत्तर नहीं देते। अभिवादन करने पर भी भाषण नहीं करते । सर्वसाधारण के लिए ऐसा करना बड़ा दुष्कर है। सभा से कष्ट सहन __ जब वे अनार्य-देशों में जाते, पुण्यहीन प्राणी उन्हें डण्डों से पीटते, उनके बाल नोंचते, पर वे सम-भाव से सब सहते । कुतूहल तथा विस्मय से दूर ___कथा, नृत्य, गीत प्रादि देख कुतूहल अनुभव नहीं करते। दण्ड-युद्ध, मुष्टि-युद्ध से विस्मित नहीं होते। किन्हीं को काम-कथा लीन देख न हर्ष करते, न शोक करते, अपितु सर्वथा तटस्थ रहते। अपरिग्रह की पराकाष्ठr ___ भगवान् अचेलक और पाणिपात्र थे। वे दूसरे का दिया वस्त्र या पात्र स्वीकार नहीं करते थे। रसों में अनासक्त : सुविधा से दूर वे दूध दही आदि रसों में प्रासक्ति नहीं रखते थे। प्रांख में रज आदि गिर जाने पर उसे नहीं पोंछते थे न ही निकालते थे, खुजली आने पर भी शरीर को नहीं खुजलाते थे । নাম বৃথা ___ वे सामने युग-प्रमाण मार्ग का अवलोकन कर चलते थे। इधर-उधर या पीछे नहीं देखते थे। किसी के पूछने पर उत्तर नहीं देते, मौन रहते थे। शीत से अभीत देव-दूष्य के त्याग के अनन्तर शिशिर ऋतु में वे दोनों हाथ फैलाकर चलते थे। शीत से घबड़ा कर न वे हाथ सिकोड़ते और उन्हें न कन्धों पर ही रखते । विहार करते-करते जहां चरम पौरुषी का समय प्राता, वहीं रात्रि व्यतीत करते । কলা অানন জীবন ? कभी भीतवाले खाली घरों में, सभाओं - विश्रान्ति गृहों में, पानी की प्याऊ में, दूकानों में, लोहकार-शालाओं में, घास से बने मंचों-मचानों के नीचे, गांव के बाहर ____ 2010_05 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०९ कान्तारागारों-मुसाफिर खानों में, बगीचे में बने मकानों में, नगर में, खण्डहरों में, वृक्ष के नीचे प्रवास करते हुए तेरह वर्ष तक इस प्रकार तपस्या-लीन निश्चलचेता, अहनिश अप्रमत्तरूपेण संयम में उद्यत रह किसी प्रकार की शंका न करते हुए समाधिपूर्वक धर्मशुक्ल-ध्यान में संलग्न रहे। নিরা-সিথ ী অথঙ পাখনা कदाचित् निद्रा पाती, तो वे उत्थित होकर अपने को जागृत करते । अब मैं सौ जाऊ; इस भाव से भगवान् ने कभी शयन नहीं किया। निद्रा मिटाने के लिए वे सीधे तनकर बैठते । शीतकाल की कड़कड़ाती सर्दी में रात्रि में बाहर निकल कर मुहूर्त भर भ्रमण करते, पुनः ध्यानस्थ हो जाते। परिषह की उदीरणा कर प्रमाद को हटाते । सूने घरों में उपसर्ग ___ उन्हें सूने घरों में ध्यानस्थ देख वहां छिपने या गुप्त कार्य करने के लिये आये हुए दुराचारी-इस शंका से कि इसने हमें देख लिया है, किसी से कह देगा, उन्हें कष्ट देते । कभी ग्राम-रक्षक (सिपाही) अपने शस्त्रों द्वारा उन्हें त्रास देते। জিননী দুথ অণহী এহ নিথ उनकी मनोहर मुख-मुद्रा देख मुग्ध हुई स्त्रियां व पुरुष उन्हें उपसर्ग (कष्ट) करते । कभी दिन व रात में किसी निर्जन स्थान में कायोत्सर्ग में स्थित भगवान् को चोर, जार तथा अन्य लोग पूछते-तुम कौन हो? क्यों खड़े हो ? उत्तर न पाकर, क्रुद्ध होकर वे उन्हें पीटते । भगवान् जब ध्यान में नहीं होते, तो किसी के पूछने पर उत्तर देते-मैं भिक्षु हूं। यदि वह क्रोध से भर वह स्थान छोड़ने के लिए कहता, तो वे उसे छोड़ देते । शिशिर में जब लोग शीत से थर-थर कांपते, अन्य तीर्थी साधु आग सुलगाते, गर्म कम्बल प्रादि खोजते, हवा न पा सके, ऐसा बन्द स्थान ढूढते, दो-तीन वस्त्र धारण करने का सोचते, तब भगवान् वृक्ष प्रादि के नीचे शीत सहन करते । ___ वे तृण के तीक्ष्ण स्पर्श, शीत, ऊष्मा तथा डांस, मच्छर आदि के डंक समभाव से सहते। ला आदि में उपसर्ग दुर्गम लाढ देश, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि नामक स्थानों में जब भगवान् विचरते, ____ 2010_05 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० [ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ तब उन्हें रहने के लिए सर्वथा गये बीते स्थान -- उपद्रव युक्त खण्डहर आदि मिलते, श्रासन भी धूल आदि से भरे और विषम मिलते । लाढ देश के अनार्य जन भगवान् को मारते और दांतों से काटने दौड़ते। वहां बड़ी कठिनाई से रूखा-सूखा प्रहार मिलता, कुत्ते कष्ट देते, काटने को झपटते। वहां अनेक लोगों में से कोई एक उन काटने श्राते हुए कुत्तों को रोकता । शेष तो कुतूहलवश छूछू कर कुत्तों को काटने के लिए प्रेरित करते । वज्रभूमि में अन्यतीर्थी' भिक्षु यष्टिका और नालिका ( शरीर- प्रमाण से चार अंगुल बड़ी लकड़ी ) रखते थे, इस पर भी कुत्ते उन्हें काटते थे । लाढ देश में ग्राम इतने कम थे कि सायंकाल तक चलते-चलते गांव नहीं आता था, तो वृक्ष के नीचे ठहर कर भगवान् रात बिताते । कितनेक अनार्य लोग गांव से बाहर निकल, सामने जा भगवान् को मारने लगते और कहते- -यहां से निकल जानो । लाढ देश के अनार्य जन लकड़ी, मुक्के, भाले की नोंक, ईंट-पत्थर अथवा घट के खप्पर से उन्हें मारते थे । वे कभी-कभी भगवान् के शरीर का मांस भी काट लेते । कभी धूल बरसाते । कभी भगवान् को ऊँचा उठा कर पटकते । कभी भगवान् ध्यान के लिए गोदोहासन या वीरासन में बैठ होते, तो वे धक्का देकर लुढ़का देते । - तितिक्षा का विस्मायक रूप भगवान् निरोग होने पर भी अल्प भोजन करते । रोगी होने या न होने पर चिकित्सा नहीं कराते । संशोधन -- विरेचन, बमन, तेल-मर्दन, स्नान, संवाहन ( शरीर दबवाना ) तथा दन्त-प्रक्षालन - इन सबका वे त्याग किये हुए थे । में ध्यान करते तथा ग्रीष्म ऋतु में ताप के सामने शिशिर ऋतु में शीतल छाया श्रतापना लेते । रूखे-सूखे चावल, बेर का चूर्ण, उर्द और नीरस आहार से निर्वाह करते। इन तीन पदार्थों पर वे प्राठ मास तक रहे । अनेक बार पन्द्रह-पन्द्रह दिन और मास-मास तक आहार तो क्या जल तक नहीं लेते । कभी-कभी दो-दो मास, कभी-कभी छः-छः मास तक श्राहार- पानी का सर्वथा त्याग करते । पारणे में भी सदा नीरस पदार्थ लेते । कभी-कभी दो-दो दिन के अन्तर से कभी-कभी तीन-तीन, चार-चार और पांच-पांच दिन के अन्तर से प्रहार करते । जब कहीं भिक्षा के लिए जाते, पशु, पक्षी तथा अन्य भिक्षु आदि को देख धीरे से निकल जाते । 2010_05 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४११ जो भी शुद्ध आहार चाहे दूध, दही से प्रार्द्र हो, चाहे सूखा-ठण्डा हो, चाहे बहुत दिन के पकाये उर्द हों, वे समभाव से लेते । गोदोहिका, उत्कटिक, वीर आदि आसनों में संस्थित हो निर्विकार-भाव से धर्म-ध्यान, शुक्ल-ध्यान ध्याते । उसमें ऊर्ध्व-लोक, अधोलोक तथा तिर्यक् लोक के स्वरूप का चिन्तन करते । आचारांग प्रथम श्रत-स्कन्ध के नवम अध्ययन के आधार पर किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि आचारांग की रचना, विवेचन-पद्धति, वस्तु-प्रतिपादन आदि में अपनी असाधारण विशेषता है। भगवान् महावीर के उत्कृष्ट साधक-जीवन का यह जीता-जागता चित्र जहां उनके नितान्त साधना-निष्णात तथा तितिक्षोन्मुख जीवन का परिचायक है, वहां भारत के अन्तर्वर्ती कुछ एक प्रदेशों की तत्कालीन अवस्थिति की भी एक जीवित झांकी प्रस्तुत करता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध : रचना : फलेवर द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमण के लिए निर्देशित व्रतों व तत्सम्बद्ध भावनाओं का स्वरूप भिक्षु-चर्या, आहार-पान-शुद्धि, शय्या-संस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण, मल-मूत्र-विसर्जन आदि के सम्बन्ध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि महाकल्पश्रुत नामक आचारांग के निशीथाध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय प्राचार-वस्तु के बीसवें प्राभृत के प्राधार पर हुई है । आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङ्मय में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। "अंगाणं किं सारो ? आयारो" जैसे कथन इसके परिचायक हैं। व्याख्या-साहित्य आचारांग पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति, श्री जिनदास गणी द्वारा चूरिण, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस द्वारा दीपिका की रचना की गयी। जैन वाङमय के प्रख्यात अध्येता डा. हर्मन जेकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी । प्रो० एफ० मैक्समूलर द्वारा सम्पादित “Sacred Books of the East' नामक ग्रन्थमाला के अन्तर्गत उसके २२ वें भाग में उसका आक्सफोर्ड से प्रकाशन हुआ। आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् १. आचारांग-नियुक्ति, २९१ ___ 2010_05 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ प्रो. वाल्टर शूबिंग ने सम्पादन किया तथा सन् १९१० में लिप्ज़ग से इसका प्रकाशन किया। प्राचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति तथा प्राचार्य शीलांक रचित टीका के साथ सन् १९३५ में आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा इसका प्रकाशन हुआ । २. सूयगडंग (सूत्रकृतांग) সুগন্ধনা ঔ নাম सूत्रकृतांग के लिए सूयगड, सुत्तकड तथा सूयागड; इन शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। सूयगड या सुत्तकड का संस्कृत-रूप सूत्रकृत है। इसकी शाब्दिक व्याख्या इस प्रकार हैअर्थरूपतया तीर्थंकरों से सूत्र का उद्भव हुआ, उससे गणधरों द्वारा किया गया या निबद्ध किया गया ग्रन्थ । इस प्रकार सूत्रकृत शब्द फलित होता है। अथवा सूत्र के अनुसार जिसमें तत्वावबोध कराया गया हो, वह सूत्रकृत है। सूयागडं का संस्कृत रूप सूत्राकृत है। इसका अर्थ है-स्व और पर समय-सिद्धान्त का जिसमें सूचन किया गया हो, वह सूचाकृत या सूयागड है। सूत्र का अर्थ भगवद्भाषित और कृत का अर्थ उसके आधार पर गणधरों द्वारा किया गया या रचा गया-इस परिधि में तो समस्त द्वादशांगी हो समाहित हो जाती है। अतः सूत्रकृतांग की ही ऐसी कोई विशेषता नहीं है। स्व-अपने, पर-दूसरों के समयसिद्धान्तों या तात्विक मान्यताओं के विवेचन का जो उल्लेख किया गया है, वह महत्वपूर्ण है। वैसा विवेचन इसी प्रागम में है, अन्य किसी में नहीं। सूत्रता का स्वरूप : कलेवर यह दो श्रुत-स्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुत-स्कन्ध में सोलह तथा दूसरे में सात अध्याय हैं। पहला श्रु त-स्कन्ध प्रायः पद्यों में है। उसके केवल एक अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुअा है। दूसरे श्रुत-स्कन्ध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं। इस आगम में गाथा छन्द के अतिरिक्त इन्द्रवज्रा वैतालिक, अनुष्टुप् आदि अन्य छन्दों का भी प्रयोग हुआ है। १. सूयगडं अंगाणं, बितियं तस्स य इमाणि नामाणि । सूयगडं सुत्तकडं, सूयागडं चेव गोरणाइ ॥ सूत्रकृत मिति-एतदंगानां द्वितीयं तस्य चामून्येकाथिकानि, तद्यथा-सूत्रमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृम्यः ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणधरैरिति तथा सूत्रकृतमिति सूत्रानुसारेण तत्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति तथा सूचाकृतमिति स्वपरसमयार्थसूचनं सूत्रा सास्मिन् कृतेति । एतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानि । -अभिधान राजेन्द्र, सप्तम भाग, पृ० १०२७ ____ 2010_05 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४१३ विभिन्न वादों का उल्लेख पंचभूतवाद ब्रह्मकवाद-पद्धत वाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद, आत्म अकर्तृत्ववाद सद्वाद, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का इसके प्रथम स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है। तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक-सा अस्पष्ट-सा क्रम वहां है। इससे यह बहुत स्पष्ट नहीं होता कि उन दिनों अमुक-अमुक वाद किस प्रकार की दार्शनिक परम्पराएं लिये हुए थे। हो सकता है, इन वादों का तब तक किसी व्यवस्थित तथा परिपूर्ण दर्शन के रूप में विकास न हो पाया हो। इन वादों पर अवस्थित दार्शनिक परम्पराओं ( Schools of Philosophy ) के ये प्रारम्भिक रूप रहे हों। श्रमणों द्वारा भिक्षाचार में सतर्कता, परिषहों के प्रति सहनशीलता, नरकों के कष्ट, साधुनों के लक्षण, ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु तथा निग्रन्थ जैसे शब्दों की व्याख्या उदाहरणों तथा रूपकों द्वारा अच्छी तरह की गयी है। उल्लिखित मतवादों की चर्चा सम्बन्धित व्याख्या ग्रन्थों में विस्तार से भी मिलती है। द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में पर-मतों का खण्डन किया गया है-विशेषत: वहां जीव व शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद प्रादि की चर्चा है। प्रस्तुत श्रुत-स्कन्ध में आहार-दोष, भिक्षा-दोष आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। प्रसंगवश भौम, उत्पाद स्वप्न, स्वर, व्यंजन, स्त्री-लक्षण आदि विषयों का भी निरूपण हुआ है। अन्तिम अध्ययन का नाम नालन्दीय है। इसमें नालन्दा में हुए गौतम गणधर और पावापत्यिक उदक पेढालपुत्त का वार्तालाप है। अन्त में उदक पेढाल पुत्त द्वारा चतुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रत स्वीकार करने का वर्णन है । प्राचीन मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए तो यह श्रु तांग महत्त्वपूर्ण है हो, भाषा की दृष्टि से भी विशेष प्राचीन सिद्ध होता है । भाषा-वैज्ञानिक भी इसमें अध्ययन की प्रचुर सामग्री पाते हैं । व्याख्था-साहित्य प्राचार्य भ्रद्रबाहु ने सूत्रकृतांग पर नियुक्ति की रचना की। प्राचार्य शीलांक ने बाहरि गणी के सहयोग से टीका लिखी। चूणि भी लिखी गयी। हर्ष कुल और साधुरंग द्वारा दीपिकाओं की रचना हुई। डा० हर्मन जैकोबी ने अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो Sacred Books of the East के पैंतालीसवें भाग में आक्सफोर्ड से प्रकाशित हुआ। ३. ठाणांग ( स्थानांग) दश अध्ययनों में यह श्रु तांग विभाजित है । इसमें ७८३ सूत्र हैं । उपर्युक्त दो श्र तांगों से इसकी रचना भिन्न कोटि की है। इसके प्रत्येक अध्ययन में, अध्ययन की संख्या के अनुसार वस्तु-संख्याएं गिनाते हुए वर्णन किया गया है। उदाहरणार्थ, पहले अध्ययन में ___ 2010_05 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कहा गया है-एक लोक, एक अलोक, एक धर्म, एक अधर्म, एक दर्शन एक चारित्र, एक समय आदि । इसी प्रकार दूसरे अध्ययन में उन वस्तुओं की गणना और वर्णन आया है, जो दो-दो हैं—जैसे दो क्रियाएँ प्रादि। इसी क्रम से दसवें अध्ययन तक यह वस्तु-भेद और वर्णन दश की संख्या तक पहुंच गया है। इस कोटि को वर्णन-पद्धति की दृष्टि से यह श्रु तांग पालि बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय से तुलनीय है। नाना प्रकार के वस्तु-निर्देश अपनी-अपनी दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। उदाहरणार्थ, ऋक्, यजुष और साम; ये तीन वेद बतलाये गये हैं। धर्म-कथा, अर्थ-कथा और कामकथा; तीन प्रकार की कथाओं का उल्लेख है। वृक्ष तीन प्रकार के बतलाये गये हैं। भगवान महावीर के तीर्थ -धन संव में हुए सात निह नवों (धर्म शासन से विमुख और अपलापक-विपरीत प्ररूपणा करने वालों) को भी चर्चा पाई है। भगवान महावीर के तीर्थ में जिन नौ पुरुषों ने तीर्थंकर-गोत्र बांधा, यथाप्रसंग उनका भी उल्लेख है। इस प्रकार संख्यानुक्रम के आधार पर इसमें विभिन्न विषयों का वर्णन प्राप्त होता है, जो अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । থাত্বা-লাঠি आचार्य अभयदेव सूरि ( सन् १०६३ ) ने स्थानांग पर टीका लिखी आचारांग, सूत्रकृतांग, तथा दृष्टिवाद (जो उपलब्ध नहीं है) के अतिरिक्त शेष नौ अंगों पर उनकी टीकाएं हैं। वे नवांगी टीकाकार कहलाते हैं। प्राचार्य अभयदेव ने टीकाकार के उत्तरदायित्व-निर्वाह की कठिनाइयों का उसमें जो वर्णन किया है, उससे उस समय को शास्त्राव-स्थिति ज्ञात होती है। वे लिखते हैं : "शास्त्राध्येतृ-सम्प्रदायों के नष्ट हो जाने, सद्-ऊह, सद्-विवेक, सद् वितर्कणा के वियोग, सब विषयों के विवेचनपरक शास्त्रों की अस्वायत्तता, स्मरण-शक्ति के प्रभाव, वाचनाओं के अनेकत्व, पुस्तकों के अशुद्ध पाठ, सूत्रों की अति गम्भीरता तथा कहीं-कहीं मतभेद; प्रादि कारणों से त्रुटियां रह जाना सम्भावित हैं। विवेकशील व्यक्तियों ने शास्त्रों का जो अर्थ स्वीकार किया है, वही हमारे लिए ग्राह्य है, दूसरा नहीं।" १. सम्प्रदायो गुरुक्रमः । __ सत्सम्प्रदायवहीनत्वात् सद्वहस्य वियोगतः । सर्वस्वपर शास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ।। वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः : सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। क्षणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तेऽनुगतो योऽर्थः सोऽस्मृवग्राह्यो न चेतरः ॥ --पृ० ४९९ ____ 2010_05 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय ४. समवायांग समवाय ' का अर्थ समूह या समुदाय होता है । इस सूत्र का वर्णन क्रम स्थानांग जैसा है । स्थानांग में एक से दश तक संख्याएँ पहुंचती हैं, जब कि इसमें वे संख्याएँ एक से प्रारम्भ होकर कोश्चनुकोटि ( कोडा-कोडी) तक जाती हैं । समवायांग में बारह अंगों संख्याक्रमिक वर्णन के अन्तर्गत यथाप्रसंग आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के नौ अध्ययनों सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के सोलह अध्ययनों, uttra मकाओ के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों, दृष्टिवाद के कतिपय सूत्रों का तथा उनके विषयों का उल्लेख है । राशिक 2 सूत्र - पद्धति से रचे जाने, उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों तथा चवालीस ऋषिभाषित अध्ययनों, अन्तिम रात्रि में भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित पचपन अध्ययनों तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के चौरासी हजार पदों आदि का इसमें उल्लेख है । नन्दी सूत्र की भी इसमें चर्चा है । इन उल्लेखों से ऐसा प्रकट होता है कि द्वादशांग के सूत्र - बद्ध हो जाने के पश्चात् इसका लेखन हुआ । वन-क्रम भाषा और साहित्य ] समवायांग में चौबीस कुलकरों, चौबीस तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों एव वासुदेवों का, उनके माता-पिता, जन्म स्थान आदि का नामानुक्रम से वर्णन किया गया है । उत्तम शलाका-पुरुषों की संख्या चौवन ( तीर्थकर २४ + चक्रवर्ती १२ + वासुदेव ९ + बलदेव ९ = ५४ ) दी गयी है, तिरेसठ नहीं । वहां प्रतिवासुदेवों को शलाका-पुरुषों में नहीं लिया गया है । इससे यह सम्भावित प्रतीत होता है कि उन्हें बाद में शलाकापुरुषों में स्वीकार किया गया हो । यह सारा वर्णन समवायांग के जिस अंश में है, उसे एक प्रकार से संक्षिप्त जैन पुराण को संज्ञा दी जा सकती है । जैन पुराणों के उपजीवक के रूप में निश्चय ही इस भाग का बड़ा महत्व है । भगवान् ऋषभ को यहां कौशलीय तथा भगवान् महावीर को वैशालीय कहा गया है, इससे भगवान् महावीर के वैशाली के नागरिक होने का तथ्य पुष्ट होता है । समवायांग में लेख, गणित, रूपक, नाट्य, गीति, वाद्यत्र आदि बहत्तर कलाओं का वर्णन है । ब्राह्मी लिपि आदि अठारह लिपियों तथा ब्राह्मी के छयालीस मातृका - अक्षरों की चर्चा है। इस पर प्राचार्य अभयदेव सूरि को टीका है । १. दुवाल संगे गणिविडए पन्नते । तं जहा - आयारे, सूयगड, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नत्ती णायाधरमकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अरगुत्तरोववाइयदसाओ, पणहावागरणाई विवागसुए, दिट्टिवाए । से किं तं आयारे ? आयारेणं समरणारणं निग्गंथागंमाहिज्ज || - - समवायांग सूत्र, द्वादशांगाधिकार, पृ० २३१-३२ २. मंखलिपुत्र गोशालक का मत 2010_05 [ ४१५ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ५. विवाह-पण्णत्ति ( व्याख्या-प्रज्ञप्ति ) - जीव-अजीव आदि पदार्थों की विशद. विस्तृत व्याख्या होने के कारण इस अंग का नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति' है। संक्षेप में भगवती सूत्र भी कहा जाता है। इसमें एकतालीस शतक हैं। प्रत्येक शतक अनेक उद्देशों (उद्देशकों) में बंटा हुआ है। प्रथम से आठ तक, बारह से चौदह तक तथा अठारह से बीस तक के शतकों में से प्रत्येक में दश-दश उद्देशक हैं। इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शतकों में उद्देशों की संख्याएं न्यूनाधिक पाई जाती हैं। पन्द्रहवें शतक का उद्देशों में विभाजन नहीं है। उसमें मंखलिपुत्र गोशालक का चरित्र है। यह अपने आप में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति का सूत्र-क्रम से भी विभाजन प्राप्त होता है । इसमें कुल सूत्र-संख्या ८६७ है । ৪র্থন হীন व्याख्या-प्रज्ञप्ति की वर्णन-शैली प्रश्नोत्तर के रूप में है। गणधर गौतम जिज्ञासुभाव से प्रश्न उपस्थित करते हैं और भगवान् महावीर उनका उत्तर देते हैं या समाधान करते हैं। टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या छत्तीस हजार बतलाई है। उन्होंने पदों की संख्या दो लाख अठासी हजार दी है। इसके विपरीत समवायांग में पदों की संख्या चौरासी हजार तथा नन्दी में एक लाख चौवालीस हजार बतलाई गयी है। ___ कहीं-कहीं प्रश्नोत्तर बहुत छोटे-छोटे हैं। उदाहरणार्थप्रश्न- भगवान् ! ज्ञान का फल क्या है ? उत्तर-विज्ञान । प्रश्न-विज्ञान का फल क्या है ? उत्तर-प्रत्याख्यान । प्रश्न-प्रत्याख्यान का फल क्या है ! उत्तर-संयम । कहीं-कहीं ऐसे प्रश्नोत्तर भी हैं, जिनमें पूरा शतक ही पा गया है। मंखलिपुत्र गोशाालक के वर्णन से सम्बद्ध पन्द्रहवां शतक इसका उदाहरण है। १. विविधाः-जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ...... अभिविधिना कथांचन्निखिल ज्ञ यव्याप्त्या मर्यादया वा-परस्परासंकीर्ण-लक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि-भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान्प्रतिप्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते - प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभियस्याम् । ........'अथवा विवाहाविविधा विशिष्टा वार्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते -प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्याम' -अभिधानराजेन्द्रः षष्ठ भाग, पृ० १२३८ 2010_05 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४१७ जैन धर्म का विश्वकोश प्रश्नोत्तर-क्रम के मध्य जैन तत्वज्ञान, इतिहास, अनेकानेक घटनाओं तथा विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन, विवेचन इतना विस्तृत हो गया है कि उनसे सम्बद्ध अनेक पहलुओं का व्यापक ज्ञान प्राप्त होता है। इस अपेक्षा से इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोश कहना अतिरंजन नहीं होगा। অশ্ব অশ্বী জা পুন विस्तार में जाते हुए विवरण को संक्षिप्त करने के निमित्त स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना, जीवाभिगम, औपपातिक व नन्दी जैसे ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उनमें से उन-उन प्रसंगों को ले लेने का सूचन किया है। नन्दीसूत्र वलभी वाचना के प्रायोजक एवं प्रधान देवद्धिगणी क्षमाश्रमण की रचना माना जाता है। उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से तथा यहाँ के विवरणों को उसे देखकर पूर्ण कर लेने की जो सूचना की गयी है, उससे यह प्रमाणित होता है कि इस श्रुतांग को अपना वर्तमान रूप नन्दीसूत्र रचे जाने के पश्चात् वीर निर्वाण से लगभग १००० वर्ष पश्चात् ई० सन् ५२७ में प्राप्त हुआ है। यही स्थिति अन्य श्रुतांगों के सम्बन्ध में भी घटित होती है। ऐसा होते हुए भी इसमें सन्देह नहीं कि विषय-वस्तु पुरातन तथा प्राचार्य-परम्परानुस्यूत है। নিহাসিক প্রসঙ্গী भगवान् महावीर के जीवन-चरित, उनके अनेक शिष्य, श्रावक-गृहस्थ अनुयायी तथा अन्य तीथिकों के सम्बन्ध में इस श्रुतांग में विवेचन प्राप्त होता है, जो इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें शतक में वर्णित महाशिला कंटक संग्राम तथा रथमूसल संग्राम ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा युद्ध-विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है । अंग, बंग, मलय,मालवय, अच्छा, वच्छ, कोच्छ, दाढ़, लाढ़, वज्जि, मोलि, कासी, कोशल, प्रबाह, सुमुत्तर प्रादि जनपदों का उल्लेख भारत की तत्कालीन प्रादेशिक स्थिति का सूचना करता है। प्राजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक, भगवान महावीर के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मंखलिपुत्र गोशालक के जीवन, कार्य प्रादि के सम्बन्ध में जितने विस्तार से यहां परिचय प्राप्त होता है, उतना अन्यत्र नहीं होता । स्थान-स्थान पर पार्श्वपत्यों तथा उनके द्वारा स्वीकृत व पालित चातुर्याम धर्म का उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर के समय में तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के युग से चले पाने वाला निम्रन्थ सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप में विद्यमान था। उसका भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित ___ 2010_05 : Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन. [खण्ड : २ पंचमहाव्रत मूलक धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था तथा क्रमशः उसका भगवान् महावीर के पाम्नाय में सम्मिलित होना प्रारम्भ हो गया था। प्राचार्य अभयदेव सूरि की टीका के अतिरिक्त इस पर प्रवरिण तथा लघुवृत्ति भी है। लघवृत्ति के लेखक श्री दानशेखर हैं । ६. णायाधम्मकहाओ (ज्ञाता धर्मकथा या ज्ञात धमकथा ) নাম ঋী বাংথ। णायाधम्मकहाओ के तीन संस्कृत-रूपान्तर हो सकते हैं-ज्ञाता धर्मकथा, ज्ञातृधर्मकथा न्याय धर्मकथा। अभिधान राजेन्द्र में ज्ञाता धर्मकथा की व्याख्या में कहा गया है : "ज्ञात का अर्थ उदाहरण है। इसके अनुसार इसमें उदाहरण प्रधान धर्मकथाए हैं । अथवा इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है-जिसके प्रथम श्रुत स्कन्ध में ज्ञात अर्थात् उदाहरण हैं तथा दूसरे श्रुत-स्कन्ध में धर्म-कथाएं हैं, वह ज्ञाता धर्मकथा है। ज्ञातृधर्मकथा की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है : ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृ कुलोत्पन्न या ज्ञातृपुत्र भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्मकथाओं का जिसमें वर्णन है, वह ज्ञात धर्मकथा सूत्र है । परम्परया इसी नाम का अधिक प्रचलन है।" तीसरा रूप जो न्यायधर्मकथा सूचित किया गया है, इसके अनुसार न्याय-ज्ञान अथवा नीति-सम्बन्धी सामान्य नियमों - विधानों और दृष्टान्तों द्वारा बोध कराने वाली धर्म कथाएं जिसमें हों, न्याय-धर्म कथा सूत्र है। आम का स्वरूप : कलेवर दो श्रुत-स्कन्धों में यह आगम विभक्त है। प्रथम श्रुत-स्कन्ध में उन्नीस अध्ययन हैं तथा दूसरे में दश वर्ग। प्रथम श्रुत-स्कन्ध के प्रथम अध्ययन में राजगृह के राजा श्रेणिकबिम्बिसार के धारिणी नामक रानी से उत्पन्न राजपुत्र मेघकुमार का वर्णन है। जब वह कुमार अपने वैभव तथा समृद्धि के अनुरूप अनेक विद्याओं तथा कलाओं की शिक्षा प्राप्त करते हुए युवा हुआ, उसका अनेक राजकुमारियों से विवाह कर दिया गया। एक बार ऐसा प्रसंग बना, राजकुमार ने भगवान् महावीर का उपदेश श्रवण किया। १. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा । अथवा ज्ञातानि ज्ञाताध्ययनानि प्रथम तस्कन्ध, धर्मकथा द्वितीये, यासु ग्रन्थ-पद्धतिषु ता ज्ञाताधर्मकथाः । - अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ. २००९ ____ 2010_05 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | प्रार्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४१९ उसके मन में वैराग्य हुआ । उसने दीक्षा स्वीकार कर ली । श्रमण-धर्म का पालन करते हुए उसके मन में कुछ दुर्बलता प्राई, वह क्षुब्ध हुआ और अनुभव करने लगा, जैसे उसने राज-वंभव छोड़ श्रमण-धर्म स्वीकार कर मानो भूल की हो । किन्तु भगवान् महावीर ने उसे उसके पूर्व भव का वृत्तान्त सुनाया, तो उसका मन संयम में स्थिर और दृढ़ हो गया । अन्य अध्ययनों में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कथानक हैं, जिनके द्वारा तप, त्याग व संयम का उद्बोध दिया गया है । अठवें अध्ययन में विदेह राजकन्या मल्लि तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के पूर्व जन्म की कथा है । दोनों कथाएँ बहुत महत्पूर्ण हैं । द्वितीय श्रुत-स्कन्ध दश वर्गों में विभक्त है । इन वर्गों में प्रायः स्वर्गी के इन्द्रों की महिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली स्त्रियों की कथाएं हैं । प्राचार्य अभयदेव सूरि की टीका है। उसे द्रोणाचार्य ने संशोधित किया था । प्राचार्य अभयदेव सूरि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में जो लिखा है, उसके अनुसार तब अनेक वाचनाएं प्रचलित रही हैं । ७. उवासग दसाओ ( उपासकदशा) नामः अर्थ उपासक का अर्थ श्रावक तथा दशा का श्रर्थं तद्गत अणुव्रत आदि क्रिया-कलाप से प्रतिबद्ध या युक्त अध्ययन (ग्रन्थ- प्रकरण ) है । विषय-वस्तु प्रस्तुत श्रतांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें दश श्रावकों के कथानक हैं। इन कथानकों के माध्यम से जैन गृहस्थों द्वारा पालनीय धार्मिक नियम समझाये गये हैं । साथ-साथ यह भी बतलाया गया है कि धर्मोपासकों को अपने धर्म के परिपालन के सन्दर्भ में कितने ही विघ्नों तथा प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है, पर वे उनसे कभी विचलित या धर्मयुत नहीं होते । अन्त में बारह गाथानों द्वारा दशों कथानकों के मुख्य वर्ण्य विषयों का संकेत करते हुए ग्रन्थ का सार उपस्थित किया गया है। * आचारांग का पूरक इस श्रुतांग को एक प्रकार से आचारांग का पूरक कहा जा सकता है । आचारांग में जहां श्रमण-धर्म का निरूपण किया गया है, वहां इसमें श्रमणोपासक - श्रावक या गृहस्थ धर्म निरूपण किया गया है । आनन्द आदि महावैभवशाली गृहस्थों का १ उपासकाः श्रावकास्तद्गतासुव्रतादि क्रियाकलापप्रतिबद्धा दशाध्ययनानि उपासकदशा । - अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० २०९४ 2010_05 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० . आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २. जीवन कैसा था, उस समय देश की समृद्धि कैसी थी, इत्यादि विषयों का इस श्रु तांग से अच्छा परिचय मिलता है। प्राचार्य अभयदेव सूरि की इस पर टीका है । ८. अन्तगडदसाओ ( अन्तकृदशा) नामः व्याख्यr जिन महापुरुषों ने घोर तपस्या तथा प्रात्म-साधना द्वारा निर्वाण प्राप्त कर जन्ममरण-पावागमन का अन्त किया, वे अन्तकृत् कहलाये। उन अर्हतों का वर्णन होने से इस श्रु तांग का नाम अन्तकृद्दशांग है। इस श्रु तांग में आठ वर्ग हैं। प्रथम में दश, द्वितीय में आठ, तृतीय में तेरह, चतुर्थ में दश, पंचम में दश, षष्ठ में सोलह, सप्तम में तेरह तथा अष्टम वर्ग में दश अध्ययन हैं । इस श्रु तांग में कथानक पूर्णतया वरिणत नहीं पाये जाते । 'वण्णओ' और 'जाव' शब्दों द्वारा अधिकांश वर्णन व्याख्या-प्रज्ञप्ति अथवा ज्ञातृधर्मकथा आदि से पूर्ण कर लेने की सूचना मात्र कर दी गयी है। एक ऊहापोह स्थानांग में अन्तकृद्दशा का जो वर्णन आया है, उससे इसका वर्तमान स्वरूप मेल नहीं खाता। वहां इसके दश' अध्ययन बतलाये हैं। उन अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं : १. नमि अध्ययन, २. मातंग अध्ययम, ३. सोमिल अध्ययन, ४. रामगुप्त अध्ययन, ५. सुदर्शन अध्ययन, ६. जमालि अध्ययन, ७. भगालि अध्ययन, ८. किंकर्मपल्लित अध्ययन, ९. फालित अध्ययन, १०. मंडितपुत्र अध्ययन । बहुत सम्भावित यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में इस ग्रन्थ में उपासकदशांग की तरह दश ही अध्ययन रहे होंगे। पीछे पल्लवित होकर ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप में पचा हो। जिस प्रकार उपासक दशा में गृहस्थ साधकों या श्रावकों के कथानक वरिणत हैं, उसी तरह इस श्र तांग में अर्हतों के कथानक वणित किये गये हैं और वे प्रायः एक जैसी शैली में लिखे गये हैं। १. वस दसाओ पण्णत्ताओ तं जहा कम्मविवागदसाओ, उवासगवसाओ, अंतगडवसाओ, अरगुत्तरोववाइयवसाओ, आयारदसाओ, पण्हा वागरणदसाओ, बंधवसाओ, दोगिद्धि वसाओ, दोहदसाओ, संखेवियदसाओ। -स्थानांग सूत्र, स्थान १०, ९२ ____ 2010_05 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२१ अन्तकृद्दशा के तृतीय वर्ग के अष्टम अध्ययन में देवकी-पुत्र गजसुकुमाल का कथानक है, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह कथानक उत्तरवर्ती जैन साहित्य में पल्लवित और विकसित होकर अवतारित हुआ है। छठे वर्ग के तृतीय अध्ययन में अर्जुन मालाकार का कथानक है, जो जैन साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । स्वतन्त्र रूप से इस कथानक पर अनेक रचनाएं हुई हैं। अष्टम वर्ग में अनेक प्रकार की तपोविधियों, उपवा तथा व्रतों का वर्णन है। ६. अणुत्तरोववाइयदसाओ ( अनुत्तरोपपातिक दशा) नाभ: व्याख्या श्रुतांग में कतिपय ऐसे विशिष्ट महापुरुषों के आख्यान हैं, जिन्होंने तपःपूर्ण धर्मसाधना के द्वारा समाधि-मरण प्राप्त कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया, वहां से पुनः केवल एक ही बार मनुष्य-योनि में प्राना होता है अर्थात् उसी मानव-भव में मोक्ष हो जाता है । अनुत्तर प्रौर उपपात (उद्भव, जन्म) के योग से यह शब्द बना है, जो अन्वर्थक है ।। तीन वर्गों में यह श्रुतांग विभक्त है। प्रथम वर्ग में दश, दूसरे वर्ग में तेरह तथा तीसरे वर्ग में दश अध्ययन हैं। इनमें चरित्रों का वर्णन परिपूर्ण नहीं है। केवल सूचन मात्र कर अन्यत्र देखने का इंगित कर दिया गया है। प्रथम वर्ग में धारिणी-पुत्र जालि तथा तृतीय वर्ग में भद्रा-पुत्र धन्य का चरित्र कुछ विस्तार के साथ प्रतिपादित किया गया है। धन्य द्वारा प्रनगार की तपस्या, तज्जनित देह-क्षीणता प्रादि ऐसे प्रसंग हैं, जो महासोहनावसुत्त, कस्सपसोहनादसुत्त प्रादि पालि-ग्रन्थों में वरिणत बुद्ध की तपस्या-जनित दैहिक क्षीणता का स्मरण कराते हैं । বনসান ৭ : অপাহবুথ, পথখান ऐसा अनुमान है कि इस ग्रन्थ का वर्तमान में जो स्वरूप प्राप्त है, वह परिपूर्ण और यथावत् नहीं है। स्थानांग में इसके भी दश अध्यायों की चर्चा पाई है। प्रतीत होता है, प्रारम्भ के उपासकदशा तथा अन्तकृद्दशा की तरह इसके भी दश अध्ययन रहें हों, जो अब केवल तीन वर्गों के रूप में प्रवशिष्ट हैं। १. अगत्तरोववाइवसारणं दस अज्नयरणा पण्णत्ता तं जहा इसिदासेय धण्णेय, सुनक्खत्तय कित्तिये । संठाणे सालिभद्दए, आणंदे तेयली इय ॥ बसन्नभई अइमुत्त एमेते दस आहिया ॥ -स्थानांग सूत्र, स्थान १०, ९६ 2010_05 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] नाम के प्रतिरूप श्रुतांग के नाम में प्रश्न और व्याकरण; इन दो शब्दों का योग है, जिसका अर्थ है, प्रश्नों का विश्लेषण, उत्तर या समाधान। पर, श्राज इसका जो स्वरूप प्राप्त है, उससे स्पष्ट है कि इसमें प्रश्नोत्तरों का सर्वथा अभाव है । वर्तमान रूप आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन १०. पण्डवागरणाई (प्रश्नव्याकरण) प्रश्नव्याकरण का जो संस्करण प्राप्त है, वह दो खण्डों में विभक्त है। पहले खण्ड में पांच प्रस्रवद्वार - हिमा, मृषावाद (ग्रन्य) ग्रदन (चौरे ) ग्रब्रह्मचर्य तथा परिग्रह का स्वरूप बड़े विस्तार के साथ बतलाया गया है । द्वितीय खण्ड में पांच सवरद्वार- श्रहिंसा सत्य, दत्त (अचौर्य), ब्रह्मचर्य तथा निष्परिग्रह की विशद व्याख्या की गयी है । प्राचार्य अभयदेव सूरि की टीका के अतिरिक्त प्राचार्य नयविमल की भी इस पर टीका है । १. वर्तमान स्वरूप : समीक्षा स्थानांग सूत्र में प्रश्नव्याकरण के उपमा, संख्या, ऋषि-भाषित, श्राचार्य-भाषित, महावीर भाषित, क्षौमक' प्रश्न, कोमल प्रश्न, प्रादर्श - प्रश्न' तथा बाहुप्रश्न ; अध्ययनों की चर्चा है । इन दश + २. विद्या- विशेष जिससे वस्त्र में देवता का आहवान किया जाता है । - पाइअ सहमहावो, पृ० २८१ ४ [ खण्ड : २ प्रश्नाश्च पृच्छाः, व्याकरणानि च निर्वचनानि समाहारत्वात् प्रश्नव्याकरणम् । तत्प्रतिपादको ग्रन्योऽपि प्रश्नव्याकररणम । प्रश्ना अंगुष्ठादिप्रश्नविद्यास्ता व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते यस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् । प्रवचन पुरुषस्य दशमेऽङ्गे । अयं च व्युत्पत्यर्थोऽस्य पूर्वकालेsभूत् । इदानीं त्वास्त्रवपंचकसंवरपंचकवाकृतिरेवोहोपलभ्यते - -1 -- अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ३९१ ३. विद्या - विशेष, जिससे दर्पण में देवता का आगमन होता है । --- पाइअसद्दमहाण्णवो, पृ० ५१ 2010_05 पावागरण दसाणं दस अज्झयरणाप०, तं. उवमा, संखा, इसिमासियाई, आयरियमासियाई महावीरभासियाई, खोमगपरिगाई, कोमलपसिणाई, अद्दागप सिणाई, अंगुट उपसणाई, बाहुपसिराई । --स्थानांग, स्थान १०,९० Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आषं (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२३ नन्दीसूत्र में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ ग्राठ अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्न, अंगुष्ठ के प्रश्न, बाहु के प्रश्न अदर्श (दर्पण) प्रश्न, अन्य अनेक दिव्य विद्याएँ ( मन्त्र - प्रयोग), नागकुमार तथा स्वर्णकुमार देवों को सिद्ध कर दिव्य संवाद प्राप्त करना आदि प्रश्नव्याकरण के विषय वरित हुए हैं ।" स्थानांग और नन्दी में प्रश्न- व्याकरण के स्वरूप का जो विश्लेषण हुआ है, वैसा कुछ भी आज उसमें नहीं मिलता। इससे यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा, स्थानागं और नन्दी के अनुसार इस का जो मौलिक रूप था, वह रह नहीं पाया । सम्भवतः उसका विच्छेद हो गया है । ११. वित्रागस्य विवाकत ) अशुभ -- पाप और शुभ - पुण्य कर्मों के दु खात्मक तथा सुखात्मक विपाक (फल) का इस श्रुतांग में प्रतिपादन किया गया है। इसी के रण यह विप व भूत या विपाक सूत्र कहा जाता है । दो श्रुत-स्कन्धों में यह श्रुतांग विभक्त है । पहला श्रुत-स्कन्ध दुख-विपाक विषयक है तथा दूसरा सुख-विषयक । प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, जिनमें जीव द्वारा आचरित कर्मों के अनुरूप होने वाले दुखात्मक और सुखात्मक फलों का विश्लेषण है । तलस्पर्शी एवं विशद विवेचन हुआ है, जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त का जो सूक्ष्म, विश्व के दर्शन वाङ्मय में वह अनन्य साधारण है। उसके सोदाहरण विश्लेषरण - विवेचन दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। इसमें जहां कहीं लट्ठी टेक कर चलता हुआ, भीख मांगता हुआ कोई अन्धा दिखाई देता है, वहां कहीं श्वास, कास, कफ, भगन्दर, खुजली, कुष्ट आदि भयावह रोगों से पीड़ित मनुष्य मिलते हैं । राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक ताड़ित, पीडित तथा उद्वेलित किये जाते लोग दिखाई देते हैं । गर्भवती स्त्रियों के दौहद, नर बलि वेश्याओं के प्रलोभन, नाना प्रकार के मांस संस्कार व मिष्टान आदि के विषय में भी प्रस्तुत ग्रन्थ में विवरण प्राप्त होते हैं। इससे पुरातन कालीन मान्यता प्रवृत्तियों, प्रथानों, अपराधों आदि का सहज ही परिचय प्राप्त होता है । सामाजिक अध्यन की दृष्टि से यह श्रुतांग बहुत महत्वपूर्ण है । १. से किं तं पण्हावागरणाई ? पण्हावागरणे सुरणं अट्ठत्तरं पसिणसयं अट्ठत्तरं अपसिरासयं अठत्तरं परिरणा पसिरासयं तंजहा - अंगुट्ठपसिरगाई, बाहुपसिरगाई, अद्दागपरिगाई. सया नाग - सुवहिं सिद्धि दिव्वा संवाया आघदिज्जति, पण्हावागरणारां परिता वायणा संविज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा सिलोगा | - नन्दी सूत्र, पृ० १८५-८६ 2010_05 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ स्थानांग में कम्मविवागदसाओ के नाम से उल्लेख हुआ है। वहां उवासगदसाओ, अंतगडवसाओ, अणु तरोववाइयवसाओ तथा पण्हावागरणवसाओ की तरह इसके दश अध्ययन बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं : १. मृगापुत्र अध्ययन, २. गोत्रास अध्ययन, ३. अण्ड अध्ययन, ४. शकट अध्ययन, ५. ब्राह्मण अध्ययन, ६ नन्दिषेण अध्ययन, ७. सौकरिक अध्ययन, ८. उम्बर अध्ययन, ९. सहस्दाह प्रामलक अध्ययन, १., कुमारलक्ष्मी मध्ययन । वर्तमान में प्राप्त विपाक सूत्र के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के दस अध्ययन' इस प्रकार हैं१. मृगापुत्र अध्ययन, २. उज्झित अध्ययन, ३. अभग्ग ( अभग्न) सेन अध्ययन, ४. शकट अध्ययन, ५. बृहस्पति अध्ययन, ६. नन्दि अध्ययन, ७. उम्बर अध्ययन, ८. शौर्यदत्त अध्ययन, ९. देवदत्ता अध्ययन, १०. अंजु अध्ययन । द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के अध्ययन इस प्रकार हैं : १. सुबाहु अध्ययन, २. भद्रनन्दी अध्ययन, ३. सुजात अध्ययन, ४. सुवासव अध्ययन, ५. जिन दास अध्ययन, ६. धनपति अध्ययन, ७. महाबल अध्ययन, ८. भद्रनन्दि अध्ययन, ९. महाचन्द्र अध्ययन तथा १०. वरदत्त अध्ययन । द्वितीय श्रत-स्कन्ध में सुबाहुकुमार से सम्बन्धित प्रथम अध्ययन विस्तृत है । अग्रिम नौ अध्ययन, अत्यन्त संक्षिप्त हैं। उनमें पात्रों के चरित की सूचनाएं मात्र हैं । प्राय: सुबाहुकुमार की तरह परिज्ञात करने का संकेत कर कथानक का संक्षेप कर दिया गया है। इन्हें केवल नाम मात्र के अध्ययन कहा जा सकता है । स्थानांग सूत्र में वरिणत कम्मविवागवसाओ के तथा विकाप सूत्र प्रथम श्रुत-स्कन्ध के निम्नांकित अध्ययन प्रायः नाम-सादृश्य लिये हुए हैं : १. कम्मविवागदसारणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा मियापुत्ते य गुत्तासे अंडे सगडेइ यावरे । माहणे नंदिसेरणय, सूरिए य उदुंबरे ॥ सहसुद्दाहे आमलए, कुमारे लच्छई ति य । __ स्थानांग, स्थान १०, ९३ २. समणणं आइगरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्मयणा पण्णता, तं जहा - मियापुत्ते, उन्मिय ए, अभग्ग, सगड़े, वहस्सइ, नंदी, उंबर, सोरियदत्ते य, देवदत्ता य, अंजू य। -विपाक सूत्र, प्रथम श्रुत-स्कन्ध, प्रथम, अ०, ९ १. समणणं जाव संपतेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा सुबाहु, भद्दणंदी, सुजाए, सुवासवे, तहेण जिणवासे। - धणपति य महब्बलो, भद्दणंदी, महचवे वरदत्ते ॥ -विपाक सूत्र, द्वितीय श्रुत-स्कन्ध, प्रथम, अ० २ ____ 201005 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय स्थानांग १. मृगापुत्र अध्ययन ४. शकट अध्ययन ६. नन्दिषैरण अध्ययन ७. उम्बर अध्ययन ७. उदम्बर अध्ययन तुलनात्मक विवेचन से ऐसा अनुमान असम्भाव्य कोटि में नहीं जाता कि विपाक श्रुत ( सूत्र ) का स्वरूप कुछ यथावत् रहा हो, कुछ परिवर्तित या शब्दान्तरित हुआ हो । अध्ययनों की क्रम स्थापना में भी कुछ भिन्नता आई हो । स्थानांग में दृष्टिवाद के पर्याय [ ४२५ विपाक सूत्र प्रथम श्रुत-स्कन्ध १. मृगापुत्र अध्ययन ४. शकट अध्ययन ६. नन्दि ( नन्दिषैण) अध्ययन १२. दिवा ( दृष्टिवाद ) 1 पूर्वो के विवेचन-प्रसंग में दृष्टिवाद के विषय में संकेत किया गया है। इसे विच्छिन्न माना जाता है। स्थानांग सूत्र में इसके दश पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख हुआ है : १. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, ३. भूतवाद, ४ तत्ववाद, ५. सम्यक्वाद, ६. धर्मवाद, ७. भाषाविजय, ८. पूर्वगत, ९. अनुयोगगत १०. सर्वप्राणभूतजीव सत्व सुखावह । समवायांग आदि में दृष्टिवाद के पांच भेदों का उल्लेख है : १. परिकर्म, २. सूत्र ३. पूर्वगत ४. अनुयोग ५. चूलिका । 2010_05 स्थानांग सूत्र में दिये गये दृष्टिवाद के पर्यायवाची शब्दों में आठवां पूर्वगत है । यहाँ efष्टवाद के भेदों में तीसरा पूर्वगत है । अर्थात् पूर्वगत का प्रयोग दृष्टिवाद के पर्याय के रूप में भी हुआ है और उसके एक भेद के रूप में भी । दोनों स्थानों पर उसका प्रयोग • क्योंकि दृष्टिवाद साधारणतया ऐसा प्रतीत होता है, भिन्नार्थकता लिये हुए होना चाहिए; समष्ट्यात्मक संज्ञा है, इसलिये उसके पर्याय के रूप में प्रयुक्त पूर्वगत का यही अर्थ होता है, जो दृष्टिवाद का है । दृष्टिवाद के एक भेद के रूप में आया हुआ 'पूर्वगत' शब्द सामान्यतः दृष्टिवाद के एक भाग या अंश का द्योतक होता है, जिसका प्राशय चतुर्दश पूर्वात्मक ज्ञान है । शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से दृष्टिवाद और पूर्वगत - चतुर्दश पूर्व-ज्ञान एक नहीं कहा जा सकता। पर, सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना होगा । वस्तुतः चतुर्दश पूर्वों के ज्ञान की १. दिट्टिवायरस गं दस नामधिज्जा प० त० दिट्टिवाएइवा हेतु बाएइवा भूयवाएइवा तच्चावाएइवा धम्मावाएइवा मासाविजयेइ वा पूव्व गएइवा अरणओगए इवा सव्वपाणभूजजीव सत्तसुहाव हेइवा । - स्थानांग सूत्र, स्थान १०, ७७ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड । २ व्यापकता इतनी अधिक है कि उसमें सब प्रकार का ज्ञान समाविष्ट हो जाता है। कुछ भी अवशेष नहीं रहता । यही कारण है कि चतुर्दश पूर्वधर की संज्ञा श्रत-केवली है । पूर्वगत को दृष्टिवाद का जो एक भेद कहा गया है, वहाँ सम्भवतः एक भिन्न दृष्टिकोण रहा है। पूर्वगत के अतिरिक्त अन्य भेदों द्वारा विभिन्न विधाओं को संकेतित करने का अभिप्राय उनके विशेष परिशीलन से प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख विषय-ज्ञान के कतिपय विशिष्ट पक्ष, जिनकी जीवन में अपेक्षाकृत विशेष उपयोगिता होती है, विशेष रूप से परिशीलनीय होते हैं; अतः सामान्य-विशेष के दृष्टिकोण से यह निरूपण किया.पया प्रतीत होता है । अर्थात् सामान्यतः तो पूर्वगत में समग्र ज्ञान-राशि समाई हुई है ही, पर, विशेष रूप से तद्-व्यतिरिक्त भेदों की वहाँ अध्येतव्यता विवक्षित है। भेद-प्रभेदों के रूप में विस्तार दृष्टिवाद के जो पांच भेद बतलाये गये हैं, उनके भेद-प्रभेदों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनसे अधिगत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का विवेचन था । सूत्र के अन्तर्गत छिन्नछेदनय, विच्छन्न छेदनय तथा चतुर्नय आदि विमर्शपरिपाटियों का विश्लेषण था । छिन्नछेदनय व चतुर्नय की परिपाटियां निर्ग्रन्थों द्वारा तथा अच्छिन्नछेदनयात्मक परिपाटी पाजीवकों द्वारा व्यवहृत थी। आगे चल कर इन सबका समावेश जैन नयवाद में हो गया । अनयोग का तात्पर्य दृष्टिवाद का चतुर्थ भेद अनुयोग है, उसे प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग' के रूप में दो भागों में बांटा गया है। प्रथम में प्रर्हतों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान प्रादि से सम्बद्ध इतिवृत्त का समावेश है, जब कि दूसरे में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों के चरित का। जिस प्रकार के विषयों के निरूपण की चर्चा है, उससे अनुयोग को प्राचीन जैन पुराण की संज्ञा दी जा सकती है। दिगम्बर-परम्परा में इसका सामान्य नाम प्रथमानुयोग ही प्राप्त होता है । दृष्टिवाद के पंचम भेद चूलिका के सम्बन्ध में कहा गया है-चूला ( चूलिका ) का अर्थ शिखर है। जिस प्रकार मेरु पर्वत के चूलाए ( चूलिकाए) या शिखर हैं, उसी प्रकार दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में उक्त और अनुक्त ; १. इहैकवक्त्व्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । तासामनुयोगोऽर्थकथनविधिण्डिकानुयोगः । -अभिधान राजेन्द्र, तृतीय भाग, पृ० ७९१ ___ 2010_05 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२७ दोनों प्रकार के अर्थों -विवेचनों की संग्राहिका, ग्रन्थ-पद्धतियां तूलिकाए हैं। चूणिकार ने बतलाया है कि दृष्टिवाद में परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो अभणित या अव्याख्यात है, उसे चूलिकाओं में व्याख्यात किया गया है। प्रारम्भ के चार पूर्वो' की जो चूलिकाएं हैं, उन्हीं का यहां अभिप्राय है। दिगम्बर-परम्परा में ऐसा नहीं माना जाता। वहां चूलिका के पांच भेद बतलाये गये हैं : १. जलगत, २. स्थलगत, ३. मायागत ४. रूपगत तथा ४. प्राकाशगत । ऐसा अनुमेय है कि इन चूलिका-भेदों के विषय सम्भवतः इन्द्रजाल तथा मन्त्र-तन्त्रात्मक आदि थे, जो जैन धर्म की तात्विक ( दार्शनिक ) तथा समीक्षा-प्रधान दृष्टि के आगे अधिक समय तक टिक नहीं सके; क्योंकि इनको अध्यात्म-उत्कर्ष से संगति नहीं थी। द्वादश उपांग उपir प्राचीन परम्परा से श्रु त का विभाजन अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के रूप में चला पा रहा है। नन्दी सूत्र में अंग-बाह्य का कालिक और उत्कालिक के रूप में विवेचन हुआ है। जो सूत्र-ग्रन्थ अाज उपांगों में अन्तर्गभित हैं, उनका उनमें समावेश हो जाता है । अंग-ग्रन्थों के समकक्ष उतनी ही ( बारह ) संख्या में उपांग-ग्रन्थों का निर्धारण हुआ । उसके पीछे क्या स्थितियां रहीं, कुछ भी स्पष्ट नहीं है। आगम-पुरुष की कल्पना की गयी। जहां उसके अंग-स्थानीय शास्त्रों की परिकल्पना और अंग-सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना हुई, वहां उपांग भी कल्पित किये गये। इससे अधिक सम्भवतः कोई तथ्य, जो ऐतिहासिकता की कोटि में प्राता हो, प्राप्त नहीं है। प्राचार्य उमास्वाति के तत्वार्थ-भाष्य में उपांग शब्द व्यवहृत हुआ है । r: 34T : 'असादृश्य __ अंग गणधर-रचित हैं। उनके अपने विषय हैं। उपांग स्थविर रचित हैं। उनके अपने विषय हैं। विषय-वस्तु, विवेचन आदि की दृष्टि से वे परस्पर प्राय: असदृश या भिन्न हैं । उदाहरणार्थ, पहला उपांग पहले अंग से विषय, विश्लेषण प्रस्तुतीकरण आदि की दृष्टि से सम्बद्ध होना चाहिए, पर, वैसा नहीं है। यही लगभग सभी उपांगों के सम्बन्ध (१) उत्पाद, (२) अग्रायणीय, (३) वीर्यप्रवाद, (४) अस्ति-नास्तिप्रवाद । २. अथ कास्ताश्चूलाः ? इह चूला शिखरमुच्यते। यथा मेरौ चूलाः, तत्र चूला इव चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्र पूवानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः। तथा चाऽह चूरिणकृत्-दिठिवाए जं परिकम्मसुत्तपुवाणजोगे चूलिअं न भरिणयं, तं चूलासु भरिणयं ति । अत्र सूरिराह चूला आदिमानां चतुर्णा पूर्वाणाम. शेषाणि पूर्वाण्यचूलिकानि, ता एव चूलाः.... -अभिधानराजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ ____ 2010_05 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ में कहा जा सकता है । यदि यथार्थ संगति जोड़ें, तो उपांग अंगों के पूरक होने चाहिए,जो नहीं हैं। फिर इस नाम को प्रतिष्ठापना कैसे हुई, कोई व्यक्त समाधान दृष्टिगत नहीं होता। वेदों के अंग भारत के प्राचीन वाङमय में वेदों का महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के अर्थ को समझने के लिए, वहां वेदांगों की कल्पना की गयी, जो शिक्षा ( वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण तथा स्वर-संचार के नियम-ग्रन्थ ), व्याकरण, छन्दःशास्त्र, निरुक्त ( व्युत्पत्तिशास्त्र.), ज्योतिष तथा कल्प ( यज्ञादि-प्रयोगों के उपपादन-ग्रन्थ ) के नाम से प्रसिद्ध हैं।' इनके सम्यग् अध्ययन के बिना वेदों को यथावत् समझना तथा याज्ञिक रूप में उनका क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो सकता; अतः उनका अध्ययन आवश्यक माना गया । वेदों के TNT वेदार्थ की और अधिक स्पष्टता तथा जन-ग्राह्यता साधने के हेतु उपर्युक्त वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के चार उपांगों की कल्पना की गयी, जिनमें पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्सशास्त्र का स्वीकार हुआ। यह भी प्रावश्यकता के अनुरूप हुआ और इससे अभीप्सित ध्येय सधा भी। फलत: वेदाध्ययन में सुगमता हुई। उपवेदों की परिकल्पना वैदिक साहित्य में चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेदों की भी कल्पना हुई, जो प्रायुर्वेद, गान्धर्व वेद ( संगीत-शास्त्र ), धनुर्वेद और अर्थशास्त्र ( राजनीति-विज्ञान ) के रूप में प्रसिद्ध हैं। १. छन्दः पादौ तु वेदस्य, इस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्त श्रोत्रमुच्यते ।। शिक्षा प्रारणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।। तस्मात् सांगमधोत्यव, ब्रह्मलोके महीयते ॥ -पाणिनीय शिक्षा, ४१-४२ २. (क) संस्कृत-हिन्दी कोश : आप्टे, पृ० २१४ (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M. Williams, P. 213 पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिथिताः वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश । -याज्ञवल्क्य स्मृति, १-३ ____ 2010_05 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय । ४२९ ___ वेदों के अंगों तथा उपांगों की प्रतिष्ठापना की तो सार्थकता सिद्ध हुई, पर, उपवेद वेदों के किस रूप में पूरक हुए ; दार्शनिक दृष्ट्या उतना स्पष्ट नहीं है, जितना होना चाहिए। उदाहरणार्थ, सामवेद से गान्धर्व उपवेद को जोड़ा जा सकता है, उसी तरह अन्य उपवेदों की भी वेदों के साथ संगति साधने से लिए विवक्षा हो सकती है। दूरान्वितततया संगति जोड़ना या परस्पर तालमेल बिठाना कहीं भी दुःसम्भव नहीं होता। पर, वह केवल तर्क कौशल और वाद-न पुण्य की सीमा में आता है। उसमें वस्तुतः सत्योपपादन का भाव नहीं होता। पर, 'उप' उपसर्ग के साथ निष्पन्न शब्दों में जो 'पूरकता' का विशेष गुण होना चाहिए, वह कहां तक फलित होता है, यही देखना है। जैसे, गान्धर्व उपवेद सामवेद से निःसृत या विकसित शास्त्र हो सकता है, पर, वह सामवेद का पूर्वक हो, जिसके बिना सामवेद में कुछ अपूर्णता प्रतीत होती हो, ऐसा कैसे माना जा सकता है ? प्रस्तु, सामवेद और गान्धर्व उपवेद की तो किसी-न-किसी तरह संगति बैठ भी सकती है, पर, औरों के साथ ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी ऐसा किया गया, यह क्यों ? इस प्रश्न का इत्थंभूत समाधान सुलभ नहीं दीखता। हो सकता है, धनुर्वेद मादि लोकजनीन शास्त्रों को ठेठ वैदिक वाङमय का अंश या भाग सिद्ध करने की उत्कण्ठा का यह परिणाम हुआ हो। प्रस्तुत सन्दर्भ : जेन अतीपांग ___ अंग-प्रविष्ट या अंग-श्रुत सर्वाधिक प्रामाणिक है ; क्योंकि वह भगवत्प्ररूपित और गणधर-सर्जित है । तद् व्यतिरिक्त साहित्य ( जो स्थविरकृत ) का प्रामाण्य उसके अंगानुगत होने पर है। वर्तमान में जिसे उपांग-साहित्य कहा नाता है, वह सब अंग-बाह्य में सन्निविष्ट है। उसका प्रामाण्य , जैसा कहा गया है, अंगानुगतता पर है, स्वतन्त्र नहीं । फिर बारह ग्रन्थों को उपांगों के रूप में लिये जाने के पीछे कोई विशेष उपयोगितावादी, सार्थकतावादी दृष्टिकोण रहा हो, यह स्पष्ट भासित नहीं होता। इस सम्बन्ध में कुछ विशेष तथ्यों की ओर संकेत किया ही जा चुका है। वेद के सहायक अंग तथा उपांग ग्रन्थों की तरह जैन मनीषियों का भी अपने कुछ महत्वपूर्ण अंग-बाह्य ग्रन्थों को उपांग नाम दे देने का विचार हुआ हो। क्रम-सज्जा नाम सौष्ठव आदि के अतिरिक्त इसके मूल में कुछ और भी रहा हो, यह गवेष्य है ; क्योंकि हमारे समक्ष स्पष्ट नहीं है। उपांगों ( जैन श्र तोपांगों ) के विषय में ये विकीर्ण जैसे विचार हैं, जिन्हें यहां उपस्थित किया गया है । जैन मनीषियों पर इनके सन्दर्भ में विशेष रूप से चिन्तन और गवेषणा का दायित्व है। 2010_05 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] आगम और त्रिरिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ १. उववाइय ( ओक्वाइय ) ( औपपातिक ) জীবণান৷ কা অথ उपपात का अर्थ प्रादुर्भाव या जन्मान्तर-संक्रमण है। उपपात ऊर्ध्वगमन या सिद्धिगमन ( सिद्धत्व-प्राप्ति ) के लिए भी व्यवहृत हुअा है। इस अग में नरक व स्वर्ग में उत्पन्न होने वालों तथा सिद्धि प्राप्त करनेवालों का वर्णन है ; यह इसलिये औपपातिक है । यह पहला उपांग है । विषय-वस्तु __ प्रस्तुत ग्रन्थ में नाना परिणामों, विचारों, भावनाओं तथा साधनाओं से भवान्तर प्राप्त करनेवाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है, अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस पागम में हृदयग्राही विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें नगर . उद्यान, वृक्ष, पृथ्वीशिला, राजा, रानी, मनुष्य-परिषद्, देव-परिषद्, भगवान् महावीर के गुण, उनका नख-शिख शरीर, चौंतीस अतिशय, साधुओं के गुण, साधुओं की उपमाएं, तप के ३५४ भेद, केवलि-समुद्धात, सिद्ध, सिद्ध-सुख प्रादि के विशद वर्णन प्राप्त होते हैं । अन्य ( श्रुत ) ग्रन्थों में इसी ग्रन्थ का उल्लेख कर यहां से परिज्ञात करने का संकेत कर उन्हें वरिणत नहीं किया गया है । श्रत-वाङमय में वर्णनात्मक शैली की रचनाओं में यह महत्वपूर्ण स्थान रखता है । २. रायपसेणीअ (राज-प्रश्नीय) देव प्रधिकार, देव विमान अधिकार, देव ऋद्धि अधिकार, परदेशी राजा अधिकार तथा दृढ़प्रतिज्ञकुमार अधिकार, नामक पांच अधिकारों में यह आगम विभक्त है। प्रथम तीन अधिकारों में सूर्याभ देव का, चतुर्थ अधिकार में परदेशी राजा का तथा पंचम में दृढ़प्रतिज्ञकुमार का वर्णन है। विषय-वस्तु गणधर गौतम द्वारा महा समृद्धि, विपुल वैभव, अनुपम दीप्ति कान्ति और शोभासम्पन्न सूर्याभदेव का पूर्व भव पूछे जाने पर भगवान् महावीर उन्हें उनका पूर्व भव बतलाते १. उपपतनमुपपातो देवनारकजन्म सिद्धिगमनं चातस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकमिदं चौपांग वर्तते। -अभिधान राजेन्द्र, तृतीय भाग, पृ० ९० ____ 2010_05 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३१ हुए कहते हैं कि यह पूर्व भव में राजा परदेशी था। यहीं से राजा परदेशी का वृत्तान्त प्रारम्भ हो जाता है, जो इस सूत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग है। राजा परदेशी अनात्मवादी या जड़वादी था। उसका भगवान् पार्श्व के प्रमुख शिष्य केशीकुमार के सम्पर्क में आने का प्रसंग बनता है। अनात्मवाद और आत्मवाद के सन्दर्भ में विस्तृत वार्तालाप होता है। राजा परदेशी अनात्मवादी, अपुनर्जन्मवादी तथा जड़वादी दृष्टिकोण को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित करता है। श्रमण केशीकुमार युक्ति और न्यायपूर्वक विस्तार से उसका समाधान करते हैं। राजा परदेशी सत्य को स्वीकार कर लेता है और श्रमणोपासक बन जाता है। धर्माराधनापूर्वक जीवन-यापन करने लगता है। रानी द्वारा विष-प्रयोग, राजा द्वारा किसी भी तरह के विद्धिष्ट और विक्षुब्ध भाव के बिना आमरण अनशन पूर्वक प्राणत्याग के वर्णन के साथ यह अधिकार समाप्त हो जाता है। प्रात्मवाद तथा जड़वाद की प्राचीन परम्पराओं और विमर्श-पद्धतियों के अध्ययन की दृष्टि से इस सूत्र का यह भाग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गणधर गौतम के पूछे जाने पर भगवान् महावीर ने आगे बताया कि सूर्याभदेव अपने अग्रिम जन्म में दृढ़प्रतिज्ञकुमार होगा। इस प्रकार अन्तिम अधिकार दृढ़प्रतिशकुमार का है, जिसमें उसके भविष्यमाण जीवनवृत्त का उल्लेख है। সংলথ সামর্শী सूर्याभदेव के विमान, जो उस (देव) का विशाल, सुन्दर, समृद्ध और सर्वविध सुविधापूर्ण सुसज्ज लोक था, के रचना आदि के प्रसंग में जो वर्णन पाया है, वहां तोरण, शालभंजिका, स्तम्भ, वेदिका, सुप्रतिष्ठक, फलक, करण्डक, सूचिका, प्रेक्षागृह, वाद्य, अभिनय आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं। वास्तव में प्राचीन स्थापत्य, संगीत, मादि के परिशीलन की दृष्टि से यह प्रसंग महत्वपूर्ण है । भगवान् महावीर के समक्ष देवकुमारतथा देवकुमारियों द्वारा बत्तीस प्रकार के नाटक प्रदर्शित किये जाने का प्रसंग प्राचीन नृत्त, नृत्य' पौर नाट्य प्रादि के सन्दर्भ में एक विश्लेषणीय और विवेचनीय विषय है। एक अहह 'नन्दी-सूत्र में रायपसेणिय पाया है। प्राचार्य मलय गिरि ने इस नाम को रायपसेणीअ माना है। डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके लिए रायपसेणइय का प्रयोग किया है। इस १. नृत्तं ताललयाश्रयम । ताल से मात्रा और लय से द्रुत, मध्य तथा मन्द । जसे, लोक-नृत्य, भीलों का गरबा । २. भावाश्रयं नृत्यम्-नृत्य में गात्र-विक्षेप से भाव-व्यंजना। जैसे, भरतनाट्यम् कत्थक नृत्य उदयशंकर के नृत्य ! विशेष-नृत्त और नृत्य के दो-दो भेद-लास्य-मधुर, ताण्डव-उद्धत । ३. अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् । आंगिक, वाचिक आहार्य एवं सात्विक अभिनयों द्वारा किसी की अवस्था का अनुकरण । 2010_05 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ] खण्ड २ उस मत - द्वैध का कथानक का मुख्य सूत्र के प्रधान पात्र या कथानायक के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं है । आधार यह नाम भी बना है । परम्परा से राजा परदेशी इस सूत्र के पात्र है, पर, डा० विण्टरनित्ज के मतानुसार मूलतः इस प्रागम में कौशल के इतिहास प्रसिद्ध राजा प्रसेनजित् की कथा थी । बाद में उसे राजा परदेशी से जोड़ने का प्रयत्न हुआ । रायपसेरीअ तथा रायपसेरगइय शब्दों का सम्बन्ध तो राजा प्रसेनजित् से जुड़ता है, पर, वर्तमान में प्राप्त कथानक का सम्बन्ध ऐतिहासिक दृष्टि से राजा प्रसेनजित् से जोड़ना सम्भव प्रतीत नहीं होता । यह सारा कथा -क्रम कैसे परिवर्तित हुआ, क्या-क्या स्थितियाँ उत्पन्न हुईं, कुछ कहा जाना शक्य नहीं है । इसलिए जब तक परिपुष्ट प्रमाण न मिलें, तब तक केवल नाम - सांगत्य कोई ठोस आधार नहीं माना जा सकता । ३. जीवाजीवाभिगम उपांग के नाम से हो स्पष्ट है, इसमें जीव, प्रजीव, उनके भेद प्रभेद आदि का विस्तृत वर्णन है । संक्षेप में इसे जीवाभिगम भी कहा जाता है । परम्परया ऐसा माना जाता है कि कभी इसमें बोस विभाग थे, परन्तु, वर्तमान में जो संस्करण प्राप्त है, उसमें केवल नौ प्रतिपतियां 1 ( प्रकरण) मिलती हैं, जो २७२ सूत्रों में विभक्त हैं। हो सकता है, वे बीस विभाग या उनका महत्वपूर्ण भाग या लुप्त हो जाने से बचा हुआ भाग इन नौ प्रतिपत्तियों में विभक्त कर संकलन की दृष्टि से नये रूप में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ये सब कल्पनाएं और अनुमान हैं, जिनसे अधिक वितर्करणा करने के साधन आज उपलब्ध नहीं हैं । गणधर गौतम के प्रश्न श्रौर भगवान् महावीर के उत्तर की श्रृंखला में इस ग्रन्थ में रूपी, अरूपी, सिद्ध, संसारी, स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेद, सातों नरकों के प्रतर तिर्यंच भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव, जम्बू द्वीप, लवण समुद्र, उत्तर कुरु, नीलवन्तादि द्रह, धातकी खण्ड, कालोदधि, मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्य लोक, अन्यान्य द्वीप, समुद्र आदि का वर्णन है । कहीं-कहीं वर्णनों का विस्तार हुआ हैं । प्रसंगोपात्ततया इसमें लोकोत्सव, यान, अलंकार, उद्यान, वापिका, सरोवर, भवन, सिंहासन मिष्टान्न, मदिरा, धातु श्रादि की भी चर्चा है । प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की eft से इसका महत्व है । १. ज्ञान, निश्चिति, अवाप्ति । 2010_05 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] व्याख्या साहित्य आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीका की रचना की । उन्होंने इस उपांग के अनेक स्थानों पर वाचना-भेद होने का उल्लेख किया है। साथ-साथ यह भी सूचित किया है कि इसके अनेक सूत्र विच्छिन्न हो गये । प्राचार्य हरिभद्र तथा देवसूरि द्वारा लघु-वृत्तियों की रचना की गयी । एक अप्रकाशित चूरिंग भी बतलाई जाती है । ४. पन्नवणा ( प्रज्ञापना ) आषं (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३३ नाम : अर्थ प्रज्ञापना का अर्थ बतलाना, सिखलाना या ज्ञापित करना है । इस उपांग का नाम वस्तुतः अन्वर्थक है । यह जैन तत्व ज्ञान का उत्कृष्ट उद्बोधक ग्रन्थ है । यह प्रज्ञापन स्थान, बहु वक्तव्य, क्षेत्र, स्थिति, पर्याय, श्वासोच्छ्वास, संज्ञा, योनि, भाषा, शरीर, परिगाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्य, काय स्थिति, दृष्टि, क्रिया, कर्म-बन्ध, कर्म- स्थिति, कर्म - वेदना, कर्म - प्रकृति, आहार, उपयोग, संज्ञी, अवधि, परिचारणा, वेदना - परिणाम, समुद्घात प्रभृति छत्तीस पदों में विभक्त है । पदों के नाम से स्पष्ट है कि इसमें जैन सिद्धान्त के अनेक महत्वपूर्ण पक्षों पर विवेचन हुआ है, जो तत्वज्ञान के परिशीलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । उपांगों में यह सर्वाधिक विशाल है । अंगों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है, उपांगों में वैसा ही स्थान इस आगम का है । व्याख्या - प्रज्ञप्ति की तरह इसे भी जैन तत्व ज्ञान का वृहत् कोश कहा जा सकता है । रचना ऐसा माना जाता है कि वाचकवंशीय प्रार्य श्याम ने इसकी रचना की। वे अंशत: पूर्वधर माने जाते थे । अज्ञातकर्तृक दो गाथाएं' ' प्राप्त होती हैं, जिनसे ये तथ्य पुष्ट होते हैं । उनका श्राशय इस प्रकार है : " वाचकवंशीय, आर्य सुधर्मा की तेवीसवीं पीढी में स्थित, धैर्यशील, पूर्वश्रुत से समृद्ध, बुद्धि-सम्पन्न श्रार्य श्याम को वन्दन करते हैं, जिन्होंने श्रुतज्ञान रूपी सागर में से अपने शिष्यों को यह ( प्रज्ञापनारूप ) श्रुत- रत्न प्रदान किया ।" आर्य श्याम के प्रार्य सुधर्मा से तेवीसवीं पीढी में होने का जो उल्लेख किया है, वह किस स्थविरावली या पट्टावली के आधार पर किया गया है, ज्ञात नहीं होता । नन्दी - सूत्र १. वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीर पुरिसेरग । दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीगं । सुयसागरविएऊरण, जेण सुयरयणमुत्तमं विष्णं । 1 - अमोलक ऋषि द्वारा अनूदित प्रज्ञापना सूत्र, प्रथम भाग में पृ० २ पर उद्धत 2010_05 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] __ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ में वणित स्थविरावली में श्याम नामक प्राचार्य का उल्लेख तो है, पर, वे सुधर्मा से प्रारंभ होने वाली पट्टावली में बारहवें' होते हैं। तेवीसवें स्थान पर वहां ब्रह्मदीपकसिंह नामक प्राचार्य का उल्लेख है। उन्हें कालिक श्रुत तथा चारों अनुयोगों का धारक व उत्तमवाचकपद-प्राप्त' कहा है। कल्पसूत्र की स्थविरावली से आर्य श्याम की क्रमिक संख्या मेल नही खाती। रचना का आधार : एक कल्पना प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में लेखक की ओर से स्तवनात्मक दो गाथाए हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं : “सूत्र-रत्नों के निधान, भव्यजनों के लिए निर्वृत्तकारक भगवान् महावीर ने सब जीवों के भावों की प्रज्ञापना उपदिष्ट की। भगवान् ने दृष्टिवाद से निर्धारित, विविध अध्ययनयुक्त इस श्रुत-रत्न का जिस प्रकार विवेचन किया है, मैं भी उसी प्रकार करूंगा।"3 इन गाथाओ में प्रयुक्त विट्टिनायणीसंदं पद पर विशेष गौर करना होगा। इष्टिवाद व्युच्छिन्न माना जाता है। श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् उसके सम्पूर्ण वेत्ताओं की परम्परा मिट गयी। पर, अंशतः वह रहा । श्यामार्य के सम्बन्ध में जिन दो वन्दनमूलक गाथाओं की चर्चा की गयी है, वहां उन्हें पूर्वज्ञान से युक्त भी कहा गया है। सम्भवतः आर्य श्याम प्रांशिक दृष्ट्या पूर्वज्ञ रहे हों। हो सकता है, इसी अभिप्रायः से उन्होंने यहां दृष्टिवाद निस्यन्द शब्द जोड़ा हो, जिसका आशय यह रहा हो कि दृष्टिवाद के मुख्यतम भाग पूर्व ज्ञान से इसे गृहीत किया गया है। १. सुहम्म' अग्गिवेसारणं, जंबूनाम च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे. वच्छं सिज्जभवं तहा ॥ जसभद्द तुगीयं वंदे संभुयं, चेव माढरे । भद्दबाहु च पाइन्नं, थुलभद्द च गोयभा ॥ एलाबच्चसगोत्त, वंदामि महागिरि सुहत्थिं च ॥ ततो कोसियगोत्तं बहु लस्स बलिस्सह वंदे ॥ हारियगोत्तं" सायं च, वदे मोहारियं च सामज्ज। -नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा २५-२८ २. अयलपुरम्मि खेत्ते, कालियसुय अरणगए धीरे । बंभट्टीवगसीहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ -नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा ३६ सयरयणनिहावं. जिरणवरेण भवियणनिव्वइकरेणं। उवदंसिया भगवया, पण्णवरणा सव्वभावारणं ।। अज्झयणमिणं चित्तं, सुयरयणं दिठिवायरणीसंदं । जहवणियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ -प्रज्ञापना, मंगलाचरण, २, ३ ___ 2010_05 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | प्रार्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३५ থাত্ব-সাহিত্যে ___आचार्य हरिभद्र सूरि ने प्रदेशाख्या लघुवृत्ति की रचना की। उन्होंने कठिन पदों की व्याख्या की है। प्राचार्य मलयगिरि ने उसी के आधार पर टीका की रचना को। कुलमण्डन ने अव वूरि लिखी। व्याख्याकारों ने एतद्ग्रन्थगत पाठ-भेदों का भी उल्लेख किया है। अनेक स्थलों पर कतिपय शब्दों को अव्याख्येय मानते हुए टीकाकार ने उन्हें सम्प्रदायगम्य कह कर छोड़ दिया । सम्भव है, वे शब्द स्पष्टार्थ-द्योतक नहीं प्रतीत हुए हों; अतः आम्नाय या परम्परा से समझ लेने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था ? प्रजापना का ग्यारहवां पद भाषा-पद है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका विवेचन किया है । ५. सूरियपन्नति (सूर्यप्रज्ञप्ति) नाम: : अन्वर्थकता द्विसूर्य सिद्धान्त, सूर्य के उदय, अस्त, प्राकार, प्रोज, गति आदि का विस्तार से वर्णन है, जिससे इसके नाम की अन्वर्थकता प्रकट होती है। साथ-ही-साथ चन्द्र, अन्यान्य नक्षत्र आदि के प्राकार, गति, अवस्थिति आदि का भी विशद विवेचन है। बीस प्राभृतों में विभक्त यह ग्रन्थ एक सौ पाठ सूत्रों में सन्नि विष्ट है। प्राभृत प्राकृत के पाहुड़ शब्द का संस्कृत-रूपान्तर है। प्राभूत का अर्थ अनेक ग्रन्थों के अध्याय या प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द प्रयुक्त पाया जाता है । इसका शाब्दिक तात्पर्य उपहार, भेंट या समर्पण है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने अभीष्ट-प्रिय जन को जो परिणाम-सरस, देश-कालोचित दुर्लभ वस्तु दी जाती है और जिससे प्रिय जन की चित्त-प्रसन्नता प्रासादित की जाती है, लोक में उसे प्राभृत कहा जाता है।" ग्रन्थ के प्रकरण के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने प्रिय तथा विनय आदि गुण-युक्त शिष्यों को देश और काल की उचितता के साथ जो ग्रन्थ सरणियां दी १. उच्यते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचितं दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते ततः प्राभ्रियते-प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तः। - अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ९१९ ____ 201005 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ जाती हैं, उन्हें भी प्राभृत कहा जाता है।' शब्द चयन में जैन विद्वानों के मस्तिष्क की प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द वास्तव में साहित्यिक सुषमा उर्वरता इससे स्पष्ट है । लिये हुए है । व्याख्या - साहित्यं पर, श्र ुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति की रचना की, ऐसा प्रसिद्ध है । वह प्राप्त नहीं है, काल-कवलित हो गयी है । श्राचार्य मलयगिरि की इस पर टीका है । वास्तव में यह ग्रन्थ इतना दुर्ज्ञेय है कि टीका की सहायता के बिना समझ पाना सरल नहीं है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि से सम्बद्ध प्रपने विशेष प्रकार के विश्लेषरण के कारण यह ग्रन्थ दिद्वज्जगत् में श्राकर्षण का केन्द्र रहा है। प्रो० वेबर ने जर्मन भाषा में इस पर एक निबन्ध लिखा, जो सत् १८६८ में प्रकाशित हुआ । सुना जाता है. डा० प्रा० शाम शास्त्री ने इसका A Brief Translation of Mahavir's Suryaprajnapti के नाम से अंग्रेजी में संक्षिप्त अनुवाद किया था, पर वह श्रप्राप्य है । डा० थीबो ने सूर्यप्रज्ञप्ति पर लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने जैनों के द्विसूर्य और द्विचन्द्रवाद की भी चर्चा की थी। उनके अनुसार यूनान के लोगों में उनके भारत आने के पूर्व यह सिद्धान्त सर्वं स्वीकृत था । Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vol. no. 49 में वह लेख प्रकाशित हुआ था । ६. जम्बुद्दीवपन्नति ( जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) स्वरूप जम्बूद्वीप से सम्बद्ध इस उपांग में अनेक विध वर्णन हैं । इस ग्रन्थ के दो भाग हैंपूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वाद्ध चार वक्षस्कारों में तथा उत्तरार्द्ध तीन वक्षस्कारों में विभक्त है । समग्र ग्रन्थ में १७६ सूत्र हैं । वक्षस्कार का तात्पर्य वक्षस्कार शब्द यहां प्रकरण को बोधित कराता है। पर, वास्तव में जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भूगोल में कई अपेक्षानों से बड़ा महत्व है । जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार प्रकरण का श्रवबोध कराने के हेतु वक्षस्कार का जो प्रयोग करते हैं, वह सर्वथा संगत है । १. विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणाम सुन्दराश्वाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते । - अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ९१४ 2010_05 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३७ विषय-वस्तु जम्बूद्वीपस्थ भरत क्षेत्र आदि का इस उपांग में विस्तृत वर्णन है। उनके सन्दर्भ में अनेक दुर्गम स्थल, पहाड़, नदी, गुफा, जंगल, आदि की चर्चा है । ___ जैन काल-चक्र-अवसर्पिणी-सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुःषमा, दुःषम-सुषमा दुःषमा, दुःषम-दुःषमा तथा उत्सर्पिणी-दुःषम-दुःषमा, दुःषमा, दुःषम-सुषमा, सुषम-दुःषमा, सुषमा, सुषम-सुषमा का विस्तार से वर्णन है। उस सन्दर्भ में चौदह कुलकर आदि, तीर्थ कर ऋषभ,बहत्तर कलाएं, स्त्रियों के लिए विशेषतः चौसठ कलाए तथा अनेक शिल्प आदि की चर्चा है। इस कोटि का और भी महत्वपूर्ण वर्णन है। जैन भूगोल तथा प्रागितिहासकालीन भात के अध्ययन की दृष्टि से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का विशेष महत्व है। ७. चन्दपन्नत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति) स्थामांग में उल्लेख स्थानांग सूत्र' में सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा द्वीपसागर प्रजप्ति के साथ चन्द्रप्राप्ति का भी अंगबाह्य के रूप में उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट है कि सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों प्राचीन ग्रन्थ हैं। दोनों कभी पृथक्-पृथक् ग्रन्थ थे, दोनों के अपनेअपने विषय थे। वर्तमान संस्करस : एक प्रश्न ___ वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति का जो संस्करण प्राप्त है, वह सूर्यप्रज्ञप्ति से सर्वथा-अक्षरशः मिलता है। भेद है तो केवल मंगलाचरण तथा ग्रन्थ में विवक्षित बीस प्राभृतों का संक्षेप में वर्णन करने वाली अठारह गाथाओं का। चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में ये गाथाए हैं । तत्पश्चात् क्रम-निर्दिष्ट विषय प्रारम्भ होता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में ये गाथाएं नहीं हैं अर्थात् मंगलाचरण तथा विवक्षित-विषय-सूचन के बिना ही ग्रन्थ प्रारम्भ होता है, जो आद्योपान्त चन्द्रप्रज्ञप्ति जैसा है। वास्त में यदि ये दो ग्रन्थ हैं, तो ऐसा क्यों ? यह एक प्रश्न है, जिसका अनेक प्रकार से समाधान किया जाता है। १. चत्तारि पण्णतीओ अंगबाहिरियाओ पण्णताओ, तं जहा-चन्दपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, जम्बूद्दीवपण्णत्ती, दीवसागरपण्णती । -स्थानांग सूत्र, स्थान ४, १.४७ ____ 2010_05 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ रहस्थामा : एक समाधान ____ अतिपरम्परावादी धार्मिक, जिन्हें स्वीकृत मान्यता की परिधि से बाहर निकल कर जरा भी सोचने का अवकाश नहीं है, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति के परिपूर्ण पाठ-साम्य को देखते हुए भी आज भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि ये दो ग्रन्थ नहीं हैं। उनका विचार है कि सूर्य, चन्द्र, कतिपय नक्षत्र आदि की गति, क्रम प्रादि से सम्बद्ध कई ऐसे विषय हैं, जो प्रवृत्तित. एक समान हैं; अतः उनमें तो भेद की कोई बात ही नहीं है । एक जैसे दोनों वर्गन दोनों स्थानों पर लागू होते हैं। अनेक विषय ऐसे हैं, जो दोनों में भिन्नभिन्न हैं, यद्यपि उनकी शब्दावली एक है । एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । सामान्यतः प्रचलित अर्थ को ही लोग अधिकांशत: जानते हैं। अप्रचलित अर्थ प्रायः अज्ञात रहता है। बहुत कम व्यक्ति उसे समझते हैं। यहां कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है । वास्तव में दोनों ग्रन्थों में प्रयुक्त एक जैसे शब्द भिन्नार्थक हैं। ऐसा किये जाने के पिछे भी एक चिन्तन रहा होगा। बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनका उद्घाटन सही अधिकारी या उपयुक्त पात्र के समक्ष ही किया जाता है, अनधिकारी या अपात्र के समक्ष नहीं; अत: उन्हें रहस्यमय या गुप्त बनाये रखना आवश्यक होता है । अधिकारी को उन्हीं शब्दों द्वारा वह ज्ञान दे दिया जाता है, जिनका अर्थ सामान्यः व्यक्त नहीं है । ऐसी ही कुछ स्थिति यहाँ रही हो, तो प्राश्चर्य नहीं। कभी परम्परया इन रहरयों को जानने वाले विद्वान् रहे होंगे, जो, अधिकारी पात्रों के समक्ष उन रहस्यों को प्रकाशित करते रहे हों। पर वह परम्परा सम्भवतः मिट गयी। रहस्य रहस्य ही रह गये। यही कारण है, इन दोनों उपांगों के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में एदंयुगीन ज्ञान के अल्पत्व के कारण ऐसा है। तथ्य यही है, दोनों उपांग, जो वर्तमान में उपलब्ध हैं, यथावत् हैं अपरिवर्तित हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न ही माना जाना चाहिए । ____ कहने को स्वीकृत परम्परा के संरक्षण के हेतु जो कुछ कहा जा सकता है, पर विवेक के साथ उसकी यथार्थता का अंकन करने का प्रबुद्ध मानव को अधिकार है। इसलिए यह कहना परम्परा का खण्डन नहीं माना जाना चाहिए कि रहस्यमयता और शब्दों की अनेकार्थकता का सहारा पर्याप्त नहीं है, जो इन दोनों उपांगों के अनक्य या असादृश्य को सिद्ध कर सके । इस पर प्रधिक युक्तियां उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं है। विज्ञजन उन्मुक्त भाव से चिन्तन करेगे, तो ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है कि उनमें से अधिकांश को किसी रहस्यमयता तथा शब्दों के बह वर्थकता-मूलक समाधान से तुष्टि नहीं होगी। यह मानने में कोई अन्यथाभाव नहीं प्रतीत होना चाहिये कि वर्तमान में उपलब्ध ये दोनों ग्रन्थ स्वरूपतः-शाब्दिक दृष्ट्या एक हैं और तात्पर्यंतः भी दो नहीं प्रतीत होते । 2010_05 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३९ २एक अहापोह : एक कल्पना ___हो सकता है, कभी प्राचीन काल में कहीं किसी ग्रन्थ-भण्डार में सूर्यप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां पड़ी हों। उनमें से एक प्रति ऊपर के पृष्ठ व उस पर लिखित सूर्यप्रज्ञति नाम सहित रही हो तथा दूसरी का ऊपर का पत्र-नाम का पत्र नहीं रहा हो, नष्ट हो गया हो, खो गया हो। नामवाली प्रति में भी प्रारम्भ का पत्र, जिसमें मांगलिक व विषयसूचक गाथाओं का उल्लेख था, खोया हुआ हो। अर्थात् अब दोनों प्रतियों का स्वरूप इस प्रकार समझा जाना चाहिए-उन दोनों प्रतियों में एक प्रति ऐसी थो, जिसका ऊपर का पृष्ठ था, उस पर ग्रंथ का नाम था। पर, उसमें गाथाएं नहीं थी। प्रथ का विषय सीधा प्रारम्भ होता था। गाथानों का पत्र लूप्त था। दूसरी प्रति इस प्रकार की थी, जिसमें ऊपर का पृष्ठ, नथ का नाम नहीं था। ग्रन्थ का प्रारम्भ गाथाओं से होता था। दोनों में केवल भेद इतना-सा था, एक गाथाओं से युक्त थी, दूसरी में गाथाएं नहीं थीं, पर, पायाततः देखने पर दोनों का प्रारम्भ भिन्न लगता था, इससे इस विषय को नहीं समझने वाले व्यक्ति के लिए असमंजसता हो सकती थी। किसी व्यक्ति ने भण्डार में ग्रन्थों को व्यवस्थित करने हेतु या सूची बनाने के हेतु ग्रन्थों की छान-बीन की हो। जैन अंगों, उपांगों आदि के पर्यवेक्षण के संदर्भ में ये दोनों प्रतियां उसके सामने आई हों। नाम सहित प्रति के सम्बंध में तो उसे कोई कठिनाई नहीं हुई; क्योंकि वह नाम भी स्पष्ट था और ग्रन्थारम्भ भी। ऊपर के पत्र से रहित, बिना नाम की प्रति के सम्बन्ध में उसे कुछ सन्देह हुमा हो, उसने ऊहापोह किया हो। सम्भवतः वह व्यक्ति विद्वान् न रहा हो। भण्डार की व्यवस्था या देखरेख करने वाला मात्र हो या ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने वाला साधारण पठित व्यक्ति रहा हो। ऐसा सम्भाव्य है कि प्रथम प्रति को जिसमें ग्रन्थ-नाम था, गाथाएं नहीं थीं, प्रकरण प्रारम्भ से चालू होता था, उसने यथावत् रहने दिया। दूसरी प्रति, जिस पर नाम नहीं था, गाथाओं के कारण जो भिन्न ग्रन्थ प्रतीत होता था, के लिए उसने कल्पना की हो कि वह स्यात् चन्द्रप्रज्ञप्ति हो और अपनी कल्पानुसार वैसा नाम लगा दिया हो। वह ग्रन्थ को भीतर से देखता, गवेषणा कराता, पाठ मिलाता, यह सब तो तब होता, जब वह एक अनुसन्धित्सु विद्वान् होता। सम्भवतः चन्द्रप्रज्ञप्ति का यथार्थ रूप तब तक नष्ट हो गया होगा ; अतः अन्यत्र कहीं उसकी सही प्रति मिल नहीं सकी हो और उसी प्रति के आधार पर, जिस पर नाम लगाया गया था, एक ही पाठ के ग्रन्थ दो नामों से चल पड़े हों, चलते रहे हों। शताब्दियां बीतती गयीं और एक ही पाठ के दो ग्रन्थ पृथक-पृथक् माने जाते रहे । धर्म श्रद्धा भी देता है और विवेक भी। विवेक-शून्य श्रद्धा अचक्षुष्मती कही जाती है। 2010_05 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन आगन [ खण्ड : २ पर, धर्म के क्षेत्र में वैसा भी होता है, जो पालोच्य है, प्रादेय नहीं । प्रति श्रद्धा-पूर्ण मानस के बाहुल्य के कारण प्रागम-वेत्तानों में इस तथ्य को जानते हुए भी व्यक्त करने का उत्साह क्यों होता ? जब लोगों के समक्ष यह स्थिति आई, तो अपनी मान्यता और परम्परा के परिरक्षण के निमित्त ऐसे तर्को का, जिस और इंगित किया गया है, जिन्हें तर्क नहीं, तर्काभास कहा जा सकता है, सहारा लिया जाने लगा। वर्तमान में दो कहे जाने वाले उपांगों का जो कलेवर है, उसे देखते हुए यह मानने में धर्म की जरा भी विराधना या सम्यक्त्व का हनन नहीं लगता कि एक ही पाठ को दो ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करने की बात कुछ और गवेषणा, चिन्तन तथा परिशीलन की मांग करती है, ताकि यथार्थ की उपलब्धि हो सके। থা-ঋণ ঐ মিশন उपांगों के संख्या-क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति की स्थानापन्नता में कुछ भेद । अमोलक ऋषि ने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति को सातवां उपांग माना है। विण प्रज्ञप्ति की गणना सूर्यप्रज्ञप्ति से पह संक्रान्ति-काल की प्राकृतें के चन्द्रप्रज्ञप्ति का प्राज जो रूप है। मैंने संख्या बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा prakritas of Transional Period) क पता चलता है, a to o (Prakritas of Transional Period) सूर्यप्रज्ञप्ति अपने यथावत् रूप न पचनाग ह । 47 नान गुरु उसमें सूर्य-सम्बन्धी वर्णन अपेक्षाकृत अधिक है। चन्द्र का भी वर्णन है, पर, विस्तार और विविधता में उससे कम । चन्द्रप्रज्ञप्ति का वर्तमान संस्करण स्पष्ट ही मौलिकता की दृष्टि से पालोच्य है। अतः उसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् लिया गया है। प्राचार्य मलयगिरि को इस पर टीका है। पांच निरयाव लिया निरयावलिया ( निरयावलिका ) में पांच उपांगों का समावेश है, जो इस प्रकार हैं : १. निरयावलिया या कप्पिया ( कल्पिका ) २. कप्पवडंसिया ( कल्पावतंसिका ) ३. पुप्फिया ( पुष्पिका ) ४. पुष्फचूलिया ( पुष्पचूलिका ). ५. वहि नदक्षा ( वृष्टि-दशा ) । 2010_05 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष और साहित्य ] आर्ष (अद्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४१ पहले कभी सम्भवतः ये पांचों एक ही निरयावलिका सूत्र के रूप में रहे हों। पर, जब अंगों के समकक्ष उपांग भी बारह की संख्या में प्रतिष्ठित किये जाने अपेक्षित माने गये, तो उन्हें पांच उपांगों के रूप में पृथक्-पृथक मानने की परम्परा चल पड़ी। ८. निरयावलिया (निरयावलिका) या कप्पिया (कल्पिका) নিশান प्रस्तुत उपांग दश अध्ययनों में विभक्त है, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. कालकुमार - अध्ययन, २. सुकालकुमार - अध्ययन, ३. महाकालकुमार-अध्ययन, ४. कृष्णकुमार-अध्ययन, ५. सुकृष्णकुमार-प्रध्ययन, ६. महाकृष्णकुमार-अध्ययन, ७. वीरकृष्णकुमार-प्रध्ययन, ८. रामकृष्णकुमार-प्रध्ययन, ९. प्रियसेन-कृष्णकुमार-प्रध्ययन तथा १०. महासेन कृष्णकुमार-अध्ययन । जिन कुमारों के नाम से ये अध्ययन हैं, वे मगधराज श्रेणिक के पुत्र तथा कूणिक (अजातशत्रु , के भाई थे, जो वैशाली गणराज्य के अधिनायक चेटक और कूणिक के बीच हुए संग्राम में चेटक के एक-एक बाण से क्रमश: मारे गये। विषय-वस्तु . प्रथम अध्ययन कृष्णकुमार के प्रसंग से प्रारम्भ होता है। उसकी माता कालीदेवी कूरिणक के साथ युद्ध में गये हुए अपने पुत्र के विषय में भगवान् महावीर से प्रश्न पूछती है । भगवान् से यह जानकर कि वह युद्ध में चेटक के बाण से मारा गया है, वह बहुत दुःखित और शोकान्वित हो जाती है। कुछ यथावस्थ होने पर वापिस लौट जाती है। गणधर गौतम तब भगवान् महावीर से कालकुमार के अग्रिम भव और विगत भव के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं। उसका भगवान जो उत्तर देते हैं, उस सन्दर्भ में कूणिक-अजातशत्रु के जीवन का इतिवृत्त विस्तृत रूप में उपस्थित हो जाता है। श्रेणिक की गर्भवती रानी चेल्लणा का पति के कलेजे के मांस के तले हुए शोलों । तथा मदिरा का प्रसन्नतापूर्वक प्रास्वाद लेने का निघृण दोहद, अभयकुमार द्वारा बुद्धिमत्तापूर्वक उसकी पूर्ति, कूणिक का जन्म, माता द्वारा उसे उकुरुडी (धूरे ) पर फिकवाया जाना, अंणिक द्वारा उसे वापिस लाया जाना, स्नेहपूर्वक पाला जाना,बड़े होने पर कूणिक द्वारा पिता श्रेणिक को बन्दी-गृह में डाल राजसिंहासन हथियाया जाना, श्रेणिक द्वारा दुःखातिरेक से प्रात्महत्या किया जाना, अपने छोटे भाई बोहल्लकुमार के कारण सेचनक हस्ती आदि न लौटाये जाने से वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक पर कूणिक द्वारा चढ़ाई किया जाना आदि १. मूल पाठ में 'सोलेहि' शब्द आया है, जिसका संस्कृत रूप 'शोलः' होगा। शूल या कांटे से तले जाने के कारण उस प्रकार के मांस के टुकड़ों को शौल कहा जाता होगा । 2010_05 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ का इस प्रसंग में वर्णन आता है। रथमूसल तथा महाशिला-कंटक संग्राम का वहां उल्लेख मात्र है। उस सम्बन्ध में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का संकेत कर दिया गया है । दूसरे अध्ययन की सामग्री केवल इतनी-सी है :--"उस समय चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। कूणिक राजा था और पद्मावती उसकी रानी थी। वहां चम्पा नगरी में पहले राजा श्रेरिणक की भार्या, कूणिक की कनिष्ठा माता सुकुमारांगी सुकाली रानी थी। सुकाली देवी के सुकुमारांग सुकाल कुमार हुआ। तीन सहस्र हाथियों को लिये युद्ध में गया हुआ, कालकुमार जिस प्रकार मारा गया, उसी तरह का समग्र वृत्तान्त सुकालकुमार का भी है। अन्ततः सुकालकुमार भी महाविदेह-क्षेत्र में संसार का अन्त करेगा-सिद्ध होगा।'' दूसरे अध्याय का वृत्तान्त यहीं समाप्त हो जाता है। तीसरे से दसवें तक के अध्ययनों का वर्णन भी केवल इतनी-सी पंक्तियों में है : “शेष पाठों अध्ययनों को प्रथम अध्ययन के सदृश समझना चाहिए। पुत्रों और माताओं के नाम एक जैसे हैं । निरयावलिका सूत्र समाप्त होता है ।''2 ६. कप्पवडंसिया ( कल्पावतंसिका) कल्पावतंस का अर्थ विमानवासी देव होता है। कल्पावतंसिका शब्द उसी से निष्पन्न हुमा है। इस उपांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें राजा श्रेणिक के दश पौत्रों के संक्षिप्त कथानक हैं, जो स्वर्गगामी हुए। दश अध्ययनों के नाम चरित-नायक कुमारों के नामों के अनुरूप हैं; जैसे, १. पद्मकुमार-अध्ययन, २. महापद्मकुमार-अध्ययन, ३. भद्रकुमारअध्ययन, ४. सुभद्रकुमार-अध्ययन ५. पद्मभद्र कुमार-अध्ययन, ६. पद्मसेनकुमार-अध्ययन, ७. पद्मगुल्मकुमार-अध्ययन, ८. नलिनीगुल्मकुमार-अध्ययन, ९. आनन्दकुमार-अध्ययन तथा १०. नन्दकुमार-प्रध्ययन । दशों कुमार निरयावलिका ( कल्पिका ) में वरिणत राजा श्रेणिक के कालकुमार प्रादि १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं एयरी होत्या, पुण्णभद्दे चेइए, कुरिणय राया, पउमावई देवी। तत्थरणं चंपा नयरीए सेणियस्स रणो अज्ज कोरिणयस्स रण्णो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी होत्था सुकमाला। तीसेणं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामे कुमारे होत्था सुकुमाले। तते रणं से सुकालेकुमारे अन्नयाकयाइ तिहिं दंति-सहस्सेहि जहा काले कुमारे निरविसेसं तहेव महाविदेहवासे अंते करेहिति । -निरयावलिया, द्वितीय अध्ययन, पृ० ६३-६४ २. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा । नायव्वा पढमं सरिसा, णवरं माताओ सरिसा गामा । .. गिरयावलीयामओ सम्मताओ। -निरयावलिया, समाप्ति-प्रसंग ____ 2010_05 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य 1 आर्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४३ दशों पुत्रों के क्रमशः पुत्र थे । प्रथम अध्ययन में कालकुमार के पुत्र पद्मकुमार के जन्म, दीक्षा ग्रहण, स्वर्ग-गमन तथा अन्ततः महा-विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धत्व प्राप्त करने तक का संक्षेप में लगभग चार-पांच पृष्ठों में वर्णन है । दूसरे अध्ययन में सुकालकुमार के पुत्र महापद्मकुमार का संक्षिप्ततम विवरण है । केवल उसके जन्म के वृत्तान्त का पांचसात पंक्तियों में सूचन कर श्रागे प्रथम अध्ययन की तरह समझ लेने का संकेत किया गया है । तीसरे ग्रध्ययन से दशवें अध्ययन तक की सूचना केवल आधी पंक्ति में यह कहते हुए कि उन्हें प्रथम अध्ययन की तरह समझ लेना चाहिए, दे दी गयी है । साथ-साथ यह भी सूचित किया गया है कि उनकी माताएं उनके सदृश नामों की धारक थीं । अन्त में दशों कुमारों के दीक्षा पर्याय । की भिन्न-भिन्न समयावधि तथा भिन्न भिन्न देवलोक प्राप्त करने का उल्लेख करते हुए उपांग का परिसमापन कर दिया गया है। यह उपांग बहुत संक्षिप्त है । मगध भगवान् महावीर तथा बुद्ध के समय में पूर्व भारत का एक प्रसिद्ध एकतन्त्रीय ( एक राजा द्वारा शासित ) राज्य था । कल्पिका तथा कल्पावतंसिका प्रागितिहासकालीन समाज की स्थिति जानने की दृष्टि से उपयोगी हैं । १०. पुष्क्रिया ( पुष्पिका ) प्रस्तुत उपांग में दश श्रध्ययन हैं, जिनमें ऐसे स्त्री-पुरुषों के कथानक हैं, जो धर्माराधना और तपः साधना द्वारा स्वर्ग गये । अपने विमानों द्वारा वैभव, समृद्धि एवं सज्जा पूर्वक भगवान् महावीर को वन्दन करने आये । तापस-वन तीसरे अध्ययन में सोमिल ब्राह्मण के कथानक के सन्दर्भ में चालीस प्रकार के तापसों का वर्णन है । उनमें कुछ इस प्रकार है : (क) केवल एक कमण्डलु धारण करने वाले । (ख) केवल फलों पर निर्वाह करने वाले (ग) एक बार जल में डुबकी लगाकर तत्काल बाहर निकलने वाले । (घ) बार-बार जल में डुबकी लगाने वाले । (ङ) जल में ही गले तक डूबे रहने वाले । (च) सभी वस्त्रों, पात्रों और देह को प्रक्षालित रखने वाले । (छ) शंख-ध्वनि कर भोजन करने वाले (ज) सदा खड़े रहने वाले । १. श्रमरण - जीवन 2010_05 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । २ (झ) मृग-मांस के भक्षण पर निर्वाह करने वाले। (ट) हाथी का मांस खाकर रहने वाले। (ठ) सदा ऊँचा दण्ड किये रहने वाले । (ड) वल्कल-वस्त्र धारण करने वाले । (ढ) सदा पानी में रहने वाले । (ण) सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले । (त) केवल जल पर निर्वाह करने वाले। (थ) जल के ऊपर आने वाली शैवाल खा कर जीवन चलाने वाले। (द) वायु-भक्षण करने वाले। (ध) वृक्ष-मूल का आहार करने वाले । (न) वृक्ष के कन्द का आहार करने वाले । .. (प) वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले । (फ) वृक्ष की छाल का आहार करने वाले। (ब) पुष्पों का आहार करने वाले । (भ) बीजों का पाहार करने वाले । (म) स्वतः टूट कर गिरे हुए पत्रों, पुष्पों तथा फलों का प्राहार करने वाले । (य) दूसरों द्वारा फेंके हुए पदार्थों का आहार करने वाले । (र) सूर्य की मातापना लेने वाले। (ल) कष्ट सह कर शरीर को पत्थर जैसा कठोर बनाने वाले । (व) पंचाग्नि तापने वाले। (श) गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने वाले। तापसों के वे विभिन्न रूप उस समय की साधना-प्रणालियों की विविधता के द्योतक हैं । साधारणतः इनमें से कुछ का झुकाव हठयोग या काय-क्लेश मूलक तप की मोर अधिक प्रतीत होता है। इन साधनाओं का सांगोपांग रूप क्या था, इनका किन दार्शनिक परम्पराओं या धर्म-सम्प्रदायों से सम्बन्ध था, उन दिनों भारत में उस प्रकार के उनसे भिन्न और भी साधना-क्रम थे क्या, उनके पीछे तत्व-चिन्तन की क्या पृष्ठ-भूमि थी, इत्यादि विषयों के अध्ययन की दृष्टि से ये सूचनाएं उपयोगी हैं। ११ पुष्फला ( पुष्पचूला ) १. श्रीदेवी-अध्ययन, २. ह्रीदेवी-अध्ययन, ३. धृतिदेवी-अध्ययन, ४. कीर्तिदेवी-मध्ययन ५. बुद्धिदेवी-अध्ययन ६. लक्ष्मीदेवी-अध्ययन ७. इलादेवी-अध्ययन, ८. सुरादेवी-अध्ययन, 2010_05 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ]- आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४५ ९. रसदेवी-अध्ययन, १०. गन्धदेवी-अध्ययन ; ये दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन, में श्रीदेवी का वर्णन है। वह देवी, देवी-वैभव, समृद्धि तथा सज्जा के साथ अपने विमान द्वारा भगवान् महावीर के दर्शन के लिए पाती है। गणधर गौतम भगवान् महावीर से उसका पूर्व भव पूछते हैं। भगवान् उसे बतलाते हैं । इस प्रकार श्रीदेवी के पूर्व जन्म का कथानक उपस्थित किया जाता है। दूसरे से दसवें तक के अध्ययन केवल संकेत मात्र हैं, जो इस प्रकार हैं : “जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में श्रीदेवी का वृत्तान्त वणित हुआ है, उसी प्रकार अवशिष्ट नौ देवियों का समझ लें । उन देवियों के विमानों के नाम उनके अपने-अपने नामों के अनुसार हैं। सभी सौधर्म-कल्प में निवास करने वाली हैं। पूर्व भव के नगर, चैत्य, माता-पिता, उनके अपने नाम संप्राहिणी गाथा' के अनुसार हैं । अपने पूर्व-भव में वे सभी भगवान् पार्श्व के सम्पर्क में आई, पुष्पचूला आर्या को शिष्याएं हुई। सभी शरीर प्रादि का विशेष प्रक्षालन करती थीं, शौच-प्रधान थीं। सभी देवलोक से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगी। इस प्रकार पुष्पचूला का समापन हुआ।"2 १२. वहिनदशा ( वृष्णिदशा ) নাম नन्दी-चूरिण के अनुसार इस उपांग का पूरा नाम अन्धक-वृष्णि दशा था। अन्धक शब्द काल-क्रम से लुप्त हो गया, केवल वष्णि-दशा बचा रहा । अब यह उपांग इसी नाम से प्रसिद्ध है। इसमें बारह अध्ययन हैं, जिनमें वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन है। उन्हीं राजकुमारों के नाम से वे अध्ययन हैं : १. निषधकुमार-अध्ययन २. अनीककुमार-अध्ययन, ३. प्रह्वकुमार-अध्ययन, ४. वेधकुमार-अध्ययन, ५. प्रगतिकुमार-अध्ययन, ६. मुक्तिकुमार-अध्ययन, ७. दशरथकुमार-अध्ययन, ८. दृढ़रथकुमार-अध्ययन, ९. महाधनुष्कुमार-अध्ययन, १०. सप्तधनुष्कुमार-अध्ययन, तथा ११. दशधनुष्कुमार-अध्ययन, तथा १२. शतधनुष्कुमार-अध्ययन । १. संग्राहिणी गाथा, जिसमें पूर्व-भव के नगर, नाम, माता-पिता आदि का उल्लेख रहता है, विच्छिन्न प्रतीत होती हैं। २. एवं सेसाण वि णावण्हं भरिणयब्वं, सरिसरणामा विमारणा, सोहम्मे कप्पे । पुष्वभवे नगरे चेइय पियमाईणं अप्पणो या नामइ जहा संगहरणीए । सव्वा पासस्स अंतिगं निक्खंताओ, पुप्फचूलारणं सिसिरणीयाओ सरीरपाउसिरणीयाओ सच्चाओ अवंतरं चहचइत्ता महाविदेहेवासे सिज्ज्ञिहिं ति । एवं खलु निक्खेवओ। पुप्फचूलाओ सम्मत्ताओ। -पुप्फचूला, अन्तिम अंश 2010_05 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ विषय-वस्तु प्रथम अध्ययन में बलदेव और रेवती के पुत्र निषधकुमार के उत्पन्न होने, बड़े होने, श्रमणोपासक बनने तथा भगवान् अरिष्टनेमि से श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण करने आदि का वर्णन है। उसके विगत भव तथा भविष्यमाण दो भवों व अन्ततः (दूसरे भव के अन्त में) महाविदेह क्षेत्र में सिद्धत्व प्राप्त करने का भी वर्णन है । यद्यपि इस अध्ययन में वासुदेव कृष्ण का वर्णन प्रसंगोपात्त है, पर, वह महत्वपूर्ण है। वासुदेव कृष्ण के प्रभुत्व, वैभव, सैन्य, समृद्धि, गरिमा, सज्जा आदि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। वृष्णिवंश या यादव कुल के राज्य, यादववंश का वैपुल्य, आज के सौराष्ट्र के प्रागितिहासकालीन विवरण आदि के अध्ययन की दृष्टि से इस उपांग का यह भाग उपयोगी है। अन्य ग्यारह अध्ययन केवल सूचना मात्र हैं। जैसे- "इसी प्रकार (प्रथम की तरह) अवशिष्ट ग्यारह अध्ययन समझने चाहिए। पूर्व भव के नाम आदि संग्रहणी गाथा से ज्ञातव्य है । इन ग्यारह कुमारों का वर्णन निषधकुमार के वर्णन से न न्यून है और न अधिक । इस प्रकार वृष्णिदशा का समापन हुआ।" 1 एक महत्वपूर्ण सूचना वृष्णि-दशा के समाप्त होने का कथन करने के अनन्तर अन्त में इन शब्दों द्वारा एक और सूचन किया गया है : “निरयावलिका श्रुत स्कन्ध समाप्त हुआ। उपांग समाप्त हुए । निरयावलिका उपांग का एक ही श्रुत-स्कन्ध है। उसके पांच वर्ग हैं। वे पांच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं। पहले से चौथे तक के वर्गों में दश दश अध्ययन हैं और पाचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ।" 2 इस उल्लेख से बहुत स्पष्ट है, वर्तमान में पृथक्-पृथक् पांच गिने जाने वाले निरयावलिका (कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूला तथा वृष्णिदशा ) ये उपांग कभी एक ही ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित थे। १. एवं सेसा वि एकारस अज्जयणा नेयव्वा। संगहणी अणुसारेणं अहीणमहरित एक्कारस सु वि। इति वण्हिदसा सम्मत्तं । -वृष्णिवशा सूत्र, अन्तिम अंश । २. निरवालिया सुयखंधो सम्मतो। सम्मतारिण य उवंगाणि । निरयावलि उवंगेणं एगो सुयखंधो पंच वग्गा पंचसु दिवसेसु उद्दिसति। तत्थ सुवयसु दस उद्द सग्ग, पंचसवग्गे बारस उद्दसगा। निरयावलि सुयखंधो सम्मतो।। -निरयावलिया, (वहि नदसा), अन्तिम भाग ____ 2010_05 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४७ छेद-सूत्र बौद्ध वाङमय में विनय पिटक की जो स्थिति है, जैन वाङमय में छेद-सूत्रों की लगभग उसी प्रकार की स्थिति है। इनमें जैन श्रमणों तथा श्रमणियों के जीवन से सम्बद्ध आचार-विषयक नियमों का विश्लेषण है, जो भगवान् महावीर द्वारा निरूपित किये गये थे तथा प्रागे भी समय-समय पर उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में निर्धारित होते गये थे। नियम-भंग हो जाने पर साधु-साध्वियों द्वारा अनुसरणीय अनेक प्रायश्चित्त विधियों का इनमें विशेषतः विश्लेषण है। श्रमण-जीवन की पवित्रता को बनाये रखने की दृष्टि से छेद-सूत्रों का विशेष महत्व स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि इन्हें उत्तम श्रुत कहा गया है। भिक्षु-जीवन के सम्यक् संचालन के हेतु छेद-सूत्रों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक समझा गया है। प्राचार्य, उपाध्याय जैसे महत्वपूर्ण पदों के अधिकारी छेद-सूत्रों के मर्म-वेत्ता हों, ऐसा अपेक्षित माना जाता रहा है। कहा गया है, कोई भी प्राचार्य छेद-सूत्रों के गम्भीर अध्ययन के बिना अपने श्रमण-समुदाय को लेकर ग्रामानुग्राम विहार नहीं कर सकता। निशीथ-भाष्य में बतलाया गया है कि छेद-सूत्र अईत्-प्रवचन का रहस्य उद्बोधित करने वाले हैं, गुह्य-गोप्य हैं । वे अल्प सामर्थ्यवान् व्यक्ति को नहीं दिये जा सकते । पूर्ण पात्र ही उनके अधिकारी होते हैं। भाष्यकार का कहना है कि जिस प्रकार अपरिपक्व घट में रखा गया जल घट को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार छेद-सूत्रों में सन्निहित सिद्धान्तों का रहस्य अनधिकारी व्यक्ति के नाश का कारण होता है। विनय-पिटक के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की गुह्यता (गोपनीयता) की चर्चा प्राप्त होती है । मिलिन्व-प्रश्न में उल्लेख है कि विनय-पिटक को छिपाकर रखा जाना चाहिए, जिससे अपयश न हो। कहने का आशय यह है कि प्रायश्चित्त-प्रकरण में भिक्षुओं और भिक्षुणियों द्वारा प्रमाद या भोगाकांक्षा के उभर आने के कारण सेवित उन चारित्रिक दोषों का भी वर्णन है, जिनकी विशुद्धि के लिए अमुक-अमुक प्रायश्चित्त करने होते हैं । जन-साधारण तक उस स्थिति का पहुँचना लाभकर नहीं होता । जो वस्तु-स्थिति के परिपूर्ण ज्ञाता नहीं होते, उनमें इससे श्रमण श्रमरिणयों के प्रति अनेक प्रकार की विचिकित्सा तथा अश्रद्धा का उत्पन्न होना आशंकित है। सम्भवतः इसी कारण गोप्यता का संकेत किया गया प्रतीत होता है। १. निसीह (निशीथ ), २. महा निसीह । महानिशीथ ), ३. ववहार ( व्यवहार ), ४. दसासुयक्खंध ( दशाश्रुतस्कन्ध ), ५. कप्प ( कल्प ), ६. पंच-कप्प अथवा जीयकप्प (पंच कल्प अथवा जीवकल्प ) प्रभृति छः छेद-सूत्र माने गये हैं। 2010_05 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ [ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ १. निसीह (निशीथ) निशीथ शब्द का अर्थ ___ निशीथ शब्द का अर्थ अन्धकार, अप्रकाश या रात्रि है। निशीथभाष्य में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है : "अप्रकाश या अन्धकार लोक में निशीथ शब्द से अभिहित होता है। जो अप्रकाशधर्म-रहस्यभूत या गोपनीय होता है, उसे भी निशीथ कहा गया है ।" । इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रहस्यमय विद्या, मन्त्र, तन्त्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धिवाले व्यक्तियों को नहीं बताये जा सकते अर्थात् उनसे उन्हें छिपा कर या गोप्य रखा जाता है, उसी प्रकार निशीथ सूत्र भी गोप्य है-हर किसी के समक्ष उद्घाट्य नहीं है । स्वरुप : विषय निशोथ आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध से सम्बद्ध माना जाता है। इसे आचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध की पंचम चूला के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसे निशीथ-चूलाअध्ययन कहा जाता है। निशीश को आचार-प्रकल्प के नाम से भी अभिहित किया गया है। निशीथ सूत्र में साधुओं और साध्वियों के प्राचार से सम्बद्ध उत्सर्ग-विधि तथा अपवाद-विधि का विवेचन है एवं उनमें स्खलना होने पर आचरणीय प्रायश्चित्तों का विवेचन है। इस सन्दर्भ में वहाँ बहुत सूक्ष्म विश्लेषण हुअा है, जो अपने संयमजीवितव्य का सम्यक् निर्वाह करने की भावना वाले प्रत्येक निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थिनी के लिए पठनीय है। ऐसी मान्यता है कि यदि साधु निशीथ सूत्र विस्मृत कर दें तो यावज्जीवन प्राचार्य-पद का अधिकारी नहीं हो सकता । रचना : रचनाकार निशीथ सूत्र की रचना कब हुई, किसके द्वारा हुई, यह निर्विवाद नहीं है। बहुत पहले से इस सम्बन्ध में मत-भेद चले आ रहें हैं । निशीथ भाष्यकार का अभिमत है कि पूर्वधारी श्रमणों द्वारा इसकी रचना की गयी। अर्थात् यह पूर्व-ज्ञान के प्राधार पर निबद्ध है। इसका और अधिक स्पष्ट रूप इस प्रकार माना जाता है कि नवम प्रत्याख्यान पूर्व के माचार-संज्ञक तृतीय अधिकार के बीसवें प्राभृत के प्राधार पर यह (निशीथ सूत्र ) रचा गया। १. जं होति अप्पगासं, तं तु निसीहं ति लोगसंसिद्धां। ज अप्पगासधम्म अण्णं पि तयं निसीधति। -- गाथा ६९ । ____ 2010_05 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४९ चूरिणका र जिनदास महत्तर का मन्तव्य है कि विसाहगणि ( विशाख गणि ) महत्तर ने इसकी रचना की, जिसका उद्देश्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों का हित-साधन था। पंचकल्प चूरिण में बताया गया है कि प्राचार्य भद्रबाहु निशीथ सूत्र के रचयिता थे। निशी -सूत्र में बीस उद्देशक हैं । प्रत्येक उद्देशक भिन्न-भिन्न संख्यक सूत्रों में विभक्त है। व्याख्या-साहित्य __निशीथ के सूत्रों पर नियुक्ति की रचना हुई। परम्परा से आचार्य भद्रबाहु नियुक्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । सूत्र एवं नियुक्ति के विश्लेषण हेतु संघदास गरिण ने भाष्य की रचना की। सूत्र, नियुक्ति और भाष्य पर जिनदास महत्तर ने विशेष चूणि को रचना की, जो अत्यन्त सार-गभित है। प्रद्य म्न सूरि के शिष्य द्वारा इस पर अवचूरिण की भी रचना की गयी। इस पर वृहद् भाष्य भी रचा गया, पर, वह प्राज प्राप्त नहीं है। सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा द्वारा निशीथ सूत्र का भाष्य एवं चूणि के साथ चार भागों में प्रकाशन हुआ है, जिसका सम्पादन सुप्रसिद्ध विद्वान् उपाध्यायश्री अमरमुनिजी तथा मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' द्वारा किया गया है। २. महानिसीह ( महानिशीथ ) महानिशीथ को समग्र प्रात् प्रवचन का सार बताया गया है। पर, वस्तुतः जो मूल रूप में महा-निशीथ था, वह यथावत् नहीं रह सका। कहा जाता है कि उसके पन्ने नष्टभ्रष्ट हो गये, उन्हें दीमक खा गये। तत्पश्चात् प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने उसका पुनः परिष्कार या संशोधन किया और उसे एक स्वरूप प्रदान किया। ऐसा माना जाता है कि वृद्धवादी, सिद्धसेन, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र तथा जिनदास गणि प्रभृति प्राचार्यों ने उसे समादृत किया। वह प्रवर्तित हुआ। साधारणतया निशीथ को लघु निशोथ और इसे महानिशीथ कहा जाता है। पर, वास्तव में ऐसा घटित नहीं होता; क्योंकि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महानिशीथ का वास्तविक रूप विद्यमान नहीं है। कलेवर : विषय-वस्तु महानिशीथ छः अध्ययनों तथा दो चूलाओं में विभक्त है । प्रथम अध्ययन का नाम शल्योद्धरण है। इसमें पाप रूप शल्य की निन्दा और पालोचना के सन्दर्भ में अठारह पाप-स्थानकों की चर्चा है। द्वितीय अध्ययन में कर्मों के विपाक तथा ताप-कर्मों की मालोचना की विधेयता का वर्णन है। तृतीय और चतुर्थ अध्ययन में कुत्सित शील या प्राचरण वाले साधुओं का संसर्ग न किये जाने के सम्बन्ध में उपदेश हैं । प्रसंगोपात्ततया ग्रहां नवकार मन्त्र की भी चर्चा है और बताया गया है कि आर्य वज्र ने नवकार मन्त्र का 2010_05 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । २ उद्धार किया और इसे मूल सूत्र में स्थान दिया । नवनीतसार संज्ञक पंचम अध्ययन में गुरु-शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन है । उस प्रसग में गच्छ का भी वर्णन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि गच्छाचार नामक प्रकीर्णक की रचना इसी के आधार पर हुई। षष्ठ अध्ययन में पालोचना तथा प्रायश्चित्त के क्रमशः दश और चार भेदों का वर्णन है। पति की मृत्यु पर स्त्री के सती होने तथा यदि कोई राजा निष्पुत्र मर जाए, तो उसकी विधवा कन्या को राज्य-सिंहासनासीन किये जाने का यहां उल्लेख है। ऐतिहासिकता इस सूत्र की भाषा तथा विषय के स्वरूप को देखते हुए इसकी गणना प्राचीन भागमों में किया जाना समीचीन नहीं लगता। इसमें तन्त्र सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होते हैं। जैन प्रागमों के अतिरिक्त इतर ग्रन्थों का भी इसमें उल्लेख है। अन्य भी ऐसे अनेक पहलू हैं, जिनसे यह सम्भावना पुष्ट होती है कि यह सूत्र अर्वाचीन है । ३. ववहार ( व्यवहार) श्रुत-वाङमय में व्यवहार सूत्र का बहुत बड़ा महत्व है। यहां तक कि इसे द्वादशांग का नवनीत कहा गया है। यद्यपि संख्या में छेद-सूत्र छः हैं, पर, वस्तुत: उनमें विषय, सामग्री, रचना प्रादि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण तीन ही हैं जिनमें व्यवहार सूत्र मुख्य है । अवशिष्ट दो निशीथ और वृहत्कल्प हैं । कलेवर : विषय-वस्तु . इसमें दश उद्देशक हैं, जो सूत्रों में विभक्त हैं। कलेवर में यह श्र त-ग्रन्थ निशीथ से छोटा और वृहत कल्प से बड़ा है। भिक्षुषों, भिक्षुणियों द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में प्राचरित दोषों या सवलनानों की शुद्धि या प्रतिकार के लिए प्रायश्चित्त, पालोचना प्रादि का यहां बहुत मार्मिक वर्णन है। उदाहरणार्थ, प्रथम उद्देशक में एक प्रसंग है । यदि एक साधु अपने गण से पृथक् होकर एकाकी विहार करने लगे और फिर यदि अपने गरण में पुनः समाविष्ट होना चाहे, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह उस गण के प्राचार्य, उपाध्याय आदि के समक्ष अपनी गर्दा, निन्दा, आलोचना-पूर्वक प्रायश्चित्त अगीकार कर प्रात्म-मार्जन करे। यदि प्राचार्य या उपाध्याय न मिले, तो साम्भोगिक, विद्यागमी साधुओं के समक्ष ऐसा करे। यदि वह भी न मिले, तो सूत्रकार ने अन्य साम्भोगिक १. यहां यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर आम्नाय में नवकार मन्त्र के विषय में भिन्नमा यता है। षट्खण्डागम के धवला टीकाकार वीरसेन का अमिमत है कि आचार्य पुष्पदन्त- नवकार मन्त्र के स्रष्टा हैं। ____ 2010_05 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५१ इतर सम्प्रदाय के विद्यागमी साधु के समक्ष वैसा करने का विधान किया है। उसके भी न मिलने पर सूत्रकार ने अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के विकल उपस्थित किये हैं, जिनके साक्ष्य से पालोचना, निन्दा, गर्दा द्वारा अन्त: परिष्कार कर प्रायश्चित्त किया जाए। यदि वैसा कोई भी न मिल पाए, तो सूत्रकार का निर्देश है कि ग्राम, नगरं, निगम, राजधानी खेड़, कर्पट, मडम्ब, पट्टण, द्रोणमुख आदि के पूर्व या उत्तर दिशा में स्थित हो, अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रख इस प्रकार कहते हुए आत्म-पर्यालोचन करे कि मैंने अपराध किये है, मैं साधुत्व में अपराधी-दोषी बना हूँ। मैं अर्हतों और मिद्धों के साक्ष्य से आलोचना करता हूँ। प्रात्म-प्रतिक्रान्त होता हूं, प्रात्म-निन्दा तथा गर्दा करता हूँ, प्राय-. श्चित्त स्वीकार करता हूँ। प्रात्म-परिष्कृति या अन्तःशोधन की यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो श्रामण्य के शुद्धनिर्वहन में निःसन्देह उद्बोधक तथा उत्प्रेरक है। व्यवहार-सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग हैं, जिनका श्रमण-जीवन एवं श्रमण-संघ के व्यवस्था-क्रम, समीचीनतया संचालन तथा पावित्र्य की दृष्टि से बड़ा महत्व है। ব্যান প্ৰথ পথে সব पायश्चित्तों के विश्लेषण की दृष्टि से दूसरा उद्देश्य भी विशेष महत्वपूर्ण है। अनवस्थाप्य, पारंचिक आदि प्रायश्चित्तों के सन्दर्भ में इस में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन हुमा है। एक स्थान पर वर्णन है - ''जो साधु रोगाक्रान्त है, वायु आदि के प्रकोप से जिसका चित्त विक्षिप्त है, कारण-विशेष ( कन्दर्पोद्भव आदि ) से जिसके चित्त में वैकल्प है, यक्ष आदि के प्रावेश के कारण जो ग्लान है, शैव्य आदि से अत्याक्रान्त है, जो उन्माद-प्राप्त है, जो देवकृत उपसर्ग से ग्रस्त होने के कारण अस्त-व्यस्त है, क्रोध आदि कषाय के तीव्र प्रावेश के कारण जिसका चित्त अस्थिर एवं ग्लान है, अधिक प्रायश्चित्त की प्राशंका से जिसका चित्त खिन्न है, उसको-उन सबको जब तक वे स्वस्थ न हो जाए, तब तक उन्हें गण से बहिष्कृत करना प्रकल्प्य है।" इस प्रकार के और भी अनेक प्रसंग हैं । ___ गण-धारकता के लिए अपेक्षित स्थितियां, विहार-चर्या के विधि-निषेध, पदासीनता, भिक्षा-चर्या, सम्भोग-विसम्भोग का विधिक्रम, स्वाध्याय के सम्बन्ध में सूचना आदि अनेक विवरण हैं, जो श्रमण-जीवन के सर्वागीण अध्ययन एवं अनुशीलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। ___ सातवां उद्देशक साधुओं और साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से अध्येतव्य है। वहां उल्लेख है कि तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय वाला अर्थात् जिसे प्रव्रजित हुए केवल तीन वर्ष हुए हैं, वैसा साधु उस साध्वी को, जिसे दीक्षा ग्रहण किये तीस वर्ष हो गये हैं, उपाध्याय के रूप में प्रादेश-उपदेश दे सकता है। इसी प्रकार केवल पांच वर्ष का दीक्षित ____ 2010_05 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] : एक अनुशीलन आगम और fafter[ खण्ड : २ साधु साठ वर्ष की दीक्षिता साध्वी को श्राचार्य रूप में उपदेश दे सकता है । ये विधान विनयपिटिक के उस प्रसंग से तुलनीय हैं, जहां सौ वर्ष को उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुणी को भी उसी दिन उपसम्पन्न भिक्षु के प्रति अभिवादन, प्रत्युत्थान, अंजलि प्ररणति श्रादि करने का विधान है । साधुत्रों एवं साध्वियों के आचार-व्यवहार सम्बन्धी तारतम्य और भेदरेखा की दृष्टि से ये प्रसंग विशेष रूप से मननीय एवं समीक्षणीय हैं। नवम उद्दे शक में साधु की प्रतिमाओं तथा अभिग्रह का और दशम अध्ययन में यवमध्यचन्द्र प्रतिमा, वज्रमध्य-चन्द्र प्रतिमा आदि का वर्णन है । दशम अध्ययन में शास्त्राध्ययन की मर्यादा एवं नियमानुक्रम का विवेचन है, जो प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए ज्ञातव्य है । उसके अनुसार निम्नांकित दीक्षा - पर्याय - सम्पन्न साधु निम्नांकित रूप में शास्त्राध्ययन का अधिकारी है : दीक्ष-पर्याय तीन वर्ष चार वर्ष पांच वर्ष आठ वर्ष दश वर्ष ग्वारह वर्ष बारह वर्ष तेरह वर्ष चौदह वर्ष पन्द्रह वर्ष सोलह वर्ष सतरह वर्ष अठारह वर्ष उन्नीस पर्ष बीस वर्ष 2010_05 शास्त्र आचार-कल्प सूत्रकृतांग दशा तस्कन्ध, कल्प और व्यवहार स्थानांग, समवायांग व्याख्या - प्रज्ञप्ति क्षुल्लिका -विमान- प्रविभक्ति, महती विमान -प्रविभक्ति अंगचूलिका, वंग ( वर्ग ) - चूलिका एवं व्याख्या - चूलिका अरुपपात, गरुडोपपात, वरुणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलघरोपपात । उत्थान-श्रुत, समुत्थान-श्रुत, देवेन्द्रोपपात, नागपरियापनिका स्वप्न- अध्ययन चारण - भावना - श्रध्ययन वेद - निसर्ग आशीविष- भावना - श्रध्ययन दृष्टि-विष- भावना - अंग दृष्टिवाद अंग सभी शास्त्र Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५३ इस उद्देशक में प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर तपस्वी, नव दीक्षित शैक्ष (शिष्य ), वार्धक्य आदि के कारण ग्लान ( श्रमरण ), कुल, गण, संघ तथा सार्मिक ; इन दश के वैयावृत्य-दैहिक सेवा प्रादि का भी उल्लेख है । হানা সহ থাইখাব व्यवहार सूत्र के रचनाकार भाचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है। पर, सूत्रकार तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु एक ही थे, यह विवादास्पद है । बहुत सम्भव है, सूत्र तथा नियुक्ति भिन्नकर्तृक हों; इस नाम के दो भिन्न प्राचार्यों की रचनाए हों। व्यवहार सूत्र पर भाष्य भी उपलब्ध है, पर, नियुक्ति तथा भाष्य परस्पर मिश्रित से हो गये हैं। प्राचार्य मलयगिरि द्वारा भाष्य पर विवरण की रचना की गयी है। व्यवहार सूत्र पर चूरिण और अवचूरि की भी रचना हुई। ऐसा अभिमत है कि इस पर वृहद् भाष्य भी था, पर, वह आज उपलब्ध नहीं है । ४. दसासुयक्खंध (दशाश्रुतस्कन्ध) यह छेद-सूत्रों में चौथा है। इसे दशा, प्राचार-दशा या दशाश्रु त भी कहा जाता है । यह दश भागों में विभक्त है, जिन्हें दशा नाम से अभिहित किया गया है। आठवां भाग अध्ययन नाम से संकेतित है। _प्रथम दशा में असमाधि के बीस स्थानों का वर्णन है। द्वितीय दशा में शबल के इक्कीस स्थानों का विवेचन है। शबल का अर्थ धब्बों वाला, चितकबरा या सदोष है। यहां शबल का प्रयोग दूषित पाचरण-रूप धब्बों के अर्थ में है। तृतीय दशा में प्राशातना के तेतीस प्रकार आदि का उल्लेख है । गाशि-सम्पदा चतुर्थ दशा में गणी या प्राचार्य की पाठ सम्पदाओं का वर्णन है। वे आठ सम्पदाएं इस प्रकार हैं : १. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा. ४. वचनसम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७ प्रयोग-सम्पदा, ८. संग्रह-मम्पदा । प्रत्येक सम्पदा के भेदों का जो वर्णन किया गया है, वह श्रमण-संस्कृति से प्राप्यायित विराट व्यक्तित्व के स्वरूप को जानने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है; अतः उन भेदों का यहां उल्लेख किया जा रहा है। प्राचार-सम्पदा के चार भेद : १. संयम में ध्रुब योगयुक्त होना, २. अहंकाररहित होना, ३. अनियतवृत्ति होना, ४. वृद्धस्वभावी (प्रचंचल स्वभाव वाला) होना। 2010_05 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ श्रुत-सम्पदा के चार भेद : १. बहुश्रु तता, २. परिचितश्र तता, ३. विचित्रश्रुतता, ४. घोषविशुद्धिकारकता। शरीर-सम्पदा के चार भेद : १. शरीर की लम्बाई-चौड़ाई का सम्यक् अनुपात, २. अलज्जास्पद शरीर, ३. स्थिर संगठन, ४. प्रतिपूर्णोन्दियता । वचन-सम्पदा के चार भेद : १. आदेय वचन ( ग्रहण करने योग्य वाणी), २. मधुर वचन, ३. अनिश्चित ( प्रतिबन्ध रहित , वचन, ४. असन्दिग्ध वचन । पाचना-सम्पदा के चार भेद : १. विचार पूर्वक वाच्य विषय का उद्देश-निर्देश करना, २. विचार पूर्वक वाचना करना, ३. उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, ४. अर्थ का सुनिश्चित निरुपण करना । मति-सम्पदा के चार भेद : १. अवग्रह-मति-सम्पदा, २. ईहा-मति-सम्पदा, ३. प्रवाय-मति-सम्पदा, ४ धारण-मति-सम्पदा । प्रयोग-सम्पदा के चार भेद : १. अात्म-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग, २. परिषद्ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग ३. क्षेत्र-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग, ४ वस्तु-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग ! संग्रह-सम्पदा के चार भेद : १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के निवास के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मुनियों के लिए प्रातिहारिक पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्वा करना, ३. नियत समय पर प्रत्येक कार्य करना, ४. अपने से बड़ों की पूजा-प्रतिष्ठा करना । पंचम दशा में चित्त-समाधि-स्थान तथा उसके दश भेदों का वर्णन है। षष्ठ दशा में उपासक या श्रावक की दश प्रतिमाओं का निरूपण है। उस सन्दर्भ में सूत्रकार ने मिथ्यात्व-प्रसूत अक्रियावाद तथा प्रारम्भ-समारम्भ-मूलक क्रियावाद का विस्तार से विश्लेषण करते हुए द्रोह, राग, मोह, प्रासक्ति, वैमनस्य तथा भोगषणा, लौकिक सुख, लोकषणा-लोक-प्रशस्ति प्रादि से उद्भूत अनेकानेक पाप-कृत्यों का विश्लेषण करते हुए उनके नारकीय फलों का रोमांचक वर्णन किया है। सप्तम दशा में द्वादशविध भिक्षु-प्रतिमा का विवेचन है। जैसे, प्रथम एक मासिक भिक्ष-प्रतिमा में पालनीय प्राचार-नियमों के सन्दर्भ में विहार-प्रवास को उद्दिष्ट कर -बतलाया गया है कि एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा-उपपन्न भिक्षु, जिस क्षेत्र में उसे पहचानने वाले हों, वहां केवल रात्रि-प्रवास कर विहार कर जाए। जहां कोई पहचानने वाला न हो, वहां एक रात, अधिक हो तो दो रात प्रवास कर जाए। ऐसा न करने पर वह भिक्षु दीक्षा-छेद अथवा परिहारिक तप के प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रत्येक प्रतिमा के 2010_05 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी , प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५५ सम्बन्ध में विशद विवेचन किया गया है, जो प्रत्येक संयम एवं तप-रत भिक्षु के लिए परिशीलनीय है। अष्टम अध्ययन में भगवान् महावीर के च्यवन, गर्भ-संहरण. जन्म, दीक्षा, केवल-ज्ञान, मोक्ष प्रादि का वर्णन है। इसे पज्जोसरण-कप्प या कल्प-सूत्र के नाम से भी अभिहित किया जाता है। उस पर अनेक प्राचार्यों की टीकाए है, जिनमें जिनप्रिय, धर्मसागर, विनयविजय, समयसुन्दर. रत्नसागर, संघविजय, लक्ष्मीवल्लभ आदि मुख्य हैं। पर्युषण के दिनों में साधु प्रवचन में इसको पढ़ते हैं। छेद-सूत्रों का परिषद् में पठन न किये जाने की परम्परा रही हैं। क्योंकि उनमें अधिकांशतः साधु-साध्वियों द्वारा जान-अनजान में हुई भूलों, दोषों आदि के सम्मार्जन के विधि-क्रम हैं, जिन्हें विशेषतः उन्हें हो समझना चाहिए, जिनका उनसे सम्बन्ध हो। पर्युषण-कल्प छेद-सूत्र का अंग होते हुए भी एक अपनी भिन्न स्थिति लिये हुए है; अतः उसका पठन अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के इतिहास का अवबोध कराने के हेतु उपयोगी है। किम्वदन्ती है कि विक्रमाब्द ५२३ में प्रानन्दपुर के राजा ध्र वसेन के पुत्र का मरण हो गया। उसे तथा उसके पारिवारिक जनों को शान्ति देने की दृष्टि से तब से इसका व्याख्यान में पठन-क्रम प्रारम्भ हमा। रचनाकार : व्याख्था-साहित्य दशाश्रु तरकन्ध के रचयिता आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है। पर, जैसा कि व्यवहार-सूत्र के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख हुआ है, सूत्र मौर नियुक्ति की एककर्तृव ता सन्दिग्ध है। इस पर रिण की भी रचना हुई। ब्रह्मर्षि पार्श्वचन्द्रीय-प्रणीत वृत्ति भी है। ५. कप्प (कल्प अथवा वृहत्कल्प) दशाश्रु तस्कन्ध के अष्टम अध्ययन के सन्दर्भ में पर्युषण-कल्प की चर्चा की गयी है, उससे यह भिन्न है। इसे कल्पाध्ययन भी कहा जाता है। कल्प या कल्प्य का प्रथं योग्य व विहित है। साधु-साध्वियों के संयम-जीवन के निमित्त जो साधक प्राचरण हैं, वे कल्प या कल्प्य हैं और उसमें बाधा या विघ्न उपस्थित करने वाले जो प्राचरण हैं, वे प्रकल्प या प्रकल्प्य हैं। प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वियों के संयत चर्या के सन्दर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के विषय में विशद विवेचन है। इसे जैन श्रमण-जीवन से प्राचीनतम प्राचार-शास्त्र का महान् ग्रन्थ माना जाता है। निशीथ और व्यवहार की तरह उसका भी भाषा, विषय आदि की दृष्टि से बड़ा महत्व है। इसकी भाषा विशेष प्राचीनता लिये हुए है। पर, टीकाकारों द्वारा यत्र-तत्र परिवर्तन, परिवर्धन आदि किया जाता रहा है, जैसा कि अन्यान्य आगमों में भी हुआ है। 2010_05 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कलेवर : विषय-वस्तु छः उद्देशकों में यह सूत्र विभक्त है। श्रमणों के खान-पान, रहन-सहन, विहार-चर्या आदि के गहन विवेचन की दृष्टि इस में परिलक्षित होनी है। प्रसंगोपात्ततया इसके प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वियों के विहार-त्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें पूर्व में अंग और मगध तक, दक्षिण में कोशाम्बी तक, पश्चिम में थानेश्वर-प्रदेश तक तथा उत्तर-पूर्व में कुणाल-प्रदेश तक विहार करना कल्प्य है। इतना प्रार्य-क्षेत्र है। इससे बाहर विहार कल्प्य नहीं है। इसके अनन्तर कहा गया है कि यदि साध प्रो को अपने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य का विघात न प्रतीत होता हो, लोगों में ज्ञान, दर्शन व चारित्र्य की वृद्धि होने की सम्भावना हो, तो उक्त सीमानों से बाहर भी विहार करना कल्प्य है। तीसरे उद्देशक में साध प्रों और साध्वियों के एक-दूसरे के ठहरने के स्थान में प्रावागमन की मर्यादा, बैठने, सोने, पाहार करने, स्वाध्याय करने, ध्यान करने आदि नेषध प्रभृति का वर्णन है। श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार करने के समय उपकरण-ग्रहण का विधान, वर्षा-काल के चार तथा अवशिष्ट प्राठ मास में वस्त्र-व्यवहार प्रादि और भी अनेक ऐसे विषय इस उद्देशक में व्याख्यात हुए हैं, जो सतत जागरूक तथा संयम-रत जीवन के सम्यक निर्वाह की प्रेरणा देते हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्राचार-विधि तथा प्रायश्चित्तों का विश्लेषण है। उस सन्दर्भ में अनुद्धातिक, पारंचिक तथा अनवस्थाप्य आदि की चर्चा है । রূন পত্রণুথ ওর __ प्रासंगिक रूप में चतुर्थ उद्देशक में उल्लेख हुआ है कि गंगा, यमुना, सरयू, कोसी और मही नामक जो बड़ी नदियां हैं. उनमें से किसी भी नदी को एक मास में एक बार से अधिक पार करना साधु -साध्वी के लिए कल्प्य नहीं है। साथ-ही-साथ वहां ऐसा भी कहा गया है : "जैसे, कुणाला में एरावती नदी है। वह कम जल वाली हैं। प्रतः एक पैर को पानी के भीतर और दूसरे को पानी के ऊपर करते हए पानी देख-देख कर (नितार-नितार कर ) उसे पार किया जा सकता है। उसे एक मास में दो बार, तीन बार पार करना भी कल्प्य है। पर, जहां जल की अधिकता के कारण वैसा करना शक्य महीं है, वहां एक बार से अधिक पार करना अकल्प्य है। ___ छठे उद्देशक में एक प्रसंग में कहा गया है कि किसी साधु के पांव में कीला, कांटा, काच का तीखा टुकडा गड़ जाए. साध उसे स्वयं निकालने में सक्षम न हो, निकालने वाला अन्य साधु भी पास में न हो, तो यदि साध्वी उसे शुद्ध भाव पूर्वक निकाले, तो वह ____ 2010_05 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहिल्य] आर्ष-(अदमागधी) प्राकृत और मागम पारमय [४५७ तीर्थकर की प्राशा का अतिक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार साधु की मांख में कोई जीव-भुनगा, बीज, रज-कण प्रादि पड़ जाए, उसे वह स्वयं न निकाल सके और न वैसा कर सकने वाला कोई दूसरा साधु पास में हो, तो साध्वी शुद्ध भाव से वैसा करती हुई तीर्थकर की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करती। साध्वी की भी वैसी ही स्थिति हो, जैसी साधु की पतलाई गयी है, तो साधु शुद्ध भाव से साध्वी के पैर से कील, कांटा, काच का टुकड़ा आदि निकाल सकता है । पाख में से कीटाणु, बीज, रज-कण भादि हटा सकता है। वैसा करता हुआ वह तीर्थकर की आज्ञा की विराधना नहीं करता। एक और प्रसंग है, जिसमें बतलाया गया है कि यदि कोई साध्वी किसी दुर्गम स्थान सै, विषम स्थान से, पर्वत से स्खलित हो रही हो, गिर रहा हो; उसे बचा सके, बंसी कोई दूसरी साध्वी उसके पास न हो तो साधु यहि उसे पकड़ कर, सहारा देकर बचाए, तो वह तीर्थकर की आशा का अतिक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार यदि कोई साधु नदी में, जलाशय मैं, कीचड़ में फंसी साध्वी को पकड़ कर निकाल दे, तो वह तीर्थकर की प्राशा का उल्लंघन नहीं करता। इसी प्रकार नौका में चढ़ते-उतरते समय साध्वी के लड़खड़ा जाने, पड़ने लगने, वात आदि दोष से विक्षित हो जाने के कारण अपने को न सम्हाल पाने, हर्षातिरेक या शोकातिरेक से गुस्त-चित्त हो कर प्रात्म-धात आदि के लिए उद्यत होने, यक्ष, भूत, प्रेत आदि से आविष्ट हो जाने के कारण अस्त-व्यस्त दशा में हो जाने जैसे अनेक प्रसंग उपस्थित करते हुए सूत्रकार ने निर्दिष्ट किया है कि उक्त स्थिति में साधु साध्वी को पकड़ कर बघा सकता है। वैसा करने में उसे कोई दोष नहीं आता। स्पष्ट है कि सूत्रकार ने इन प्रसंगों से श्रमण-जीवन के विविध पहलुओं को सूक्ष्मता से परखते हुए एक व्यवस्था निर्देशित की है, जो श्रामण्य के शुद्धिपूर्वक निर्वहण-हेतु अपेक्षित एवं उपयुक्त सुविधाओं की पूरक है। रचना wa व्याख्या-साहित्य कल्प या वृहत्कल्प के रचनाकार आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि प्रत्याख्यान संज्ञक नवम पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभृत के प्रायश्चित्त-सम्बन्धी विवेचन के प्राधार पर इसकी रचना की गयी । पूर्ष-शान की परम्परा उस समय अस्तोन्मुख थी; अतः प्रायश्चित्त-विधान, जिन्हें प्रत्येक श्रमण 2010_05 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन श्रमणी को भलीभांति जानना चाहिए, कहीं उच्छिन्न या लुप्त न हो जाए, एतदर्थ आचार्य भद्रबाहु ने व्यवहार सूत्र और कल्प-सूत्र रचे । कल्प पर भद्रबाहुकृत नियुक्ति भी है, जिसकी कर्तृ'कता असन्दिग्ध नहीं है। इस पर संघदास गणी ने लघु भाष्य की रचना की। मलयगिरि ने उल्लेख किया है कि प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति तथा संघदास गणी का भाष्य; दोनों इस प्रकार परस्पर विमिश्रित जैसे हो गये हैं कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् स्थापित करना असम्भव जैसा है । भाष्य पर प्राचार्य मलयगिरि ने विवरण की रचना की। पर, वह रचना पूर्ण नहीं थी। लगभग दो शताब्दियों के पश्चात् क्षेमकीर्ति सूरि ने उसे पूरा किया। वृहत्कल्प पर वृहद् भाष्य भी है, वह पूर्ण नहीं है, केवल तृतीय उद्देशक तक ही प्राप्य है। इस पर विशेष चूणि की भी रचना हुई। ६. पंचकप्प (पंच-कल्प) पंचकल्प सूत्र और पंचकल्प-भाष्य; ये दो नाम प्रचलित हैं, जिनसे सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ये दो ग्रन्थ हों। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। नाम दो हैं, ग्रन्थ एक । मलयगिरि और क्षेमकीति के अनुसार पंचका भाष्प वस्तुतः वृहत्कल्प-भाष्य का ही एक अंश है। इसकी वैसी ही स्थिति है, जैसी पिण्ड-नियुक्ति और औघ-नियुक्ति की है । पिण्ड-नियुक्ति कोई मूलतः पृथक् ग्रन्थ नहीं है, वह दशवकालिक नियुक्ति का ही भाग है। उसी प्रकार औध-नियुक्ति भी स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर आवश्यक-नियुक्ति का ही भाग है। विषय-विशेष से सम्बद्ध होने के कारण पाठकों की सुविधा की दृष्टि से उन्हें पृथक्-पृथक् कर दिया गया है। वृहत्कल्प-भाष्य का अंश होने के नाते पंचकल्प सूत्र या पंचकल्प-भाष्य संघदास गणी द्वारा रचित ही माना जाना चाहिए । इस पर चूणि की भी रचना हुई। जीयकप्पसुत्त (जीतकल्प-सूत्र) जीन, जोय या जीत का अर्थ परम्परागत से आगत आचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज आदि है । इस सूत्र में जैन. A पाइअ-सह-महण्णदो, पृ० ३५८ ____ 2010_05 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अदमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [४५९. धमणों के सन्दर्भ में प्रायश्चित्तों का विधान है। इस सूत्र में एक सौ तीन गाथाएं हैं । इसमें प्रायश्चित्त का महत्व, आत्म-शुद्धि या अन्तः-परिष्कार में उसकी उपादेयता आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। प्रायश्चित्त के दश भेदों का वहां विवेचन है : १. प्रालीचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र-आलोचना-प्रतिक्रमण, ४. विषेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अमवस्थाप्य, १०. पारंचिक । ऐसी मान्यता है कि प्राचार्य भद्रबाहु के अनन्तर अन्तिम दो अनवस्थाप्य और पारंचिक नामक प्रायश्चित्त व्युच्छन्न हो गये। Pear: rear-साहित्य सुप्रसिद्ध जैन लेखक, विशेषावश्यक-भाज्य जैसे महान् ग्रन्थ के प्रणेता जिनभद्रगणी भमाश्रमण (सप्तम वि. शती) इस सूत्र के रचयिता माने जाते हैं । क्षमाश्रमण इसके भाष्यकार भी कहे जाते हैं, पर, वह भाष्य वस्तुतः कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न हो कर बृहत्कल्प-भाव्य, व्यवहार-भाष्य, पंचकल्प-भाष्य, तथा पिण्ड-नियुक्ति प्रभृति ग्रन्थों की विषयानुरूप भिन्नभिन्न गाथाओं का संकलन मात्र है। आचार्य सिद्धसेन ने इस ग्रन्थ पर चूणि की रचना की। श्रीचन्द्र सूरि (१२२८ विक्रमाब्द में) उस (चूरिण) पर विषम-पद-व्याख्या नामक टीका की रचना की। श्रीतिलकाचार्यप्रणीत वृत्ति भी इस पर है। यति-जीतकल्प और भार-जीतकम्प नामक ग्रन्थ भी जोतकल्पसूत्र से ही सम्बद्ध या तद् विषयान्तर्गत माने जाते हैं । यति-जीतकल्प में यतियों या साघुओं के आचार का वर्णन है और श्राद्ध-जीतकल्प में श्राद्ध-श्रमणोपासक या श्रावक के प्राचार का विवेचन है। यति-जीतकल्प की रचना सोमप्रभसरि ने की। साधुरत्न ने उस पर वृत्ति लिखी। प्राद-जीतकल्प की रचना धर्मघोष द्वारा की गयी । उस पर सोमतिलक ने वृत्ति की रचना की। मूल सूत्र उत्तराध्ययन, दशवकालिक, आवश्यक, पिण्ड-नियुक्ति तथा ओघ-नियुक्ति को सामान्यतः मूल सूत्रों के नाम से अभिहित किया जाता है । यह सर्वसम्मत तथ्य नहीं है। कुछ विद्वान् उत्तराध्ययन, दशर्वकालिक तथा आवश्यक; इन तीन को ही मूल सूत्रों में गिनते हैं । वे पिण्ड-नियुक्ति तथा ओघ-नियुक्ति को मूल सूत्रों में समाविष्ट नहीं करते । जैसा कि पहले इंगित किया गया है, पिण्ड-नियुक्ति दशवकालिक नियुक्ति का तथा ओघ-नियुक्ति आवश्यक-नियुक्ति का अंश है । कतिपय विद्वान् उक्त तीन मूल सूत्रों में पिण्ड-नियुक्ति को सम्मिलित कर उनकी संख्या चार मानते हैं । कुछ के अनुसार, जैसा कि प्रारम्भ में सूचित 2010_05 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खम:२ किया गया है, मोघ-नियुक्ति सहित वे पांच हैं। कतिपय विद्वान् उपर्युक्त तीन में से आवश्यक को हटा कर तथा अनुयोगद्वार व नन्दी को उनमें सम्मिलित कर; चार की संख्या पूरी करते हैं। कुछ लोग पविख्य सुत (पाक्षिक सूत्र) का भी इनके साथ नाम ले संयोजित करते हैं। महत्व मूल सूत्रों में वस्तुतः उत्तराध्ययन और दशवकालिक का जैन वाङमय में बहुत बड़ा महत्व है । विद्वान् इन्हें जैन आगम-वाङ् मय के प्राचीनतम सूत्रों में गिनते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इनकी प्राचीनता अक्षुण्ण है। विषय-विवेचन की अपेक्षा से ये बड़े समृद्ध हैं। ये सुत्तनिपात व धम्मपद जैसे सुप्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थों से तुलनीय हैं। जैन दर्शन, आचारविज्ञान तथा तत्सम्मत जीवन के विश्लेषण की दृष्टि से अध्येताओं और अन्वेष्टाओं के लिए ये ग्रन्थ विशेष रूप से परिशीलनीय हैं। মূল : নাসহথা ? ? मूल-सूत्र नाम क्यों और कब प्रचलित हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता। प्राचीन प्रागम-ग्रन्थों में मूल या मूल सूत्रों के नाम से कहीं भी उल्लेख नहीं है । पश्चाद्वर्ती साहित्य में भी सम्भवतः इस नाम का पहला प्रयोग भावदेवमूरि-रचित जैनधर्मवरस्तोत्र के तीसवें श्लोक की टीका में है। वहां “अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति-ओघ-नियुक्तिदवेशकालिक इति चत्वारि मूल सूत्राणि" इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है। প্ৰাহখাতে বিছানা দ্বারা পবিস ২ गहन अध्ययन, तलस्पर्शी अनुसन्धान और गवेषणा की दृष्टि से योरोपीय देशों के कतिपय विद्वानों ने भारतीय वाङमय पर जिस रुचि और अपरित्रान्त अध्यवसाय व लगन के साथ जो कार्य किया है, निःसन्देह वह स्तुत्य है। कार्य किस सीमा तक हो सका, कितना हो सका, उसके निष्कर्ष कितने उपादेय हैं; इत्यादि पहलू तो स्वतन्त्र रूप में चिन्तन और आलोचना के विषय हैं, पर, उनका श्रम, उत्साह और सतत प्रयत्नशीलता भारतीय विद्वानों के लिए भी अनुकरणीय है । जैन वाङमय तथा प्राकृत भाषा के क्षेत्र में जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के विद्वानों ने अधिक कार्य किया है । जैन आगम-साहित्य पर अनुसन्धान कर्ता विद्वानों के प्रस्तुत विषय पर जो भिन्न-भिन्न विचार हैं, उन्हें यहां उपस्थित किया जाता है। 2010_05 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६१ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृति और आगम वाङमय ৮০ সাথে গ্ধা সন ___ जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य-अध्येता प्रो. शन्टियर (Prof. Charpantier) ने उत्तराध्ययन सूत्र की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में जो लिखा है, उसके अनुसार इनका मूल सूत्र नाम पड़ने का कारण इनमें भगवान् महावीर के मूल शब्दों का (Mahavira's own words) का संगृहीत होना है। इसका आशय यह है कि इनमें जो शब्द संकलित हुए हैं, वे स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निःसृत हैं । ও নাং রস পা আসন जैन वाङमय के विख्यात अध्येता जर्मन के विद्वान् डा. वाल्टर शुब्रिग (Dr. Walter Schubring) ने Lax Raligion Dyainal नामक (जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि मूल सूत्र नाम इसलिए दिया गया प्रतीत होता है कि साधुओं और साध्वियों के साधनामय जीवन के मूल में-IIII में उनके उपयोग के लिए इनका सर्जन हुआ। সৗ০ গহীনী ধ্বী না ___ जैन शास्त्रों के गहन अनुशीलक इटली के प्रोफेसर गेरीनो (Prof. Guerinot) ने इस सम्बन्ध में एक दूसरी कल्पना की है। वैसा करते समय उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के दो रूप मूल तथा टीका का ध्यान रहा है। अतः उन्होंने मूल का आशय Traites Original से लिया । अर्थात् प्रो. गेरीनो ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग माना; क्योंकि इन ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूणि, टोका, वृत्ति प्रभृति अनेक प्रकार का विपुल व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है। टीका या व्याख्या ग्रन्थों में उस ग्रन्थ को सर्वत्र मूल कहा जाता है, जिसकी वे टीकाएं या व्याख्याएं होती हैं । जैन आगम वाङ्मय-सम्बन्धी प्रन्थों में उत्तराध्ययन और वशवकालिक पर अत्यधिक टीका-व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है। जिनमें प्रो. गेरीनो के अनुसार टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग किया हो । उसी परिपाटी का सम्भवतः यह परिणाम रहा हो कि इन्हें मूल सूत्र कहने की परम्परा प्रारम्भ हो गयी हो। ____ 2010_05 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર समीक्षा पाश्चात्य विद्वानों ने जो कल्पनाएं की हैं, उनके पीछे किसी अपेक्षा का आधार है, पर, समीक्षा की कसौटी पर कसने पर वे सर्वांशतः खरी नहीं उतरतीं। प्रो. शर्पेन्टियर ने भगवान् महावीर के मूल शब्दों के साथ इन्हें जोड़ते हुए जो समाधान उपस्थित किया, उसे उत्तराध्ययन के लिए तो एवं अपेक्षा से संगत माना जा सकता है, पर, दशवेकालिक आदि के साथ उसकी बिलकुल संगति नहीं है । भगवान् महावीर के मूल या साक्षात् वचनों के आधार पर यदि मूल सूत्र नाम पड़ता, तो यह आचारांग, सूत्रकृतांग जैसे महत्वपूर्ण रंग-ग्रन्थों के साथ भी जुड़ता, जिनका भगवान् महावीर की देशना के साथ (गरणधरों के माध्यम से ) सीधा सम्बन्ध माना जाता है । पर वहां ऐसा नहीं है; अतः इस कल्पना में निहित भूल शब्द का वह आशय यथावत् रूप में घटित नहीं होता । आगम और faftee : एके अनुशीलन डा. वाल्टर शुब्रिंग ने श्रमण-जीवन के प्रारम्भ में मूल में पालनीय श्राचारसम्बन्धी नियमों, परम्परायों एवं विधि-विधानों के शिक्षण की दृष्टि से मूल सूत्र नाभ दिये जाने का समाधान प्रस्तुत किया गया है, वह भी मूल सूत्रों के अन्तर्गत माने जाने बाले सब ग्रन्थों पर कहां घटता है । दशवेकालिक की तो लगभग वैसी स्थिति है, पर, अन्यत्र बहुलशितया वैसा नहीं है । उत्तराध्ययन में, जो मूल सूत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, श्रमरण-चर्या से सम्बद्ध नियमोपनियमों तथा विधि-विधानों के अतिरिक्त उनमें जैन धर्म और दर्शन -सम्बन्धी अनेक विषय - व्याख्यात किये गये हैं । अनेक दृष्टान्त, कथानक तथा ऐतिहासिक घटनाक्रम भी उपस्थित किये गये हैं, जो श्रमण-संस्कृति और जैन तत्व-धारा के विविध पहलुओं से जुड़े हुए हैं । इसलिए डा. वाल्टर शुक्रिंग के समाधान को भी एकांगी चिन्तन से अधिक नहीं कहा जा सकता । मूल सूत्रों में जो सन्निहित है, शुबिंग की व्याख्या में वह सम्पूर्णतया अन्तर्भूत नहीं होता । 2010_05 [खण्ड : २ इटालियन विद्वान् प्रो. गेरीनो ने मूल और टीका के आधार पर मूल-सूत्र नाम पड़ने की जो कल्पना की है, वह बहुत स्थूल तथा बहिर्गामी चिन्तन पर घृत है । उसमें सूक्ष्म गवेषणा या गहन विमर्श की दृष्टि नहीं प्रतीत होती । मूल सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों पर भी अनेक टीकाएं हैं। परिमाण की न्यूनता - अधिकता हो सकती है। उससे कोई विशेष फलित निष्पन्न नहीं होता; अतः इस विश्लेषरण की अनुपादेयता स्पष्ट है । उपर्युक्त ऊहापोह के सन्दर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय [ ४६३ धर्म, आचार एवं जीवन के मूलभूत आदर्शों, सिद्धान्तों या तथ्यों का विश्लेषण अपने आप में सहेजे रखने के कारण सम्भवतः ये मूल - सूत्र कहे जाने लगे हों । मुख्यतः उत्तराध्ययन एवं दशकालिक की विषय-वस्तु पर यदि दृष्टिपात किया जाए, तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होगा । नाम : विश्लेषया उत्तराध्ययन शाब्दिक दृष्टि से उत्तर और अध्ययन; इन दो शब्दों की समन्विति से बना है । उत्तर शब्द का एक अर्थ पश्चात् या पश्चाद्वर्ती है । दूसरा अर्थ उत्कृष्ट या श्रेष्ठ है । इसका अर्थ प्रश्न का समाधान या उत्तर तो है ही । उत्तरभयरण (उत्तराध्ययन) पश्चाद्वर्ती अर्थ के आधार पर उत्तराध्ययन की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि इसका अध्ययन आधारंग के उत्तर-काल में होता था । श्रुतकेवली आचार्य शय्यम्भव के अनन्तर इसके अध्ययन की कालिक परम्परा में अन्तर श्राया । यह दशवेकालिक के उत्तरकाल में पढ़ा जाने लगा। पर, 'उत्तराध्ययन' संज्ञा में कोई परिवर्तन करना अपेक्षित नहीं हुआ; क्योंकि दोनों ही स्थानों पर पश्चादुवर्तिता का अभिप्राय सदृश ही है । उत्तर शब्द का उत्कृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ करने के आधार पर कुछ विद्वानों ने इस शब्द . की यह व्याख्या की कि जैन श्रुत का इसमें असाधारण रूप में उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ विवेचन है; अतः इसका उत्तराध्ययन अभिधान अन्वर्थक है । प्रो. ल्यूमैन (Prof. Leumann) ने उत्तर और अध्ययन शब्दों का सीधा अर्थ पकड़ते हुए उत्तराध्ययन का आशय Later Readings अर्थात् पश्चात् या पीछे रचे हुए अध्ययन किया। प्रो. ल्यूमैन के अनुसार इन अध्ययनों की या इस ग्रागम की रचना अंग-ग्रन्थों के पश्चात् या उत्तर-काल में हुई; अतएव यह उत्तराध्ययन के नाम से अभिहित किया जाने लगा । - कल्पसूत्र में तथा टीकाग्रन्थों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम समय मैं प्रपृष्ट - अनपूछे छत्तीस प्रश्नों के सन्दर्भ में विश्लेषण - विवेचन किया। इस आधार पर उन अध्ययनों का संकलन 'अपृष्ट व्याकरण' नाम से अभिहित हुआ। उसी का नाम 2010_05 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन [at:२ अपृष्ट प्रश्नों का उत्तर-रूप होने के कारण उत्तराध्ययन हो गया 'अपृष्ट व्याकरण' की चर्चा आचार्य हेमचन्द्र ने अपने विषष्टिशलाकापुरुषचरित' महाकाव्य में भी की है। বিশখ कल्पसूत्रकार तथा टीकाकारों द्वारा दिया गया समाधान तथा प्रो. ल्यूमैन द्वारा किया गया विवेचन; दोनों परस्पर भिन्न हैं। भगवान महावीर ने बिना पूछे छत्तीस प्रश्नों के उत्तर दिये, उनका संकलन हुआ-उत्तराध्ययन के अस्तित्व में पाने के सम्बन्ध में यह कल्पना परम्परा-पुष्ट होते हुए भी उतनी हृद्-ग्राह्य प्रतीत नहीं होती। भगवान् महावीर ने अपृष्ट प्रश्नों के उत्तर दिये, इसके स्थान पर यह भाषा क्या अधिक संगत नहीं होती कि उन्होंने अन्तिम समय में कुछ धार्मिक उपदेश, विचार या सन्देश दिये । फिर वहां उत्तर शब्द भी म आकर 'व्याकरण' शब्द आया है, जिसका अर्थ विश्लेषण है। यदि अन्तिम के अर्थ में उत्तर शब्द का प्रयोग माना जाता, तो फिर भी कुछ संगति' होती। पर, जबाब के अर्थ में उत्तर शब्द का यहां ग्रहण उत्तराध्ययन सूत्र के स्वरूप के साथ सम्भवतः उतना मेल नहीं खाता, जितना होना चाहिए। उत्तराध्ययन में दृष्टान्त हैं, कथानक हैं, घटनाक्रम हैं-यह सब उत्तर शब्द के अभिप्राय में अन्तर्भूत हो जाएं, कम संगत प्रतीत होता है। साहित्यिक रष्टि से भी उत्तर शब्द वस्तुतः प्रश्न-सापेक्ष है। प्रश्न के बिना जो भी कुछ कहा जाए, बह व्याख्यान, विवेचन, विश्लेषण, निरूपण आदि सब हो सकता है, पर, उसे उत्तर कैसे कहा जाए ? नियुक्तिकार ने उत्तराध्ययन की रचना के सम्बन्ध में जो लिखा है, उससे यह तथ्य बाधित है। प्रो. ल्यूमैन ने जो कहा है, उसकी तार्किक असंगति नहीं है। भाषा-शास्त्रियों ने जो परिशीलन किया है, उसके अनुसार उत्तराध्ययन की भाषा प्राचीन है, पर, उससे प्रो. ल्यूमैन का कथन खण्डित नहीं होता। क्योंकि उन्होंने इसकी कोई विशेष अर्वाचीनता तो स्थापित की नहीं है, इसे अंग-ग्रन्थों से पश्चाद्वर्ती बताया है। वैसा करने में कोई असम्भाव्यता प्रतीत नहीं होती। १, षट्त्रिंशसमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधान नामाध्ययनं जगद्गुरुरभावयत् ॥ -पर्व १०, सर्ग १३, रलो. २२४ २. भगवान महावीर ने अपने उत्तर या अन्तिम काल में ये अध्ययन उपविष्ट किये। ____ 2010_05 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४६५ ___ एक प्रश्न और उठता है, अंग-ग्रन्थों के पश्चाद्वर्ती तो अनेक ग्रन्थ हैं, पश्चाद्वर्तिता या उत्तरवर्तिता के कारण केवल इसे ही उत्तराध्ययन क्यों कहा गया ? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह अंग-ग्रन्थों के समकक्ष महत्व लिये हुए है । रचना, विषय-वस्तु, विश्लेषण आदि की दृष्टि से उन्हीं की कोटि का है; अतः इसे ही विशेष रूप से इस अभिधा से संशित किया गया। यह भी एक अनुमान है। उससे अधिक कोई ठोस तथ्य इससे प्रकट नहीं होता। संक्षेप में विशाल जैन तत्व-ज्ञान तथा आचार-शास्त्र को व्यक्त करने में आगमवाङमय में इसका असाधारण स्थान है। भगवद् गीता जिस प्रकार समग्र वैदिक धर्म का निष्कर्ष या नवनीत है, जैन धर्म के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन की भी वही स्थिति है। काव्यात्मक हृदयस्पर्शी शैली, ललित एवं पेशल संवाद, साथ-ही-साथ स्वभावतः सालंकार भाषा प्रभृति इसकी अनेक विशेषताएं हैं, जिन्होंने समीक्षक तथा अनुसन्धित्सु विद्वानों को बहुत आकृष्ट किया है । डा. विण्टरनित्ज ने इसे श्रमण-काव्य के रूप में निरूपित किया है तथा महाभारत, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि के साथ इसकी तुलना की है। उत्तराध्ययन का यह महत्व केवल इन शताब्दियों में ही नहीं उभरा है, प्रत्युत बहुत पहले से स्वीकार किया जाता रहा है । नियुक्तिकार ने तीन गाथाएं उल्लिखित करते हुए इसके महत्व का उपपादन किया है : “जो जीव भवसिद्धिक हैं—भव्य हैं, परित्तसंसारी हैं, वे उत्तराभ्ययन के छत्तीस अध्ययन पढ़ते हैं । जो जीव अभवसिद्धिक हैं-प्रभव्य हैं, ग्रन्थिकसत्व हैं जिनका ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ है, जो अनन्तसंसारी हैं, संक्लिष्टकर्मा हैं, वे उत्तराध्ययन पढ़ने के अयोग्य हैं। इसलिए (साधक को) जिनप्रज्ञप्त, शब्द और अर्थ के अनन्त पर्यायों से संयुक्त इस सूत्र का यथाविधि (उपधान आदि तप द्वारा) गुरुजनों के अनुग्रह से अध्ययन करना चाहिए।1 १. जे किर भवसिद्धीया, परित्तसंसारिमा य भविआ य । ते किर पति धीरा, छत्तीस उत्तरायणे ॥ हुति प्रभविसिद्धीया, गंथिअसत्ता अर्णतसंसारा । ते संकिलिकम्मा, अभविय उत्तरमाए । सम्हा जिणपन्चरो, अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। भज्माए जहाजोग, गुरुपसाया अहिनिमज्जा 2010_05 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन उत्सराध्ययन सूत्र छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है। समवायांग सूत्र के छत्तीसवें समवाय में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के शीर्षकों का उल्लेख है, जो उत्तराध्ययन में प्राप्त अध्ययनों के नामों से मिलते हैं। उत्तराध्ययन के जीवाजीवविभक्ति संज्ञक छत्तीसवें अध्ययन के अन्त में निम्नांकित शब्दों में इस ओर संकेत है : “भवसिद्धिक जीवों के लिए सम्मत उसराध्ययन के छत्तीस अध्ययन प्रादुर्भूत कर ज्ञातपुत्र, सर्वज्ञ भगवान् महावीर परिनिवृत-मुक्त हो गये ।"] उत्तराध्ययन के नाम-सम्बन्धी विश्लेषण के प्रसंग में यह विषय चचित हुआ ही है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्त समय में इन छत्तीस अध्ययनों का आख्यान किया। নিথুকাৰ ৷া অপশন नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का अभिमत उपयुक्त पारम्परिक मान्यता के प्रतिकूल है। उन्होने इस सम्बन्ध में नियुक्ति में लिखा है : "उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अंगप्रभव हैं, कुछ जिन-भाषित हैं, कुछ प्रत्येक बुद्धों द्वारा निर्देशित हैं, कुछ संवाद-प्रसूत हैं । इस प्रकार बन्धन से छूटने का मार्ग बताने के हेतु उसके छत्तीस अध्ययन निर्मित हुए।" चूरिणकार जिनदास महत्तर और वृहद्वृत्तिकार वादिवेताल शान्ति सूरि ने नियूंक्तिकार के मत को स्वीकार किया है। उनके अनुसार उत्तराध्ययन के दूसरे परिषहाध्ययन की रचना द्वादशांगी के बारहवें अंग दृष्टिवाद के कर्मप्रवादसंज्ञक पूर्व के ७०वें प्राभृत के आधार पर हुई है। अष्टम कापिलीय अध्ययन कपिल नामक प्रत्येक बुद्ध द्वारा प्रतिपादित है । दशवां द्र मपुष्पिका अध्ययन स्वयं अर्हत् महावीर द्वारा भाषित है। तेईसवां केशिगौतमीय अध्ययन संवादरूप में आकलित है। १. इह पाउकरे बुद्ध, णायए परिणव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धिय सम्मए । २. जैन-परम्परा में ऐसा माना जाता है कि दीपावली को अन्तिम रात्रि में भगवान ____ महावीर ने इन छत्तीस अध्ययनों का निरूपण किया। ३. अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्ते यबुखसंवाया। . . .. बं मुक्खे ये कया, छत्तीसं उत्तरायणा ॥ -नियुक्ति, गाया ४ ___ 2010_05 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आर्ष (अब मागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय । ४६७ পানা সীকানি' । অামাখ भद्रबाहुना प्रोक्तानि भद्रबाहवानि उत्तराध्ययनानि- इस प्रकार का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे कुछ विद्वान् सोचते हैं कि उत्तराध्ययन के रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं । सबसे पहले विचारणीय यह है कि उत्तराध्ययन की नियुक्ति के लेखक भद्रबाहु हैं । जैसा कि पूर्व सूचित किया गया है, वे उत्तराध्ययन की रचना में अंग-प्रभवता, जिन-भाषितता, प्रत्येक बुद्ध-प्रतिपादितता, संवाद-निष्पन्नता आदि कई प्रकार के उपपादक हेतुओं का आख्यान करते हैं। उपर्युक्त कथन में भद्रबाहुना के साथ प्रोक्तानि क्रिया-पद प्रयुक्त हुआ है। प्रोक्तानि का अर्थ रचितानि नहीं होता । प्रकर्षेण उक्तानि-प्रोक्तानि के अनुसार उसका अर्थ विशेष रूप से व्याख्यात, विवेचित या अध्यापित होता है । शाकटायन और सिद्धहैमशब्दानुशासन' आदि व्याकरणों में यही आशय स्पष्ट किया गया है। इस विवेचन के अनुसार आचार्य भद्रबाहु उसराध्ययन के प्रकृष्ट व्याख्याता, प्रवक्ता या प्राध्यपयिता हो सकते हैं, रचयिता नहीं। कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं, उत्तराध्ययन के पूर्वाद्ध के अठारह अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरार्द्ध के अठारह अध्ययन अर्वाचीन । इसके लिए भी कोई प्रमाण-भूत या इत्थंभूत भेद रेखा मूलक तथ्य या ठोस आधार नहीं मिलते। বিমখ : অসী समीक्षात्मक दृष्टि से चिन्तन करें, तो यह समग्र आगम भगवान् महावीर द्वारा ही भाषित हुआ हो या किसी एक व्यक्ति ने इसकी रचना की हो, ऐसा कम सम्भव प्रतीत होता है। कारण स्पष्ट है, यहां सर्वत्र एक जैसी भाषा का प्रयोग नहीं हुआ है। श्रद्धमागधी प्राकृत का जहां अत्यन्त प्राचीन रूप इसमें सुरक्षित है, वहां यत्र-तत्र भाषा के अर्वाचीन रूपात्मक प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज हो जाता है कि १. ट : प्रोक्ते ३।१।६९ -शाकटायन २. तेन प्रोते ६।३।१० !... -सिवहमशबानशासपन 2010_05 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन इस आगम की रचना एक ही समय में नहीं हुई । ऐसा प्रतीत होता है कि समय-समय पर इसमें कुछ जुड़ता रहा है। इस प्रकार संकलित होता हुआ यह एक परिपूर्ण आगम के रूप में अस्तित्व में आता है । पर, ऐसा कब-कब हुआ, किन-किन के द्वारा हुआ, इस विषय में अभी कोई भी अकाट्य प्रमाण उपस्थित नहीं किया जा सकता। सार रूप में इस प्रकार कहना युक्तियुक्त लगता है कि इसकी रचना में अनेक तत्व-ज्ञानियों और महापुरुषों का योगदान है, जो सम्भवतः किसी एक ही काल के नहीं थे। विषय-वस्तु जीवन की अशाश्वतता, दुष्ट कर्मों के दूषित परिणाम, अज्ञानी का ध्येय, शून्य जीवन, भोगासक्ति का कलुषित विपाक, भोगी की बकरे के साथ तुलना, अधम गति में जाने वाले जीव के विशिष्ट लक्षण, मानव-जीवन की दुर्लभता, धर्म-श्रुति, श्रद्धा, संयमोन्मुखता का महत्व, गृही साधक की योग्यता-संयम का स्वरूप, सदाचरण-सम्पन्न व्यक्ति की गति, देवगति के सुख, ज्ञानी एवं अज्ञानी के लक्षण, ज्ञान का सुन्दर परिणाम, जातिवाद की हेयप्ता, जातिवाद का दुष्परिणाम, आदर्श भिक्षु, ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान, पापी श्रमण, श्रमणजीवन को दूषित करने वाले सूक्ष्म दोष, आठ प्रकार की प्रवचन-माताएं, सच्चा यज्ञ, याजक, यज्ञाग्नि आदि का स्वरूप, साधना-निरत भिक्षु की दिनचर्या, सम्यक्त्व-पराक्रम का स्वरूप, आत्म-विकास का पथ, तपश्चर्या के भिन्न-भिन्न प्रयोग, चरण-विधि-ग्राह्य, परिहेय, उपेक्ष्य प्रादि का विवेक, प्रमाद-स्थान-तृष्णा, मोह, क्रोध, राग, द्वेष आदि का मूल, कर्म-विस्तार, लेश्या, अनासक्तता, लोक-पदार्थ, निष्फल मृत्यु, सफल मृत्यु प्रभृति अनेक विषयों का विभिन्न अध्ययनों में बड़ा मार्मिक एवं तलस्पर्शी व्याख्यान-विश्लेषण हमा है। ष्टान्त : कथानक दूसरा महत्वपूर्ण अंश है, इसका रूपक, दृष्टान्त व कथानक-भाग । इसके माध्यम से तत्व-ज्ञान और आचार-धर्म का विशद विवेचन हुआ है, जिसका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्व है । पच्चीसवां अध्ययन इसका उदाहरण है, जहां अध्यात्म-यज्ञ, उसके अंगोपांगों एवं उपकरणों का बहुत हृदयस्पर्शी विवेचन है। इस प्रकार के अनेक प्रकरण हैं, जहां उपमानों तथा रूपकों का ऐसा सुन्दर और सहज सन्निवेश है कि विवेच्य विषय पाठक के मागे साक्षात् उपस्थित हो जाता है। नवम अध्ययन में इन्द्र और राजर्षि नमि का प्रकरण बनासक्त तितिक्ष एवं मुमुक्षु जीवन का एक सजीव तथा साधारण चित्र प्रस्तुत करता है। 2010_05 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अमागधी) प्राकृत और मागम वारमय बारहवां हरिकेशीय अध्ययन उतराहाहान का एक क्रान्तिकारी अध्याय है, जहां चाण्डालकुलोत्पन्न मुनि हरिकेशबल के तपःप्रभाव और साधना-निरत जीवन की गरिमा इतनी उत्कृष्टतया उपस्थापित है कि जाति, कुल आदि का मद, दाभ मौर पहुंकार स्वयमेव निस्तेज तथा निस्तथ्य हो जाते हैं । बाईसवां रथनेमीय अध्ययन प्रात्म-पराक्रम, ब्रह्म-प्रोज जागृत करने की पूरकता के साथ-साथ अनेक रष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। तीर्थकर अरिष्टनेमि की जीवन-झांकी, उनके द्वारा लौकिक एषणा और कामना का परित्याग, श्रमण रथनैमि का अन्तदौर्बल्य, वासना का उभार, राजीमती द्वारा उद्बोधन प्रभृति ऐसे रोमांचक प्रसंग हैं, जिनकी भावना मोर प्रज्ञा दोनों के प्रकर्ष की दृष्टि से कम गरिमा नहीं है। - तेईसा केशिगौतमीय अध्ययन है, जो भगवान् पार्श्व की परम्परा के श्रमण महामुनि केशी तथा भगवान् महावीर के अनन्य अन्तेवासी गणधर गौतम के परस्पर मिलन, प्रश्नोतर-संवाद आदि बहुमूल्य सामग्री लिये हुए है । तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्च को परम्परा चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर की परम्परा में किस प्रकार समन्वित रूप में विलीन होती जा रही थी, प्रस्तुत अध्ययन इसका ज्वलन्त साक्ष्य है। चातुर्याम धर्म और पंचमहाव्रतों के तुलनात्मक परिशीलन की दृष्टि से भी यह अध्ययन पठनीय है। বাবা-ঠত্ব उत्तराध्ययन सूत्र पर व्याख्यात्मक साहित्य विपुल परिमाण में विद्यमान है । प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति लिखी। जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की । थारापद्रगच्छ से सम्बद्ध वादिवताल विरुदालंकृत शान्ति सूरि ने पाइय या शिष्यहिता नामक टीका की रचना की, जो उत्तराध्ययन-वृहद्-वृत्ति भी कहलाती है। शान्ति सूरि का स्वर्गवासईसवी सन् १०४० माना जाता है। इस टीका के आधार पर देवेन्द्रगणी ने, जो आगे चल कर नेमिचन्द्र सूरि के नाम से विख्यात हुए, सुखबोधा नामक टीका लिखी, जो सन् १०७३ में समाप्त हुई । उत्तराध्ययन पर टीकाएं लिखने वाले अनेक जैन विद्वान् हैं, जिनमें लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस तथा हर्षकूल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ___ पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस पर कार्य किया है। उदाहरणार्थ, प्रो. शन्टियर ने मूल पाठ अंग्रेजी प्रस्तावना सहित प्रस्तुत किया है। आगम-वाङमय के विख्यात अन्वेषक 2010_05 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] आगम और aिfter : एक अनुशीलन [:.२. डा. जैकोबी, इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो प्रो. मैक्समूलर के सम्पादकत्व में Sacred Books of the East के पैंतालीसवें भाग में आक्सफोर्ड से सन् १८९५ में प्रकाशित हुआ । श्रावय (प्रावश्यक) नाम : सार्थकत अवश्य से आवश्यक शब्द बना है । श्रवश्य का अर्थ है, जिसे किये बिना बचाव नहीं, जो जरूर किया जाना चाहिए। इसके अनुसार श्रावश्यक का श्राशय श्रमण द्वारा करणीय उन भाव-1 व क्रियानुष्ठानों से है, जो श्रमरण-जीवन के निर्बंध तथा शुद्ध निर्वहण की दृष्टि से श्रावश्यक है । वे क्रियानुष्ठान संख्या में छः हैं; अतः इस सूत्र को षडावश्यक भी कहा जाता है । यह छः विभागों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दन, प्रतिमरण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का वर्णन है । सामायिक अन्तरतम में समभाव की अवतारणा सामायिक है । एतदर्थं साधक मानसिक, वाचिक तथा कायिक दृष्टि से कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से समग्र सावध - सपाप योगोंप्रवृत्तियों से पराङ्मुख होता है । प्रथम आवश्यक में इसी का वर्णन है । चतुर्विंशति-स्तव द्वितीय आवश्यक में लोक में धर्म का उद्योत करने वाले चौबीस तीर्थंकरों का बन्दन है, जिससे आत्मा में तदनुरूप दिव्यभाव का उद्र ेक होता है । वन्दन तीसरा आवश्यक वन्दन से सम्बद्ध है । शिष्य गुरु चरणों में स्थित होता है, उनसे क्षमा-याचना करता है, उनके संयमोपकरणभूत देह की सुख-पृच्छा करता है । प्रतिक्रम चौथे आवश्यक में प्रतिक्रमण का विवेचन है । प्रतिक्रमण का अर्थ बर्हिगामी जीवन से अन्तर्गामी जीवन में प्रत्यावृत्त होना है अर्थात् साधक यदि प्रमादवश शुभ योग से चलित 2010_05 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावा और साहित्य ] .भा (अमागधी) प्राकृत और गम बाङमय [ 1 होकर अशुभ योग को प्राप्त हो जाए, तो वह पुनः शुभयोग में संस्थित होता है । यरि उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में श्रमण-धर्म की विराधना हुई हो, किसी को कष्ट पहुंचाया गया हो, स्वाध्याय मादि में प्रमादाचरण हुआ हो, तो वह (अतिक्रमण करने वाला साधक) उनके लिए मिच्छामि दुक्कड़-मिथ्या मे दुष्कृतम्-ऐसी भावना से उद्भावित होता है, जिसका अभिप्राय जीवन को संयमानुकूल, पवित्र और सात्विक भावना से प्राप्यार यित बनाये रखना है। काल. पांचवां आवश्यक कायोत्सर्ग से सम्बद्ध है। कायोत्सर्ग का प्राशय है—देह-भाव का विसर्जन और आत्म-भाव का सर्जन। यह ध्यानात्मक स्थिति है, जिसमें साधक दैहिक चांचल्य और अस्थैर्य का वर्जन कर निश्चलता में स्थित रहना चाहता है। বাহত্বান छठे आवश्यक में सावध-सपाप कार्यों से निवृत्तता तथा प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि के प्रत्याख्यान की चर्चा है। व्याख्या-साहित्य प्राचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक पर नियुक्ति की रचना की। इस पर भाष्य भी रचा गया। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा अत्यन्त विस्तार और गम्भीरता के साथ विशेषावश्यकभाष्य की रचना की गयी, जो जैन साहित्य में निःसन्देह एक अद्भुत कृति है। जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने इस पर टीका लिखी, जो शिष्यहिता के नाम से विश्रु त है । इसमें आवश्यक के छः प्रकरणों का पैतीस अध्ययनों में सूक्ष्मतया विवेचन-विश्लेषण किया गया है । वहां प्रासंगिक रूप में प्राकृत की अनेक प्राचीन कथाएं भी दी गयी हैं । आचार्य मलयगिरि ने भी टीका की रचना की । माणिक्यशेखर सूरि द्वारा इसकी नियुक्ति पर दीपिका की रचना की गयी। तिलकाचार्य द्वारा इस पर लघुवृत्ति की रचना हुई। दसवेयालिय (दशवकालिक) नाभ : अन्वर्थकता यह नाम दश और वैकालिक; इन दो शब्दो के योग से इस नाम की निष्पत्ति है। 2010_05 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन सामान्यतः दश शब्द दश अध्ययनों का सूचक है और वकालिक का सम्बन्ध रचना, नि'. हण या उपदेश से है। विकाल का अर्थ सन्ध्या है। वैकालिक विकाल का विशेषण है। ऐसा माना जाता है कि सन्ध्या समय में अध्ययन किये जाने के कारण यह नाम प्रचलित हुप्रा । ऐसी भी मान्यता है कि दश विकालों या सन्ध्याओं में रचना, नि!' हण या उपदेश किया गया। उस कारण यह पशवकालिक कहा जाने लगा। इस वशवकालिक के रचनाकार या नि! हक प्राचार्य शय्यम्भव थे, जिन्होंने अपने पुत्र बाल मुनि मनक के लिए इसकी रचना की । अंगबाह्यगत उत्कालिक सूत्रों में दशवकालिक का प्रथम स्थान है। दश अध्ययनों तथा दो पूलिकाओं में यह सूत्र विभक्त है। दश अध्ययन संकलनात्मक हैं । चूलिकाएं स्वतन्त्र रचना प्रतीत होती हैं। चूलिकाओं के रचे जाने के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार वे आचार्य शय्यम्भवकृत ही होनी चाहिए । इतना सम्भावित हो सकता है, चूलिकाओं की रचना दश अध्ययनों के नि' हण के पश्चातू हुई हो । सूत्र और चूलिकाओं की भाषा इतनी विसदृश नहीं है कि उससे दो भिन्न रचयिताओं का सूचन हो। कुछ विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार चूलिकाएं किसी अन्य लेखक की रचनाएं हैं, जो दश अध्ययनों के साथ जोड़ दी गई। संकलन : माघार : पूर्व श्रुत प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति में किये गये उल्लेख के अनुसार दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन का आधार प्रात्म-प्रवाद-पूर्व, पंचम अध्ययन का आधार कर्म-प्रवाद-पूर्व, सप्तम अध्ययन का आधार सत्य-प्रवाद-पूर्व तथा अन्य अध्ययनों का आधार प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु है। হৈ অাঘা : অ অাসস श्रुतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव ने अनेकानेक प्रागमों का दोहन कर सार रूप में दशवकालिक को संग्रथित किया । दशवकालिक में वरिणत विषयों का यदि सूक्ष्मता से परीक्षण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि वे विविध आगम-ग्रन्थों से बहुत निकटतया संलग्न हैं । दशवकालिक के दूसरे अध्ययन का शीर्षक श्रामण्यपूर्वक है। उसमें श्रमण को कामराग या विषय-वासना से बचते रहने का उपदेश किया गया है । उस सन्दर्भ में रथनेमि और राजीमति का प्रसंग भी संक्षेप में संकेतित है। यह अध्ययन उत्तराध्ययन के बाईसवें रथोमीय अध्ययन के बहुत निकट है। उत्तराध्ययन में रथनेमि और राजीमति का इतिवृत्त अपेक्षाकृत विस्तार से वर्णित है, पर, दोनों की मूल ध्वनि एक ही है । 2010_05 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [४७३ चतुर्थ अध्ययन का शीर्षक षड्जीवनिकाय है। इसमें षट्कायिक जीवों का संक्षेप में वर्णन करने के उपरान्त उमकी हिंसा के प्रत्याख्यान का प्रतिपादन है । इससे संलग्न प्रथम अहिंसा महाव्रत का विवेचन है। तदनन्तर पांच महावतों का वर्णन है। प्रारम्भ-समारम्भ से पाप-बन्ध का प्रतिपादन करते हुए उससे निवृत्त होने का सुन्दर चित्रण है । यह अध्ययन भाचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययम के उत्तरार्द्ध से तुलनीय है । इस अध्ययन के पूर्व भाग में भगवान् महावीर का जीवन-वृत्त विस्तार से उल्लिखित है तथा उत्तर भाग में भगवान् महावीर द्वारा गौतम आदि निर्ग्रन्थों को उपदिष्ट किये गये पांच महाव्रतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्-जीव-निकाय का विश्लेषण है। बशर्वकालिक के चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन आचारांग के इसी अध्ययन से हुआ हो, ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है। पंचम अध्ययन का शीर्षक पिण्डषणा है। इसमें श्रमण की भिक्षा-चर्या के सन्दर्भ में . सभी पहलुओं पर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला गया है। भिक्षा के लिए किस प्रकार जाना, नहीं जाना, किस-किस स्थिति में भिक्षा लेना, किस-किस में नहीं लेना; इत्यादि का समीचीन विशद रूप में विवेचन किया गया है । इस अध्ययन की विषय-वस्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के प्रथम अध्ययन से आकलित प्रतीत होती है। उसकी संज्ञा भी पिण्डेषणा ही है। सातवें अध्ययन का शीर्षक वाक्य-शुद्धि है। इसमें श्रमण द्वारा किस प्रकार की भाषा प्रयोज्य है, किस प्रकार की अप्रयोज्य; इस वर्णन के साथ-साथ संयमी के विनय और पवित्र आचार पर प्रकाश डाला गया है। जिस-जिस प्रकार के भाषा-प्रयोग पोर व्यवहार-चर्या का उल्लेख किया गया है, वह श्रमण के अनासक्त, निर्लिप्त, प्रमूच्छित, जागरूक तथा आत्म-लीन जीवन के विकास से सम्बद्ध है। आचारांग के द्वितीय श्र त-स्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम भाषा जात है। उसमें साधु द्वारा प्रयोग करने योग्य, न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है। दशवकालिक के उक्त अध्ययन में किसी अपेक्षा से इसकी अवतारण हुई हो, ऐसा अनुमेय है। . विनय-समाधि नवम अध्ययन है । इसमें गुरु के प्रति शिष्य का व्यवहार सदा विनयपूर्ण रहे, इस पर सुन्दर रूप में प्रकाश डाला गया है । विनयपूर्ण व्यवहार के सुलाभ और अविनय-पूर्ण व्यवहार के दुर्लाभ हृद्य उपमाओं द्वारा वरिणत किये गये हैं। यह अध्ययन उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन विनय-श्रुत से विशेष मिलता-जुलता है, जहां गुरु के प्रति शिष्य के विनयाचरण की उपादेयता और अविनयाचरण की वर्ण्यता का विवेचन है। ___ 2010_05 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४] मागम और विपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: २ दशम अध्ययन का शीर्षक स भिक्षुः है। अर्थात् इस अध्ययन में भिक्षु के जीवन, उसकी दैनन्दिन चर्या, व्यवहार, संयमानुप्राणित अध्यवसाय, प्रासक्ति-वर्जन, अलोलुपता भादि का सजीव चित्रण है । दूसरे शब्दों में भिक्षु के यथार्थ रूप का एक रेखांकन है, जो साधक के लिए बड़ा उत्प्रेरक है। उत्तराध्ययन का पन्द्रहवां अध्ययन भी इसी प्रकार फा है । उसका शीर्षक भी यही है । दोनों का बहुत साम्य है । भाव ही नहीं, शब्द-रचना तथा छन्द-गठन में भी अनेक स्थानों पर एकरूपता है । ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि दशवकालिक का दशवां अध्ययन उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का बहुत कुछ रूपान्तरण है। चूलिकाएं रति-वावथा दशम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर प्रस्तुत सूप में दो चूलिकाएं हैं । पहली चूलिका रतिवाक्या है । अध्यात्म-रस में पगे व्यक्तियों के लिए भिक्षु-जीवन अत्यन्त आह्लादमय है । पर, भौतिक दृष्टि से उसमें अनेक कठिनाइयां हैं, पद-पद असुविधाएं हैं । क्षण-क्षण प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। दैहिक भोग अग्राह्य हैं ही। ये सब प्रसंग ऐसे हैं, जिनके कारण कभी-कभी मानव-मन में दुर्बलताएं उभरने लगती हैं । यदि कभी कोई भिक्षु ऐसी मनः-स्थिति में प्रा जाए, वह श्रामण्य से मुंह मोड़ पुनः गार्हस्थ्य में प्रविष्ट होने को उद्यत हो जाए, तो उसे संयम में टिकाये रखने के लिए, उसमें पुनः दृढ़ मनोषल जगाने के लिए उसे जो अन्तः प्रेरक तथा उद्बोधक विचार दिये जाने चाहिए, वही सब प्रस्तुत चूलिका में विवेचित है। सांसारिक जीवन की दुःखमयता, विषमता, भोगों की निःसारता, अल्पकालिकता, परिणाम-विरसता, अनित्यता, संयमी जीवन की सारमयता, पवित्रता, प्रादेयता प्रादि विभिन्न पहलुओं पर विशद प्रकाश डाला गया है तथा मानव में प्राणपण से धर्म का प्रतिपालन करने का भाव भरा गया है । वैषयिक भोग, वासना, लौकिक सुविधा और दैहिक सुख से प्राकृष्ट होते मानव को उनसे हटा आत्म-रमण, संयमानुपालन तथा तितिक्षामय जीवन में पुनः प्रत्यावृत्त करने में बड़ी मनोवैज्ञानिक निरूपण-शैली का व्यवहार हुआ है, जो रोचक होने के साथ शक्ति-संचारक भी है । संयम में रति-अनुराग-तन्मयता उत्पन्न करने के वाक्यों की संरचनामय होने के कारण ही सम्भवतः इस चूलिका का नाम रतिप्राक्या रखा गया हो। 2010_05 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] मार्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम बाङमय [४७५ विविधता दूसरी चूलिका विविक्तचर्या है। विविक्त का अर्थ वियुक्त, पृथक्, निवृत्त, एकाकी, एकान्तस्थान या विवेकशील है। इसका आशय उस जीवन से है, जो सांसारिकता से पृथक् है । दूसरे शब्दों में निवृत्त है; अतएव विवेकशील है। इस चूलिका में श्रमण-जीवन को उद्दिष्ट कर अनुस्रोत में न बह प्रतिस्रोतगामी बनने, आचार-पालन में पराक्रमशील रहने, अल्प-सीमित उपकरला रखने, गृहस्थ से वैयावृत्य-शारीरिक सेवा न लेने, सब इन्द्रियों की सुसमाहित कर संयम-जीवन को सदा सुरक्षित बनाये रखने आदि के सन्दर्भ में अनेक ऐसे उल्लेख किये गये हैं, जिनका अनुसरण करता हुप्रा भिक्षु प्रलिबुद्धजीवी बनता है। विशेषता : महत्व अति संक्षेप में जैन-तत्व दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र व्याख्यात करने की अपनी असाधारण विशेषता के साथ-साथ शब्द-रचना, शैली तथा भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी इस सूत्र का कम महत्व नहीं है । इसमें प्रयुक्त भाषा के अनेक प्रयोग अति प्राचीन प्रतीत होते हैं, जो आचारांग तथा सूत्रकृतांग जैसे प्राचीनतम आगम-ग्रन्थों में हुए भाषा-प्रयोगों से तुलनीय हैं । इसराध्ययन में हुए भाषा के प्राचीनता द्योतक प्रयोगों के समकक्ष इसमें भी उसी प्रकार के अनेक प्रयोग प्राप्त होते हैं । यह अर्द्धमागधी भाषा-विज्ञान से सम्बद्ध एक स्वतन्त्र विषय है, जिस पर विशेष चर्चा करना प्रसंगोपात्त नहीं है । प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरण डा० पिशल ने उत्तराध्ययन तथा दशवकालिक को प्राकृत के भाषा शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया है । werer-rहित्य दशवकालिक सूत्र पर प्राचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति की रचना की। अगस्त्य-सिंह तथा जिनदास महत्तर द्वारा पूणियां लिखी गयीं। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने टीका की रचना की । समयसुन्दर गणी ने दीपिका लिखी। तिलकाचार्य या तिलकसूरि, सुमतिसूरि तथा विनयहंस प्रभृति विद्वानों द्वारा वृत्तियों की रचना हुई। यापनीय संघ के अपराजित सूरि, जो विजयाचार्य के नाम से भी ख्यात हैं, ने भी टीका की रचना की, जिसका उन्होंने विजयोदया नामकरण किया। अपने द्वारा विरचित भगवती आराधना टीका में उन्होंने इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। ज्ञानसम्राट् तथा राजहंस महोपाध्याय ने इस पर गुजराती टीकामों की रचना की । ज्ञानसम्राट् द्वारा रचित टीका बालावरोध के नाम से विश्रुत है। 2010_05 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ প্রথম সন্ধাহান पाश्चात्य विद्वानों का प्राच्य विद्याओं के अन्तर्गत जैन वाडमय के परिशीलन की मोर भी झुकाव रहा है। उन्होंने उस प्रोर विशेष अध्यवसाय भी किया है, जो इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि जर्मन विद्वान् डा० अर्नेस्ट ल्यूमन (Dr. Ernest Leumann) ने ई० सन् १८९२ में जर्मन प्रारियन्टल सोसायटी के जर्नल (Journal of the German Oriental Society) में सबसे पहले दशवकालिक का प्रकाशन किया। उससे पहले यह ग्रन्थ केवल हस्तलिखित प्रतियों के रूप में था, मुद्रित नहीं हो पाया था। उसके पश्चात् भारत में इसका प्रकाशन हुआ । आगे उत्तरोत्तर इसके अनेक संस्करण निकलते गये । सन् १९३२ में सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान्, जैन आगम-वाङमय व प्राकृत के प्रमुख अध्येता डा० शुकिंग के सम्पादकत्व में प्रस्तावना आदि के साथ इसका जर्मनी में प्रकाशन हुआ। पिंडनिज्जुत्ति (पिण्ड-नियुक्ति) नाम : व्याख्या पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आहार की एषणीयता, अनेषणीयता आदि के विश्लेषण के सन्दर्भ में उद्गम-दोष, उत्पादन-दोष, एषणा-दोष और ग्रास-एषणा-दोष आदि श्रमण-जीवन के आहार, भिक्षा प्रादि महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । मुख्यतः दोषों से सम्बद्ध होने के कारण इस प्रन्थ की अनेक गाथाएं सुप्रसिद्ध दिगम्बर-लेखक वट्टकेर के मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं। फलेवर : स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ में छः सौ इकहत्तर गाथाएं हैं। यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । दशवकालिक के पंचम अध्ययन का नाम पिण्डषणा है। इस अध्ययन पर प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गयी है। यही कारण है कि इसे पिण्ड नियुक्ति के नाम से एक स्वतन्त्र आगम के रूप में स्वीकार कर लिया गया। नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं का इस प्रकार विमिश्रण हो गया है कि उन्हें पृथक्-पृथक् छांट पाना कठिन है। पिण्ड-नियुक्ति आठ अधिकारों में विभक्त हैं, जिनके नाम उद्गम, उत्पादन, एषणा, 2010_05 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय ४७७ संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम तथा कारण हैं । भिक्षा से सम्बद्ध अनेक पहलुओं का विस्तृत तथा साथ-ही-साथ रोचक वर्णन है । वहां उद्गम और उत्पादन दोष के सोलहसोलह तथा एषणा - दोष के दश भेदों का वर्णन है । भिक्षागत दोषों के सन्दर्भ में स्थानस्थान पर उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि अमुक मुनि वैसे दोष का सेवन करने के कारण प्रायश्चित्त-भागी हुए । गृहस्थ के यहां से भिक्षा किस-किस स्थिति में ली जाए, इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण चर्चाएं हैं। बताया गया है कि यदि गृह स्वामिनी भोजन कर रही हो, दही बिलो रही हो, आटा पीस रही हो, चावल कूट रही हो, रुई धुन रही हो, तो साधु को उससे भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । इसी प्रकार अत्यन्त नासमझ बालक से, अशक्त वृद्ध से, उन्मत्त से, जिसका शरीर कांप रहा हो, जो ज्वराक्रान्त हो, नेत्रहीन हो, कुष्टपीड़ित हो, ऐसे व्यक्तियों से भी भिक्षा लेना अविहित है । भविष्य कथन, चिकित्सा - कौशल, मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण आदि से प्रभावित कर भिक्षा लेना भी वर्जित कहा गया है । कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख प्रसंगोपात्ततया सर्प दंश आदि को उपशान्त करने के लिए दीमक के घर की मिट्टी, वमन शान्त करने के लिए मक्खी की बींठ, टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए किसी की हड्डी, कुष्ट रोग मिटाने के लिए गौमूत्र का प्रयोग आदि साधुओं के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं । साधु जिह्वा स्वाद से अस्पृष्ट रहता हुआ किस प्रकार अनासक्त तथा अमूच्छित भाव से भिक्षा ग्रहण करे, गृहस्थ पर किसी भी प्रकार का भार उत्पन्न न हो, वह उनके लिए असुविधा, कष्ट या प्रतिकूलता का निमित्त न बने, उसके कारण गृहस्थ के घर में किसी प्रकार की अव्यवस्था न हो जाए; इत्यादि का जैसा मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है, वह जैन श्रमरण-चर्या के अनुसन्धान के सन्दर्भ में विशेषतः पठनीय है । पिण्ड - नियुक्ति पर आचार्य मलयगिरि ने वृहद् वृत्ति की रचना की । वीराचार्य ने इस पर लघु वृत्ति लिखी । 2010_05 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ j आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ओहनिज्जुत्ति (ोघ-नियुक्ति) নাম। থাহত্বা बोध का अर्थ प्रवाह, सातत्य, परम्परा या परम्परा-प्राप्त उपदेश है । इस ग्रन्थ में साधु-जीवन से सम्बद्ध सामान्य समाचारी का विश्लेषण है । सम्भवतः इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ। जिस प्रकार पिण्ड नियुक्ति में साधुओं के आहार-विषयक पहलुओं का विवेचन है, उसी प्रकार इसमें साधु-जीवन से सम्बद्ध सभी आचार-व्यवहार के विषयों का संक्षेप में संस्पर्श किया गया है। पिण्ड-नियुक्ति दशवकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है, उसी प्रकार इसे आवश्यक-नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है, जिसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं । इसमें कुल ८११ गाथाएं है । नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएं इस प्रकार विमिश्रित हो गई हैं कि उन्हें पृथक्-पृथक कर पाना दुःशक्य है। ___ ओध-नियुक्ति प्रतिलेखन-द्वार, पिण्ड-द्वार, उपघि-निरूपण, अनायतन-वर्जन, प्रतिसेवना-द्वार, आलोचना-द्वार तथा विशुद्धि-द्वार में विभक्त है। प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु-जीवन के प्रायः सभी चर्या-अंगों के विश्लेषण का इसमें समावेश है। ব্ধ শৰথা সস एक चिर-चर्चित प्रसंग है, जिस पर इसमें भी विचार किया गया है । वह प्रसंग है: आत्म-रक्षा-जीवन-रक्षा का अधिक महत्व है या संयम-रक्षा का ? दोनों में से किसी एक के नाश का प्रश्न उपस्थित हो जाए, तो प्राथमिकता किसे देनी चाहिए ? इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। कुछ ने संयम-रक्षा हेतु मर मिटने को आवश्यक बतलाया है और कुछ ने जीवन-रक्षा कर फिर प्रायश्चित्त कर लेने का सुझाव दिया है। . ओघ-नियुक्ति में बताया गया है कि श्रमण के संयम का प्रतिपालन सदा पवित्र भाष से ही करना चाहिए, पर,यदि जीवन मिटने का प्रसंग बन जाए, तो वहां प्राथमिकता जीवन-रक्षा को देनी होगी। यदि जीवन बच गया, तो साधक एक बार संयम-च्युत होने पर भी प्रायश्चित्त,तप आदि द्वारा प्रात्म-शुद्धि या अन्तःसम्मान कर पुनः यथावस्थ हो सकेगा। परिणामों की सात्विकता या भाव-विशुद्धि ही तो संयम का आधार है। 2010_05 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय [४७९ विशेष बलपूर्वक आगे कहा गया है कि साधक की देह संयम-पालन के लिए है, भोग के लिए नहीं है । यदि देह ही नहीं रही, तो संयम-पालन का प्राचार-स्थल ही कहां बचा ? अतः देह-रक्षा या शरीर को नष्ट न होने देने का अर्थ देह के प्रति आसक्ति नहीं है, प्रत्युत संयम के प्रतिपालन की भावना है। अतः देह-प्रतिपालन इष्ट है। निशीथ-चूणि में भी यह प्रसंग व्याख्यात हुआ है। वहां भी वरिणत है कि जहां तक हो सके, संयम की विराधना नहीं करनी चाहिए, पर, यदि कोई भी उपाय न हो, तो जीवन रक्षा के लिए वैसा किया जा सकता है। ওবাব-নবথা संयमी जीवन के निर्वाह हेतु जो न्यूनतम साधन उपकरण अपेक्षित होते हैं, उन्हें उपधि कहा जाता है । प्रस्तुत प्रकरण में इस विषय का विवेचन है, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण श्रमण द्वारा धारण किये जाने चाहिए या नहीं किये जाने चाहिए; जैन परम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में यह एक विवादास्पद प्रसंग है, जिसके सन्दर्भ में दोनों ओर से द्विविध विचार-धाराएं एवं समाधान उपस्थित किये जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के इस प्रकरण का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक परिशीलन इस विषय में अनुसन्धित्सा रखने वालों के लिए वस्तुतः बड़ा उपयोगी है । इस प्रकरण में जिनकल्पी श्रमण, स्थविर कल्पी श्रमण तथा आर्यिका या साध्वी के लिए प्रयोज्य उपकरणों का विवरण है । জন্ধী ও অনিং ঋণী ঈ ওহথা ___ जिनकल्पी के लिए जो उपकरण विहित हैं, उनका इस ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लेख है: १. पात्र, २. पात्र-बन्ध, ३. पात्र-स्थापना, ४. पात्र-केसरिका ( पात्र-मुख-वस्त्रिका ), ५..पटल, ६. रजस्त्राण, ७. गोच्छक, ८-१०. प्रच्छादक-त्रय, ११. रजोहरण तथा १२. मुख-वस्त्रिका । प्राप्त सूचनाओं से विदित होता है कि पटल नामक वस्त्र का उपयोग भोजन-पात्र को आवृत करने के लिए तथा अपेक्षित होने पर गुह्यांग को ढकने के लिए भी होता था। स्थविर-कल्पी श्रमणों के लिए बारह उपकरण तो थे ही, उनके अतिरिक्त चोलपट्ट और मात्रक नामक दो उपकरण और थे। इस प्रकार उनके लिए चौदह उपकरणों का विधान था। 2010_05 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 1 साध्वी या आर्थिका के उपकर जिन - कल्पी के लिए निर्देशित बाहर उपकरण, स्थविर - कल्पी के लिए निर्देशित दो अधिक उपकरणों में से एक — मात्रक; इन तेरह उपकरणों के अतिरिक्त निम्नांकित बारह अन्य उपकरण साध्वी या आर्थिका के लिए निर्दिष्ट किये गये प्राप्त होते हैं । उनके लिए कुल पच्चीस उपकरण हो जाते हैं । वे इस प्रकार हैं : १४. कमढग, १५ उग्गहांतग ( गुह्य अंग की रक्षा के लिए नाव की आकृति की तरह), १६. पट्टक ( उग्गहरणंतग को दोनों भोर से ढकने वाला जांघिये की आकृति की तरह), १७. अद्धोरुग ( उग्गहरांतग और पट्टक के ऊपर पहना जाने वाला ), १८. चलनिका (बिना सिला हुआ घुटनों तक पहना जाने वाला । बांस पर खेल करने वाले पहनते थे 1), १९. ब्भितर नियंसरणी ( यह आधी जांघों तक लटका रहता है । वस्त्र बदलते समय लोग साध्वियों का उपहास नहीं करते ।), २०. बहिनिसरणी (यह घुटनों तक लटका रहता है और इसे डोरी से कटि में बांधा जाता है), २१. कंचुक ( वक्षस्थल को ढांकने वाला वस्त्र), २२. उक्कच्छिय (यह कंचुक के समान होता है), २३. वेकच्छिय ( इससे कंचुक और उक्कच्छिय दोनों ढक जाते हैं), २४ संघाड़ी ( ये चार होती हैं -- एक प्रतिश्रय में, दूसरी व तीसरी भिक्षा श्रादि के लिए बाहर जाते समय और चौथी समवसरण में पहनी जाती थी), २५. खन्धकरणी ( चार हाथ लम्बा वस्त्र जो वायु आदि से रक्षा करने के लिए पहना जाता है । रूपवती साध्वियों को कुब्जा जैसी दिखाने के लिए भी इसका उपयोग करते थे।) 1 इन वस्त्रोपकरणों का स्वरूप, उपयोग, अपेक्षा, विकास प्रभृति विषय श्रमरण-जीवन के अपरिग्रही रूप तथा सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से अध्येतव्य है । व्याख्या - साहित्य - नियुक्ति पर रचे गये व्याख्या - साहित्य में द्रोणाचार्य रचित टीका विशेष महत्व - पूर्ण है। उसकी रचना चूर्णि की तरह प्राकृत की प्रधानता लिए हुए है अर्थात् वह प्राकृतसंस्कृत के मिश्रित रूप में प्रणीत है । आचार्य मलयगिरि द्वारा वृत्ति की रचना की गयी । अवरि की भी रचना हुई । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन 2010_05 पक्खिय सुत्त (पाक्षिक-सूत्र ) आवश्यक सूत्र के परिचय तथा विश्लेषण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण की चर्चा हुई है । १. नियुक्ति, ६७४-७७; भाष्य, ३१३-३२० खण्ड : २ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ्मय आत्मा की स्वस्थता - अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति, अन्तः परिष्कृति तथा आत्म- जागरण का वह ( प्रतिक्रमण ) परम साधक है। जैन परम्परा में प्रतिक्रमण के पांच प्रकार माने गये हैं - १. देवसिक, २. रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक तथा ५ सांवत्सरिक । पाक्षिक सूत्र की रचना का आधार पाक्षिक प्रतिक्रमरण है। इसे आवश्यक सूत्र का एक अंग ही माना जाना चाहिए अथवा उसके एक अंग का विशेष पूरक । प्रस्तुत कृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह; इन पांच महाव्रतों के साथ छठे रात्रि - भोजन को मिला कर छः महाव्रतों तथा उनके प्रतिचारों का विवेचन है । क्षमाश्रमरणों की वन्दना भी इसमें समाविष्ट है । प्रसंगतः इसमें बारह अंगों, सैंतीस कालिक सूत्रों तथा अट्ठाईस उत्कालिक सूत्रों के नामों का सूचन है । प्राचार्य यशोदेव सूरि ने इस पर वृत्ति की रचना की, जो सुखवि बोधा के नाम से प्रसिद्ध है । खामरणा-सुत (क्षामरणा-सूत्र ) पाक्षिक क्षामणा सूत्र के नाम से भी यह रचना प्रसिद्ध है । इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है । इसे पाक्षिक सूत्र के साथ गिनने की परम्परा भी है और पृथक् भी । वंदित्तु सुत्त इस सूत्र का प्रारम्भ वंदित्त सव्वसिद्ध इस गाथा से होता है और यही इसके नामकरण का आधार है । ऐसी मान्यता है कि इसकी रचना गणधरों द्वारा की गयी। अनेक आचार्यो ने टीकाओं की रचना की, जिनमें देवसूरि, पार्श्वसूरि, जिनेश्वर सूरि, श्रीचन्द्रसूरि तथा रत्नशेखर सूरि आदि मुख्य हैं। चूरिंग की भी रचना हुई, जो इस पर रचे गये व्याख्या - साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन है । इसके रचयिता विजयसिंह थे ११८३ विक्रमाब्द है । वंदित सुत्त की अपर संज्ञा श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र आवश्यक से सम्बद्ध ही माना जाना चाहिए । । रचना - काल भी है । इसे इसिमासि ( ऋषिभाषित) ऋषि से यहां प्रत्येक बुद्ध का आशय है । यह सूत्र प्रत्येक बुद्धों द्वारा भाषित या निरूपित माना जाता है । तदनुसार इसकी संज्ञा ऋषिभाषित हो गयी। इसके पैंतालीस अध्ययन हैं, जिनमें प्रत्येक बुद्धों के चरित्र वर्णित हैं । इसके कतिपय अध्ययन पद्य में हैं तथा कतिपय गद्य में । कहा जाता है कि इस पर नियुक्ति की भी रचना की गयी, पर वह अप्राप्य है । 2010_05 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਦ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन नन्दी तथा अनुयोगद्वार नन्दी-सूत्र : रचयिता नदी सूत्र के रचयिता दूष्यगणी के शिष्य देववाचक माने जाते हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार देववाचक देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का ही नामान्तर है । देववाचक और देवगिरणी क्षमाश्रमण दो व्यक्ति नहीं हैं, एक ही हैं, पर, एतत्सम्बद्ध सामग्री से यह स्पष्टतया सिद्ध नहीं होता, दोनों दो भिन्न-भिन्न गच्छों से सम्बद्ध थे, कुछ इस प्रकार के पुष्ट साक्ष्य भी हैं । क २ स्वरूप : विषय-वस्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में पचास गाथाएं हैं। प्रथम तीन गाथाओं में ग्रन्थकार ने अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर को प्ररणमन करते हुए मंगलाचरण किया है । इसके पश्चात् चौथी गाथा से उन्नीसवीं गाथा तक एक सुन्दर रूपक द्वारा धर्म संघ की प्रशस्ति एवं स्तवना की है । बीसवीं और इक्कीसवीं गाथा में श्राद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभ से अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक; चौबीस तीर्थंकरों को सामष्टिक रूप में वन्दन किया गया है । बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं गाथा में भगवान् महावीर के ग्यारह गरणधरों तथा धर्म-संघ का वर्णन है । पच्चीसवीं गाथा से सैंतालीसवीं गाथा तक प्रार्य सुधर्मा से लेकर दृष्यगणी तक स्थविरावली का प्रशस्तिपूर्वक वर्णन है । अड़तालीसवीं से पचासवीं गाथा तक तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षांति, मार्दव, शील आदि उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी युगप्रधान श्रमणों तथा श्रुत- वैशिष्ट्य - विभूषित श्रमरणों की स्तवना की है । इससे प्रकट है कि यह स्थविरावली युग-प्रधान परिपाटी पर आधृत है । तदनन्तर सूत्रात्मक वर्णन आरम्भ होता है । स्थान-स्थान पर गाथाओं का प्रयोग भी हुआ है । 2010_05 ज्ञान के विश्लेषरण के अन्तर्गत मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव तथा केवलज्ञान की व्याख्या की गयी हैं । उनके भेद-प्रभेद, उद्भव, विकास श्रादि का तलस्पर्शी तात्विक विवेचन किया गया है । सम्यक् श्रुत के प्रसंग में द्वादशांग या गणि-पिटक के आचारांग, सुत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग प्रभृति बारह भेद निरूपित किये गये हैं। प्रासंगिक रूप में वहां मिथ्या श्रुत की भी चर्चा की गयी है । गणिक, आगमिक, अंग-प्रविष्ट, अंग - बाह्य प्रादि के रूप में श्रुत का विस्तृत विश्लेषरण किया गया है । आगमिक वाङ् मय के विकास Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आर्ष (अब मागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय ४८३ तथा विस्तार के परिशीलन की दृष्टि से नन्दी सूत्र का यह अंश विशेषतः पठनीय है। जिनदास महत्तर ने नन्दी सूत्र पर चूणि की रचना की। आचार्य हरिभद्र तथा प्राचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाओं का निर्माण किया। অনুখীলাৰ नन्दी की तरह यह सूत्र भी अर्वाचीन है, जो इसकी भाषा तथा वर्णन-क्रम से गम्य है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न अनुयोगों से सम्बद्ध विषयों का आकलन है । विशेषतः संख्या-क्रम-विस्तार, जो गणितानुयोग का विषय है, का इसमें विशद विवेचन है । यह ग्रन्थ प्रायः प्रश्नोत्तर की शैली में रचित है। सप्त स्वर प्रसंगोपात इसमें षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद संज्ञक सात स्वरों का विवेचन है । स्वरों के उत्पत्ति-स्थान के सम्बन्ध में कहा गया है कि षड्न स्वर जिह्वा के अग्र-भाग से उच्चरित होता है। ऋषभ स्वर का उच्चारण-स्थान हृदय है। गान्धार स्वर कण्ठान से निःसृत होता है। मध्यम स्वर का उच्चारण जिह्वा के मध्य भाग से होता है । पंचम स्वर नासिका से बोला जाता है। धैवत स्वर दांतों के योग से उच्चरित होता है । निषाद स्वर नेत्र-भृकुटि के आक्षेप से बोला जाता है । सातों स्वरों के जीव-निःसृत और अजीव-निःसृत भेद-विश्लेषण के अन्तर्गत बताया गया है कि मयूर षड्ज स्वर, कुक्कुट ऋषभ स्वर, हंस गांधार स्वर, गाय-भेड़ आदि पशु मध्यम स्वर, वसन्त ऋतु में कोयल पंचम स्वर, सारस तथा क्रौंच पक्षी धवत स्वर और हाथी निषाद स्वर में बोलता है। मानव कृत स्वर-प्रयोग के फला-फल पर भी विचार किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में ग्राम, मूर्छना आदि का भी उल्लेख है। पाठ विभक्तियों की भी चर्चा है । कहा गया है, निर्देश में प्रथमा, उपदेश में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी, आधार में सप्तमी तथा आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति होती है । प्रकृति, पागम, लोप, समास, तद्धित, धातु प्रादि अन्य ब्याकरण-सम्बन्धी विषयों की भी चर्चा की गयी है । प्रसंगतः काध्य के नौ रसों का भी उल्लेख हुआ है । पल्योपम, सागरोपम आदि के भेद-प्रभेद तथा विस्तार; संख्यात, असंपात, अनन्त ____ 2010_05 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड २ आदि का विश्लेषण, भेद-प्रकार; आदि का विस्तार से वर्णन है । जैन पारिभाषिक परिमारणक्रम तथा संख्या-क्रम की दृष्टि से इसका वस्तुतः महत्व है । সইথো শুনা __ कुप्रावचनिक, मिथ्या शास्त्र, पाखण्डी श्रमण, कापालिक, तापस, परिव्राजक, पाण्डुरंग आदि धर्मोपजीवियों,तृण, काष्ठ तथा पत्ते ढोने वालों, वस्त्र, सूत, भाण्ड आदि का विक्रय कर जीविकोपार्जन करने वालों, जुलाहों, बढ़इयों, चितेरों, दांत के कारीगरों, छत्र बनाने वालों आदि का यथाप्रसंग विवेचन हुआ है। प्रमारण-चर्चा प्रमाण-वर्णन के प्रसंग में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम की विशद चर्चा की गयी है। दो भेद बतलाये गये हैं : इन्द्रिय-प्रत्यक्ष तथा नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के पांच भेद कहे गये हैं-श्रोत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, चक्षुः-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष तथा स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष । नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का वर्णन करते हुए उसे अवधि-ज्ञान-प्रत्यक्ष, मनःपर्यव-ज्ञान-प्रत्यक्ष तथा केवल-ज्ञान-प्रत्यक्ष; इस प्रकार तीन प्रकार का बतलाया गया है । अनुमान का वर्णन करते हुए उसके पूर्ववत् तथा दृष्टि-साधर्म्य नामक तीन भेदों की चर्चा की गयी है। प्रमाण की तरह नयवाद की भी विस्तार से चर्चा हुई है । इन वर्णनक्रमों से इसके अर्वाचीन होने का कथन परिपुष्ट होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पर जिनदास महत्तर की चुणि है । आचार्य हरिभद्र तथा मलधारी हेमचन्द्र द्वारा टीकाओं को भी रचना की गयी। दस पइण्णग (दश प्रकीर्णक) . प्रकीर्णक का आशय इधर-उधर बिखरी हुई, छितरी हुई सामग्री या विविध विषयों के समाकलन अथवा संग्रह से है । जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है, जो तीर्थंकरों के शिष्य उद्बुद्धचेता श्रमणों द्वारा अध्यात्म-सम्बद्ध विविध विषयों पर रखे जाते रहे हैं। সন্ধীথাব্দী ধ্বী বংশগ্ৰহণ मन्बी सूत्र में किये गये उल्लेख के अनुसार प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ के शिष्यों 2010_05 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्य (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय [ ४८५ द्वारा चौरासी सहस्र प्रकीर्णकों की रचना की गयी । दूसरे से तेईसवें तक के तीर्थंकरों के शिष्यों द्वारा संख्येय सहस्र प्रकीर्णक रचे गये । चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के शिष्यों द्वारा चौदह सहस्र प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की गयी । नन्दी सूत्र मैं इस प्रसंग में ऐसा भी उल्लेख है कि जिन-जिन तीर्थंकरों के औत्पातिकी, aft, कार्मिक तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धि से उपपन्न जितने भी शिष्य होते हैं, उनके उतने ही सहस्र प्रकीर्णक होते हैं। जितने प्रत्येक बुद्ध होते हैं, उनके भी उतने ही प्रकीर्णक-प्रन्थ होते हैं । मन्दी सूत्र के टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि अर्ह प्ररूपित श्रत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य भी ग्रन्थ रचना करते हैं, उसे प्रकीर्णक कहा जाता है। अथवा अर्हत् उपदिष्ट श्रत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्म देशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन कौशल से ग्रन्थ पद्धत्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रकीर्णक-संज्ञक हैं । 2 प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थकरों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी; क्योंकि वे किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते । वे किसी के शिष्य भी नहीं होते। इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि प्रव्राजक या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य की दृष्टि से प्रत्येक-बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, पर, तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट धर्म शासन की प्रतिपन्नता या तदनुशासन - सम्पृक्तता की १. एवमाइयाई चउरासीइं पइण्णग- सहस्साई भगवओ अरहओ उस हसामियस्स आइतित्थयरस्स । तहा संखिउजाई पइण्णगसहस्साइं मज्झिमगाणं जिणवराणं । चौद्दसपइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स । अहवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए dustry कम्मियाए परिणामियाए चउब्विहीए बुद्धिए उववेया, तस्स तत्तियाई पइण्णगुसहस्साइं । पत्तेय बुद्धा वि तत्तिया चेव । - नन्दी सूत्र, ५१ ... इह यद्भगव बर्हदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचयन्ति तत्सवं 'प्रकीर्णकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाऽऽदिषु प्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्वप्रकीर्णम् । -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ३ 2010_05 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और विपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वती होने से वे औपचारिकतया तीर्थकर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं; अतः प्रत्येक-बुद्धों द्वारा प्रकीर्णक-रचना की संगतता व्याहत नहीं होती। সাদা সীথা वर्तमान में जो मुख्य-मुख्य प्रकीर्णक संज्ञक कृतियां प्राप्त हैं, वे संख्या में दश हैं : १. चउसरण (चतुः शरण), २. आउर-पच्चक्खाण (आतुर-प्रत्याख्यान), ३. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान), ४. भत्त-परिष्णा (भक्त-परिज्ञा), ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुल-वैचारिक), ६. संथारग (संस्तारक), ७. गच्छायार (गच्छाचार), ८. गणिविज्जा (गणि-विद्या), ९. देविंद-थय (देवेन्द्र - स्तव), १०. मरण-समाही (मरण-समाधि) । १. चउस रण (चतु : शरण) जैन परम्परा में अर्हत्, सिद्ध, साधु और जिन-प्ररूपित धर्म; ये चार शरण आश्रयभूत माने गये हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति के ये आधार-स्तम्भ हैं । इन्हीं चार के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम चतुःशरण रखा गया है । - दुष्कृत त्याज्य है, सुकृत ग्राह्य; यह धर्म का सन्देश है। इस प्रकरण में दुष्कृतों को निन्दित बताया गया है और सुकृतों को प्रशान्त, जिसका आशय है कि मनुष्य को असत् कार्य न कर सत्कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए। इसको कुशलानुबन्धी अध्ययन भी कहा जाता है, जिसका अभिप्राय है कि यह कुशल-सुकृत या पुण्य की अनुबद्धता का साधक है। इसे तीनों सन्ध्याओं में ध्यान किये जाने योग्य बताया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि यह प्रकीर्णक विशेष उपादेय माना जाता रहा है। चतुःशरण की अन्तिम गाथा में वीरभद्र का नामोल्लेख है, जिससे अनुमान किया जाता है कि वे इसके रचयिता रहे हों। भुवनतुग द्वारा वृत्ति की रचना को गयी और गुणरत्न द्वारा अवचूरि की। १. ."प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुद्ध यते, तदेतवसमीचीन, यतः प्रव्राजकाऽऽचार्यमेवाधि कृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तु तीर्थकरोपविष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, सतो न कश्चिद्दोषः। -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ०४ ____ 2010_05 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ भाशा और साहित्य] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय २. पाउर-पचक्खाण (प्रातुर-प्रत्याख्यान) নাগ ; পাহাখ : বিশ্ব प्रातुर शब्द सामान्यतः रोग-ग्रस्त- वाची है। आतुरावस्था में मनुष्य की दो प्रकार की मानसिक अवस्थाएं सम्भावित हैं । जिन्हें देह, दैहिक भोग और लौकिक एषणाओं में आसक्ति होती है, वे सांसारिक मोहाच्छन्न मनःस्थिति में रहते हैं । भुक्त भोगों की स्मृति और अप्राप्त भोगों की लालसा में उनका मन आकुल बना रहता है। इसलिए अपने अन्तिम काल में भी वे प्रत्याख्यानोन्मुख नहीं हो पाते । संसार में अधिकांश लोग इसी प्रकार के हैं । अन्ततः मरना तो होता ही है, मर जाते हैं। वैसा मरण 'बाल-मरण' कहा जाता है। यहां बाल का अभिनाय अज्ञानी से है। __दूसरे प्रकार के वे व्यक्ति हैं, जो भोग तथा देह की नश्वरता का चिन्तन करते हुए आत्म-स्वभावोन्मुख बनते हैं। दैनिक कष्ट तथा रोग-जनित वेदना को वे आत्म-बल से सहते जाते हैं और अपने भौतिक जीवन की इस अन्तिम अवस्था में खाद्य, पेय आदि का परिवर्जन कर, आमरण-अनशन, जो महान् आत्म-बल का द्योतक है, अपना कर शुस चतन्य में लीन होते हुए देह-त्याग करते हैं । जैन परिभाषा में यह 'पण्डित-मरण' कहा जाता है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में बाल-मरण तथा पण्डित-मरण का विवेचन है, जिसकी स्थिति प्रायः आतुरावस्था में बनती है। सम्भवतः इसी पृष्ठ-भूमि के आधार पर इसका नाम आतुर-प्रत्याख्यान रखा गया हो। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्याख्यान से ही सद्गति या शाश्वत शान्ति सधती है । चतुःशरण की तरह इसके भी रचयिता वीरभद्र कहे जाते हैं और उसी की तरह भुवनतुग द्वारा वृत्ति तथा गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी। ३. महापच्चाक्खारण (महा प्रत्याख्यान) নাম : অাগসাথ - असत्, अशुभ या प्रकरणीय का प्रत्याख्यान या त्याग ही जीवन की यथार्थ सफलता का परिपोषक है। यह तथ्य ही वह अाधार-शिला है, जिस पर धर्माचरण टिका है। 2010_05 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [२ प्रस्तुत कृति में इसी पृष्ठभूमि पर दुष्कृत की निन्दा की गई है। त्याग के महान् आद की उपादेयता का इसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । सम्भवत: इसी कारण इसकी संज्ञा महा प्रत्याख्यान की गयी । વિજણ-ચતુ पौगलिक भोगों का मोह या लोलुप भाव व्यक्ति को पवित्र तथा संयत जीवन नहीं अपनाने देता । पौद्गलिक भोगों से प्राणी कभी तृप्त नहीं हो सकता। उनसे संसार - भ्रमण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । एतन्मूलक विषयों का विश्लेषण करते हुए प्रस्तुत कृति मैं माया का वर्जन, तितिक्षा एवं वैराग्य के हेतु, पंच महाव्रत, आराधना आदि विषयों का विवेचन किया गया है । अन्ततः यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि प्रत्याख्यान ही सिद्धि प्राप्त करने का हेतु है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में एक सौ बयालीस गाथाएं हैं । ४. भत्त- परिण्णा (भक्त-परिज्ञा) नाम : आशिय भक्त भोजन वाची है और परिक्षा का सामान्य अर्थ ज्ञान, विवेक या पहचान है । स्थानांग सूत्र में परिशा का एक विशेष अर्थ 'ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान' किया गया है । जैन धर्म में भक्त-परिज्ञा अनशनपूर्वक मरण के भेदों में एक है । श्रातुर प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में जैसा कि विवेचन किया गया है, रुग्णावस्था में साधक आमरण अनशन स्वीकार कर पण्डित - मरण प्राप्त करता है, भक्त-परिज्ञा की स्थिति उससे कुछ भिन्न प्रतीत होती है । वहां दैहिक अस्वस्थता की स्थिति का विशेष सम्बन्ध नहीं है । सदसद् विवेकपूर्वक साधक आमरण अनशन द्वारा देह त्याग करता है । धर्मसंग्रह नामक जैन आचार - विषयक ग्रन्थ के तृतीय अधिकररण में इस सम्बन्ध में विशद वर्णन है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्यान्य विषयों के साथ-साथ भक्त-परिज्ञा का विशेष रूप से वर्णन है । मुख्यतः उसी को आधार मान कर प्रस्तुत प्रकीर्णक का नामकरण किया गया है । इस प्रकीर्णक का कलेवर एक सौ बहत्तर गाथामय है । इसमें भक्त-परिज्ञा के साथ-साथ इंगिनी और पादोपगमन का भी विवेचन है, जो उसी (भक्त-परिज्ञा) की तरह विवेकपूर्वक अशन- त्याग द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मरण-भेद हैं । इस कोटि के पण्डित-मरण के ये तीन भेद माने गये हैं । 2010_05 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [४८९ कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग इस प्रकीर्णक में दर्शन (श्रद्धा-तत्व-आस्था) को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है । कहा मया है कि जो दर्शन-भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें निर्वाण-लाभ नहीं हो सकता । साधकों के ऐसे अनेक उदाहरण उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने असह्य कष्टों तथा परिषहों को प्रात्म-बल के सहारे झेलते हुए अन्ततः सिद्धि लाभ किया । मनोनिग्रह पर बहुत बल दिया गया है। कहा गया है कि साधना में स्थिर होने के लिए मन का निग्रह या नियम्वरण अत्यन्त आवश्यक है। यहां मन को मर्कट की तरह चपल तथा क्षणभर भी शान्त नहीं रह सकने वाला बताया है। उसका विषय वासभा से परे होना दुष्कर है। स्त्रियों की इस प्रकीर्णक में कड़े शब्दों में चर्चा की गयी है। उन्हें सर्पिणी से उपमित किया गया है। उन्हें शोक-सरित्, अविश्वास-भूमि, पाप-गुहा और कपट-कुटीर जैसे हीन नामों से अभिहित किया गया है। इस प्रकीर्णक के रचनाकार वीरभद्र माने जाते हैं। गुणरत्न द्वारा अवधूरि की रचना की गयी। ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुल-वैचारिक) नाम : अर्थ तन्दुल और वैचारिक; इन दो शब्दों का इसमें समावेश है। तन्दुल का अर्थ चावल होता है और वैचारिक स्पष्ट है हो । प्रस्तुत प्रकीर्णक के इस नाम के सम्बन्ध में कल्पना है कि सौ वर्ष का वृद्ध पुरुष एक दिन में जितने तन्दुल खाता है, उनकी संख्या को उपलक्षित कर यह नामकरण हुअा है ।। * कल्पना का आशय बहुत स्पष्ट तो नहीं है, पर, उसका भाव यह रहा हो कि सौ वर्ष के वृद्ध पुरुष द्वारा प्रतिदिन जितने चावल खाये जा सकते हैं, वे गणना-योग्य होते हैं । क्योंकि वृद्धावस्था के कारण सहज ही उसकी भोजन-मात्रा बहुत कम हो जाती है अर्थात् एक सती संखया-कप इससे प्रतिध्वनित होता है । १. तन्वुतानां वर्षशतायुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्याता संख्याविचारेणोपलक्षितं सन्दुलबंचारिकर। -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २१६८ 2010_05 ___ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० -मागम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन यह प्रकीर्णक पांच सौ छयासी गाथानों का कलेवर लिये हुए है। इसमें जीवों का गर्भ में आहार, स्वरूप, श्वासोछ वास का परिमारण, शरीर में सन्धियों की स्थिति व स्वरूप, माड़ियों का परिमाण, रोमकूप, पित्त, रुधिर, शुक्र आदि का विवेचन है । ये तो मुख्य विषय हैं ही, साथ-साथ गर्भ का समय, माता-पिता के अग, जीव की बाल, क्रीड़ा, मन्द मादि दश दशाए', धर्म में अध्यवसाय आदि और भी अनेक सम्बद्ध विषय वरिणत हैं। নাহী া ন ইলা प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रसंगोपात्त नारी का बहुत घृणोत्पादक व भयानक वर्णन किया गया है। कहा गया है कि नारी सहस्रों अपराधों का घर है। वह कपट-पूर्ण प्रेम रूपी पर्वत से निकलने वाली नदी है । वह दुश्चरित्र का अधिष्ठान है । साधुओं के लिए वह शत्रुरूपा है । व्याघ्री की तरह वह क्रू रहृदया है। जिस प्रकार काले नाग का विश्वास नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वह अविश्वस्य है । उच्छृखल घोड़े को जिस प्रकार दमित नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वह दुर्दम है। कुद विचित व्यत्पत्तियां नारी-निन्दा के प्रसंग में नारी-अर्थ-द्योतक शब्दों की कुछ विचित्र व्यत्पत्तियां दी गई हैं । जैसे, नारी के पर्यायवाची प्रमदा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है : पुरिसे भत्ते करंति ति पमयाओ अर्थात् पुरुषों को मत्त-कामोन्मत्त बना देती हैं, इसलिए वे प्रमदाए कही जाती हैं। महिला शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : नाणा विहेहि कम्मे हि सिप्पइयाएहिं पुरिसे मोहंति त्ति महिलाओ। अनेक प्रकार के शिल्प आदि कर्मों द्वारा पुरुषों को मोहित करने के कारण वे महिलाए कही जाती हैं । प्राकृत में महिला के साथ महिलिया प्रयोग भी नारी के अर्थ में है। स्वार्थिक क जोड़कर यह शब्द निष्पन्न हुआ है । इसका विश्लेषण किया गया है : म्हंतं कलि जणयंति त्ति महिलियाओ, वे महान् कलह उत्पन्न करती हैं, इसलिए उन्हें महिलियाओ संज्ञा से अभिहित किया गया है। रामा की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है : पुरिसे हावभावभाइएहिं रमंति त्ति रामाओ। हाव, भाव प्रादि द्वारा पुरुषों को रम्य प्रतीत होने के कारण वे मा कही जाती हैं। ____ 2010_05 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४९१ अंगना की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : पुरिसे अंगाराए करिति त्ति अंगणाओ अर्थात् पुरुषों के अंगों में अनुराग उत्पन्न करने के कारण वे अंगनाएं कहलाती हैं । बारी शब्द की व्युत्पत्ति में कहा गया है : नारीसमा न मराणं अशओ सि माओ । मारियों के सदृश पुरुषों के लिए कोई अरि-शत्रु नहीं है, इस हेतु वे नारी शब्द से संज्ञित हैं । इन व्युत्पत्तियों से ग्रन्थकार का यह सिद्ध करने का प्रयास स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि नारी केवल कामोपकरण है । नारी को एक कुत्सित और बीभत्स भोग्य पदार्थ के रूप मैं चित्रित करने के पीछे सम्भवतः यही आशय रहा हो कि मानव काम से कामिनी से इतना भयाक्रान्त हो जाए कि उस ओर उसका आकर्षण ही मिट जाए। अस्तु, यह एक प्रकार तो है, पर, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसकी उपादेयता सन्दिग्ध एवं विवादास्पद है । प्रस्तुत प्रकीर्णक पर एक वृत्ति की रचना हुई, जिसके लेखक विजयविमल हैं । ६. संथारंग (संस्तारक) जो भूमि पर संस्तीर्ण या प्रास्तीर्ण किया जाए- बिछाया जाए, वह संस्तार या संस्तारक कहा जाता है। जैन परम्परा में इसका एक पारिभाषिक अर्थ है । जो पर्यन्त क्रिया करने को उद्यत होते हैं, आत्मोन्मुख होते हुए अनशन द्वारा देह त्याग करना चाहते हैं, वे भूमि पर दर्भ श्रादि से संस्तार - संस्तारक अर्थात् बिछौना तैयार करते हैं । उस पर लेटते हैं । उस संस्तारक पर देह त्याग करते हुए वे जीवन का वह साध्य साधने में सफल होते हैं, जिसके लिए वे यावज्जीवन साधना- निरत तथा यत्नवान् रहे । उस बिछौने पर स्थित होते हुए वे संसार सागर को तैर जाते हैं; अतः संस्तारक का अर्थ संसार सागर को तेरा देने वाला, उसके पार लगाने वाला करें, तो भी असंगत नहीं लगता । प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्तिम समय में आत्माराधना- निरत साधक द्वारा संयोजित इस प्रक्रिया का विवेचन है । एक सौ तेईस गाथाओं में यह प्रकीर्णक विभक्त है । इसमें संस्तारक की प्रशस्तता का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया गया है । कहा गया है कि जिस प्रकार मणियों में वैडूर्य १. संस्तीर्यते भूपीठे शयालुभिरिति संस्तारः स एव संस्तारकः । पर्यन्तक्रियां कुर्वदिर्दर्भा - दिर्भावरस्तरणे, तत्क्रियाप्रतिपादन रूपे प्रकीर्णकग्रन्थे । -अभिधान राजेन्द्र, सप्तम भाग, पृ० १९५ 2010_05 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ] आगम और fafपटक : एक अनुशीलन [ ww: { मरिण, सुरभिमय पदार्थो में गोशीर्ष चन्दन तथा रत्नों में हीरा उसम है, उसी प्रकार साधना-क्रमों में संस्तारक परम श्रेष्ठ है । श्रौर भी बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है कि तृणों का संस्तारक बिछा कर उस पर स्थित हुधा श्रमल मोक्ष-सुख की अनुभूति करता है । इस प्रकीर्णक में ऐसे अनेक मुनियों के कथानक दिये गये हैं, जिन्होंने संस्तारक पर आसीन होकर पण्डित मरण प्राप्त किया । गुणरत्न ने इस पर अवचूरि की रचना की । ७. गच्छायार (गच्छाचार) गच्छ एक परम्परा या एक व्यवस्था में रहने वाले या चलने वाले समुदाय का सूचक है, जो आचार्य द्वारा अनुशासित होता है । जब अनेक व्यक्ति एक साथ सामुदायिक या सामूहिक जीवन जीते हैं, तो कुछ ऐसे नियम, परम्पराएं, व्यवस्थाएं मान कर चलनापड़ता है, जिससे सामूहिक जीवन समीचीनता, स्वस्थता तथा शान्ति से चलता जाए । श्रमरणसंघ के लिए भी यही बात है । एक संघ या गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों को कुछ विशेष परम्परानों तथा मर्यादाओं को लेकर चलना होता है, जिनका सम्बन्ध साध्वाचार, अनुशासन, पारम्परिक सहयोग, सेवा और सौमनस्यपूर्ण व्यवहार से है । सामष्टिक रूप में वही सब सम्प्रदाय, गण या गच्छ का आचार कहा जाता है । आधुनिक भाषा में उसे संघीय आचार संहिता के नाम से अभिहित किया जा सकता है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में इन्हीं सब पहलुओं का वर्णन है । इस प्रकीर्णक में कुल एक सौ सैंतीस गाथाएं हैं, जिनमें कतिपय अनुष्टुप् छन्द में रचित हैं तथा कतिपय आर्या छन्द में । महानिशीथ, वृहत्कल्प श्रीर व्यवहार आदि छेद-सूत्रों का वर्णन पहले किया ही गया है, जिनमें साधु-साध्वियों के प्राचार, उनके द्वारा ज्ञातअज्ञात रूप में सेवित दोष, तदर्थ प्रायाश्चित विधान प्रादि से सम्बद्ध विषय वरिंगत हैं । कहा जाता है, इन ग्रन्थों से यथापेक्ष सामग्री संची कर एक गच्छ में रहने वाले साधुसाध्वियों के हित की दृष्टि से इस प्रकीर्णक की रचना की गयी। इसमें गच्छ के साधु, साध्वी, श्राचार्य, उन सबके पारस्परिक व्यवहार, नियमन आदि का विशद विवेचन है । गच्छ के नायक या आचार्य के वर्णन प्रसंग में एक स्थान पर उल्लेख है कि जो आचार्य स्वयं ग्राचार भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचारियों का नियंत्रण नहीं करते अर्थात् आचार भ्रष्टता की उपेक्षा करते हैं, स्वयं उन्मार्गमागी हैं, वे मार्ग और गच्छ का नाश करने वाले हैं । ज्यायान् एवं कनीयान् साधुओं के पारस्परिक वैयावृत्य, विनय, सेवा, आदर, सद्भाव आदि का भी इस ग्रन्थ में विवेचन किया गया है । 2010_05 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WWE और साहित्] भार्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और ओगम वाङ् मय [ ४९३ ब्रह्मवर्य पालन में सदा जागरूक रहने की ओर श्रमणवृन्द को प्रेरित किया गया है । बताया गया है कि वय से वृद्ध होने पर भी श्रमण श्रमणियों के साथ वार्तालाप में संलग्न नहीं होते । श्रमणियों का संसर्ग श्रमरणों के लिए विष-तुल्य है । विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि हो सकता है, डढ़चेता स्थविर के चित्त में स्थिरता -- दृढ़ता हो, पर जिस प्रकार घृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है, उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाए, उसमें दुर्बलता उभर आए। वैसी स्थिति में, जैसा कि आशंकित है, यदि स्थविर अपना धैर्य खो बैठे, तो वह ठीक वैसी दशा में आपतित हो जाता है, जैसे कफ में आलिप्त मक्षिका । अन्ततः यहां तक कहा गया है कि श्रमरण को बाला, वृद्धा, बहिन, पुत्री और दौहित्री तक का नैकट्य नहीं होने देना चाहिए । व्याख्या : साहित्य प्रानन्दविमल सूरि के शिष्य श्री विजयविमल गरणी ने गच्छाचार पर टीका की रचना की । टीकाकार ने एक प्रसंग में उल्लेख किया है कि वराहमिहिर प्राचार्य भद्रबाहु के भाई थे । इस सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में चर्चा की जा चुकी है, यह इतिहास सम्मत तथ्य नहीं है । इतिहास पर प्रामाणिकता, गवेषणा तथा समीक्षा की दृष्टि से ध्यान न दिये जा सकने के कारण इस तरह के अप्रामाणिक उल्लेखों का प्रचलन रहा हो, ऐसा सम्भावित लगता है । टीकाकार ने यह भी चर्चा की है कि वराहमिहिर ने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों का अध्ययन करके वाराही संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की । ८. गरिण- विज्जा (गणि- विद्या) श्रापाततः प्रतीत होता है, इस प्रकीर्णक के नाम में आया हुआ गणि शब्द गरण के प्रधिपति या आचार्य के अर्थ में हो; क्योंकि प्राकृत में सामान्यतः गरिण शब्द का प्रचलित प्रर्थं ऐसा ही है । संस्कृत में भी गणिनु शब्द इसी अर्थ में है । समास में न का लोप होकर केवल गणि रह जाता है । वास्तव में प्रकीर्णक के नाम में पूर्वाद्ध में जो गणि शब्द है, वह गणनायक के अर्थ में नहीं है । गणि शब्द की एक अन्य निष्पत्ति इन प्रत्यय लगा कर गणना के अर्थ में गणि शब्द बनाया जाता है। है; क्योंकि प्रस्तुत प्रकीरणंक में गणना सम्बन्धी विषय वर्णित है । भी है । गण, धातु के यहां उसी का अभिप्रेत यह प्रकीर्णक बयासी 2010_05 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन गाथाओं में विभक्त है । इसमें तिथि, वार, करण, मुहूर्त्त, शकुन, लग्न, नक्षत्र, निमित्त आदि ज्योतिष सम्बन्धी विषयों का विवेचन है । घण्टे के अर्थ में यहां होरा शब्द का प्रयोग हुआ है । i C. देविंद -थय (देवेन्द्र - स्तव) एक श्रावक चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हुआ भगवान् महावीर की स्तवना करता है । तब श्रावक की गृहिणी अपने पति से इन्द्र आदि के विषय में जिज्ञासा करती है । वह श्रावक तब कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत देवताओं आदि का वर्णन करता है । यही सब इस प्रकीर्णक का वर्ण्य विषय है । खण्ड : २ पिछले कई प्रकीर्णकों की तरह इस प्रकीर्णक के रचनाकार भी श्री वीरभद्र कहे जाते हैं । इसमें तीन सौ सात गाथाएं समाविष्ट हैं । १०. मरण समाही ( मरण- समाधि) जिससे सभी सदा भया मरण, जिसका कभी न कभी सबको सामना करना पड़ता है, कान्त रहते हैं, जिसके स्मरण मात्र से देह में एक सिहरन सी दौड़ जाती है, को परम सुखमय बनाने के हेतु जैन दर्शन ने गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन किया है तथा उसके लिए एक प्रशस्त मार्ग-दर्शन दिया है ताकि मृत्यु मानव के लिए भीति के स्थान पर महोत्सव बन जाए । समाधि-मरण उसी का उपक्रम है । मानसिक स्थिरता, आत्मोन्मुखता, शुद्ध चिन्तनपूर्वक देहासक्तिवजित मरण समाधिमरण है। वहां खान-पान आदि सब कुछ सहज भाव से परित्यक्त हो जाते हैं। साधक आत्मअनात्म के भेद - विज्ञान की कोटि में पहुंचने लगता है । ऐसी ग्रन्तः स्थिति उत्पन्न हो, जीवन में यथार्थगामिता व्याप्त हो जाए, एतदर्थ चिन्तनशील जैन मनीषियों ने कुछ व्यवस्थित विधि - क्रम दिये हैं, जो उनके न केवल शास्त्रानुशीलन, अपितु उनके जीवन-सत्य के साक्षाकार से प्रसूत है । इस प्रकीर्णक में समाधि-मरण, उसके भेद आदि का इसी परिप्रेक्ष्य में तात्विक एवं विशद विवेचन है । कलेवर : विषय-वस्तु 2010_05 प्रस्तुत प्रकीर्णक छ : सौ तिरेसठ गाथाओं का शब्द कलेवर लिए हुए है । परिमाण में दशों प्रकीर्णक ग्रन्थों में यह सबसे बृहत् है । वर्ण्य विषय से सम्बद्ध भक्त-परिज्ञा, आतुर - Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय । ४९५ प्रत्याख्यान, महा-प्रत्याख्यान, मरण-विभक्ति, मरण-विशोधि, आराधना प्रभृति अनेकविधि श्रत-समुदय के आधार पर इस प्रकीर्णक का सर्जन हुआ है। गुरु और शिष्य के संवाद के साथ इस ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। शिष्य को समाधिमरण के सम्बन्ध में जिज्ञासा होती है। गुरु उसके समाधान में आराधना, आलोचना, संलेखना, उत्सर्ग, अवकाश, संस्तारक, निसर्ग, पादोपगमन आदि चौदह द्वारों के माध्यम से समाधि-मरण का विस्तृत विश्लेषण करते हैं । अनशन-तप की व्याख्या, संलेखना-विधि, पण्डित-मरण के स्वरूप आदि का इस प्रकीर्णक में समावेश है, जो आत्म-साधकों के लिए केवल पठनीय ही नहीं, आन्तरिक दृष्टि से भी विचारणीय है । प्रासंगिक रूप में इसमें उन महापुरुषों के दृष्टांत उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने परिषहों को समभाव से सहते हुए पादोपगमन आदि तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की । धर्म-तत्वोपदेश के सन्दर्भ में और भी अनेक दृष्टान्त उपस्थित किये गये हैं । बारह भावनाओं के विवेचन के साथ यह प्रकीर्णक समाप्त होता है । दश प्रकीर्णकों पर यह संक्षिप्त ऊहापोह है। इनके अतिरिक्त और भी कतिपय प्रकीर्णक हैं, जिनमें ऋषि-भाषित, तीर्थोद्गार-परिज्ञा, आजीव-कल्प, सिद्धप्राभृत, आराधना-प्रताका, द्वीप-सागर-प्रज्ञप्ति, ज्योतिष-करण्डक, अंग-विद्या तथा योनि-प्राभृत; आदि उल्लेखनीय हैं । उपसंहार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्वारा मुख्यतया निम्नांकित पैंतालीस पागम स्वीकृत हैं, जिनका पिछले पृष्ठों में विश्लेषण किया गया है : अंग-११, उपांग-१२, छेद-६; मूल-४, नन्दी-अनुयोगद्वार-२, प्रकीर्णक-१० । कुल ४५ । अन्य प्रकीर्णक ग्रन्थों के मिलाने पर इनकी संख्या चौरासी तक हो गयी। किसी समय श्वेताम्बर मूर्तिपूजक * सम्प्रदाय के गच्छों की संख्या भी चौरासी थी। हो सकता है, इस संख्या ने भी वैसा करने की प्रेरणा दी हो। श्वेताम्बर सम्प्रदायों के अन्तर्गत स्थानकवासी सम्प्रदाय तथा तेरापंथ सम्प्रदाय द्वारा उपर्युक्त पैंतालीस आगमों में बत्तीस आगम प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं: अंग-११ उपांग-१२ ____ 2010_05 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***i Hit और faves : एक अनुशीलन छेद- ४ - १. निशीथ, २. व्यवहार, ३ वृहत्कल्प, ४. दशाश्रु तस्कन्ध मूल - ४ --- १. दशर्वकालिक, २. उत्तराध्ययन, ३, अनुयोगद्वार, ४. नन्दी आवश्यक - १ | कुल ३२ श्रागमों पर व्याख्या - साहित्य प्रथोजन श्रार्य भाषा-परिवार के अन्तर्गत छन्दस् के विश्लेषण तथा जैन उपांग- साहित्य के विवेचन के सन्दर्भ में वेदों के अंग, उपांग आदि की चर्चा की गयी है । वेदों को यथावत् रूप में समझने के लिए उनके छः अंग, उपांग या विद्या-स्थान पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्म - शास्त्र का प्रयोजन है । साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उनसे उद्भुत सूत्र ग्रन्थों एवं सायण आदि प्राचार्यों द्वारा रचित भाष्यों की भी उपयोगिता है । इस वाड्मय का भलीभांति अध्ययन किये बिना यह शक्य नहीं है कि वेदों का हार्द सही रूप में प्रात्मसात किया जा सके । वेदों के साथ जो स्थिति उपर्युक्त अंगोपांग एवं भाष्य - साहित्य की है, वही पालिपिटकों के साथ प्राचार्यं बुद्धघोष, आचायं बुद्धदत्त तथा आचार्य धम्मपाल श्रादि द्वारा रचित अट्ठकथाओं की है । पिटक - साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए इन अट्ठकथानों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । २ प्राकृत जैन श्रागमों के साथ उनके व्याख्या - साहित्य की भी इसी प्रकार की स्थिति 'है। उसकी सहायता या आधार के बिना श्रागमों का हार्द यथावत् रूप में गृहीत किया जाना कठिन है। जैन आगमों की अपनी विशेष पारिभाषिक शैली है, अनेक आगमों में प्रत्यन्त सूक्ष्म तथा गम्भीर विषयों का निरूपण है; अतः यह कम सम्भव है कि उन्हें सीधा सम्यक्तया समझा जा सके। इनके अतिरिक्त आगमों की दुरूहता बढ़ जाने का एक और कारण है । उनमें वाचना-भेद से स्थान-स्थान पर पाठ-भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । तद्विषयक परम्पराएं ग्राम प्राप्त नहीं हैं; प्रतः आगम-गत विषयों की समुचित संगति बिठाते हुए १. सूत्र - प्रन्थ रथूल रूप में चार भागों में विभक्त है : १. श्रौतसूत्र, २. गृह्यसूत्र, ३. धर्मसूत्र तथा ४. शुल्व सूत्र । 2010_05 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य | आर्य (अब मागधी) प्राकृत और आगम बाइ मय [४६७ उनका अभिप्राय यथावत् पकड़ पाना सरल नहीं है । व्याख्याकारों ने इस सन्दर्भ में स्थानस्थान पर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है, जिससे आगम-अध्येताओं को उनके अध्ययन, अनुशीलन और उनका अभिप्राय स्वायत्त करने में सुविधा हो। व्याख्यानों की विधा . जैन प्राचार्यों का इस ओर सतत प्रयत्न रहा कि आगम-गत तत्व पाठकों द्वारा सही रूप में आत्मसात् किया जाता रहे। यही कारण है कि आगमों के व्याख्या-परक साहित्य के सर्जन में वे सदा कृत-प्रयत्न रहे । फलतः नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका, वृत्ति, दीपिका, व्याख्या, विवेचन, विवरण, अवचूरि, पंजिका, वचनिका तथा टब्बा आदि विविध प्रकार का विपुल व्याख्या-साहित्य प्राप्त है। बहुत-सा प्रकाश में आया है तथा अन्य बहुत-सा प्रकाशन की प्रतीक्षा में भण्डारों में, मंजूषाओं तथा पुट्ठों में, आज भी प्रतिबद्ध है। व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियों तथा भाष्यों की रचना प्राकृत भाषा में हुई। चूरिया यद्यपि प्राकृत-संस्कृत का मिश्रित रूप लिये हुए हैं, पर, वहां मुख्यतया प्राकृत का प्रयोग है। कुछ टीकाएं भी प्रकृत-निबद्ध या प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित हैं । अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं । इस प्रकार आगमों के अतिरिक्त उनसे सम्बद्ध प्राकृत-साहित्य की ये चार विधाएं पौर हैं । आगमों सहित उसके पांच प्रकार होते हैं, जिसे पंचांगी साहित्य कहा जाता है। प्राकृत के विकास के विभिन्न स्तरों, रूपों आदि का अवबोध, भाषाशास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का सूक्ष्म परिशीलन, आगमगत जैन दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र के विविध पक्षों के प्रामाणिक तथा शोधपूर्ण अध्ययन आदि अनेक दृष्टियों से इस पंचांगी साहित्य के व्यापक पौर गम्भीर परिशीलन की वास्तव में बहुत उपयोगिता है। निज्जुत्ति (नियुक्ति) व्याख्याकार प्राचार्यों व विद्वानों के अनुसार सूत्रों में जो नियुक्त हैं, निश्चित किया हुआ है, वह अर्थ जिसमें निबद्ध हो—समीचीनतया सन्निवेशित हो-यथावत् रूप में निर्दिष्ट हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है । नियुक्तिकार इस निश्चय को लेकर चलते हैं कि वे सूत्रों का सही तथ्य यथावत् रूप में प्रस्तुत करें, जिससे पाठक सूत्रगत विषय सही रूप में हृद्गत कर सकें । पर, जिस संक्षिप्त और संकेतमय शैली में नियुक्तियां लिखी गयी हैं, उससे यह कम सम्भव लगता है कि उन्हें भी बिना व्याख्या के सहजतया समझा जा सके । यद्यपि निवेच्य विषयों को समझाने के हेतु अनेक उदाहरणों, दृष्टान्तों तथा कथानकों का उनमें 2010_05 | Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ } आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: प्रयोग हुआ है, पर, उनका संकेत जैसा कर दिया गया है, स्पष्ट और विशद वर्णन नहीं मिलता । ऐसी मान्यता है कि नियुक्तियों की रचना का आधार गुरु- परम्परा - प्राप्त पूर्वमूलक वाङ् मय रहा है । श्रम वृन्द गमिक विषयों को सहजतया मुखाग्र रख सकें, नियुक्तियों की रचना के पीछे सम्भवतः यह भी एक हेतु रहा हो । ये आर्या छन्द में रचित गाथाओं में हैं; इसलिए इन्हें कण्ठस्थ रखने में अपेक्षाकृत अधिक सुगमता रहती हैं । कथाएं, दृष्टान्त आदि का भी संक्षेप में उल्लेख या संकेत किया हुआ है । उससे वे मूल रूप में उपदेष्टा श्रमणों के ध्यान में आ जाते हैं, जिनसे वे उन्हें विस्तार से व्याख्यात कर सकते हैं । ऐतिहासिकता व्याख्या - साहित्य में नियुक्तियां सर्वाधिक प्राचीन हैं । पिण्ड - नियुक्ति तथा औघनियुक्ति की गणना श्रागमों के रूप में की गयी है । इससे यह स्पष्ट होता है कि पांचवीं ई० शती में वलभी में हुई आगम-वाचना, जिसमें अन्ततः आगमों का संकलन एवं निर्धारण हुआ, उससे पूर्व ही नियुक्तियों की रचना आरम्भ हो गयी थी । प्रमुख नैयायिक द्वादशारनय-चन्द्र के रचयिता प्राचार्य मल्लवादी ने अपनी रचना में नियुक्ति-गाथा उद्धृत की है, जिससे मल्लवादी से पूर्व नियुक्तियों का रचा जाना प्रमाणित होता है । मल्लवादी का समय विक्रम का पंचम शतक माना है | नियुक्तियां रचनाकार १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३, सूर्यप्रज्ञप्ति, ४. व्यवहार, ५. कल्प, ६. दशाश्रुतस्कन्ध, ७. उत्तराध्ययन, ८. आवश्यक, ९. दशवैकालिक, १०. ऋषिभाषित; इन दश सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना की गयी है । सूर्यप्रज्ञप्ति तथा ऋषिभाषित की नियुक्तियां प्राप्त हैं। नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है। पर, श्रुतकेवली ( अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर) आचार्य भद्रबाहु, जिन्होंने छेद - सूत्रों की रचना की और नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु एक नहीं हैं । एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आती है कि अनेक नागमों पर रचित नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएं स्थान-स्थान पर एक-दूसरे से इतनी मिल गयी हैं कि उन्हें पृथक् कर पाना दुःशक्य है । चूरिंणकार भी वैसा नहीं कर पाये । 2010_05 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वागमय । ४९९ नियुक्तियों में प्रसंगोपात्ततया जैनों के परम्परा-प्राप्त आचार-विचार, जैन तत्व-ज्ञान के अनेक विषय, अनेक पौराणिक परम्पराएं, ऐतिहासिक घटनाएं (अंशतः ऐतिहासिक अंशतः पौराणिक), इस प्रकार की विमिश्रित मान्यताएं वरिणत हुई हैं। जैन-संस्कृति, जीवन-व्यवहार तथा चिन्तन-क्रम के अध्ययन की दृष्टि से नियुक्तियों का महत्व है। नियुक्तियों में विशेषतः अर्द्ध-मागधी प्राकृत का व्यवहार हुआ है। प्राकृत की भाषाशास्त्रीय गवेषणा के सन्दर्भ में भी ये विशेषतः अध्येतव्य हैं। भास (भाष्य) आगमों के तात्पर्य को और अधिक स्पष्ट करने के हेतु भाष्यों की रचना हुई । इनकी रचना-शैली भी लगभग वैसी है, जैसी नियुक्तियों की । ये प्राकृत-गाथाओं में लिखे गये हैं । नियुक्तियों की तरह इनमें भी संक्षिप्त विवेचन-पद्धति को अपनाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियों की रचना में अर्द्ध- मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है, इनमें कहीं-कहीं अर्द्ध-मागधी के साथ-साथ मागधी और शौरसेनी प्राकृत के रूप दृष्टिगत होते हैं । বম্বনা : হাবিনা मुख्यतया जिन सूत्रों पर भाष्यों की रचना हुई, वे इस प्रकार हैं-१. निशीथ, २. व्यवहार, ३. वृहत्कल्प, ४. पंच-कल्प, ५. जीत-कल्प, ६. उसराध्ययन, ७. आवश्यक, ८. वशवकालिक, ९. पिण्ड-नियुक्ति तथा १०. औघ-नियुक्ति । निशीथ, व्यवहार और वृहत्कल्प के भाष्य अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्व लिये हुए हैं । इनके रचयिता श्री संघदास गणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं । कहा जाता है, ये याकिनीमहत्तर-सूनु प्राचार्य हरिभद्र सूरि के समसामयिक थे । आवश्यक सूत्र पर लघुभाष्य, महाभाष्य तथा विशेषावश्यक भाष्य की रचनाएं की गयीं। अनेक विषयों का विशद समावेश होने के कारण विशेषावश्यक भाष्य का जैन साहित्य में अत्यन्त महत्व है। इसके रचयिता श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण हैं । जीतकल्प तथा उनके स्वोपज्ञ भाष्य के कर्ता भी श्री जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ही हैं। भाष्य-साहित्य में प्राचीन श्रमरण-जीवन और संघ से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं । निर्ग्रन्थों के प्राचीन आचार, व्यवहार, विधि-क्रम, रीति-नीति, प्रायश्चित्तपूर्वक शुद्धि; इत्यादि विषयों के समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान के सन्दर्भ में निशीय ____ 2010_05 . Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५..1 आगम और विपिटक : एक अनुशीलन खण्डे । ३ व्यवहार और वृहत्कल्प-माष्य का अध्ययन नितान्त उपयोगी है। इनमें विविध प्रसंगों पर इस प्रकार के उपयोगी संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थों की आचार-शृखला को जोड़ने वाली अनेक कड़ियां प्रकाश में आती हैं । चुण्णि (चू रिण) ওসব ; সথা आगमों पर नियुक्ति तथा भाष्य के रूप में प्राकृत-गाथाओं में व्याख्यापरख ग्रन्थों की रचना हुई । उनमें आगमों का प्राशय विस्तार तथा विशदता के साथ अधिगत किया जा सके, वैसा शक्य नहीं था; क्योंकि दोनों रचनाएं पद्यात्मक थीं । प्रस्तुत: व्याख्या जितनी स्पष्ट, बोधगम्य तथा हृद्य गद्य में हो सकती है, पद्य में वैसी हो सके, यह सम्भव नहीं हो पाता। फिर दोनों (नियुक्ति तथा भाष्य) में संक्षिप्तता का आश्रयण था; अतः प्रवचनकार प्रवक्ता या व्याख्याता के लिए, जैसा कि उल्लेख किया गया है, वह (शैली) लाभकर थी, पर स्पष्ट और विशद रूप में आगमों का हार्द अधिगत करने के इच्छुक अध्येताओं के लिए उनका बहुत अधिक उपयोग नहीं था। अतएव गद्य के रूप में आगमों की व्याख्या रचे जाने का एक क्रम पहले से रहा है, जो चूरिणयों के रूप में प्राप्त है। ___ अभिधान-राजेन्द्रकार ने चूणि का लक्षण एवं विश्लेषण करते हुए लिखा है : प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति तथा विभाषा के रूप में जो अर्थ-बहुल हो, हेय-उपादेय अर्थ का प्रतिपादन करने की महत्ता या विशेषता से जो संयुक्त हो, जिसकी रचना हेतु, निपात तथा उपसर्ग के समन्वय से गम्भीरता लिए हुए हो, जो अव्यवच्छिन्न-श्लोकवत् विराम रहित हो, जो गम-नैगम-नयानुप्राणित हो, उसे चौर्णपद-चूरिण कहा जाता है। এখাখী ঋী পাণ। चूरिणकार ने भाषा के सम्बन्ध में एक नया प्रयोग किया है। प्राकृत जैन दृष्टि से १. व्याकरण के अनुसार शाब्दिक रचना की स्थितियां । २. अत्यबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसग्गर्गभीरं । बहुपायमवोज्छिन्नं, गमणयसुद्ध तु चुनपयं ॥ ..... .... ............................................ -अभिधान-रजेन्द्र तृतीय भाग, पृ० ११९५ 2010_05 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मार्च (अमागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय (५०१ भार्ष वाक् है, अतः उसे तो उन्होंने लिया ही है, पर, संस्कृत को भी उन्होंने ग्रहण किया है । दर्शन और तत्वज्ञान आदि गम्भीर एवं सूक्ष्म विषयों को विद्वद्भोग्य तथा व्युत्पन्न शैली में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी अप्रतिम विशेषता है । उसका शब्दकोश वैज्ञानिक दृष्टि से विशाल है तथा उसका व्याकरण शब्दों के नव सर्जन की उर्वरता लिए हुए है। उसकी अपनी कुछ विशिष्ट शब्दावली है, जिसके द्वारा संक्षेप में विस्तृत और गहन अर्थ व्याख्यात किया जा सकता है। उसकी विवेचन-सररिण में प्रभावापन्नता और गम्भीरता है। सूक्ष्म और पारिभाषिक (Technical) विश्लेषण की दृष्टि से उसकी अपनी असामान्य क्षमता है। चूर्णिकार द्वारा भाषात्मक माध्यम के रूप में प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत संयोजन के पीछे सम्भवतः इसी प्रकार का दृष्टिकोण रहा हो, अर्थात संस्कृत की इम विशेषतानों से लाभान्वित क्यों न हुअा जाए? धूणियों में किया गया प्राकृत-संस्कृत का मिश्रित प्रयोग 'मणि-प्रवाल-न्याय' से उपमित किया गया है । मणियों और मूगों को एक साथ मिला दिया जाए, तो भी वे पृथक्पृथक् स्पष्ट दीखते रहते हैं । यही स्थिति यहां दोनों भाषाओं की है। রন্ধন ঋী সঘানন। चूणियों में संस्कृत और प्राकृत का सम्मिलित प्रयोग तो हुआ, पर, फिर भी उनमें प्रधानता प्राकृत की रही । पूणियों में यथाप्रसंग अनेक प्राकृत-कथाए दी गयी हैं, जो धार्मिक, सामाजिक किंवा लौकिक जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध हैं। चूरिणकार को जो शब्द विशेष व्याख्येय या विश्लेष्य लगे हैं, उनकी व्युत्पत्ति भी प्रायः प्राकृत में ही प्रस्तुत की गयी है। __ वर्ण्य विषय के समर्थन तथा परिपुष्टता के हेतु स्थान-स्थान पर प्राकृत व संस्कृत के विभिन्न विषयों से सम्बद्ध पद्य उद्धत किये गये हैं । प्राकृत भाषा की क्षमता, अभिव्यंजनाशक्ति, प्रवाहशीलता, लोकजनीनता आदि के साथ भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से पूणियों के अध्ययन की वास्तव में अत्यधिक उपयोगिता है । ফিবা। (নান্ধার आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्या-प्राप्ति, वृहत्कल्प, व्यवहार, मिर्श थ, पंचकल्प, दशाश्रु तस्कन्ध, जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी तथा अनुयोगद्वार पर चूणियों की रचना हुई है। 2010_05 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पिण्ड ___ चूणियों के रूप में जैन साहित्य को ही नहीं, प्रत्युत भारतीय वाङमय को अनुपम देन देने वाले मनीषी श्री जिनदास गणी महत्तर थे। वे वाणिज्य-कुलोप्पन्न थे। धर्म-सम्प्रदाय की दृष्टि से वे कोटिक गण के अन्तर्गत वज्र-शाखा से सम्बद्ध थे। इतिहासज्ञों के अनुसार उनका समय षष्ठ शती ईसवी के लगभग माना जाता है । जैसलमेर के भण्डार में दशवकालिक चूणि की एक प्राचीन प्रति मिली है, जिसके रचयिता स्थविर अगस्त्यसिंह हैं । उनका समय विक्रम कौं तृतीय शती माना जाता है, जिससे प्रकट होता है कि देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में समायोजित वालभी वाचना से लगभग दो-तीन शती पूर्व ही रची जा चुकी थी। आगम-महोदधि स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी द्वारा उसका प्रकाशन किया गया है। श्री जिनदास गणी महत्तर द्वारा रचित दश वैकालिक चूणि के नाम से जो कृति विश्रु त है, उसे प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने वृद्ध-विवरण के नाम से पभिहित किया है। সংবণুথা দুর্থাথা भारतीय लोक-जीवन के अध्ययन की दृष्टि से सभी चूणियों में यत्र-तत्र बहुत सामग्री विकीर्ण है, पर. निशीथ की विशेष चूणि तथा आवश्यक चूणि का उनमें अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें जैन इतिहास, पुरातत्व. तत्कालीन समाज आदि पर प्रकाश डालने वाली विशाल सामग्री भरी पड़ी है। लोगों का खान-पान. वेश-भूषा, प्राभूषण, सामाजिक, धार्मिक एवं लौकिक रीतियां, प्रथाएं, समाज द्वारा स्वीकृत नैतिक मान-दण्ड, समय-समय पर पर्व दिनों के उपलक्ष्य में आयोजित होने वाले मेले, समारोह, जनता द्वारा मनाये जाने वाले त्यौहार, व्यावसायिक स्थिति, व्यापार-मार्ग, एक समुदाय के साथ व्यापारार्थ दूर-दूर समुद्र पार तक जाने वाले बड़े-बड़े व्यवसायी (सार्थवाह), उपज, दुभिक्ष, दस्यु, तस्कर आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का विविध प्रसंगों के बीच इन चूणियों में विवेचन हुअा है। स्पष्टतः पता चलता है कि जैन प्राचार्य तथा सन्त जन-जन को धर्म-प्रतिबोध देने के निमित्त कितने समुद्यत रहे हैं। यही कारण है कि उनका लोक-जीवन के साथ अत्यन्त निकटतापूर्ण सम्पर्क रहा है। तभी तो उस काल के लोक-जीवन का एक सजीव चित्र उपस्थित कर पाना उनके लिए सहजतया सम्भव हो सका। जन-सम्पर्क के साथ-साथ वे कितने व्यवहार-निपुण थे, प्रस्तुत सामग्री से यह भी प्रकट होता है। जैन सन्तों का अपने दर्शन तथा धर्म का गहन अध्ययन तो था ही, अध्ययन की अन्यान्य निष्ठात्रों में भी उनकी गहरी पहुंच थी। वास्तव में उनका अध्ययन बड़ा व्यापक तथा सार्वजनीय था । 2010_05 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] मार्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [५०३ लोक-जीवन तथा लोक-साहित्य के गवेषणापूर्ण अध्ययन की दृष्टि से भी पूणियों का अपना अप्रतिम महत्व है । आगम-प्रन्थों के अतिरिक्त तत्सम्बद्ध साहित्य के इतर ग्रन्थों पर भी चूणियां लिखे जाने का क्रम रहा। उदाहरणार्थ, कर्म-ग्रन्थ, श्रावक-प्रतिक्रमण जसे ग्रन्थों पर भी चूणियां रची गयीं। टोकाएं अभिप्रेत प्रागम ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन, आचार-विचार; संक्षेप में समग्र जैन जीवन के मूल प्राधार हैं; अतः उनके आशय को स्पष्ट, स्पष्टतर और सुबोध्य बनाने की ओर जैन प्राचार्यों तथा मनीषियों का प्रारम्भ से ही प्रयत्न रहा है । फलतः जहां एक ओर नियुक्तियों, भाष्यों और चूणियों का सर्जन हुआ, दूसरी ओर टीकानों की रचना का क्रम भी गतिशील रहा । नियुक्तियों व भाष्यों की रचना प्राकृत-गाथाओं में हुई तथा चूरिणयां प्राकृतसंस्कृत-गद्य में लिखी गयौं, वहां टीकाएं प्राय: संस्कृत में रचित हुई। शब्द-सर्जन की उर्वरता, व्योत्पत्तिक विश्लेषण की विशदता तथा अभिव्यंजना की असाधारण क्षमता आदि संस्कृत की कुछ असामान्य विशेषताएं हैं, जिन्होंने जैन तथा बौद्ध लेखकों को विशेष रूप से आकृष्ट किया। फलत: उत्तरवर्ती काल में जैन तथा बौद्ध सिद्धान्त जब विद्वद्गम्य, प्रांजल तथा प्रौढ़ स्तर एवं दार्शनिक पृष्ठ-भूमि पर अभिव्यक्त व प्रतिष्ठित किये जाने लगे, तब उनका भाषात्मक परिवेश अधिकांशतः संस्कृत-निबद्ध रहा। जैन वाङमय में आचार्य सिद्धसेन के सन्मति-तर्क-प्रकरण के अतिरिक्त प्रायः प्रमाणशास्त्रीय ग्रन्थ संस्कृत में रचे गये । यही सब हेतु थे कि जैन दार्शनिक-काल के पूर्व से ही विद्वान् प्राचार्यों ने आगमों की टीकाओं की भाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार किया । अर्हद्-वाणी की संवाहिका होने के कारण प्राकृत के प्रति जो श्रद्धा थी, उसका इतना प्रभाव तो टीका-साहित्य में अवश्य पाया जाता है कि टीकाओं में कहीं-कहीं कथाएं मूल प्राकृत में ही उद्धृत की गयी हैं । कुछ टीकाएं प्राकृत-निबद्ध भी हैं, पर, बहुत कम । ঠান্ধা : সুহানী এহসহ नियुक्तियां, भाष्य, चूणियां एवं टीकाएं व्याख्या-साहित्य के क्रमिक विकास के रूप नहीं हैं, बल्कि सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि इनका सर्जन स्वतन्त्र और निरपेक्ष रूप में अपना-अपना दृष्टिकोण लिये चलता रहा है। वालभी वाचना के पूर्व से टीकाओं 2010_05 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ 1 . भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन र के रचे जाने का क्रम चालू था। दशवकालिक चूणि के लेखक स्थविर अगस्त्यसिंह, जिनका समय विक्रम के तृतीय घातक के आस-पास था, अपनी रचना में कई स्थानों पर प्राचीन दीकानों के सम्बन्ध में इंगित करते हैं । हिमवत् थेरावली में उल्लेख हिमवत् थेरावली में किये गये उल्लेख के अनुसार आर्य मधुमित्र के अम्घासी तथा तत्वार्थ महाभाष्य के रचयिता आर्य गन्धहस्ती ने आर्य स्कन्दिल के अनुरोध पर द्वादशांग पर विवरण लिखा, जो आज अप्राप्य है । आगम-महोदधि मुनि पुण्य विजयजी के अमुमार आचारांग का विवरण सम्भवतः विक्रम के दो शतक बाद लिखा गया। विवरण वस्तुतः संस्कृत-टीका का ही एक रूप है । इस प्रकार टीकाओं की रचना का क्रम एक प्रकार से बहुत पहले ही चालू हो चुका था। प्रमुख टीकाकार প্রাঘাথ বিশঃ খুব ___ जन जगत् के महान् विद्वान्, अध्यात्म-योगी प्राचार्य हरिभद्र सूरि का आगम-टीकाकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। उनका समय आठवीं ई० शती माना जाता है । उन्होंने आवश्यक, दशवैका लक, नन्दी, अनुयोग-द्वार तथा प्रज्ञापना पर टीकाओं की रचना की । टीकाओं में उनकी विद्वत्ता तथा गहन अध्ययन का स्पष्ट दर्शन होता है । टीकात्रों में कथा-भाग को उन्होंने प्राकृत में ही यथावत् उपस्थित किया। इस परम्परा का कतिपय उत्तरवर्ती टीकाकारों ने भी मनुसरण किया, जिनमें वादिवैताल शान्ति सूरि, नेमिचन्द्र सूरि तथा प्राचार्य मलय गिरि आदि मुख्य हैं। शीला कार्य शीलांकाचार्य ने द्वादशांग वाङमय के अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ आचारांग तथा सूत्रकृतांग पर टीकाओं की रचना की। इनमें जैन-तत्व-ज्ञान तथा प्राचार-क्रम से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित हुए हैं। शीलांकाचार्य का समय लगभग नवम ईसवी शती माना जाता है। शान्त्याचार्य एवं नेमिचन्द्राचार्य ईसा की ग्यारहवीं शती में वादिवताल प्राचार्य शान्ति सूरि तथा प्राचार्य नेमिचन्द्र 2010_05 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य 1 आर्य (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ५०५ सूरि नामक प्रमुख टीकाकार हुए। शान्ति सूरि ने उत्तराध्ययन पर पाइय या शिष्याहिता संज्ञक टीका की रचना की, वह उत्तराध्ययन- वृहद-वृत्ति के नाम से भी प्रसिद्ध है । नेमि - चन्द्रसूरि ने इसी टीका को मुख्य आधार बना कर एक टीका की रचना की, जिसे उन्होंने सुख-बोधा संज्ञा दी । " ज्ञाचार्य शान्ति सूरि ने जहां प्राकृत-कथायों की उदधृत किया है, यहां 'ऐसा वृद्धसम्प्रदाय है' 'यौं वृद्धावाद हैं', 'अभ्य इस प्रकार कहते हैं' इत्यादि महत्वपूर्ण सूचनाएं की हैं, जो अनुसन्धिरसुत्रों के लिए बड़ी उपयोगी हैं । इनसे अनुमेय है कि प्राचीन काल से इन कथाओं की परम्परा चली आ रही थी । कथा - साहित्य के अनुशीलन की दृष्टि से इन कथाओं का निःसन्देह बड़ा महत्व है । पाइय तथा सुखबोधा संज्ञक टीकाओं में कुछ कथाएं तो इतनी विस्तृत हो गयी हैं कि उनकी पृथक् स्वतन्त्र पुस्तक हो सकती है । ब्रह्मदत्त की कथाएं इसी प्रकार की हैं। ear arata प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार बारहवीं - तेरहवीं ई० शती में अनेक टीकाकार हुए, जिन्होंने टीकानों के रूप में महत्वपूर्ण व्याख्या - साहित्य का सर्जन किया। प्राचार्य अभयदेव सूरि ने स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्न व्याकरण, तथा विपाक श्रुत; इन नौ अंग-ग्रन्थों पर विद्वत्तापूर्ण टीकाओं की रचना की, जिनका जैन साहित्य में बड़ा समादत स्थान है । नौ अंगों पर टीकाएं रचने के कारण ये नवांगी टीकाकार के नाम से विश्रुत हैं । इनका समय बारहवीं ई० शताब्दी है । बारहवीं - तेरहवीं शती के टीकाकारों में द्रोणाचार्य, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि एवं क्षेमकीर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । सोलहवीं शती के अन्तिम भाग में हुए शान्तिer भी विश्रुत टीकाकार थे । - विशेषता : महत्व टीकाओं ने श्रागम-गत निगूढ़ तत्वों की अभिव्यक्ति और विश्लेषरण का तो महत्वपूर्ण कार्य किया ही, एक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि भी प्रस्तुत की, जिसका असाधारण महत्व है । विद्वान् टीकाकारों ने मानव जीवन के विभिन्न अंगों और पहलुओं का जो विवेचनविश्लेषण किया, वह मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक श्रादि अनेक पहलुओं का मार्मिक संस्पर्श लिये हुए है । 2010_05 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन . [खण्ड : २ यह विशाल वाङमय उत्तरवर्ती साहित्य के सर्जन में निःसन्देह बड़ा उपजीवक एवं प्रेरक रहा । फलतः जैन-वाङमय का स्रोत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य लोकभाषाओं का माध्यम लिये उत्तरोत्तर पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता गया। इतना ही नहीं, जैनेतर साहित्य की भी अनेक विधाएं इससे प्रभावित तथा अनुप्राणित हुईं, जो स्वतन्त्र अध्ययन का विषय है। ____ 2010_05 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : & : शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय (Shouraseni Prakrita and its Cononical Liturature) 2010_05 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रकर - पिछले पृष्ठों में जिन अद्ध मागधी आगमों का विवेचन उपस्थित किया गया है, वहां ऐसा भी संकेत किया गया है कि दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में वे प्रामाणिक रूप में स्वीकृत नहीं हैं । दिगम्बरों के अनुसार भगवद्-उद्गीर्ण, गणधर-ग्रथित आगमों (द्वादशांगों) का विच्छेद हो गया। दिगम्बर-सम्प्रदाय में जो ग्रन्थ आगमवत् प्रमाणभूत माने जाते हैं, जिनकी रचना शौरसेनी प्राकृत में हुई, के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रकरण में विस्तार से चर्चा की जायेगी। क्योंकि प्राकृत वाङमय में उनका अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में ऐसा अपेक्षित प्रतीत होता है कि जैन परम्परा दिगम्बर तथा श्वेताम्बर, दो धाराओं में किस प्रकार विभक्त हुई, इस पर भी कुछ चर्चा की जाये। निह्नववाद जैन परम्परा में कुछ एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने किसी एक विषय को लेकर प्रतिकूल सिद्धान्त स्थापित किये। उन्हें निह्नव कहा गया है। निह्नव का प्रयोग वहां तत्सिद्धान्त और तद्-व्यक्ति–दोनों अर्थों में होता रहा है । निह ना का अर्थ निह्नव शब्द सामान्यतः गोपन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैन परम्परा में यह शब्द एक विशेष अर्थ लिए हुए है। आवश्यक-नियुक्ति के एक व्याख्या-प्रसंग में आचार्य मलयगिरि ने इसका विश्लेषण करते हुए लिखा है : जो अभिनिवेश- आसक्ति या अाग्रह के कारण तीर्थंकर-भाषित अर्थ का अपलपन करते हैं, वे निह्नव कहे जाते हैं; क्योंकि वे सूत्रों के अर्थ का अपलाप या प्रतिकूल प्रतिपादन करते हैं। कहा गया है-जो सूत्र में कहे गये एक भी अक्षर के प्रति अरुचिशील या निष्ठारहित हो जाता है, वह मिथ्याष्टि है । क्योंकि तीर्थंकर-प्ररूपित सूत्र ही हमारा प्रमाण है । 2010_05 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० आगम और fafपटक । एक अनुशीलन t: खण्ड: ई ये ह्निव अंशत: विसंवादी होते हैं । बाह्य वेष-भूषा में इनका ( जैन श्रमरणों से ) भेद नहीं होता । इसी प्रसंग में बोटिक निह्नव का भी उल्लेख किया गया है । कहा गया है कि वे (बोटिक) सर्व विसंवादी अर्थात् लगभग सभी विषयों में विपरीत मत लिए हुए हैं । 1 सारांश इस व्याख्या से स्पष्ट है कि श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जैन परम्परा में समयसमय पर कुछ ऐसे विद्रोही होते रहे हैं, जिनका सिद्धान्त के किसी विशेष पहलू पर मतभेद हुआ । उन्होंने अपने मतवाद का प्रसार किया । उनका अपना सम्प्रदाय बना । इनका स्व-स्व-गृहीत पक्षों के अतिरिक्त प्रायः अन्य सभी बातों में जैन सिद्धान्त से ऐकमत्य था । वेषभूषा में भी इनमें जैन श्रमणों से अन्तर नहीं था । यही कारण है, इन्हें जैन परम्परा के सर्वथा बहिर्भूत न मानकर निह्नव अर्थात् अपलापी की संज्ञा दी गई है । बोटिक की अभिधा से दिगम्बर भी वहां संकेतित हैं, जिनकी यथाप्रसंग विशद चर्चा की जायेगी । स्थानांग तथा आवश्यक- नियुक्ति में उल्लेख स्थानांग सूत्र के सप्तम स्थान में सात निह्नवों का उल्लेख हुआ है ।" आवश्यक नियुक्ति में उसी विषय को कुछ विस्तार से उपस्थित किया गया है। उसके अनुसार १. तीर्थंकर भाषितमर्थमभि निवेशात् निह्नवते प्रपंचतोऽपलपन्तीति निह, नवाः, एते च मिथ्यादृष्टयः सूत्रोक्तार्थापलपनात् उक्तं च २, “सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥" खल्विति विशेषणे, किं विशिनष्टि ? एते साक्षादुपात्ता उपलक्षणसूचिताश्च देशविसंवादिनो द्रव्यलिंगेनाभेदिनो नि, नवाः, बोटिकास्तु वक्ष्यमाणाः सर्वविसंवादिनो द्रव्यगतोऽपि भिन्ना निह नवा इति तीर्थे बद्ध मानस्य । - आवश्यक-निर्युक्ति की ७७८वीं गाथा पर वृत्ति समस्से णं भगवओ महावीरस्स तित्यंसि सत्त पवयण - निण्हवा पन्नता - १. बहुरया, २. जीवपएसिया, ३. अब्बत्तिया ४ सामुच्छेइया, ५. दोकिरिया, ६. तेरासिया, ७. अबद्धिया । एएसिणं सत्तण्हं पवयणनिहगाणं सत्त धम्मायरिया होत्था - जमाली, तोसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छल्लुए गोट्टामाहिले । एएसिणं सत्तण्हं पवयणनिण्ह 2010_05 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X भाषा और साहित्य [] शौरसेनी प्राकृत और उसकी वाङमय [५११ भगवान् महावीर के तीर्थ में बहुरतवाद, जीव- प्रदेशवाद, अव्यक्तवाद, सामुच्छेदवाद. विवाद, त्रैराशिकवाद तथा अबद्धिकवाद; यों सात प्रकार का निह्नवमत प्रवृत्त हुआ । बहुरतवाद का जमालि से, जीवप्रदेशवाद का तिष्यगुप्त से, अव्यक्तवाद का आसाढ से, समुच्छेदवाद का प्रश्वमित्र से, द्वक्रियवाद का गंग से, त्रैराशिकवाद का षडुलूक (रोहगुप्त ) से तथा बद्धिकवाद का गोष्ठामाहिल से उद्भव हुआ । बहुरतवाद का उद्भव - स्थान श्रावस्ती, जीवप्रदेशवाद का ऋषभपुर, अव्यक्तवाद का श्वेतविका, समुच्छेदवाद का मिथिला, द्व क्रियवाद का उल्लुकातीर, त्रैराशिकवाद का अन्तरञ्जिका तथा अबद्धिकवाद का दशपुर था । इन सातों उद्भव स्थानों के अतिरिक्त बोटिक ( दिगम्बर) - निह्न के उत्पत्ति-स्थान का भी वहां (मलयगिरि-वृत्ति में) जिक्र है । 1 गाणं सत्त उप्पलिनगरे होत्या - तं जहा - सावत्थी, उसभपुरं, सेयाविया, मिहिला, उल्लुगातीरं पुरिमंतरंजि, वसपुरं, निष्हगउष्पत्तिनगराई । -स्थानांग सूत्र ७, पृ० ७०८-७०९ १, बहुरय-पएस - अव्वत्त-समुच्छ दुग-तिग-अबद्धिआ चेव । सत्ते ए निण्हगा खलु तित्थम्मि उ बद्धमाणस्स ॥ गाथा ७७८ १. बहुरताः, २. जीवप्रदेशाः, ३. अव्यक्ताः (अव्यक्तमताः), ४. सामुच्छेदाः, ५. तु क्रियाः, ६. वैराशिकाः, ७. अबद्धिकाः । साम्प्रतं येम्भ एते सप्त उत्पन्नास्तान् प्रतिपादयकाह बहुरय- जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ । अव्यताssसाढाओ सामुच्छे आऽऽसमित्ताओ ।। ७७९ ॥ गंगाओ वोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती । थेरा य गुटुमाहिल पुट्ठमबद्ध पविति ॥ ७८० ॥ बहुरता जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात् प्रभवो येषां ते तथाविधाः, जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः, अव्यक्ता आषाढात् सामुच्छेवा अश्वमित्रात्, गंगात् द्वं क्रियाः, षडुलूकात् वैराशिकानामुत्पत्तिः । साम्प्रतमेते हि नवा येषु स्थानेषूत्पन्नास्तानिप्रतिपादयन्नाह सावत्थी उसभपुरं सेअविआ मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि वसपुर रहवीर पुरं च नयराई ॥ ७८१ ॥ 2010_05 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन २ ___ कौन-कौन से निह्नववाद कब-कब प्रवृत्त हुए, इस सम्बन्ध में वहां कहा गया है : "भगवान् महावीर के केवलज्ञान उत्पन्न होने के चवदह वर्ष बाद बहुरतवाद, सोलह वर्ष बाद जीवप्रदेशवाद, एकसौ चवदह वर्ष बाद अव्यक्तवाद, दोसौ बीस वर्ष बाद सामुच्छेदवाद, दोसौ अट्ठाईस वर्ष बाद जि.यवाद, पांचसी चवालीस वर्ष बाद पैराशिकवाद, पांचसौ चौरासी वर्ष बाद अबद्धिकवाद तथा छःसौ नौ वर्ष बाद बोटिकवाद उत्पन्न हुआ।1 বীন্ধি নিং,নৰ श्वेताम्बरों के अनुसार सात के अतिरिक्त जो एक और निह्नव हुआ, वह बोटिक था । पहले इंगित किया ही गया है, उक्त सात निह्नवों तथा बोटिक निह्नव में मुख्य भेद यह था जमालिप्रभवानां निह नवानामुत्पत्ति स्थानं श्रावस्ती, तिष्यगुप्तप्रभवानामृषभपुरम्, अध्यक्तमतानां श्वेतविका, सामुच्छेदानां मिथिला, द्वे क्रियाणामुल्लुकातीरम्, नैराशिकानां पुरमन्तरंजिका गोष्ठामाहिलस्य दशपुरम् सर्वापलापिनां बोटिकानां रथवीरपुरम्, वक्ष्यमाणानामपि बोटिकानामुत्पत्तिस्थानाभिधानं लाघवार्थम् । एतानि यथाक्रमं निह नवानामुत्पत्तिस्थानानि-नगराणि । -आवश्यक-नियुक्ति, मलयगिरि-वृत्ति १. चउबस सोलस वासा, चउक्स वीसुत्तरा य दुण्णि सया। - अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया य चोआला ॥ ७८२ ॥ :: पंचसया चुलसीआ, छच्चेव सया नवुत्तरा इंति । नाणुप्पत्तीइ दुवे उप्पन्ना निव्वुए सेसा ॥ ७८३ ॥ भगवतो वर्द्धमानस्वामिनो ज्ञानोत्पत्तेरारभ्य यावच्चतुर्दशवर्षाणि अतिक्रान्तानि ताववत्रान्तरे बहुरताः समुत्पेदिरे, एवं प्रतिपदमक्षर गमनिका कार्या । भावार्थस्स्वयम्---- ज्ञानोत्पत्तेरेवारभ्य षोडशवर्षात्यये जीवप्रदेशाः समुत्पन्नाः, भगवति निवृते चतुर्दशोत्तरवर्षशतातिक्रमे अव्यक्तमता, विंशत्युत्तर द्विवर्षशतातिक्रमे सामुच्छेदाः, अष्टाविंशत्युत्तरद्विवर्षशतातित्यये व क्रियाः, चतुश्चत्वारिंशदधिक पंचवर्षशतात्यये राशिकाः चतुरक्षीत्यधिकपंचवर्षशतात्यये अबद्धिकाः, षट् चैव शतानि नवोत्तराणि बोटिकानाम् । 'नाणुप्पत्तीई' त्यादि, आधौ द्वौ निह नवी जमालितिष्य गुप्ताभिधौ यथाक्रम शानोत्पतेरारभ्य चतुर्दशषोडशवर्षातिक्रमे जातौ शेषास्त्वव्यक्तादयो निर्वृते भगवति यथोक्तकालातिक्रमे इति। -आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति ____ 2010_05 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य पोरतेनी प्राकृत और उसका पाङमयं ५१३ कि वे सात निह्नव तो किसी एक-एक विषय में विसंवाद या विपरीत मान्यता अपनाये हुए थे तथा बोटिक निह्नव का लगभग सभी विषयों में विसंवाद था । इसीलिए उसे उक्त सात निह्ववों से पृथक्-वत् गिना जाता रहा है । श्वेताम्बरों के अनुसार इसी बोटिक निह्नव से दिगम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ। जिस प्रकार श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति को विकृति-मूलक मानते हैं, दिगम्बर भी श्वेताम्बरों की उत्पत्ति को लगभग उसी कोटि में लेते हैं, जिसका यथाप्रसंग आगे उल्लेख किया जायेगा । लिखने का आशय यह है कि दोनों परम्पराएं अपने को मूल मानती हैं और एक दूसरी को उससे सिद्धान्त-च्युत होकर निकली हुई बताती हैं। प्रस्तुत विषय पर समीक्षात्मक दृष्टि से चिन्तन करने से पूर्व दोनों परम्पराओं द्वारा स्वीकृत अभिमत यहां उपस्थित किये जाते हैं । म्बर-मान्यता आवश्यक-नियुक्ति में आवश्यक-नियुक्ति में उद्धृत मूल पाठ की १४६ वी गाथा के विश्लेषण के सन्दर्भ में यह प्रसंग पाया है, जहां वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए लिखा है : “रथवीरपुर नामक नगर में दीपक नामक उद्यान था। आर्य कृष्ण नामक प्राचार्य वहां पधारे । वहां आचार्य द्वारा की जा रही जिनकल्प सम्बन्धी प्ररूपणा के अवसर पर शिवभूति ने उपधि के सम्बन्ध में उनसे पृच्छा की । प्राचार्य ने समाधान किया। पर, मिथ्यात्व के उदय से शिवभूति नहीं माना। जैन सिद्धान्त में उसे अश्रद्धा हो गई । उसने वस्त्र छोड़ दिये और उपाश्रम से बाहर चला गया। उत्तरा नामक उसकी बहिन (साध्वी) थी। वह अपने भाई (मुनि) को वन्दन करने उद्यान में आई। अपने भाई की वैसी (नग्न) अवस्था देख, उसके अनुराग (मोह) से उसने भी वस्त्र त्याग दिये। फिर वे दोनों भिक्षा के लिए नगर में गये । एक वेश्या ने उत्तरा को वैसी स्थिति में देखा । लोग जब स्त्रियों का ऐसा वीभत्स रूप देखेंगे, वे हमारे प्रति विरक्त होंगे, यह सोचकर उस वेश्या ने उसे वस्त्र पहना दिये। उत्तरा को यह अच्छा नहीं लगा। उसने पुनः वस्त्र हटा दिये । तब उस वेश्या ने उसके वक्ष तथा कटि प्रदेश में एक-एक वस्त्र लगा दिया। जब वह उन्हें भी हटाने लगी, १. श्रममोचित उपकरण ____ 2010_05 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । सं। २ तो उसके भाई ने उसे देखा और कहा-रहने दो, इसे देव-प्रदत्त जानो ....... 11. :: ___वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने इसे अोर स्पष्ट करते हुए मूल भाष्य की १४७ वीं तथा १४८ वीं गाथा की व्याख्या में कहा है कि इस प्रकार शिवभूति और उत्तरा ने मिथ्यादर्शनमूलक बोटिक मत का रथवीरपुर में अपनी तर्क-बुद्धि द्वारा प्रणयन किया । सार रूप में कहा जाये तो बोटिक-लिंग-दिगम्बर-मत की उत्पत्ति का मूल शिवभूति है । शिवभूति के शिष्य कौण्डिन्य तथा कोट्टवीर से यह परम्परा आगे चली। १. रहवीरपुर नगरं दीवगमुज्जाणमज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मी पुच्छा थेराण कहणा य ॥ १४६ ॥ (मूल भाष्य) रथवीरपुरे नगरे दीपकं नाम उद्यानम्, तत्र आर्यकृष्णो नामाचार्यः समवसृतः, तत्र शिवभूतेजिनकल्पिकप्ररूपणावसरे उपधौ पृच्छा, स्थविराणां च आर्यकृष्णानां कथनेति गाथासंक्षेपार्थः, भावार्थः प्रागेवोक्तः। स च शिवभूतिस्तथा स्थविरैः प्रज्ञाप्यमानोऽपि मिथ्यात्वोदयात् कुलिङ्गभावो जिनमतमश्रद्दधानश्चीवराणि परित्यज्योपाश्रयाद्विनिर्गतः । तस्योत्तरा भगिनी, सा उद्याने स्थितं वन्दितुमागता, तं च तथाभूतं दृष्ट्वा तयाऽपि चीवराणि तदनुरागण परित्यक्तानि । ततो द्वावपि तौ भिक्षार्थ प्रविष्टौ। गणिकया च तदवस्था दृष्टा। साऽचिन्तयत्-नूनमेवं स्त्रीणां वीभत्स रूपं दृष्ट्वा लोकोऽस्माकं विरक्तो भविष्यतीति । ततस्तया सा परिपूर्ण परिधापिता। सा नैच्छदिति मुक्तवती । ततो बलादपि तस्या उरसि कटिप्रदेशे चैकं वस्त्रं सन्दधे। तदपि त्यजन्ती मात्रा कथमपि दृष्ट्वा भणिता-तिष्ठत्वेतत्तव देवतया दत्तम्,.............. । -आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि-वृत्ति २. ऊहाए पन्नत्त, बोडिअ सिवभूइउत्तराहि इमं । मिच्छादंसमिणमो, रहवीरपुरे समुप्पन्नं ॥ १४७ ॥ (मूल भाष्य) ऊहया–स्वतर्कबुद्धया प्रज्ञप्तम्-प्रणीतं बोटिक शिवभूत्युत्तराभ्याम् । 'इणमोत्ति' एतच्च मिथ्यादर्शनं क्षेत्रतो रथवीरपुरे समुत्पन्नम् । बोडअसिवभूईओ बोडिअलिंगस्स होइ उप्पत्ती। कोडिनकुट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना ॥ १४८ ॥ (मूल भाष्य) बोटिकशिवभूतेः सकाशात बोटिकलिङ्गस्य-बोटिकदृष्टेर्भवत्युत्पत्तिः । वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वत्, पाठान्तरं वा बोडिअलिंगस्स आसि उप्पत्ती । ततू कौण्डिन्यश्च कोट्टवीरश्च कौण्डिन्यकोट्टवीरं समाहारो द्वन्द्वस्ततः परम्परा-स्पर्शम्-आचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना-सञ्जाता बोटिकदृष्टिरिति वाक्यशेषः । --- आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि पुत्ति . ____ 2010_05 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [ ५१५ বিখশ্বাহৰ প্ৰাথ # विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि भगवान् महावीर सिद्धिगत होने के छःसौ नो वर्ष बाद रथवीरपुर में बोटिक-दृष्टि-दिगम्बर-मत की उत्पत्ति हुई। इसके बाद मूल भाष्य की वही दो गाथाएं दी गई हैं, जिनका उल्लेख आवश्यक-नियुक्ति के उद्वरण के सन्दर्भ में हुआ है। লম্বাহী ঔসধঃ ৫াহা প্লন খান৷ विशेषावश्यक भाष्य के वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र ने शिवभूति की कथा का विस्तार से उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : “एक बार की घटना है, रथवीरपुर नामक नगर में आर्य कृष्ण नामक आचार्य प्राये। उस नगर में शिवभूति नामक एक राज-सेवक था। उसका दूसरा नाम सहस्रमल्ल था। वह राजा का विशेष कृपा-पात्र था; अतः नगर में मौज-मजे करता घूमता रहता। दो पहर रात बीते अपने घर आता । नित्यप्रति उसका वैसा पाचरण देख उसकी पत्नी बहुत दुःखित हुई । उसने एक दिन अपनी सास से, जिसका उसके प्रति बड़ा स्नेह था, कहा कि आपका पुत्र (मेरा पति) रात में कभी भी समय पर नहीं आता । उनकी प्रतिक्षा में मैं भोजन नहीं करती, जागती रहती हूँ। मैं बड़ी दुःखी हूं। उसकी सास बोली-बेटी ! यदि हर रोज ऐसा होता है, तो तुमने अब तक मुझे यह सब क्यों नहीं बताया ? खैर, चिन्ता मत करो। तुम आज सो जाओ । तुम्हारे बदले मैं जागूगी और उस अविनीत लड़के को शिक्षा दूंगी।" __ सास के कहने से बहू उस दिन सो गई और बुढ़िया जागती बैठी रही । दो पहर रात गये शिवभूति आया। उसने दरवाजा खोलने के लिए आवाज लगाई। माता क्रुद्ध हो उठी। वह रोषपूर्वक बोली-"उन्मार्गगामी ! उद्धत लड़के ! इतनी रात बीते नगर में भटक कर आये हो ? इस समय जहां दरवाजा खुला हो, वहीं जाओ। मैं तुम्हें बुलाने तुम्हारे पीछे नहीं आऊंगी, न तुम्हारे बिना मैं मर ही जाऊंगी।" माता के ऐसे क्रोध और अहंकारपूर्ण वचन शिवभूति को बहुत बुरे लगे। वह माता से रुष्ट होकर वहीं से वापिस लौट गया। वह नगर में फिरने लगा। फिरते-फिरते उस १. छव्वाससयाई नवुत्तराई तइआसिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण विट्ठी रहवीर पुरे समुप्पणा ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, २५५० ____ 2010_05 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ समय साधुओं का उपाश्रय खुला देखा। शिवभूति साधुओं के पास गया। उन्हें वन्दन कर संयम-व्रत ग्रहण कराने की अभ्यर्थना की। साधुओं ने उसका सारा वृत्तान्त सुना। यह जानकर कि यह राजा का प्रिय (कृपा-पात्र) है, माता आदि पारिवारिक जनों ने इसे उन्मुक्त नहीं किया है, उन्होंने उसे दीक्षा नहीं दी। इस पर सहस्रमल्ल (शिवभूति) ने वहां रखी राख ले स्वयं अपना के श-लुचन कर डाला। यह देख मुनियों ने उसे साधु-वेश दे दिया। __अगले दिन वे सब मुनि अन्यत्र विहार कर गये। कुछ समय बीतने पर, ऐसा संयोग बना, वे पुनः उसी नगर में आये। उन सब के आगमन की बात सुनकर राजा ने मुनि शिवभूति को एक रत्न-कम्बल प्रदान किया; क्योंकि राजा का उससे अपूर्व स्नेह था। ___ आचार्य ने यह देखा। वे शिवभूति से बोले-मुने ! इस प्रकार का बहुमूल्य वस्त्र साधुओं के लिए कल्प्य नहीं है । मार्ग आदि में इससे अनेक अनर्थ सम्भावित हैं; अतः इसे रखना उचित नहीं है। शिवभूति उस कम्बल पर आसक्त था; अत: गुरु के कथनोपरान्त भी उसने उसे छिपाकर रखा। इतना ही नहीं, प्रतिदिन भिक्षा से आकर उसे सम्हालता । उसे कभी व्यवहार में नहीं लाता। गुरु ने जब उसका वैसा व्यवहार देखा, तो सोचा कि इसकी रत्न-कम्बल पर प्रगाढ़ मूर्छा हो गई है, उसे मिटाया जाना चाहिए । प्राचार्य ने एक दिन, जब शिवभूति बाहर गया हुआ था, उस कम्बल के छोटे-छोटे टुकड़े करके प्रत्येक साधु को पैर पौंछने के लिए एक-एक दे दिये । शिवभूति को यह सब ज्ञात हुआ तो उसके चित्त में बड़ा कषाय उत्पन्न हुआ, पर वह कुछ बोला नहीं। एक बार ऐसा प्रसंग बना, आचार्य प्रार्यकृष्ण उपधि - विभाग के अन्तर्गत जिनकल्प का वर्णन कर रहे थे । शिवभूति ने उस सन्दर्भ में पृच्छा की। आचार्य ने समाधान दिया। शिवभूति कषाय के प्रावेश में था, समाहित कैसे होता ? प्रश्न : उत्त३ : असमाधान विशेषावश्यक भाष्यकार ने इस प्रसंग में जो लिखा है, वह इस प्रकार है: "शिवभूति ने प्राचार्य से पूछा--इस समय जिन-कल क्यों नहीं संभाव्य है ?"1 १. उवहिविभागं सोउं सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले । जिणकप्पियाइयाणं भणइ गुरु कीस नेयाणि ॥ —विशेषावश्यक भाष्य, २५५३ 2010_05 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बाङ् मय [ ५१७ गुरु ने कहा - "वह (आयं जम्मू के निर्वाण के साथ ही ) आज व्युच्छित है ।" शिवभूति बोला- “जिम - कल्प का उच्छेद असत्ववान् दुर्बलचेता व्यक्ति के लिए हो सकता है । सामर्थ्यशील पुरुष के लिए वह कैसे व्युच्छिन्न होगा ? | for पूछे एक रत्न - कम्बल को फाड़ दिये जाने के कारण वह कषाय- कलुषित तो था ही, कहने लगा-'शास्त्र में (वस्त्रादि ) परिग्रह के अनेक दोष कहे गये हैं, इसीलिए वहां परिग्रह का विधान है । वस्तुतः जिनकल्प हो आचरणीय है । " मुनि लब्जा, जुगुप्सा, शीतोष्णादि; इन तीनों स्थानों— अपेक्षानों से निर्वस्त्रस्वरूप परिषह के विजेता होते है । फलतः वे वस्त्र धारण नहीं करते । वास्तव में अचलेकतानिर्वस्त्रता ही श्रेयस्कर है । " गुरु ने कहा- "यदि (वस्त्रादि) परिग्रह कषाय का हेतु हैं तो यह देह भी तो कषाय आदि के उत्पन्न होने का कारण हो सकता है । जो कोई भी वस्तु कषाय का कारण बन सके, उसे तब क्यों धारण किये रहना चाहिए ? इतना ही नहीं, वैसा मान लेने पर धर्म भी नहीं अपनाया जा सकता । "8 १. जिणक प्पोऽणुचरिज्जइ वीच्छिन्नो त्ति भणिए पुणो भणइ । तदसत्तस्सो च्छ्रिज्जउ वोच्छ्ज्जिइ किंक समत्थस्स ।। २५५४ ।। - विशेषावश्यक भाष्य २. पुव्वमणपुच्छ छिण्ण कंबलकसायकलुसिओ चैव । सो बेइ परिग्गहओ कसायमुच्छाभयाईया ॥। २५५५ ।। दोसा जओ सुबहुया सुए य भणियमपरिग्गहत्तं ति । जमवेला य जिणिदा तदभिहिओ जं च जिणकप्पो ।। २५५६ ॥ जं च जियाचेलपरीसहो मुणी जं च तीहि ठारोह । वत्थं धरेज्ज नेगंतओ तओऽचेलया सेया ।। २५५७ ॥ - वही ३. गुरुणाऽभिहिओ जइ जं कसायहेऊ परिग्गहो सो ते । तो सो देहो च्चिय ते कसाय-उत्पत्ति हेउत्ति ।। २५५८ ॥ अस्थि व किं किंचि जए जस्स व तस्स व कसायवीयं जं । वत्युं न होज्ज एवं धम्मोऽवि तुमे न घेतव्वो ।। २५५९ ॥ - वही 2010_05 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ आगम और विपिटक : एक अनुशीलन ( जो जिन-शासन के प्रतिकूल हैं, उनके लिए धर्म, धर्म-परायण साधु तथा जिन-मत (द्वादशांगात्मक)-जैन सिद्धान्त-ये सब कषाय के निमित्त हो सकते हैं । गौशालक, संगम मादि के लिए भगधाम् महावीर भी कषाय के निमित्त हो गये थे; अतः शरीर प्रादि पदार्थ मोक्ष-साधन की मति से प्रयुक्त होने के कारण परिग्रह नहीं कहे जा सकते । उसी प्रकार वस्त्र आदि भी मोक्ष-साधन की बुद्धि से विधिवत परिग्रहीत हों तो परिग्रह कैसे माने ला सकते हैं ?" "बहुत प्रकार से शिवभूति को समझाया गया, पर मिथ्यात्व के उदय से उसका चित्त माकुल-अस्थिर था। जिन-मत में उसकी श्रद्धा नहीं टिकी। उसने वस्त्रों का परित्याग कर दिया। उसके अनुराग से उसकी बहिन (उत्तरा नामक साध्वी) मे भी बस्त्रों का त्याग कर दिया । एक गणिका ने जब उसे उस रूप में देखा तो उसे वस्त्र पहना दिये, पर उसने पुनः उन्हें उतार दिया। फिर उस वेश्या ने उसके वक्ष-स्थल पर एक वस्त्र बांध दिया। उसे भी वह छोड़ने लगी तो उसके भाई शिवभूति ने कहा-खैर, इसे रहने दो। तब वह उसे धारण किये रही। ___ शिवभूति ने कौण्डिन्य और कोट्टवीर नामक दो शिष्यों को प्रश्नजित किया। उनसे उसकी उत्तरवर्ती परम्परा चली।" १. जेण कसाय निमित्त जिणोऽवि गोसालसंगमाईणं । धम्मो धम्मपराऽवि य पडिणीयाणं जिणमयं च ॥ २५६० ॥ अह ते न मोक्खसाहणमईए गंथो कसायहेऊ, वि । वत्थाइ मोक्खसाहणमईए सुद्ध कहं गंथो ॥ २५६१ ॥ -विशेषावश्यक भाष्य २. इय पण्णविओऽवि बहुं सो मिच्छत्तोदयाकुलियभावे। जिणमयमसद्दहंतो छडियवत्थो समुज्जाओ ॥ २६०६ ॥ तस्स भगिणी समुज्मियवत्था तह चेव तवणुरागेणं । संपत्थिया नियत्था तो गणियाए पुणो मुयइ ॥ २६०७ ॥ तीए पुणोऽवि बद्धोरसेणवत्था पुगो विछड्डत्ती। अच्छउ ते तेणं चिय समण्णुणाया धरेसी य ॥ २६०८ ॥ कोडिनकोट्टवीरे पवावेसी य दोणि सो सीसे । तत्तो परंपराफासोऽवसेसा समुप्पन्ना ॥ २६०९ ॥ 2010_05 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] उपसंहार . श्वेताम्बर - परम्परा में दिगम्बरों के सम्बन्ध में प्रायः सर्वत्र इसी कथानक का उल्लेख पाया जाता है, जब कि दिगम्बर-परम्परा में श्वेताम्बरों के उद्भव के सम्बन्ध में कई कथानक प्रचलित हैं, जिनका मागे उल्लेख किया जायेगा । शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य व वृत्ति में वरित कथानकों में संक्षेप, विस्तार के अतिरिक्त कोई खास अन्तर नहीं है । केवल इतना-सा है—मलयगिरि ने वेश्या द्वारा दूसरी बार साध्वी उत्तरा के वक्ष तथा कटि, दोनों अंगों पर वस्त्र लगाये जाने का उल्लेख किया है। वहां करि-प्रदेश अध्याहृत माना जा सकता है । ५१९ उत्तरा के प्रसंग का निष्कर्ष यह रहा कि बोटिक-मत या तथाकथित दिगम्बर-मत में उस समय साध्वी या श्रार्थिका का स्वीकार तो हुआ, पर केवल एक या दो वस्त्रों के साथ 1 यदि वही परम्परा आगे बढी तो फिर आर्यिका के लिए अधिक वस्त्र कैसे स्वीकार हुए । वस्तुतः ऐसे कथानक ऐतिहासिकता की कोटि में नहीं ते । वे क्यों गढ़ लिए जाते हैं, इस सम्बन्ध में पाये यथाप्रसंग समीक्षा की जायेगी । दिगम्बर- मान्यता दर्शनसार में उल्लेख श्राचार्य देवसेन रचित दर्शनसार दिगम्बर-सम्प्रदाय की एक ममारत पुस्तक है । उसमें श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के प्रादुर्भाव का जो वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है : "सम्राट् विक्रमादित्य के देहावसान के एकसौ छत्तीस वर्षं पश्चात् सौराष्ट्र के चलभी' नामक नगर में श्वेतपट - श्वेताम्बर संघ प्रादुर्भूत हुआ 1 श्री भद्रबाहु गगी के शिष्य शान्त्याचार्य थे । उनका जिनचन्द्र नामक शिष्य था । वह चारिव्य में शिथिल तथा दूषित 2010_05 १. रचना-काल वि० सं० १९० २. गुजरात के पूर्व भाग में स्थित भाभा नगर के समीप यह प्राचीन नगर बसा हुआ था । प्राचीन काल में यह नगर अत्यन्त समृद्ध एवं विशाल था । ईसा की सातवीं शती में भारत में आये चीनी पर्यटक ह्वे नत्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इसका उल्लेख किया | तब यह नगर सुन्दर रूप में विद्यमान था । कहा जाता है कि आज सौराष्ट्र का 'चला ' ग्राम जहां है, वहीं यह नगर अवस्थित था । श्वेताम्बर जैन आगमों का संकलन एवं सम्पादन वहीं हुआ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ था । उसने इस-श्वेताम्बर मत का प्रवर्तन किया। उसने स्थापना की कि स्त्रियों की उसी भव (स्त्री-पर्याय) में मुक्ति हो सकती है। केवली ककलाहार करते हैं और वे रुग्ण भी होते हैं। सवस्त्र मति-श्रमण भी सिद्धत्व प्राप्त कर सकता है। उसने यह भी स्थापना की कि भगवान् महावीर का गर्भापहार हुअा था (पहले वे ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में आये थे और बाद में देव द्वारा क्षत्रियाणो त्रिशिला के गर्भ में प्रतिष्ठित किये गये) । जिनसम्मत वेष के अतिरिक्त इतर वेष में भी मुक्ति हो सकती है। (मुनि द्वारा) प्रासुक–अश्वित्त भोजन सब कहीं से लिया जा सकता है। उसने और भी इस प्रकार के सिद्धान्तों को लेकर प्रागम-विरुद्ध मिथ्या-शास्त्रों की रचना की थी। वह मर कर प्रथम नरक में गया।" भा-संग्रह के अनुसार श्वेताम्बर-भक ___दर्शनसार के रचयिता देवसेन के अतिरिक्त एक देवसेन और हैं, जिनका भाव-संग्रह नामक ग्रन्थ दिगम्बर-सम्प्रदाय में प्रसिद्ध है। उसमें श्वेताम्बर-संघ की उत्पत्ति का जो वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है : "सम्राट् विक्रमादित्य के देहावसन के एकसौ छत्तीस वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र प्रदेश के वलभी नामक नगर में श्वेतपट-श्वेताम्बर-संघ का प्रादुर्भाव हुआ । उज्जयनि नमर में १. छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स वरणपत्तस्स । सोरठे वलहीं ए उप्पणी सेबडो संघो ॥ ११ ॥ सिरिभहबाहु गणिणो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुछो जिणचंदो मंदचारित्तो ॥ १२ ॥ तेण कियं मयमेयं इत्थीगं अत्थि तस्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुमो अदृक्खाणं तहा रोओ।। १३ ।। अंबरसहिओ वि जई सिज्झइ वीरस्स गन्भचारत । परलिंगे वि य मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ । १४ ॥ अण्णं च एवमाइ आगमबुट्ठाई मित्थसत्थाई । विरइत्ता अप्पाणं. परिठवियं पढमए गरए ॥ १५ ॥ -दर्शनसार (देवसेन) २. छत्तीसे बरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरटे उप्पण्णो सेवडसंघो हु वल्लहीए ॥ ५२ ॥ -भावसंग्रह ____ 2010_05 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माशा और साहित्य ] .. शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ॥ १२१ माचार्य भद्रवाहु अवस्थित थे । वे विख्यात निमित्तवेत्ता थे । नैमित्तिक ज्ञान द्वारा उन्हें कुछ आनास हुआ; अतः उन्होंने अपने श्रमण-संघ से कहा--"जब तक बारह वर्ष पूरे होंगे, यहां दुभिक्ष रहेगा। इसलिए मुनियों को चाहिए कि वे अपने-अपने संघ सहित देशान्तर चले जायें।" "आचार्य भरबाहु का यह वचन सुनकर सब संघनायक अपने-अपने संघों के साथ उन प्रदेशों की और विहार कर गये, जहां सुभिक्ष था।'' - "शान्ति नामक एक संघनायक अपने बहुत से शिष्यों के साथ सुरम्य सौराष्ट्र में स्थित बलभी नगर में आये ।" "वहां चले तो गये, पर वहां भी दारुण तथा प्रत्यन्त घोर दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई । यहां तक कि क्षुधा से पीड़ित दीन-जन भोजन किये हुए लोगों के उदर चीर-चीर . कर वहां स्थित अन्न निकाल-निकाल कर खाने लगे।" "ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर प्राचार्य शान्ति के सभी साधुओं ने बाध्य होकर कम्बल, दण्ड, तुम्बिका या लौकी का पात्र तथा देहावरण हेतु श्वेत वस्त्र धारण कर लिये। - १. आसी उज्जेणीणयरे आयरियो भद्दबाहु णामेण । . जाणिय सुणिमित्तधरो भणिओ संघो पिओ तेण ॥ ५३ ॥ होहइ इह भिक्खं बारहबरसाणि जाव पुण्णाणि । देसंतराए गच्छह णिय णिय संघेण संजुत्ता ॥ ५४ ॥ २. सोऊण इयं धयणं णाणावेसेहि गणहरा सवे। . गिय-णिय-संघ-पउत्ता विहरिआ जत्थ सुभिक्खं ॥ ५५ ॥ ३. एक्क पुण संति णामो संपत्तो बलही णाम णयरीए । बहुसीससंपउत्तो विसए सोरट्ठए रम्मे ॥ ५६ ॥ ४. तत्थ चि गयस्स जायं दुभिक्खं दारुणं महाघोरं । जत्थ वियारिय उयरं खद्दो रकेहि कुरुत्ति ।। ५७ । ५. तं लहिऊण णिमित्त गहियं सवेहि कम्बलि दंडं । बुद्दियपत्तं च तहा पावत्थं सेयवत्थं च ॥ ५८ ॥ -भावसंग्रह ____ 2010_05 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन [२ "उन्होंने श्रमरोचित आचार त्याग दिया। वे दीनता से भिक्षा लेने लगे । इच्छानुसार घरों में जा-जाकर, वहां बैठ-बैठकर भोजन करने लगे । 1 यों वर्तन करते हुए उनका कितनाक समय व्यतीत हो गया । दुर्भिक्ष मिटा, सुभिक्ष हुआ । तब आचार्य शान्ति ने संघ को ब्राह्वान किया । सब को कहा - " यह कुत्सित भाम्बार त्याग दें। इसकी निन्दा व ग करते हुए पश्चात्ताप -- प्रायश्चित करें और पुनः करें । " 2 मुनियों का शुद्ध चारित्र्य स्वीकार "यह सुन श्राचार्य शान्ति का प्रथम प्रधान शिष्य बोला कि ग्राज इस प्रकार का दुर्धर -- प्रत्यन्त कठिन आचरण कौन निभा सकता है ? इसके अन्तर्गत उपवास, भोजन की मप्राप्ति, अन्यान्य दुःसह अन्तराय - विघ्न, एक स्थान, निर्वस्त्रत्व, शान्त भाव, ब्रह्मचर्यं भूमि-शयन, दो-दो महिनों के अन्तर से असह्य केश-लुचन तथा बाईस परिषह - हम सबको स्वीकार करना बहुत कठिन है। हम लोगों ने इस समय जैसा जो आचरण स्वीकार कर रखा है, वह इस लोक में सुखप्रद है । इस दुःषम काल में उसे नहीं छोड़ा जा सकता "8 १. चत्तं रिसि- आयरणं गहिया भिक्खा य दीणवित्तौए । उवविसिय जाइऊणं भुत्त बसट्ठीसु इच्छाए ॥ ५९ ॥ २. एवं वट्ट ताणं कित्तिय कालम्मि चावि परियलिए । संजायं सुभिक्खं जंपइ ता संति आयरिओ ॥ ६० ॥ आवाहिऊण संघ भणियं छंडेह कुत्थियायरणं । frfar गरहिय गिण्हह पुणरवि चरियं मुणिदाणं ॥ ६१ ॥ ३. तं वयणं सोऊणं उत्त सोसेण तत्थ पढमेण । को सक्कइ धारेडं एवं अइ बुद्धरायरणं ॥ ६२ ॥ उववासोय अलाभो अण्णे दुस्सहाइ अंतरायाई । एकट्ठाणमचेल अज्जायणं बंभचेरं च ॥ ६३ ॥ भूमीसयणं लोच्चे बे बे मासेहि असहिणिज्जो हु । बावीस परिसहाई असहिणिज्जाइ निच्चं पि ॥ ६४ ॥ जं पुण संपइ गहियं एवं अम्हेहिं किंपि आयरणं । इह लोयसुवखयरणं ण छंडियो हु दुस्समे काले ॥ ६५ ॥ -भावसंग्रह 2010_05 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनो प्राकृत और उसका वाङमय . [५२३ इस पर प्राचार्य शान्ति ने कहा कि इस प्रकार के चरित्र-भ्रष्ट जनों का जीवन इस लोक में किस काम का । वह तो जिन-मार्ग का दूषण एवं कलंक है। जिनेन्द्र देव ने निम्रन्थप्रवचन-पार्हत्-दर्शन को परम श्रेष्ठ कहा है। उसे छोड़कर दूसरे मत का प्रवर्तन मिथ्यात्व "यह सब सुनकर प्राचार्य का प्रधान शिष्य रोष में आ गया। उसने एक लम्बा डण्डा लिया और स्थविर शान्ति आचार्य के मस्तक पर प्रहार किया। उसी चोट से स्थविर का देहान्त हो गया और वे एक व्यन्तर देव के रूप में उत्पन्न हुए।" "प्राचार्य शान्ति का वह (हत्यारा) प्रधान शिष्य संघ का अधिपति हो गया । वह वेताम्बर बन गया, जो प्रकट रूप में पाखण्ड है। बह इस प्रकार के धर्म का पाख्यान पारने लगा कि सग्रन्थ-वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह धारण करने वाला भी निर्वाण प्राप्त भार सकता है।" "उसने एवं उसके अनुसानों ने ऐसे-ऐसे शास्त्रों की रचना की, जो उन द्वारा अपनाये गये पाखण्डों के अनुरूप थे । वे लोगों में उनकी व्याख्या करते हुए उस प्रकार के आचरण का प्रसार करने लगे। वे निर्ग्रन्थ-मार्ग पर दोष लगाते, उसकी निन्दा करते, मूद जनों से माया, छलना या प्रवंचना द्वारा बहुत-सा द्रव्य प्राप्त करते ।"4 १. ता संतिणा पउत्त चरियपभोहिं जीवियं लोए । एयं ण हु सुन्दरयं दूसणयं जइणमग्गस्स ॥ ६६ ॥ णिग्गंथं पव्वयणं जिणवरणाहेण अक्खियं परमं ।। तं छंडिऊण अण्णं पवत्तमारणेण मिच्छत्त ॥ ६७ ॥ २. ता रूसिऊण पहओ सीसे सीसेण दोहदंडेण । थविरो धाएण मुओ जाओ सो वितरो देवो ॥ ६८ ॥ ३. इयरो संघाहिवइ पयडिअ पासंड सेवडो जाओ। ___ अक्खइ लोए धम्म सग्गंथं अत्थि णिव्वाणं ॥ ६९ ॥ ४. सत्थाइ विरइयाई णियणियपासंडगहियसरिसाइं। वक्खाणिऊण लोए पवत्तिओ तारिसायरणो ॥ ७० ॥ णिग्गंथ दूसित्ता णिदित्ता अप्पणं पसंसित्ता। जीवे मूढए लोए कयमाए गेहियं बहुदव्वं ॥ ७१॥ . . -भावसंग्रह 2010_05 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : २ "प्राचार्य शान्ति का जीव, जो व्यन्तर रूप में विद्यमान था, उनके लिए अनेक प्रकार - तुम लोगों को जैन धर्म प्राप्त है। तुम मिथ्यात्व --- का उपद्रव करने लगा । वह उनसे कहताके मार्ग पर मत चलो । वैसे सुख-सुविधा पूर्ण प्रचार को छोड़ देना तो कहां शक्य था, पर वे बहुत भयभीत हो गये । वे उस व्यन्तर- देव की सब प्रकार के (पूजापेक्षित) द्रव्यों से प्रष्टविध पूजा करने लगे । यों जिनचन्द्र ने तब जो पूजा की रचना की, वह श्राज भी प्रवृत्त है । सबसे पहले उसी व्यन्तर के नाम से पूजा की जाती है । वह व्यन्तर श्वेताम्बर - सम्प्रदाय का पूजनीय कुलदेव है ।" यह पथ भ्रष्ट श्वेताम्बरों की उत्पत्ति का वर्णन है । सारांश दर्शनसार तथा भावसंग्रह — दोनों के रचयितानों का नाम देवसेन है, पर दोनों भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं । दर्शनसार की ग्यारहवीं गाथा और भावसंग्रह की बावनवीं गाथा, जिनसे श्वेताम्बर मत के प्रादुर्भाव का वर्णन शुरू होता है, लगभग समान -सी हैं। गाथा के उत्तराद्ध के शब्दों के स्थानिक क्रम में थोड़ा-सा अन्तर है, स्वरूप में नहीं । नहीं कहा जा सकता, भावसंग्रहकार ने दर्शनसार से यह गाथा ली या दर्शनसार के लेखक ने भावसंग्रह से । कुछ लोग कल्पना करते हैं, शायद भावसंग्रह से यह गाथा ली गई हो, तदनुसार भावसंग्रह सम्भवतः दर्शनसार से पूर्व रचित हो । पर जैसा चाहिए, साधक प्रमाण प्राप्त नहीं है । वैसा कोई ठोस, दोनों ग्रन्थों में वरिणत घटना क्रम का उत्स भिन्न प्रतीत नहीं होता । दर्शनसार में १. इयरो वितरदेवो संति लग्गो उवद्दवं काउं । जंपइ मा मिच्छत गच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥ ७२ ॥ मोएहि तस्स पूआ अट्ठविहा सयलदध्वसंपुष्णा । जा जिणचंद - रइया सा अज्ज वि विणिया तस्स ॥ ७३ ॥ अज्ज वि सा बलिया पढमयरं दिति तस्स णामेण । सो कुलदेवो उत्तो सेवडसंघस्स पुज्जो सो ॥ ७४ ॥ २. इय उप्पत्ती कहिया सेवडयाणं च मग्गभट्टाणं । एच्चो उड़ढं वोच्छं णिसुणह अण्णाणमिच्छत्त ॥ ७५ ॥ - भावसंग्रह 2010_05 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [५२५ बहुत संक्षेप में यह वर्णन हुआ है, जब कि भावसंग्रह में अपेक्षाकृत विस्तार के साथ । दोनों में भद्रबाहु, उनके शिष्य आचार्य शान्ति और प्रशिष्य जिनचन्द्र का समान रूप से नामोल्लेख है। दर्शनसार में भद्रबाहु प्रख्यात निमित्त-वेत्ता के रूप में वणित नहीं हैं, सम्भवतः संक्षेप की दृष्टि से वैसा किया गया हो। वर्शनसार में सीधे जिनचन्द्र को शिथिल एवं दूषित पाचारवान् कहकर उससे श्वेताम्बरसंघ के प्रादुर्भाव की बात कही गई है। वहां कोई विशद वर्णन नहीं है। भावसंग्रह में दुष्काल की घटना, उसके फलित, साधुओं के शिथिलाचारी तथा सुविधावादी होने का उल्लेख करते हुए श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति का विवेचन किया गया है। दोनों वर्णनों में समय का निर्देश स्पष्ट है । उनके अनुसार वि० सं० १३६, तदनुसार वीर-निर्वाण सं० ६०६ में श्वेताम्बर-संघ का उद्भव हुआ । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य भद्रबाहु ने वि० सं० १३६ से १२ वर्ष पूर्व अर्थात् वि० सं० १२४ तदनुसार वीरनिर्वाण सम्वत् ५९४ में सम्भवतः दुष्काल की घोषणा की होगी। श्वेताम्बरों द्वारा स्वीकृत दिगम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति तथा दिगम्बरों द्वारा स्वीकृत श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति के समय में केवल तीन वर्ष का अन्तर है । संघविभाजन की घटना को दिगम्बर तीन वर्ष पहले मानते हैं और श्वेताम्बर बाद में । খোন্ধীণ ঋথানগ্ধ हरिषेण-रचित वृहत्कथाकोष में १३१ वें कथानक के अन्तर्गत श्रुत-केवली प्राचार्य भद्रबाहु के वृत्तान्त के प्रसंग में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के उद्भव की चर्चा प्राई है । पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग वृहत्कथाकोष के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु के जीवनबृत्त का उल्लेख किया गया है । प्राचार्य भद्रबाहु के उज्जयिनी जाने, भिक्षार्थ नगर में जाने पर शिशु द्वारा व्यक्त अपशकुन, आचार्य द्वारा भावी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की घोषणा, विशाखाचार्य के नेतृत्व में श्रमण-संघ के दक्षिण के पुन्नाट देश में जाने, रामिल्ल, स्थूलवृद्ध एवं भद्राचार्य के अपने-अपने संघों सहित सिन्धु देश में जाने, प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा अवन्ती के भाद्रपद नामक उद्यान में समाधि-मरण प्राप्त करने, दुर्भिक्ष मिटने पर मुनि-संच के वापिस लौटने आदि की वहां विशद चर्चा की गई है; अतः यहां उन्हें पुनरावृत्त करना अपेक्षित नहीं है । केवल विवेच्य विषय पर संकेत-मात्र किया जा रहा है। १. रचना-काल शक संवत् १५३ ___ 2010_05 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ j आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ६ इस कथानक के अनुसार विशाखाचार्य के दक्षिण से वापिस लौटने पर संघ-विभाजन का रूप सामने आता है। जैसा कि वहां लिखा है : "रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य-ये तीनों जो अत्यन्त वैराग्यवान् थे, विशाखाचार्य के पास आये। उनके मन में भव-भ्रमण का त्रास परिव्याप्त था। उन्होंने तत्क्षण अर्द्ध-कर्पट का त्याग कर दिया तथा आत्म-बल संजोये निर्ग्रन्थ मुनियों का वेष स्वीकार कर लिया। संसार-सागर के पार लगाने वाला गुरु-वचन जिन्हें नहीं रुचा, जिन्होंने मरमार्थ को नहीं समझा, उन्होंने जिन-कल्प तथा स्थविर-कल्प की द्विविध परिकल्पना की। वे अद्धफालक धारण किये रहे। उन कायर एवं प्रात्मबल-रहित व्यक्तियों ने इस तीर्थ-श्वेताम्बरमत की स्थापना की।" तात्पर्य वृहत्कथाकोषकार ने घटना को श्रुत-केवली भद्रबाहु से जोड़ने का प्रयत्न किया है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रुत-केवली भद्रबाहु के स्वर्गवास का समय वीर-निर्वाण सम्वत् १६२ तथा श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण सम्वत् १७० माना जाता है । यदि श्रुत-केवली भद्रबाहु के समय की यह घटना मानी जाये तो संघ-विभाजन का काल बहुत पीछे चला जाता है। अर्थात् दर्शनसार तथा भावसंग्रह में निर्देशित समय (वीर निर्वाण ६०६) से लगभग साढे चार शताब्दियों का अन्तर पड़ता है। कुछ एक दिगम्बर परम्पराओं का और उल्लेख कर इस पर विचार करेंगे। . . संघ-विभाजन : एक भिन्ने परम्परा ... पन्द्रहवीं शताब्दी में रयधू या रइधू नामक एक अपभ्रश कवि हुए। वे परम्परया दिगम्बर १. रामिल्लः स्थविरः स्चूल-भद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्यसंपन्ना विशाखाचार्य माययुः ॥ ६५ ॥ त्यक्त्वाद्ध कर्पटं सद्यः संसारात् त्रस्तमानसाः । नन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनि रूपं दधुस्त्रयः ॥ ६६ ॥ इष्टं न यगुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥ ६७ ॥ अर्द्ध फालकसंयुक्त मज्ञात परमार्थकैः । तरिवं कल्पितं तीर्थ कातरैः शक्तिवजितः ॥ ६८ ॥ -वृहत्कथाकोष २. ई० सन् १४३९ 2010_05 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरशैनी प्राकृत और उसका वाङ्मय । ५२७ मत के अनुयायी थे। उन्होंने अपने द्वारा रचित महावीर-चरित नामक ग्रन्थ में इस प्रसंग को चर्चित किया है। उन्होंने प्रसंगोपात्ततया चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को सम्राट् के पद पर अधिष्ठित किये जाने के उल्लेख के साथ-साथ क्रमशः चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक और कुणाल का वर्णन किया है । ईर्ष्यालु विमाता द्वारा छल से कुणाल को अन्धा कर दिये जाने की भी वहां चर्चा है। कुणाल के पुत्र का नाम रइधू ने चन्द्रगुप्ति लिखा है । ऐसी सम्भावना की जाती है कि सम्प्रति का ही यह नामान्तर हो । रइधू ने लिखा है कि अशोक ने चन्द्रगुप्त को बड़े उत्साह से राज्याभिषिक्त किया । चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) ने जैन धर्म के व्यापक प्रसार के लिए बहुत बड़ा प्रयास किया। इस घटना से आगे रइधू श्रुत-केवली भद्रबाहु को जोड़ते हैं। चन्द्रगुप्त के नाम से जिन सोलह स्वप्नों की जैन साहित्य में खूब चर्चा है, रइधू के अनुसार वे चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) के स्वप्न थे । आने वाले कुसमय को सोचकर वैराग्यपूर्वक चन्द्रगुप्ति प्राचार्य भद्रबाहु से दीक्षित हो जाता है । आगे का वर्णन लगभग बहुत कुछ पहले उद्धृत कथानकों जैसा ही है । शिशु द्वारा अपशकुन, बारह वर्षों के दारुण दुर्भिक्ष की घोषणा, साधु-संघ का दक्षिण जाना, प्राचार्य भद्रबाहु का दिवंगमन, स्थूलाचार्य आदि श्रमणों द्वारा वस्त्र, पात्र. दण्ड आदि धारण किया जाना, दुर्भिक्ष की समाप्ति के बाद साधु-संघ का मिलना, श्वेताम्बर-दिगम्बर के रूप में संघ का विभक्त होना, प्रभृति घटनाएं वहां वर्णित हैं । বিবাহথীথ বন্ধু . महाकवि रइधू ने श्रुत-केवली भद्रबाहु को जो चन्द्रगुप्ति या सम्प्रति के साथ जोड़ा है, वह संगत प्रतीत नहीं होता। धर्मघोषसूरि रचित दुःषमाकालश्रीश्रमणसंघस्तव के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर २१५ वर्ष तक नव नन्दों का राज्य रहा । तत्पश्चात् १०८ वर्ष तक मौर्यों का राज्य रहा। इस प्रकार यह समय वीर-निर्वाण संवत् ३२३ तक आता है । यदि श्रुत-केवली भद्रबाहु चन्द्रगुप्ति या सम्प्रति के समसामयिक होते तो इस काल-गणना के अनुसार उनका समय वीर-निर्वाण सम्वत् ३०० से पहले नहीं होता, कुछ बाद ही होता । ऐसा होने का अर्थ है, श्रुत-केवली भद्रबाहु विषयक दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों मान्यताओं का खण्डन, जिसके लिए कोई सबल, ठोस प्रमाण प्राप्त नहीं है। भद्रबाहु को लेकर जो समय सम्बन्धी विचिकित्सा देखने में आती है, उसका मुख्य कारण भद्रबाहु नाम के कई प्राचार्यों का होना है। इसका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग मागे किया जायेगा। 2010_05 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : অবথ হননী । অসিসন - भावसंग्रह, वृहत्कथाकोष प्रादि में द्वादशवर्षीय दुष्काल की समाप्ति के अनन्तर मुनिसंघ के मिलने पर संघ-विभाजन होता है, जिसका अभिप्राय यह है कि वहीं से दिगम्बरश्वेताम्बर की भेद-रेखाएं खचित हो जाती हैं। रत्ननन्दी' इस प्रसंग को कुछ और स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार दुर्भिक्ष के पश्चात् मुनि-संघ के मिलने पर निर्वस्त्रता और अखं फालकता के आधार पर भेद पड़ता है। श्वेताम्बरत्व तब तक अस्तित्व में नहीं आता। इसके लिए रत्ननन्दी ने एक घटना और जोड़ी है, जिसे यहां उद्धृत किया जाता है। अईफालक मत से श्वेताम्बर ..दुर्भिक्ष के अनन्तर संघ-भेद के समय अर्द्ध फालक-संज्ञक जो नूतन मत उत्पन्न हो गया था, उसका प्राचार्य रत्ननन्दी इस प्रकार वर्णन करते है : "वह विचित्र अर्द्ध फालक मत का सहारा पाकर लोक में उसी प्रकार उभर आया, जिस प्रकार जल पर तैल उभर आता है। . अद्ध फालक मतानुगों ने जिनेन्द्र-वाणी की अन्यथा कल्पना की और उसके अनुसार के अज्ञानी जनों को दुर्मार्ग में प्रवृत्त करने लगे। वे पांचों इन्द्रियों के भोगों में आसक्त थे, निरंकुश थे। उन्होंने अपने लिए स्वयं व्रत गढ़े । अपनी बुद्धि के अनुसार उन्हें सूत्रों में ग्रथित कर डाला।" “यों अर्द्ध फालक मत को चलते काफी समय व्यतीत हो गया। एक घटना हैउज्जयिनी में चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कीर्तिशाली चन्द्रकीति नामक राजा था। उसकी १. प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में आचार्य रत्ननन्दी और उनके भद्रबाहुचरित्र का प्रसंग आया है। २. अतोऽर्द्ध फालकं लोके व्यानसे मतमद्भुतम् । - कलिकालबलं प्राप्य सलिले तैलबिन्दुवत् ॥ श्रीज्जिनेन्द्रचन्द्रस्य सूत्रं संकल्प्यतेऽन्यथा । वर्तयन्ति स्म दुर्मार्गे जनान मूढत्वमाश्रितान ॥ ....यथा स्वयं समारब्धं व्रतं पंचामलोलुपैः । . निरंकुशस्तथा सूने सूत्रितं निजबुद्धितः॥ -भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेच ४, श्लोक ३०-३२ 2010_05 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय महारानी का नाम चन्द्रश्री था। उनके एक कन्या उत्पन्न हुई, उसका नाम चन्द्रलेखा रखा गया। उस कन्या ने अर्द्ध फालक मत के तथाकथित साधुओं से शास्त्र पढ़े। वह कन्या बुद्धि, रूप, लावण्य आदि अनेक गुण-युक्त थी।" "सौराष्ट्र प्रदेश में वलभी नामक उत्तम नगर था। वहां प्रजापाल नामक नीतिज्ञ राजा था। उस राजा के तेज से उसके समस्त शत्रु परितप्त थे। उसकी महारानी का नाम प्रजावती था । वह उत्तम लक्षण-युक्त थी। उसके लोकपाल नामक पुत्र था । वह सौम्य गुणों से परिपूर्ण था। वह रूपवान्, सौभाग्यशाली तथा ज्ञान-विज्ञान का पारगामी था।" "राजा प्रजापाल ने उल्लासपूर्वक अपने पुत्र के लिए राजा चन्द्रकीति से उसकी उज्ज्वल गुण-युक्त पुत्री चन्द्रलेखा की मांग की। राजकुमार का उस नवयुवती राजकुमारी से विवाह हो गया । देवराज इन्द्र जिस प्रकार शची के साथ सुखोपभोग करता है, उसी प्रकार वह उसके साथ सांसारिक सुख भोगने लगा । यथाक्रम पिता का विशाल राज्य उसे प्राप्त हुआ। १. एवं बहुतरे काले व्यतिक्रान्तेऽभवत्पुरे। उज्जयिन्यां विशांनाथश्चन्द्रवत् चन्द्रकोतिभाक् ॥ चन्द्रभी श्रीरिवाज्याता तस्याप्रमहिषी शुभा। बम्पत्योश्चन्द्रलेखाख्या तयोर्जातात्मजा शुभा ॥ साभ्यासे मुनिमन्याना शास्त्राणि समपीपठत् । विचक्षणाऽभव प-लावण्यादि गुणान्विता ॥ -भप्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लो० ३३-३५ २. सौराष्ट्रविजयेऽथास्ति बलभीपुरभुत्तम् । धरेशिता प्रजापाल-नामा तत्र नयान्वितः ॥ निजप्रतापतापेन तापिताऽखिलशत्रवः। प्रजावती गिरा राजी तस्याऽसोच्चार लक्षणा॥ लोकपालाभिधस्तो कस्तयोश्चार गुणोऽभवत् । रूपसौभाग्यसम्पन्नो ज्ञानविज्ञानपारगः ॥ ... -बही, श्लो० ३६-३८ ____ 2010_05 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० उसने चन्द्रलेखा को पटरानी बनाया । "2 "लोकपाल अपना नाम सार्थक करता हुआ अपने विशाल राज्य का पालन करने लगा । वह इतना प्रतापी था कि सब राजा उसके समक्ष नत थे । एक दिन महारानी ने, जब महाराज प्रसन्न थे, निवेदन किया - नाथ ! कान्यकुब्ज नामक नगर में हमारे गुरु रहते हैं । जगत्पूज्य । आप अनुरोधपूर्वक उन्हें यहां आमंत्रित करें । राजा ने अपनी प्रियतमा का आग्रह मान लिया । "" 3 आगम और ब्रिपिटक । एक अनुशीलन "राजा ने उन साधुओं को लाने के लिए अपने व्यक्तियों को वहां रवाना किया । वे वहां गये । वहां स्थित अर्द्ध फालक मत के साधुओं की भक्तिपूर्वक बार-बार अभ्यर्थना की। तब जिनचन्द्र प्रभृति साधु वलभी नगर में आये । राजा ने साधु-संघ का आगमन सुना । राजा सामन्तवृन्द, मंत्रीगण तथा नागरिक जनों से परिवृत्त हो, विविध वाद्यों की मधुर ध्वनि से दिशाओं को परिव्याप्त करता हुआ यथाशीघ्र साधुओं को वन्दन करने गया ।' 113 १. प्रजापालः स्वपुत्रार्थं चन्द्रकीतिनृपात्मजाम् । प्रमोदात् प्रार्थयामास चन्द्रलेखां गुणोज्ज्वलाम् ॥ उपयभ्य कुमारोऽसौ तां कन्यां नवयौवनाम् । बोभुजीति तया भोगान् शच्येव सुरनायकः ॥ क्रमात् संप्राप्य पुण्येन प्राज्यं राज्यं पितुर्मुदा । चकार चन्द्रलेखां तां सदग्रमहिवीपदे ॥ 2010_05 - भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लो० ३९-४१ २. लोकपालो नृपः सार्थं कुर्वन्नामात्मनो भृशम् । विधत्त विशदं राज्यं नताशेषमहीपतिः ॥ एकवाऽऽनन्दचित्तोऽसौ राज्ञ्या विज्ञापितो नृपः । नाथाऽस्मद्गुरवः सन्ति कान्यकुब्जाख्यपत्तने ॥ तानानायय वेगेन जगत्पूज्यानू मदाग्रहात् । प्रियाप्रियतया भूपस्तद्वचो मानयनु मुदा ॥ वही, श्लोक ४२-४४ ३. तौल्ला प्रषयामास तत्रैवात्मीयसज्जनान् । पत्वा नत्वा भृशं भक्त्या गुरु स्ते तत्र संस्थितान् ॥ खंड १२ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावा और साहित्य i शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५३१ "राजा ने दूर से ही साधुओं को देखा । वह सोचने लगा, यह कैसा निन्दनीय मत है, जो स्वयं ही अपनी विडम्बना कर रहा है । ऐसे साधु नहीं देखे जाते, जो नग्न भी हों और वस्त्र भी रखते हों । यह तो कोई नया मत दिखाई देता है । इनके पास जाना उचित नहीं है। राजा वहां से अपने महल में लौट आया। रानी ने तत्काल राजा के मन की बात भांप ली ।"1 "रानी ने अत्यधिक भक्ति के कारण अपने गुरुओं के लिए वस्त्र भिजवाये । उन्होंने (साधुओं ने ) रानी के कथनानुसार सहर्ष वस्त्र धारण कर लिये । तब राजा ने उनका भक्तिपूर्वक सम्मान तथा पूजन किया । स्त्रियों के प्रेम में आसक्त व्यक्ति क्या अकार्य नहीं करते ? उन साधुओं ने तब जो वस्त्र धारण किये, वे श्वेत वर्ण के थे; अतः उस दिन से उनका मत अर्द्ध फालक के स्थान पर 'श्वेताम्बर' नाम से विख्यात हो गया ।" " तैः समभ्यथिता भूयो विनयाबद्ध फालकाः । जिनचन्द्रादयः प्रापुर्वलभीपुरभेदनम् ॥ आकussगमनं साधु-संघस्य धरणीश्वरः । वन्दितु निःससाराशु परानन्दाच तामितः ॥ तुर्य त्रिकवराराववधिरीकृतविङ मुखम् सामन्ताऽमात्यपरत्य परिवार 1 परिष्कृत : ॥ - भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लोक ४५-४८. १. विलोक्य दूरतः साबुन विस्मयादित्यचिन्तयत् । P किमेतद्दर्शनं निन्द्य लोकेऽत्र स्वविडम्बकम् ॥ नग्ना वस्त्रेण संविक्ता नेक्ष्यन्ते यत्र साधवः । गन्तु ं न युज्यते नोऽत्र नृत्नदर्शनदर्शनात् ॥ व्याघुट्य भूपतिस्तस्मान्निजमन्दिरमेयिवात् । ज्ञात्वा राशी नरेन्द्रस्य मानसं सहसा स्फुटम् ॥ 2010_05 - वही, श्लोक ४९-५१ २. गुरुणां गुरु भक्त्या सा प्राहिणोत्सिचयोच्चयम् । तैर्गृहीतानि वासांसि मुदा तानि तदुक्तितः ॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ 1 मागम और निपिटक : एक अनुशीलन "" इस प्रकार राजा विक्रमादित्य के मरने के १३६ वर्ष पश्चात् श्वेताम्बर-सम्प्रदाय प्रकट हुआ। जिनचन्द्र इस सम्प्रदाय का प्रमुख था । उस मूढ़ ने जैनागम के प्रतिकूलकेवली कवलाहार करते हैं , स्त्रियों का उसी (स्त्री-) पर्याय में मोक्ष हो सकता है, खाद्य मादि परिग्रह-पासक्त साधुओं का भी मोक्ष होता है- जैसे सिद्धान्तों की रचना की।" अहापोह रत्ननन्दी के वर्णन से ऐसा प्रकट होता है कि दुर्भिक्ष के पश्चात् वस्त्र आदि धारण किये रहने पर जो साधु अडिग रहे, उन्होंने वस्त्र तो धारण किया, पर बहुत कम । नग्नता बदस्तूर कायम रही । वे केवल उत्तरीय या ऊपर ओढ़ी जाने वाली चद्दर लपेटे रहते थे। तभी तो वलभी-नरेश लोकपाल असमंजस में पड़ गया। लगता है, उसके मन में ऐसा ऊहापोह उत्पन्न हुआ होगा---यह कैसा मत है, ये साधु नग्न भी हैं और नाममात्र का वस्त्र भी धारण किये हुए हैं , अर्थात् न तो इनमें सर्वथा नग्नता है और न यथावत् सवस्त्रता ही। रानी द्वारा भेजे गये श्वेत वस्त्र धारण कर लेने के बाद राजा साधुओं के प्रति श्रद्धालु हो जाता है, उनका स्वागत-सत्कार करता है । इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि राजा को बह (अद्ध फालकतामय) वेष किसी भी परम्परा का प्रतीक या परिचायक नहीं लगा। उपयुक्त विवेचन से यह भी अनुमान करना असंगत नहीं दीखता कि राजा के मन में नग्न और सवस्त्र दोनों प्रकार के साधुनों की कल्पना रही हो और वे अर्द्ध फालक ततस्ते भूभृता भक्त्या पूजिता मानिता भृशम् । किमकार्यन्न कुर्वन्ति रामारागेण रञ्जिताः ।। धृतानि श्वेतवासांसि तद्दिनात्समजायत । श्वेताम्बरमतं ख्यातं ......."ततोऽद्ध फालकात् ॥ __ -भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लोक ५५-५७ मृते विक्रमभूपाले पतिशदधिए शते । गतेऽम्दानामभूल्लोके मतं श्वेताम्बराभिधम् ॥ भुनक्ति केवलज्ञानी स्त्रीणां मोक्षोऽपि तद्भवे । साधूनां च ससङ्गानां गर्भापहरणादिकम् ।। हिगागमसन्दोह-विपरीतं जिनोदितम् । परीरचत्त मूढात्मा जिनचन्द्रो गणामणी ।। -बही, श्लोक ५२-५४ 2010_05 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [ ५३३ साधु उसे दोनों ही परस्पराओं से मिलते न लगे हों। राजा का यदि केवल नाग्नय के प्रति आदर एवं श्रद्धा-भाव होता तो श्वेत वस्त्र धारण कर लेने पर राजा ने जो स्वागतसत्कार किया, वैसा नहीं बनता । 14 यद्यपि रत्नमन्दी ने एक वाक्य से अपना बचाव तो किया है कि मारी-प्रेम में आसक्त व्यक्ति कौन-सा अनुचित कार्य नहीं कर सकता । अर्थात् राजा ने उन श्वेत वस्त्र धारण किये हुए साधुओं का मान-सम्मान किया, उसका कारण अपनी महारानी को प्रसन्न करना था। पर, यह बात समीचीन एवं संगत प्रतीत नहीं; क्योंकि यदि केवल महारानी को ही प्रसन्न करना होता तो पहली बार राजा उन साधुओं के श्रद्ध फालक-वेष को देखकर कतराता नहीं । रत्ननन्दी का भद्रबाहु चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से वैसे कोई बहुत प्रामाणिक कृति नहीं मानी जाती; अतः उसमें व्यक्त किये गये तथ्यों पर और अधिक छानवीन की उतनी अपेक्षा नहीं है । रत्ननन्दी ने भी अपने कथानक का सम्बन्ध श्रुत- केवली भद्रबाहु के साथ जोड़ा है, पर विक्रमाब्द १३६ की श्रुत - केवली भद्रबाहु के काल के साथ कैसे संगति होगी ? एकाधिक भद्रबाहु दिगम्बर- परम्परा में श्वेताम्बर मत के उद्भव के सम्बन्ध में जो मुख्य-मुख्य कथानक प्रचलित हैं, उनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । उनसे स्पष्ट है कि विभिन्न दिगम्बर लेखक उक्त प्रसंग में आचार्य भद्रबाहु का नाम लेते हैं, पर उनके समय को लेकर उनमें समन्वय नहीं है और न समय के सन्दर्भ में ऐतिहासिक इयत्ता की ओर उनका झुकाव ही दिखाई देता है । इससे स्पष्ट है कि उक्त प्रसंगों में ऐतिहासिक दृष्टिकोण के स्थान पर कथानक का काल्पनिक रूप अधिक सामने आता है । भद्रबाहु के समय को लेकर असमंजस में पड़ जाने का एक कारण और है । वह है, भद्रबाहु नाम के कई आचार्यों का होना । स्थिर ऐतिहासिक दृष्टिकोण लिए बिना चलने वाले लेखकों के लिए इससे भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । प्रस्तुत सन्दर्भ में यह उपयोगी होगा कि भद्रबाहु नाम से दिगम्बर एवं श्वेताम्बरपरम्परा में कितने-कितने और कौन-कौन आचार्य हुए, उनकी संक्षेप में चर्चा की जाये । १. किमकार्य कुर्वन्ति रामारागेण रञ्जिताः । 2010_05 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ k३४1 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन বিশ্বব-বংশৰ ম সবাই दिगम्बर-साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि इस परम्परा में भद्रबाह नाम के कई आचार्य हुए हैं, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है । প্রথম পৰাই श्रत-कैवली भद्रबाहु प्रथम भद्रबाहु थे, जिनके सम्बन्ध में पीछे यथाप्रसंग प्रकाश डाला जा चुका है । तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों के अनुसार उनके स्वर्गवास का समय वी. नि: सं० १६२ है । वे भगवान् महावीर के अाठवें पट्टधर थे। दिगम्बर परम्परा में ये तष्ट्य प्रायः सर्वसम्मत हैं। द्वितीय भद्रबाहु तिलोयपणती में श्रुत-ज्ञान के हीयमान-क्रम का वर्णन करते हुए, उन-उन श्रु तांगों के धारक प्राचार्यों का जो सूचन किया गया है, उसके अनुसार सुभद्र, यशोभद्ग, यशोबाहु एवं लोहार्य-ये चार आचारांगधर कहे गये हैं । १. (क) केवली–३ भुत-केवली-५ दशपूर्वधर-११ एकादश अंगधर-५ आचारांगधर-४ समय ६२ वर्ष समय १०० वर्ष समय १८३ वर्ष समय २२० वर्ष समय ११८ वर्ष कुल समय ६८३ वर्ष एकादश अंगधर तक का समय ५६५ वर्ष (ख) केवली-३ १. गौतम, २, सुधर्मा, ३. जम्बू श्रुत-केवली-५ १. नन्दि, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोवद्धन, ५. भद्रबाहु दशपूर्वधर-११ १. विशाख, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. ज', ५. नग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषण, ८. विजय, ९. बुद्धिल, १०. गंगदेव, ११. सुधर्म एकादश अंगधर-५ १. नक्षत्र, २. जयपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्र वसेन, ५. कंस आचारांगधर-४ १. सुमन, २. पशोभन, ३. यशोबाहु, ४. लोहार्य ____ 2010_05 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वामय । ५३५ तिलोयपग्णत्ती के अनुसार वीर-निर्वाण संवत् ५६५ तक एकादशांगधरों का अस्तित्व रहा । तत्पश्चात् केवल आचारांग के धारक हुए, जिनका समय तिलोयपण्णत्तीकार ने ११८ वर्ष का बतलाया है। यों आचारांगधरों का काल वीर-निर्वाण संवत् ५६५ तथा ६८३ के मध्य प्राता है अर्थात इन ११८ वर्षों में सुभद्, यशोभद्, यशोब्राहु एवं लोहामंमे चार भाचार्ष होते हैं। इन चारों में तीसरे यशोभद्र दिगम्बर-परम्परा में भद्धाहु भी कहे जाते हैं । मादीभाम्नाय को प्राकृत-पट्टावलि में उन्हें यशोबाहु के स्थान पर भद्रबाहु कहा गया है । परन्तु इतना अन्तर अवश्य है, तिलोयपण्णत्तीकार जहां उन्हें आचारांगधर के रूप में व्याख्यात करते हैं, इस पट्टावलि में उन्हें अष्टांगधर कहा गया है। परन्तु इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि एक ही व्यक्ति के लिए ये दो प्रकार के कथन हैं; क्योंकि तिलोयपणती में जहां यशोबाहु सत्ताईसवें स्थान पर पाते हैं, वहां इस पट्टावलि में भद्रबाहु भी सत्ताईसवें स्थान पर पाते हैं। नन्दि-प्राम्नाय की इस पट्टावलि के कुछ विवेच्य विषय, जिनका आगे के प्रकरण से सम्बन्ध है, यथाप्रसंग स्पष्ट किये जायेंगे । भद्रबाहु: गुप्त गुप्तिः चन्द्रगुप्ति नन्दीसंघ की संस्कृत-गुर्वावलि में प्राचार्य भद्रबाहु के पट्टधर गुप्तगुप्ति' का उल्लेख है । पूर्वापर प्रसंग के पर्यालोचन से प्रतीत होता है कि ये वही भद्रबाहु हैं, जिन्हें तिलोयपण्णत्ती में आचारांगधरों में यशोबाहु के नाम से अभिहित किया गया है । १. सुभदं च जसोभई भद्दबाहु कमेण च । लोहाचम्य मुणीसं च कहियं च जिणगमे ।। १३ ॥ छह अट्ठारहवासे तेवीस वावण (पणास) वास मुणिणाहं । - बस णव अटुंगधरा दुसदवीस सधेसु ।। १४ ॥ -जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, सन १९१३ में उद्धत श्रीमानशेषनरनायकवन्दितांघ्रिः, श्रीगुप्तिगुप्त इति विश्रु तनामधेयः । यो भद्रबाहुमुनिपुंगवपट्टपमः, सूर्यः स वो दिशतु निर्मलसंघवृद्धिम् ॥१॥ -वही, १.४, पृ० ५१ पर उडत 2010_05 | Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] आगम और विपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड र यहां एक बात विशेष रूप से विचारणीय है- जहां पीछे उल्लिखित कथानकों में प्राचार्य भद्रबाहु के साथ उज्जयिनी के राजा चन्द्रगुप्ति का ओ नाम आया है, वह सम्भवतः गुप्तगुप्ति हो। गुर्वावलिकार ने गुप्त गुप्ति के लिए जो अशेषनरनायकवन्दिताधिः (जिनके चरण समस्त राजन्य वर्ग से पूजित हैं) विशेषण दिया है, वह उनके राजत्व से श्रमरणजीवन में आने की और इंगित करता है । दोनों नामों के उत्तराद्ध में आये हुए गुप्ति शब्द से भी यह अनुमेय है कि जिसे चन्द्रगुप्ति के नाम से अभिहित किया गया है, वह शायद गुप्तगुप्ति ही हो। अत: पूर्वोक्त कथानकों का सम्बन्ध चन्द्रगुप्ति के बजाय गुप्तगुप्ति से माना जाये—यह भी गवेषणीय है। ऐसा लगता है कि मूल कथानक भ्रान्तिवश काल-कम से परिवद्धित एवं अतिरंजित होते हुए प्राप्त रूपों तक पहुंचे हों। ননীৰ পৰা - वीर-निर्वाण संवत् ६८३ में एकादशांग के विच्छेद होने के अनन्तर एक भद्रबाहु आचार्य और होते हैं, जो निमित्त-शास्त्र के महान् वेत्ता थे। पिछले कथानकों में भद्रबाहु को यत्र-तत्र जो महान् नैमित्तिक के रूप में उपस्थित किया गया है, वह भ्रमवश हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि विक्रमाब्द १३६ में घटित घटना से जिन भद्रबाहु का सम्बन्ध जोड़ा जाता है, वे नैमित्तिक भद्रबाहु कैसे हो सकते हैं ? तिलोयपण्णत्ती के अनुसार वे तो आचारांगधर थे और लोहाचार्य से पूर्ववर्ती थे । पर नाम साम्य से भ्रम पर भ्रम बढ़ते चले गये । संकेत किया ही गया है, इन कथानकों की रचना में ऐतिहासिकता की ओर कम-से-कम ध्यान रहा है। হননা-থবা ঐ সরকাঃ । श्वेताम्बर-परम्परा में भी प्रथम भद्रबाहु वहीं हैं, जो श्र त-केवली थे। उन्होंने छेद-सूत्रों की रचता की। उनके समय के सम्बन्ध में पीछे कहा गया है, बीर-निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् वे दिवंगत हुए । आचार्य हेमचन्द्र ने भी परिशिष्ट पर्व में उनके दिवंगमन का यही समय सूचित किया है। १. वीरमोक्षावर्षशते सप्तत्यग्रे गते सति । भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ।। -परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९, श्लोक ११२ 2010_05 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] तय बह द्वितीय भद्रबाहु वे थे, जिन्होंने दश नियुक्तियों की रचना की, जो उपसर्ग-हर-स्तोत्र के रचियता थे । वे भद्रबाहु संहिता के भी कर्त्ता माने जाते हैं । वे निमित्त शास्त्र के महान् वेत्ता थे । अतएव वै नैमित्तिक भद्रबाहु के नाम से प्रसिद्ध हैं । यह भी जनन् ति है कि महान् ज्योतिर्विद वराहमिहिर ने पंचसिद्धान्तिका के अन्त में जो सूचित किया है, वह शक संवत् ¥२७ है । तदनुसार वराहमिहिर का समय विक्रम संवत् ५६२ (वीर - निर्वारण संवत् १०३२) होता है । ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भाई होने को जन श्रुति को यदि मान्य किया जाये तो इन नैमित्तिक भद्रबाहु का समय भी इसी के आस-पास होना चाहिए । शौरसेनी प्राकृत और उसका बाङमय श्वेताम्बर - परम्परा में दिगम्बर-मत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित कथानक का भद्रबाहु के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । प्रसंगोपात्त होने से यहां भद्रबाहु के सम्बन्ध मैं श्वेताम्बर - मान्यता की दृष्टि से संकेत मात्र किया गया है। आचार्य भद्रबाहु : कुछ ऐतिहासिक तथ्य इतिहास का एक उलझा हुआ पहलू है - श्रुत- केवली आचार्य भद्रबाहू तथा चन्द्रगुप्त मौर्य को समसामयिकता । दोनों को कुछ विद्वान् समसामयिक कहते हैं । इस संदर्भ में श्वेताम्बर जैन वाङ्मय में कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हैं, जिनकी यहां चर्चा उपयोगी होगी । तित्योगालीपइना तित्थोगालीपना में लिखा है कि तीर्थकर महावीर जिस रात को मुक्तिगामी हुए, उसी रात को अवन्ती में पालक का राज्याभिषेक हुआ । पालक का राज्य ६० वर्ष तक रहा । उसके पश्चात् नन्दों का राज्य १५५ वर्ष तक चला । नन्द- राज्य के अनन्तर मौर्यो का राज्य आया, जिसकी अवस्थिति १०८ वर्ष तक रही । मौर्यों के बाद पुष्यमित्र का राज्य हुआ, जो ३० वर्ष तक चला। इस काल-गणना के अनुसार मौर्यों के राज्य का आरम्भ वीरनिर्वाण संवत् २१५ में होता है । १. सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादो अधस्तिमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ॥ ( सप्त = ७, अश्वि = २, वेद ४ अर्थात् ४२७ ) २. जं रर्याणि कालगओ, अरिहा [ ५३७ तित्थंयरो महावीरो । तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालओ राया ॥ 2010_05 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५३८] - आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ :সস।ব্যাসঙ্গী থাঘন ঋী ব্যাগ-গথানা : आचार्य श्री धर्मघोष सूरि के दुःषमाकालश्रीश्रमणसंघस्तव के अनुसार भी कालगणना इसी भांति है । उन्होंने भी पालक के ६० वर्ष, नन्दों के १५५ वर्ष, मौर्यों के १०६ वर्ष तथा पुष्यमित्र के राज्य के ३० वर्ष लिखे हैं । राज्य-काल की यह गणना केन्द्रीय सत्ता की दृष्टि से की गई प्रतीप्त होती है । यद्यपि पालक अवन्ती का राजा था, पर प्राचार्य धर्मघोष के अनुसार उदायी के निष्पुत्र मरने पर कोणिक-अजातशत्रु के पाटलिपुत्र'-राज्य पर भी उसने अधिकार कर लिया । इस प्रकार वह उत्तर भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आ गया था । प्राचार्य श्री धर्मघोष सूरि ने किन-किन राज्यों के जैन धर्म के कौन-कौन संघाधिपति थे, यह भी संकेत किया है। उनके संघ-स्तव के उल्लेख के अनुसार पालक तथा नव नन्दों के राज्य के समय आचार्य जम्बू (चालीस+चार वर्ष), आचार्य प्रभव (ग्यारह वर्ष) आचार्य शय्यंभव (तेबीस वर्ष), आचार्य यशोभद्र (पचास वर्ष), प्राचार्य सम्भूति विजय (आठ वर्ष), आचार्य भद्रबाहु (चवदह वर्ष) तथा प्राचार्य स्थूलभद्र (पैतालीस वर्ष) संघ के अधिनायक थे । मौर्य-राज्य में इस स्तव के अनुसार आर्य महागिरि (तीस वर्ष), आर्य सुहस्ती (छियालीस वर्ष) तथा प्राचार्य गुणसुन्दर (बत्तीस वर्ष) जैन संघाधिपति रहे । आचार्य धर्मघोष सूरि ने राज्य के शासन-काल तथा संघनायकों के धर्म-शासन-काल को भी पूरा मिलाया है। इस काल-गणना के अनुसार भद्रबाहु नन्दों के राज्य-काल में होते है । प्राचार्य धर्मघोष सूरि ने नो नन्दों में से प्रत्येक का अलग-अलग शासन-काल दिया है । तदनुसार सातवें नन्द तक पालगरण्णो सट्ठी, पणपणसयं वियाणि गंदाणं । मुरियाणमट्ठिसयं, तीसा पुण पूसमित्ताणं ॥ सिरिजिणनिव्वाणगमणरयणीए उज्जोणीए चंउपज्जोममरणे पालओ राय अहिसित्तो। तेण य अपुत्त उदाइमरणे कोणिअरज्जं पाडलिपुरं पि अहिट्ठियं । तस्स य वरिस ६० ज्जे--- गोरा १२ हम्म ८, जंबू ४४, जुगप्पहाणा ' पुणो पाडलिपुरे ११, १०, १३, २५. २५, ६, ६, ४, ५५ नव नंदा एवं वरिस १५५ रज्जे-जंबू शेष वर्षाणि ४, प्रभव ११, शय्यंभव २३, यशोभद्र ५०, संभूतिविजय ८, भद्रबाहु १४, स्थूलभद्र ४५ एवं धीर निर्वाण २१५ ! मोरिअरज्जं १०८ तत्र महागिरिः ३०, सुहस्ती ४६, गुणसुन्दर ३२,.........."पुष्यमित्र ३०............ ! २. यहां मगध राज्य से तात्पर्य है, जिसकी राजधानी उदायों के समय में पाटलिपुत्र थी। 2010_05 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [ ५३९ वीर-निर्वाण के १५६ होते हैं । आचार्य भद्रबाहु का प्राचार्य-काल १४ वर्ष का है । १७० वीर-निर्वाणाब्द में वे स्वर्गवासी हो जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि उनका चार वर्ष का प्रारम्भ का आचार्य-काल आठवें नन्द के राज्य काल में रहा तथा आगे का दश वर्ष का आचार्य-काल नौवे नन्द के राज्य काल में रहा । तत्पश्चात् उनके पद पर प्राचार्य स्थूलभद्र पाते हैं, जो नवम नन्द के राज्य-काल के अन्त तक अर्थात् ४५ वर्ष तक धर्म-शासन के अधिपति रहते हैं। बौर-निर्वाण सं० २१५ में नन्दों का राज्य समाप्त होता है, प्राचार्य स्थूलभद्र का स्वर्गवास होता है, चन्द्रगुप्त (चाणक्य की सहायता से) मौर्य-साम्राज्य की स्थापना करता है। इससे स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त का समय प्राचार्य भद्रबाहु 'के ही नहीं, प्राचार्य स्थूलभद्र के भी पश्चात् सिद्ध होता है ।. গণ রূ7 Wাহথা चन्द्रगुप्त को श्रु त केवली प्राचार्य भद्रबाहु का समसामयिक मानने की जो भ्रान्ति पड़ी, उसका एक कारण आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व का वह उल्लेख है, जिसमें भगवान् महावीर के मुक्ति-लाभ के १५५ पश्चात् चन्द्रगुप्त के राजा होने का संकेत है। उपरोक्त काल-क्रम के अनुसार वीर निर्वाण २१५ वर्ष तक तो नन्दों का राज्य चलता है । उस बीच वीर निर्वाण १५५ में चन्द्रगुप्त कैसे हुआ ? पूर्व निदर्शित काल-गणना श्वेताम्बर-परम्परा में बहुत प्रामाणिक मानी जाती है । নানী দ্বাথ ওাথী अन्वेष्टा विद्वानों ने प्राचार्य हेमचन्द्र के उक्त उल्लेख पर बहुत ऊहापोह तथा विमर्षणअन्वेषण किया है, पर, कोई ऐसा ठोस ऐतिहासिक प्राधार नहीं मिल सका, जिससे आचार्य हेमचन्द्र का कथन सिद्ध होता हो । हिमवत् थेगावली में तो कुछ इस प्रकार का उल्लेख अवश्य है, जिसमें प्राचार्य हेमचन्द्र के कथन को कुछ सहारा मिलता है । यहां कहा गया है कि वीर निर्वाण १५४ में चन्द्रगुप्त मगध का राजा बना। वीर निर्वाण १७० में १. एवं च श्रीमहावीर-मुक्त वर्षशते गते । पञ्चपञ्चाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ॥ -परिशिष्ट पर्व, ३३९ 2010_05 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ । वीर निर्वाण १८४ में चन्द्रगुप्त की मृत्यु हुई । पर तित्थोगाली पन्ना तथा दुःखमाकालश्रीश्रमणसंघस्तव की तुलना में हिमवत् थेरावली की प्रामाणिकता संदिग्ध है । गवेषक विद्वानों का ऐसा चिन्तन है कि श्राचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का जो समय दिया है, वहां उन्हें काल-गणना में कुछ भ्रान्ति हुई है । वीर निर्वाण के पश्चात् ६० वर्ष तक जो पालक का राज्य रहा, सम्भवतः श्राचार्य हेमचन्द्र की गणना में वह छूट गया । 1 उन्होंने सीधे नव नन्दों के १५५ ले लिये और तदनुसार चन्द्रगुप्त के राज्याभिषिक्त होने का उल्लेख कर दिया । सारांश चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर निर्वारण २१५ तदनुसार ३१२ ई० पूर्व में नन्द वंश का विध्वंस कर राज्य प्राप्त किया । चन्द्रगुप्त के महान् पौत्र अशोक के राज्याभिषेक का समय ऐतिहासिक दृष्टि से स्पष्ट है, जो ई० पूर्व २६९ है । चन्द्रगुप्त और अशोक के बीच ४३ वर्षों का शासन-काल श्राता है, जिसमें १८ वर्ष चन्द्रगुप्त ने राज्य किया तथा २५ वर्ष बिन्दुसार ने ऐसा माना जाता है। इस प्रकार चन्द्रगुप्त का काल ( राज्यारोहण वीर निर्वारण २१५ + राज्य काल १८ ) = वीर निर्वारण २३३ में समाप्त होता हैं । * दु:षमाकालश्रीश्रमणसंछस्तव में मौर्य - राज्य में आचार्य महागिरि का संधाधिपत्यकाल ३० वर्ष बताया गया है । तदनुसार आचार्य महागिरि वीर निर्वारण संवत् २१५ से वीर निर्वारण संवत् २४५ तक संघाधिपति के पद पर रहते हैं । चन्द्रगुप्त मोर्य का शासन - काल इसी में आ जाता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य महागिरि के समसामयिक थे, न कि आचार्य भद्रबाहु के 1 दो दृष्टिको पिछसे पृष्ठों में दिगम्बर श्वेताम्बर के रूप में जैन श्रमण संघ के विभक्त होने के सन्दर्भ में दोनों परम्पराओं के विचार, कथानक आदि उपस्थित किये गये हैं । जैसा कि बताया गया है, दोनों ओर के वर्णन श्राग्रह तथा अभिनिवेश से मुक्त नहीं है । अब हम इस सन्दर्भ में प्राप्त वाङ् मय के आधार पर समीक्षा की दृष्टि से कुछ श्रोर विचार करेंगे । 1. Hemchandra must have ommitted by oversight to Count the Period of sixty years of Kinga Palaka after mahavira. --Epitome of Jainism Appendix A, Page IV 2010_05 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५४ ___ दोनों माम्नायों के दृष्टिकोण में एक सबसे बड़ा भेद है । दिगम्बरों का एकान्त-रूप से यह कथन है कि मुनि-धर्म में निर्वस्त्रता सर्वथा अनिवार्य है। कोई एक धागा मात्र भी रख ले तो वह किसी भी स्थिति में मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता; क्योंकि परिमाण में कितना ही क्यों न हो, वह परिग्रह है । इसके विपरीत श्वेताम्बर जिन-कल्प एवं स्थविर-कल्प के रूप में निर्वस्त्रता तथा सवस्त्रता- दोनों को स्वीकार करते हैं । अनासक्त भाव से विहित वस्त्र धारण किये रहने से मुनित्व व्याहत नहीं होता। उनके साहित्य में भी इस प्राशय के उल्लेख हैं, जिनके अनुसार विहित वस्त्र परिग्रह में नहीं आते । श्वेताम्बरों का यह पहलू काफी महत्वपूर्ण है । इस पर सूक्ष्म दृष्टि से परिशीलन तथा विमर्षण अपेक्षित है। श्वेताम्बर-पागम-वाङमय में इस सम्बन्ध में जो उल्लेख है, अंशतः उसे प्रस्तुत करते हुए यहां उस पर ऊहापोह किया जा रहा है। Arrrr : अवेलकता : निaar आचारांग में बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है : "जो भिक्षु अचेलक होता है, उसे यह नहीं सोचना होता कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, मैं वस्त्र की, धागे की, सूई की याचना करू', वस्त्र यों सांधू-जोडू, सिलाई करू, उसे बड़ा करू', छोटा करू, उसे पहनू, प्रोस् । निर्वस्त्र भिक्षु के तृण, घास प्रादि तीक्ष्ण वस्तुओं के स्पर्श (माघात), शीतस्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस, मच्छर आदि कीटाणुओं द्वारा खुली देह पर दंश-इत्यादि और भी विविध प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल परिषह होते हैं, जिन्हें वह लाघवपूर्वक-परवाह न करते हुए उपेक्षा भाव से सहन करता है तथा अपने तपस्वी जीवन को बढ़ाये चलता है।" सूत्रकार के कथन के यहां दो दृष्टिकोण प्रतीत होते हैं । पहला यह है कि जब कोई वस्तु रखी जाती है, तो उसके सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक प्रकार के संकल्पविकल्प उठते रहते हैं। यदि वह वस्तु ही नहीं है तो तत्सम्बद्ध संकल्प-विकल्प उठने का १. जे अचेले परिवुसए, तस्स णं भिक्खुस्स गो एवं भवइ-परिजिष्णे मे वत्थे, वत्थे . जाइस्सामि, सुत्त जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, - चोक्कसिस्ससामि, परिहरिस्सामि, पाउणिस्सामि । अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेल - तणफासा फुसति, सीयफासा फुसति, तेउफासा फुसति, वंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयर विश्वरुवे फासे अहियासेति, अचेले लाघवं आगममाणे, तवेसे अभिसमण्णागए भवति । -आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ० ६, उद्दे० ३, २-३ 2010_05 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड् आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ૪૨ | प्रश्न ही नहीं रहता । फलतः जो मुनि नग्न रहते हैं, उनके मन में वस्त्र के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं उठेगी अर्थात् अचेलकता — निर्वस्त्रता की मुख्य उपयोगिता यह है कि उससे वस्त्र-संपृक्त आवश्यकताओं तथा तदुद्भुत चेष्टाओं का अवकाश ही नहीं रहता, जबकि सवस्त्र मुनि को, वस्त्रों में आसक्त न होते हुए भी आवश्यकता की दृष्टि से, जैसा कि सूत्रकार ने इंगित किया है, वैसा सोचना तो होता ही है । खण्ड : २ सूत्रकार का दूसरा आशय यह है कि परिषह विजय और दैहिक- कष्ट सहन की दृष्टि से निर्वस्त्र मुनि से अधिक श्राशा की जाती है। खुली देह पर सहसा श्रा पड़ने वाले कष्टों को समभाव से, सहजता से सहते जाने के लिए उसे सदा सन्नद्ध रहना होता है, जो बड़े साहस एवं आत्म-दृढ़ता से साध्य है । यों परिषह तथा प्रतिकूल स्थिति में अपने मन को जरा भी भारी बनाये बिना हल्केपन से जो उन्हें सहता जाता है, उसका तपस्वी जीवन उद्दीप्त होता जाता है । लज्जा-निवृत्ति हेतु कटिबन्ध का स्वीकार अचेलक भिक्षु के जीवन के एक प्रसंग को उद्दिष्ट कर आचारांग में वर्णन है : "जो भिक्षु निर्वस्त्र रहता है, वह सोचे, मैं तृण-स्पर्श, शीत-स्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस, मच्छर श्रादि के दंश तथा और भी वैसे अनेक प्रकार के जो परिषह या कष्ट हैं, उन्हें तो खुशीखुशी सह सकता हूं, पर लज्जा का परिहार नहीं सह सकता - लज्जा को मैं नहीं जीत पाया तो उस भिक्षु को कटिबन्ध - चोलपट्टा धारण कर लेना चाहिए । फिर यदि वह लज्जा - विजय में समक्ष हो जाये तो उसे चाहिये कि वह उस वस्त्र को छोड़ दे तथा तृरणस्पर्श, शीत- स्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस व मच्छर प्रादि दंश जैसे परिषहों को सहज भाव से सहता जाये । अपने तप को प्रशस्त करता जाये ।"1 2010_05 संचाएमि अहियासत्तए, १. जे भिक्खु अचेले परिवसिते, तस्स णं एवं भवति-चाएमि अहं तणफार्स अहियासित्तए, सोफा अहियासितए, तेउफासं अहियासित्तए, समसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अन्नतरे विरुवरुवे फासे अहियासित्तए, हिरिपंडिच्छावणं च णो एवं से कप्पति कडिबंधणं धारितए अदुवा तत्थ परक्कमंतं फुसंति, सियफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, वंसमसगफासा farara फासे अहियासेति, अचेले लाघविषं आगममाणे, तबे से अभिसमन्नागए भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति एगयरे अण्णयरे भवति । - आचारांग सूत्र, प्रथम श्र तस्कन्ध, अध्ययन व उद्देशक ७.१ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [५४३ अभिप्रेत भयावह तथा दारुण कष्ट सह जाने वाला भी लज्जा को जीत पाने में अपने को असमर्थ पाता है, कितना आश्चर्य है। वस्तुतः लज्जा के साथ चाहे सुषुप्त ही सही, अहं का भाव जुड़ता है । मैं कैसा दीखूगा, मेरा व्यक्तित्व फबेगा या नहीं, मैं कहीं हीन तथा कुत्सित तो नहीं लगूगा, कुछ ऐसे मनोभाव होते हैं, जो दारुण व भीषण दैहिक कष्टों को हंसते-हंसते झेल लेने वाले को भी विचलित कर देते हैं। भिक्षु इस प्रकार के विचलन से ऊंचा उठ जाये, सूत्रकार ने इसे बांछित माना है और पुनः अचेलक होने की बात कही है । साथसाथ फिर यह स्मरण कराया है कि उसे तृण, शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि से उत्पन्न कष्टों को आत्म-बल के साथ सहते जाना है। दैहिक कष्ट तथा प्रातिकूल्य से आत्मा का- स्व का पार्थक्य मानते जाने की मनोभूमि साधक की बनती जाये, सूत्रकार का ऐसा अभिप्रेत है। . . एक शाटक : स्त्र का प्रसंग आचारांग में उल्लेख है : “जो भिक्षु एक पात्र के साथ एक ही वस्त्र धारण किये रहने की प्रतिज्ञा लिए हुए है, उसे यह चिन्ता नहीं होती कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करू । यदि अपेक्षित हो—वह एक वस्त्र भी उसके पास न रहे तो वह एषणीय–लेने योग्य निर्दोष वस्त्र की याचना करे । जिस प्रकार का निर्दोष वस्त्र मिल जाये, धारण करे । जब ग्रीष्मकाल प्रतिपन्न हो जाये-आ जाये तो उस परिजीर्ण वस्त्र को परठ दे अथवा एक शाटकवस्त्र युक्त रहे अथवा अचेलक-प्रवस्त्र रहे। इस प्रकार अपने तपस्वी जीवन को वद्धित करता जाये। दी वस्त्रों का प्रसंग .. श्रमण के दो वस्त्रों के सम्बन्ध में आचारांग में इस प्रकार वर्णन किया गया है : "जो भिक्षु एक पात्र तथा दो वस्त्र धारण किये रहने का नियम लिए हुए है, उसको यह चिन्ता नहीं होती कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करू। यदि उसके नियमानुरूप वस्त्र १. जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिते पायबितिएण, तस्स गो एवं भवइ-बितियं वयं जाइस्सामि । से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहियं वा वत्थं धारेज्जा, जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुभं वत्थं परिठवेज्जा, अदुवा एग साडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया । -आचारांग सूत्र, प्रथम श्रु तस्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ६.१ 2010_05 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ उसके पास न रहें तो वह एषणीय वस्त्रों की याचना करें। यह साधु-प्राचार है । जब वह जाने कि अब हेमन्त-काल व्यतीत हो गया है, ग्रीष्म-काल आ गया है, तब वह परिजीर्ण वस्त्र परिष्ठापित कर दे। कुछ–उनमें से जो ठीक हो, उसे रख ले । वस्त्र लम्बा हो तो उसे छोटा कर ले अथवा एक शाटक-एक वस्त्र युक्त रहे अथवा निर्वस्त्र रहे। यों सर्वथा लाघव-हल्केपन से सहज भाव से आचरण करता हुआ भिक्षु अपने तप की वृद्धि करता है।" तीन वस्त्रों का प्रसंग तीन वस्त्रों के सम्बन्ध में इस प्रकार चर्चा है : "जिस भिक्षु के एक पात्र एवं तीन वस्त्र रखने की प्रतिज्ञा है, उसके मन में ऐसी चिन्ता नहीं होती कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करू । यदि उसके अपने नियमानुसार परिमाण में वस्त्र न हों तो वह एषणीय वस्त्र की याचना करें। जैसे मिल जाये, पहन ले । किन्तु वह उन्हें धोए नहीं, रंगे नहीं, धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्र पहने नहीं । जब ग्रामानुगम विचरण करे, अपने वस्त्र छिपाये नहीं।' यह साधु का प्राचार है। यदि भिक्षु ऐसा जाने कि हेमन्त-काल व्यतिक्रान्त हो गया है, ग्रीष्म-काल प्रतिपन्न है तो वह अपने परिजीर्ण वस्त्र परठ दे। उनमें से कुछ—जो उपयोग में लेने योग्य हों रख ले । अथवा दो वस्त्र रख ले या एक वस्त्र रख ले या सर्वथा निर्वस्त्र रहे । ऐसा कर वह अपने तप को उद्दीप्त बनाता है।" १. जे भिक्खू वोहिं वत्थेहि परिवुसेति पाय तइएहि, तत्स गो एवं भवति-तितियं वत्थं जाइस्सामि । से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं । अह पुण एवं जाणेज्जा-उवक्ते खलु हेमंते, गिम्हे पडिपन्ने, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिवेज्जा, अदुवा संतत्त्तरे, अदुआ ओमचेलए, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवति । ---आचारांग सूत्र, प्रथम अ तस्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ५.१-२ २. यहां अत्यन्त साधारण, अल्प-मूल्य वस्त्र का आशय है, जिसे चोर, दस्यु आदि के भय से छिपाना न पड़े। ३. जे भिक्खू तिवयहि परिसिते पाय चतुत्थेहि तस्स णं णो एवं भवति-उत्थं वत्थं जाइस्सामि से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा। अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा, जो धोविज्जा, णो रएज्जा, णो धोतरत्ताई वत्थाई धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु, भोमचेलए । एवं खु वत्व धारिस्स सामग्गि। अह पुण एवं जायेज्जा-उबतिक्कते खलु ____ 2010_05 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] वस्त्रेष शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय आचारांग के द्वितीय ध तु-स्कन्ध के पंचम अध्ययन का नाम वस्त्रैषणा है । उसमें साधुओं और साध्वियों के लिए वस्त्र ग्रहण के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-निषेध हैं । श्रमण किस-किस प्रकार के वस्त्र ग्रहरण कर सकता है, इस विषय में इस अध्ययन के प्रारम्भ में चर्चा है : "जब भिक्षु या भिक्षुणी को वस्त्र की अभिकांक्षा - आवश्यकता हो, उन्हें एषणीय - निर्दोष वस्त्र की याचना करनी चाहिए। ऊन, पाट, सन, रेशम, प्राक की रूई आदि का वस्त्र भिक्षु के लिए ग्राह्य है । जो भिक्षु तरुण, निरूपद्रव, निरोग तथा स्थिर संहनन हो, उसे एक वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं । साध्वी को चार वस्त्र धारण करना चाहिए - एक दो हाथ विस्तार का, दो तीन-तीन हाथ विस्तार के तथा एक चार हाथ विस्तार का । यदि ऐसे वस्त्र अविद्यमान हों- ---प्राप्त न हो सकें तो एक के साथ दूसरे को सीं लेना चाहिए ।"1 उत्तराध्ययन में अचेलक : वेक १. उत्तराध्ययन सूत्र में अचेलक — प्रवस्त्र, सचेलक --- सवस्त्र का वर्णन करते हुए कहा है : "कभी जिन - कल्पावस्था में भिक्षु वस्त्र धारण नहीं करता तथा कभी स्थविर-कल्पावस्था में वह वस्त्र धारण करता है । इस प्रकार के — जिन कल्प स्थविर कल्प-रूप हितावह धर्म को जो जानता है, वह खेद - खिन्न नहीं होता ।"3 | rav हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अधापरिजुलाई वस्थाइं परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवीयं आगममाणे । तवे से अभिमनाए भवति । - आचारांग सूत्र, प्रथम अ त स्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ४.१-२ सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकलेज्जा वत्थं एसित्तए । से ज्जं पुण वत्थं जाज्जा संजहा— जंगियं वा, भंगियं वा, सायं वा, पोत्तयं वा, खोमियं वा, तूलकर्ड वा तहप्पगारं वत्थं । जे णिग्गंथे तरुणे, जुगवं बलबं, अप्पायं के, थिरसंघपणे से एवं वत्थं धारेज्जा, णो बितियं । जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा-एगं वुहत्थवित्थारं, दो तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्यवित्थारं, एएहिं वत्थेहि अविज्जमारोह अह पच्छा एगमेगं सेसीविज्ना । 2010_05 -आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुत-स्कन्ध, अध्ययन ५, उद्दे शक १.१ एगया अचेलए होइ, सचेले या वि एगया । एयं चम्महियं णन्या, गाणी णों परिदेवए ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २.१३ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ३ तात्पर्य आचारांग सूत्र में वस्त्र धारण करने, कितना कौनसा करने तथा न करने आदि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण विवेचन किया गया है, जो ऊपर निर्दिष्ट कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट है। उपर्युक्त वर्णन में वस्त्र के ग्रहण-अग्रहण के आधार पर मूल साधुत्व की दृष्टि से उच्चता-अनुच्चता का भाव दृष्टिगत नहीं होता। साधु के सर्व-सामान्य, सर्व-स्वीकृत, मूलगुणाधृत स्तर में इससे भेद नहीं पड़ता। पर, जैन धर्म तो तपःप्रधान धर्म है । उसके साधक का अधिकाधिक कर्म-निर्जरा की ओर सदैव ध्यान रहता है। क्योंकि उसका चरम ध्येय अन्ततः कृत्स्न कर्म-क्षय से ही सधने वाला है। अतः अचेलकता या निर्वस्त्रता का जिस भाव से वर्णन हुआ है, जहां उस ओर विशेष रूप से निर्देश किया गया है, वहां साधक को निर्जरा या तप की ओर अधिकाधिक उन्मुख करने का मुख्य अभिप्राय रहा है। दारुणातिदारुण परिषहों को सहज भाव से सह जाने वाले साधक की जो अपनी तपोमूलक तथा सहिष्णुता-संभृत विशेषता होती है, उसका तो महत्व है ही। भिक्षुओं के लिए वस्त्रों की संख्या, माप आदि की अधिकतम सीमा का अपना विधान है, पर एक वस्त्र, दो वस्त्र, तीन वस्त्र आदि रखे जाने के जो ऊपर उल्लेख हुए हैं, वे इस बात के द्योतक हैं कि अधिक की स्वीकृति के बावजूद साधक भिक्षु अपनी वैराग्यमय, तितिक्षु-वृत्ति के कारण परिधेय वस्त्रों की संख्या और भी कम करते जाते थे। कोई तीन से काम चलाता था, कोई दो से काम चलाता था और कोई मात्र एक ही से। सूत्रकार ने तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र आदि के वर्णन के सन्दर्भ में श्रमण को वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का जो संकेत किया है, वहां भी उनका भाव क्रमशः विकासोन्मुख निर्जरा के मार्ग पर साधक को अग्रसर करने का है। अंगुत्तर-निकाय में एक शाटक-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थों की चर्चा आई है। महावीर और बुद्ध की समसामयिकता के कारण दोनों के वाङमय में एक-दूसरे के सम्बन्ध में किये गये उल्लेख गवेषणा की रष्टि से काफी महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। अंगुत्तर-निकाय में आये इस उल्लेख से ध्वनित होता है कि महावीर के श्रमणों में उस समय कम-से-कम वस्त्र से काम चलाने की वृत्ति अधिक उभर रही थी। १. अंगुत्तर-निकाय, जिल्व ३, पृ० ३५३ 2010_05 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय বাহ-বহা : সাবীহ-শবা जैन श्रमण के निर्वस्त्रता एवं सवस्त्रतामूलक आचार-पक्ष पर विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है, करते आ रहे हैं । कतिपय विद्वानों का ऐसा अभिमत है कि निर्वस्त्र श्रमणाचार का प्रवर्तन वस्तुतः भगवान् महावीर से हुआ। उनसे पूर्व भगवान् पार्श्व की परम्परा सवस्त्र थी। उनके अनुसार महावीर के श्रमणों के लिए प्रयुक्त निर्ग्रन्थ शब्द निर्वस्त्रता या वस्त्रात्मक परिग्रह से निर्गतता का सूचक है । কী জীব পীনস জা পিনন पार्श्व-परम्परा तथा महावीर-परम्परा के विवादास्पद विषयों के समाधान पर प्रकाश डालने वाला उत्तराध्ययन सूत्र में परिणत एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। उसके उस अंश की, जो प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध है, यहां चर्चा कर रहे हैं। प्रसंग इस प्रकार है : “जगत्पूज्य, सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक पार्श्व नामक तीर्थंकर हुए।" "जगत् में धर्म का उद्योत करने वाले भगवान् पाश्वं के महायशस्वी केशी नामक शिष्य थे, जो ज्ञान एवं चारित्र के पारगामी थे। वे अवधिज्ञानी तथा श्रुत-ज्ञानी थे। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे एक बार अपने शिष्य-समुदाय सहित श्रावस्ती नगरी में माये । उस नगर के उपकण्ठ में तिन्दुक नामक उद्यान था। वहां श्रमण केशी प्रासुकजीव-जन्तु रहित-निर्दोष स्थान में टिके व प्रवास करने लगे।" १. जिणे पासित्ति नामेणं, अरहा लोग इओ। संबुद्धप्पा य सम्वन्नू, धम्मतित्थयरे जिणे ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, २३.१ २. तस्स लोगपदीवस्स, आसी सीसे महायसे । केसीकुमार समणे, विजाचरणपारगे ॥ मोहिनाणसुए बुद्ध, सीससंघसमाउले । गामाणगामं रीयंते, सावस्थि नगरिमागए ॥ तिन्दुयं नाम उजाणं, तम्मी नगरमण्डले । फासुए सिज्जसंधारे, तत्थ वासुमुवागए ॥ -बही, २३.२-४ ____ 2010_05 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વી आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : २ “उस समय समस्त लोक में विश्रुत, धर्म- तीर्थ के प्रतिष्ठापक, राग-द्वेष-जयी भगवान् वर्धमान ( महावीर ) तीर्थंकर थे । लोक में धर्म का प्रकाश करने वाले भगवान् महावीर के शिष्य भगवान् गौतम थे, जो अत्यन्त कीर्तिशाली तथा ज्ञान व चारित्य में परम उज्ज्वल थे । वे द्वादश अंगों के वेत्ता थे, प्रबुद्ध थे । अपने शिष्यों सहित ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आये । " 1 "उस नगर के समीप कोष्ठक नामक उद्यान था, जिसमें प्रासुक स्थान देखकर वे हिं । परम यशस्वी श्रमण केशीकुमार तथा गौतम — दोनों, जो विजितेन्द्रिय एवं श्रात्म-समाधि युक्त थे, शान्त थे, उस नगरी में विचरण करने लगे। दोनों के शिष्य-वृन्द, जो संयत, तपस्वी तथा गुणी थे, में विचिकित्सा उत्पन्न हुई । " " (वे ऊहापोह करने लगे ।) "हमारा धर्म कैसा है ? इनका धर्म कैसा है ? हमारा आचार, क्रिया-कलाप तथा मर्यादा किस प्रकार की है, इनकी किस प्रकार की है ? भगवान् पार्श्व ने जिस धर्म की देशना दी, वह चातुर्याममूलक है तथा भगवान् महावीर ने जो धर्मं उपदिष्ट किया, वह पंच शिक्षात्मक (पंच महाव्रतमूलक) है । "8 १. अह तेरणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिले । भगवं वद्धमाणित्ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥ तस्स लोगपतीवस्स, आसि सीसे महायसे । भगवं गोयमे नामं, विज्जाचरणपारगे ॥ सीससंघसमाउले | गामायुगामं रीयंते, सेवि सावत्थिमागए ॥ मारसंगविबुद्ध, २. कोट्ठगं नाम उज्जाणं, तम्मी नयरमण्डले । फासुए सिज्जसंथारे, तत्थ वासमुवागए || केसीकुमारसमरणे, गोयमे य महायसे । उमओ वि तत्थ विहरसु, अल्लीणा सुसमाहिया ॥ उमओ सीससंघाणं, संजयाणं तवस्तिणं । तत्थ चिन्ता समुप्पन्ना, गुणवन्ताण ताइणं ॥ ३. केरिसो वा इमो धम्मो, इमो धम्मो थ केरियो । भायारधम्मपणिही, इमा वा सा व केरिसी ॥ 2010_05 -उत्तराध्ययन सूत्र, २३.५-७ वही, २७.८-१० Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ५४९ "एक (महावीर) की परम्परा में निर्वस्त्रता स्वीकृत है तथा दूसरे के यहां सवस्त्रता । दोनों ओर के भ्रमरण एक ही कार्य या उद्देश्य को साधने में संप्रवृत्त हैं, फिर यह भेद क्यों ? श्रमण केशी और गौतम ने जब अपने शिष्यों के इन तर्क-वितर्कों को जाना तो दोनों ने परस्पर मिलने का निश्चय किया । 21 "गौतम विनय परम्परा के विज्ञ थे । श्रमरण केशी ज्येष्ठ ( तेबीसवें तीर्थंकर भगवान् शिष्य - समुदाय सहित देखा तो उनके गौरव पर्व की परम्परा के) कुल के हैं, यह देखते हुए गौतम अपने तिन्दुक उद्यान में श्रायै । श्रमण केशीकुमार ने जब गौतम को आते के अनुरूप बहुमान एवं भक्तिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया । उस उद्यान में जो प्रासुक पलाल, तृण, कुश आदि थे, आये गौतम के बैठने के लिए अविलम्ब प्रास्तृत कर दिये ।"* "महा यशस्वी श्रमण केशीकुमार तथा गौतम - दोनों बैठे हुए इस प्रकार शोभित थे, मानो चन्द्र और सूर्य हों । अनेक अन्य मतावलम्बी, अनेक कौतुक - दर्शनार्थी - तमाशबीन, अनेक अज्ञानी तथा हजारों नागरिक एकत्र हो गए। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं चाउज्जामोय जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ बद्धमारोण, पासेण य महामुनी ॥ १. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ॥ अह ते तत्थ सीसाणं, विन्नाय पवितक्कियं । समागमे कयमई, उभओ केसिगोयमा ॥ २. गोयमे पडिवन्न, सीससंघसमाजले । जे कुलमवेक्खतो, तिदुयं वणमागओ ॥ 4 केसीकुमार समणे, गोयम दिमागयं । पडिरूवं पडिवत्ति, सम्भं संपडिवज्जई ॥ पलाल फासूयं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य । गोमस्त निसिज्जाए, खिष्पं संपणामए ॥ 2010_05 - उत्तराध्ययन सूत्र, २३.११-१२ —वही, २३, १३-१४ -वही, २३.१५-१७ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन अवश्य भूत-प्रेत भी वहां उपस्थित हो गये ।। "केशी ने गौतम से कहा- महाभाग ! मैं आप से प्रश्न पूछू ? केशी के यों पूछने पर गौतम ने उनसे कहा-भन्ते ! आप जैसा चाहें, पूछे । केशी यों गौतम से अनुज्ञात होकर पूछने लगे ................................. एक मुनि धर्म अचेलक है, जहां निर्वस्त्रता स्वीकृत है, जो महावीर द्वारा उपदिष्ट है और दूसरा सचेलक है, जहां सवस्त्रता का स्वीकार है, जिसे पार्श्व ने उपदिष्ट किया ऐसा क्यों ?" "दोनों परम्परामों के साधक एक ही लक्ष्य साधने में जुटे हैं, फिर यह भिन्नता क्यों ? प्रबुद्ध गौतम ! यों दो प्रकार के वेष देख आपको संशय उत्पन्न क्यों नहीं होता ? केशी के यों कहने पर गौतम ने कहा- अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा जानकर ही अर्हत ने धर्म के साधक के उपकरणों को अभीप्सित बताया है।" १. केसीकुमार समणे, गोयमे य महायसे । उभओ निरुण्णा सोहंति, चंद सूर समप्पमा ॥ रामागया बहूतत्थ, पासंडा कोउगा मिया । गिहत्याणं अणेगाओ, साहस्सीओ समागया । देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा । अविस्साणं च भूयाणं, आसी तत्थ समागमो॥ --उत्तराध्ययन सूत्र, २३.१८-२० २. पुच्छामि ते महाभाग, केसी गोयममब्बवी । तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥ पुच्छ भन्ते ! जहिच्छं ते, केसि गोयममब्बवी। तओ केसी अणुनाए, गोयम इणमब्बवी ॥ -वही, २३.२१-२२ ३. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ बद्धमारणेण, पासेण य महाजसा । -वही, २३.२९ ४. एकज्जपवन्नाण विसेसे कि नु कारण । लिंगे दुविहे मेहावी ! कह विपच्चओ न ते ॥ केसि एवं बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी । विन्नारोण समागम्म, धम्भसाहमिच्छिय ॥ -वही, २३.३०-३१ ___ 2010_05 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृतं और उसका वामय [५५१ "लोगों के प्रत्यय-पहचान के लिए, संयम-यात्रा-संयत जीवन के निर्वाह के हेतु, ज्ञान आदि के ग्रहण के लिए लोक में वेष का प्रयोजन है। वास्तव में भगवान पार्श्व तथा भगवान् महावीर- दोनों तीर्थंकरों का उद्बोधन यही है कि ज्ञान, दर्शन तथा चारिन ही मोक्ष के यथार्थ साधन हैं । (श्रमण केशीकुमार द्वारा कृतज्ञता-ज्ञापन) गौतम ! आप धन्य हैं । मेरा संशय निमूल हो गया । मन और............. ... |" विमर्श : समीक्षा उत्तराध्ययन के इस प्रकरण से कई तथ्य प्रकाश में आते हैं। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय में पाव-परम्परा विद्यमान थी। पाश्व-परम्परा के श्रमण महावीर के श्रमण-समुदाय से भिन्न समुदाय के रूप में विचरण करते थे। श्रमण केशीकुमार का ससंघ श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में तथा गौतम का श्रावस्ती के कोष्ठक उद्यान में टिकना इसका द्योतक है। - दोनों परम्पराओं के श्रमणों में धर्म के मौलिक सिद्धान्तों की दृष्टि से कोई व्यक्त मतभेद जैसी स्थिति नहीं थी, पर दोनों अपने को वेष, व्रत-विधान आदि को लेकर पृथक मानते थे। इस पार्थक्य का लोक-मानस पर कम प्रभाव नहीं था। जब श्रमण केशी तथा गौतम की शास्त्र-चर्चा का प्रसंग उपस्थित होता है तो सहस्रों मनुष्य सुनने, देखने के लिए उपस्थित हो जाते हैं । जहां श्रद्धावान् लोगों को जिज्ञासा थी, वहां औरों को कुतूहल तथा उत्सुकता थी कि देखें क्या होता है । यह सब था, फिर भी दोनों परम्पराओं के श्रमणों में परस्पर सद्भावना एवं सहृदयता थी। पूर्ववर्ती तीर्थकर की परम्परा से सम्बद्ध होने के नाते श्रमण केशीकुमार के प्रति गौतम का बहुमान एवं आदर-भाव था; अतः वे स्वयं चलाकर तिन्दुक उद्यान में उनके स्थान पर १. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविह-विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ॥ अह भवे पइन्ना उ, मोक्खसब्भूयसाहणा। नाणं च सणं चेव, चरित्त चेव निच्छए । साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा! -वही, २३.३२-३४ ___ 2010_05 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२] आगम और विपिढक : एक अनुशीलन जाते हैं । श्रमण केशी भी उनका अभ्युत्थान, आसन-उपस्थापन मादि द्वारा स्वागत-सत्कार करते हैं। सूत्रकार द्वारा केशी एक जिज्ञासु प्राश्निक के रूप में चित्रित किये गये हैं और गौतम उत्तरदाता या समाधायक के रूप में । सम्भवतः इसका यह कारण हो सकता है कि गौतम इस काल के अन्तिम तीर्थकर की परम्परा से सम्बद्ध थे; अतः धर्म के अन्ततः स्वीकृत रूप के के साक्षात् वेत्ता थे। पार्श्व की परम्परा के साधुओं का सचैलकता को और अधिक झुकाव प्रतीत होता है, जब कि महावीर की परम्परा के साधुओं का अचेलकता की अोर । प्रस्तुत प्रसंग में सचैलक धर्म पावं द्वारा देशित तथा अचेलक धर्म महावीर द्वारा देशित कहा गया है, जो गहराई से विचारने योग्य है। जब जैन श्रमण संघ में सचेलकता-सवस्त्रता तथा अचेलकता-निर्वस्त्रता के रूप में दोनों प्रकार की परम्पराएं थीं, तब अचेलक धर्म के देशनाकार केवल महावीर ही क्यों कहे गये तथा सचेलक धर्म की देशना से केवल पार्श्व को ही क्यों सम्बद्ध किया गया ? भगवान् महावीर कुल-परम्परा से पापित्यिक थे। उनके माता-पिता पाश्वं परम्परा को मानते थे; अतः उनकी परम्परा पार्श्व की परम्परा से सर्वथा भिन्न हो, यह कैसे सम्भव हो सकता है। जैन परम्परा की ऐसी मान्यता है कि सभी तीर्थकर मूलतः एक ही तत्व-ज्ञान का उपदेश करते हैं, पर लोगों की जड़ता, प्रज्ञता, वक्रता,ऋजुता आदि में भेद से तत्वोपदेश की पद्धति, व्रत-विभाजन आदि में भेद प्रतीत होता है, जो आन्तरिक भेद नहीं है, केवल बाह्य कलेवर की भिन्नता है । सचेलक, अचेलक सम्बन्धी प्रश्न का समाधान भी गौतम ने इसी भावना से किया है । उसे उन्होंने लोगों की पहचान में उपयोगी, जीवन-यात्रा के निर्वाह में सहयोगी आदि कहकर समाहित करने का प्रयत्न किया है और अन्ततः यह कहकर इस प्रश्न को समाप्त कर दिया है कि वास्तव में साधुत्व ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र पर टिका है । उत्तराध्ययनकार ने गणधर गौतम के मुख से उक्त प्रश्न का समाधान तो कराया है, पर यह पूरा समझ में नहीं आता । प्रश्न कुछ असमाहित-सा प्रतीत होता है । यदि जैन आम्नाय में पहले से ही जिन-कल्प एवं स्थविर-कल्प के रूप में निर्वस्त्रसवस्त्र मुनि-परम्परा चली आ रही थी तो पार्श्व की परम्परा के मुनियों को, जो सवस्त्र थे, महावीर के निर्वस्त्र मुनियों को देख विचिकित्सा क्यों होती ? वही बात महावीर के मुनियों के लिए है । उन्हें पार्श्व के सवस्त्र मुनियों को देख अन्यथा भाव क्यों होता है ? ___ 2010_05 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ५५३ यदि महावीर की परम्परा में जिन - कल्पी और स्थविर-कल्पी दोनों ही प्रकार के साधु होते तो उन्हें स्वयं समाधान हो जाता । एक सम्भावना और की जा सकती है, भगवान् महावीर परम प्रभावक थे । उनसे उस समय का धार्मिक जगत् बहुत प्रभावित था । पार्श्व - परम्परा के श्रमरण महावीर के संघ में सम्मिलित होने को आकृष्ट हुए हों । यों महावीर के अनुयायी श्रमणों तथा पाश्र्वंपरम्परा के भ्रमणों के समन्वय और सम्मिलन का प्रश्न उपस्थित हुआ हो । कुछ पावपि - त्यिक श्रमरण अचेलकता स्वीकार करने को तैयार हो गये हों। उनमें से कुछ तब भी वैसा वाहते रहे हों कि वे सवस्त्र रहें; क्योंकि शायद वे अपने में उतनी दृढ़ता न संजोये हुए हों कि वे निर्वस्त्र रह सकें । अतः एक कठिनाई उपस्थित हुई. जिसके समाधान में जिनकप तथा स्थविर - कल्प के रूप में श्रमणाचार की प्रतिष्ठा की गई। तदनुसार पार्श्व- परम्परा के अधिकांश श्रमरण महावीर के संघ में मिल गये। जिन - कल्प या स्थविर - कल्प - जिनको जैसा रुचा, स्वीकार करते गये । अतएव श्वेताम्बर - आगम-वाङ् मय द्वारा दोनों कल्प समर्थित हैं । इस सम्भावना का स्वीकार जैन परम्परा के तत्व स्रोत की मौलिक एकता के विश्वास पर आघात करता है । दिगम्बर तो महावीरकालीन द्वादशांगी का सर्वथा विच्छेद मानते ही हैं, श्वेताम्बरों के अनुसार भी महावीर के पूर्व के साहित्य की कोई परम्परा श्राज प्राप्त नहीं है; अतः महावीर से पूर्व जैन संघ की क्या स्थिति थी, यह देखने के लिए केवल अनुमान एवं सम्भावनाएं ही रह जाती हैं । कहीं ऐसा तो नहीं हुआ हो, महावीर ने तितिक्षा, वैराग्य और तपश्चर्या को अधिकाधिक बल प्रदान करने के लिए जिन कल्प पर ही विशेष बल दिया हो । तदनुसार सम्भवतः वेशी और गौतम के संवाद के प्रसंग तथा महावीर के यहां दीक्षित साधु लगभग सब के सब जिन - कल्पी रहे हों । अतएव उस समय पार्श्वपत्यिकों और महावीर के श्रमणों के सम्पर्क का प्रसंग श्रावस्ती में बना, तब महावीर के श्रमणों के मन में स्थविर - कल्प का ध्यान हीन रहा हो । वैसी ही बात पार्श्वपत्यिकों के लिए जिन - कल्प के सम्बन्ध में हैं । वे सवस्त्र थे । उनके यहां कोई निर्वस्त्र था ही नहीं; अतः साधुत्रों के जिन - कल्पाचार या नाग्न्य जैसी कल्पना उनकी भी कैसे रहती । इसका तात्पर्यं यों समझा जा सकता है- महावीर से पूर्व अर्थात् पार्श्व के समय जिन - कल्प लुप्त प्रायः था महावीर ने अत्यधिक तपोमूलक, दारुरण - परिषह- सहिष्णुतामय श्रमण जीवन को विशेष बल एवं विकास देने के लिए जिन - कल्प पर विशेष जोर दिया । पर, आगे चलकर समन्वय की दृष्टि से ऐसा आवश्यक प्रतीत हुआ कि केवल एक ही 2010_05 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५vj मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [पण्ड । २ कल्प पर जोर न दिया जाये, दोनों को प्रस्तुत किया जाये । जिस साधक को जैसा उत्साह हो स्वीकार करे । तत्पश्चात् महावीर के श्रमण-संघ में दोनों कल्पों का विकास हुआ हो। পথ খু নগ্ধ বানী বংশহণ यह सही है कि निर्वस्त्र-श्रमण-जीवन अपेक्षाकृत अधिक कष्टपूर्ण है। दैहिक कष्टों, प्रतिकूलतामों और उत्तापों को समभाव के सहना निःसन्देह बड़े साहस का काम है। पर, एक बात उसके साथ है, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। समाज को कुछ लौकिक मर्यादाएं एवं व्यवस्थाएं होती हैं । उनके अनुसार एक नग्न श्रमण को धर्म-प्रसार के पुनीत उद्देश्य से भी समाज के सब अंगों के साथ घुलने-मिलने, सम्पर्क साधने प्रादि में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां होती हैं। अपने अनुयायिओं की दृष्टि से तो यह बात नहीं हैं; क्योंकि वे उनके प्रति असीम श्रद्धा लिए रहते हैं । अतः उनकी दृष्टि में उनका नाग्न्य नहीं, त्याग रहता है। पर, जहां अनुयायी नहीं हैं, वहां कठिनाइयां अवश्य उत्पन्न होती हैं। इसे संक्षेप में यों समझा जा सकता है कि जिन कल्पारूढ़ या निर्वस्त्र-श्रमण का कार्य-क्षेत्र अधिकांशतः प्रात्म-साधना होता है । जिनकल्पी साधक का जीवन-चर्या से सम्बद्ध विधिविधानों से भी यह तथ्य सिद्ध होता है। जन-समुदाय में धर्मोद्योत तथा अध्यात्म-जागरण का कार्य करने की सवस्त्र श्रमण को अधिक सुविधा एवं अनुकूलता रहती है । क्योंकि समाज के साथ घुलने-मिलने में उन्हें कठिनाई नहीं होती; प्रतः स्यात् व्यवहार ऐसा हो, अनवरत अध्यात्म-साधना, ध्यान आदि में रुचि रखने वाले श्रमण यदि चाहते तो जिनकल्प अपनाते । समाज से उनका विशेष सम्पर्क नहीं रहता। वे ज्ञानोपासना एवं तपश्चर्या प्रादि में लीन रहते । जन-समुदाय में धर्म-जागृति उत्पन्न करने का दायित्व उन श्रमणों पर प्राता, जो सवस्त्र थे। वे श्रमण-जीवन के मौलिक एवं अनिवार्य नियमों का पालन करते, ज्ञानाराधना तथा ध्यान आदि में भी यथासम्भव समय देते और साथ-ही-साथ वे लोगों में धर्म के आदर्शों का प्रसार करते, धर्म-प्रभावना करते। यह भी बड़ा आवश्यक कार्य था। यों एक संघ के दो वर्गों पर दो प्रकार के दायित्व थे, जिनका के निष्ठा एवं तन्मयतापूर्वक भलीभांति निर्वाह करते जाते । एक वर्ग जहां आत्म-परिष्कार की दृष्टि से असाधारण था, दूसरा आत्म-साधना के साथ-साथ जन-जन में धर्म की ज्योति जगाने की दृष्टि से अपनी विशेषता लिए हुए था। अतएव कौन अधिक कष्ट सहता है, कौन सुविधाएं भोगता है-इत्यादि बातें गौण थीं । समाज में दोनों का प्रतिष्ठापन्न स्थान था। भगवान 2010_05 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [५५५ महावीर से प्रार्य जम्बू तक यह क्रम सुन्दर रूप में चलता रहा, पर, जम्बू के पश्चात् उसमें अन्तर आया। अन्तर : एक सम्भावना जब तक जीवन में पूर्णता नहीं आती, तब तक विकास या ऊध्र्वगमन की सम्भावनामों के साथ-साथ ह्रास या अधोगमन की कुछ दुराशंकाएं भी बनी रहती हैं, क्योंकि जब तक साधक एषणा-विजय नहीं कर पाता, तब तक जब कभी उसमें अहं का उभार होने की स्थिति रहती ही हैं। . ऐसा संभाव्य प्रतीत होता है, आर्य जम्बू के अनन्तर संघ के श्रमणों में कुछ खींचातान हुई हो। उस वर्ग के, जो निर्वस्त्र था, जिसका जीवन उग्र तपोमूलक था, जो दुःसह परिषह सहता था, मन में कुछ ऐसा आया हो कि समाज में निर्वस्त्र और श्रमणों का दर्जा समान क्यों ? इस (निर्वस्त्र-श्रमण-वर्ग) का स्थान अपेक्षाकृत उच्च क्यों नहीं माना जाये, जो असाधारण दैहिक कष्ट तथा लज्जा जैसे परिषह का विजेता है। क्रिया अपने अनुरूप प्रतिक्रिया लाती है। विरोध तथा अवहेलना मूलक क्रिया की प्रतिक्रिया तीव्र विरोध एवं तिरस्क्रिया में होती है। जिनकल्पियों की इस विचारण की प्रतिक्रिया स्थविरकल्पियों पर वैसी ही हुई होगी। उन्होंने सोचा होगा, ये नग्न मुनि यदि अपने उग्र तपोमय जीवन का दम्भ करते हैं, तो जन-जन में धर्म-प्रभावना एवं धर्मोद्योत की दृष्टि से उनके द्वारा किया जाने वाला कार्य, जो पार्हत्-संस्कृति के विकास तथा प्रसार का महान कार्य है, क्या कम महत्व रखता है ? ये क्या जानें, उसके लिए हमें कितना श्रम व प्रयास करना होता है। यदि ये नग्न मुनि दारुण प्रतिकूल परिषह सहते हैं, हम प्रतिकूल और अनुकूल-दोनों प्रकार के परिषह सहन करते हैं। समृद्ध तथा भोगमय जीवन के समीप रहते हुए भी उसमें सर्वथा निर्लिप्त ही नहीं, प्रत्युत् उसमें विरक्ति एवं त्याग का संचार करना किसी से कम महत्व का कार्य नहीं है। सम्भवतः दोनों ओर इस कोटि का ऊहापोह चला होगा, जिसका परिणाम आगे चलकर उस गहरी खाई के रूप में पाया, जिसने जैन संघ को निर्वस्त्र और सवस्त्रदिगम्बर एवं श्वेताम्बर के रूप में बांट दिया। आर्य जम्बू के बाद भेद का उभार दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों की प्रार्य जम्बू तक की परम्परा लगभग सदृश है। __ 2010_05 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] मागम मौर बिपिटक । एक मनुशीलन नगण्य जैसा भेद है । दिगम्बर भगवान् महावीर के पश्चात् गौतम, लीहार्य एवं जम्बूये तीन पीढ़ियां मानते हैं। जब कि श्वेताम्बर भगवान् महावीर के पश्चात् सुधर्मा तथा जम्बू-ये दो पीढ़ियां स्वीकार करते हैं । गौतम के पट्टाधिकार के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में पहले विस्तार से प्रकार डाला जा चुका है । अतः उसे यहां पुनरावृत्त करने की आश्वयकता नहीं है । पट्टाधिकारी के रूप में नाम का स्वीकार न करते हुए भी श्वेताम्बर आम्नाय में भी गौतम को वही गरिम्स और महिमा है, जो दिगम्बर आम्नाय में है। दिगम्बर-परम्परा में गौतम के बाद उनके उत्तराधिकारी का नाम कहीं सुधर्मा लिखा है और कहीं लोहार्य । उदाहरणार्थ-तिलोयपण्णत्ति, नन्दी-अाम्नाय की प्राकृत पट्टावली हरिवंश पुराण, श्रु तावतार, श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) के शिलालेख संख्या १०५ में 'सुधर्मा' नाम का प्रयोग हुअा है । धवलाकार ने षट्खंडागम के प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा-खण्ड में तथा प्रागे वेदना खण्ड में गौतम के बाद उनके उत्तराधिकारी के रूप में लोहार्य का उल्लेख किया है । उसी तरह श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) के शिलालेख संख्या १ तथा २ में गौतम के पश्चात् लोहार्य लिखा है। धवलाकार द्वारा रचित जयधवला में लोहार्य न पाकर सुधर्मा माया है। वस्तुतः ये सुधर्मा और लोहार्य-दो व्यक्ति नहीं हैं। लोहार्य सुधर्मा का ही नामान्तर है । श्वेताम्बर-परम्परा में केवल एक नाम सुधर्मा की ही प्रसिद्धि है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में दोनों नामों की । जंबूदीप -पण्णत्ति (दिगम्बर-परम्परा की) में इस सम्बन्ध में जो उल्लेख है उससे एक ही व्यक्ति के लिए इन दो नामों की प्रसिद्धि सिद्ध होती है। __ सुधर्मा या लोहार्य के पट्टाधिकारी जम्बू होते हैं, जो दोनों परम्पराओं द्वारा स्वीकृत हैं । यो आर्य जम्बू सक दोनों परम्पराएं यथावत् रूप में चलती हैं। निर्वस्त्रता तथा सवस्त्रता मूलक आचार-क्रम को लेकर समन्वय का भाव बना रहता है, पर आगे वह स्थिति बदल जाती है, जिसका प्रमाण जम्बू के बाद दोनों परम्पराओं की पट्टावलियों की भिन्नता है। १. तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर-सुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिष्ट्ठ॥१०॥ 2010_05 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ra जम्बू से अन्तिम श्रुत- केवली भद्रबाहु तक दिगम्बर- पट्टावली के अनुसार नन्दी (विष्णु) नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु ये पांच श्रुत- केवलो होते हैं । श्वेताम्बरपरम्परा में जम्बू के पश्चात् भद्रबाहु तक प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, विजय तथा भद्रबाहु — ये पांच श्रुत- केवली होते हैं । भाषा और साहित्य ] - दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु के अतिरिक्त चारों श्राचार्यों के नाम भिन्न-भिन्न हैं । इससे यह अनुमान लगाना असंभाव्य कोटि में नहीं जाता कि किन्हीं मुद्दों को लेकर जैन संघ में जम्बू के बाद भेद पड़ गया था । जिनमें सम्भवतः मुख्य मुद्दा निर्वस्त्रता एवं वस्त्रता का रहा होगा । भद्रबाहु के बाद की पट्टावली तो भिन्न है ही । विविध प्रक्रिया जब किसी परम्परा, पद्धति या रीति-नीति के निर्वाह की चिन्ता होती है, तब मानव arefoot सन्धानोन्मुख रहता है । वह सब कुछ वैसा करता है, जिससे स्थिति सधे, टूटे नहीं । जब किसी परम्परा में भेद पड़ जाता है, वह एकाधिक भागों में बट जाती है, तो प्रत्येक बंटे हुए भाग का दृष्टिकोण प्रायः बदल जाता है । वह उस प्राक्तन परम्परा में निहित सारी महिमा को स्वयं अपने में समेट लेना चाहता है, यद्यपि वैसा करने में वह पूरा सफल तो नहीं होता । इस मनोवृत्ति के प्रतिफल कई रूपों में प्रस्फुटित होते प्रत्येक विभक्त अंश अपने को परम्परा का मूल बताता है, दूसरे को उससे विकृत होकर निकला हुआ । श्वेताम्बरो तथा दिगम्बरों द्वारा एक-दूसरे के उद्भव के सन्दर्भ में गढ़े गये कथानकों से यही सब प्रकट होता है । । : प्रत्येक सम्प्रदाय का वैचारिक आधार उसके शास्त्र हैं । उन्हीं के बल पर वह सम्प्रदाय पनपता है, विकसता है । श्रतएव वह अपने शास्त्रों को परिरक्षित बनाये रखने की चिन्ता को सर्वथा छोड़ नहीं सकता । बौद्धों तथा जैनों की श्रागम संगीतियां इसके उदाहरण हैं । जिस सम्प्रदाय का जिन शास्त्रों से मण्डन नहीं होता, प्रत्युत् खण्डन होता है, यह स्वाभाविक है, वह अन्ततः उन शास्त्रों का बहिष्कार कर देता है । उन्हें कल्पित, प्रक्षिप्त या कृत्रिम करार दे देता है। ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी — उन शास्त्रों के आधार पर शास्त्रार्थं करने का अवकाश ही मिट जाये । दिगम्बर परम्परा द्वारा श्वेताम्बरपरम्परा-सम्मत ग्यारह अंगों के सर्वथा विच्छिन्न हो जाने की उदघोषणा करते हुए उन अंगों के सम्प्रति प्राप्त अंश को कृत्रिम और अप्रामाणिक बताने के पीछे कहीं ऐसी मनःस्थित ने तो कार्य नहीं किया ? यह सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक परिशीलनीय है । 2010_05 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५५८] आगम और बिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ श्वेताम्बर-आगमों में जिन-कल्प तथा स्थविर-कल्प के रूप में नग्न और सवस्त्र-दोनों मुनि-प्राचार-विधियों का निरूपण हैं । फलतः इससे श्वेताम्बर-श्रमण-आचार के साथसाथ दिगम्बर-श्रमण-प्राचार को भी पुष्टि मिलती है । दिगम्बर जिन शास्त्रों को अप्रामाणिक कहें, उन्हीं शास्त्रों से दिगम्बर-आचार का समर्थन हो, यह स्वाभाविक था, श्वेताम्बरों को कब स्वीकार होता ? यह असंभाव्य नहीं जान पड़ता कि कहीं इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप तो श्वेताम्बरों ने प्रार्य जम्बू के पश्चात् जिन-कल्प का विच्छेद घोषित न कर दिया हो, जिससे उनका शास्त्रीय समर्थन असामयिक एवं अनुपादेय बन जाये । अन्वेषक एवं समीक्षक विद्धान् जानते है कि धर्म-सम्प्रदाय के इतिहास में ऐसी घटनाएं अघटनीय नहीं होतीं। অাখা সপ্তাহ : গন্ধ - आर्य जम्बू के साथ जिन-कल्प-विच्छेद की मान्यता के उपरान्त भी श्वेताम्बर-परम्परा में जिन-कल्पी-साधक का एक और प्रसंग आता है। वे थे-प्राचार्य महागिरि । आचार्य स्थूलभद्र के वे उत्तराधिकारी थे। जैसा कि यथाप्रसंग सूचित किया गया है, वीर-निर्वाण सं० २१५ में स्थूलभद्र का स्वर्गवास हुआ। तब महागिरि धर्म-शासन के अधिनायक बने । ऐसा माना जाता है कि कुछ समय के पश्चात् उन्होंने धर्म-संघ का नेतृत्व व व्यवस्था-भार अपने सतीर्थ्य सुहस्ती को सौंप दिया और स्वयं जिन-कल्प साधना में जुट गये । जिन-कल्प के विच्छेद के बाद भी उन्होंने ऐसा किया, क्या इससे स्वीकृत परम्परा व्याहृत नहीं होती ? यह एक प्रश्न है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने महागिरि के जिन-कल्प स्वीकारने का उल्लेख किया है तथा साथ-ही-साथ विच्छिन्न परम्परा की रक्षा का भी प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है। "प्राचार्य महागिरि ने अपना गच्छ सुहस्ती को सौंप दिया। अपने मन में जिन-कल्पसाधमा का अवधारण कर एकाकी विहार स्वीकार किया। जिन-कल्प का विच्छेद था, इसलिए वे गच्छ की नेश्राय में रहते हुए जिन-कल्पोचित वृत्ति से विहार करते थे।" १. महागिरिनिजं गच्छमन्यदावात्सुहस्तिने । विहतुं जिनकल्पेन त्वेकोऽभून्मनसा स्वयम् ॥ व्युच्छेवाजिनकल्पस्य गच्छनिश्रास्थितोऽपि हि । जिनकल्पाहया वृत्या विजहार महागिरिः ॥ -परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११.३.४ 2010_05 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसैनी प्राकृत और उसका वाङमय । ५५६ ___ महागिरि को गच्छ के नेत्राय में रखकर हेमचन्द्र ने उनकी जिन-कल्प-साधना का समर्थन किया है । फिर भी यह समीचीनतया समाधायक प्रतीत नहीं होता। जब जिनकल्प विच्छिन्न ही था, तब महागिरि उसे स्वीकार क्यों करते ? स्थविर-कल्प में रहते हुए भी यदि वे चाहते तो परमोत्कृष्ट साधना में अपने को लगा सकते थे। वहां भी इसके लिए अवकाश था। महागिरि के प्रसंग से ऐसा अनुमान होता है कि श्वेताम्बरों में भी जिन-कल्प (जहां अनिवार्यतः निर्वस्त्र रहना होता था) की ओर झुकाव तब तक पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाया था। আহাহা जैसा कि यथाप्रसंग चर्चित हुआ है, महागिरि का आचार्य-काल तीस वर्ष का था। उनके प्राचार्य-काल का अवसान वीर-निर्वाण संवत् २४५ में होता है। वही उनके देहावसान का काल माना जाता है। इससे ऐसा अनुमेय है कि महागिरि ने कुछ वर्ष संघ के प्राचार्य के रूप में अपना दायित्व निभाया हो। यह नहीं कहा जा सकता, वह कितने वर्ष का काल था । उस बीच उनके मन में जिन-कल्प की कठोर साधना का भाव उदित हुआ हो और अपने सतीर्थ्य सुहस्ती को संघ का उत्तरदायित्व सौंप वे उसमें जुट गये हो। संघ का नेतृत्व तो सुहस्ती करते रहे हों, पर महागिरि के जीवन-काल में आचार्य के रूप में महागिरि का ही नाम रहा हों; क्योंकि सुहस्ती का प्राचार्य-काल वीर-निर्वाण संवत् २४५ के पश्चात् प्रारम्भ होता है । उपसंहार जैन श्रमण संघ में प्रार्य जम्बू के अनन्तर जो मनोभेद प्रारम्भ हुआ, जिसके विभिन्न पहलू पिछले पृष्ठों में चर्चित हुए हैं, उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। यों चलते-चलते वीर-निर्वाण संवत् ६०० के लगभग आ पहुंचने पर वह भेद और दृढ़ तथा स्थिर बन जाता है, जिसकी परिणति दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दो भिन्न सम्प्रदायों के रूप में होती है । श्वेताम्बरआगम दिगम्बरों द्वारा सर्वथा अस्वीकृत कर दिये जाते हैं। অশথ পা বন্ধ অাসনৰ সম্বল दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा के रूप में जैन संघ में भेद पड़ गया। वह भी इतना गहरा, चिसे पाट सकना तब भी दुःशक्य था, आगे भी दुःशक्य रहा, और है । जैन 2010_05 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन : परम्परा के उदात्त, व्यापक तथा प्रशस्त रूप की दृष्टि से यह जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ। पर, कौने क्या करता ? उस समय कुछ ऐसे श्रमण रहें हों, जिनका मन इससे बहुत व्यथित हुआ हो। उन्हें लगा हो, जैन परम्परा की दो धाराएं जिस आधार पर पृथक् हुई हैं, कभी मिल न पायेंगी। उनके अनुसार वे दो अतिरेक थे, जिन्हें इन पृथग्भूत धाराओं ने पकड़ लिया था। उनमें एक था- ग्यारह अंगों के रूप में प्राप्त भगवान् महावीर की परम्परा के महत्वपूर्ण वाङमय का सर्वथा अस्वीकार तथा दूसरा था-तपश्चर्या और वैराग्य के उदन के प्रतीक जिन-कल्प के विच्छेद की घोषणा। यों चिन्तन करने वाले श्रमणों ने कुछ ऐसा व्यावहारिक प्रयत्न लोगों के समक्ष उपस्थित करने का सोचा हो, जिससे ये दोनों अतिरेक तिरोहित हो जायें। यह चिन्तन चलता रहा हो, और भी प्रबुद्ध लोग इस ओर आकृष्ट हुए हों। यापनीय संघ का उद्भव ___उपर्युक्त रूप में चल रही चिन्तनधारा की परिणति अन्ततः यापनीय संघ के उद्भव के रूप में हुई। इसे प्रतिष्ठापित करने वालों ने समन्वय का एक अद्भुत रूप उपस्थित किया। उन्होंने वेष दिगम्बरों का अपनाया अर्थात् वे नग्न रहने लगे तथा अधिकांश श्वेताम्बर-आगमों को उन्होंने प्रामाणिक प्राप्त-वाणी के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने देखा हो-वे जो अपना रहे हैं, वह मध्यम मार्ग है। इसमें दोनों अतिरेकों का समाधान है । परम्परा से प्राप्त महिमाशाली वाङमय की प्रतिष्ठा तथा रक्षा जहां इससे सधेगी, वहां उत्कृष्ट संयममय जीवन-सरणि विलय से बचेगी। यह घटना संघ-भेद के बहुत बाद की नहीं होनी चाहिए, ऐसा अनुमान है । इस सम्प्रदाय ने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर–दोनों की कुछ-कुछ बातें लीं। फल यह हुआ, दोनों ही इसके विरोधी रहे । दिगम्बरों ने इसमें श्वेताम्बरों का ही प्रच्छन्न रुख देखा तथा श्वेताम्बर को इसमें दिगम्बरों से कोई विशेष भेद दृष्टिगत नहीं हुमा । यही कारण है, इसके उद्भव के सम्बन्ध में दोनों ही सम्प्रदायों में जो उल्लेख हुए हैं, वे पक्षपात से शून्य नहीं हैं । उनमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश भी है। ____ यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यापनीय संघ वह सम्प्रदाय है, जो बाह्य परिवेश में श्वेताम्बरों से सर्वथा भिन्न होते हुए भी उन द्वारा स्वीकृत अधिकांश आगमों में निष्ठा एवं विश्वास रखता है। उसके श्रमण अपने प्रव्रजित जीवन का आधार उन्हीं को मानते हैं। एतदर्थ इस प्रसंग में उनके सम्बन्ध में चर्चा करना उपयोगी होगा। 2010_05 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका बाङमय । ५६६ বহন # देवसेन द्वारा यापनीय संघ के उद्भव के सम्बन्ध में किये गये उल्लेख के अनुसार विक्रम को हुए २०५ वर्ष व्यतीत होने पर कल्याण नामक नगर में श्रीकलश नामक श्वेताम्बर साधु से यापनीय संघ प्रवर्तित हुआ। देवसेन का यह भाव स्पष्ट है कि यह श्वेताम्बर-प्रसूत मत है । अर्थात् इसके श्रमण निर्वस्त्र हैं, पर उनमें श्वेताम्बर-दर्शन की पुट है । देवसेन ने, जैसा कि पहले उल्लेख हुमा हैं, श्वेताम्बर-मत के उद्भव का समय १३६ विक्रमाब्द बताया है। उससे ६९ वर्ष बाद की यह घटना है । हो सकता है, वैचारिक पृष्ठ-भूभि के तैयार एवं परिपक्व होने में इतना समय व्यतीत हो गया हो । तदनन्तर उन विचारों का प्रतिफलन इस प्रकार के एक भिन्न सम्प्रदाय के रूप में हुआ हो। वर्शनसार की एक अन्य प्रति में ऊपर चर्चित श्लोक के द्वितीय चरण के 'दुणि सए पंच उत्तरे जावे' के स्थान पर 'सत्त सए पंच उत्तरे जादे' है, जिसके अनुसार यापनीय संघ का उद्भव वि० सं० २०५ के स्थान पर वि० सं० ७०५ में होता है। पर, यह संगत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि उससे काफी पहले शाकटायन प्रभृति यापनीय संघ के अति विश्रुत आचार्य हो चुके हैं । अतः 'दुण्णि सए पंच उत्तरे जादे'—यही पाठ वास्तविक प्रतीत होता है। লেনী ঐ অনুৰ আণনীথ সন ____ रत्ननन्दी ने भद्रबाहु-चरित्र में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति का वर्णन समाप्त करते हुए वहीं से यापनीय संघ की उत्पत्ति का वृत्तान्त शुरू किया है। यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो कथानक वे कहना चाहते हैं, उसे श्वेताम्बर-मत सम्बन्धी कथानक से जोड़ते हुए वे आगे बढ़ते हैं। वे लिखते हैं : "राजा लोकपाल और रानी चन्द्रलेखा श्वेताम्बरमत के भक्त थे। उनके एक पुत्री हुई, जो सुन्दर लक्षणों से युक्त थी। उसका नाम नकुला देवी रखा गया।" उसने अपने गुरु से अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। वह यथाकाल १. कल्लाणे वरणयरे, दुणिसए पंच उत्तरे जावे। जावणियसंघमावो, सिरिकलसावो हु सेवड़वो ॥ -दर्शनसार, २९ २. तभक्तलोकपालाख्य-महीक्षिच्चन्द्रलेखयोः । सुता नृकुलदेव्याच्या बभूव वर लक्षणा ॥ -भद्रबाहुवरित परिच्छेद, ४.१३५ 2010_05 | Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन युवजनप्रिय नवयौवन को प्राप्त हुई । उसकी स्वर्ण जैसी देह-कान्ति थी। देवांगनाओं से पढ़कर उसका रूप था। वह कला-निष्णात थी।" "करहाटाक्ष (करहाटक) नामक एक समृद्ध नगर था। भूपाल नामक वहां का राजा था। वह अप्रतिहत प्रतापशाली था । उसने उल्लासपूर्वक उस राज-कन्या से विवाह किया। अपने पुण्य-फल से वह सब रानियों में प्रधान हो गई। वह बुद्धिशील राजा उसके साथ पुष्कल सांसारिक सुखोपभोग करने लगा।"" "एक दिन अनुकूल अवसर देखकर रानी ने राजा से निवेदन किया--स्वामी ! मेरे पिता के नगर में मेरे महान् गुरु हैं । धर्म-कार्य अभिवृद्धि के लिए उन्हें आमन्त्रित करें। राजा ने रानी का वचन सुना। अपने बुद्धिसागर नामक मंत्री को तत्काल बुलाया और उसे उन साधुओं को आदरपूर्वक लाने के लिए भेजा। वह गुरुओं के पास पहुंचा। उनके प्रति भक्ति-भाव तथा अतिशय विनय प्रदर्शित किया। साधुओं को अपने राजा के नगर में चलने की बार-बार अभ्यर्थना कर मंत्री उन्हें ले आया । उनका आगमन सुनकर राजा को बहुत प्रसन्नता हुई।" १. महाराष्ट्र प्रदेश के अन्तर्गत सतारा जिले के कराढ़ से इसकी पहचान की जाती हैं। २. अध्येष्टाऽनेकशास्त्राणि समीपे स्वगुरोस्तु सा। कलाकलकनककान्तिः रूपापास्तसुराङ्गना ॥ अवाप तार-तारण्यं तारण्योतनृप्रियम् । अथास्ति करहाटाक्षं द्वगं द्रविणसंभृतम् ।। सच्छास्ताऽवार्यवीर्योऽभूद भूपोभूपालनामभाक् । कन्यां तां कमनीयांगों प्रमोवात्परिणीतवान् । साऽसीत सकलराज्ञीषु मुख्या पुण्यविपाकतः । तयाऽमा विपुलान भोगान भुङ्क्तेऽसौ विपुला मतिः॥ -भद्रबाहुचरित्र परिच्छेद, ४.१३६-३९ ३. अथ यदाऽवसरं प्राप्य राज्या विज्ञापितो नृपः । स्वामिनु ! मद्गुरवः सन्ति गुरवोऽस्मत्पितुः पुरे ॥ आनाययतु तान् भक्त्या धर्मकर्माभिवृद्धये । निशम्य तत् वचो भूभृ-वाहुयाऽमात्यमञ्जसा । ____ 2010_05 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य j शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय ५६६ "राजा बहुत बड़े आडम्बर के साथ साधुओं को वन्दन करने चला । उसने दूर से ही साधुओं को देखा । उसे बड़ा अचरज हुआ। यह क्या निर्वस्त्रता-नग्नता शून्य कोई नया मत है, जिसके साधु पात्र, दण्ड आदि धारण किये हुए हैं ? इनके पास जाना समुचित नहीं है। राजा वहां से लौट चला । अपने महल में आया। उसने महारानी से कहा कि तुम्हारे गुरु कुमार्ग-गामी हैं । उनका प्राचार जिन-प्ररूपित सिद्धान्तों से बहिर्भूत दर्शन पर आधृत है । वे परिग्रह में फंसे हुए हैं । हम उन्हें नहीं मानते।'' "महारानी ने राजा के मन का भाव समझ लिया। वह अपने गुरुवृन्द के सान्निध्य में उपस्थित हुई, उन्हें नमन किया। विनय से अपना मस्तक झुका कर निवेदन कियाभगवन् ! मेरे आग्रह से (वस्त्र, पात्र आदि की) आसक्ति का त्याग कर पवित्र, देववन्दित, निर्ग्रन्थ-निर्वस्त्र मुनि का स्वरूप धारण करें।" बुद्धिसागर नामानमत्रं षोल्लातुमावरात । आसाद्याऽसौ गुरुन भक्त्या प्रवरप्रश्रयान्वितः।। भूयोऽभ्यर्थनयाजमात्यः पत्तनं निजमानयत् । निशभ्यागमनं तेषां मुदमाप परां नृपः ॥ -भद्रबाहचरित्र परिच्छेद, ४.१४०-४३ १. महताडम्बरेणासावचालीद वन्वितु गुरुन् । बूरावालोक्य तानू साधून वध्यादिति सुविस्मयातू॥ अहो ! निर्गन्यताशून्यं किमिवं नौतनं मतम् । न मेऽत्र युज्यते गन्तुं पानवण्डाविमण्डितम् ॥ व्याधुट्य भूपस्तस्मादागत्य जिनमन्दिरम् । भाषते स्म महादेवी गुरवस्ते कुमार्गगाः ।। जिनोबितबहित-वर्शनाश्रितवृत्तयः । परिग्रहपहप्रस्तान्नतानू मन्यामहे वयम् ॥ -बही, ४.१४४.४७ २. सा तु मनोगतं राज्ञो ज्ञात्वाऽगाद गुरुसन्निधिम् । नस्वा विज्ञापयामास विनयानतमस्तका ॥ भगवन ! मवाग्रहावेतां गृहणीताऽमरपूजिताम् । निर्गन्यपववीं पूतां हित्वा संगं मुदाखिलम् । -बही, ४.१४८-४९ ____ 2010_05 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४॥ आगल और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३ "उन साधुओं ने रानी का विज्ञ-जनोचित कथन स्वीकार कर वस्त्र आदि सारे परिग्रह का तत्क्षण त्याग कर दिया । श्वेत वस्त्र धारण करने वाले उन साधुओं ने हाथ में कमण्डल तथा जिन-मार्गोंचित पिच्छिका धारण की । यों उन्होंने जिन-मुद्रा-दिगम्बर मुनि का वेष स्वीकार कर लिया। तब राजा अत्यधिक आदरपूर्वक उनके सामने आया । भक्तिपूर्वक नमन किया तथा उन्हें नगर में ले आया। इस प्रकार वे साधु राजा से तथा अन्यान्य लोगों से पूजित तथा सम्मानित हुए । उनका रूप दिगम्बरों जैसा था तथा आचार श्वेताम्बरों का-सा । गुरुउपदेश बिना वे नट की तरह दिगम्बर-स्वरूप धारण किये हुए थे। उन कुमार्ग-गामियों से यापनीय संघ उद्भूत हुआ।"1 रत्ननन्दी ने यापनीयों को वेष से दिगम्बर तुल्य, पर प्राचार से श्वेताम्बरवत् कहकर श्वेताम्बर-मत का एक विकृत रूप लिए हुए बताया है । उनके अनुसार वे साधुत्व के मूल आधार-आचार से विरहित हैं, केवल परिवेश में दिगम्बरत्व का प्रदर्शन है । নী ঈ নিশা इन्द्रनन्दी (ई० ११ वीं शताब्दी ) ने नीतिसार में पांच प्रकार के जैनाभासों का उल्लेख किया है, जिनमें गोपुच्छक, श्वेताम्बर, द्रविड़, निष्पिच्छक तथा यापनीय का १. उपरीकृत्य ते राज्या वचनं विषाचितम् । तत्यजुः सकलं संगं वसनादिकमञ्जसा ॥ करे कमण्डलु कृत्वा पिच्छिकां च जिनोदिताम् । जनहुजिनमुना ते धवलांशुकधारिणः ॥ विशांपतिस्ततो गत्वाऽभिमुखं भूरिसंभ्रमात् । नत्वातिभक्तितः साधून मध्ये. पत्तनमानयत् ॥ तवासिबेलं भूपाचंः पूजिता मानिताश्च ते । घृतं बिग्वाससा रूपमाचारः सितवाससाम् ॥ गुरुशिक्षातिगं लिगं नटवभण्डिमास्पदम् । ततो यापनसंघोऽभूतेषां कापयवर्तिनाम् ॥ -भत्रबाहुचरित्र परिच्छेव, ४.१५०-५४ 2010_05 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [ ५६५ उल्लेख है । इन्द्रमन्दी के अनुसार जिस प्रकार श्वेताम्बर आदि सच्चे जैन नहीं हैं, उनमें जैनत्व का आभास मात्र है, वे केवल कहने भर को जैन हैं, उसी प्रकार यापनीय भी उसी रणी में आते हैं । उनमें वास्तविक जैनत्व नहीं है । श्रुतसागर द्वारा विश्लेषया श्रुतसागर (विक्रमाब्द १६ वीं शती) ने इन्द्रमन्दी द्वारा अभिहित उपर्युक्त पांच जैनाभासों का विश्लेषण करते हुए लिखा है : "तं जैनाभासा आहारदानादिकेऽपि योग्या न भवन्ति, कथं मोक्षस्य योग्या भवन्ति । गोपुच्छिकानां मतं यथा, उक्तं च- हत्थीगं पुरण दिक्खा खुल्ललोयस्स वीरचरियस' । कक्कसकेसगाहणं छट्ठ ं च गुणव्वदं नाम ।। श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृह, रान्ति प्रासुकं -मांसभक्षिरणां गृहे दोसो नास्तीति वर्णकोपः कृतः । तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा देवपूजादिकं कलि पापकर्मेदमिति कथयन्ति मण्डलवत् सर्वत्र भाण्ड - प्रक्षालनोदकं पिबन्ति — हत्यादि बहुदोषवन्तः । द्राविड़ ।: सावच ं प्रासुकं च न मन्यन्ते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति । यापनीयास्तु, वेसरा हवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष, केविलजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यते । "2 श्रुतसागर के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि कल्पसूत्र का हीनतापूर्ण चित्र उपस्थित करना चाहते हैं । संस्कृत में वेसर का अर्थ खच्चर' है । गुणारत्न द्वारा चर्चा याकिनी - महत्तरा - सून् श्राचार्य सूरि (वि० ७५० - ८२७) द्वारा रचित षड्दर्शनसमुच्चय पर गुणरत्न (वि०१४०० से १४७५ ) की तर्क रहस्य - दीपिका नामक टीका है । षड्दर्शनसमुच्चय के चतुर्थ अधिकार के प्रारम्भ में टीकाकार ने जैन मत के अन्तर्गत लिंग, वेष, आचार आदि का विवेचन किया है। वहां श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैनों के दो भेद बतलाते हुए उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में दिगम्बरों का इस प्रकार वर्णन किया है : "दिगम्बराः १. गोपुच्छकः श्वेतवासा, द्रविड़ो यापनीयकः । निष्पिच्छश्चेति पञ्चैते, जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥ २. षट्प्राभृत टीका, पृ० ११ ३. संस्कृत - हिन्दी - कोश, वामन शिवराम आप्टे, पृ० ९७८ 2010_05 —नीतिसार, १० Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ पुनर्नाग्न्यिलिंगाः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा काष्ठासंघ मूलसंघ- माथुरसंघ - गोप्यसंघ मेदात् । काष्ठासंघे चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसंघे मायूरपिच्छे : पिच्छिका, माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिका माहता, गोप्या मायूर पिच्छिकाः । आद्यास्त्रयोऽपि संधा वन्द्यमाना धर्मवृद्धि भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति, केवलिनां भुक्ति सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्ति च न मन्वते, गोव्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति, केवलिनां भुक्तिं च मन्यते । गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते । सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशवन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरैस्तुल्यम्, नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केव्वपरी भेदः । 1 गुणरत्न के अनुसार गोप्य और यापनीय पर्यायवाची हैं । गोप्यों अर्थात् यापनीयों के सिद्धान्तों में यहां स्त्री-मुक्ति तथा केवलि भुक्ति की चर्चा की गई है, जो सर्वथा श्वेताम्बरसम्मत सिद्धान्त है । दिगम्बर - सम्प्रदाय की किसी भी शाखा, उपशाखा द्वारा ये स्वीकृत नहीं हैं । इतना ही नहीं, श्वेताम्बरों के साथ दिगम्बरों का जिन विशेष पहलुओं को लेकर मत दूध है, उनमें ये मुख्य हैं । यह सब होते हुए भी गुणरत्न यापनीयों को स्पष्टतया दिगम्बरों के भेदों में गिनाते हैं । ऐसा लगता है, गुणरत्न के चिन्तन के आधार सम्भवतः यापनीयों का बाह्य स्वरूप अधिक रहा है । सिद्धान्तों की ओर सम्भवतः उन्होंने उतना अधिक ध्यान न दिया हो और नाग्न्य के कारण उन्हें सहज ही दिगम्बरों में ले लिया हो । पर, जैसा कि पहले संकेत किया ही गया है, दिगम्बरों ने भी नग्नता के बावजूद उन्हें अपना अंग नहीं माना । सम्प्रदायों का मापदण्ड कुछ इसी प्रकार का रहा है, अनेक बातों व सिद्धान्तों में मिलते हुए भी जो सम्पूर्णतः मेल नहीं खाता, उसे प्रांशिक समर्थन भी नहीं दिया जाता । क्या इस सन्दर्भ में अनेकान्तवादी दर्शन के व्यावहारिक प्रयोग में कुछ ससीमता के दर्शन नहीं होते — विद्वानों के लिए यह एक अनुशीलनीय पहलू है । थापनीय के नामान्तर प्राकृत भाषा, वाङ्मय एवं जैन जगत् के लब्धिप्रतिष्ठ विद्वान् डा० ए० एन० उपाध्ये १. ( क ) षड्दर्शनसमुच्चय सटीक, पृ० १६०-६१ (ख) मलधारी राजशेखर का भी इसी आशय का एक श्लोक है : दिगम्बराणां चत्वारो, भेदा नाग्न्यव्रतस्पृशः । काष्ठासंघो मूलसंघ, संघौ माथुरगोप्यकौ ॥ 2010_05 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५६७ ने यापनीय के अर्थ में प्रयुक्त अनेक शब्द सूचित किये हैं। जैसे-यापनीय, जापनीय (यपनी), पापनी, आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलि, जावुलिय, जाविलिय, जावलिय, जावलिगेय। उन्होंने इसकी अर्थ-गवेषणा के प्रयत्न में सम्भावना उपस्थित की है कि स्यात् इसका याम या जाम शब्द से सम्बन्ध हो। तदनुसार इसका पार्व के नजज़्ज़ाय या चतुर्याम धर्म से सम्भवतः कुछ तांता जुड़ सके। एक और कल्पना बौद्धों में हीनयाम और महायान के रूप में मुख्यतया दो शाखाएं मानी जाती रही हैं। . उनके नामकरण का इतिहास बड़ा विचित्र है । बौद्ध परम्परा में उस सम्प्रदाय ने, जिसने केवल वैयक्तिक मुक्ति पर ही बल न दे समस्त मानव-समुदाय की मुक्ति, कल्याण और सेवा के लिए महाकरुणा की अवतारणा की, अपने आपको महायान कहा । जो सम्प्रदाय वैयक्तिक निर्वाण पर विशेष जोर देता था, उसे उन्होंने स्वार्थी कह अपने से होन-सुच्छछोटा माना; अतः उन्होंने उसे हीनयान की संज्ञा से अभिहित किया । आगे चलकर उस प्राक्तन शाखा का वही नाम प्रसिद्ध हो गया। कुत्सा के अर्थ में दिया गया नाम, उसके स्वरूप का वाचक हो गया। ___ नाम के सन्दर्भ में यही घटना कहीं यापनियों के साथ न घट गई हो ? यापनीय एक संस्कृत शब्द है, जिसका एक अर्थ हीनता-द्योतक भी है अर्थात् एक व्यक्ति, समुदाय या मत, जो अवहेलना योग्य या बहिष्कार करने योग्य है, उसे यापनीय' कहा जा सकता है। यापनीय नाम से प्रचलित धर्म-सम्प्रदाय जैसा कि विवेचित हुआ है, दिगम्बर एवं 1. Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, vol LV, Poona, 1974, Page, 12. २. संस्कृत में यापनीय और याप्य एक ही अर्थ के सूचक है । संस्कृत-हिन्दी-कोश : वामन शिवराम आप्टे, पृ० ८३४; याप्य शब्द के अर्थ-हटाये जाने के योग्य, निकाले जाने के योग्य अथवा अस्वीकार किये जाने के योग्य, नीच, तिरस्करणीय, मामूली, अनावश्यक । Sanskrit-English Dictionary : Sir M. Monier-williams, Page 850. याप्य : To be Caused to go, to be expelled or discharged (as a witness), gaut, to be removed, or cured (as a disease), trifling, unimportant. 2010_05 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । २ विताम्बर–दोनों द्वारा अस्वीकृत ही नहीं तिरस्कृत था। अतः हो सकता है, दोनों ही सम्प्रदाय तिरस्कार के रूप में अपना रोष व्यक्त करने की दृष्टि से उसे ऐसे नाम से सम्बोधित करने लगे हों। आगे जाकर वह नाम इतना प्रचलित हो गया हो कि नाम-कर्ताओं की तिरस्क्रिया का उसमें सर्वथा लय हो गया हो और वही नाम उनके वास्तविक नाम के रूप में छल पड़ा हो। उन्होंने उसे यथावस् स्वीकार कर लिया हो । भाषा-शास्त्र के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके साथ इसी कोटि के वृत्त घटित होते रहे हैं। বাধনী অথ : অকাথা পাব दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन संघ में जो विभाजन हुआ है, उसकी जैन धर्म के अनुयायियों पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं हुई होंगी। 'देहदुखं महाफलम्' के प्रादर्श में विश्वास रखने वाले लोगों का झुकाव निर्वस्त्र-परम्परा के मुनियों की और अपेक्षाकृत अधिक हुआ हो । आध्यात्मिक आदर्शों के साथ-साथ जो सामाजिक सम्पर्क तथा समाज में श्रमणों के अपेक्षाकृत अधिक प्रवेश की आवश्यकता समझते थे। उनको सवस्त्र-परम्परा ठक लगी हो । कुछ ऐसे भी लोग रहे हों, जो दोनों धाराप्नों के सिद्धान्तों को अनुचित समझते हों। इस प्रकार के अनेकविध विचार चलते रहे हों। लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप उन-उन धार्मिक क्रिया-कलापों में भाग लेते रहे हों। इस बीच एक शताब्दी के भीतर ही यापनीय संघ के रूप में एक अभिनव धार्मिक अभियान लोगों के समक्ष आया हो । जो पिछली दोनों परम्पराओं के कट्टरपन से परितुष्ट नहीं थे, उन्होंने, उनसे सम्बद्ध लोगों ने, अन्य प्रभावित हुए व्यक्तियों ने यापनीय मत को स्वीकार कर लिया हो। एक विशेष प्रकार की विचारधारा लिए कोई भी नया सम्प्रदाय खड़ा होता है, तब प्रारम्भ में उसके उपदेशकों तथा अनुयायियों में अपने विचारों को लोकव्यापी बनाने का एक विशेष प्रकार का उत्साह दिखाई देता है। यापनीय संघ के संदर्भ में भी संभावना की जा सकती है, ऐसा ही हुआ हो। वैसा होने में एक सुविधा भी थी, क्योंकि वह सम्प्रदाय प्रांशिकतया दिगम्बर तथा श्वेताम्बर-दोनों परम्पराओं के आदर्शों को लिए हुए था, इसलिए दोनों के अनुयायियों तक सरलता से उसकी पहुंच थी। फलतः यापनीय संघ उत्तरोत्तर फैलता गया । उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में यापनीय मत अधिक फैला । इतना फैला कि कुछ शताब्दियों तक तो वह जैन परम्परा के मुख्य प्रतीक के रूप में वहां समाइत रहा। 2010_05 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ५६९ दक्षिण में शुरू से ही दिगम्बर-मत का बहुत प्रचार था । दिगम्बर - बहुल क्षेत्र में यापनीयों को अधिक सफलता मिलने का एक विशेष कारण था । यद्यपि दिगम्बरों ने यापनीयों को जैनाभास या प्रच्छन्न श्वेताम्बर मामा, पर, फिर भी वेष के अतिरिक्त नग्नमूर्ति-पूजा, बाह्य चर्या आदि अनेक बातों में दिगम्बरों से उनका नैकटय था । श्वेताम्बर अंग-वाङमय की स्वीकार करने का अभिप्राय स्त्री-मुक्ति, केवलि-भुक्ति जैसे दार्शनिक विषयों में श्वेताम्बरों जैसे विचार रखना था । दार्शनिक विचारों को गहराई तक बहुत कम लोग पहुंचते हैं; क्योंकि वह प्रकृष्ट प्रज्ञा और चिन्तन-सापेक्ष है। अधिकांश लोग तो बाह्य परिवेश, स्वरूप, चाल-ढाल आदि देखते हैं। यों उनका दिगम्बरों में प्रवेश अपेक्षाकृत सरल था । अपने मत का प्रसार करने की दृष्टि से दक्षिण यापनीयों को बहुत उपयुक्त क्षेत्र लगा हो । वे कार्यरत हो गये हों । खूब प्रयत्नशील रहे हों । उस समय प्रचलित दिगम्बर-सम्प्रदाय के होते हुए भी यापनीयों का दक्षिण में प्रभाव बढ़ने लगा । उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यहां के दिगम्बर मुनि स्थितिपालक अधिक रहे हों । यापनीय किमी अपेक्षा से क्रान्तिकारी थे। अधिकांश श्वेताम्बर नागमों को प्रामाणिक मानने की घोषणा करना, तब और विशेषतः दिगम्बर क्षेत्र में कोई साधारण कार्य नहीं था । वास्तव में यह एक साहसिक कार्य था । इस प्रकार का साहस करने वालों के प्रति उबुद्धचेता जनों में स्वतः एक विशेष आकर्षण उत्पन्न होता है । अतः तब वहां दिगम्बर- मतानुयायी जन समुदाय ने उन्हें दिगम्बर-सम्प्रदाय का ही एक क्रान्तिकारी परिवर्तित रूप माना हो । क्रान्त-द्रष्टा दिगम्बर मुनियों के रूप में उनकी अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठा हुई हो । प्रतिष्ठा : राज-सम्मान इस प्रकार के अनेक प्रमाश प्राप्त हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी से चवदहवीं शताब्दी तक यह मत भारत में ससम्मान जीवित था । कर्नाटक प्रदेश में कभी यह बहुत प्रतिष्ठित एवं राज- मान्य रहा । श्राज के धारवाड़, बेलयांव, गुलबर्ग तथा कोल्हापुर आदि जिले इसके मुख्य प्रचार क्षेत्र थे । कुछ महत्वपूर्ण दान-पत्र डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपने एक लेख में यापनीयों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण दान-पत्र आदि की चर्चा की है, जिनसे दक्षिण में यापनीयों की सुदृढ़ एवं सम्मानित स्थिति का पता चलता है । डा० उपाध्ये ने लिखा है: "कदम्बवंशीय मृगेश वर्मन् ( ४७५-४९० ई० ) 2010_05 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलम ने यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को एक जागीर प्रदान की। उस सन्दर्भ में दान-पत्र में वर्णित प्राचार्य का नाम दामकीर्ति है। तदनन्तर मृगेश वर्मन् के पुत्र ने (४९७-५३७ ई.) जागीर में एक गांव, जिसकी प्राय से पूजा की तथा चातुमसि में यापनीय साधुओं के आहार की व्यवस्था की जाती रहे, प्रदान किया। वहां दामकीर्ति, जयकीर्ति, बन्धुसेन तथा कुमारदत्त नामक प्राचार्यों का उल्लेख है । सम्भवतः वे सभी यापनीय थे। देववर्मन् के पुत्र कृष्ण वर्मन् (४७५-४८० ई०) ने यापनीय संघ के साधुओं को उनके देव-स्थान की व्यवस्था के लिए एक ग्राम प्रदान किया।"1. इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि कर्नाटक के शासक यापनीयों के प्रति श्रद्धाशील थे । यापनीयों के अपने देव-स्थान मन्दिर थे । वहां की संचालन-व्यवस्था यापनीय साधु देखते थे। यापनीयों के देव-स्थानों की पूजा आदि की सुव्यवस्था तथा साधुओं को चातुर्मास में आहार आदि का कष्ट न हो, इस और शासकों का विशेष ध्यान रहता था। इस हेतु वै जागीर में ग्राम प्रादि देते रहते थे। विशेष चर्चा का प्रसंग तो नहीं है, केवल एक बात यहां देखने की है, यापनीय श्रमणों के आहार आदि की सुविधा के लिए राजा लोगों द्वारा जागीर आदि के अनुदान उन्हें कैसे ग्राह्य होते थे ? इससे ध्वनित होता है कि दैनन्दिन प्राचार में यापनीय साधुओं में दृढ़ता और कष्ट-सहिष्णुता कम होती जा रही थी। 1. Mradesh varman (475 10 490 A.D.) of the Kadamba dynesty has given a grant to Yaraniyas, Nigranthas and Kurcakas. The teacher mentioned in the plate is Damakirti. Further his son (497-537 A.D.) also made a grant of village, out of the income of which the Puja etc. were to be performed and the Yapaniya ascetics to be fed for four months. The teachers mentioned here are Damakirti, Jayakirti, Bandhusena and Kumardatta. Possibly all of them Yapaniyas. Further Devavarman, the son of krisnavarman (475480 A.D.) made a donation of a village to the members of the Yapaniya Sangh in favour of their temple for its maintenance. -Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol, LV, Poona 1974, Page 12. ____ 2010_05 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय [५७१ সবা । হিসাব। बेलगांव जिले के अन्तर्गत कागवाड़ नामक स्थान में एक जैन मन्दिर के भू-गर्भ-गृह (भोहरे) में भगवान् नेमिनाथ की एक विशाल प्रतिमा है। उसके निकीधिका-प्रस्तर पर एक लेख है । वहां प्रकित तिथि के अनुसार यह शिलालेख १३९४ ई० सन् का है। उसमें याफ्नीय संघ तथा पुनागवृक्षमूल के प्राचार्य नेमिचन्द्र, धर्मकीति तथा नागचन्द्र का उल्लेख है । यापनीय आचार्य नेमिचन्द्र वहां 'तुलुव-राज्य-स्थापनाचार्य' के रूप में अभिहित किये गये हैं। ___ इस वर्णन से यह और स्पष्ट होता है कि दक्षिण के राजवंशों पर कभी इन पायनीय आचार्यों का बड़ा प्रभाव था। राज्यों के महत्वपूर्ण घटना-क्रमों के पटाक्षेप के पीछे इन आचार्यों की शक्ति और प्रभुत्व महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा करते थे। नेमिचन्द्र का 'तुलुवराज्य-स्थापनाचार्य' विशेषण यापनीय प्राचार्यों के इस प्रकार के प्रभावक व्यक्तित्व का सूचक है। प्रस्तुत शिलालेख में यापनीय संघ के साथ-साथ जो पुन्नागवृक्ष-मूलगरण का उल्लेख हुना है, वह और कोई नहीं, यापनीय संघ का ही एक विशेष भेद था। থানীথ অথ পা অন৷ পথা? ঐ বিশ্ব जब कोई सम्प्रदाय खूब विस्तीर्ण और व्यापक हो जाता है, तब उसकी अनेक शाखाएं तथा भेदोपभेद निर्मित हो जाते हैं । यापनीय संघ भी समय पाकर काफी फैल गया था। फलतः वह अनेक गणों में विभक्त होता गया। डा० उपाध्ये ने इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए कुमुलिगण (कुमुदिगण), (कोटि), मडुवगण, कण्दूर या काणूरगण, पुन्नागवृक्ष-मूलगण, वन्दियूरगण, कारेयगण, नन्दिगच्छ तथा मैलपान्वय का उल्लेख किया है तथा यह भी संकेत किया है कि यापनीय मत क्रमशः कर्नाटक तथा उसके इर्द-गिर्द प्रसार पाता गया। 1. ..."The Yapaniya Sangh is associated with ganas like Kumuligana (or Kumudigana), (Koti), Maduvagana, Kandura or Kanuragana, Punnagavriksamulagana (also linked with Mula Sangha) Vandiyuragana, Kareyagana and Nandigaccha and Mailapanvaya. This Contemination with different ganas indicates that the Sangha gradually got itself expressed through ganas which, as account of ___ 2010_05 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२] मागम और विपिटक । एक अनुशीलन [जार कहा नहीं जा सकता, वे गण उस सम्प्रदाय की किसी केन्द्रीय प्रभुसत्ता के अन्तर्गत थे या सर्वथा स्वतन्त्र । वे केवल व्यवस्था की दृष्टि से पृथक् हुए या सैद्धान्तिक या प्राचारसम्बन्धी भेद पड़ जाने से वैसा हुआ, कुछ स्पष्ट नहीं है, पर, इतने सारे गणों के अस्तित्व से यह तो स्पष्ट है कि यापनीय संघ का कार्य-क्षेत्र या प्रसार-क्षेत्र बहुत विस्तार पा चुका था। থানীখ অাশা : অাখি অাহণ : ইমাহ-আলম यापनीय संघ के आचार्यों ने साहित्य को महान् सेवाएं की। उन्होंने बड़े महत्वपूर्ण एवं मार्मिक ग्रन्थ रचे । कारण यह था, जैसा कि कहा गया है, भारत में विशेषतः दक्षिण भारत में उनके उत्कर्ष का एक महत्वपूर्ण काल आया, जब वे शासकों, सम्भ्रान्त लोगों तथा जन-साधारण पर पूरी तरह छा गये । उनकी बड़ी प्रशस्ति थी। राजा और प्रजा का उनके प्रति बहुमान एवं आदर था। उनके अनेक मन्दिरों के पीछे बड़ी-बड़ी जागीरें थीं, जिनके कारण वहां निर्वाह-सम्बन्धी सुविधाएं एवं अनुकूलताएं थीं। यापनीय मुनि विद्याव्यसनी थे । फलतः उनके स्थान विद्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन गये । विद्याध्ययन एवं साहित्य-सर्जन का शताब्दियों तक एक सुन्दर क्रम वहां चलता रहा । यहाँ कतिपय प्रमुख यापनीय आचार्यों तथा उन द्वारा अपने साहित्य में किये गये श्वेताम्बर-आगमों के उपयोग के सन्दर्भ में कुछ चर्चा करेंगे, जिससे इस सुतरां ज्ञातव्य विषय पर स्पृहणीय प्रकाश पड़ सके । शिवार्य, जिन्हें शिवकोटि भी कहा जाता है, द्वारा रचित आराधना दिगम्बर-परम्परा का प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इसे भगवती आराधना भी कहते हैं । यह प्राचार-प्रधान ग्रन्थ है । इसमें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप-इन चार आराधनाओं का विशद विश्लेषण है। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने जैन सिद्धान्त कोश में शिवकोटि (शिवायं) का समय ईसा की the Ganabheda shows, were becoming more prominent in Karnat aka and round about. -Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. LV, Poona 1974, Page 17. 2010_05 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय । ५७३ प्रथम शती का मध्ध लिखा है। यद्यपि समय की निश्चिती के सम्बन्ध में कोई ठोस एवं विश्वस्त प्रमाण प्राप्त नहीं है, फिर भी शिवार्य काफी प्राचीन हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन संघ के विभक्त हो जाने के पश्चात् यापनीय संघ के अस्तित्व में आने के अनन्तर शिवार्य का समय सम्भावित हो सकता है । माराधना : के प्रश्न - चिन्ह ११ यद्यपि आराधना या भगवती आराधना दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है, पर उसमें वरिणत विषयों का परिशीलन करने से पता चलता है कि वे दिगम्बर-माम्नाय द्वारा स्वीकृति सिद्धान्तों से सम्पूर्णतः मेल नहीं खाते। दिगम्बर-सम्प्रदाय के मन्तव्यों से कुछ भिन्नता भी वहां दृष्टिगत होती है । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इस सम्बन्ध में लिखा है: “.... ध्यान रखने की बात है कि भगवती आराधना की अनेक मान्यताएं दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार से मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए, रुग्ण मुनियों के वास्ते अन्य मुनियों द्वारा भोजन-पान लाने का यहां निर्देश है। इसी प्रकार विजहना अधिकार में मुनि के मृत शरीर को जंगल में छोड़ आने की विधि बताई है। श्वेताम्बरों के कल्प, व्यवहार, आचारांग और जीतकल्प का भी उल्लेख यहां मिलता है । "आवश्यक-नियुक्ति, वृहतुकल्प-माष्य प्रादि श्वेताम्बरों के प्राचीन ग्रन्थों से भगवती आराधना की अनेक गाथाएं मिलती हैं." इससे प्रकट होता है कि शिवार्य कुछ इस कोटि के मनीषी हैं, जिनके विचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर–दोनों परम्पराओं से संपृक्त हैं । ऐसा अनुमान है कि सम्भवतः वे योपनीय परम्पराओं के रहे हों । यदि ऐसा नहीं होता तो वे उस प्रकार का उल्लेख कैसे करते, जिससे श्वेताम्बर-आगमों की प्रामाणिकता की पुष्टि होती। যাঙ্গাথন বা বিবাথ ঋী বা शाकटायन, जो स्वयं यापनीय थे, जिनके सम्बन्ध में विशेष रूप से आगे लिखा जायेगा, अपने व्याकरण की स्वोपज्ञ अमोघ वृत्ति में शिवार्य की बड़े आदर के साथ चर्चा करते हैं, बो निम्नांकित उद्धरणों से स्पष्ट है : शाकटायन व्याकरण सूख २।११ की वृत्ति के अन्तर्गत १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३३५ २. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ३०४ 2010_05 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ j आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: इति शिवार्यम् । तच्छिवार्यम् । अहो शिवायं वर्तते । शिवार्य शब्दो लोके सुष्ठ प्रकत इत्यर्थः । सूत्र १.३.१६८ की वृत्ति में शोभनः सिद्धविनिश्चयः शिवार्यस्य शिवार्येण वा । शाकटायन ने स्त्री-मुक्ति के प्रसंग में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख किया है । वहां उन्होंने उनकी दो कारिकाए उद्धृत की हैं । जो इस प्रकार हैं : यत संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत साधनमतोऽन्यवधिकरणमाहाहन् ।। अस्तैन्य बहिरव्युत्सर्गविवेकषणादिसमितीनाम् । उपदेशनमुपदेशो ह्य पधेरपरिग्रहत्वस्य ।। वस्त्र धर्मोपकरण है या परिग्रह–इस पहलू की विशेषतः इन कारिकाओं में चर्चा है । यहां वस्त्र को संयम का उपकरण बताते हुए उसे धर्म का साधन बताया है। यह श्वेताम्बर दृष्टिकोण है, जो इन कारिकाओं में समर्थित हुआ है । ये कुछ ऐसे प्रमाण हैं, जिनसे शिवार्य के यापनीय होने का अनुमान सही प्रतीत होता है। अपराजित सूरि नामक विद्वान् की आराधना पर टीका है। उसके भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे शिवार्य के यापनीय मत से सम्बद्ध होने की सम्भाव्यता प्रकट होती है । অথবান পুহ ৷া বিএন अपराजित सूरि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रास-पास के विद्वान् थे। उनका दूसरा नाम विजयाचार्य था। एक मोर जहां उन्होंने आराधना पर टीका लिखी, दूसरी ओर वशवकालिक सूत्र पर भी टीका की रचना की। वशवकालिक सूत्र के वर्णन-प्रसंग में उसकी चर्चा की गई है । उन्होंने दोनों टीकापों का नाम विजयोदया रखा। भगवती आराधना, जो अधिकांशतः दिगम्बर-परम्परा से सम्बद्ध है तथा दशवकालिक, जो श्वेताम्बरों के मूलसंज्ञक मान्य ग्रन्थों में मुख्य है, पर टीका रचने तथा उद्गत विषयविवेचन आदि से प्रतीत होता है कि अपराजित सूरि यापनीय संघ के थे। उदाहरणार्थ १, आराधना की ११९७ वीं गाया की व्याख्या के अन्तर्गत अपराजित सूरि द्वारा उल्लेख "वशवकालिकटीकायां श्री विजयोवयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । ____ 2010_05 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५७५ आराधना की निम्नांकित गाथा की अपराजित सूरि ने अपनी टीका में जो व्याख्या की है, जिससे इस सुतरां ज्ञातक विषय पर प्रकाश पड़ सकेगा : "आचेलक्कुद्दे सियसेज्जाहर रायपिंडकिइ कम्मे । वयजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ ४२१॥" अर्थवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथाहि आचारप्रणिधौ भणितम्'प्रतिलिखेतू पात्रकम्बलं ध्र वम्' इति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्र वं क्रियते ? आचारस्यापि द्वितीयोऽध्यायो लोकविच(ज)यो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तम्'पडिलेहणं पादपुछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उधि पावेज्ज' इति । तथा वत्थेसणाए वुत्त-'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्वं वा धारेज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे जुग्गिदे दे (?) से दुवे वत्थाणि धरिज्ज पडिलेहणगं विदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासस्स तओ वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं ।' तथा पायेसणाए कथितम्--'हिरिमाणे वा जुग्गिदे वावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए' इति । पुनश्चोक्तं तवैवअलाबुपत्त वा दारुगपत्त वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं अप्प स (ह) रिदं, तथा अ (तह) प्पकारं पात्रं न लाभे सति पडिगहिस्सामि' इति । वस्त्रपाने यदि न ग्राह्म कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? भावनायां योक्तम्-'वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलके तु जिणे' इति । तथा सूत्रकृतस्य पुण्डरीकेऽध्याये कथितम्-'ण कहेज्जा धम्मकहं वत्थपादिहेदु' इति । निषेये = (निशीथे) ऽप्युक्तम्-कसिणाई वत्थकंवलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं' इति । एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कयम् ? इति । अत्रोच्यते-आयिकाणामागमेऽनुज्ञातं वस्त्रम्, कारणापेक्षया भिक्षणाम्, ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परिषहसहने वा अक्षमः स गृह णाति ।"1 अपराजित सूरि ने आराधना की इस गाथा का विश्लेषण करते हुए साधु द्वारा वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता के सन्दर्भ में जो विश्लेषण किया है, श्वेताम्बर-आगम-वाङ्मय के अत्यन्त मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग तथा निशीथ जैसे ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत कर इसे समर्थित करने का प्रयत्न किया है, उससे स्पष्ट है कि इन आगम ग्रन्थों के प्रति वे निःसन्देह श्रद्धावान् थे । साथ-साथ यह भी ध्वनित होता है कि मूल गाथाकार शिवार्य के मस्तिष्क में भी गाथा रचते समय बहुत सम्भव है, ये तथा तत्सम्बद्ध अन्य श्वेताम्बर-आगम-ग्रन्थ रहे हों। क्योंकि दिगम्बरों के मान्य ग्रन्थों में साधु द्वारा वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता के सम्बन्ध में समर्थन नहीं प्राप्त होता। १. आराधनाः विजयोवया उछ्वास ४, पृ० ६११-१२ 2010_05 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ) मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ पारिवेशिक दृष्टि से निर्वस्त्रता का स्वीकार तथा सैद्धान्तिक दृष्टि से श्वेताम्बर-सम्मत सवस्त्रता के समर्थन का यह विचित्र समन्वय क्या यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं है कि शिवार्य एवं अपराजित यापनीय संघ से सम्बद्ध थे ? शिवार्य की आराधना में कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिनका समर्थन न दिगम्बर-शास्त्रों द्वारा होता है और न श्वेतास्बर- आगमों द्वारा ही। इससे भी यह प्रकट होता है कि वे इन दोनों ही परम्पराओं से सम्बद्ध नहीं थे। किसी तीसरी ही परम्परा से उनका सम्बन्ध प्रा। वह यापनीय के अतिरिक्त और कौन-सी हो सकती है ? যাথন : থানীথানাশাপথ ___शाकटायन जैन जगत के महान् वैयाकरण, दार्शनिक एवं आगमवेत्ता थे। उनका दूसरा नाम पाल्यकीर्ति था। वे राष्ट्रकूटवंशीय नरेश अमोघवर्ष के समसामयिक थे। उनके स्वयं के इस प्रकार के उल्लेख हैं, जिनसे यह पुष्ट होता है। जैसे, व्याकरण के 'ख्याते हश्ये' सूत्र को स्वोपज्ञ-वृति में वे उदाहरण देते हुए लिखते हैं : "अरुणा देवः पाण्डयम् । अवहबमोघवर्षाऽरातीन् ।" सुप्रसिद्ध विद्वान् स्वर्गीय डा० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग की भूमिका में शाकटायन के समय के सम्बन्ध में चर्चा की है। अमोघवर्ष का समय ई० सन् ८१४-८७७ माना जाता है। तदनुसार उन्होंने शाकटायन का समय ई० सन् ८००-८७५ के मध्य सम्भावित माना है।। शाकटायन यापनीय संघ के महान् आचार्य थे, इस प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं । विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के महान् टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने नन्वी सूत्र की टीका में शाकटायन को 'यापनीययतिमामाप्रणी' कहा है । যাদ্ধাধৰ শপথা বরংপলখ ক্ষী কর जैन वैयाकरणों में शाकटायन का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य हेमचन्द्र द्वारा १. शाकटायन व्याकरण, ४.३.२०८ २. अमोघवर्ष के शत्रुओं को दग्ध कर डाला। ३. शाकटायनोऽपि यापनीययतिमामाग्रणी स्वोपशशब्दानुशासनवृत्तावारी भगवता स्तुतिमेवाह--'श्रीवीरममृतं ज्योतिनत्वादि सर्ववेवसाम्। -०१६A . ____ 2010_05 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय । ५७७ सुप्रसिद्ध व्याकरण सिद्धहैमशब्दानुशासन पर भी उसका प्रभाव है, उसके परिशीलन से ऐसा प्रकट होता है । पठन-पाठन की दृष्टि से शाकटायन व्याकरण दिगम्बर-समाज में काफी समाहत रहा है। शाकटायन ने अपने व्याकरण के विभिन्न सूत्रों की वृत्ति में तद्बोधित प्रक्रियाओं के उदाहरण-स्वरूप स्थान-स्थान पर श्वेताम्बर-आगम-वाङमय की ओर जो संकेत किये हैं, उनसे आगमों के प्रति उनकी निष्ठा तथा आदर प्रकट होता है। यदि वे दिगम्बर-परम्परा के होते तो ऐसा कभी सम्भव नहीं होता; अतः मलय गिरि द्वारा उन्हें 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' के विरुद से विशेषित किया जाना सर्वथा संगत प्रतीत होता है। शाकटायन व्याकरण के उक्तविध उदाहरणों में से कुछ निम्नांकित हैं : "एतकमावश्यकमध्यापय।"1 "इममावश्यकमध्यापय।" "प्राम्नाती द्वादशाङगे।" "सूत्राण्यधीष्व ।" "षड्जीवानिकायमधीते । स पिण्डैषणामधीते ।" "भद्रबाहुक प्रोक्तानि भाद्रबाह्वाणि उत्तराध्ययनानि ।' "अथ त्वं सूत्रमधीष्व ।"7 "अथ त्वमनुयोगमाघत्स्व ।"8 "भवान् खलु छेदसूत्र वहेत् ।" "नियुक्तीरधीष्व ।"10 १. शाकटायन व्याकरण, १.२.२०३ २. वही, १.२.२०४ ३. वही, १.३.१७१ ४. वही, १.४.१२० ५. वही, २.१.१८ ६. वही. ३.१.१६९ ७. वही, ४.३.२८८ ८. वही, ४.३.२८९ ९. वही, ४.४.१३३ १०. बही, ४.४.१४० 2010_05 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ] आगम और fafter : एक अनुशीलन प्रसंगोपात्ततया शाकटायन ने श्वेताम्बर- कालिक सूत्रों के अनध्याय के सन्दर्भ में चन्द्रग्रहरण, सूर्य ग्रहण, निर्घात, भूकम्प, गर्जन, विद्य ुत्, अल्कादाह, मशानाभ्यास, अशुचि, उत्सव तथा सन्ध्या- - ये दश अध्याय-काल' कहे हैं । यह श्वेताम्बर - परम्परा के अनुरूप हैं । शाकटायन के यापनीय-दर्शन- सम्मत विचार एवं आस्था का परिचय पाने की दृष्टि से उपर्युक्त विवररण काफी महत्वपूर्ण है । शाकटायन रश्चित स्त्री-नि-केवलि-मुक्ति-प्रकरशा दिगम्बरों तथा श्वेताम्बरों के बीच स्थित अनेक विवादास्प्रद विषयों में स्त्री - निर्वारण तथा केवली - कवलाहार — ये दो बहुत महत्वपूर्ण विषय हैं । जैसा कि उल्लेख हुआ है, श्वेताम्बरों में ये दोनों बातें हैं, दिगम्बर इन्हें स्वीकार नहीं करते। इस सम्बन्ध में यापनीय आचार्यों का मन्तव्य श्वेताम्बरों के साथ है । 2 श्रागम - साहित्य में तो ये विषय यथा - प्रसंग चर्चित हुए ही हैं, पर शाकटायन पहले आचार्य हैं, जिन्होंने दार्शनिक शैली में संस्कृत में इनका विवेचन किया । शाकटायन के उस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का नाम 'स्त्री- निर्वाण केवलि भुक्ति - प्रकरण ' " है । लेखक की इस पर स्वोपज्ञ - वृत्ति भी है । इन विषयों का शाकटायन ने अपनी प्रकृष्ट प्रज्ञा द्वारा अपनी सबल एवं मार्मिक लेखनी से जैसा विवेचन किया है, वह असाधारण है । भूमिकम्पनम् । तृतीयं गर्जितं विद्य दुल्कावाहो विशां तथा ॥ श्मशानाभ्यासमशुचिरुत्सवो दश सन्ध्यया । इति कालिकसृस्थानध्यायदेशकालाः पठिताः ॥ हमारे कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि शाकटायन से पूर्व के ग्रन्थकारों ने इन विषयों की कोई चर्चा ही नहीं की हो । शाकटायन से पूर्व यापनीय मनीषियों ने भी इस पर लिखा है । आचार्य हरिभद्र सूरि-रचित ललितविस्तरा 1 में स्त्री - निर्वाण के सन्दर्भ में १. चन्द्रसूर्योपरागश्च निर्धातो खण्ड : ३ ( ३.२.७४ के सन्दर्भ में) 2010_05 २. यह ग्रन्थ वि० सं० २०३० में मुनि जम्बूविजयजी के सम्पादकत्व में आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर (गुजरात) से प्रकाशित हुआ है । ३. आचार्य हरिभद्र-रचित, चैत्य-वम्बन-सूत्र-वृत्ति का नाम ललितविस्तरा है । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय यापनीय तंत्र का उद्धारण उपस्थित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यापनीय मत का यापनीय तंत्र नामक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा है, जिसमें यापनीय मत के सिद्धान्तों का विवेचन रहा होगा । वह ग्रन्थ प्राकृत में था, अब प्राप्त नहीं है । আব্দাবন ঐ স্বশ্ব *ী খৎনা शाकटायन के स्त्री-निर्वाण-क्रेवलि-भुक्ति-प्रकरण ग्रन्थ की कुछ विशेषताएं हैं। वह प्रांजल संस्कृत में रचित है । दार्शनिक विषयों को ताकिक शैली द्वारा संक्षिप्त शब्दावली में प्रभावक रूप में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी विलक्षणता है। शाकटायन ने प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका पूरा उपयोग किया है । दार्शनिक-पद्धति से पूर्व-पक्ष-निरसन पूर्वक उत्तर पक्ष या सिषाधयिषित विषय का स्थापन, दतर्थ आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि आर्ष व आर्षोपम ग्रन्थों के अपेक्षित प्रसंगों का उपस्थापन आदि द्वारा शाकटायन के स्त्री-निर्वाण और केवलि-कवलाहार का इतना मार्मिक, तलस्पर्शी एवं सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि शताब्दियों तक यह ग्रन्थ इन विषयों के युक्तियुक्त तथा सबल निरूपण की दृष्टि से प्रतिष्ठापा रहा । केवल यापनीय ही नहीं, श्वेताम्बर विद्वानों ने भी इस ग्रन्थ का पूरा उपयोग किया । उक्त दो विषयों में स्वपज्ञस्थापन की दृष्टि से श्वेताम्बर विद्वानों के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ बना रहा । श्वेताम्बर लेखक उक्त विषयों के प्रतिपादन के सन्दर्भ में अपनी कृतियों में इसका उपयोग करते रहे । ৰাধী খুব ৰ স্বৰৰ যাত্ব सिद्धराज जयसिंह (वि० सं० ११४३-११९९) विद्यारसिक और तत्त्वानुरागी राजा था। उसकी राज-सभा में एक शास्त्रार्थ हुआ । निवदिषित विषयों में मुख्य स्त्री-निर्वाण १. .......... स्त्री ग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थ वचः यथोक्त यापनीय-तन्त्र-णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अमव्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णों अमानुसा, णो अणारि (य) उप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, णो अकूरमई, णो ण उबसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, जो अपुष्वकरणविरोहिणी, णो णवगुणट्ठाणरहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, णो अकल्लाणमायणं त्ति कहं न उत्तम-धम्मसाहिगत्ति । -ललितविस्तरा, पृ० ४०२ 2010_05 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन चण्डे । का विषय था । एक ओर श्वेताम्बर आचार्य वादी देवसूरि थे तथा दूसरी ओर दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र । प्रभावक-चरित में इस शास्त्रार्थ की चर्चा है। वहां लिखा है : "शान्तिसूरि द्वारा उत्तराध्ययन पर रचित टीका, जो प्रतिवादी रूपी नागों को मंत्र-रुद्ध-सा कर देने वाली थी, से अधिगत स्त्री-निर्वाण सम्बन्धी युक्तियां उपन्यस्त कर मुनिचन्द्र के शिष्य देवसूरि ने सिद्धराज जयसिंह के समक्ष दिगम्बर विद्वान् (कुमुदचन्द्र) को जीत लिया।" 'स्त्री-निर्वाण-केवलि-भुक्ति-प्रकरण' के सम्पादक मुनि जम्बूविजयजी ने ऐसी संभावना की है कि शान्तिसूरि (थारापद्रगच्छीय वादिवेताल शान्तसूरि) (११वीं शती ई०) ने उत्तराध्ययन सूत्र की जो पाइय नामक टीका रची, जिसके सहारे वादी देवसूरि (१२वीं शती ई०) ने कुमुदचन्द्र को पराजित किया, का स्त्री-निर्वाण-सम्बन्धी अंश लिखते समय, हो सकता है, उन्होंने शाकटायन द्वारा विवेचित स्त्री-निर्वाण-सम्बन्धी प्रकरण को अपने समक्ष रखा हो। यह संभावना बहुत संगत जान पड़ती है । इस घटना को यहां उपन्यस्त करने का प्रयोजन उक्त विषयों के तार्किक व दार्शनिक विश्लेषण तथा ऊहापोह के सम्बन्ध में उपस्थित प्रसंगों पर शाकटायन का उक्त ग्रन्थ कितनी महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि देता रहा, इसे स्पष्ट करना है। श्वेताम्बर ग्रन्थकारों में अभयदेव (११वीं शती ई०) वादी देवसूरि (१२वीं शती ई०) तथा यशोविजय (१७वीं शती ई०) आदि ने अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में स्त्री-निर्वाण तथा केवलि-कवलाहार के विवेचन के प्रसंग में प्रायः शाकटायन का ही अनुसरण किया है। जहां श्वेताम्बर विद्वानों ने उक्त विषयों के पोषण और पुष्टीकरण के लिए इस ग्रन्थ का सहारा लिया, वहां दिगम्बर विद्वानों ने स्त्री-निर्वाण तथा केवलि-कवलाहार के खण्डन का प्रसंग पाने पर शाकटायन के निरूपण को ही पूर्व पक्ष के रूप में स्वीकार किया। यों उक्त विषयों के मण्डन तथा खण्डन-दोनों अपेक्षाओं से इस ग्रन्थ का उपयोग होता रहा। १. उत्तराभ्ययन-प्रग्य-टीका श्री शान्तिसूरिभिः । विवर्ष वाबिनागेन्द्र-सन्नागदमनी हि सा ॥ शिष्येण मुनिचन्द्रस्य सूरेः भीदेवसूरिणा। तन्मयत उपन्यस्त-स्त्री निर्वाणवलागिह ।। पुरः भीसिद्धराजस्य जिठो बावे दिगम्बरः। तबीयवचसा मिश्रा विद्वदुः साधसाधिका ॥ -प्रभावक-परित, १९-९१ ____ 2010_05 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय [५१ उदाहरणार्थ, प्रमेय- मल-मार्तण्ड तथा न्याय-कुमुद चन्द्र आदि ग्रन्थों के रचयिता, सुप्रसिद्ध नैयायिक दिगम्बर प्राचार्य प्रभाचन्द्र (९२५-१०२३ ई०) ने अपने ग्रन्थों में स्त्री-मुक्ति तथा केवलि-भुक्ति के प्रसंग में प्रायः इसी ग्रन्थ के प्रकरणों को सामने रखा। कुछ महत्वपूर्ण पहल शाकष्टायन ने अपने ग्रन्थ में विवेच्य विषयों के निरूपण, विश्लेषण तथा पोषण आदि के सन्दर्भ में जो श्वेताम्बर-आगमों के पाठ उद्धृत किये हैं, वे कहीं-कहीं श्वेताम्बरों के प्राप्त पाठ से कुछ-कुछ भिन्न भी हैं। तदतिरिक्त अन्य यापनीय ग्रन्थकारों ने विविध प्रसंगों पर श्वेताम्बर प्रागमों के पाठ लिये हैं, वहां भी वैसा सम्भावित है। अनुसन्धातृ-विद्वानों के लिए यह महत्व का विषय है। इसमें से यह संभावना निकलती है कि यापनीयों द्वारा स्वीकृत तथा प्रयुज्यमान जो आगम-संस्करण थे, उनमें श्वेताम्बरों द्वारा स्वीकृत पागमों से कुछ पाठ-भेद रहा हो, परम्परा-भेद रहा हो। अच्छा हो, श्वेताम्बर प्रागमों पर कार्य करने वाले विद्वान इस पर गौर करें। हो सकता है, गवेषणात्मक अध्यवसाय से आगमपाठ की कोई भिन्न परम्परा प्राप्त हो जाये, जिससे अनेक नूतन तथ्य प्रकाश में आने संभावित हैं। शाकटायन द्वारा अपने ग्रन्थ में और भी कतिपय ऐसे विषय उपस्थित किये गये हैं, जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर; दोनों परम्परामों में नहीं हैं। ये यापनीयों की अपनी विशेषताएं हैं। उपधि' के सम्बन्ध में शाकटायन ने ओघ, अणु तथा औपनहिक के रूप में उसके तीन भेद किये हैं । इसमें दूसरे भेद अणु का सम्बन्ध केवल यापनीयों से ही प्रतीत होता है। यह .१. अभिधान-राजेन्द्र में उपधि के दो भेद-ओघ तथा अवगह का वर्णन ओहे उवग्गहम्मि य, दुविहो उवही उ होइ नायव्यो । एक्केक्को वि य दुविहो, गणणापमाणओ चेव । पारस चोद्दस पणवीस, उ य ओघोवधी मुणेयव्यो । जिणकप्पो थेराण य, अद्धाणं चेव कप्पम्मि । ओघोषधी जिणाणं, थेराणोहे अवग्गहो चेव । ओहोवधिमज्जाणं, उवग्गहिओ अण्णा तव्वो ॥ -अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० १०६० 2010_05 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड । २ उनकी अपनी विशेषता लगती है । और भी इस प्रकार के अनेक विषय हैं, जिनका विद्वानों तथा अन्वेष्टाओं द्वारा परिशीलन एवं परीक्षण किया जाना चाहिए । श्रुतकेवली : देशीथाचार्य शाकटायन ने अपने व्याकरण के समापन का सूचन जिस शब्दावली में किया है, वह इस प्रकार है : " इति शाकटायनस्य कृतौ शब्दानुशासने शाकटायन ने यहां अपने लिए श्रुत- केवली तथा देशीयाचार्य- इन दो विशेषणों का प्रयोग किया है । ऐसा लगता है, यापनीय प्राचार्य इन विशेषरणों द्वारा इतर जैन परम्परानों से अपना पार्थक्य ज्ञापित करते थे । श्री केवल देशीयाचार्यस्य डा० उपाध्ये ने सिद्धसेन दिवाकर (वि० ५वीं शती) के सम्बन्ध में भी ऐसी कल्पना की कि बहुत सम्भव है, वे यापनीय मत के आचार्य 1 रहे हों । डा० उपाध्ये का कहना है कि इसीलिए सम्भवतः आचार्य हरिभद्र ने उन्हें श्रुत- केवली कहा हो । उमास्वाति का सम्प्रदाय तत्त्वार्थ सूत्र के रचनाकार प्राचार्य उमास्वाति को भी एक दिगम्बर- शिलालेख * में श्रुत-केवली व देशीय कहा है । उमास्वाति के सम्बन्ध में यह संभावना की जाती है कि वे शायद यापनीय मत से सम्बद्ध रहे हों । स्वर्गीय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपनी जैन साहित्य और इतिहास नामक पुस्तक में इसकी विशद चर्चा की है तथा उमास्वाति के यापनीय मत से सम्बद्ध होने के कारण भी उपस्थित किये हैं । " 1. Dr. Upadhye's Introduction to the Siddhasena Divakara's Nyaya Vatara and other works. Published by Jain Sahitya Vikasa Mandala, Bombay 1971. २. तत्त्वार्थ सूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् || 2010_05 - शिलालेख संख्या ४६, नगर ताल्लुका Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय [५८३ पं० सुखलालजी के विचार पं० सुखलालजी संघवी उमास्वाति को यापनीय नहीं मानते। उन द्वारा लिखे गये विवेचना सहित प्रकाशित तत्त्वार्थ सूत्र में 'भारतीय विद्या' शीर्षक में जो प्राक्कथन है, यहां उन्होंने इस प्रसंग की चर्चा की है, जो इस प्रकार है : "प्रेमीजी का 'भारतीय विद्या'-सिंघी स्मारक अंक में 'वाचक उमास्वाति का समाष्य तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय' नामक लेख प्रसिद्ध हुअा है । उन्होंने दीधं ऊहापोह के बाद यह बतलाया है कि वाचक उमास्वाति यापनीय संघ के प्राचार्य थे । उनकी अनेक दलीलें ऐसी हैं, जो उनके मन्तव्य को मानने के लिए आकृष्ट करती हैं । इसलिए उनके मन्तध्य की विशेष परीक्षा करने के लिए सटीक भगवती आराधना का खास परिशीलन पं० श्री दलसुख मालवणिया ने किया। उस परिशीलन के फलस्वरूप जो नोंधे उन्होंने तैयार की, उन पर उनके साथ मिलकर मैंने भी विचार किया। विचार करते समय भगवती आराधना, उसकी टीकाएं और वृहत्कल्प-भाष्य आदि ग्रन्थों का आवश्यक अवलोकन भी किया। जहां तक संभव था, इस प्रश्न पर मुक्त मन से विचार किया। आखिर में हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि वाचक उमास्वाति यापनीय न थे, वे सचेल परम्परा के थे, जैसा कि हमने परिचय में दरसाया है। हमारे अवलोकन और विचार का निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार है : १. भगवती आराधना और उसके टीकाकार अपराजित-दोनों यदि यापनीय हैं तो उनके ग्रन्थ से यापनीय संघ के आचार विषयक निम्न लक्षण फलित होते है : (क) यापनीय प्राचार का औत्सर्गिक अग अचेलत्व अर्थात् नग्नत्व है। , (ख) यापनीय संघ में मुनि की तरह आर्याओं का भी मोक्ष-लक्षी स्थान है और अवस्था-विशेष में उनके लिए भी निवसनभाव का उपदेश है। (ग) यापनीय मत में पाणितल-भोजन का विधान है और कमण्डलु-पिच्छ के सिवाय और किसी उपकरण का औत्सर्गिक विधान नहीं है । उक्त लक्षण उमास्वाति के भाष्य और प्रशमरति जैसे ग्रन्थों के वर्णन के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाते; क्योंकि उनमें स्पष्ट रूप से मुनि के वस्त्र-पात्र का वर्णन है और कहीं भी नग्नत्व का औत्सर्गिक विधान नहीं है, कमण्डलु-पिच्छ जैसे उपकरण का तो नाम भी नहीं। 2010_05 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४] आगम और विपिटक : एक अनुशीलन [खन्छ ।२ २. श्री प्रेमीजी की दलीलों में एक यह भी है कि पुण्य प्रकृति आदि विषयक उमास्वाति का मन्तव्य अपराजित की टीका में पाया जाता है। परन्तु गच्छ तथा परम्परा की त्तत्व-ज्ञान-विषयक मान्यताओं का इतिहास कहता है कि कभी-कभी एक ही परम्परा में परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाली सामान्य और छोटी मान्यताएं पाई जाती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि दो परस्पर विरोधी मानी जाने वाली परम्पराओं में भी कभी-कभी ऐसी सामान्य व छोटी-छोटी मान्यताओं का एकत्व पाया जाता है । ऐसी दशा में वस्त्रपात्र के समर्थक उमास्वाति का वस्त्र-पात्र के विरोधी यापनीय संघ की अमुक मान्य. ताओं के साथ साम्य पाया जाय तो कोई अचरज की बात नहीं।"1 বিসহ प्रस्तुत विषय पर विशेष चर्चा करना तो विषयान्तर होगा; अतः बहुत संक्षेप में कुछ संकेत किये जा रहे हैं । तत्त्वार्थ सूत्र को श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-दोनों मानते है, पर दोनों द्वारा स्वीकृत पाठ में कुछ-कुछ अन्तर है और दोनों की सूत्र-संख्या" कुछ भिन्न है । सूत्र-पाठ में अन्तर भी मुख्यत: वहां है, जहां दोनों परम्परात्रों में सैद्धान्तिक मत द्वेध है। तत्त्वार्थ सूत्र और उस पर भाष्य-इन दोनों के कर्ता श्वेताम्बरों के अनुसार एक हैं। दिगम्बर सूत्र और भाष्य को भिन्न कर्तृक मानते हैं। दिगम्बरों में तस्वार्थ सूत्र के सबसे प्राचीन व्याख्याकार प्राचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दि हैं । उनका समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से छठी शताब्दी के १. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन सहित, लेखक का वक्तव्य, पृ० १४-१५ २. दिगम्बर-परम्परा द्वारा दशों अध्यायों की स्वीकृत सूत्र-संख्या १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ३३' ५३' ३९' ४२' ४२' २७' ३९' २६' ४७' २ = कुल सूत्र-संख्या ३५७ श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा दशों अध्यायों को स्वीकृत सूत्र-संख्या ३३३३. १५. ३३ . ३६.६.६६. %Dकुल सूत्र-संख्या ३४४ ____ 201005 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] पूर्वाद्ध के मध्य भाग तक माना जाता है । आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में तस्वार्थं का जो पाठ स्वीकार किया है, वही तस्वार्थ राजवार्तिक के रचयिता आचार्य श्रकलंक (ई० ७ वीं शती) तथा तत्वार्थ- श्लोकभाति के रचयिता श्राचार्य विद्यानन्द ( ई० ७७५-६४०) ने माना है । अन्यान्य दिगम्बर श्राचार्य तथा विद्वान् उसी पाठ को लेकर चले हैं। श्वेताम्बर के माध्य का पाठ स्वीकार करते हैं । अपनी-अपनी जर खिंचra तवायं पर लिखने वाले दिगम्बर विद्वानों ने प्रायः उमास्वाति ( उमा' स्वामी) को दिगम्बर सिद्ध करने का प्रयास किया है और तस्वार्थ पर लिखने वाले श्वेताम्बर विद्वानों का उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध करने का प्रयास रहा है । पाठ-स्वीकार में भिन्नता का संभवतः यह भी एक कारण हो सकता है । शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय मूलतः तस्वार्थ के सूत्र उभय- परम्परा -परक रहे हों. पर साम्प्रदायिक आग्रह के वातावरण में वह बात स्थिर नहीं रह सकी हो। अपनी-अपनी परम्पराओं से संगत पाठ दोनों सप्रदायों ने स्वीकार कर लिए हों, अपनी परम्परानों से असंगत पाठों को परिवर्तित, परिशोधित या परिष्कृत कर लिया गया हो । यदि तत्त्वार्थ सूत्र के गहन तल में जायें तो अधिक संगत यही प्रतीत होता है कि उमास्वाति एक ऐसे श्राचार्य रहे हों, जिन्होंने अपनी कृति – तत्वार्थं द्वारा दोनों परम्पराओं का समन्वित रूप प्रस्तुत करना चाहा हो । इस प्रकार की विचारधारा रखने वाले आचार्य के यदि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध होने का अनुमान किया जाता है तो वह असंभावकता की कोटि में नहीं जाता; अतः स्वर्गीय पं० प्रेमी को कल्पना तथा डा० उपाध्ये" के एतन्मुखी चिन्तन के परिपार्श्व में विद्वानों तथा १. सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना, पृ० ८८ २.. 3. [ ५८५ दिगम्बरों में इस नाम का भी प्रचलन है । The Sutras and Bhasya show some clear-cut differences with the Ardhamagadhi canon and Pujyapada is not very happy with the text of the Sutras in Onany places. That late Pt. Premi has given some valid reasons why Umasvati must have belonged to the Yapaniya Sangha......... —Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, vol. LV, Poona 1974, P. 20. 2010_05 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] मागम और बिपिटक : एक मनुशीलन अन्वेष्टाओं द्वारा और अधिक सूक्ष्मतापूर्वक गवेषणा हो, यह वांछनीय है। सेवान्तिक : ऋविध : दी और उपाधियाँ श्रु तकेवली एवं देशीयाचार्य के अतिरिक्त यापनीय प्राचार्यों द्वारा अपने लिए प्रयुक्त 'विध' एवं 'सैद्धान्तिक'—ये उपाधियां और दृष्टिगत होती हैं। डा० उपाध्ये ने इस सम्बन्ध में संकेत किया है कि इन उपाधियों द्वारा उनका भाव अपने षट्खण्डागम आदि के अध्ययन का आशय व्यक्त करना रहा हो ।' সাহায্য यापनीय संघ भारत में खूब फला,फूला, फैला । उसके तत्त्वावधान में साहित्य-सर्जन का विराट कार्य हुअा । शताब्दियों तक यापनीयों का भारत में प्रतिष्ठापन्न स्थान रहा । पर, पाश्चर्य इतना प्रसृत, प्रतिष्ठित और समारत सम्प्रदाय समय पाकर नामशेष हो गया । न आज कहीं उमके श्रमण हैं और न कहीं उस संघ का ही नामोनिशान है। इसके अनेक कारण रहे होंगे । हो सकता है, यापनीय जिस उत्कट धर्म-भावना, तितिक्षा आदि से प्रेरित हो कार्य-रत थे, अपने अभियान की अप्रत्याशित सफलता के बाद वह सब कम होता गया हो । भक्तिवश राजाओं तथा समृद्ध भक्तजनों द्वारा उपहृत जागीरों एवं सम्पत्ति का शायद अतिरेक हो गया हो, जिससे यापनीय साधुनों की कार्योन्मुखता व रुझान ने अपनी दिशा कुछ बदल ली हो। त्याग, वैराग्य, ज्ञान एवं उपासना के स्थान पर सुविधा-प्रधान जीवन हो गया हो । फलतः लोगों में उनके प्रति रही श्रद्धा न्यून और न्यूनतर होती गई हो । ऐसी स्थिति में अनुकूल अवसर पाकर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों ने उच्छिन्न करने की ठान ली हो; क्योंकि अनेक बातों के साम्य के बावजूद अन्तत: वे (यामनीय) दोनों परम्पराओं के प्रतिगामी तो थे ही। इस प्रकार की अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं। वस्तुतः यह इतिहास का विषय है। इतिहास के अध्येता एवं अनुशीलक इस पर गम्भीरता से चिन्तन एवं शोध करें, यह वांछित है । 1. Titles like Saiddhantika, Traibi iya used by some Yapaniya Acharyas indicate their studies of Satkhandagama etc. This point needs further investigation. --Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, vol. LV.Poona 1974, P. 21. ____ 2010_05 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ५८७ दक्षिण में यापनीयों के कभी अनेक मन्दिर थे, जो उपर्युक्त संक्रान्ति-काल में दिगम्बर मन्दिरों में इस प्रकार विलीन हो गये कि आज उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता, जिनके सम्बन्ध में रूढ़ परम्परा - ग्रस्त दिगम्बर विद्वान् कहते थे कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित मूर्तियों की पूजा ही नहीं करनी चाहिए । जगत का इतिहास कुछ ऐसा ही है, समय, परिस्थिति, मामस, अध्यवसाय को करवटें कब किधर का मोड़ लें और क्या से क्या हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता । उपसंहार श्वेताम्बर - दिगम्बर श्वेताम्बर - आगमों के सर्वतोमुखी परिशीलन के सम्दर्भ में हमने के रूप में जैन संघ के विभाजन की चर्चा की। उसके प्रतिक्रिया स्वरूप प्रादुर्भूत यापनीय संघ की भी चर्चा की । यद्यपि चर्चा कुछ विस्तृत हो गई है, पर हमारा विचार है कि आगम - वाङ् मय के अस्तित्व, स्वरूप, ह्रास, आकलन, परिरक्षरण, उसके विश्लेषरण - विवेचन में प्रणीत साहित्य, उसके आधार पर सृष्ट मानस, परिगठित एवं प्रवृत्त धार्मिक अभियान आदि के सम्बन्ध में भी समीक्षात्मक दृष्टिकोण से जानना कम आवश्यक नहीं है । आगम तथा शास्त्र जीवन के लिए हैं । उनके सहारे लोक-जीवन कब, कैसा मोड़ लेता है, यह जहां सामाजिक इतिवृत्त का एक महत्वपूर्ण पहलू है, वहां आगम व शास्त्र - गर्भित विचार-: दर्शन की लोक-जीवन में सफल-विफल क्रियान्वित के इतिहास का एक ज्वलन्त पृष्ठ भी है, जो अनदेखा नहीं रहना चाहिए । अंग-वाङमय: विच्छेद : कुछ तथ्य दिगम्बर- मत के अनुसार द्वादशांग वाङ् मय के विच्छेद-क्रम तथा अन्ततः वीर निर्वाण : सं० ६८३ में उसके सर्वथा विच्छेद श्रादि के विषय में पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग उल्लेख किया जा चुका है । यहां उस सम्बन्ध में कुछ और तथ्य उपस्थित किये जा रहे हैं । श्वेताम्बरों द्वारा भी स्वीकार बारहवें अंग दृष्टिवाद के विच्छेद के सम्बन्ध में श्वेताम्बर भी सहमत हैं ही । देवगिणी क्षमाश्रमरण के बाद धारक को दृष्टि से पूर्व ज्ञान का अस्तित्व समाप्त हो गया । तित्थोगालीपन्ना प्रभृति ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में उल्लेख ' है । १. बोलीणम्मि सहस्से, बरिसाण वीरमोक्खगमणाओ । उत्तरबायगवसभे, पुव्वगयस्स भवे छेदो ॥ 2010_05 - तित्थोगाली पन्ना, गाथा ८०५ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [२ अवशिष्ट ग्यारह अंगों के सन्दर्भ में दिगम्बरों की तरह सर्वथा तो नहीं, पर ( ग्यारह अंग ) उत्तरोत्तर क्रमश: विच्छिन्न एवं हसित होते जायेंगे, ऐसा श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं । तित्थोगालीपना में इस सम्बन्ध में जो वर्णन है, वह इस प्रकार है: "दिन्नगरिणपुष्यमित्र के देहावसान के साथ वीर निर्वाण सं० १२५० में व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र का म्युच्छेद हो जायेगा । "1 तित्थोगालीपलाकार व्याख्या प्रज्ञप्ति के अन्तिम सम्पूर्ण वैत्ता पुष्यमित्र की विशेषता की चर्चा करते हुए लिखते हैं : "श्रमणोचित गुणों में निष्लात, आत्मबल सम्पन्न पुष्यमित्र अन्तिम व्याख्या प्रज्ञप्तिधर होंगे । चौबीस हजार पदों से युक्त, गुणनिष्पन्न व्याख्या - प्रज्ञप्ति सूत्र रूप वृक्ष के व्युच्छिन्न हो जाने पर लोग सहसा उनकी विशेषताओं के फलों से वंचित हो जायेंगे ।" " वीर-निर्वाण के १३०० वर्ष पश्चात् माढर गोत्रोत्पन्न संभूति नामक यति (साधु) के के मरण के साथ समवायांग का व्यवच्छेद हो जायेगा । वीर निर्वारण के १३५० वर्ष पश्चात् आर्जव नामक मुनि के दिवंगमन के साथ स्थानांग सूत्र का ध्युच्छेद हो जायेगा, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् का निर्देश है ।' 11'8 १. पण्णासा वरिसेहि, य बारसबरिससएहि वोच्छेदो । दिण्णगणि पूसमिल, सविवाहाणं छलं माणं ॥ २. तामेण पूसमित्तो, समणो समणगुणनिउणचित्तो । होही अपच्छिमो किर, विवाहसुयधारको वीरो । तंमिय विवाहरुक्खे, चुलसीति पयसहस्सगुणकिलिओ । सहसं च्चिय संभंतो, होही गुणनिष्फलो लोगो ॥ ३. समवाय ववच्छेदो, तेरसहि सतेहिं होहि वासाणं । माढरगोत्तस्स इहं, संभूतिजतिस्स मरणंमि ॥ तेरसवरिससहि, पण्णासा समहिएहिं वोच्छेदो । अज्जव तिस्स मरणे, ठाणस्स जिरोहि निद्दिट्ठो ॥ 2010_05 - तित्थोगालीपन्ना, गा० ८०७ - वही, गा० ८०८-९ - वहीं, गा० ६१००८११ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय ५२ "वीर-निर्वाण सं० १५०० में गौतम गोत्रोत्पन्न, आत्म-बल के महान् धनी श्रमण फल्गुमित्र के स्वर्गवास के साथ वशाब तस्कन्ध विच्छिन्न हो जायेगा, ऐसा कहा गया है।" "वीर-निर्वाण सं० १९०० में भारद्वाज गोत्रोत्पन्न महाश्रमण नामक मुनि के पश्चात् सूत्रकृतांग का व्युच्छेद हो जायेगा।"" "वीर-निर्वाण सं० २००० में हारीत गोत्रोत्पन्न विष्णु नामक मुनि के मरणोपरान्त आचारांग का व्युच्छेद हो जायेगा।" "तदनन्तर दुःषमा संज्ञक इस पांचवें आरे के शेष काल अर्थात् उसके समाप्त होने में थोड़ा-सा समय बाकी रहने पर दुःप्रेसह नामक श्रमण होंगे । वे क्षमा, तप आदि गुणों से शोभित होंगे। भारतवर्ष में वे मन्तिम आचारांगधर होंगे। उनके देहावसान के साथ आचारांग सूत्र और चारित्र निःशेष हो जायेंगे-मूलतः उच्छिन्न हो जायेंगे । ----- --- १. मणिबो बसाण छेदो, पनरससएहि होइ वरिसाणं । समणम्मि फग्गुमित, गोयमगोत महासत्ते ॥ -तित्थोगालीपन्ना, गा० ८१३ २. भारहायसगुत, सूयगडंग महासमण नामे । अगुणम्वीससतेहि, जाही वरिसाण वोच्छित्ति ॥ -वही, गा० ८१४ ३. विण्तुमुणिम्मि मरते, हारित गोत्तम्मि होति वीसाए। बरिसाण सहस्सेहि, आपारंगस्स वोच्छेदो ॥ -वही, गा० ८१६ ४. (क) अह दुसमाए सेसे, होही नामेण दुप्पसह समणो । भणगारो गुणगारो, खमागारो तवागारो॥ सो किर आयारधरो, अपच्छिमो होहीति भरहवासे । तेण समं आयारो, निस्सीही समं चरित्तण ॥ -वही, गा० ८१७-१८ () तित्थोगालीपाइन्ना की ८१६वीं तथा ८१७वीं गाथा में आचारांग के विच्छिन्न होने के सन्दर्भ में जो कहा गया है, उसका आशय यों समझा जाना चाहिए कि वीरनिर्वाण सं० २०००० में हारीतमोतीय विष्णु मुनि के स्वर्गवास के साथ भाचाररांग अंशतः - विक्छिन होगा तथा वीर-निर्वाण सं० २१००० में श्रमण प्रसह के बेहावसान के साथ वह सर्वथा उच्छिन्न हो जायेगा। ____ 2010_05 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । ऐसा माना जाता है कि यह घटना वीर-निर्वाण सं० २१००० के आस-पास घटित होगी। ऐसा भी कहा जाता है कि जिस दिन पंचप आरे की समाप्ति होगी, उसके पहले प्रहर में आचार्य दुःप्रसह दिवंगत हो जायेंगे । उनके दिवंगमन के साथ ही आचारांग भी पूर्णतः विच्छिन्न हो जायेगा। यों आगम-विच्छेद की अन्तिम कड़ी तक पहुंच पइण्णाकार उसका फलित स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : “वास्तव में आचारांग ही वह साधन है, जो श्रमणों को चारित्र-धर्म का यथावत् बोध कराता है। आशारोग का प्रणाश हो जाने पर सब प्रोर अनाचार व्याप्त हो जायेगा। सर्वत्र अज्ञान-तमिस्रा का साम्राज्य फैल जायेगा । तब श्रमणों का अस्तित्व भी नहीं रह पायेगा।"1 तिस्थोगालीपइन्ना में विच्छेद-क्रम के बीच बचे रहने वाले प्रागम-वाड़ मय के सम्बन्ध में इतना और लिखा है : “वीर-निर्वाण के पश्चात् २१००० वर्ष तक यहां भारतवर्ष में वशवकालिक अर्थ रूप में विद्यमान रहेगा । दुःप्रसह मुनि के स्वर्गारोहण के साथ वह विनष्ट होगा। इसी प्रकार वीर-निर्वाण से २१००० वर्ष तक, जब तक तीर्थ-जैन परम्परा विद्यमान रहेगी, आवश्यक सूत्र भी अव्युच्छिन्न रहेगा।" १. अशओमच्छिण्णायारो, अह समणगणस्स बाबियायारो। आयारम्मि पण?, होहीति तइया अणायारो॥ चंकमिरं वरतरं तिमिस गुहाए तमंधकाराए। म य तइया समणाणं, आयार-सुते पणमि ॥ - -तित्थोगालोपइन्ला, गा० ८१९-२० २. वासाण सहस्सेण य, इकबीसाए इहं भरहवासे । बसवेयालिय अत्यो, दुप्पसहजइंमि वासिहिति ॥ ५० ॥ इगवीससहस्साई, वासाणं वीरमोक्खगमणाओ। भन्योच्छिन्नं होही, मावस्सगं जाव तित्य तु ॥५१॥ -तित्वोगालीपइन्ना 2010_05 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय । ५९५ अभिप्राय तित्थोगालीपइन्ना में दिये गये वर्णन से यह सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर आचार्य भी आगमों के विच्छेद-क्रम से असहमत नहीं रहे हैं । अन्तर केवल इतना है, दिगम्बर आचार्यों ने प्रागमों को जहां सर्वथा विच्छिन्न एवं विलुप्त मान लिया, वहां श्वेताम्बर उनका आंशिक विलय तथा प्रांशिक अस्तित्व स्वीकार करते रहे । आज श्वेताम्बर एकादशांगी का जो, जितना कलेवर प्राप्त है, समग्र सामग्री का बहुत थोड़ा-सा अंश है। विज्ञ पाठकों को इसका यथावत् परिचय हो सके, एतदर्थ आगमगत सामग्री का समग्र परिमारण तथा उपलब्ध अश का तुलनात्मक उल्लेख किया जा रहा है । आगम: सम्पूशा : ४पलब्ध १. आचारांग की मूल पद-संख्या १८००० मानी जाती है। आज जितना अंश प्राप्त है, उसका कलेवर २५०० श्लोक-प्रमाण है। पहले उल्लेख हुआ ही है, आचारांग का महापरिज्ञा संज्ञक सप्तम अध्ययन अनुपलब्ध है। २. सूत्रकृतांग की मूल पद-संख्या ३६००० थी, ऐसा विश्वास किया जाता है । आज २१०० श्लोक-प्रमाण पाठ प्राप्त है। ३. स्थानांग की पद-संख्या ७२००० थी, ऐसी मान्यता है । इस समय उसमें ३७७० श्लोक-प्रमाण सामग्री उपलब्ध है। ४. समवायांग में मूल पद-संख्या १,४४००० थी, ऐसा अभिमत है। इस समय इसका कलेवर १६६७ श्लोक-प्रमाण है। ५. व्याख्या-प्रज्ञप्ति की पद-संख्या के विषय में दो प्रकार की मान्यताएं हैं। नन्दीसूत्र के अनुसार उसमें २,८८,००० तथा समवायांग के अनुसार ८४,००० पद थे। पर वर्तमान में १५७५२ पद प्राप्त हैं। यह अंग १०१ शतकों में विभक्त था, जिनमें से आज केवल ४१ शतकं उपलब्ध हैं। ६. मातृधर्मकथा में समवायांग सूत्र तथा नन्वी सूत्र के अनुसार संख्यात सहस्र पद माने जाते हैं, पर इन दोनों की वृत्तियों में उसकी पद-संख्या ५,७६,००० उल्लिखित की गई है । इस समय इसका कलेवर ५,५०० श्लोक-प्रमाण है । इसके अनेक कथानक काल-क्रम से लुप्त हो गये। ____ 2010_05 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "५५२ ] और एक अनुशीलन वय : २ ७. उपासकदशा की पद संख्या समवायांग सुत्र और नन्दी सूत्र के अनुसार संख्यात सहस्र मानी जाती है, पर इन दोनों की वृत्तियों में उसकी पद संख्या ११,५२,००० उल्लिखित की गई है । इस समय इसका कलेवर ८१२ श्लोक- प्रमाण है । ८. अंतकृद्दशा में संख्यात सहस्र पद माने जाते हैं, पर समवायांग सूत्र एवं नन्दी सूत्र की वृत्ति में इसके २३,०४,००० पद होने का उल्लेख किया गया है। वर्तमान में इसमें ९०० श्लोक - प्रमाण सामग्री उपलब्ध है । ९. अनुत्तरौपपातिक दशा की पद संख्या संख्यात सहस्र मानी जाती है। समवायांगसूत्र तथा नन्दी सूत्र की वृत्ति के अनुसार वह ४६,०८,००० है । वर्तमान में उसका केवल १९२ श्लोक- प्रमारण कलेवर प्राप्त है । १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र में संख्यात सहस्र पद माने गये हैं । समवायांग सूत्र तथा नन्दी सूत्र की वृत्ति में इसके पदों की संख्या ९२,१६,००० बतलाई गई है। वर्तमान में इसमें १३०० श्लोक - प्रमाण सामग्री है । जैसा कि पहले उल्लेख किया ही गया है, नन्दी सूत्र में प्रश्नव्याकरण सूत्र का जो स्वरूप बतलाया गया है, वर्तमान में प्राप्त प्रश्नव्याकरण सूत्र का स्वरूप उससे सर्वथा भिन्न है । ११. विपाक सूत्र की पद संख्या संख्यात सहस्र मानी जाती है । समवायांग सून एवं मम्बी सूत्र की वृत्ति के अनुसार इसकी पद संख्या १,८४,३२००० है । इस समय यह १२१६ श्लोक - प्रमाण रूप में उपलब्ध है । तिलीयपययाति : एक विशेष संकेत दिगम्बर- परम्परा में यह स्पष्ट मान्यता है कि वीर - निर्वाण सं० ६८३ में द्वादशांगी का विच्छेद हो गया । तिलोयपणत्ति में गाथा १४८२ से १४९२ तक श्रुत- विच्छेद क्रम चर्चित हुआ है, जिसका पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग विवेचन किया गया है। यह सब लिखने के भावजूद यति वृषभ एक बात और कहते हैं : "धर्म-प्रवर्तन के हेतु श्रुत-तीर्थं (चाहे प्रशिक रूप में ही सही) वीर - निर्वारण के २०३१७ वर्षं (जो दुःषमा की समाप्ति से कुछ पहले का समय है) तक संप्रवृत्त रहेगा । तदनुसार वह काल-दोष से व्युच्छिन्न हो जायेगा ।"1 १. बीससहस्सं तिसदा, सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं । धम्मपयट्टणहेत, मोतिवि 2010_05 कालवोसेणं ।। १४९३ ॥ -तिलोयपम्पत्ति Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाडमय । ५९३ महापुराण में इस तथ्य को और स्पष्ट किया गया है। वहां कहा गया है : "यद्यपि तपः शील श्रुत-ज्ञानियों की परम्परा मिट जायेगी, पर फिर भी आचार्य वीरसेन तथा तदनुगामी जिनसेन प्रभृति श्रत-वैभव के धनी, तपस्वी श्रमणों द्वारा श्रु त के एक देशप्रश का दुःषमा की समाप्ति से पूर्व तक संवर्तन रहेगा।" ऐसे उल्लेखों के बावजूद दिगम्बर-परम्परा में अंग-साहित्य के सम्पूर्ण विच्छेद की बात बड़ी बढ़ता और स्पष्टता से कही जाती है । यह समीक्षणीय है । বিশ্বব-ববশন # জল-সানি, অলাখ जिस प्रकार श्वेताम्बर आगम-वाङमय अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य के रूप में दो भेदों में विभक्त हैं, दिगम्बर-परम्परा में भी इन्हीं दो भेदों में उसका विभाजन है। दोनों परम्परात्रों द्वारा स्वीकृत नामों में भी काफी सादृश्य है । ঘৰশান্ধা ঋা বিএন पखण्डागम के धवला-टीकाकर प्राचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में अंग-बाह्य तथा अंग-प्रविष्ट के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख किया है : "अर्थाधिकार दो प्रकार का है१. अंग-बाह्य, २. अंग-प्रविष्ट । उनमें अंग-बाह्य के चवदह अर्थाधिकार है : १. सामायिक, २. भंग चतुर्विशति-स्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृति-कर्म, ७. दशवकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्प-व्यवहार, १०. कल्प्याकल्प्य, ११. महाकल्प्य, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निषिद्धिका ।" १. श्रुत तपोभृतामेषां प्रणेश्यति परंपरा । शेषैरपि भुत-ज्ञानस्यैको देशस्तपोधनः ॥ ५२७ ॥ जिनसेनानुगर्वीरसेनः प्रातमहबिभिः । समाप्ते दुःषमायाःप्राक्, प्रायशो वर्तयिष्यते ॥ ५२८ ॥ –महापुराण (उत्तर पुराण, पर्व १) २. अस्थाहियारो बुषिहो, अंगबाहिरो अंग-पइट्ठो चेवि । तत्थ अंगबाहिरस्स चोइस अत्या हियारा। तं जहा-१. सामाइयं, २. चउवीसत्थओ, ३. वंक्षणा, ४. पडिक्कमणं, ५. बेणइयं, ६. किरियम्म, ७. बसवेयालियं, ८. उत्तरायणं, ९. कप्पयवहारो, १०. कप्पाकप्पियं, ११. महाकप्पियं, १२. पुंडरीयं, १३. महापुंडरीयं, १४. णिसिहिय चेदि। -पदमागम, प , भाग १, पुस्तक १, पृ० १६ ____ 2010_05 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:२ अंग-प्रविष्ट के सम्बन्ध में आचार्य वीरसेन ने निम्नांकित रूप में उल्लेख किया है: "अंग-प्रविष्ट के अर्थाधिकार बारह प्रकार के हैं-१. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपासकाध्ययन, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरोपपातिक दशा, १०. प्रश्न-ध्याकरण, ११. विपाक सूत्र, तथा १२. दृष्टिवाद । इनमें से आचारांग अठारह हजार पदों के द्वारा—किस प्रकार चलना चाहिए ? किस प्रकार बैठना चाहिए ? किस प्रकार शयन करना चाहिए ? किस प्रकार भोजन करना चाहिए ? किस प्रकार संभाषण करना चाहिए और किस प्रकार पाप-कर्म नहीं बन्धता है ? (इस तरह गणधर के प्रश्नों के अनुसार) यत्न से चलना चाहिए, यत्नपूर्वक खड़े रहना चाहिए, यत्न से बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक शयन करना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए, यत्न से संभाषण करना चाहिए । इस प्रकार आचरण करने से पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता है ॥ ७०-७१ ॥ इत्यादि रूप से मुनियों के प्राचार का वर्णन करता है। सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पदों के द्वारा ज्ञान, विनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार-धर्म-क्रिया का प्ररूपण करता है तथा यह स्व-समय और पर-समय का भी निरूपण करता है । स्थानांग बयालीस हजार पदों के द्वारा एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। उसका उदाहरण-महात्मा अर्थात् यह जीव-द्रव्य निरन्तर चैतन्यरूप धर्म से उपयुक्त होने के कारण उसकी अपेक्षा एक ही है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है। कर्म-फल-चेतना, कर्म-चेतना और ज्ञान-चेतना से लक्ष्यमान होने के कारण तीन भेद रूप है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के भेद से तीन भेद रूप है । चार गतियों में परिभ्रमण करने की अपेक्षा से इसके चार भेद हैं । प्रौदयिक आदि पांच प्रधान गुणों से युक्त होने के कारण इसके पांच भेद हैं। भवान्तर में संक्रमण के समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे-इस तरह छः संक्रमलक्षण अपक्रमों से युक्त होने की अपेक्षा से छः प्रकार का है । अस्ति, नास्ति इत्यादि सात भंगों से युक्त होने की अपेक्षा से सात प्रकार का है। ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों के आस्रव से युक्त होने की अपेक्षा से आठ प्रकार का है। अथवा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों तथा आठ गुणों का आश्रय होने की अपेक्षा से आठ प्रकार का है। जीवादि नौ पदार्थों को विषय करने वाला अथवा जीवादि नौ प्रकार के पदार्थ-रूप परिणमन करने वाला होने की अपेक्षा से नौ प्रकार का है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, बायुका यिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण-वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय-जाति, त्रीन्द्रिय 2010_05 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ५९५ जाति, चतुरिन्द्रिय-जाति और पंचेन्द्रिय-जाति के भेद से दश स्थानगत होने की अपेक्षा से दश प्रकार का कहा गया है ।। ७२-७३ ।। समवाय नाम का अंग एक लाख चौंसठ हजार पदों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है अर्थात् सादृश्य - सामान्य से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है । वह समवाय चार प्रकार का है - द्रव्य - समवाय, क्षेत्र - समवाय, काल - समवाय और भाव- समवाय । उनमें से द्रव्य - समवाय की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं । क्षेत्र - समवाय की अपेक्षा से प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नामक इन्दुक विमान और सिद्ध क्षेत्र समान हैं । काल की अपेक्षा से एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है । भात्र की अपेक्षा से केवल - ज्ञान केवल दर्शन के समान ज्ञेय-प्रमाण है, क्योंकि ज्ञान- प्रमाण ही चेतना - शक्ति की उपलब्धि होती है । व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का अंग दो लाख अट्ठाईस हजार पदों द्वारा — क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादिक रूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है । नाथधर्मकथा अथवा ज्ञातृधर्मकथा नाम का अंग पांच लाख छप्पन हजार पदों द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय की प्रस्थापना हो- एतदर्थं तीर्थंकरों की धर्म देशना का, सन्देह - प्राप्त गणधरदेव के सन्देह दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथाओं व उपकथाओं का वर्णन करता है । उपासकाध्ययन नामक अंग ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भ - विरत, परिग्रह - विरत, अनुमति - विरत और उद्दिष्ट - विरत — इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रत धारण करने की विधि और उनके आचररण का वर्णन करता है । अन्तकृद्दशा नामक अंग तेबीस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशयविशेष प्राप्त कर निर्धारण को प्राप्त हुए दश दश अन्तकृत् केवलियों का वर्णन करता है । तत्वार्थ भाष्य में भी कहा है : "जिन्होंने संसार का अन्त किया, उन्हें अन्तकृत् केवली कहते हैं । वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, बलीक, किष्किविल, पालम्ब, अष्टपुत्र – ये दश अन्तकृत् केवली हुए हैं। इसी प्रकार 2010_05 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ ] भागम और fafeक : एक अनुशीलन [ । ऋषभदेव आदि तेबीस तीर्थंकरों के तीर्थ में दूसरे दश-दश अनगार दारुण उपसर्गों को जीतकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत् केवली हुए। इन सबकी दशा का जिनमें वर्णन किया जाता है, उसे अन्तकृद्दशा नामक अंग कहते हैं।" अनुत्तरोपपाविकदशा नामक अंग बानवे लाख चवालीस हजार पदों द्वारा एक-एक तीर्य में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय-विशेष प्राप्त कर अनुत्तर-विमानों में गये हुए दश-दश अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन करता है । तत्वार्थ-भाष्य में भी कहा है : "उपपाद-जन्म ही जिनका प्रयोजन है, उन्हें प्रौपपादिक कहते हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थ सिद्धि—ये पांच अनुत्तर-विमान हैं, जो अनुत्तरों में उपपाद-जन्म में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुत्तरोपपादिक कहते हैं । ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, बारिषेण और चिलातपुत्र-ये दश अनुतरीदपादिक वर्द्धमान तीर्थकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी तरह ऋषभदेव आदि तेबीस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दश-दश महान् साधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजयादिक पांच अनुत्तरों में उत्पन्न हुए। इस तरह अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले दश साधुओं का जिसमें वर्णन किया जाय, उसे अनुत्तरोपपाविकदशा नामक अंग कहा जाता है। प्रश्न-ज्याकरण नामक अंग तिरानवे लाख सोलह हजार पदों द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी-इन चतुर्विध कथाओं तथा (भूत, भविष्य व वर्तमान काल संबंधी धन, धान्य, लाभ, अलाभ, जीवित, मरण, जय एवं पराजय सम्बन्धी प्रश्नों के पूछने पर, उनके) उपाय का वर्णन करता है। जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों के तथा दूसरे समयों की निराकरण पूर्वक शुद्धि कर छः द्रव्यों तथा नव पदार्थों का प्ररूपण करती है, वह आक्षेपणी कथा कही जाती है। जिसमें पहले पर-समय के द्वारा स्व-समय में दोष बतलाये जाते हैं, तदनन्तर पर समय की आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन कर स्व-समय की स्थापना की जाती है तथा छः द्रव्यों व नव पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है, उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं । पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहा जाता है। शंका-पुण्य के फल कौन से हैं ? समाधान-तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की खियां पुण्य के फल हैं । 2010_05 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा और साहित्य] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निवेदनी कथा कहते हैं। शंका–पाप के फल कौन से हैं ? समाधान-नरक, तिथंच तथा कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, ध्याधि, वेदना एवं दारिद्रन आदि प्राप्त होना पाप के फल हैं। अथवा संसार, शरीर तथा भोगों में वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा निवेदनी कथा कही जाती है । कहा भी है : तत्वों का निरूपण करने वाली प्राक्षेपणी कथा है । यथार्थ तत्व से भिन्न दिशा को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन कर अर्थात् पर-समय की ऐकान्तिक दृष्टियों का शोधन कर स्व-समय की स्थापना करने वाली विक्षेपणी कथा है। विस्तार से थर्म का फल-वर्णन करने वाली संवेगिनी कथा है। वैराग्य उत्पन्न करने वाली निवेगिनी कथा है। इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय, जो जिन-वचन को नहीं जानता-जिसका जिन-वचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए; क्योंकि जिसने स्व-समय के रहस्य को नहीं जाना है, पर-समय का प्रतिपादन करने वाली कथानों के सुनने से व्याकुल-चित्त होकर वह कहीं मिथ्यात्व स्वीकार न कर ले-एतदर्थ स्वसमय का रहस्य नहीं जानने वाले पुरुष को विक्षेपणी कथा उपदेश न देकर शेष तीन कथानों का उपदेश देना चाहिए । उत्त तीन कथानों द्वारा जिसने स्व-समय को भली-भांति समझ लिया है, जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिन-शासन में जिसकी अस्थि और मज्जा तक अनुरक्त है, जिन-वन्दन में जिसके किसी प्रकार की विचिकत्सा-शंकासन्देह नहीं है जो भोगानुरक्ति से विरक्त है, जो तप, शील एवं नियमों से युक्त है, इस प्रकार के पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश करना चाहिए । यो प्ररूपणा करने वाले के लिए और प्रज्ञापित होने वाले के लिए यह अकथा कथा हो जाती है । अतः पुरुष को देख कर ही श्रमण को कथा का उपदेश करना चाहिए। यह प्रश्न-व्याकरण नामक अंग प्रश्नानुरूप हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु तथा संख्या का भी प्ररूपण करता है। विपाक सूत्र नामक अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदों के द्वारा पुण्य तथा पाप-रूप कर्मों के फलों का वर्णन करता है। ग्यारह अंगों के कुल पदों की जोड़ चार करोड़ पन्द्रह 2010_05 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । । २ ५९८] आगम और विपिटक : एक अनुशीलन लाख दो हजार पद है।"1 १. अंगपविट्ठस्स अत्याधियारो बारस बिहो। तंजहा-आयारो, सूवपदं, ठाणं, समवायो, वियाहपप्णत्ती, णाहधम्मकहा, उवासयज्झयणं, अंतयउदसा, अनुसरोववादियदसा, पण्हावापरणं, विवागसुत्त, दिट्टिवादो चेदि । एस्थायारंग मट्ठारह-पद-सहस्से हि १८००० कधं चरे कधं चिट्ठ कधभासे कधं सए। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं णा बज्झई ॥ ७० ॥ जदं चरे जदं चिढे जदभासे जदं सए। जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्मई ॥ ७१ ॥ एवमादियं मुणोणयायारं वण्णेदि । सुदयदं णाम अंग छत्तीस-पद ००० जाणविणय-पण्णावणा-कप्पाकप्प. च्छेदो-वट्ठावण-ववहारधम्मकिरियाओ परवेइ ससमय-परसमय-सरूवं च पहवेइ। ठाण णाम अंगं बायालीस-पद-सहस्सेहिं ४२००० एगादि-एगुत्तर-ट्ठाणाणि वरगेदि । तस्सोदाहरणं एक्को चेव महप्पो सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ । चदु-संकमणा-जुत्तो पंचग्ग-गुण-प्पहाणो य ॥ ७२ ॥ छक्कावक्कम-जुत्तो कमसो सो सत्त-भंगि-सब्मावो। अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दस-ठाणियो भणियो ॥ ७३ ॥ समवायो णाम अंगं चउसट्टि-सहरसभहिय-एग-लवख-पदेहि १६४००० रूब्वपयत्थाणं समवायं वण्रणेदि । सो वि समबायो चउ'व्यहो, दव-खेत्त-काल-भाव समवायो चेदि । तत्थ दव्व-समवायो धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-लोगागास-एगजीवपदेसा च समा। खेत्तदो सीमंतणिरय-माणुसखेत्त-उडुविमाण-सिद्धिखेत्तं च समा। कालदो समयो समएण मुहुत्तो मुहुत्ते ण समो। भावदो केवलणाणं केवलदंसपेण समं पेयप्पमाणं णाणमेत्तचेयणोव-लंभादो। ___ वियाहपण्णत्ती णाम अंगं दोहि लक्खेहि अट्ठावीस-सहस्सेहि पदेहि २२८००० किमथि जीवो, कि पत्थि जीवो, इच्चेवमाइयाई सहि-वायरण-सहस्साणि परूवेदि । णाहधम्मकहा णाम अंगं पंच-लक्ख-छप्पण्ण-सहस्स पदेहि ५५६००० सुत्तपोरिसीसु तित्थयराणं धम्मदेसणं गणहरदेवस्स जाद-संसयस्स संदेह-छिदण-विहाणं, बहुविहकहाओ उवकहाओ च वण्णेदि । 2010_05 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेमी प्राकृत और उसका वाङमय [५९९ सत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि वृत्ति में प्राचार्य पूज्यपाद ने भी अग-बाह्य तथा अंग उवासयज्झयणं णाम अंग एक्कारस-लक्ख-ससरि-सहस्स-पदेहि ११७०००। वंसण-बद-सामाइय-पोसह-सच्चित्त-राहभत्ते य । बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ट-देसविरदी य ॥ ७४ ।। इदि एक्कारसविह-उवासगाणं लक्खणं तेसिं चेव वदरोवणविहाणं तेसिमाचरण च वम्णेवि। अंतयडदसा णाम अंगं तेबीस-लक्ख-अट्ठाबीस-सहस्सपदेहि २३२८००० एक्केक्कम्हि य तित्थे दारणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं लळूण णिव्वाणं गदे बस दस वष्णेदि । उक्तं च तत्त्वार्थ भाष्ये संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्तकृतः नमिमतङ्ग-सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलोकवलीक-किष्किविल-पालम्बाष्टपुवा इति एते दश वर्द्धमान-तीर्थकर-तीर्थे । एवमृषभादोनां योविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये, एवं दश दशानगारा दारुणानुपसर्गाग्निजित्य कृत्स्नकर्मसयादन्तकृतो दशास्यां वर्ण्यन्त इति अन्तकृद्दशा ।अणुत्तरोववादियदसा णाम अंगं वाणउदि-लक्ख-चोपाल-सहस्स पदेहि ९२४४००० एको कम्हि य तित्थे दारुणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं लद्ध ण अगुत्तर-विमाणं गदे दस दस वण्णेवि । उक्तंच तत्त्वार्थ भाष्ये उपपादो जन्म प्रयोजनमेषां त इमे औपपादिकाः, विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पंचानुत्तराणि । अनुत्तरेष्वौपपादिका अनुत्तरौपपादिकाः, ऋषिदासधन्य-सुनक्षत्र-कार्तिकेयानन्द-नन्दन-शालिभद्राभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश बर्द्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभावीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये एवं दश दशानगारा वारुणानुपसर्गानिजित्य विजयाद्यनुत्तरेधूत्पन्ना इत्येवमनुत्तरौपपादिका दशास्यां वर्ण्यन्त इत्युनुत्तरोपपादिकदशा। पण्हावायरणं णाम अंगं तेणउदि-लक्ख-सोलह-सहस्स पदेहि ९३१६००० अक्खेवणी णिक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी चेदि चउविहाओ कहाओ वण्णेदि । तत्थ अक्खेवणी णाम छ-दृश्य-णव-पयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धि करेंती परूवेदि । विक्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतर-सुद्धि करेंती परूवेदि । विश्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतर-सुद्धि करेंती परूवेदि । स-समयं थावतो छ-दृश्व-णव-पयत्थे परुवेदि । संवेयणी णाम पुण्ण-फल-संकहा । काणि 2010_05 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९.1 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्रविष्ट की चर्चा की है। पुण-फलाणि ? तित्थयर-गणहर-रिसि चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ। णिवेयणी णाम पाद-फल-संकहा । काणि पाव-फलाणि ? णिरय-तिरिय-कुमाणुसजोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-वेट णा-द्रालि हादीणि । संसार सरीर-भोगेसु वेरगुपाइणी णिवेयणी णाम । उक्त च माक्षेपणी तत्त्वविधानभूतां, विक्षेपणी तत्त्वविगन्तशुद्धिम् । संवेगिनों धर्मफलप्रपंचां निगिनी चाह का विरागाम् ॥ ७५ ॥ एत्य विक्खेवणी णाम कहा जिणवयण-मयाणंतस्स ण कहेयव्वा । अगहिव-ससमय-सम्भावो पर-समय-संकहाहि वाउलिद-चित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स उवलद्धपुण्णपावस्स जिण-सासणे अढि-मज्जाणुरत्तस्स जिण-वयण-णिव्विदिगिच्छस्स भोग-रइ-विरदस्स तव-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा विवखेवणी कहा कहेयव्वा । एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परूवयंतस्स तदा कहा होदि । तम्हा पुरिसंतरं पप्प समरण कहा कहेयव्वा । पण्हादो हद-गढ-मुट्ठि-चिन्ता-लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविय-मरण-जयपराजय-णाम-वव्वायुसंखं च परूवेदि । विवागसुत्त णाम अंगं एग-कोडि-चउरासीदि-लक्ख-पदेहि १८४००००० पुण्ण: पाव-कम्माणं विवायं वयेदि । एक्कारसंगाणं सव्व-पद-समासो चत्तारि कोडीओ पण्णारह-लषखा-बे-सहस्सं च ४१५०२०००। -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ९९-१०७ १. ....... द्विमेवमनेकभेवं द्वादशभेदमिति । द्विभेदं तावत्-अङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टमिति । अङ्गबाह्यमनेकविघं वशवकालिकोत्तराध्ययनादि । अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तद्यथा१. आचारः, २. सूत्रकृतम्, ३. स्थानम्, ४. समवायः, ५. व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपासकाध्ययनम्, ८. अन्तकृशम्, ९. अनुत्तरौपपादिकदशम्, १०. प्रश्न व्याकरणम्, ११. विपाकसूत्रम्, १२. दृष्टिवाद इति । -सत्त्वाचं सूत्र सर्वार्थसिद्धि वृत्ति 2010_05 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६०१ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय 'স-পথথান ঐ অনুশাহ বাবসথা अंग-पग्णत्ति में अंग-ग्रन्थों की पद - संख्याओं के साथ-साथ श्लोक-संख्याएं एवं प्रक्षर-संख्याए भी निर्दिष्ट की गई हैं, जिनका विज्ञ तथा अनुसन्धित्सु पाठकों की जानकारी के लिए यहां उल्लेख किया जा रहा है : १, आचार : पद-संख्या १८००० श्लोक-संख्या ९१९५९२३११८७००० अक्षर संख्या २९९२६९५४१९८४००० पद-पंख्या ३६००० २. सूत्रकृत : श्लोक-संख्या १८३९१८४६३७४००० अक्षर-संख्या ५८८५३९०८३९६८००० ३. स्थान : पद-संख्या ४२००० श्लोक-संख्या २१४५७१५४१०३००० अक्षर-संख्या ६८६६२८९३१२९६००० पद-संख्या १६४००० ४. समवाय: श्लोक-संख्या ८३७८५०७७९२६००० अक्षर-संख्या २६८११२२४९३६३२००० व्याख्या-प्रज्ञप्ति : पद-संख्या २२८००० श्लोक-संख्या ११६४८१६९३७०२००० अक्षर-संख्या ३७२७४१४१९८४६४००० ६. ज्ञातृधर्मकथा : पद-संख्या ५५६००० श्लोक-संख्या २८४०५१८४९५५४००० अक्षर-संख्या ९८९६५९१८५७२८००० ७. उपासकाध्ययन : पद-संख्या ११७०००० श्लोक-संख्या ५९७७३५००७१५५००० अक्षर-संख्या १९१२७५२०२२८९६०००० १. इसके लेखक आचार्य शुभचन्द्र हैं, जो प्रकाण्ड विद्वान थे । दिगम्बर-परम्परा में उनकी विविध-विद्या (व्याकरण, न्याय एवं परमागम)-धर तथा षट्-भाषा-कवि-चक्रवर्ती के । नाम से ख्याति है । अंग-पण्णत्ति में द्वादश अंगों तथा चतुर्दश पूर्वो का वर्णन है। ____ 2010_05. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] ८. अन्तकृदृशा : ९. अनुत्तरौपपादिकदशा : पद संख्या ९२४४००० १०. प्रश्न व्याकघण : ११. विपाक सूत्र : १२. दृष्टिवाद : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पद संख्या २३२८००० श्लोक संख्या ११८९३३९३९८८५२००० अक्षर संख्या ३८०५८८६०७६३२३४००० " श्लोक संख्या ४७२२६१७४४१४६००० अक्षर-संख्या १५११२३७५८११६६७००० पद संख्या ९३१६००० श्लोक संख्या ४७५१४०११३३८९४००० अक्षर-संख्या १५२३००८३६२८४६०८००० पद संख्या १८४००००० श्लोक - संख्या ९४००२७७०३५६००००० अक्षर संख्या ३००८०८८६५१३९२००००० सारांश अग - प्रविष्ट तथा अंग बाह्य ग्रन्थों के नाम, उपर्युक्त विवेचन आदि से यह असंदिग्ध रूप में प्रकट होता है कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर - दोनों परम्परानों द्वारा स्वीकृत वाङ् मय में काफी नैकटय व सादृश्य रहा है। दोनों वाङ् मय धाराओं के उद्गम स्रोत का ऐक्य भी इससे सिद्ध होता है । 2010_05 पद संख्या १०८६८५६००५ श्लोक संख्या ५५५२५८०१८७३९४२७१०७ अक्षर संख्या १७७६८२५६५९९६६१६६१६६७४४० उदाहरणार्थ एक प्रसंग उपस्थित किया जाता है । धवला टीकाकार आचार्य वीरसेन ने आचारांग के विषय एवं कलेवर का वर्णन करते हुए मुनि आचार से सम्बद्ध जो निम्नांकित, दो गाथाएं उद्धृत की हैं : कथं चरे कथं चिट्ठे, कधमासे कधं सए । कथं भुजेज्ज भासेज्ज, कधं पावं ण बज्झई ॥ ७० ॥ जदं चरे जदं चिट्ठे, जदमासे जदं सए । जदं भुजेज्ज भासेज्ज, एवं पावं ण बज्झई ॥ ७१ ॥ " [ खण्ड २ १. षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १. पुस्तक १, पृ० ९९ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६०३ लगभग इसी प्रकार की शब्दावलि में इसी भाव का निरूपण करते हुए वशवकालिक में कहा गया है : "कहं चरे कहं चिट्ठ, कहमासे कहं सए । कहं भूञ्जन्तो भासन्ती, पावं कम्मं न बंधई ॥ जय चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सऐ। जयं भुञ्जन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न बंधई ॥" दिगम्बर-परम्परा-सम्मत आचारांग की भाषा जैन शौरसेनी है तथा श्वेताम्बर-सम्मत दशवकालिक की भाषा अर्द्धमागधी। उद्धत गाथानों में केवल इतना-सा भाषात्मक इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के उत्तरवर्ती साहित्य भगवती-आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थों के वर्ण्य विषय तथा वहां प्रयुक्त गाथाएं वृहत्कल्प-भाष्य, आवश्यक नियुक्ति, पिण्ड-नियुक्ति, मरण-समाधि, भक्त-परिज्ञा, संस्तारक प्रादि श्वेताम्बर-साहित्य से अनेक स्थलों पर मिलती है। षट्खण्डागम : महत्व द्वादशांग वाङमय के संबंध में दिगम्बर-चिन्तन-धारा को प्रस्तुत करने के अनन्तर अब हम उस महत्वपूर्ण ग्रन्थ की चर्चा करने जा रहे हैं, जो षट्खण्डागम के नाम से विश्रुत है, दिगम्बर-परम्परा में, जिसे द्वादशांग श्रुत से सीधा सम्बद्ध माना जाता है । इसकी रचना शौरसेनी प्राकृत में सूत्रात्मक शैली में हुई है। समग्र दिगम्बर-सम्प्रदाय में षट्खण्डागम के प्रति असीम श्रद्धा, अपरिमित आदर एवं पूजा का भाव रहा है। जैन-तत्व-ज्ञान से सम्बद्ध कर्मवाद प्रभृति विषयों के गम्भीर तास्विक विवेचन की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का असाधारण महत्व है। গল ঈ নাম मूल सूत्रों में तो ग्रन्थ का कोई नाम दिया हुआ प्रतीत नहीं होता। पर, इसके टीकाकार प्राचार्य वीरसेन ने धवला टीका में इसे खण्ड सिद्धान्त के नाम से संशित किया है। - १. दशवकालिक, ४.७-८ २. तवो एवं खंड-सिद्धतं पडुच्च भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चति । -षदखण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ५१ ____ 2010_05 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन उन्होंने वहां इसके छः खण्डों की चर्चा की है । इस प्रकार प्राचार्य वीरसेन द्वारा यह ग्रन्थ षट् खण्ड सिद्धान्त के रूप में अभिहित हुआ है । आगे चलकर षट् खण्ड सिद्धान्त के स्थान पर यह आगम, परमागम तथा षट्खण्डागम के नाम से विशेष रूप से विशु त हुआ। अपभ्रशं के महाम् कवि, महापुराण के रचयिता पुष्पदन्त ने इसे आगम सिद्धान्त' कहा है । गोम्मटसार की टीका में इसे परमागम कहा गया है। इन्द्रनन्दि ने श्रु तावतार में इसकी षट्खण्डागम के नाम से चर्चा की है । आगम शब्द एक विशेष प्राशय लिए हुए है, उसका आधार प्राप्त-वाक्यता है । युक्ति और तर्क का स्थान वहां गौण है । सर्वथा युक्तियुक्त और प्रमाण-सम्मत तथ्य को सिद्धान्त कहा जा सकता, आगम नहीं, यदि उसका स्रोत प्राप्तवाक्यता नहीं है । जैन परम्परा में प्रागम-कोटि में वे ही ग्रन्थ पाते हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध सर्वज्ञ-भाषित से होता है, दूसरे शब्दों में सर्वज्ञ-वाणी जिनका उद्गम-स्रोत है । इस दृष्टि से दिगम्बर-विश्वास के अनुसार इस ग्रन्थ के 'आगम' अभिधान की निःसन्देह सार्थकता है। एक अविस्मरणीय घटना __ भगवान् महावीर का निर्वाण हुए छः शताब्दियों से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार प्रागम-विच्छेद का काल लगभग आने वाला था । अधिकांश १. इदं पुण जीवट्ठाणं खंड-सिद्धतं पडुच्च पुवाणुपुथ्वीए द्विदं छण्हं खंडाणं पढमखंडं जीवठ्ठाणमिदि। -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७४ २. ण उ बुज्झिउ आयमु मद्दधाम् । सिद्धतु धवलु जयधवलु णामु ॥ --महापुराण १.९.८ ३. एवं विशतिसंख्या गुणस्थानादयः प्ररूपणा भगवदर्हद्गणधरशिष्यप्रशिष्यादिगुरुपूर्वागतया परिपाट्या अनुक्रमेण भणिताः परमागमे पूर्वाचार्य: प्रतिपादिताः। -गोम्मटसार, जीव काण्ड, टीका २१ ४. षखंडागमरचनाभिप्रायः पुष्पदन्तगुरोः । -श्रु तावतार १३७ ____ 2010_05 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ६०५ आगम-श्रत विच्छिन्न हो चुका था । बहुत कम अवशिष्ट रह पाया था । उस समय आचार्य धरसेन उसके संवाहक थे । नन्दि - संघ की प्राकृत- पट्टावली में प्राचार्य धरसेन को आचारांग का पूर्ण ज्ञाता कहा गया है । धवलाकार ने उन्हें प्रगों तथा पूर्वी के एक देश का ज्ञाता कहा " है । जैसा भी रहा हो, वस्तुतः वे एक विशिष्ट ज्ञानी आचार्य थे, साथ-ही-साथ विशिष्ट साधक भी । वे सौराष्ट्र के अन्तर्गत गिरिनगर की चन्द्र नामक गुफा में विशिष्ट ध्यान-साधना में संलग्न थे । उन्होंने सोचा – जो विशिष्ट श्रुत उन्हें प्राप्त है, वह कहीं उनके बाद लुप्त न हो जाये, योग्य एवं अधिकारी पात्र को दिया जाना चाहिए। उन्होंने महिमानगरी के मुनि- सम्मेलन (संभवत: तब वहां कोई वैसा सम्मेलन चल रहा हो ) को पत्र प्रेषित किया तथा अपनी भावना उन तक पहुंचाई। इस प्रसंग का उल्लेख धवला - टीकाकार आचार्य वीरसेन ने निम्नांकित रूप में किया : " ग्रन्थ अर्थात् अवशिष्ट श्र ुत-ज्ञान, जो उन्हें स्वायत्त है, का कहीं उच्छेद न हो जाये, यह सोचकर आचार्य धरसेन ने जो सौराष्ट्र देश में गिरिनगर नामक शहर की चन्द्र गुफा में स्थित थे, जो अष्टांग महानिमित्त के पारगामी थे, अर्हत् प्रवचन के प्रति जिनका वात्सल्य था, महिमानगरी में सम्मिलित दक्षिणापथ के आचार्यों के पास लेख भेजा । आचार्य धरसेन द्वारा लेख में अभिव्यक्त वचन को व्यवधारित कर उन्होंने दो स्थित वेणा नदी के तट से गिरिनगर की ओर रवाना किया, जो (वे दो साधु) श्रुत के ग्रहण-धारण में सक्षम थे, उज्जवल - निर्मल विनयाचार से विभूषित थे, शील रूपी माला धारण किये हुए थे, जिनके लिए गुरु का निर्देश भोजनवत् तृप्तिप्रद था, जो देश, कुल एवं जाति से शुद्ध थे, समग्र कलाओं के पारगामी थे, अपने आचार्य से तीन बार पूछकर साधुओं को आन्ध्र १. पंचसये पणसेठे अंतिम जिण-समय- जादेसु । उप्पणा पंच जणा इयंगधारी मुणेयव्वा ।। १५ ।। अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुण्ययंत भूदबली । उडवीi इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥ १६ ॥ २. तदो सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो घरसेणाइरियं संपत्तो । - षट्खण्डागम खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०६७ ३. जिसे आजकल गिरनार कहा जाता है । 2010_05 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:२ आज्ञा लेने वाले थे।"1 __ आगे आचार्य धरसेन की श्रुतोन्मुखी शुभाशंसा, विद्यार्थी मुनियों की पात्रता की परीक्षा, मुनियों द्वारा अपने योग्यत्व का समापन, श्रु ताध्ययन का शुभारंभ आदि के सम्बन्ध में धवलाकार ने जो उल्लेख किया है, वह वस्तुतः पठनीय है; अतः उसे यहां उपस्थित किया जा रहा है । आचार्थ धरसेन का स्वप्न धवला के अनुसार-महिमानगरी से रवाना हुए दोनों मुनि चलते-चलते पहुंचने वाले थे। इधर आचार्य धरसेन ने रात के अन्तिम पहर में एक स्वप्न देखा—कुन्द, चन्द्र तथा शंक जैसे उज्ज्वल वर्ण वाले, सभी शुभ लक्षणों से युक्त दो वृषभ आते हैं, वे तीन बार उनकी (प्राचार्य धरसेन की) प्रदक्षिणा करते हैं और अत्यन्त नम्रतापूर्वक उनके चरणों में पड़ जाते हैं। यह स्वप्न देख आचार्य धरसेन परितुष्ट हुए तथा सहसा उनके मुंह से निकल पड़ाश्रुत देवता की जय हो । उसी दिन वे दोनों विद्यार्थी-मुनि आचार्य धरसेन की सेवा में पहुंचे। उन्होंने प्राचार्य की चरण-वन्दना आदि कृति-कर्म किये । दो दिन सुसताये । तीसरे दिन विनयपूर्वक प्राचार्य धरसेन से निवेदन किया-इस (श्रुताध्ययन) के कार्य (उद्देश्य) से हम आपके श्रीचरणों में उपस्थित हुए हैं। प्राचार्य धरसेन बोले-यह सुष्ठ है, भद्र (कल्याणकारी) है और उन्होंने समागत मुनियों को आश्वासन दिया।" १. तेण वि सोरट्ठ विसयगिरिणयरपट्टणचंवगुहाठिएण अटुंगमहानिमित्तपारसण गन्थवोच्छेवो होहवित्ति जावभएण पवयण-वच्छलेण दक्षिणावहाइरियाणं महिमाए मिलियाणं लेहो पेसिदो। लेह-ट्ठिय-धरसेण-वयणमवधारिय तेहि वि आइरिएहि वे साहू गहणधारणसमत्था धवलामलबहुविह-विणयविहूसियंगा सोलमालाहरा गुल्येसणा-सणतित्ता देसकुलजाइसुद्धा सयलकलापारया तिक्लुत्ता बुच्छियाइरिया अंधविसयवेण्णयडादो पेसिवा । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७ २. तेसु आगच्छमाणेसु रयणीए पच्छिमे भाए कुटु-संख-वण्णा सव्वलक्खणसंपुग्णा अप्पणो कय-हिप्पयाहिणा पाएसु णिसुठिय-पदियंगा वे बसहा सुमिणंतरेण धरसेण-मडारएण विट्ठा। एवंविह सुमिणं बढ ण तु?ण धरसेणाइरिएण 'जयउ सुय-देवदा' त्ति संलवियं । तद्दियसे चेय ते दो विजणा संपत्ता धरसेणारियं । तदो धरसेणमयवदो किदियम्मं काऊण पोणि दिवसे बोलाविय तरिय-दिवसे विणएण धरसेण-भडारओ तेहिं विण्णत्तो-'अपेण 2010_05 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] आचार्य का चिन्तन आचार्य घरसेन ने शुभ स्वप्न देखा । अगले ही दिन उसकी फल - प्रसूति भी देखी । आचार्य के सामने प्रश्न था – वे अपनी दुर्लभ विद्या समागत मुनियों को प्रदान करें या नहीं । उनका विश्वास था -‍ - सविद्या सत्पात्र में ही सन्निहित की जानी चाहिए । असत् पात्र में निहित उत्तम विद्या भी कभी सुखावह नहीं हो सकती । प्राचार्य के अन्तःकरण में विचारो लन होने लगा शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय " जो शिक्षयिता गुरु मोहवश पर्वत के मेघ, फूटे हुए घट, सांप, चालनी, भैंसे, मेंढे, जों, शुक, मिट्टी तथा मच्छर के सदृश श्रोताओं के आगे श्रुत का व्याख्यान करता है— ऐसों को श्रुत का शिक्षण देता है, वह गर्व से प्रतिबद्ध, विषय- लोलुपता के विष से मूच्छित हो भटकता हुआ, बोधि – रत्नत्रय (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) के लाभ से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक भव-कान्तार में परिभ्रमण करता रहता है। इस वचन का आचोलन करते हुए आचार्य के मन में श्राया कि स्वच्छन्द व्यक्तियों को विद्या देना भव- भ्रमण एवं भीति बढ़ाने वाला है । यद्यपि आचार्य धरसेन ने शुभ स्वप्न द्वारा समागत मुनिद्वय का हार्द समझ लिया था, फिर भी उन्होंने उनकी परीक्षा करना प्रावश्यक समझा । वे जानते थे, सुष्ठुरीति से की हुई परीक्षा हृदय में परितोष उत्पन्न करती है । 1 [ ૬૦d कज्जेणम्हा वो वि जणा तुम्हं पादमूलमुव गया' ति । 'सट्टु भद्द" त्ति भणिऊण धरसेणभडारएण वो वि आसासिदा । १. सेल - घण - भग्ग - घड - अहि चालणि महिसा -ऽ-वि- जाहय - सुएहि । मट्टिय-मसय- समाणं -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७-६८ 2010_05 वक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२ ॥ विसयामिस-विस बसेण घुम्तो | धव- गारव - पडिबद्धो सो मट्ट-बोहि- लाहो भ्रमइ चिरं भव-वणे मूढो ॥ ६३ ॥ इति वयणावो जहाछंबाईणं विज्जादाणं संसार भयबद्धगामिदि चितिऊण सुह-सुमिणदंसणेणेव अवगय- पुरिसतरेण धरसेण-भयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढत्ता'सुपरिक्खा हियय-निम्वुइ करेति' । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६८-७० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ j ६०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन i परीक्षा : सफलता आचार्य धरसेन ने उपर्युक्त रूप में निश्चय कर श्रुतार्थी मुनियों की इस प्रकार परीक्षा की — “उन्होंने उनको दो विद्याएं दीं। उनमें एक अधिकाक्षरा थी, दूसरी हीनाक्षरा । उन्होंने मुनियों से कहा- षष्ठ-भक्त-उपवास — बेला कर विद्याएं साधें । मुनियों ने विद्यानों की साधना की । विद्या की अधिष्ठात्री देवियां उनके समक्ष प्रकट हुईं। उनमें एक देवी के दान्त मुंह से बाहर निकले हुए थे और दूसरी एक आंख से कानी थी। मुनि विचारने लगेदेवताओं में ऐसा कैसे ? उनमें तो विकलांगता नहीं होती । दोनों मुनि मंत्र - विश्लेषण - शास्त्र में प्रवीरण थे । अत: उन्होंने हीनाक्षरा विद्या के मंत्रों से अपेक्षित अक्षर मिलाकर तथा अधिकाक्षरा विद्या के मंत्रों में से अनपेक्षित अधिक अक्षर हटाकर उनकी पुनः साधना की । साधना फलित हुई। दोनों विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियां अपने स्वाभाविक सौभ्य रूप में उन्हें दिखाई दीं । मुनि आचार्थ धरसेन के पास आये, यथोचित विनयपूर्वक विद्याराधना सम्बन्धी वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया । आचार्य बहुत परितुष्ट हुए और उन्हें शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र तथा शुभ वार में ग्रन्थ शास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया । 1 2010_05 खण्ड । २ परितुष्ट गुरु द्वारा विद्या-दान उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार्यं धरसेन ने विद्या ग्रहरण हेतु समागत साधुओं को परीक्षा में सफल पाया । उन्हें विश्वास एवं परितोष हुआ कि वे दोनों सुयोग्य पात्र एवं समर्थ अधिकारी हैं । वे उन्हें सोत्साह विद्या देने लगे । विद्यादाता का हार्दिक अनुग्रह तथा विद्या गृहीता की तन्मयता, लगन एवं परिश्रम विद्या की यथावत् प्राप्ति में निःसन्देह असाधारण सहायक होते हैं । ऐसा ही हुआ । पुष्पदन्त और भूतबलि बड़ी निष्ठा, भक्ति तथा विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करने लगे । प्राचार्य धरसेन ने, जो विशिष्ट श्रुत उन्हें आयत्त था, सहर्ष अपने शिष्यों को दिया । शिष्य विद्या निष्णात हो गये । -- १. तदो ताणं तेण वो विज्जाओ दिण्णाओ । तत्थ एया अहियक्खरा अवरा वि होणक्खरा । एदाओ छठ्ठोववासेण साहेहु ति । तदो ते सिद्धविज्जा विज्जादेवताओ पेच्छंति, एया उद्दतुरिया अवरेया काणिया । ऐसो देवदाणं सहावो ण होदि त्ति चितिऊण मंतब्वायरण सस्थ - कुसलेह होणाहिय-क्खराणं छुहणाव-णयण-विहाणं काऊण पढतेहि वो वि देवदाओ सहाव- रूव-ट्ठियाओ दिट्ठाओ । पुणो तेहि धरसेण भयवंतस्स जहावित्तण विएण णिवेदिवे सुष्ठु तु टुण धरसेण-भडारएण सोम-तिहि णक्खत्त-वारे गंथो पारखो । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७० Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाक मय । ६०१ धवलाकार ने लिखा है, जिस दिन विद्याध्ययन समाप्त हुआ, वह आषाढ़ शुक्ला एकादशी का दिन था, पूर्वाह्न का समय था। स्नातक-शिष्यों ने सोचा, हम अब अपने विद्यागुरु का और सान्निध्य पायेंगे, उनकी सेवा-शुश्रुषा करेंगे। पर, घटना और ही प्रकार से घटी । आचार्य धरसेन ने उन्हें उसी दिन रवाना कर दिया । इन्द्रनन्दि ने अपनी पुस्तक में उन्हें दूसरे दिन रवाना करने का उल्लेख किया है। खैर, शिष्यों को यह अपने मनोनुकूल तो कैसे लगता, पर जैसी भी हो, गुरु की आज्ञा कभी लांघनी नहीं चाहिए, वे चल पड़े। वर्षावास का समय लगभग आ ही चुका था। क्योंकि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से जैनों में उसका प्रारम्भ माना जाता है । जैन मुनि वर्षावास में विहार नहीं करते। वे किसी एक ही ग्राम या नगर में चातुर्मासिक प्रवास करते हैं। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्राचार्य धरसेन ने अपने शिष्यों को विदा करने में इतनी शीघ्रता क्यों की, जब कि मुनियों के विहार का समय लगभग समाप्त हो चुका था। নগ্ধ ঋণ প্রস্থান : ভাবনাথ आचार्य धरसेन द्वारा अपने मन्तेवासियों को इतना शीघ्र बिहार करा देने के सन्दर्भ में अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं। प्राचार्य धरसेन ने जब महिमानगरी के मुनि-सम्मेलन को लेख भेजा, तब सम्भवतः उसका कारण उन्हें अपने आयुष्य की अल्पता ज्ञात हुआ हो। अन्यथा वे स्वयं चलाकर ऐसा क्यों करते । अब, जब वे दोनों शिष्यों को अपनी विद्या दे चुकते हैं तो शायद उनका आयुष्य मृत्यु के बिल्कुल निकट पहुंच गया हो। उन्होंने सोचा हो, इन्हें तो जाना है ही, जिन शिष्यों को उन्होंने इतने अनुग्रह और वात्सल्य से विद्या-दान दिया है, वे (शिष्य) उन्हें अपनी आंखों के सामने देह-त्याग करते देख कितने दुःखी होंगे। यह भी हो सकता है। उन्हें लगा हो, यदि शिष्य सामने रहेंगे तो स्यात् उनके मन में अपने अन्तिम समय में अपने प्रिय, विनीत एवं आज्ञाकारी शिष्यों के प्रति कुछ ममता का भाव उत्पन्न हो जाये, जो उनके उदात्त एवं तितिक्षु श्रमण-जीवन के प्रतिरूप हो । १. पुणो कमेण वक्खाणतेण आसाढ-मास-सुक्क-पक्ख-एक्कारसीए पुग्वण्हे गंथो समाणिवो । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०७० २. पुणो तदिवसे चेव पेसिवा संतो। -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०७१ ____ 2010_05 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३०॥ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३ एक सम्भावना यह भी की जा सकती है, वे एक ध्यान-योगी एवं तपस्वी साधक थे । जब उन्होंने देखा कि शिष्यों को विद्या-दान कर वे अपना उत्तरदायित्व पूरा कर चुके हैं तो उन्हें लगा हो कि अब उन्हें पुनः एकान्त साधना में जुट जाना चाहिए। अतः एक दिन भी वे अपने शिष्यों को अपने पास क्यों रखें। यह सम्भावना कुछ संगत प्रतीत नहीं होती; क्योंकि प्राचार्य धरसेन की वैसी भावना होने पर भी जिस दिन विद्याध्ययन समाप्त हुआ, उसी दिन या उसके अगले दिन शिष्यों को रवाना करने जैसी शीघ्रता करने की वैसी क्या आवश्यकता थी। कुछ समय शिष्यों के वहां रहते हुए भी उनकी साधना चल सकती थी। एक कल्पना यह भी है, उन्होंने सोचा हो, जो श्रु त उन्होंने अपने अन्तेवासियों को दिया है, उसके प्रसार-विस्तार में एक दिन का भी विलम्ब क्यों हो। अतएव उन्हें तत्काल रवाना कर दिया हो । पर, यह संभावना भी कम व्यवहार्य प्रतीत होती है । इन्द्रनन्दि और श्रीधर का संकेत इन्द्रनन्दि के श्रु तावतार तथा श्रीधर के श्रुतावतार में पहली सम्भावना की ओर संकेत किया है । अर्थात उनके अनुसार आचार्य धरसेन को ऐसा भान हुआ कि उनकी मृत्यु सन्निकट है । उनके निधन का दृश्य देख उनके शिष्यों को मनः क्लेश न हो, इसलिए उनको प्रस्थान करा दिया।' कुलेश्वर में पातुस्थि पुष्पदन्त एवं भूतबलि गुरु की आज्ञा को अलंघनीय मानते हुए उसे शिरोधार्य कर चल पड़े। वे अंकुलेश्वर आये। इन्द्रनन्दि ने उस नगर का नाम कुरीश्वर लिखा है । ऐसी भी १. स्वासन्नमृति ज्ञात्वा मा भूत संक्लेशमेतयोरस्मिन् । इति गुरुणा संञ्चित्य द्वितीयविवसे ततस्तेम ॥ -इन्द्रनन्दि मात्मनो निकटमरणं ज्ञात्वा धरसेनस्तयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनि विसर्जन करिष्यति । -श्रीधर २. ....'गुरुवयणमलंघणिज' इवि चितिऊणागदेहि अंकुलेसरे परिसाकालो को। -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१ ____ 2010_05 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वा मय * ૧૧ चर्चा की है कि वे दोनों मुनि नौ दिनों की यात्रा कर वहां पहुंचे । इसका अर्थ यह हुआ कि वे यदि आषाढ़ शुक्ला एकादशी को गिरिनगर से चले तो श्रावण कृष्णा चतुर्थी को अंकुलेश्वर पहुंचे और यदि श्राषाढ़ शुक्ला द्वादशी को चले तो श्रावरण कृष्णा पंचमी को वहां पहुंचे । अर्थात् जैन मर्यादा के अनुसार चातुर्मास्य के प्रारम्भ हो जाने के छः या सात दिन बाद वहां पहुंचे । उनकी यह साप्ताहिक यात्रा जैन आचार-व्यवस्था के अनुसार विहित नहीं थी, पर शायद अपवाद रूप में उन्हें वैसा करना पड़ा हो; श्राषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी तक उनके पास विहार के लिए केवल तीन दिनों का समय अवशिष्ट था । इतने अल्प समय में वे चातुर्मासिक प्रवास के लिए उपयुक्त स्थान पर नहीं पहुंच सके हों । अस्तु, उन्होंने अंकुलेश्वर में अपना चातुर्मास्य किया । errer घरसेन : तिरोधान महान् मनीषी एवं साधक आचार्य धरसेन के जीवन का केवल इतना सा भाग प्रकाश में है । उनके आगे-पीछे के इतिवृत्त के सम्बन्ध में और कुछ विशेष ज्ञात नहीं है । अपनी विद्या को सत्पात्र में सन्निधापित करने की तीव्र उत्कण्ठा, सुयोग्य, जिज्ञासु एवं जिघृक्षु अन्तेवासियों की प्राप्ति, विद्या का दान और उसके बाद तिरोधान - यही संक्षेप में उनके व्यक्त जीवन का लेखा-जोखा है । पुष्पदन्त तथा भूतबलि को प्रस्थान कराने के बाद वे हमारी आंखों से प्रोझल हो जाते हैं । अब कुछ, क्या हुआ, सब अज्ञात है । भारत के साधक मनीषियों की कुछ इसी प्रकार की स्थिति रही है । आचार्य धरसेन के सम्बन्ध में जो कुछ प्राप्त आधार, उल्लेख या सम्भावनाएं हैं, उनके परिपार्श्व में यथास्थान चर्चा करेंगे । खVडTTA Eा ान मुनि पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने अंकुलेश्वर में चातुर्मासिक प्रवास किया। उस सन्दर्भ में धवला में उल्लेख है : " वर्षावास बिताकर प्राचार्य पुष्पदन्त जिनपालित को देखकर ( उसके साथ) वनवास नामक प्रदेश की ओर चले गये । भूतबलि भट्टारक द्रमिक प्रदेश की ओर चले गये । तत्पश्चात् आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा की । बीस अधिकारों में विभक्त सत्प्ररूपणा के सूत्र रचे तथा जिनपालित को उन्हें पढ़ाया । फिर उसे भूतबलि भट्टारक के पास भेज दिया । "2 १. जोगं समाणीय जिणवालियं वरुण पुप्फयंताइरियो वणवासविसयं गवो । भूदबलिभारवो नि वमिल बेसं गदो । तवो पुष्कयंताइरिएण जिणवालिवस्त बिक्खं वाऊण 2010_05 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ] खण्ड : २ धवलाकार के इस कथन से कई बातें प्रकट होती हैं । जिनपालित नामक एक नया व्यक्ति प्रकाश में आता है । आचार्य पुष्पदन्त उसको देखकर वनवास नामक प्रदेश को गये । इसकी स्पष्ट संगति प्रतीत नहीं होती । वे उसे कहां देखते हैं, फिर ( उसके साथ) वनवास प्रदेश की ओर कैसे चले जाते हैं; इत्यादि बातों के पूर्वापर-प्रसंग वांछित हैं, जो नहीं मिलते । आगम और faftee : एक अनुशीलन षट्खण्डागम के सम्पादक प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य भाषाओं के सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० हीरालाल जैन ने इस प्रसंग में धवला में प्रयुक्त 'दट्ठूण' शब्द को लेकर एक समाधान उपस्थित किया है । प्राकृत में 'दट्ठूण' सामान्यतः पूर्वकालिक क्रिया के अर्थ में अर्थात् 'देखकर' के अर्थ में प्रयुक्त है, पर डा० जैन ने बताया है कि इसका अर्थ 'दृष्टुम् ' = देखने के लिए भी हो सकता है । उन्होंने विमलसूरि के पउमचरियं से इस कोटि के रूपों के द्योतक कुछ उदाहरण भी उपस्थित किये हैं । इन्द्रनन्दि ने जिनपालित को आचार्य पुष्पदन्त का भगिनी-पुत्र लिखा है । हो सकता है, निपालित एक बहुत संस्कार-सम्पन्न बालक रहा हो, आचार्य पुष्पदन्त का एक होनहार शिष्य के रूप में उसे पाने का श्राकर्षण रहा हो; क्योंकि प्राचार्य धरसेन जैसे साधक मनीषी से जो दुर्लभ श्रुत उन्हें उपलब्ध था, उसे किसी योग्य पात्र को देना भी था । योग्य पात्र सरलता से नहीं मिल पाते । अपने विशेष ज्ञान तथा पारिवारिक सम्बन्ध के नाते निपालित से रहे हुए परिचय के कारण उनके मन में यह कल्पना जागी हो कि यह श्रुतसंभार जितपालित वहन कर सकता है; अतः उसे देखने के लिए, श्रामण्य की ओर सत्प्रेरित करने के लिए वनवास- प्रदेश, जहां जिनपालित था, उनका जाना प्रसंगत नहीं लगता । आचार्य पुष्पदन्त की जन्म भूमि भी यही प्रदेश प्रतीत होता है । जिनालित को देखने के लिए जाने की जो सम्भावना की गई है, उसकी संगति और लग जाती है, जब पुष्पदन्त उसे दीक्षा देते हैं । इतना ही नहीं, उसे पढ़ाने के लिए ग्रन्थप्रणयन करते हैं और उसे पढ़ाते हैं । अपने गुरु आचार्य पुष्पदन्त द्वारा आज्ञप्त होकर जिनपालित श्राचार्य भूतबलि के सान्निध्य में पहुंचते हैं। जैसा कि धवलाकार ने संकेत किया है, भूतबलि जिनपालित को 2010_05 वीसवि-सुत्ताणि करिय पढाविय पुणो सो भूदबलिमयवंतस्स पासं पेसिदो । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बामय [६१३ 'योसदि सूत्रों' के शान से युक्त पाते हैं । पर, साथ-ही साथ उन्हें यह भी पता चलता है कि आचार्य पुष्पदन्त का प्रायुष्य कम है, तब अध्रिगत शास्त्र अविच्छिन्न रहे, यह चिन्ता उन्हें होती है। ___ इस संदर्भ से भी पिछली सम्भावना को बल मिलता है कि पुष्पदन्त को अपना आयुष्य लम्बा न जाम एक सुयोग्य अन्तेवासी की खोज की विशेष चिन्ता हुई हो और तब उनकी दृष्टि में जिनपालित आया हो । ঘৰখভাগস #ী প্রশ্বনা प्राचार्य पुष्पदन्त द्वारा 'वीसदि सूत्र' रचे जाने का उल्लेख किया ही गया है । आगे की रचना के सम्बन्ध में धवलाकार ने लिखा है, प्राचार्य भूतबलि ने इस चिन्ता से कि कहीं 'महाकर्म-प्रकृति-प्राभृत' का व्युच्छेद न हो जाये, द्रव्यप्रमाणानुगम से लेकर समग्र ग्रन्थ की रचना की। ____ जहां से द्रव्यप्रमाणानुगम का प्रारम्भ होता है, वहां भी प्राचार्य भूतबलि की कर्तृकता का ज्ञापन किया गया है । जैसे—......."अब उन शिष्यों को जिन्होंने चतुर्दश विध जीवसमास का अस्तित्व जान लिया है, जीव-समास के परिमाण का प्रतिबोध देने के लिए आचार्य भूतबलि सूत्र कहते हैं।'' यों प्राचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि-इन दोनों मनीषियों की समन्वित प्रतिभा तथा श्रम का परिणाम यह विशाल वाङ मय है । इन्द्रनन्दि ने श्रु तावतार में षट्खण्डागम के सर्जन के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया है, वह इस प्रकार है : "भूतबलि ने (जिनपालित द्वारा) प्रपठित सत्प्ररूपणा को सुना । उससे उन्हें आचार्य पुष्पदन्त के षट्खण्डागम-रचना के अभिप्राय का ज्ञान हुआ । उन्हें उन १. भूदबलिभयवदा जिणालिद-पासे दिढवीसदि-सुशेण अप्पाउओ त्ति अवगयजिणवालि देण महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पण्ण-बुद्धिणा पुणो दध्वपमाणाणुगममादि काऊण गंथ-रचणा कदा । -षटखण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१ २. संपहि चोदसण्हं जीवसमासाणमत्थित्त-मवगदाणं सिस्साण तेसिं चेब परिमाणं पडियो हणटुं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह । ____ 2010_05 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (पुष्पदन्त) के अल्प आयुष्य का भी प्रत्यय हुआ। उन्होंने साधारण बुद्धि के मनुष्यों को उद्दिष्ट कर पूर्व सूत्र-आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित सूत्र सहित छः हजार सूत्रों में षट्खण्डागम के पांच खण्ड रचे । फिर तीस सहस्र श्लोक-प्रमाण महाबन्ध नामक छठे खण्ड की रचना की।" इसका तात्पर्य यह हुआ कि षट्खण्डागम के 'जीव-स्थान' संज्ञक प्रथम खण्ड के बीस अधिकार, जो १७७ सूत्रों में विभक्त हैं, आचार्य पुष्पदन्त ने रचे । प्रथम खण्ड के अवशिष्ट भाग, क्षुल्लक-बन्ध नामक द्वितीय खण्ड, बन्ध-स्वामित्व-विचय नामक तृतीय खण्ड, वेदना नामक चतुर्थ खण्ड तथा वर्गणा नामक पंचम खण्ड की ५८२३ सूत्रों में आचार्य भूतबलि ने रचना की । यों छः हजार सूत्रों में पांच खण्ड पूरे हुए। छठा खण्ड, जिसे तीस सहस्र श्लोक-प्रमाण कहा गया है, प्राचार्य भूतबलि-रचित है । धवला तथा जयधवला में भी इस प्रकार के उल्लेख हैं , जिनसे प्राचार्य भूतबलि द्वारा महाबन्ध का रचा जाना सिद्ध होता है । यों प्राचार्य पुष्पदन्त तथा भूतबलि-दोनों षट्खण्डागम के रचनाकार माने जाते हैं।' धवला में षट्खण्डागम की आप्त-परम्परा या प्रार्षता की चर्चा इन शब्दों में की गई है : “इस तन्त्र-ग्रन्थ-षट्खण्डागम के मूल कर्ता वर्द्धमान भट्टारक-भगवान् महावीर हैं,अनुग्रन्थ कर्ता गौतम स्वामी हैं तथा उप-ग्रन्थकर्ता राग, द्वेष व मोह रहित मुनिवर भूतबलि, पुष्पदन्त आदि हैं।" १, तेन ततः परिपठितां भूतबलिः सत्प्ररूपणां श्रुत्वा । षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्त गुरोः ॥ १३७ ॥ विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन मानवान् प्रतीत्य ततः । द्रव्यप्ररूपणाद्यधिकारः खंडपंचकस्यान्वक् ॥ १३८ ॥ सूत्राणि षट्सहस्रन थान्यय पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबधाहयं ततः षष्ठकं खंडम् ।। १३९ ॥ त्रिंशत्सहस्रसूत्रनय व्यरचयदसौ महात्मा । ---इन्द्रनन्दि तावतार २. तदो एवं खंडपिद्धतं पडुच्च भूदबलिपुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चंति । - षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१ ३. तदो मूल-तंत-कत्ता वड्ढमाण-भडारओ, अणुतंत-कत्ता गोदमसामी, उवतंतकत्तारा भूदबलिपुप्फयंतादयो बीय-राय-दोस-मोहा मुणिवरा । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७२ ____ 201005 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय [ ६१५ शंका-समाधान की शैली में टीकाकार आगे उल्लेख करते हैं : "यहां ग्रन्थ-कर्ता का प्ररूपण क्यों किया जा रहा है ? शास्त्र का प्रामाण्य दिखलाने के लिए, क्योंकि वक्ता के प्रामाण्य से बचन का प्रामाण्य सिद्ध होता है, ऐसा न्यास है ।" षट्खण्डागम के अहंद-वारणी से सीधे सम्बद्ध होने का भाव व्यक्त करने की दृष्टि से आचार्य वीरसेन ने इस प्रकार की शब्दावलि में विश्लेषण किया है, जो स्पष्ट है । षट्खशडागम की पूजा : श्रुतपंचमी का पर्व भूतबलि ने जब इस श्रागम-ग्रन्थ के छहों खण्डों की रचना सम्पन्न की, ऐसा माना जाता है, तब सारे संघ में असीम हर्ष छा गया । धवलाकार ने ग्रन्थ-समापन के सन्दर्भ में पीछे किये गये उल्लेख के अतिरिक्त और कोई विशेष चर्चा नहीं की है। पर, इन्द्रनन्दी ने अताबतार में इस सम्बन्ध में एक विशेष प्रयोजन का उल्लेख किया है । वह इस प्रकार है : "आचार्य भूतबलि ने षट्खण्डागम को पुस्तकारूढ़ कर ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित पुस्तकोपकरण के माध्यम से श्रुत की यथाविधि पूजा की । जिससे वह तिथि श्रुत पंचमी के नाम से विख्यात हुई । श्रुत-पूजा करते हैं ।" " आज भी जैन उस दिन भूतबलि ने अपना ग्रन्थ अपने अन्तेवासी जिनपालित के हाथ पुष्पदन्त के पास भेजा । पुष्पदन्त अपना अभीप्सित पूरा हुआ जान बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने भी संघ सहित ग्रन्थ की सोत्साह पूजा की । इस घटना से सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम की रचना की सम्पन्नता तक आचार्य पुष्पदन्त, जिनके अल्पायु होने का पीछे संकेत किया गया है, जीवित थे । साथ-ही-साथ १. किमर्थं कर्ता प्ररूप्यते ? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थम् । 'ववतृप्रामाण्याद् वचनप्रामायम्' इति न्यायात् । - षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७२ २. ज्येष्ठसितपक्ष पञ्चम्यां चातुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैव्यं धात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥ १४३ ॥ श्रतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां अतपूजां कुर्वते जनाः ॥ १४४ ॥ - इन्द्रनन्दिन् तावतार 2010_05 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन यह भी प्रकट होता है कि वे भूतबलि से ज्येष्ठ रहे हों, तभी तो भूतबलि ने अपने शिष्य के हाथ उनके पास ग्रन्थ भेजा । धवलाकार ने भी ग्रन्थारम्भ में अपने द्वारा किये गये मंगला. चरण के अन्तर्गत पहले पुष्पदन्त को और बाद में भूतबलि को वन्दन-प्रणमन किया है ।। मन्थ-रचना में प्रारम्भ का अंश पुष्पदन्त का है तथा आगे का भूतबलि का; जिससे यह तथ्य समर्थित होता है । মৃণা : * অধুন কানি दिगम्बर-परम्परा में षट्खण्डागम का प्रारम्भ से ही बड़ा महत्व माना जाता रहा है । फलतः अनेक विद्वानों ने इस पर टीकाएं लिखीं, जिनमें कुन्दकुन्द (वि. द्वितीय शती), शामकुड (वि० तृतीय शती), तुम्बुलूर (वि० चतुर्थ शती), समन्तभद्र (वि. पंचम शती) तथा बप्पदेव (लगभग वि० षष्ठ-अष्टम शती के मध्य) मुख्य हैं । विक्रम की नवम शती में अपने युग के उद्भट विद्वान् प्राचार्य वीरसेन ने इस पर धवला नामक टीका लिखी, जो ७२ हजार श्लोक-प्रमाण है। वीरसेन का अध्ययन बड़ा विशाल एवं व्यापक था। प्रतीत होता है, उन्होंने षट्खण्डागम पर रचित तथा उससे सम्बद्ध व्याकरण-साहित्य का पालोडन कर डाला था, जो अपनी टीका में उन द्वारा स्थान-स्थान पर किये गये विश्लेषण से गम्य है। उनकी टीका जहां कलेवर में इतनी विशाल है, वहां सूक्ष्म तात्त्विक विश्लेषण, अनेक आचार्यों एवं वादियों के मतमतान्तरों के परिशीलन, परीक्षण, समीक्षण और विवेचन की दृष्टि से भी अद्भुत है । भारतीय तत्व-चिन्तनधारा के क्षेत्र में निःसन्देह वीरसेन का यह कार्य अपनी कोटि का एक असाधारण कार्य है। व्याख्या की वरेण्यता, वैशद्य एवं सर्वांगीणता आदि के कारण विद्वत्समाज में यह टीका बहुत समाइत हुई तथा पठन-पाठन में इसी का निर्बाध उपयोग होने लगा। सम्भवतः इसी का यह परिणाम था कि इस टीका की रचना के बाद लगभग पिछली सभी टीकाओं का प्रसार रुक गया । आज उनमें से कोई भी हमारे समक्ष नहीं है। मालूम नहीं, कोई आज भी १. पणमामि पुप्फदंत दुकयंतं दण्णयंधयार-रवि । भग्ग-सिव-मग्ग-कंटयमिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥ ५॥ पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलि । विणिहय-वम्मह-पसरं वड्ढाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं ॥ ६ ॥ -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७ ____ 2010_05 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [ ६१७ दक्षिणापथ के किसी प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार की कारा में पड़ी प्रकाश में आने की बाट जोह रही हो । कषाय- प्राभूत दिगम्बर श्राम्नाय में प्राप्त परम्परा की शृंखला में माना जाने वाला एक ग्रन्थ और है— कषाय- प्राभृत। इसके रचयिता प्राचार्य गुरणधर थे । षट्खण्डागम को जहां प्रथम सिद्धांत ग्रन्थ कहा जाता है, वहां कषाय- प्राभूत की द्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में ख्याति है । दिगम्बर- परम्परा में यह ग्रन्थ भी प्रारम्भ से ही काफी समाहत रहा है । इसकी भाषा षट्खण्डागम की तरह शौरसेनी प्राकृत है । कषाय- प्राभृत पर भी व्याख्या साहित्य रचा गया, पर, आज वह प्राप्त नहीं है । घबला के महान् लेखक आचार्य वीरसेन ने कषाय प्राभृत पर भी टीका लिखना प्रारम्भ किया । वे षट्खण्डागम की तरह उस पर विशाल टीका लिखना चाहते थे । वे बीस हजार श्लोक - प्रमाण टीका- उद्दिष्ट का एक अंश ही लिख पाये थे कि उनका देहावसान हो गया । पर वह कार्य बाकी नहीं रहा । उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी, प्रखर विद्वान् जिनसेन ने इस कार्य का बीड़ा उठाया। वे भी बड़े अध्येता एवं बहुश्रुत थे । अत्यन्त लगन, निष्ठा व तन्मयता से उन्होंने कार्य किया । फलतः वह टीका ६० हजार श्लोक - प्रमाण में सम्पूर्ण हुई, जिसमें चालीस हजार श्लोक - प्रमाण जिनसेन का है । कषाय प्राभृत, विषयवस्तु, विवेचन आदि पर श्रागे यथा-प्रसंग प्रकाश डाला जायेगा | षट्खराडागम : ग्रन्थागार की कारा से मुक्ति षट्खण्डागम, जो दिगम्बर जैन आम्नाय का सर्वाधिक महिमाशाली वाङ्मय है, जिसके विवेचन - विश्लेषण का प्रसंग प्रस्तुत प्रकरण में चल रहा है, एकमात्र दक्षिण में ताड़पत्रीय रूप में सुरक्षित रहा । दक्षिण का जैन धर्म से, विशेषतः दिगम्बर सम्प्रदाय से निष्ठतम सम्पर्क रहा है । दक्षिणापथ एवं जैन धर्म के सन्दर्भ में यहां संक्षेप में प्रकाश डालना अप्रासांगिक नहीं होगा । विवेच्य विषय के विशदीकरण में वह एक प्रकार से सहायक ही होगा; अतः कुछ महत्वपूर्ण तथ्य यहां उपस्थित किये जा रहे हैं । दक्षिणापथ में जैन धर्भ जैन धर्म का उद्भव उत्तर में हुआ । प्रथम तीर्थंकर ऋषभ अयोध्या के थे, अन्तिम तीर्थंकर महावीर वैशाली के । अयोध्या उत्तर भारत का लगभग मध्यवर्ती स्थान है और वैशाली पूर्वांचलीय । 2010_05 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] मागम और त्रिपिटक । एक अनुशीलन आगम आर ना उत्तरापथ में प्रादुर्भूत एवं प्रसृत यह धर्म दक्षिण में हिन्द महासागर तक फैला, जिसे प्राज शताब्दियां ही नहीं, सहस्राब्दियां व्यतीत ही चली हैं । दीर्घ काल तक वह दक्षिण भारत में अतीव लोकप्रिय था, जहां राजा और प्रजा-दोनों की असीम श्रद्धा तथा आदर उसे प्राप्त था। जैन धर्म के दक्षिण-प्रवेश के सन्दर्भ में परम्परया यहां तक माना जाता है कि प्राद्य तीर्थंकर ऋषभ तथा चरम तीर्थंकर महावीर का यहां से सीधा सम्बन्ध रहा है। प्रो० प्रस के० रामचन्द्रराव ने इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए लिखा है : "ग्यारहवीं शती के एक संस्कृत ग्रन्थ में उपाख्यान है । उसमें कहा गया है कि महावीर स्वयं दक्षिण में पाये, विशेषतः कन्नड़ देश में, जो तब हेमांगद-देश कहा जाता था। उस समय जीवन्धर नामक राजा था। वह महावीर के सम्पर्क में पाया और उनसे श्रमण-जीवन में प्रव्रजित हो गया। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि प्राद्य तीर्थंकर ऋषभ, जो अनुमानतः चौबीसवें तीर्थकर महावीर के आविर्भाव (५९९ ई० पूर्व) से सहस्रों वर्ष पूर्व हुए, के श्रमण-संघ में दाक्षिणात्य राजकुमार भी सम्मिलित थे, जो अन्त में सौराष्ट्रस्थित पालीताना के शत्रुजय पर्वत पर चले गये।"" 1. Kshatra Chudamani by Odeyadeva Vadibhsimtra; the legend is retold in the Kannada Jeevandhara Charite of Bhaskara and the Tamil Jeevaka Chintamani of Tiruthukka-devar. 2. There is a legend, told in an eleventh Century Sanskrit work. That Mahavira himself came to the South, to the Kannada Country more specifically, (Known at that time as Hemangada-desha), during the reign of King Jivandhara, whom Mahavira met and admitted into the asectic fold. There is a belief that even during the days of the very first Tirthankara Rishabha, Presumably several thousand of years before the arrival of the twenty fourth Tirthankara, Mahavira, 599 B.C., there were South Indian princes in the entourage of Rishabha and that they finally retired to the Satrunjaya Hills in Palitana, Saurashtra, -Jainism in South India, Page 1 2010_05 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६१९ ___ खैर, यह तो पौराणिक रष्टिकोण है, फिर भी दक्षिण का अत्यन्त प्राचीन काल से धर्म के साथ सम्बन्ध रहा है, ऐसा निश्चय ही अनुमेय है। आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण में आने के सन्दर्भ में पिछले पृष्ठों में चर्चा की ही गई है। বাৰৰণ স্কা অম-লক্ষন। कलिंग-देश में घटित एक महत्वपूर्ण घष्टना को यहां अंकित करना आवश्यक है। खारवेल कलिंग का प्रतापशाली सम्राट् था। उसके राज्यारोहण का समम ई० पू० १४३ वर्ष माना जाता है । वह परम आस्थावान् जैन था । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए जो महान् कार्य किया, उसके पौत्र सम्प्रति ने उत्तर भारत में जैन धर्म के प्रसार के हेतु उसी प्रकार का अभियान चलाया। इसी श्रृंखला में कलिंगाधिपति खारवेल का नाम आता है, जिसके प्रयास से दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रसार हुआ । सम्राट् खारवेल महान् विजेता था। उसकी सफल दिग्विजय से जब शुग, सातवाहन तथा उत्तरापथ के यबन आदि-सभी दुर्दान्त शक्तियां हतप्रभ हो गईं, तब उसने जैन धर्म के अभ्युदय, व्यापक प्रसार एवं प्रभावना के निमित्त एक विराट् सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें जैन धर्म के बड़े-बड़े विद्वान्, श्रमण, जैन धर्मानुयायी राजा तथा सम्भ्रान्त जन बड़े उत्साह से उपस्थित हुए । उसमें जैन धर्म के सन्दर्भ में अनेक विषयों पर महत्वपूर्ण विचारविर्मश चला। सम्मेलन में उपस्थित विशाल जैन-संघ ने खारवेल का अभिनन्दन किया तथा उसे 'महाविजयी' के विरुव के साथ-साथ 'खेम-राजा', भिक्खु-राजा', 'धम्म-राजा' जैसे पदों से विभूषित किया। कहा जाता है कि पाण्ड्य- नरेश ने उस अवसर पर उसके यहां चावलों से भरा एक जहाज भेजा था। इस सम्बन्ध में विस्तार में न जाकर इतना ही कहना है कि दक्षिण भारत में जैन धर्म ई० सन् के प्रारम्भ से पहले ही पहुंच चुका था। कलिंगाधिपति खारवेल तथा दक्षिण के अन्य नरेशों के सत्प्रयास से वह दक्षिण में प्रसार पाने लगा। तमिलनाडु व प्रान्ध्र-प्रदेश में वह पहुंचा ही, मुख्यतः कर्नाटक में उसका बहुत अधिक प्रसार हुआ। भद्रबाहु के नाम के साथ जुड़ी हुई उत्तर के जैन श्रमण संघ के दक्षिणकर्नाटक प्रदेश में जाने की घटना, जो अंशतः ही सही, ऐतिहासिक सत्य लिए हुए है, इस तथ्य की पोषक है । मानना होगा कि उससे पूर्व वहां जैन धर्म काफी विस्तार पा चुका होगा। तभी तो सहस्रों श्रमरणों का संघ वहां जाते हुए अपने मन में आश्वस्त रहा हो कि वहां उनकी देह-यात्रा भली-भांति, विधिवत् निभ सकेगी। 2010_05 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन मक प्रश्न : एक समाधान ___ दक्षिण में जैन धर्म के रूप में दिगम्बर-सम्प्रदाय ही प्रसृत हुआ, श्वेताम्बर नहीं । आज भी मूलतः दक्षिण निवासी जो जैन हैं, वे लगभग सब के सब दिगम्बर हैं, श्वेताम्बर नहीं हैं, वै प्रायः वहीं हैं, जो उत्तर के राजस्थान, गुजरात प्रादि प्रदेशों से व्यवसाय हेतु वहां जाकर बस गये हैं । के दल दिगम्बर ही दक्षिण में कैसे फैले-यह एक प्रश्न है । इस सन्दर्भ में एक सम्भावना की जा सकती है कि जैन धर्म में श्वेताम्बरों तथा दिगम्बर के रूप में जब भेद पड़ा, तब तक दक्षिण में जैन धर्म का उत्तर की अपेक्षा बहुत कम प्रसार रहा हो । दिगम्बर मुनियों में धर्मोद्योत एवं धर्म-प्रभावना का तीव्र उत्साह रहा हो, साथ-ही-साथ अपने लिए एक स्वतंत्र क्षेत्र प्रतिष्ठापन्न करने का भी मानस रहा हो । एतदर्थ दक्षिणापथ में धर्म को व्यापक रूप में प्रसृत करने का उनमें भाव जागा हो । दक्षिण का जन-मानस उन्हें अपेक्षाकृत विशेष उर्वर लगा हो । निर्बस्त्र जीवन-यापन की दृष्टि से वहां का जलवायु भी, जो उस प्रदेश की उष्ण कटिबन्ध में अवस्थिति के कारण प्रायः उष्ण है, अनुकूल प्रतीत हुअा हो । ऐसे और भी कारण हो सकते हैं, जिन्होंने दिगम्बर श्रमणों को दक्षिण की ओर आकृष्ट किया हो । धर्म-प्रसार का जैसा तीव्र उत्साह एवं तदनुरूप उद्यम उन दिगम्बर-श्रमणों में रहा, वह फलान्वित भी हुआ, जिसका ज्वलन्त प्रमाण दाक्षिणात्य भाषाओं का साहित्य, वहां का स्थापत्य, मूर्तिकला, संस्कृति आदि है। নত্ব বা বঞ্চিথাপত্য বিসহ প্রাধা दिगम्बर जैन साहित्प के सर्जन, विकास एवं अभ्युदय की दृष्टि से दक्षिण निःसन्देह बड़ा उर्वर क्षेत्र सिद्ध हुआ। इस भूमि में उत्पन्न महान् आचार्यों ने तत्त्व-ज्ञान, अध्यात्म एवं धर्म-जागरण के परिपाठ में जो अनेक विषयों पर बहुविध साहित्य रचा, उसका भारतीय वाङमय एवं चिन्तनधारा में अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यों कहना अतिरंजन नहीं होगा कि दिगम्बर-जैन-परम्परा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य यहीं दक्षिणापथ में प्रणीत हुआ । उन्होंने अपनी अनुपम कृतियों द्वारा जैन वाङमय को अपनी अप्रतिम देन दी। उनमें समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार प्रादि तथा अनेक प्राभृतग्रन्थों के रचनाकार आचार्य कुन्दकुन्द (ई० सन् के प्रारम्भ के आस-पास), इतने गौरवास्पद कि दिगम्बर परम्परा में जिनका नाम गणधर गौतम के बाद लिया जाता है. १. मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गोतमो गणी । ___ मंगलं कुन्दः सदाचार्यो, जैनधर्मस्तु मंगलम् ।। 2010_05 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा और साहित्य सौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६२१ तत्त्वार्य-सूत्र जैसे जैन-जगत के सर्व समादृत ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य उमास्वामि (प्रथम शती ई०), प्राप्त मीमांसा जैसे अनेक प्रौढ़ ग्रन्थों के लेखक महान् प्रतिभाशाली विद्वान् व प्रभावक प्रवचनकार प्राचार्य समन्तभद्र (ई० सन् १२०-१८५), महाप्राज्ञ विद्वान्, लेखक, वैयाकरण, योगनिष्णात साधक एवं कवि तत्त्वार्थ सूत्र की बहुसमाप्त सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति तथा जैनेन्द्र व्याकरण आदि के निर्माता आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद तथा जैन न्याय के प्रमुख प्रतिष्ठापक, महान् मेघावी, तत्त्वार्थ-राजवातिक, अष्टशती, न्याय-विनिश्चय प्रभृति अत्यन्त प्रौढ़ कृतियों के सर्जक आचार्य प्रकलंक (सातवीं ई० शती) आदि के नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं । वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र प्रभृति और भी अनेक प्रकाण्ड विद्वान् तथा साहित्य-स्रष्टा इस पुण्य वसुधरा में उत्पन्न हुए, जिनका अपने-अपने स्थान पर असाधारण महत्व है। जैन धर्म का प्रभाव वस्तुतः जैन धर्म और उसके साहित्य ने दक्षिण को बहुत प्रभावित किया । जैन धर्म का अस्तित्व केवल एक ससीम सम्प्रदाय के रूप में ही नहीं था, समग्र लोक-जीवन पर उसकी छाप थी। दक्षिण में जैन धर्म और लोक-जीवन की परस्पर कितनी प्रोत-प्रोतता थी, प्रो० एस० के० रामचन्द्र राव के निम्नांकित कथन से स्पष्ट है : "दक्षिण के विकास-क्रम को जाने बिना जहां जैन इतिहास अपूर्ण रहेगा, ठीक उसी प्रकार दक्षिण में जैनों के कृतित्व को प्रांके बिना दक्षिण भारत का इतिहास भी अपूर्ण ही रहेगा।"1 अन्तःस्पर्शी विचार-दर्शन, उस द्वारा परिव्याप्त जीवन-वृत्त तथा प्रवाहित सांस्कृतिक धारा-ये वे कसौटियां हैं, जिन पर आंके जाने पर दक्षिण में जैनों का कृतित्व निःसन्देह खरा उतरता है। कर्नाटक में जैन धर्म का प्रभाव दक्षिण में भी विशेषतः कर्नाटक में जैन धर्म का जो प्रभाव रहा, वह निःसन्देह अप्रतिम था। 1. If the history of Jainism would altogether be incomplete without a consideration of the Southern' developments, the history of South India would equally be ilicomplete without treatiog of the past played by Jainism. -Jainism in south India, Prefatory Note, Page VII 2010_05 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और विपिटक : एक अनुशीलन ६२२] कदम्ब वंश ___ जैन धर्म की शालीनता, पवित्रता तथा सहिष्णुतामय वृत्ति-ये कुछ ऐसे कारण थे कि दक्षिण के कुछ ऐसे राजवंशों ने भी, जो यद्यपि ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी थे, जैन धर्म को बड़ा प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियां दक्षिण में कदम्ब वंश के अभ्युदय एवं प्रतिष्ठा का काल था । वह वंश ब्राह्मण-धर्मानुयायी था, पर, साथ-हीसाथ जैन धर्म का भी बड़ा परिपोषक रहा। चौथी शती ईसवी के समापन के आस-पास उस वंश का राजा काकुत्स्थ वर्मा था। वह जैन धर्म का प्रश्रयदाता था। मृगेश वर्मा के पुत्र भानुवर्मा और रविवर्मा थे । इन सभी ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। गंग वंश ___ईसा की चतुर्थ शती के उत्तराद्धं से दशम शती तक कर्नाटक के अधिकांश भाग पर गंग वंश का शासन था। वह वंश जैन धर्म का समर्थक एवं परिपोषक था। गंग राजवंश के संस्थापक राजा का नाम कोंगुणीवर्मा था। इसका स्थापना-काल ३५० ई० माना जाता है। इस वंश के अधिकांश राजा विष्णु के उपासक थे। पर, जैन धर्म के प्रति भी उनका मादर बढ़ता गया, ऐसा देखा जाता है। इस सम्बन्ध में एक जन-श्रुति है। इस राजवंश की स्थापना के समय सिंहनन्दी नामक जैनाचार्य थे। इसकी स्थापना में उनका योगदान था। फलतः इस राजवंश में जैन-धर्म के प्रति सहजतया निष्ठा एवं श्रद्धा का संचार हुआ। मैसूर के गजेटियर में उल्लेख है कि वह दक्षिण का प्रमुख जैन राजवंश था । नन्दगिरि (मन्दी हिल्स) उनका दुर्ग था, कुवालाल (आधुनिक कोलार) उनका नगर था, जिनेन्द्र उनके देव और जैन मत उनका धर्म था। इस वंश के संस्थापक का पौत्र हरिवर्मा था। उसके राज्य-काल में राजधानी तलकडु परिवर्तित कर ली गई। तब से वह वंश 'तलका के गंग' नाम से विश्रुत हो गया। ई० सन् ४७५ में गंग वंश के राज्यासन पर प्रविनीत नामक राजा प्रारूढ़ हुमा । वह उस वंश का प्रख्यात राजा था। जैन धर्म की अभिवृद्धि में उसने बड़ा रस लिया। उसके गुरु आचार्य विजयकीर्ति थे । अपने जीवन के पश्चावर्ती भाग में उस राजा ने पुनाड़ तथा अन्य स्थानों की जैन वसदियों के लिए जागीरें प्रदान की। राजा अविनीति यद्यपि स्वयं 1. Lewis Rice, Mysore Gazatteer, I, P. 388 2010_05 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वांङमय [ ६२३ वैयक्तिक रूप में शैव धर्म में आस्थावान् था, फिर भी उसका जैन धर्म के प्रति बड़ा आदर था । उसने उसे खूब प्रश्रय दिया। अविनीत का उत्तराधिकारी डुविनीत था । वह उदात्त व्यक्तित्व का धनी था । ४८२ ईसवी में वह सिंहासनासीन हुआ। एक ओर वह जहां महान् योद्धा था, दूसरी ओर वह अत्यन्त धर्मनिष्ठ भी था। शिलालेखों में उसे धर्मराज युधिष्ठिर तथा वैवस्वत मनु से उपमित किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि प्रभृति के रचयिता, महान् विद्वान् देवनन्दी पूज्यपाद, जिनके सम्बन्ध में यथाप्रसंग संकेत किया गया है. उसके गुरु थे । उस राजा ने जैन धर्म की बड़ी सेवा की। दुविनीत स्वयं बड़ा विद्वान् था। कहा जाता है, संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य किराताजुनीय के स्रष्टा महाकवि भारवि कुछ समय तक उसकी राज-सभा में रहे थे । राजा दुविनीत ने स्वयं किरातार्जुनीय के पन्द्रहवें सर्ग की कन्नड़ में टीका लिखी। वह राजा कन्नड़ गद्य के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में माना जाता है । वह राजा भी, कहा जाता है, व्यक्तिगत रूप में वैष्णव था, पर, जैन धर्म को उसने प्रोत्साहन दिया। उसमें उसकी वैष्णवी श्रद्धा बाधक नहीं बनी । वह इस कोटि की उदारवृत्ति का राजा था। दुविनीत का पुत्र मुश्कर था । वह जैन धर्म में आस्थावान् था। धर्म-प्रसार में परम उत्साही था। उसने अनेक जैन वसदियों का निर्माण कराया। उसकी पीढ़ी के पश्चाद्वर्ती अनेक राजाओं ने भी इस परम्परा को वृद्धिंगत किया। गंग वंश का अन्तिम राजा मारसिंह द्वितीय था । वह महान् विजेता एवं धर्मप्रिय था। पह गंग-वज्र तथा धर्मावतार जैसे विरुद से विभूषित था। अपने जीवन के अन्तिम भाग में उसने आचार्य अजितसेन के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। उसने संलेखनापूर्वक मरण प्राप्त किया। उसका मरण-काल ९७४ ई० माना जाना है। उसके अन्त के साथसाथ गंग वंश के स्वतंत्र राज्य का भी अन्त हो गया। गंगवंशियों का एक सामन्ती राजा का दर्जा रह गया। ঋনা জা পান ঘৰী বাথঙহাথ गंग-वंश के सामन्ती काल में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व उदित हुआ, जिसने जैन धर्म और संस्कृति का बहुत गौरव बढ़ाया। वह था, चामुण्डराय, जो गंगवशीय सामन्त नरेश ___ 2010_05 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ आगम और मिपिटक : एक अनुशीलन राजमल्ल (चतुर्थ) का अमात्य तथा सेना नायक था। राजमल्ल का शासन-काल ई० सन् ९७४ से ९८४ माना जाता है । चामुण्डराय महान् योद्धा था। उसने राजमल्ल की शक्ति तथा यश में बहुत वृद्धि की। श्रवणवेलगोला के एक शिलालेख में इस सेना-नायक का बड़े प्रशस्तिपूर्ण शब्दों में उल्लेख किया गया है। वहां उसे धर्मधुरन्धर, वीर-मार्तण्ड, रणरंगसिंह, त्रिभुवनवीर, वैरिकुल-कालदश, सत्य-युधिष्ठिर, सुभट-चूड़ामणि आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है, जो उसके परम प्रतापी, वीरतामयी यशस्वी जीवन के स्पष्ट परिचायक हैं। चामुण्डराय के गौरवशील जीवन का दूसरा पक्ष था-धर्म और साहित्य । उसमें भी उसकी पहुंच अनूठी थी। वह प्रकाण्ड विद्वान् था। उसने कन्नड़ में त्रिशष्टिशलाकापुरुषमहापुराण की रचना की, जो उस भाषा के साहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । चामुण्डराय ने संस्कृत में चरित्नसार नामक ग्रन्थ लिखा । इस योद्धा और विद्वान् के समय में निःसन्देह जैन साहित्य, संस्कृति तथा कला की आशातीत वृद्धि हुई । सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने इसी को उद्दिष्ट कर गोम्मटसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की, जिसका दिगम्बर सम्प्रदाय में बड़ा आदर है तथा जो अपने संक्षिप्त कलेवर में षट्खण्डागम तथा धवला का स्तर समेटे हुए है। श्रवणवेलगोला में इन्द्रगिरि पर अवस्थित गोम्मटेश्वर–बाहुबलि की विशाल प्रतिमा, जो जगत् का एक प्राश्चर्य है, के निर्माण का श्रेय चामुण्डराय के नाम के साथ जुड़ा है । पौराणिक आख्यान है, चक्रवर्ती भरत ने पोडनपुर में बाहुबलि की ५२५ धनुषाकार ऊंची प्रतिमा का निर्माण कराया था, उसी कथानक से, कहा जाता है, चामुण्डराय ने इस विशाल प्रतिमा के निर्माण की प्रेरणा ली । चामुण्डराय का जीवन-काल दसवी ईसवी के उत्सरावं तथा ग्याहरवीं ईसवी के पूर्वाद्ध के मध्य आता है। राष्ट्रकूट वंश दक्षिण में जैन धर्म के प्रसार, जैन साहित्य के सर्जन तथा विकास में जिन राजवंशों का योगदान रहा, उनमें राष्ट्रकूट वंशीय राजाभों का महत्वपूर्ण स्थान है । कर्नाटक में माठवीं शती ईसवी से दशवीं शती ईसवी तक यह वंश प्रभावापन्न रहा । হলি নয়। __ कर्नाटक में ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी तक होयसल वंश का राज्य था। यह राजवंश स्वयं जैन धर्म का अनुयायी था। जिस प्रकार गंग राजवंश की स्थापना में जैन मुनि सिंह 2010_05 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बागमय । ६३५ नन्दी का आशीर्वाद था, उसी प्रकार इस राजवंश की स्थापना में जैन मुनि शान्तिदेव के आशीर्वाद का योग था। जैन धर्म के व्यापक प्रसार में इसे अत्यन्त उत्साह था। कर्नाटक में अनेक सुन्दर वसदियों तथा प्रतिमाओं आदि का महत्वपूर्ण निर्माण इस राजवंश द्वारा हुआ। ___ उपर्युक्त राजवंशों के अतिरिक्त विजयनगर के नरेशों तथा अन्यान्य राजवंशों व शासकों का भी जैन धर्म के विकास में यथेष्ट योगदान रहा। . साशि ___ यों राजाओं, राज्य के उच्चपदासीनों के प्रभाव, उत्साहपूर्ण योगदान, प्रजाजनों की श्रद्धापूर्ण तीव्र उत्कण्ठा एवं निष्ठा के परिणामस्वरूप जैन धर्म, जैन साहित्य, जैन कला एवं जैन संस्कृति का जो अभ्युदय, विकास एवं विवर्धन दक्षिण में, विशेषतः कर्नाटक में हुआ, निःसन्देह वह भारतीय धर्मों के इतिहास का ऐसा गौरवास्पद स्वर्णिम पृष्ठ है, जिसका आज भी अनेक दृष्टियों से प्राकर्षण बना है । বাম্বথা ঞ্জী ওন পাহী : সুভাৰিী षट्खण्डागम वाङमय को अब तक सुरक्षित बनाये रखने का श्रेय कर्नाटक को है। उसके दक्षिण भाग में अवस्थित मूडबिद्री नामक छोटे से नगर में यह महत्वपूर्ण वाङमय अब तक सुरक्षित रह सका । मूडबिद्री दक्षिण में जैन धर्म का परम पवित्र स्थान रहा है। यह दक्षिण की जैन काशी के नाम से प्रसिद्ध है। इससे अनुमेय है कि जैन धर्म की प्रभावना, उपासना, जैन तत्त्व-ज्ञान के अध्ययन, अनुशीलन, परिरक्षण, परिवर्धन प्रादि की दष्टि से कभी यह नगर दक्षिण में अपना अनुपम स्थान लिए हुए था । विशेषतः कर्नाटक में यह जैन धर्म एवं जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। संसार में अपनी कोटि की अद्वितीय रत्न-प्रतिमाएं एकमात्र यहीं अवस्थित हैं । जो आज भी समग्र जैन जगत के लिए प्राकर्षण की वस्तु है। সুভাৰম্নী :না। जन-श्रुतियों, शिलालेखों आदि के आधार पर मूडबिद्री का जो इतिवृत्त ज्ञात किया जा सका है,संक्षेप में यहां उस पर चर्चा करना अप्रासांगिक नहीं होगा। दक्षिण में जिन-मन्दिरों को वसवि कहा जाता है । मूडबिद्री में सब अठारह वसदियां 2010_05 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन हैं। उनमें एक गुरु-वसदि के नाम से विख्यात है, जो सबसे मुख्य है। इसी में धवल, जयधवल और महाधवल की ताड़पत्रीय प्रतियां सुरक्षित हैं। इन सिद्धान्त ग्रन्थों के यहा रखे रहने से इसका दूसरा नाम सिद्धान्त-वसवि भी है। मुखबिद्री का अभ्युदय : अभिवद्धि होयसल वंश में ११वीं शती के आस-पास वल्लालदेव (प्रथम) नामक राजा हुआ । उसके शासन-काल में मूडबिद्री के प्रभाव तथा गौरव की वृद्धि प्रारम्भ हुई। तेरहवीं ईसवी शती में तुलुन के आलूप-नरेशों ने इस नगर की प्रतिष्ठा को आगे बढ़ाया। यहां के पार्श्वनाथ-बसदि संज्ञक जिन-मन्दिर को उन्होंने राज्य-सम्मान प्रदान किया। पन्द्रहवीं ईसवी शती में विजयनगर के नरेशों के शासन-काल में इसकी गरिमा की अभिवृद्धि हुई । यद्यपि विजयनगर के राजा हिन्दू-धर्मानुयायी थे, पर, जैन धर्म के प्रति भी उनका पर्याप्त प्रादर था । विजयनगर के शासक देवराय द्वितीय का १४२९ ईसवी का एक शिलालेख है। उसमें इस नगर की चर्चा है। यह नगर वेणुपुर के नाम से भी पहचाना जाता था । उस शिलालेख में जो उल्लिखित हुआ है, उसका आशय है कि वेणुपुर या मूडबिद्री के लोग बड़े भव्य हैं। वे शुद्ध चरित्र का पालन करते हैं पवित्र कार्य करते हैं । वे जैन धर्म के प्रति श्रद्धावान् हैं । जो कथाएं सुनते हैं। यहां की वसदियों में एक होस-वसदि है। उसे 'त्रिभुवन-तिलक-चूड़ामणि' कहा जाता है । इसका 'भैरादेवीमण्डप'-मुख्य मण्डप विजयनगर-नरेश मल्लिकार्जुन इम्मडिदेवराय के शासन काल में निर्मित हुआ। और भी अनेक वंशों के राजाओं तथा श्रेष्ठी-जनों ने इस नगर की प्रशस्ति और गरिमा को आगे बढ़ाया । प्राकृत अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध विद्वान्, षट्खण्डागम के यशस्वी सम्पादक स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने षट्खण्डागम की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में चर्चा की है। मूडबिद्रीनिवासी पं० लोकनाथ शास्त्री ने उन्हें इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी दी थी। उसके अनुसार मूडबिद्री, जो कन्नड-नाम है, के अर्थ व एतत्सम्बद्ध इतिवृत्ति आदि का संकेत कर रहे हैं। যবিহলথ 'मूवित्री' नाम में दो शब्द हैं-मूड और विदुरे । कन्नड़ भाषा में बांस को 'विविर' 2010_05 Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय i (50 कहते हैं । कभी वहां का सिद्धान्त-मन्दिर बांसों के समूह में छिपा हुआ था । उन्हें छेद कर उसका पता लगाया गया । उस कारण वह गांव 'बिदुरे' कहा जाने लगा । कन्नड़ भाषा में मूड शब्द पूर्व दिशा का वाची है तथा पडु पश्चिम दिशा का । यहां मूल्की नामक पुराना गांव है । उसे पडुबिदुरे कहा जाता है । उसके पूर्व में अवस्थित होने के कारण वह गांव, जहां 'सिद्धान्त - वसवि' का पता चला, मूडबिदुरे कहा जाने लगा । उसी का रूपान्तर मूडबिद्री है। इस नामकरण में शाब्दिक दृष्टया बिदिर अर्थात् बांस शब्द का विशेष प्रभाव रहा है । इस आधार पर इसे वंशपुर या वेणुपुर के रूप में भी अभिहित किया गया है । व्रतपुर या व्रतिपुर नाम से भी प्रसिद्ध है, जिसका अभिप्राय यह है कि यह कभी व्रती साधुओं का निवास- केन्द्र रहा है । सिद्धान्त-वस'दि : एक दन्त-कथा उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कभी यह स्थान बांसों से प्राच्छन्न एक वन के रूप में अवस्थित था । कहा जाता है, लगभग एक सहस्राब्दी पूर्व की घटना है, एक जैन मुनि श्रवणबेलगोला से यहां आये । वे पडुवसदि नामक मन्दिर में टिके । मूडबिद्री में इस नाम का प्राचीन मन्दिर अब भी विद्यमान है । उसमें अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियां भी मिलीं, जिन्हें वहां जैन मठ में सन्निधापित कर दिया गया। वे मुनि एक दिन शौच के लिए बाहर गये तो उन्होंने उस स्थान पर, जहां आज गुरु-वसवि है, एक सिंह और एक गाय को प्रसन्न मुद्रा में साथ-साथ खेलते देखा । मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्हें उस स्थान में कुछ विशेषता या चमत्कार प्रतीत हुआ । उन्होंने उसकी छानबीन की। उन्हें बांसों के झुरमुट में छिपी हुई, पत्थर आदि से घिरी हुई काले पाषाण की नौ हाथ- परिमाण भगवान् पार्श्वनाथ की खड्गासनमयी मूर्ति दिखाई दी । जैनों को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीर्णोद्धार कराया । वहां मंदिर का निर्माण कराया । वही मन्दिर आज गुरु-वसदि के नाम से विश्रुत है । भगवान् पार्श्वनाथ की इस मूर्ति के पाद- पीठ पर इसके प्रतिष्ठित किये जाने के समय का उल्लेख है । उसके अनुसार इस मूर्ति की आदि-प्रतिष्ठा शक संवत् ६३६ तदनुसार ईसवी सन् ७१४ में हुई । इस मन्दिर के आगे के मण्डप – लक्ष्मी मण्डप का निर्माण चोल सेठी द्वारा कराया गया । निर्माण का समय १५३५ ईसवी है । कहा जाता है कि गुरु-वसदि के निर्माण में कुल छः करोड़ रुपये समय के छ: करोड़ रुपये आज कितने होंगे । खर्च का यह मूर्तियों के मूल्य के सहित हो, जो यहां सुरक्षित हैं । खर्च हुए । कल्पना करें, उस प्रांकड़ा सम्भवतः उन रत्म 2010_05 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८॥ आगम और बिपिटक : एक अनुशीलने .. भूडबिद्री : भट्टारक-पीठ होयसल वंश में विष्णुवर्धन नामक राजा हुआ। १११७ ईसवी में उसने जैन धर्म का परित्याग कर बैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया। एक तरफ तो ऐसा इतिहास है कि वैष्णव और शैव में आस्था रखने वाले राजाओं ने भी जैन धर्म की वह सेवा की, जो स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है तथा दूसरी ओर इतिहास का एक काला पृष्ठ यह भी है कि इस होयसल वंशीय राजा ने, जो जैन से वैष्णव हो गया था, जैन धर्म और संस्कृति का उच्छेद करने के लिए कमर कस ली । भावावेशवश धर्म-परिवर्तन करने वालों में प्रायः अभिनिवेश व्याप्त हो जाता है । वे अक्सर असहिष्णु और कट्टर हो जाते हैं। ____ हलेवीड-दोर समुद्र में तब जैन धर्म, संस्कृति और कला का बड़ा प्रभाव था। अनेक भव्य एवं विशाल जिन प्रासाद वहां निर्मित थे। इस असहिष्णु राजा ने वहां के जैन मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। जैन धर्म के अनुयायियों पर बड़े दुःसह अत्याचार किये । जैन प्रजा में बड़ी भीति और क्षोभ व्याप्त हो गया । किंवदन्ती के अनुसार उस राजा के अत्याचार से कुछ दैवी प्रकोप हुआ। भयानक भूकम्प हुआ। दोर समुद्र की भूमि फट गई । वहां एक बड़ा गर्त हो गया। विष्णुवर्धन के उत्तराधिकारी राजा वारसिंह तथा उसके पश्चाद्वर्ती राजा वल्लालदेव ने विष्णुवर्धन की इस भूल को अनुभव किया । उन्होंने देखा, उनका राज्य प्रशान्त एवं उपद्रव ग्रस्त होता जा रहा है । उन्होंने जैनों के क्षोभ तथा अन्तर्वेदना को शान्त करने के निमित्त अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। नये मन्दिरों का निर्माण कराया। मन्दिरों के लिए भूमि-दान दिया। वल्लालदेव ने एक कार्य और किया। उस समय श्रवणवेलगोला में भट्टारक चारुकीर्ति थे । कहा जाता है, वे मांत्रिकतान्त्रिक भी थे । वे पण्डिताचार्य के विरुद से अलंकृत थे। वीर वल्लालदेव ने उन्हें अपनी राजधानी में आमंत्रित किया। भट्टारक चारुकीति राजा की अभ्यर्थना पर दोर समुद्र आये। उन्होंने अपनी विद्या तथा मंत्राराधना द्वारा वहां के उपद्रवों को शान्त किया । राजा बहुत परितुष्ट हुआ। जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई । भट्टारक १. विलगी के शासन-लेख में इसका कन्नड़ में इस प्रकार उल्लेख है । . "कर्णाटक-सिद्धसिंहासनाधीश्वर-बल्लालरायं प्रापिसे श्रीचारकीतिपंडिताचार्य इंतु कीतियं पडेवर - तिबे रायननेंदु नेलंबाटिबडे तन्न मंत्रजपविधियिनवं ॥ कुंबलकापि सूलदु यशं बोदेसकरके पंडितार्यने नोंतं ॥" ___ 2010_05 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] सौरसेनी प्राकृत और उसका वामय ६२९ चारुकीति पण्डिताचार्य दोर समुद्र से अपने शिष्यवृन्द सहित मूडबिद्री पाये । जैन धर्म के प्रसार, प्रभावना आदि की दृष्टि से सम्भवतः उन्हें वह स्थान - अधिक उपयोगी प्रतीत हुआ हो । वहां उन्होंने गुरु-पीठ-भट्टारक-पीठ की स्थापना की। इस प्रकार यह मूडबिद्री भट्टारक-पीठ की स्थापना का इतिवृत्त है । स्थापना काल ११७२ ईसवी माना जाता है। प्रथम भट्टारक चारुकीति के नाम पर वहां के सभी भट्टारक इसी अभिधान से सम्बोधित किये जाते हैं। प्रथम भट्टारक के पश्चात् यह नाम पदवी-मूलक हो गया । भट्टारकों के साथ चारुकीति लगा रहता है अर्थात् सब के सब चारुकीर्ति ही कहे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि षटखण्डागम-धवल, जयधवल तथा महाधवल सिद्धान्त-ग्रन्थों की ताडपत्रीय प्रतियां यहां धारवाड जिले के बंकापुर नामक स्थान से लाई गई । इन अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थों का मडबिद्री में लाया जाना, सन्निधापित किया जाना यह सिद्ध करता है कि कभी इस पीठ का दक्षिण के जैन जगत में बहुत बड़ा महत्व रहा है। विशेषतः कर्नाटक में जैन धर्म के पठन-पाठन, प्रचार-प्रसार का निःसन्देह यह बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। तभी तो ऐसा प्रावश्यक प्रतीत हया हो कि उक्त सिद्धान्त-ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां वहां रखी जायें और बंकापुर से या जहां कहीं से वे मृडबिद्री पहंची, वहां के संघ ने या अधिकारियों ने महर्ष उन्हें प्रेषित किया हो । अन्यथा यह सब कब सम्भव था ? সূৰিী # ভিন্ন दिगम्बर-परम्परा के सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त-ग्रन्थों की समग्र भारत में केवल एक ही ताडपत्रीय प्रतिलिपि सुरक्षित रह सकी, बड़ा आश्चर्य है । कभी दिगम्बर-मुनियों में इन ग्रन्थों के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रसार रहा था । जैन सिद्धान्त में पारगामिता प्राप्त करने के लिए इन ग्रन्थों का अध्ययन परम आवश्यक भी था। वे ही विद्वान सैद्धान्तिक कहे जाते थे, जो षटखण्डागम के वेत्ता होते थे। पर, आगे चलकर स्थितियां परिवर्तित हो गई हों। सम्भवतः इनके पठन-पाठन का क्रम प्रायः निरुद्ध जैसा हो गया हो । पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग संकेत किया गया है, जिस प्रकार धवला की रचना के बाद षट्खण्डागम की पिछली टीकाएं निरस्त हो गई, उनके स्थान पर एकमात्र धवला का अध्ययन चलने लगा, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य द्वारा गोम्मटसार का प्रणयन हो जाने के अनन्तर धवला की भी वैसी ही स्थिति हो गई हो अर्थात् धवला सहित षटखण्ड-वाङमय, जो अत्यन्त विस्तृत है, के पठन-पाठन का उत्साह मन्द पड़ गया हो । अध्येतृगण षट्खण्डागम वाङ्मय के सार पर आधत गोम्मटसार से ही अपना काम चलाने लगे हों। आखिर मानव सुविधावादी तो है ही, जहां बहुत संलिप्त तथा अल्पतर अध्यवसाय से कोई कार्य सधे तो उसके लिए वह 2010_05 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३०१ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ विस्तृत और बहुतर अध्यवसाय से साध्य सरणि का क्यों अवलम्बन करे । खैर, जैसा भी हुआ, उसे स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता । तत्व - ज्ञान का क्षेत्र वस्तुतः बड़ा विशाल है । उसमें अवगाहन करने के लिए तो जीवन भर की साधना की मांग है । कामचलाऊ बात वहां नहीं होती । सुविधाप्रिय मनोवृत्ति में कामचलाऊपन का प्राधिक्य रहता है । अतः धवला सहित षट्खण्डागम के अध्ययन से जो लभ्य है, वह मात्र गोम्मटसार के अध्ययन से लब्ध हो सके, महीं माना जा सकता । * ज्ञान तो उभय पक्षी है -- वह साधन भी है, साध्य भी है। इसलिए वहां सुविधाअसुविधा का प्रश्न नहीं उठता। खैर, जैसा भी हो, अन्ततः ये शास्त्र ग्रन्थ भण्डार में स्थिर हो गये । वे पूजा तथा दर्शन की वस्तुमात्र बनकर रह गये । ज्ञान का स्रोत तो गंगा का बहता नीर है । वह सदा बहता रहना चाहिए। क्योंकि वह सरोवर का बन्द जल नहीं है । तत्त्व-ज्ञान की महिमामयी निधि को अपने में समेटे हुए ये सिद्धान्त-ग्रन्थ जिस स्थिति में श्राकर निरुद्ध हो गये, क्या वह उनकी तड़ाग के जल की-सी स्थिति नहीं थी ? मूडबिद्री दिगम्बर जैनों का भारत - विख्यात तीर्थं है । प्रतिवर्ष सहस्रों जैन तीर्थ यात्रा हेतु वहां जाते रहे हैं तथा रत्नमयी जिन - प्रतिमाओं के साथ-साथ इन सिद्धान्त-ग्रन्थों के भी दर्शन करते रहे हैं । अाज भी यह सब होता है । कारा शब्द अच्छा तो नहीं है, पर यों कहना न अवहेलना है और न अत्युक्ति ही कि पिछली कई शताब्दियों से ये ग्रन्थ ग्रन्थ भण्डार की कारा में बन्द थे । देव-मूर्ति के रूप से अधिक उनका कोई व्यावहारिक अस्तित्व रह नहीं गया था । षट्खण्डागम के यशस्वी सम्पादक स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने इस सम्बन्ध में भावविह्वल शब्दों में लिखा है : "इन सिद्धान्त-ग्रन्थों में जो अपार ज्ञान-निधि भरी हुई है, उसका गत कई शताब्दियों में हमारे साहित्य को कोई लाभ नहीं मिल सका; क्योंकि इनकी एकमात्र प्रति किसी प्रकार तालों के भीतर बन्द हो गई और अध्ययन की वस्तु न रहकर पूजा की वस्तु बन गई । यदि ये ग्रन्थ साहित्य-क्षेत्र में प्रस्तुत रहते तो उनके आधार से अब तक न जाने कितना किस कोटि के साहित्य का निर्माण हो गया होता और हमारे साहित्य को कौन-सी दिशा व गति मिल गई होती । कितनी ही सैद्धान्तिक गुत्थियां, जिनमें विद्वत्समाज के समय और शक्ति का न जाने कितना ह्रास होता रहता है, यहां 2010_05 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय सुलझी हुई पड़ी हैं। ऐसी विशाल सम्पति पाकर भी हम दरिद्री ही बने रहे" षट्खडागम : बहिर्निष्कमया की कहानी समय-समय यह विचारोद्वेलन तो होता ज्ञानोपासक एवं ज्ञानानुरागी जनों के मन में रहा है कि ये महान् सिद्धान्त ग्रन्थ प्रकाश में आयें, इनका पठन-पाठन हो, प्रचार-प्रसार हो, पर विचार का क्रियान्वयन इतना सरल नहीं है । इन ग्रन्थों के बाहर आने, प्रकाश में आगे की बड़ी रोचक कहानी है । उसे पाठकों के समक्ष उपस्थित करना मुझे अावश्यक प्रतीत होता है । पं० टोडरमलजी के समय में चिन्तन दिगम्बर समाज में पं० टोडारमलजी (वि० सं० १७९७ - १८२४) उत्कृष्ट तत्त्व - वेता के रूप में विश्रुत रहे हैं । उनके लिए प्रयुज्यमान ' आचार्य- कल्प' विशेषरण इस तथ्य का उद्घाटक है । उनके समय में जयपुर तथा अजमेर के श्रावकों में इन सिद्धान्त-ग्रन्थों को प्रकाश में लाने, इनके पठन-पाठन का प्रचार करने श्रादि पर विचार चला, पर उनकी कोई क्रियान्विति नहीं हो सकी। वैसे पं० टोडरमलजी ने आयुष्य ही बहुत कम पाया । यदि उनका दीर्घं आयुष्य होता तो सम्भव है, वे संघ को इस तरफ और प्रेरित करते । १. षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ०६ [ 41 सेठ भाविन्द की यात्रा : विचारीद्दोलन बम्बई निवासी स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द जे० पी० दिगम्बर समाज के एक प्रसिद्ध उदारमना, धर्मनिष्ठ एवं समाज सेवी सज्जन थे । एक प्रसंग बना, वे विक्रमाब्द १९४० में संघ सहित मूडबिद्री की यात्रा पर गये । उन्होंने वहां रत्न- प्रतिमानों तथा सिद्धान्त-ग्रन्थों के दर्शन किये। उनका मन रत्नमयी प्रतिमानों की अपेक्षा सिद्धान्त-ग्रन्थों की ओर विशेष आकृष्ट हुआ । जब उन्होंने ताड़-पत्रों की स्थिति देखी, जो जीर्ण होते जा रहे थे, उनके मन में चिन्ता व्याप्त हो गई, कहीं ऐसा न हो, ये महान् ग्रन्थ उत्तरोत्तर जीणं होते जायें और एक दिन ऐसा आये, शायद ये हमें उपलब्ध ही न रह सकें । सेठ ने मन्दिर के भट्टारक तथा पंचों के समक्ष चर्चा की। उनसे पूछा, क्या आप लोग इन ग्रन्थों को पढ़ सकते हैं ? उन्होंने कहा- हम तो केवल दर्शन एवं पूजा कर लेने में ही अपना सौभाग्य मानते हैं और सन्तोष कर लेते हैं, पढ़ नहीं सकते । सेठजी चिन्तित हो गये कि कितना आश्चर्य है, ग्रन्थों 2010_05 ביין Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन के अधिकारी उन्हें पढ़ तक नहीं सकते। सेठजी द्वारा जिज्ञासा किये जाने पर उन्होंने श्रवणवेलगोला निवासी पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री का नाम बतलाया कि वे उन्हें पढ़ सकते हैं। सेठजी को बड़ा दुःख हुमा, पर उस समय वे केवल भावना लेकर ही लौट आये। सेटली का प्रयास सेठजी एक व्यावसायिक जीवम के घ्यक्ति होने के नाते तत्काल कुछ कर तो नहीं सके, पर उक्त प्रसंग ने उनके मन पर ऐसा प्रभाव डाला कि बम्बई आने के पश्चात उनकी ओर से इस तरफ एक प्रयत्न का शुभारम्भ तो हा । सोलापुर निवासी सैठ हीराचन्द नेमचन्द उनके मित्र थे। वे भी दिगम्बर समाज के एक ख्याति प्राप्त धर्मानगगी एवं समाजसेवी श्रावक थे । सेठ मागिकचन्द ने उन्हें सिद्धान्त-ग्रन्थों के सम्बन्ध में लिखा और चिन्ता प्रकट की। उन्होंने उन्हें स्वयं सिद्धान्त-ग्रन्थों के दर्शन कर पाने की प्रेरणा दी और साथही-साथ अनरोथ किया कि अविलम्ब कोई मा उपाय मोचें, जिससे उन ग्रन्थों का उद्धार हो सके। सेठ हीराचन्द नेमचन्द के मन पर इसका असर दूग्रा । दसरे ही वर्ष वे मडबिद्री की यात्रा पर गये। उन्होंने श्रवगातेलगोला के ० ब्रासरि शास्त्री को भी अपने साथ लिया। सेठजी के अनरोध पर शास्त्रीजी ने उन्हें तथा उपस्थित सज्जनों को धवल-सिद्धान्त का मंगलाचरण पढ़कर सनाया। सब हर्ष-विभोर हो गये। सेठजी अन्तःप्रेरित हुए, मन-हीमन निश्चय किया, इन ग्रन्थों को बाहर लाने का अवश्य ही प्रयास करना है। ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने के सम्बन्ध में पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री से भी बातचीत की। वहां से लौटकर वे बम्बई आये। सेठ माणिकचन्द जे० पी० से सिद्धान्त-ग्रथों की प्रतिलिपि करवाने के सम्बन्ध में चर्चा की और वैसा करने का विचार स्थिर कर लिया, पर वे दोनों ही अति व्यस्त व्यवसायी ठहरे, कार्यारम्भ नहीं हो सका। समय जाते क्या देर लगती है, दश वर्ष और व्यतीत हो गये। সনালাণ অবশ্য গী। অসন মী उपर्युक्त विचार-विमर्श का प्रसंग चल ही रहा था, उस बीच दिगम्बर समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० गोपालदास बरैया को साथ लेकर अजमेर के सेठ मूलचन्द सोनी मूडबिद्री की तीर्थ-यात्रा पर गये । सिद्धांत-ग्रन्थों की प्रतिलिपि का प्रसंग चला । उन्होंने मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंचों से स्वीकृति ली। पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री से प्रतिलिपि कराने का निश्चय किया। कार्यारम्भ हो गया। पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री लगभग तीनसौ श्लोक-प्रमाण सामग्री की ही प्रतिलिपि कर पाये थे कि कार्य स्थगित कर देना पड़ा । सेठ मूलचन्द सोनी 2010_05 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्रत और उसका नाममय 1 ॥ तथा मूडबिद्री के भट्टारक व पंचों के बीच एक बात को लेकर विचार-भेद हो गया। सेठ सोनी वह प्रतिलिपि अजमेर के लिए चाहते थे। मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंचों को यह स्वीकार नहीं था । प्रतिलिपि हो, इसमें वे सहमत थे, पर उसका मूडबिद्री से बाहर जाना उन्हें मान्य नहीं था । कार्य ज्यों-का-त्यों रह गया। প্লনধি : নবাবzস • প্রসাধন बम्बई के सेठ माणिकचन्द और सोलापुर के सेठ हीराचन्द के मन में भावना तो थी ही, व्यस्ततावश वे क्रियान्वित नहीं कर पाये थे। उन्होंने अपना पूर्वतन प्रयास पुनः चालू किया। प्रार्थिक-व्यवस्था भी कर ली। पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री को उस कार्य के हेतु नियुक्त कर लिया। कार्य बड़ा विशाल था; अतः मिरज निवासी पं० गजपति शास्त्री को भी उनके साथ नियुक्ति कर दी। दोनों शास्त्री मूडबिद्री प्राये। इस प्रकार सन् १८९६ में प्रतिलिपि का कार्य चालू हुआ । जयधवल में पन्द्रह पत्र-१५०० श्लोक-प्रमाण सामग्री की ही प्रतिलिपि हो पायी थी कि कुछ कालान्तर से पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री स्वर्गवासी हो गये । अब अकेले गजपति शास्त्री ही प्रतिलिपिकार रह गये। वे लगन तथा निष्ठापूर्वक अपने कार्य में जुटे रहे । सोलह वर्ष के अनवरत श्रम से वह कार्य पूरा हुआ अर्थात् धवल तथा जयधवल की मूल कनाड़ी लिपि से देवनागरी में प्रतिलिपि कर ली गई । सन् १८९६ में शुरू हुआ यह कार्य सन् १९१२ में सम्पन्न हुआ। कनाड़ी में भी प्रतिलिपि देवनागरी में प्रतिलिपि का कार्य चल ही रहा था, इस बीच कनाड़ी लिपि में भी प्रतिलिपि का कार्य चालू किया गया। मूडबिद्री के पं० देवराज सेठी, शांतप्पा उपाध्याय, ब्रह्मय्या इन्दु इस कार्य में लगे थे । इस प्रकार, देवनागरी लिपि के साथ-साथ कनाड़ी लिपि में भी धवल और जयधवल की प्रतिलिपि कर ली गई । पर, यह सब हुआ सिद्धान्त-वसदि में रखने के लिए। মাথল ধ্বী নানাবি सोलापुर के सेठ हीराचन्द, जो इस कार्य के संचालक थे तथा जो इन ग्रन्थों को बाहर लाने की तीव्र उत्कण्ठा लिए हुए थे, मूडबिद्री आये । धवल और जयधवल की प्रतिलिपि हो ही चुकी थी, उन्होंने अपनी भावना व्यक्त की कि यदि तृतीय सिद्धान्त-ग्रन्थ महाधर ल की प्रतिलिपि और हो जाय तो बहुत अच्छा हो । साथ-ही-साथ सेठ की यह भी भावना थी कि ___ 2010_05 Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ j मागम और ब्रिfपटक : एक अनुशीलन [२ इन सभी ग्रन्थों की सुरक्षा तथा तस्व-जिज्ञासुनों के उपयोग के उद्देश्य से अनेक प्रतिलिपियां हों तथा उन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों में रखा जाए। मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंच इससे सहमत नहीं हुए। इतना भर हुआ कि सिद्धान्त - वसदि में रखे जाने के लिए महाधवल की कनाड़ी में प्रतिलिपि कराये जाने की स्वीकृति हो गई । पं० नेमिराज सेठी इस कार्य में लगा दिये गये, जिन्होंने सन् १९१८ से पहले इसे सम्पन्न कर दिया। इस प्रकार महाघवल की कमाड़ी प्रतिलिपि तो हो गई, पर, सेठ हीराचन्द चाहते थे, उसकी देवनागरी में भी प्रतिलिपि हो । प्रस्ताव स्वीकृत होने पर पं० लोकनाथ शास्त्री नामक विद्वान् को इस कार्य में लगाया गया, जिन्होंने चार वर्ष की का कार्य सन् १८९६ में चालू हुआ तथा समय इसमें व्यतीत हुआ । अवधि में इसे सम्पन्न कर लिया । इस प्रतिलिपि सन् १९२२ में समाप्त हुआ । कुल २६ वर्षों का पं० गजपति शास्त्री द्वारा अतिरिक्त प्रतिलिपि जैसा कि कहा गया है, धवल और जयधवल की देवनागरी प्रतिलिपि का कार्य १५०० श्लोक - प्रमाण सामग्री के अतिरिक्त सारा का सारा पं० गजपति शास्त्री ने अकेले किया । वे जानते थे, यह प्रतिलिपि जो हो रही है, मूडबिद्री के मन्दिर में ही रहेगी, कहीं बाहर नहीं जा सकेगी। उनमें विचारोद्व ेलन हुआ। उनकी पत्नी लक्ष्मी बाई एक विदुषी महिला थी । उसने भी इस स्थिति का अंकन एवं पर्यालोचन किया । दोनों सोचने लगे - क्यों न हम लोग गुप्त रूप से इसकी एक कनाड़ी लिपि कर लें । लक्ष्मी बाई ने अपने पति को इसके लिए विशेष रूप से प्रेरित किया । अन्तत: पति-पत्नी ने निश्चय किया कि वे गुप्त रूप से कनाड़ी प्रतिलिपि करेंगे । कनाड़ी में प्रतिलिपि करने का निर्णय शायद इसलिए किया गया हो कि वैसा होने से वह कार्य अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता से होगा । क्योंकि ये कन्नड़ भाषी थे, कनाड़ी उनकी लिपि थी, जिसमें लिखने का उनका अभ्यास देवनागरी की अपेक्षा द्रुततर रहा हो । दूसरा कारण यह भी हो सकता है, लक्ष्मीबाई को देवनागरी लिपि का विशेष अभ्यास न रहा हो, जिससे देवनागरी में प्रतिलिपि करने में वह अपने पति की सहयोगिनी नहीं हो सकती थी, जबकि कनाड़ी में प्रतिलिपि किये जाने में वह अपने पति को पूरा सहयोग कर सकती थी । प्रस्तु, उधर दिन में मन्दिर में देवनागरी में प्रतिलिपि किये हुए पत्र पं० गजपति शास्त्री वहां से लौटते समय गुप्त रूप से अपने घर लेते आते । रात्रि में वे तथा उनकी पत्नी कनाड़ी में प्रतिलिपि करते जाते । उधर देवनागरी प्रतिलिपि समाप्त हुई, इधर 2010_05 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] शौरसेनी प्राकृत और उसका मामय ५५ कनाड़ी प्रतिलिपि का कार्य भी साथ-ही-साथ सम्पन्न हो गया। पति-पत्नी दोनों ने मिल कर इस कार्य में घोर परिश्रम किया। पं० गजपति शास्त्री का यह कार्य नैतिकता की भाषा में नहीं आता तथा न उन्होंने एकमात्र ज्ञान-प्रसार के भाव से ही उसे किया, फिर भी इतना तो निःसंकोच कहा जा सकता है कि पं० गजपति शास्त्री और उनकी विदुषी पत्नी यदि ऐसा न करते तो ये दुर्लभ सिद्धान्त-ग्रन्थ पन्थ-भण्डार की कारा से शायद ही बाहर पा पाते । यदि माते तो भी बड़े विलम्ब से, बड़ी कठिनाई से । নী সানিলা স্কা বাসিসন पं० गजपति शास्त्री अपनी प्रतिलिपि किसी सुयोग्य, समर्थ व्यक्ति को उपहृत करना चाहते थे, जिससे वह किसी उपयुक्त स्थान में अवस्थित रह सके ताकि कभी उपयोग में भी आ सके । वे उसके लिए पुरस्कार भी चाहते थे। वे सोलापुर आये। उन्होंने सेठ हीराचन्द से अनुरोध किया कि वे प्रतिलिपि ले लें। सेठ ने प्रतिलिपि लेना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने मित्र बम्बई निवासी सेठ माणिकचन्द जे०पी० को भी लिख दिया कि वे भी धवल, जयधवल की प्रतिलिपि स्वीकार न करें। यद्यपि सेठ हीराचन्द हृदय से इन सिद्धान्त-ग्रन्थों का प्रचार-प्रसार चाहते थे और जैसा कि पहले सूचित किया गया है, तदर्थ अधिक प्रतिलिपियां कराना भी चाहते थे, पर ग्रन्थ बाहर न ले जाने के सम्बन्ध में मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंचों के साथ उनकी वचन-बद्धता थी, जो प्रतिलिपियां स्वीकार करने से भंग होती थी; अतः वैसा करना उन्हें अपने लिए नैतिक नहीं लगा। तब पं० गजपति शास्त्री सहारनपुर गये । वहां जैन समाज के प्रमुख लाल जम्बूप्रसाद रईस थे। उन्होंने प्रतिलिपियां स्वीकार कर ली और शास्त्रीजी को पुरस्कार प्रदान किया । प्रतिलिपियां मन्दिर में रख दी गई। लाला जम्बूप्रसाद रईस चाहते थे कि उन द्वारा गृहीत उन सिद्धान्त-ग्रन्थों की देवनागरी में भी प्रतिलिपि हो ताकि उत्तर भारत में उनका उपयोग हो सके। पं० गजपति शास्त्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे वैसा कर देंगे। पर, यह सम्भव नहीं हो सका, क्योंकि पं० गजपति शास्त्री अपने पुत्र की रुग्णता के कारण घर लौट आये । संयोग ऐसा हुआ, उनकी पत्नी भी रुग्ण हो गई तथा कुछ समय के पश्चात् उसका देहावसान हो गया। ऐसी विषम परिस्थिति के कारण शास्त्रीजी फिर सहारनपुर नहीं जा सके। १९२३ ईसवी 2010_05 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] . आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ में वे स्वयं परलोकगामी हो गये। अपने द्वारा की गई कनाड़ी प्रतिलिपि का देवनागरी रूपान्तर उनके हाथ से नहीं हो सका । নী বনামী रईस कनाडी से देवनागरी प्रतिलिपि कराने के लिए विशेष प्रयत्नशील थे। इसके लिए ऐसे विद्वानों की आवश्यकता थी, जो दोनों लिपियों के अच्छे अभ्यासी हों, संस्कृत-प्राकृतविद् भी हों। लालाजी को पं० विजयचन्द्रय्या तथा पं० सीताराम शास्त्री नामक विद्वान् मिल गये । १९१६ ईसवी से प्रतिलिपि का कार्य आरम्भ हुमा । सात वर्ष तक चला । १९२३ ईसवी में सम्पन्न हुा । लाल जम्बूप्रसाद रईस आदि ने यह आवश्यक समझा कि कनाड़ी और देवनागरी प्रतिलिपियों का बहुत ध्यान से मिलान करवाया जाए, ताकि कोई स्खलना न रहे । दोनों प्रतियां सर्वथा एकरूप हों। मूडबिद्री निवासी पं० लोकनाथ शास्त्री इस कार्य के हेतु बुलवाये गये । उन्होंने दोनों प्रतियों का मिलान कर दिया। অং সনানাবিখা - सहारनपुर में की गई देवनागरी प्रतिलिपि कनाड़ी की तरह मन्दिर में सन्निधापित कर दी गई । कार्य समाप्त हुआ। पर, वहां भी मूडबिद्री की घटना से मिलती-जुलती सी घटना पुनरावृत्त हुई। पं० सीताराम शास्त्री ने एक प्रतिलिपि और कर ली एवं उसे अपने पास रख लिया। ऐसा करने के पीछे उनके मन में दोनों प्रकार की भावनाएं रही होंइन सिद्धान्त-ग्रन्थों को अन्यत्र प्रसृत करने का अवसर हाथ में रहे और साथ-ही-साथ पुरस्कार पाने का भी। पं० सीताराम शास्त्री के पास रही प्रति के सम्बन्ध में एक और प्रकार की चर्चा भी है। पं० विजयचन्द्रय्या और पं० सीताराम शास्त्री जब प्रतिलिपि का कार्य करते थे, तब उनका विधि-क्रम यह था-पं० विजयचन्द्रय्या ग्रन्थ पढ़ते जाते थे और पं० सीताराम शास्त्री एक कच्चे खरे के रूप में लिखते जाते थे ताकि लेखन शीघ्रता से हो सके । श्री शास्त्री ने उस कच्चे खरे से सावधानीपूर्वक स्पष्ट अक्षरों में शास्त्राकार प्रतिलिपि तैयार की तथा लालाजी को सौंप दी। कच्चे खरे वाली प्रति पं० सीताराम शास्त्री ने अपने पास रख ली। षट्खण्डागम के प्रति समग्र दिगम्बर समाज में प्रत्यन्त श्रद्धा एवं पूजा के भाव रहे ही हैं, लोगों को जब यह विदित हुआ, उन्होंने पं० सीताराम शास्त्री से अपने-अपने स्थानों के लिए प्रतिलिपियां करवाई, झागे कुछ प्रतिलिपियां पं० सीताराम शास्त्री द्वारा की गई 2010_05 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [ ६३७ प्रतिलिपियों के आधार पर भी हुईं। इस प्रकार अजमेर, अमरावती, आरा, इन्दौर, कारंजा, झालरापाटन, दिल्ली, बम्बई, ब्यावर, सागर, सिवनी तथा सोलापुर में उन सिद्धान्त-ग्रन्थों की प्रतिलिपियां सन्निधापित हुईं । 3 यह उन महान् ग्रन्थों के शास्त्र भण्डार से बाहर आने की कहानी है, जो काफी प्रेरक' भी है और रोमांचक भी । धर्म के दो पक्ष हैं-ज्ञान और उपासना । दोनों सन्तुलित रूप में चलें तो यथार्थतः धर्म सधता है । धर्म केवल पूजा और प्रणति तक सिमट जाये तो.... उससे जीवन का साध्य कभी सधता नहीं । जब भी, जिस भी युग में ऐसा होता है, तथाकथित धार्मिक जनों में जड़ता व्याप्त हो जाती है और मात्र धर्मोपासना की बंधी - बंधाई यान्त्रिक पद्धति ही उनके हाथ में रह जाती है । षट्खण्डागम जैसे महत्वपूर्ण वाङ् मय के शताब्दियों तक केवल धूप की सुवास लेते हुए अवस्थित रहने की घटना क्या इस श्रेणी में नहीं आती ? शास्त्र की सच्ची पूजा उसका स्वाध्याय, उस पर मनन, चिन्तन, परिशीलन एवं निदिध्यासन है । वह सब छूट जाये और केवल प्रातः सायं उसकी धूप, दीप, केसर, चन्दन से अर्चना मात्र होती रहे, क्या इसे वास्तविक अर्चना और पूजा की संज्ञा दी जा सकती है, इसका उत्तर पाना विज्ञजनों के लिए कठिन नहीं है । W खVडTTम का कान स्वनामधन्य स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु बड़ा अध्यवसाय किया । उन्हें तथा उनके साथियों को अनेक विघ्न वाधाओं का सामना करना पड़ा | तब एक वर्ग ऐसा भी था, जो उन ग्रन्थों के प्रकाशित होने में धर्म की अवहेलना और ज्ञान की सातना समझता था । इन महान् ग्रन्थों को प्रतिमानों की तरह केवल मन्दिरों में या शास्त्र - भण्डारों में प्रतिष्ठित देखना ही उन्हें श्रेयस्कर लगता था । पर मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् के अनुसार डा० जैन अपने साथियों सहित वर्षों उस कार्य में लगे रहे । फलतः वे महान् ग्रन्थ, जिनके कभी दर्शन भी दुर्लभ थे, जन-साधारण के हाथ में आ गये । डा० जैन और उनके साथियों की कठिनाइयों का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि जब प्रकाशन की चर्चा चली तो कोई भी अपनी प्रतिलिपियां उन्हें देने के लिए सहसा तैयार नहीं हुआ । डा० जैन ने स्वयं लिखा है : पहली चिन्ता घबल, जबधवल की प्रतिलिपि प्राप्त करने की हुई । उस समय इन ग्रन्थों को प्रकाशित करने के नाम से ही धार्मिक लोग चौकन्ने हो जाते और उस कार्य के लिए कोई प्रतिलिपि देने के लिए, 2010_05 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (i) आगम और fafपटक : एक अनुशीलन [ २ तैयार नहीं थे। ऐसे समय में श्रीमान् सिंघई पन्नालालजी ने व अमरावती पंचायत से सत्साहस करके अपने यहां की प्रतियों की सदुपयोग करने की अनुमति दे दी ।" 1 अमरावती की प्रतिलिपि से प्रस- कॉपी तैयार की गई । अमरावती की प्रति सागरस्थित प्रति की प्रतिलिपि है । सागर की प्रति पं० सीताराम शास्त्री के हाथ की है । 1 पाठ-संशोधन में धारा तथा कांरजा की प्रतियों के उपयोग की सुविधा प्राप्त हो गई ये दोनों प्रतियां पं० सीताराम शास्त्री के हाथ की हैं । मूडबिद्री की प्रति से मिलाने का तो तंब अवसर ही कहां था । वहां वाले तो उनमें से थे, जिनकी दृष्टि से यह कार्य धर्म का प्रतिगामी था । इस सन्दर्भ में डा० जैन ने अपनी तथा अपने साथियों की मनोव्यथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है : "जिन प्रतियों को लेकर हम संशोधन करने बैठे थे, वे त्रुटियों और स्खलनों से परिपूर्ण हैं । हमें उनके एक-एक शब्द के संशोधनार्थं न जाने कितनी मानसिक कसरतें करनी पड़ी हैं और कितने दिनों तक रात के दो-दो बजे तक बैठकर अपने खून को सुखाना पड़ा है । फिर भी हमने जो संशोधन किया, उसका सोलहों ने यह भी विश्वास नहीं कि वे ही आचायं रचित शब्द हैं । और यह भी सब करना पड़ा, जब कि मूडबिद्री की आदर्श प्रतियों के दृष्टिपात मात्र से सम्भवतः उन कठिन स्थलों का निर्विबाद रूप से निर्णय हो सकता था । हमें उस मनुष्य के जीवन का-सा अनुभव हुआ, जिसके पिता की अपार कमाई पर कोई ताला लगाकर बैठ जाय और वह स्वयं एक-एक टुकड़े के लिए दर-दर भीख मांगता फिरे। इससे जो हानि हुई, वह किसकी ? जितना समय और परिश्रम इसके संशोधन में खर्च हो रहा है, उससे मूल प्रतियों की उपलब्धि में न जाने कितनी साहित्य-सेवा हो सकती थी और समाज का उपकार किया जा सकता था । ऐसे ही समय और शक्ति के अपव्यय से समाज की गति रुकती है । इस मन्द गति से न जाने कितना समय इन ग्रन्थों के उद्धार में खर्च होगा। यह समय साहित्य, कला और संस्कृति के लिए बड़े संकट का है । राजनैतिक विप्लव से हजारों वर्षों की सांस्कृतिक सम्पत्ति कदाचित् मिनटों में भस्मसात हो सकती है । देव रक्षा करे, किन्तु यदि ऐसा ही संकट यहां आ गया तो ये द्वादशांग - वारगी के अवशिष्ट रूप फिर कहां रहेंगे ? हस्श, चीन आदि देशों के उदाहरण हमारे सम्मुख हैं। प्राचीन प्रतिमाएं खण्डित हो जाने पर नई कभी भी प्रतिष्ठित हो सकती है, पुराने मंन्दिर जीणं होकर गिर जाने पर नये कभी भी निर्माण कराकर खड़े किये जा सकते हैं । धर्म के अनुयायियों की संख्या कम होने पर कदाचित् प्रचार द्वारा १. पण, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ० २ 2010_05 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका धामय । ६३९ बढ़ाई जा सकती है, किन्तु प्राचीन आचार्यों के जो शब्द ग्रन्थों में ग्रथित हैं, उनके एक बार नष्ट हो जाने पर उनका पुनरुद्धार सर्वथा असम्भव है। क्या लाखों-करोड़ों रुपया खर्च करके भी पूरे द्वादशांग श्रुत का उद्धार किया जा सकता है ? कभी नहीं। इसी कारण सजीव देश, राष्ट्र और समाज अपने पूर्व साहित्य के एक-एक टुकड़े पर अपनी सारी शक्ति लगाकर उसकी रक्षा करते हैं । यह ख्याल रहे कि जिन उपायों से अभी तक ग्रन्थरक्षा होती थी, वे उपाय अब कार्यकारी नहीं । संहारक शक्ति ने आजकल भीषण रूप धारण कर लिया है । आजकल साहित्य-रक्षा का इससे बढ़कर दूसरा कोई उपाय नहीं कि ग्रन्थों की हजारों प्रतियां छपाकर सर्वत्र फैला दी जायें ताकि किसी भी अवस्था में कहीं-नकहीं उनका अस्तित्व बना ही रहेगा। यह हमारी श्रुत-भक्ति का अत्यन्त बुद्धिहीन स्वरूप है, जो हम ज्ञान के इन उत्तम संग्रहों की ओर इतने उदासीन हैं और उनके सर्वथा विनाश की जोखम लिए चुपचाप बैठे हैं।" ___ सम्पादन-कार्य में डा० जैन को दिगम्बर समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री तथा पं० हीरालाल शास्त्री न्यायतीर्थ का असाधारण सहयोग तथा साहाय्य रहा । इसी प्रकार संशोधन-कार्य में प्राकृत एवं जैन वाङमय के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् डॉ० ए० एन० उपाध्ये तथा व्याख्यान-वाचस्पति पं० देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्री जैसे मनीषियों का साहाप्य रहा। প্রথম ধাপ ঝা সন্ধান : হ্ম জন্ম সনাক্কথা __ मानव एक विचित्र प्राणी है। वह कब क्या सोचे, कैसा करे—यह सब रहस्यमय है। जो वह माज सोचता है, कल भी वैसा ही सोचेगा अथवा उसका चिन्तन कोई दूसरी करवट लेगा, निश्चय की भाषा में कुछ कहा नहीं जा सकता। षट्खण्डागम के प्रथम भाग के प्रकाशन के बाद जन-मानस में एक दूसरा ही चिन्तन स्पन्दित हुआ । एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ को हिन्दी अनुवाद के साथ लोगों ने देखा और उन्होंने पहले-पहल यह अनुभव किया कि वे इस ग्रन्थ को पढ़ भी सकते हैं, जिसके दर्शनों का सौभाग्य पाना भी कभी कठिन था। अनेक सुज्ञ जन, जो इस ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे, अत्यधिक प्रसन्न हुए ही, उन लोगों का मानस भी बदला, जो कभी इन ग्रन्थों के प्रकाशन को अशुभ कार्य मानते थे। पहले-पहल उन्होंने ऐसे ग्रन्थों के प्रकाशन की उपयोगिता का महत्व प्रांका। १. षट्खण्डागम, खग १, माग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ० ६-७ 2010_05 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । ___चिन्तन में मोड़ आना स्वाभाविक था। क्योंकि उपयोगिता का यथार्थ दर्शन मानव को अति-भावुकता से हटाकर प्रज्ञा की भूमि में ले जाता है। यहां कुछ ऐसा ही हुआ । मूडबिद्री के भट्टारक, पंच तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति भी इससे बड़े प्रसन्न हुए । डा० जैन ने इस सम्बन्ध में जो कुछ उल्लेख किया है, उससे वहां के लोगों की मनोवृत्ति में सहसा कितना भारी परिवर्तन आ गया, इसका स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। वे लिखते हैं : "श्री धवल सिद्धान्त प्रथम विभाग के प्रकाशित होने से, हमें जो प्राशा थी, उसकी सोलहों पाने पूर्ति हुई । हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष और संतोष है कि मूडबिद्री मठ को भेंट की हुई शास्त्राकार और पुस्तकाकार प्रतियों के वहां पहुंचने पर उन्हें विमान में विराजमान करके जुलूस निकाला गया, श्रुतपूजन किया गया और सभा की गई, जिसमें वहां के प्रमुख सज्जनों और विद्वानों द्वारा हमारी संशोधन, सम्पादन और प्रकाशन-व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की गई और यह मत प्रगट किया गया कि आगे इस सम्पादन-कार्य में वहां की मूल प्रति से मिलाने की सुविधा दी जानी चाहिये, नहीं तो ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होगा । यह सभा मूडबिद्री मठ के भट्टारक श्री चारुकीति पण्डिताचार्यवयं के ही सभापतित्व में हुई थी। उस समारम्भ के पश्चात् स्वयं भट्टारकजी ने अपना अभिप्राय हमें सूचित किया और प्रति मिलाने की व्यवस्थादि के लिए हमें वहां आने के लिए पामन्त्रित किया।"1 प्रथम भाग का प्रकाशन तो हो ही चुका था, बागे के प्रकाशन की प्रेस-कॉपियों को मूडबिद्री की मूल प्रति से मिलाने की भी स्वीकृति मिल गई। महाधवल (महाबंध) के प्रकाशनार्य प्रतिलिपि कराये जाने की स्वीकृति और प्राप्त हो गई। भरविद्री की प्रतियां भवला की संस्कृत-कन्नड़-मिश्रित प्रशस्ति, श्रमणवेलगोला के शिलालेख आदि के सम्यक् परिशीलन से ऐसा परिज्ञात होता है कि देमियक्क, देमति, देयवती या देवमति नामक सद्धर्मनिष्ठ महिला, जो श्रेष्ठिराज चामुण्ड की पत्नी, बूचिराज की बहिन, भुजबलिगंगपेर्माडिदेव की भुमा थी, ने अपने श्रत-पंचमी के व्रतोद्यापन के उपलक्ष में ये ताड़पत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थ अपने गुरु शुभचन्द्रदेव को अर्पित किये थे। धवला की प्रशस्ति तथा श्रमणबेलगोला के शिलालेख के अनुसार शुभचन्द्रदेव का देहावसान शक संवत् १०४५ 1. पदसण्डागम, खण १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ०२ 2010_05 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ↑ વર્ષે श्रावण शुक्ला दशमी शुक्रवार को हुआ । शुभचन्द्रदेव मूल संघ - देशीगरण - पुस्तक- गच्छ से सम्बद्ध थे । श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४९ (१२९) में देमति के समाधि मरण को प्रशस्ति के रूप में विस्तृत उल्लेख है, जिसमें उनके अनेक गुण - आहार, शास्त्र, औषध, अभय आदि की दानशीलता, देवपूजाभिरुचि, सतीत्व, पुण्यशीलता, लावण्य आदि की चर्चा की गई है । अन्त में कन्नड़ में उसके देहावसान का समय शक संवत् १०४२ फाल्गुन कृष्णा ११ बृहस्पतिवार लिखा है । " अनुमेय है, मति द्वारा अपने गुरु शुभचन्द्रदेव को इन ताड़पत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थों के उपहृत किये जाने का समय सम्भवतः शक संवत् १०३७ तथा १०४२ के मध्य रहा हो । १. एतत्सूचक श्लोक, जो धवला की प्रशस्ति तथा श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४३ (११७) में समान रूप में प्राप्त है : वाणाम्भोधिनमश्शशांकतुलि ते जाते शकाब्दे ततो, वर्षे शोभकृताह्वये ब्युपनते मासे पुनः श्रावणे । पक्षे कृष्णविपक्षवर्तिनि सिते वारे वशम्यां तिथौ, स्वर्यातः शुभचन्द्रवेवगणभृतु सिद्धांतवारांनिधिः ॥ २. आहारं त्रिजगज्जनाय विभयं भीताय दिव्यौषधं, व्याधिव्यापदुपेतदीन मुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमम् । एवं देवमतिस्सर्वव ववती प्रत्रक्षये स्वायुषामहं वमतिं विधाय विधिना विव्या वधूः प्रोवभूत् ॥ आसीत्परक्षोभकरप्रतापाशेषावनीपालकृतादरस्य चामुण्डनाम्नो वणिजः प्रिया स्त्री मुख्या सती या भुवि देमतीति ॥ भूलोकचैत्यालयचैत्यपूजाव्यापारकृत्यादरतोऽवतीर्णा 1 स्वर्गात्सुरस्त्रोति विलोक्यमाना पुण्येन लावण्यगुणेन चाव ॥ वायिन्यलं आहारशास्त्राभयभेषजानां वर्णचतुष्टयाद । पश्चात्समाधिक्रियया मृदन्ते स्वस्थानवत्स्वः प्रविवेश योच्चैः ॥ जित्वा व्यवस्थापितधर्मनृत्त्या । सद्धर्मशत्रु कलिकालराजं तस्या जयस्तम्भनिभं शिलाया स्तम्भं व्यवस्थापयति स्म लक्ष्मीः ॥ श्री मूल संघद वेशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तवेवर गुड्डि सक वर्ष १०४२ नेय विकारि संवत्सरद फाल्गुन ब० ११ बृहबार बन्दु संन्यासन विधियि मिक्क सुडिपि । 2010_05 Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ३ डा० हीरालाल जैन ने सम्बद्ध घटनाओं, लेखों, प्रसंगों आदि के आधार पर मूडबिद्री स्थित इन ताडपत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थों के लेखन का समय शक संवत् ९५० के लगभग सम्भावित माना है। সাধাৰ্থ বহন : নিবন্ধ পাব # भारत के प्राचीन-कालीन विद्वानों, साहित्यिकों तथा ग्रन्थकारों के इतिहास के सम्बन्ध में आज भी बहुत कुछ अस्पष्ट जैसा है । अधिकांशतः अनुमानों तथा अटकलों से काम चलाना होता है । इसके पीछे भारतीय मनीषियों की एक विशेष चिन्तनात्मक पृष्ठभूमि रही है । करणीय के प्रति सर्वथा जागरूकता और अपने वैयक्तिक परिचय या आत्म-प्रकाशन के प्रति सहजतया एक उपेक्षा-भाव प्राक्तन ग्रन्थकारों में अक्सर देखा जाता है। उत्तरवर्ती लेखकों ने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहा हो तो उन्हें सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी हो। यदि उपलब्ध भी हुई हो तो बहुत कम। क्योंकि कालिक व्यवधान इतिवृत्तों तथा घटना-क्रमों को विस्मृति के गर्त में पहुंचाता जाता है । दिगम्बर परम्परा के द्वादशांग का अंगभूत षट्खण्डागम जैसा महान् ग्रन्थ जिनसे उपलब्ध हुआ, उन प्राचार्य धरसेन के सम्बन्ध में केवल पुष्पदन्त और भूतबलि को श्रुताध्ययन कराने के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्टतया ज्ञात नहीं है। उनके समय, गुरु-परम्परा आदि के सम्बन्ध में इधर-उधर की सामग्री के आधार पर ही कुछ संभावनाएं की जा सकती हैं। पट्टानुम में घरसेन का अनुल्लेख दिगम्बर सम्प्रदाय में गौतम से लोहार्य तक की पट्टावली का तिलोयपण्णत्ति, हरिवंश पुराण, धवला, जयधवला, श्रुतावतार आदि में उल्लेख है । पीछे यथाप्रसंग उस ओर संकेत किया गया है। उनमें गौतम से लोहार्य तक अट्ठाईस प्राचार्य होते हैं , जिनमें तीन केवली, पांच श्रु तकेवली, ग्यारह दशपूर्वधर, पांच एकदशांगधर तथा चार आचारांगधर हैं । लोहार्य के पश्चात् पट्टानुक्रम वणित नहीं है। इस सन्दर्भ में यह कल्पना की जा सकती है कि लोहार्य के पश्चात् आचार्य धरसेन का समय रहा होगा । धवला में लोहार्य तक का उल्लेख कर केवल इतना-सा कहा है कि धरसेनाचार्य को प्राचार्य-परम्परा से आते हुए अंगों तथा पूर्वो के ज्ञान का एकदेश 2010_05 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fire साहित्य ] प्राप्त हुआ । इस उल्लेख से धरसेनाचार्य का कोई निश्चित समय बोधित नहीं होता । इन्द्रनन्दि ने तावतार में लोहार्य तक का गुरु-क्रम बताने के साथ-साथ सामष्टिक रूप से चार आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनके नाम विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त तथा प्रर्हद्दत्त हैं । इन्द्रनन्दि के अनुसार ये आचार्य अंगों तथा पूर्वी के एकदेशीय ज्ञाता थे। इनके अनन्तर इन्द्रनन्दि ने अर्हदुबलि की चर्चा की है । उनके सम्बन्ध में कहा है कि वे महान् संघाधिपति थे । पूर्व देश में स्थित पु'डवर्धन नामक नगर उनका जन्म स्थान था। वे जैन संघ की समयानुरूप नई व्यवस्था बांधना चाहते थे, इसलिए पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर उन्होंने मुनियों का एक सम्मेलन प्रायोजित किया । श्रुतावतारकार ने लिखा है कि उस सम्मेलन में सौ योजन के मुनिगण उपस्थित हुए थे । स्थिति का पर्यवेक्षरण कर अर्हद्रबलि सोचने लगे, ऐसा युग आ गया है कि मुनियों का मन पक्षपात से अछूता नहीं है । धर्म संघ बड़ा विशाल है । अब मेलपूर्वक निर्वाह में कठिनाई होगी । इसलिए अधिक अच्छा हो, यदि संघ को कई भागों में बांट दिया जाये । ऐसा करने से, श्रहं दुबलि का चिन्तन था, सैद्धान्तिक ऐक्य अक्षुण्ण रहेगा, संघीय व्यवस्था अपनी-अपनी होती रहेगी। इससे श्रमरणों में पारस्परिक स्नेह, समन्वय एवं आत्मीय भाव की वृद्धि होगी । इस विचार के अनुसार उन्होंने सारे संघ को कई भागों में बांट दिया। उनके अलग-अलग संघ बना दिये, जिनमें नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुरणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि मुख्य थे । शौरसेनी और उसका वाङ्मय प्राकृत इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में श्रर्हबलि के पश्चात् माघनन्दि के होने का उल्लेख किया है । उन्होंने उन्हें मुनिश्रेष्ठ कहा है । यह भी सूचित किया है कि माघनन्दि ने अंगों मौर पूर्वो के एकदेश का उद्योत प्रसृत किया । अन्त में समाधि मरण द्वारा अपनी ऐहिक लीला समाप्त की । १. तो सम्बेसिमंगपुब्वाणमेग-वेसो संपतो । 2010_05 eva इन्द्रनन्दि ने उनके पश्चात् प्राचार्य धरसेन की चर्चा की है, जो गिरिनार के समीप ऊर्जयन्त पर्वत की चन्द्र गुफा में निवास करते थे । लोहा के पश्चात् इन्द्रनन्दि ने उपर्युक्त रूप में चार और तीन मुनियों का जो उल्लेख किया है, वहां उनके पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कुछ नहीं कहा है । अतः कौन किसका आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन उत्तराधिकारी था, उनमें परस्पर गुरु-शिष्य-सम्बन्ध था या नहीं, कुछ ज्ञात नहीं होता। ऐसा लगता है, इन्द्रनन्दि ने इन विशिष्ट मुनियों के नाम सुने हों और काल-भेद के बिना उनका उल्लेख कर दिया हो । जो इतिवृत्त प्राप्त हुआ या सुना गया, उसे भी वरिणत कर दिया हो । इन्द्रनन्दि ने स्वयं प्रसंगोपात्त रूप में कहा है कि गुणधर और धरसेन की गुरुपरम्परा उन्हें ज्ञात नहीं है। क्योंकि वैसा बताने वाला न कोई ग्रन्थ है और न कोई मुनि ही।। नन्दि-संघ की संस्कृत-गुर्वावली में माधनन्दि नन्दिसंघ की संस्कृत-गुर्वावली में जहां मूल संघ से नन्दिसंघ व बलात्कारगण की उत्पत्ति का उल्लेख है, वहीं माघनन्दि की चर्चा है । गुर्वावलिकार ने उन्हें पूर्वपदांशवेदीअंशतः पूर्व-ज्ञान के वेत्ता तथा मनुष्यों और देवों द्वारा वन्दनीय कहा है।' सम्भव है, अर्हद्बलि ने जैन संघ का जो विभिन्न संघों में विभाजन किया, उनमें नन्दिसंघ का अधिनायकत्व उन्हें सौंपा हो । इस गुर्वावली में धरसेन का कोई उल्लेख नहीं है । माघनन्दि के उत्तराधिकारी के रूप में जिनचन्द्र का, तत्पश्चात तत्पट्टाधिकारी पद्मनन्दि कुन्दकुन्द का उल्लेख है। यहां यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि श्रु तावतार में जिन माघनन्दि की चर्चा है, ये वह माघनन्दि हैं या कोई दूसरे। क्योंकि वहां उनके बाद धरसेन पाते हैं, जब कि यहां वैसा कोई संकेत नहीं है । ___ यहां एक कल्पना की जा सकती है कि जिनचन्द्र तथा धरसेन दोनों ही माघनन्दि के शिष्य रहे हैं । धरसेन की विद्या, ध्यान, मंत्र तथा तप की आराधना में अधिक अभिरुचि रही हो । ऊर्जयन्त पर्वत की चन्द्र-गुफा में उनके साघना-निरत रहने की घटना से यह तथ्य समर्थित होता है। वैसी स्थिति में माघनन्दि ने संघीय व्यवस्था का उत्तरदायित्व जिनचन्द्र को सौंप दिया हो; अतः गुर्वावली के पट्टानुक्रम में धरसेन का नाम न पाकर जिनचन्द्र का नाम माया हो। १. गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥ २. श्री मूलसंजनि नबिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः । तवाभवत्पूर्वपाशवेधी श्रीमाधनन्वी नरदेववन्धः ॥ व सिद्धान्त भास्कर १.४, पृ०५१ 2010 05 Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय । यहां माधनन्दि के लिए जो पूर्वपदांथवेदी विशेषण माया है, वह काफी महत्वपूर्ण है । घरसेन भी पूर्वपदांशवेदी थे। यों भुत-कम में दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं । इसलिए यहां वणित माघनन्दि सम्भवतः वही हैं, जिनका इन्द्रमन्दि ने श्रु तावतार में उल्लेख किया है। जम्बूबीवपणत्ति (दिगम्बर) में भी माघनन्दि की चर्चा है। वहां कहा गया है। "मापनन्दि राग, द्वष तथा मोह से प्रतीत थे। वे श्रुत-सागर के पारगामी तथा प्रगल्म बुद्धिशाली थे । उनके शिष्य सकलचन्द्र थे, जो तत्व-ज्ञान के समुद्र में अवगाहन कर अपना कालुष्य धो चुके थे। जो नीति, नियम तथा शील से सुशोभित व गुणयुक्त थे। सकलचन्द्र के शिष्य श्रीनन्दि थे, जो निर्मल तथा उज्ज्वल ज्ञान व चारित्र्य से संयुक्त थे, सम्यक् दर्शन से परिशुद्ध थे।" __यहां माघनन्दि के लिए जो 'श्रतसागर-पारग' विशेषण दिया है, वह महत्वपूर्ण है। उससे अनुमान होता है कि ये वही माघनन्दि रहे हों, जिनका श्रु तावतार तथा नन्दि-संघ की संस्कृत-गुर्वावली में वर्णन है । क्योंकि तीनों ही स्थानों पर उनके विशिष्ट ज्ञानी होने की सूचना है, जिससे उनका ऐक्य सूचित होता है । संस्कृत-गुर्वावली में माघनन्दि के शिष्य का नाम पद्मनन्दि है। जंबूदीवपण्णत्ति में उनके स्थान पर सकल चन्द्र तथा श्रीनन्दि का उल्लेख है। हो सकता है, एक ही व्यक्ति के ये मिलते-जुलते से दो-दो नाम हों। সন্ধাহী অং সাধনা एक जन-श्रु त्यात्मक घटना है। सिद्धान्त वेदी माघनन्दि किसी दिन भिक्षा के लिए नगर में गये । एक युवती कुम्भकार-कन्या ने उन्हें देखा। वह उन पर मुग्ध हो गई और गपरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइ-पगम्भो। तव-संजम-संपण्णो विक्खाओ माघनंदि गुरू ॥ तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धतमहोदहिम्मि धुयकलुसो। णय-णियम-सील-कलिदो गुणउत्तो सयलचंद गुरू ।। तस्सेव य वरसिस्सो णिम्मल-वर-णाण-चरण संजुत्तो। सम्मसणसुद्धो सिरिणंदि-गुरु ति विक्खाओ ॥ --१५४-५६ ___ 2010_05 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] आगम और fafपटक : एक अनुशीलन [२ उनसे प्रेम की याचना की। मुनि भी उस रूपवती कन्या पर आसक्त हो गये । त्यागी से भोगी बन गये । कुम्भकारी के साथ रहने लगे, बर्तन - भांड़े बनाने लगे । कहा जाता है, एक बार जैन संघ में किसी महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक विषय पर मत भेद या विवाद उत्पन्न हो गया । कोई समाधान नहीं हो पाया । संधाधिपति ने सब और दृष्टि दौड़ाई तो यह माघनन्दि पर जाकर टिकी । माघनन्दि के वैदुष्य तथा सिद्धान्त-वेतृत्व के सम्बन्ध में वे जानते थे । उन्होंने मुनियों को प्रादेश दिया कि वे माघनन्दि के पास जायें, उनसे पूछें, वे समाधान कर सकेंगे। मुनि कुम्भकार के स्थान पर श्राये । माघनन्दि के समक्ष अपनी सैद्धान्तिक समस्या उपस्थित की और समाधान चाहा । माघनन्दि को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने समागत मुनियों से कहा- अब भी संघ मुझे इतना सम्मान देता है ? मुनि बोले- आपके पास जो महत्वपूर्ण गम्भीर श्रुत ज्ञान है, वह सदा समादृत रहेगा । माघनन्दि को सहसा अपनी गरिमा का भान हुआ, भोगासक्तिवश जिसे वे भूल चुके थे । तत्क्षरण तुच्छ भोगों के प्रति उनके मन में ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ । उन्होंने तत्काल कुम्भकारी का साथ छोड़ दिया । अपना कमण्डलु और मयूरपिच्छ उठा लिया तथा प्रायश्चित्त कर पुन: मुनि संघ में सम्मिलित हो गये । माघनन्दि के कुम्भकार - जीवन की एक कहानी यों भी प्रचलित है— जब वे कच्चे घड़ों को पकाने के लिए उन पर भाप देते थे, तब सहजतया कवि हृदय होने के कारण कुछ गुनगुनाने लगते थे । उनकी गुनगुनाहट कविता के रूप में परिणत होती जाती थी । जैनसिद्धान्न भास्कर में 'ऐतिहासिक स्तुति' के शीर्षक से एक षोडश श्लोकात्मक- स्तुति प्रकाशित हुई थी, जो माघनन्दि द्वारा कुम्भकार - जीवन में रचित कही जाती है। वहां इस कथानक की भी चर्चा है । निर्णायक भाषा में तो नहीं कहा जा सकता, ये माघनन्दि कौन से थे; क्योंकि दिगम्बर-परम्परा में इस नाम के एकाधिक आचार्य हुए हैं, पर यहां वर्णित माघनन्दि के श्रुतवैशिष्ट्य तथा सिद्धान्तवेतृता से यही ध्वनित होता है कि वे सम्भवतः अर्हदुबलि के शिष्य माघनन्दि ही हों । श्रवणवेलगोला के एक शिलालेख में भी माघनन्दि का सिद्धान्तवेदी के रूप में उल्लेख है । 2 १. जैन सिद्धान्त भास्कर, सन् १९१३, अंक ४, पृ० १५१ २. नमो नम्रजनानन्वस्यन्विने माघनन्दिने । जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने चित्प्रमोदिने ॥ ४ ॥ 2010_05 -श्रवणबेलगोला शिलालेख नं० १२९ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] सारांश तिलोय पण्णत्ति, धवला, जयधवला. श्रुतावतार आदि में गौतम से लोहार्य तक के आचार्यों का समय ६८३ वर्ष माना गया है । शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय इन्द्रनन्दि ने लोहार्य और धरसेन के मध्य विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त तथा प्रदत्त -- इन चार तथा अर्हदुबलि और माघनन्दि― इन दो आचार्यों का और उल्लेख किया है । उनमें प्रथम चार सम्भवतः एक ही काल के हों, क्योंकि उनका उल्लेख पूर्व-पश्चाद्-भेद सूचकता के संकेत के बिना एक ही साथ है। दिगम्बर समाज के प्रमुख विद्वान् पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने इनके काल के सम्बन्ध में ऊहापोह किया है। उनके अनुसार सामष्टिक रूप में उनका काल बीस वर्ष का है। मुख्तारजी ने प्रर्हद्बलि तथा माघनन्दि का काल क्रमश: दश दश वर्ष का माना है। इस प्रकार, लोहार्य के चालीस वर्ष बाद श्रर्थात् वीर - निर्वाण सं० ७२३ धरसेन का समय होता है । नन्दि-संघ की प्राकृत- पट्टावली में घरसेन नन्दि - संघ की प्राकृत - पट्टावली प्रस्तुत विषय में एक महत्वपूर्ण सामग्री उपस्थित करती हैं, जो अनेक दृष्टियों से विचारणीय है । " १. समन्तभद्र, पृ० १६१ २. अंतिम जिण णिव्वाले बारह- वासे य गये तह बारहवासे पुण संजावो जम्बुसामि मुणिणाहो । अठतीसवासरहियो केवलणाणी य 2010_05 केवलणाणी य गोयम मुणिदो । सुधम्मसामी य संजावो ॥१॥ उक्किट्ठो ॥ २ ॥ बासट्ठि - केवलवासे तिहि मुणी गोयम सुधम्मजंबू य । * बारह बारह वो जण तिथ दुगहोणं च चालीसं ॥ ३ ॥ सुयकेवलि पंच जणा बासट्ठि वासे गये सुसंज्जदा । पढमं चउदवासं विण्डुकुमारं मुयध्वं ॥ ४ ॥ नंदिमित्त वाससोलह तिय अपराजिय वास बावीसं । इहीणबी सवासं गोवद्धण भद्दबाहु गुणीसं ॥ ५ ॥ सद सुयकेवलणाणी पंच जणा अपराजिय गोवगुण तह विण्डु नंदिमित्तो य । भद्दबाहु य संजादा ॥। ६ ।। [ ६४७ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ] मागम और fafvटक : एक अनुशीलन [२ उस पट्टावली में गौतम से लोहार्य तक तो ठीक वे ही नाम हैं, जो अन्यत्र हैं। लोहार्य के बाद उसमें अर्हदुबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि – ये पांच नाम और सद वासट्टि सुवासे गए सु-उप्पण्ण वह सुपुष्वहरा । सद-तिरासि वासाणि य एगादह मुणिवरा जादा ॥ ७ ॥ आयरिय विसाख पोट्ठल खत्तिय जयसेण नागसेण मुणी । सिद्धत्थ धित्ति विजयं बुहिलिंग देव धमसेणं ॥ ८ ॥ वह उगणीस य सत्तर इकवीस अट्ठारह सत्तर | चोदय अट्ठारह तेरहवीस चउदह कमेरयं ॥ ९ ॥ अंतिम जिण - णिव्वरणे तिय-सय- पण चालवास जादेसु । एगादहंगधारिय पंच मुणिवरा जादा ॥ १० ॥ मक्खन्तो जयपालग पंडव ध्रुवसेन कंस आयरिया | अठारह वीस वासं गुणचाल तेबीस वासे एगादह अंगधरा वासं सत्तावदिय वसंग नव अंग सुभद्द लोहाचय्यमुणीसं छह अट्ठारह वासे तेवीस वावण वास जणा चोद बत्तीसं ॥ ११ ॥ सद जादा । अट्ठधरा ॥ १२ ॥ कमेण य । जिणागमे ॥ १३ ॥ मुणिणाहं । दस णव अट्ठगधरा वास दुसदवीस सधैसु ॥ १४ ॥ पणस ट्ठे अंतिम - जिण - समय जावेसु । उप्पण्णा पंच जणा पंचसये इयंगधारी मुरव्वा ॥ १५ ॥ अहिबल्लि माघनंदि य धरसेणं पुष्कयंत भूदबली । अडवीसं इगवीस उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥ १६ ॥ इगसय अठार - वासे इयंगधारी य मुणिवरा जादा । छसय तिरा सिय- वासे निव्वाणा अंगद्दित्ति कहिय जिरणे ॥ १७ ॥ च भट्टबाहु जसोभद्द च कहियं च 2010_05 - जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, सन् १९१३ इस पट्टावली के अनुसार गौतम, सुधर्मा तथा जम्बू—इन तीन केवलियों का समय क्रमशः १२, १२ तथा ३८ = कुल ६२ वर्ष ; विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु - इन पांच श्रत के वलियों का समय क्रमशः १४, १६, २२, १९ तथा २९ = कुल १०० वर्ष ; विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय nि हैं । लोहार्य या लोहाचार्य तक के अट्ठाईस आचार्य तथा ये पांच आचार्य और-कुल तेबीस प्राचार्यों का समय ६८३ वर्ष गिनाया है। उसमें काल के सम्बन्ध में यह विशेष भेद है। जैसा कि पहले सूचित किया गया है, अन्यत्र लोहार्य तक ही ६८३ वर्ष हो जाते हैं। काल-सूचन के सन्दर्भ में उस पट्टावली की एक विशेषता यह है कि प्रत्येक प्राचार्य का पृथक्-पृथक् समय उल्लिखित किया गया है, जब कि तिलोयपण्णत्ति आदि में केवलिपरम्परा, श्रुत-केवलि-परम्परा, दशपूर्वधर-परम्परा, एकादशांधर-परम्परा तथा प्राचारांगधर-परम्परा, जो श्रुत के क्रमिक ह्रास पर आधृत श्रेणी-विभाजन है, में प्रत्येक श्रेणी का योगात्मक या सामूहिक काल दिया है। उदाहरणार्थ-जैसे पांच श्रुत-केवलियों का समय १०० वर्ष है, वहां किस-किस श्रुत-केवलि का कितना-कितना समय रहा, ऐसा कुछ नहीं है। বীন? ব্যাঙ্কশী স্পী বুলনা तिलोयपण्णत्ती आदि में तीन केवलियों, पांच श्रुत-केवलियों तथा ग्यारह दशपूर्वधरों का समय क्रमशः ६२, १०० तथा १८३ वर्ष है। उस पट्टावली में भी वैसा ही है। इन उन्नीसों के समय का योग ६२+१०० - १८३ = ३४५ होता है, जो उस पट्टावली में उल्लिखित है । पर, एक-एक प्राचार्य का जो पृथक्-पृथक् समय दिया है , उसमें ग्यारह दशपूर्वधरों का काल, जो विशाखाचार्य १० वर्ष, प्रोष्ठिल १९ वर्ष, क्षत्रिय १७ वर्ष, जयसेन २१ वर्ष, नागसेन १८ वर्ष, सिद्धार्थ १७ वर्ष, घृतिषेण १८ वर्ष, विजय १३ वर्ष, बुद्धिलिंग २० वर्ष, देव १४ वर्ष तथा धर्मसेन १४ वर्ष = कुल १८१ वर्ष होता है । वह इनके सामूहिक काल, जो १८३ वर्ष बताया गया है, से मेल नहीं खाता । यहां पट्टावलिकार की कुछ भूल हुई है। किसी प्राचार्य के २ वर्ष छूट गये हैं। ___ इसके पश्चात् एकादशांगधारी पाते हैं । दोनों जगह वे संख्या में पांच-पांच हैं । तिलोय बुद्धिलिंग, देव तथा धर्मसेन-इन ग्यारह दशपूर्वधरों का समय क्रमशः १०, १९, १७, २१, १८, १७, १८, २३, २०, १४ तथा १४ = कुल १८१ वर्ष, नक्षत्र, जयपाल, पांडव, ध्र वसेन तथा कंस-इन पांच एकादशांगधरों का समय क्रमशः १८, २०, ३९, १४ तथा ३२ = कुल १२३ वर्ष; सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु तथा लोहाचार्य-इन चार वश, नव व अष्ट अंगधरों का समय क्रमशः ६, १८, २३ तथा ५२ % कुल ९९ वर्ष और अर्हवलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि-इन पांच एकांगधरों का समय क्रमशः २८, २१, १९, ३० तथा २० = कुल ११८ वर्ष है। ____ 2010_05 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५.] . आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (खण्ड । २ पणत्ति आदि में उन पांचों का समय २२० वर्ष है, जबकि प्राकृत-पट्टावली में उनका समय-नक्षत्र १८ वर्ष, जयपाल २० वर्ष, पांडव ३९ वर्ष, ध्र वसेन १४ वर्ष तथा कंस ३२ वर्ष = कुल १२३ वर्ष बतलाया गया है । ____ सत्पश्चात् अन्यत्र जहां चार पाचारांगधर पाते हैं, वहां उस पट्टावली में उन्हें दश, नव व अष्ट अंगधर कहा गया है । तिलोयपण्णत्ती आदि में इन चार का समय ११८ वर्ष कहा गया है, जब कि उस पट्टावली में सुभद्र ६ वर्ष, यशोभद्र १८ वर्ष, भद्रबाहु २३ वर्ष तथा लोहाचार्य ५२ वर्ष = कुल ९९ वर्ष होता है । पट्टावलिकार की यहां भी कुछ भूल रही है । क्योंकि वे इस प्रकार पृथक्-पृथक् काल-सूचन करके भी उसका योग ९७ वर्ष बतलाते हैं । ९७ से ही उनका आगे का ठीक मिलान बैठता है। यहां ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमादवश किसी आचार्य के समय में दो वर्ष अधिक जुड़ गये हैं। दश,नव एवं अष्ट अंगधारक के रूप में उल्लिखित इन चार आचार्यों के सम्बन्ध में ऐसा समझा जा सकता है-इनमें सुभद्र दशरंगधर रहे हों, यशोभद्र नव अंगधर रहे हों तथा भद्रबाहु, जिन्हें अन्यत्र यशोबाहु कहा गया है व लोहाचार्य या लोहार्य पाठ-आठ अंगों के धारक रहे हों। अन्यत्र पट्टानुक्रम में लोहार्य अन्तिम हैं, जहां इसमें लोहार्य के बाद अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि-ये पांच प्राचार्य और पाते हैं, जिनका समय अर्हद्बलि २८ वर्ष, माघनन्दि २१ वर्ष, धरसेन १९ वर्ष, पुष्पदन्त ३० वर्ष तथा भूतबलि २० वर्ष = कुल ११८ वर्ष है। इस प्रकार केवलि-काल ६२ वर्ष, श्रुत-केवलि-काल १०० वर्ष, चतुर्दश पूर्वधर-काल १८३ वर्ष, एकादशांगधर-काल १२३ वर्ष, दश-नव-अष्ट-गधर-काल ९७ वर्ष तथा एकांगधर-काल ११८ वर्ष = कुल ६८३ वर्ष होते हैं। এমী उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राकृत-पट्टावली में अन्यों से मुख्यतः तीन बातों में अन्तर है : पांच एकादशांगधर प्राचार्यों के काल-क्रम की भिन्नता, अन्यत्र जिन्हें आचारांगधर कहा गया है, उन्हें उक्त पट्टावली में दश,नव एवं अष्ट अगधर कहा जाना, उनका समय भी भिन्न बतलाया जाना तथा प्रबलि आदि पांच नये प्राचार्यों का समावेश । प्रायः सभी दिगम्बर-लेखक आचार्य-क्रम तथा उनके काल-क्रम के उसी रूप को लेकर बले हैं, जैसा तिलोयपण्णात्ति आदि में है, फिर इस पट्टावलिकार ने जो नया काल-क्रम दिया ____ 2010_05 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वामय [६५१ है, उसकी उपलब्धि उन्हें कहां से हुई ? सम्भव है, इस पट्टावलिकार को कोई ऐसी परम्परा या प्रमाण प्राप्त हुआ हो, जो दूसरों को अप्राप्त था, जिसके आधार पर उसने इसकी रचना की हो । इस पट्टावलिकार ने प्रत्येक आचार्य का जो पृथक्-पृथक् समय दिया है, वह महत्वपूर्ण है। किसी विशेष उल्लेख या प्रमाण के उपलब्ध हुए बिना वह इस प्रकार कैसे कर सकता था, जब कि यति वृषभ से लेकर इन्द्रनन्दि आदि किसी मे ऐसा नहीं किया है । एकादशांगधरों के काल में जो दोनों गणनाओं में भेद है, उसका पर्यालोचन करें तो इस पट्टावलिकार का उल्लेख अपेक्षाकृत अधिक संगत होता है। इसके अतिरिक्त सर्वत्र पांच प्राचार्यों का जो २२० वर्षों का समय वरिणत हुआ है, वह यदि सर्वत्र असंभव नहीं कहा जा सकता तो उसे अत्यन्त सम्भव मानना भी समुचित नहीं लगता । तिलोयपण्णत्ति आदि में एकादश-अगधर-परम्परा के पश्चात् एकाएक आचारांगधरों के रूप में एकांगधर-परम्परा आ जाती है अर्थात् दश अंगों का एक साथ लोप हो जाता है । प्रस्तुत पट्टावली में एकादश-अंगधरों के बाद दश-नव-अष्ट-अगधर-परम्परा आती है। उत्तरोत्तर हीयमान श्रत-परम्परा के सन्दर्भ में अग-लोप का यह क्रम अधिक युक्ति संगत प्रतीत होता है। अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समावेश और काल का अभेद अर्थात् ६८३ वर्ष का जो स्वीकृत काल-क्रम चला आ रहा है, उसी के अन्तर्गत इन पांच प्राचार्यों को जो ले लिया गया है, वहां कुछ विचारणीय है । एक समाना इस सन्दर्भ में एक सम्भावना यह हो सकती है, पट्टावलिकार स्यात् उस संघ या गण से सम्बद्ध रहा हो, जिसके अर्हद्बलि, माघनन्दि तथा धरसेन आदि थे । उसने अपनी परम्परा से सम्बद्ध उन प्राचीन प्राचार्यों के एकांगधरत्व रूप विशिष्ट ज्ञान के कारण यह सोचा हो कि पट्टानुक्रम में उनका समावेश किया जाना चाहिए । लोहार्य तक तो संघ-भेद नहीं था ; अतः तब तक का पट्टानुक्रम तो सर्व-सम्मत था ही । एक संघ के अन्तर्गत उपसंघों के रूप में जब विभाजन हो जाता है, तब स्थिति परिवर्तित हो जाती है अर्थात् सभी संघ अपनीअपनी परम्परा के पट्टधरों की ही गणना करते हैं । अस्तु, प्रस्तुत पट्टावलिकार ने इन पांच आचार्यों को प्राक्तन श्रुत-परम्परा की शृंखला में जोड़ने तथा कालिक सीमा वही बनाये रखने के हेतु पीछे के काल-क्रम में अपेक्षित परिवर्तन किया हो और उस सर्व-स्वीकृत ___ 2010_05 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२] मागम और शिपिटक : एक मनुशीलन ६८३ वर्ष की समयावधि में इन पांचों आचार्यों को मिला दिया हो । पट्टावलिकार ने वहां सभी आचार्यों का पृथक्-पृथक् समय भी छांट दिया है, जिससे वह काल-गणना विशेष प्रभावक लगे। दूसरी सम्भावना जैन संघ के पृथक्-पृथक् संघों या गणों में विभक्त हो जाने से भिन्न-भिन्न संघों में जो विशिष्ट ज्ञानी हुए, उनके ज्ञान की गरिमा तो सर्वत्र समाहत थी, पर, सर्व-स्वीकृत पट्टानुक्रम में उन्हें गृहीत करना सम्भव नही था ; अतः लोहायं के बाद का पट्टानुक्रम सब संघों का अपना पृथक्-पृथक् होता गया । इसलिए यह भी संम्भव हो सकता है कि अर्हबलि, माघनन्दि, धरसेन जैसे विशिष्ट शान-सम्पन्न प्राचार्यों को, जो श्रुत-परम्परा पर आधृत पूर्वतन श्रेणी में आते थे, वहां नहीं गिना गया या जाना-बूझकर छोड़ दिया गया । हो सकता है, हीयमान-श्रु त-परम्परा की यह काल-गणना भूतबलि तक रही हो, वहीं तक ६८३ वर्ष का समय पूरा होता हो, पर, जब एक सर्वसम्मत पट्टानुक्रम का रूप बनाये रखना वांछित था, तब उन्हें कैसे लिया जाता, जो एक विशिष्ट संघ के नेतृत्व से सम्बद्ध थे। इसलिए इन सहित जो ६८३ वर्ष होते थे, उन्हें लोहायं तक के आचार्यों में बांट दिया हो । यह सब इसलिए किया गया हो कि एक पट्टानुक्रम तो ऐसा रहे, जिसकी प्रामाणिकता तथा सर्व-मान्यता पर कोई अंगुली तक न उठा सके । यह सम्भावना की तो जा सकता है, परन्तु कम समाधायक लगती है। क्योंकि एक मात्र इस प्राकृत-पट्टावली के अतिरिक्त और कहीं भी वैसी सूचना प्राप्त नहीं होती। इसलिए इस पट्टावली को ही अक्षरशः मान लिया जाए, ऐसा नहीं कहा जा सकता और न ऐसा ही कहा जा सकता है कि इस पट्टावली के रचयिता मात्र कल्पनाकार थे ; क्योंकि उसमें प्रकटित तथ्य सहसा मन को नाकृष्ट भी करते हैं। ____ इस सन्दर्भ में मनीषियों का अनुसन्धित्सापूर्ण प्रयत्न अपेक्षित है, जिससे अब तक अव्यक्त तथ्यों का उद्घाटन हो सके । ___ इस पट्टावली के अनुसार माघनन्दि तक वीर निवारण ६१४ वर्ष होते हैं । माघनन्दि के अनन्तर भूतबलि के काल तक ६९ वर्षों का समय रहता है, जिसे धरसेन, पुष्यदन्त और भूतबलि-इन तीनो में विभक्त किया गया है । इसके अनुसार धरसेन का आचार्य-काल वीर-निर्वाण ६१५ से ६३३ तक, पुष्पदन्त का प्राचार्य-काल वीर निर्वाण ६३४ से ६६३ तथा भूत बलि का आचार्य-काल वीर-निर्वाण ६६४ से ६८३ तक होता है । 2010_05 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ६५६ সান-শাবলী ধ্বী সামাথাব্দন। ___ इस पट्टावली की भाषा बहुत अशुद्ध एवं मिश्रित है। यहां तक कि इसमें प्रयुक्त प्राकृत का स्वरूप अपभ्रश से हिन्दी तक पहुंच जाता है। पर, रचना के पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में भाषा की दृष्टि से यह इसी रूप में रचित नहीं हुई । प्रतिलिपि की प्रतिलिपि किये जाते रहने से, वह भी जब ऐसे व्यक्तियों द्वारा, जो उस भाषा के ज्ञाता न हों तो वह अशुद्धि-क्रम बढ़ता ही जाता है। इस पट्टावली में भी कुछ ऐसा ही बीता है । तथ्य या आंकड़े तो इसमें बचे रह गये, भाषा उत्तरोत्तर घिसती गई, मिटती गई, बदलती गई और वह मूल से बहुत दूर चली गई है। जैसी इसकी भाषा है, उसके आधार पर इसकी कोई काल-निश्चिती नहीं की जा सकती। पर, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह बहुत अर्वाचीन तो नहीं है । स्व० डा० हीरालाल जैन ने भी आचार्य धरसेन के समयावधारण में इसका उपयोग किया है । उन्होंने चाहा था कि वे उसकी विशेष गवेषणा कर सकें । अतः उन्होंने उसकी मूल प्रति को प्राप्त करने का प्रयास भी किया था। वह प्रति कभी जैन सिद्धान्त भवन, आरा में थी। उसी के आधार पर जैन सिद्धान्त भास्कर में उसका प्रकाशन हुआ था, पर, तब वहां खोजने पर हस्तगत नहीं हो सकी; अतः मूल प्रति पर विशेष परिशीलन एवं विमर्श का अवसर नहीं रहा । दिगम्बर प्राचार्यों के पट्टानुक्रम के सम्बन्ध में यह पट्टावली जो विलक्षण सूचनाएं देती है, वे बड़ी महत्वपूर्ण हैं। उन पर विशेष अन्वेषण होना चाहिए। सम्भव है, कभी कोई ऐसा आधार, परम्परा या प्रमाण ही मिल जाये, जिसका अवलम्बन लेकर इस प्राकृत-पट्टावलिकार ने अपनी पट्टावली में उक्त तथ्य निबद्ध किये । ঘন ঋী বন্ধ স্থান : গাথাণাঙ । प्राकृत में मंत्र-तंत्र शास्त्र का 'जीणिपाहुड' नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है । प्राचार्य धरसेन उसके रचयिता माने जाते हैं । आचार्य धरसेन द्वारा मंत्र-विद्या सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे जाने की संभावना अस्थानीय नहीं मानी जा सकती। विद्याध्ययन के उद्देश्य से पुष्पदन्त और भूतबलि का प्राचार्य घरसेन के सानिध्य में आने का जो प्रसंग पाया है, वहां यह उल्लेख हुआ ही है कि प्राचार्य धरसेन ने समागतः मुनियों की अध्ययन-क्षमता जांचने के लिए उन्हें दो मंत्र-विद्याएं साधने को दी। इससे यह सिद्ध होता है कि धरसेन मंत्र-तंत्रविज्ञान में निष्णात थे तथा उनका उस ओर झुकाव भी था। यही कारण है, उन्होंने विद्यार्थी प्रमों के परीक्षण का माध्यम मंत्र-विद्या को बनाया। 2010_05 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] आगम और faftee : एक अनुशीलन जोणिपाहुड भाठ सौ श्लोक -प्रमाण प्राकृत गाथाओं में है । उल्लेख है कि इसे कूस्माण्डिनी महादेवी से उपलब्ध कर आचार्य धरसेन ने अपने अन्तेवासी पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा । जोणिपाहुड के सम्बन्ध में धवला में भी चर्चा है। वहां उसे मंत्र-तंत्र शक्तियों तथा पुद्गलानुभाग का विवेचन ग्रन्थ बताया है । वहट्टियशिका में उल्लेख एक श्वेताम्बर जैन मुनि ने विक्रमाब्द १५५६ में वृहट्टिप्पणिका के नाम से श्वेताम्बर एवं दिगम्बर — यथासम्भव सभी जैन विद्वानों के ग्रन्थों की सूची तैयार की। उसमें उन्होंने अपने समय तक के सभी लेखकों की सब विषयों की कृतियों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है । जोणिपाहुड की भी वहां चर्चा है । वृहट्टिप्पणिकाकार ने उसे प्राचार्य धरसेन द्वारा रचित बताया है तथा उसका रचना काल वीर - निर्वारण सं० ६०० सूचित किया है । वृहट्टप्पणिका की प्रामाणिकता में सन्देह की कम गुंजाइश है । फिर एक श्वेताम्बर मुनि द्वारा एक दिगम्बर मुनि के ग्रन्थ के सम्बन्ध में किया गया सूचन अपने प्राप में विशेष महत्व रखता है । नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली, जिस पर पिछले पृष्ठों में विस्तार से चर्चा की गई है, के अनुसार माघनन्दि का काल वीर निर्वारण सं० ६१४ में समाप्त होता है, तत्पश्चात् धरसेन का काल प्रारम्भ होता है । वृहट्टिष्पणिका और प्राकृत- पट्टावली के काल सूचन के सन्दर्भ से ऐसा प्रकट होता है कि धरसेन ने प्राचार्य पदारोहरण से चवदह वर्ष पूर्व इस ग्रन्थ की रचना की हो । इस कोटि के जटिल ग्रन्थ की रचना करने के प्रसंग तक वे अवस्था में प्रोढ़ नहीं तो युवा अवश्य रहे होंगे । भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (महाराष्ट्र) के ग्रन्थ-भण्डार में जोणिपाहुड की एक हस्तलिखित प्रति है, जिसका लेखक- काल वि० सं० १५८२ है । জীशgs : मंग - क यह ग्रन्थ मंत्र-विद्या, तंत्र-विज्ञान श्रादि के विश्लेषण - विवेचन की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण समझा जाता है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर - दोनों जैन सम्प्रदायों में यह समाहत रहा है । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके सम्बन्ध में जो सूचक तथ्य उपस्थित किये हैं, उन्हें यहां उद्धृत किया जा रहा है : "निशीथ पूणि (४, पृ० ३७५ साइक्लोस्टाइल प्रति ) के कथनानुसार आचार्य सिद्धसेन ने जोणिपाहुड के आधार से अश्व बनाये थे, इसके बल से 2010_05 20chiv Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Inा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका बाई मय । ६५५ महिषों को अचेतन किया जा सकता था और इससे धन पैदा कर सकते थे । प्रभावक चरित (५, ११५-१२७) में इस ग्रन्थ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने का तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा १७७५) की हेमचन्द्र कृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार जोणिपाहुड में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने कथाकोषप्रकरण में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में ८०० गाथाएं हैं । कुलमण्डनसूरि द्वारा विक्रम संवत् १४७३ (ईसवी सन् १४१६) में रचित विचारामृत संग्रह (पृष्ठ ९ पा) में योनिप्राभृत को पूर्व श्रुत से चला प्राता हुआ स्वीकार किया है : अग्गेणिपुव्वनिग्गयपाहुडसस्थस्स मज्नयारंमि । किंचि उद्देसदेसं घरसेणो वज्जियं भणइ ॥ गिरि उजितठिएण पच्छिमदेसे सुरगिरिनयरे । बुडतं उद्धरियं दूसमकालप्पयामि ॥ प्रथम खण्डे अट्ठावीस सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे। अग्गेणिपुग्वमसे संखेवं वित्थरे मुत्त । चतुर्थखण्डप्रान्ते योनिप्राभृते । इस कथन से ज्ञात होता है कि अग्रायणी पूर्व का कुछ अंश लेकर धरसेन ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है तथा इसमें पहले २८ हजार गाथाएं थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनिप्राभृत में कहा है। निष्कर्ष उपयुक्त समग्र विवेचन के परिप्रेक्ष्य में धरसेन के समय के सम्बन्ध में हमारे समक्ष दो प्रकार की स्थितियां हैं। तिलोयपण्णत्ति, हरिवंश पुराण, धवला, जयधवला, श्रु तावतार आदि के अनुसार देखा जाये तो वीर निर्वाण ६८१ के पश्चात् इनका समय सिद्ध होता है और यदि नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली व जोणिपाहुड आदि के आधार पर चिन्तन करें तो वह वीर निर्वाण ६०० से कुछ पूर्व सिद्ध होता है। अर्थात् ईसा की प्रथम शती में वे हुए, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। तिलोयपण्णत्ति आदि के अनुसार उनका समय लगभग १. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ६७३-७४ 2010_05 Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ ] मानव और विपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड ३ एक शती बाद होता है। जैसा भी हो, वे ईसा की द्वितीय शती से अवश्य पूर्ववर्ती रहे हैं । पुष्पदन्त तथा भूतबलि की समय-सीमा बांधने का श्राधार भी प्रायः यही है । धवला और जयधवला षट्खण्डागम के यथार्थ महत्व से लोक-मानस को अवगत कराने का मुख्य श्र ेय प्राचार्य वीरसेन को है, जिन्होंने उस पर 'धवला' संज्ञक अत्यन्त महत्वपूर्ण टीका की रचना की । धवला के विशाल कलेवर के सम्बन्ध में संकेत किया ही गया है । षट्खण्डागम जैसे महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ पर अकेला व्यक्ति गम्भीर विश्लेषण तथा विवेचन पूर्व ७२ सहस्र श्लोक - प्रमारण व्याख्या प्रस्तुत करे, निःसंदेह यह बहुत बड़ा आश्चर्य है । आचार्य वीरसेन का कृतित्व और उद्भासित हो जाता है तथा सहसा मन पर छा जाता है, जब साथ-ही-साथ यहां देखते हैं कि उन्होंने जयधवला का बीस - सहस्र - श्लोक - प्रमाण अंश भी लिखा | उतना ही कर पाये थे कि उनका भौतिक कलेवर नहीं रहा । इस प्रकार बाचार्य वीरसेन ने अपने जीवन में ९२ सहस्र - श्लोक - प्रमाण रचना की । ऐसा प्रतीत होता है, गम्भीर शास्त्राध्ययन के अनन्तर उन्होंने अपना समग्र जीवन साहित्यसर्जन के इस पुनीत लक्ष्य में लगा दिया । तभी तो इस प्रकार का विराट् कार्य सध सका । विशालकाय महाकाव्य के रूप में महाभारत, विश्व वाङ्मय में सर्वाधिक प्रतिष्ठापन्न है, क्योंकि उसका कलेवर एक लाख - श्लोक - परिमित माना जाता है। पर, वह अकेले व्यासदेव की रचना नहीं है । न जाने कितने कवियों और विद्वानों की लेखिनी का योगदान उसे मिला है। पर, धवला, जो कलेवर में महाभारत से कुछ ही कम है, एक ही महान् लेखक की कृति है । यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है । ज्ञानोपासना के दिव्य यज्ञ में अपने आप को होम देने वाले प्राचार्य वीरसेन जैसे मनीषी ग्रन्थकार जगत् में विरले ही हुए हैं । महान् विद्वान् । प्रखर प्रतिभान्वित प्राचार्य वीरसेन का वैदुष्य विलक्षण था । उनकी स्मरण शक्ति एवं प्रतिभा अद्भुत थी । उनका विद्याध्ययन अपरिसीम था । स्व- शास्त्र एवं पर- शास्त्र — दोनों के रहस्य उन्हें स्वायत्त | व्याकररण, न्याय, छन्द, ज्योतिष प्रभृति अनेक विषयों में उनकी गति पत्रतित थी । 2010_05 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वार मय [६५७ जिनसेन के शब्दों में वे समग्र विश्व के पारदश्वा थे, मानो साक्षात् केवली हों । उनकी सर्वार्थगामिनी स्वाभाविक प्रज्ञा को देख विद्वानों को सर्वज्ञ के अस्तित्व में शंका नहीं रही। उनकी चमकती हुई ज्ञानमयी किरणों का प्रसार देखकर प्राज्ञजन उन्हें श्रुत-केवली तथा उत्कृष्ट प्रज्ञा-श्रमण' कहते थे। नत्त्व-दर्शन के महान् समुद्र में अवगाहन करने से उनकी बुद्धि परिशुद्ध थी, तभी मानो महान् मेघाशील प्रत्येक-बुद्धों से वे स्पर्धा करने लगे हों। जिनसेन ने उनके शास्त्रानुशीलन के सम्बन्ध में एक बड़े महत्व की बात कही है। उसके अनुसार प्राचार्य वीरसेन ने चिरन्तन कालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया अर्थात् पुस्तकारूढ़ प्राचीन वाङ्मय का उन्होंने गम्भीर अनुशीलन किया, उसे अग्रसर किया।' इससे यह गम्य है कि आचार्य वीरसेन के समय तक जो भी उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त थे, उन्होंने उन सब का सांगोपांग एवं व्यापक अध्ययन किया। तभी तो यह सम्भव हो सका कि वे अपनी धवला टीका को अनेक शास्त्रों के निष्कर्ष तथा नवनीत से आपूरित कर सके। जिनसेन ने आदिपुराण की उत्थानिका में अपने श्रद्धास्पद गुरु को परमोत्कृष्ट वादी, १. विशिष्ठ प्रज्ञात्मक ऋद्धि-सम्पन्न २. श्री वीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिव रु केवली ॥ यस्य नैसगिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वशरमावे निरारेका मनीषिणः ॥ यं प्राहुः प्रस्फुरदोधरीधितिप्रसरोवयम् । । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणमुत्तमम् ॥ प्रसिसिसिद्धान्तवाधिवाधों तशुद्धधीः । साखं प्रत्येकबुद्धयः स्पर्धते धोद्धबुद्धिभिः ॥ -जयधवला-प्रशस्ति १९, २१-२३ ३. पुस्तकानां चिरस्नानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥ ____ 2010_05 Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खंण्ड : २ पवित्रात्मा, लोकविज्ञ, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न तथा वृहस्पति के तुल्य वाग्मी कहा है ।। उनकी धवला टीका के विषय में जिनसेन ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उल्लेख किया है कि उनकी धवला भारती तथा उनकी पवित्र व उज्ज्वल कीर्ति ने अखण्ड भू-मण्डल को धवल-उज्ज्वल बना दिया। अर्थात् वे दोनों लोक-व्याप्त हो गई।' ঘৰলা ঋী বন্দনা इन्द्रनन्दि के श्रु तावतार में आचार्य वीरसेन तथा उनकी धवला टीका की चर्चा की है । टीका की रचना के सन्दर्भ में उन्होंने बताया है कि वीरसेन ने एलाचार्य के पास सैद्धान्तिक ज्ञान अर्जित किया। गुरु के आदेश से वे वाटग्राम आये । आनतेन्द्र द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिर में रुके । वहां उन्हें बप्पदेव-गुरु-रचित व्याख्या-प्रज्ञप्ति-षट्खण्डागम की एक पुरानी टीका मिली । वहीं उन्होंने धवला की रचना समाप्त की। उसी प्रसंग में इन्द्रनन्दि ने वीरसेन-रचित धवला तथा अंशतः जयधवला के श्लोकप्रमाण की भी चर्चा की है। यह भी बताया है कि धवला प्राकृत-संस्कृत-मिश्र टीका है। इसी सन्दर्भ में जिनसेन द्वारा जयधवला की पूर्ति तथा उसके समग्न षष्टि-सहस्र-श्लोकप्रमाण की भी चर्चा की है।' १. श्री वीरसेन इत्यातभट्टारकपृयुप्रथः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवुन्दारको मुनिः ।। लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ -आविपुराण उस्थानिका ५५-५६ २. धवलां भारती तस्य कीतिं च शुचिनिर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेष-भुवनां तां नमाम्यहम् ॥ -आदिपुराण उत्थानिका ५८ ३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासीं । श्रीमानेत्वाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितननिबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥ आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान गुरोरनुज्ञानात् । वाटपामे चानानतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ॥ ____ 2010_05 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय নাম : প্রধান। ____ आचार्य वीरसेन ने टीका का अभिधान 'धवला' क्यों रखा, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया कोई विवरण प्राप्त नहीं है । धवला शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ श्वेत, सुन्दर, स्वच्छ, विशुद्ध, विशद मादि है। मास के शुक्ल पक्ष को भी धवल कहा जाता है । सम्भव है, अपनी टीका की अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से विशदता, भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से स्वच्छता, पद-विन्यास की दृष्टि से सुन्दरता, प्रभावकता की दृष्टि से उज्ज्वलता, शैली की दृष्टि से प्रसन्नता–प्रसादोपपन्नता आदि विशेषताओं का एक ही शब्द में आख्यान करने के लिए टीकाकार को धवला नाम खूब संगत लगा हो। आगे चलकर यह नाम प्रिय एवं हृद्य इतना हुमा कि षट्खण्डागम वाङमय 'धवला-सिद्धान्त' के नाम से विश्रु त हो गया। धवला की समापन-सूचक प्रशस्ति में उल्लेख हुआ है कि यह टीका कार्तिक मास के धवल या शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन सम्पूर्ण हुई थी। हो सकता है, मास के धवल पक्ष में परिसमाप्त होने के कारण रचयिता के मन में इसे धवला नाम देना जचा हो । एक और सम्भावना की जा सकती है, इस टीका का समापन मान्यखेटाधीश्वर, राष्ट्रकूटवंशीय नरेश अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में हुआ था। राजा अमोघवर्ष उज्ज्वल चरित्र, सात्त्विक भावना, धार्मिक वृत्ति आदि अनेक उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित था। उसकी गुणसूचक उपाधियों या विशेषणों में एक अतिशय 'धवल' विशेषण भी प्राप्त होता है। प्रामाणिक रूप में नहीं कहा जा सकता, इस विशेषण के प्रचलन का मुख्य हेतु क्या व्याख्याप्रज्ञलिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितनबन्धनाधधिकारैरष्टावशविकल्पः ॥ सत्कर्मनामषेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां प्रन्यसहस्र हिंसप्तत्या ॥ प्राकृतसंस्कृतभाषा-मिश्रा टीका विलिख्य धवलाख्याम् । जयधवलां च कवाय-प्राभूत के चतसृणां विभक्तीनाम् ।। विशतिसहनसमन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेन (जिनसेन) गुरुनामा ॥ तच्छेषं चत्वारिंशता सहन : समापितवान् । अयधवलवं षष्टिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ॥ -भूतावतार १७७-८४ ____ 2010_05 Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन था । हो सकता है, राजा अमोघवर्ष के इन उज्ज्वल, धवल, निर्मल गुणों के कारण यह विशेषण प्रचलित हुआ हो अथवा उसकी देह-सम्पदा-सौष्ठव, गौरत्व आदि के कारण भी लोगों को उसे उस उपाधि से सम्बोधित करने की प्रेरणा हुई हो । अमोघवर्ष विद्वानों, त्यागियों एवं गुणियों का बड़ा आदर करता था। उनके साथ उसका श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध था, अतः यह अनुमान करना भी असंगत नहीं लगता कि राजा अमोघवर्ष का उक्त विशेषण इस नाम के पीछे प्रेरक हेतु रहा हो। जैसा भी रहा हो, इस टीका ने केवल दिगम्बर जैन वाङमय में ही नहीं, भारतीय तत्त्व-चिन्तन के व्यापक क्षेत्र में निःसन्देह अपने नाम के अनुरूप धवल, उज्ज्वल यश अर्जित किया। मानो नाम की आवयविक सुषमा ने भावात्मक सुषमा को भी अपने में समेट लिया हो। অনলা ৷ ৰাহ कहा ही गया है, यह टीका प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित है। इस प्रकार की सम्मिश्रित भाषामयी रचना मणि-प्रवाल-न्याय से उपमित की गई है। मणियां तथा प्रवाल परस्पर मिला दिये जायें तो भी वे अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार प्राकृत तथा संस्कृत मिलने पर भी पृथक्-पृथक् दिखाई देती रहती हैं । ___टीकाकार द्वारा किये गये इस द्विविध भाषात्मक प्रयोग की अपनी उपयोगिता है। तात्त्विक अथवा दार्शनिक विषयों को तार्किक शैली द्वारा स्पष्ट करने में संस्कृत का अपना एक महत्व है। उसका अपना विशिष्ट, पारिभाषिक शब्द-समुच्चय एवं रचना-प्रकार है, जो अनन्य-साधारण है । प्राकृत लोकजनीन भाषा है,जो कभी इस देश में बहु-प्रचलित थी। टीका की रचना केवल पाण्डित्य-सापेक्ष ही न रह जाये, उसमें लोकजनीनता भी व्याप्त रहे, प्राकृत-भाग इस अपेक्षा का पूरक माना जाये तो अस्थानीय नहीं होगा। टीकाकार ने अपने समय तक उपलब्ध बहुविध दिगम्बर-श्वेताम्बर-साहित्य का मुक्त रूप से उपयोग किया है। अनेक ग्रन्थों के यथाप्रसंग, यथापेक्ष अंश उद्धृत किये हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपनी टीका को सम्पूर्णतः समृद्ध एवं सर्वथा उपादेय बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। उसकी शैली समीक्षा, विश्लेषण एवं विशद विवेचन की दृष्टि से वास्तव में असाधारण है। শপণন : প্রমথ वीरसेनाचार्य के काल के सम्बन्ध में अनिश्चयात्मकता नहीं है। धवला की अन्तिम 2010_05 Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय [ ६६१ प्रशस्ति में उन्होंने ज्योतिष शास्त्रीय शैली में कुछ महत्वपूर्ण संकेत किये है । स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने प्रशस्ति के उस भाग का, जो धवला की समाप्ति के समय का सूचक है, विशेष परिशीलन एवं सूक्ष्मतया पर्यवेक्षण कर परिष्कृत रूप उपस्थित किया है, जिसके अनुसार धवला की सम्पूर्णता का समय शक संवत् ७३८ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी निश्चित होता है। आचार्य धीरसेन के सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने पूज्यचरण गुरु द्वारा समारब्ध जयधवला टीका की पूर्ति शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमी को की। उस समय राजा अमोघवर्ष का शासन-काल था।' धवला की पूर्ति और जयधवला की पूर्ति के बीच २१ वर्ष का समय पड़ता है। प्राचार्य वीरसेन के देहावसान की यह पूर्वापर सीमा है। जैन साहित्य एवं इतिहास के अन्वेष्टा स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने आचार्य वीरसेन का समय शक संवत् ६६५ से ७४५ तक माना है, जो अनेक पूर्वापर सन्दर्भो एवं प्रमाणों पर आधारित है। १. अठतीसम्हि सतसए विक्कामरायंकिए सु- सगणामे । वासे सुतरेसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे ।। जगतुगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ।। चावम्हि तरणिवुत्ते सिंघे सुक्कम्मि मीरणेचंदम्मि । कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥ --धवला-प्रशस्ति ६-८ २. इतिश्री वीरसेनीया टीका सूत्रार्थदशिनी । , वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥ फाल्गुने मासि पूर्वाह, रणे दशभ्यां शुक्ल पक्ष के । प्रवर्द्धमानपूजोरूनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ अमोघवर्ष राजेन्द्रराज्य प्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायावाकल्पान्तमनल्पिका ॥ एकोन्नषष्टिसमधिकसप्तशत शकनरेन्द्रस्य। समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याखया ॥ -जयधवला-प्रशस्ति ६-९ ___ 2010_05 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ___ द्वादशांग के अन्तर्गत बारहवें अंग दृष्टिवाद का चौथा भेद पूर्वगत है। वह चतुर्दश पूर्वो में विभक्त है । उनमें दूसरा आग्रायणीय पूर्व है । उनके निम्नांकित चवदह अधिकार हैं : १. पूर्वान्त, २. अपरान्त, ३. ध्रुव, ४. अध्र व, ५. चयनलब्धि, ६. अर्धापम, ७. प्रणिधिकरुप, ८. अर्थ, ९. भौम, १०. व्रतादिक, ११. सर्वार्थ, १२. कल्पनिर्याण, १३. प्रतीतसिद्धबद्ध तथा १४. अनागत । ___ इनमें पांचवां चयनलन्धि अधिकार बीस पाहुडों में विभक्त है । उनमें चौथा पाहुड कर्मप्रकृति है । उसके चौबीस अनुयोगद्वार हैं, जो इस प्रकार हैं : १. कृति, २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कर्म ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ९. उपक्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्या-कर्म, १५. लेश्या-परिणाम, १६. सातासात, १७. दीर्घह्रस्व, १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्म, २०. निधत्तानिधत्त, २१. निकाचितानिकाचित, २२. कर्म-स्थिति, २३. पश्चिमस्कन्ध तथा २४. अल्पबहुत्व । इनके तथा इनके भेदोपभेदों के आधार पर षट्खण्डागम की रचना हुई। षट्खण्डागम : एक परिचय এনা প্রথঙ छः खण्डों में पहले खण्ड का शीर्षक जीवट्ठाण है। इसका अधिकांश भाग कर्मप्रकृति नामक पाहुड़ के बन्धन संज्ञक छठे अनुयोगद्वार के बन्ध-विधान नामक भेद के आधार पर प्रणीत हुआ है। जीवट्ठाण के अन्तर्गत पाठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वारों के नाम इस प्रकार हैं : १. सत्, २. संख्या, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव तथा ८. अल्पबहुत्व । नौ चूलिकाएं निम्नांकित हैं : १. प्रकृतिसमुत्कीर्तना, २. स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५. तीन महादण्डक, ६. जघन्य स्थिति, ७. उत्कृष्ट स्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पति तथा ९. गति-प्रगति । - १. बन्धन के भेद-बन्ध, बन्धनीय, बन्धक, बन्ध-विधान । ___ 2010_05 Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [६६३ उपर्युक्त अनुयोगद्वारों तथा चूलिकाओं में विवेच्य विषयों का गुणस्थानों तथा मार्गणाओं के आधार पर बड़ा विस्तृत विवेचन हुआ है। ફુલરા રાજ दूसरे खण्ड का नाम खुद्दाबन्ध है, जिसका संस्कृत-रूप क्षुल्लक बन्ध होता है । यह कर्मप्रकृति पाहुड़ के बन्धन संज्ञक अनुयोगद्वार के बन्धक नामक भेद के आधार पर सृष्ट हुआ है । यह खण्ड ग्यारह अधिकारों में विभक्त है, जो निम्नांकित हैं : १. स्वामित्व, २. काल, ३. अन्तर, ४. भगविचय, ५. द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, ८. नानाजीवकाल, ९. नाना जीव अन्तर, १०. भागाभागानुगम तथा ११. अल्पबहुत्वानुगम । प्रस्तुत खण्ड में कर्म बांधने वाले जीव, कर्म-बन्ध के भेद आदि का उपयुक्त अधिकार संकेतक इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन किया गया है । নীহা থঙ तीसरा खण्ड बन्धस्वामित्वविचय संज्ञक है। कर्मप्रकृति पाहुड़ के बन्धन अनुयोगद्वार का बन्ध-विधान नामक भेद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के रूप में चार प्रकार का है । प्रकृति के दो भेद हैं-मूल तथा उत्तर । उत्तर प्रकृति दो प्रकार की है—एकैकोत्तर तथा अवोगाढ़ । एककोत्तर प्रकृति के २४ भेद हैं, जो इस प्रकार हैं : १. समुत्कीतंना, २. सर्वबन्ध, ३. नोसर्व, ४. उत्कृष्ट, ५. अनुत्कृष्ट, ६. जघन्य, ७. अजघन्य, ८. सादि, ९. अनादि, १०. ध्रुव, ११. अध्र व, १२. बन्धस्वामित्वविचय, १३. बन्धकाल, १४. बन्धान्तर, १५. बन्धसन्निकर्ष, १६. भंगविचय १७. भागाभाग, १८. परिमारण, १९. क्षेत्र, २०. स्पर्शन, २१, काल, २२. अन्तर, २३. भाव तथा २४. अल्पबहुत्व । ___ इनमें बारहवें बन्धस्वामित्वविचय के आधार पर इस खण्ड की रचना हुई है। इस खण्ड में मुख्यतः निम्नांकित विषयों का विशद विश्लेषण है : किस जीव के किन-किन प्रकृतियों का कहां तक बन्ध होता है, किस जीव को नहीं होता। किस गुणस्थान में कौन-कौनसी प्रकृतियां व्युच्छिन्न हो जाती हैं । ____ 2010_05 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन व स्वोदयबन्धात्मक तथा परोदयबन्धात्मक प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं, इत्यादि । ड । २ इत्यादि। বাঘা অথও चौथा खण्ड वेदना संज्ञा से अभिहित है। यह कर्मप्रकृति पाहुड़ के कृति तथा वेदना नामक अनुयोगद्वारों के आधार पर सृष्ट है। इसमें बेदना के विवेचन की मुख्यता है, जो काफी विस्तारपूर्वक किया गया है। इसी कारण यह वेदना खण्ड के रूप में संशिस हुमा है । कृति के अन्तर्गत प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् तथा कार्मण-इन पांच शरीरों की संघातनास्मक एवं परिशातनात्म कृति का एवं भव के प्रथम व अप्रथम समय में अवस्थित जीवों के कृति, नो कृति तथा अव्यक्त-एतद् प संख्याओं का वर्णन है । यहां कृति के सात प्रकार निरूपित हैं, जो इस प्रकार हैं१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. गणना, ५. ग्रन्थ, ६. करण तथा ७. भाव । प्रस्तुत सन्दर्भ में 'गणना' की मुख्यता प्रतिपादित की गई है । वेदना के अन्तर्गत सोलह अधिकार हैं, जो निम्नांकित हैं : . १. निक्षेप, २. नय, ३. नाम, ४. द्रव्य, ५. क्षेत्र, ६. काल, ७. भाव, ८. प्रत्यय, ९. स्वामित्व, १०. वेदना, ११. मति, १२. अनन्तर, १३. सन्निकर्ष, १४. परिमाण, १५. भागाभागानुगम तथा १६. अल्पबहुत्वानुगम । एतन्मूलक अपेक्षाओं से यहां वेदना का विवेचन किया गया है। বাবা বথঙ पांचवां वर्गणा खण्ड है । कर्मप्रकृति पाहुड़ के स्पर्श, कर्म तथा प्रकृति नामक अनुयोगद्वारों व बन्धन नामक अनुयोगद्वार के प्रथम भेद बन्ध के आधार पर इसका सर्जन हुआ है। स्पर्श-निरूपण के अन्तर्गत निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र आदि सोलह अधिकार, जो वेदना-खण्ड में वरिणत हुए हैं, द्वारा तेरह प्रकार के स्पर्शों का विवेचन किया गया है तथा प्रस्तुत सन्दर्भ में कर्म-स्पर्श की प्रयोजनीयता का कथन किया गया है । कर्म के अन्तर्गत उपर्युक्त सोलह अधिकारों द्वारा दशविध कर्म का निरूपण है । वे दश कर्म इस प्रकार हैं-१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. प्रयोग, ५. समवधान, ६. अधः, ७. ईर्यापथ, ८. तप, ९. क्रिया तथा १०. भाव । ___ 2010_05 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका नाममय (१६५ __प्रकृति-निरूपण के अन्तर्गत शील और स्वभाव का उल्लेख हुआ है, जिन्हें उसका पर्यायवाची कहा.गया है। यहां प्रकृति के चार भेद-नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव-में द्रव्य-प्रकृति अर्थात् कर्म-द्रव्य-प्रकृति का उपर्युक्त सोलह अधिकारों के माध्यम से विशद विवेचन किया गया है। मुख्यतः पांचवें खण्ड का महत्वपूर्ण अधिकार बन्धनीय है । वहां उसका उसके अन्तर्गत २३ प्रकार की बर्गणाओं का, उनमें भी विशेषतः कर्म-बन्धयोग्य वर्गणाओं का सूक्ष्म तथा विस्तृत विश्लेषण हुआ है। बठा खण्ड महाबन्ध छठा खण्ड है। इसके सम्बन्ध में पहले संकेत किया ही गया है, आचार्य भूतबलि इसके रचयिता हैं। अपने ज्यायान् सतीर्थ्य आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित सूत्रों को लेते हुए पांच खण्डों की रचना सम्पन्न कर प्राचार्य भूतबलि ने तीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण महाबन्ध रचा । इस सम्बन्ध में इन्द्रनन्दि ने तावतार में जो उल्लेख किया है, उसे पिछले पृष्ठों में, जहां षट्खण्डागम की सामान्यतः चर्चा की गई है, उपस्थित किया ही गया है। धवलाकार प्राचार्य वीरसेन ने जहां पांचवां--वर्गणा खण्ड समाप्त होता है, इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : "प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध के रूप में बन्ध-विधान चतुर्विध-चार प्रकार का है। भट्टारक भूतबलि ने महाबन्ध में इन चारों प्रकार के बन्धों का सप्रपंच-विस्तृत विवेचन किया है ; अतः हमने उसका यहां उल्लेख नहीं किया । इस सन्दर्भ में समग्र महाबन्ध यहां प्ररूपित है; अतः बन्ध-विधान समाप्त किया जाता है।"1 . , अस्तु, छठे खण्ड महाबन्ध में प्राचार्य भूतबलि द्वारा प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का भेदोपभेदों सहित अनेक अपेक्षाओं से विस्तृत के साथ-साथ अत्यन्त सूक्ष्म न गहन विश्लेषण किया गया है । १. जं तं बंधविहाणं तं चउविहं, पयडिबंधो द्विविबंधो अनुभागबंधो पदेसबंधो चेवि। एवेसि चदुग्णं बंधाणं विहाणं भूतबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिवं ति भम्हेहि एत्थ ण लिहिवं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परुविवे बंधविहाणं समप्पदि। -बदलण्डागम, खण्ड ५, भाग ४, पुस्तक १४, पृ० ५६४ ___ 2010_05 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और ब्रिपिटक : एक मनुशीलन পাখি षट्खण्डागम के छहों खण्डों के इस संक्षिप्त परिचय से यह स्पष्ट है कि कर्म-तत्त्वविज्ञान के निरूपण की दृष्टि से यह ग्रन्थ निःसन्देह भारत के दार्शनिक वाङमय में अपना असाधारण स्थान लिए हुए है। कसायपाड (कषायामत) : प्राचार्य धरसेन का वर्णन करते समय प्राचार्य गुणधर के सम्बन्ध में पीछे संकेत किया गया है । जिस प्रकार धरसेन के इतिहास के विषय में हमारे समक्ष निश्चायक स्थिति नहीं है, उसी प्रकार गुणधर का भी कोई ऐतिहासिक इतिवृत्त हमें उपलब्ध नहीं है । धरसेन के विषय में, जैसा कि पिछले पृष्ठों में चचित हुआ है, नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली में माघनन्दि के पश्चात् उल्लेख तो है, गुणधर के सम्बन्ध में इतना भी नहीं है। ... श्रु तावतार के लेखक इन्द्रनन्दि ने गुणधर तथा धरसेन-दोनों के इतिवृत्त के सम्बन्ध में अपनी अज्ञता ख्यापित की ही है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। .. गुणधर के दैहिक जीवन का इतिहास हमें नहीं मिल रहा है, यह सच है। पर, तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में उनकी जो बहुत बड़ी देन-उनकी कृति कसायपाहड़ है, वह सदा उन्हें अजर-अमर बनाये रखेगी । व्यक्ति मर जाता है, विचार नहीं मरते । यदि किसी के विचार जीवित हैं, तो निश्चय की भाषा में उसे मृत नहीं कह सकते। आधार षट्खण्डागम की तरह कसायपाहुड भी द्वादशांग से सीधे सम्बद्ध वाङ्मय के रूप में प्रसिद्ध है । चवदह पूर्वो में पांचवां ज्ञानप्रवादपूर्व है। उसकी दशम वस्तु के तृतीय पाहुड का नाम पेज्जदोसपाहुड है । उसी के आधार पर कसायपाहुड़ की रचना हुई; अतः अपने प्राधारभूत पाहुड के नाम पर यह पेज्जदोसपाहुड के नाम से भी अभिहित किया जाता है। पेज्जदोस का संस्कृत-रूप प्रेयस्-द्वेष अर्थात् राग-द्वेष है। यही संसार का मूल है, जिसे सही रूप में जाने बिना, समझे बिना, उच्छिन्न किये बिना बन्धन से छुटकारा नहीं हो सकता। १. गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः। न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥ 2010_05 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय विषय प्रस्तुत विषय में क्रोध आदि कषायों का स्वरूप, उनके रागात्मक तथा द्वेषात्मक रूप में परिणत होने की विविध स्थितियां आदि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं मार्मिक विश्लेषणे है । বেনা कसायपाहुर की रचना गाथा-सूत्रों में हुई है। वे संख्या में २३३ हैं। सूत्र बहुत संक्षेप में हैं, पर गहन और गूढ़ अर्थ से संपृक्त हैं । आचार्य गुणधर ने इस ग्रन्थ की रचना करें षट्खण्डागम के माध्यम से प्रसृत श्र त-परम्परा को और अभिवद्धित किया है। ___ कहा जाता है, प्राचार्य मुणधर ने इसकी रचना कर आचार्य नागहस्ती तथा आर्य मंच के समक्ष इसे व्याख्यात किया । उससे यह परम्परा मागे भी गतिशील रही। व्याख्या-साहित्य ___ आचार्य यतिवृषभ ने कसायपाहुड पर प्राकृत में छः सहस्र-श्लोक-प्रमासा चूणि-सूत्रों की रचना की। ऐसा माना जाता है कि उच्चारणाचार्य ने आचार्य यतिवृषम से उनके चूरिण-सूत्रों का अध्ययन किया और उन पर द्वादश-सहस्र-श्लोक-प्रमाण उच्चारणं सूत्र रचे । आज यह साहित्य अनुपलब्ध है। कसायपाहुर पर अत्यन्त महत्वपूर्ण व्याख्या, जिसने इस महान् ग्रन्थ को और अधिक गौरवान्वित किया, स्वनामधन्य प्राचार्य वीरसेन तथा उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन की जयधवला टीका है, जिसके सम्बन्ध में पहले भी यथाप्रसंग चर्चा आई है । यह साठहजार-लोक-प्रमाण विशाल टीका है, जिसका प्रारम्भ का बीस सहस्र-श्लोक-प्रमाण भाग भाचार्य वीरसेन द्वारा तथा आगे का चालीस हजार-श्लोक-प्रमाण भाग आचार्य जिनसेन द्वारा रचित है। इस टीका का कितना अधिक महत्व है, यह इंसी से अनुमान किया जा सकता है कि जिस प्रकार धवला के कारण षट्खण्डागम के पांच खण्ड 'धवल', छठा खण्ड-महाबन्ध 'महाधवल' कहा जाता है, उसी प्रकार जयधवला के कारण कसायपाहुड 'जय धवल' कहा जाता है। कलेवर कसायपाहुर १५ प्रधिकारों में विभक्त है, जो इस प्रकार हैं : १. पेज्जदोसविभक्ति; 2010_05 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन . . [षण। २ २. स्थितिविभक्ति, ३. अनुभागविभक्ति, ४. प्रेदेश विभक्ति-झीणाझीणस्थित्यन्तिक, ५. बन्धक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुः स्थान, ९. व्यंजन, १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. संयमासंयमलब्धि, १३. संयमलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशामना तथा १५. चारित्रमोहक्षपणा । अधिकारों के नाम से ही यह सुज्ञेय है कि प्रात्मा की अन्तर्वृत्तियों के विश्लेषण तथा परिष्करण की दृष्टि से यह ग्रन्थ कितना महत्वपूर्ण है। খবথঙাগ »ী পাশ। मधुरा के आस-पास का क्षेत्र कभी शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध रहा है। प्राकृतकाल में वहां जो भाषा प्रचलित रही है, वह शौरसेनी प्राकृत कही जाती है। यह भाषा शूरसेन जनपद के अतिरिक्त पूर्व में वहां तक, जहां से अर्द्धमागधी का क्षेत्र शुरू होता था तथा पश्चिम में वहां तक जहां से पैशाची का क्षेत्र शुरू होता था, प्रसृत रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि एक समय ऐसा रहा, जब यह भाषा उत्तर भारत के मध्यवर्ती विस्तृत भू-भाग में प्रयुक्त थी। दिगम्बर प्राचार्यों द्वारा अपने धार्मिक साहित्य के सर्जन में जिस प्राकृत का प्रयोग हुमा है, लक्षणों से यह शौरसेनी के अधिक निकट है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विशेष रूप से परिशीलनीय हैं। दिगम्बर-सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र दक्षिण भारत रहा है। जिसके साथ अनेक प्रकार के कथानक जुड़े हैं, वह उत्तर भारत में व्याप्त द्वादशवर्षीय दुष्काल एक ऐसा प्रसंग था, जिसके परिणामस्वरूप घटित घटनाओं के कारण जैन संघ दो भागों में बंट गया । उत्तर में जो जैन संघ रहा, अधिकांशतया वह आगे चलकर श्वेताम्बर के रूप में विश्रुत हो गया। वह परम्परागत आगमों की, चाहे अंशतः ही सही, प्रविच्छिन्नता में विश्वास रखता रहा । उसकी भोर से विभिन्न समयों में प्रायोजित आगम वाचनाओं द्वारा अपने अद्धमागधी भागम-वाङ्मय को सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न भी चला। फलतः वह वाङमय सुरक्षित रह भी सका। श्वेताम्बर मुनियों के माध्यम से प्रागे वह स्रोत प्रवहणशील रहा । दिगम्बर मुनियों की स्थिति दूसरी थी। उन्होंने महाबीर-भाषित द्वादशांग-वाडमय को विच्छिन्न माना। इसलिए तदनुस्यूत भाषा के साथ भी उनका विशेष सम्बन्ध न रह सका । इस सम्प्रदाय के विद्वानों को, जब साहित्य-सर्जन का प्रसंग माया तो शौरसेनी का 2010_05 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य || शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय स्वीकार अधिक संगत लगा हो । क्योंकि उत्तर भारत का मुख्य भाग उससे प्रभावित था। हर कोई लेखक यह चाहता है, उसकी कृति स्थायी रहे । वह भाषा के अस्तित्व तथा महत्व पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। शौरसेनी प्रभावशील भाषा थी। दिगम्बर लेखकों को उसमें कुछ ऐसी संभावनाएं प्रतीत हुई. हों, वे मन में आश्वस्त रहे हों कि उन द्वारा उसमें प्रणीत साहित्य स्थायित्व लिए रहेगा। ___एक दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि प्राचीन काल में दिगम्बर सम्प्रदाय का उत्तर भारत से कुछ सम्बन्ध रहा भी तो वह विशेष रूप से मथुरा के आस-पास के प्रदेश से रहा हो । उस कारण भी उस प्रदेश की भाषा को अपने धार्मिक साहित्य में ग्रहण करने की मनः स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी जैन शौरसेनी कही जाती है। इसका एक कारण तो यह है कि उसमें पहले-पहल ग्रन्थ-रचना वाले जैन विद्वान् ही थे, जिनकी अपनी परम्परा थी, अपनी शैली थी। उनके कारण वह भाषा, जो उनकी लेखिनी से पल्लवित और विकसित हुई, उनके विशेषण के साथ (जैन शौरसेनी) विश्रुत हो गई। एक और कारण भी है। जैन धर्म, जब अविभक्त था, तब से, उससे भी पूर्व भगवान् महावीर के समय से अर्द्धमागधी से विशेष सम्बद्ध रहा । भगवान् महावीर चाहे शब्द रूप में बोले हों अथवा उनके देह से ध्वनि रूप में उद्गार निकले हों, अन्ततः उनके भाषात्मक रूप की परिणति अर्द्धमागधी में होती है । दूसरे शब्दों में यह कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी कि अर्द्धमागधी एक तरह से जैन धर्म की भाषा है। जैसा कि कहा गया है, यद्यपि दिगम्बरों का अर्द्धमागधी के साथ विशेष सम्बन्ध रहा, पर अर्हद्-वाणी या आर्षवाणी के रूप में उनके मन में जो पारम्परिक श्रद्धा थी, वह कैसे मिट सकती थी। इसके सिवाय पूर्वतन श्रुत-स्रोत के परिप्रेक्ष्य में भी उनके मस्तिष्क पर उसकी छाप थी । अतः उन्होंने यद्यपि लिखा तो शौरसेनी में, पर स्वभावतः उस पर अर्द्धमागधी का प्रभाव बना रहा । इस प्रकार अद्धमागधी अर्थात् जैन धर्म की भाषा या जैन भाषा से प्रभावित रहने के कारण वह शौरसेनी जैन शौरसेनी कहलाने लगी। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप के सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम उस भाषा के अन्तःस्वरूप की यथार्थ परिचायकता की अपेक्षा उसके स्यूल कलेवरीय स्वरूप पर अधिक आघुप्त है अन्यथा उन द्वारा प्रयुक्त भाषा में ऐसे उदाहरण भी हैं, जो मागधी आदि की सरणि से अधिक मेल खाते हैं। 2010_05 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आगम और त्रिपिटक । एक अनुशीलन प्रकृति के विख्यात वैयाकरण डा० आर० पिशेल (Dr. Pischel) ने इसे जो जैन शौरसेनी कहा है, उसके पीछे भी उसी प्रकार का अभिप्राय प्रतीत होता है । डा. वाल्टर सुबिंग (Dr. Walter Schubring) के शिष्य डा० डेनेक (Dr. Denecke) ने डा० पिशेल (Dr. Pischel) द्वारा परिकल्पित जैन शौरसेनी नाम को अनुपयुक्त बताया है । उन्होंने उसे "दिगम्बरी भाषा कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डा० ए० एन० उपाध्ये आदि विद्वान् इसे ठीक नहीं मानते। बात ऐसी ही है, यदि दिगम्बर लेखकों द्वारा अपने ग्रन्थों का इस भाषा में लिखा जाना इसके 'दिगम्बरी भाषा' कहे जाने का पर्याप्त हेतु है, तो वह अव्याप्त है, क्योंकि दिगम्बर विद्वानों ने अपने धर्म का साहित्य कन्नड़ तथा तमिल जैसी भाषाओं में भी तो रचा है, बहुत रचा है, जो उन भाषाओं को निधि है । अतः स्थूल दृष्ट्या जैन शोरसेनी नाम से इसे संशित करना अनुपयुक्त नहीं लगता। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी में देशी शब्दों के प्रयोग लगभग अप्राप्त हैं । कारण स्पष्ट है, वह भाषा उस प्रदेश में पनपी, विकसित हुई, जो द्रविड़ परिवारीय-भाषासमूह से सम्बद्ध है तथा देशी-शब्दों के प्रयोग-क्षेत्र से सर्वथा बाहर है। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषा-शौरसेनी द्रविड़ परिवारीय भाषाओं से प्रभावित नहीं हुई, इसका कारण उन (द्रविड़ परिवारीय) भाषाओं का ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से आर्य-परिवारीय भाषाओं से भिन्नता है। संस्कृत का प्रभाव उस पर अवश्य अधिक है। एक तो शौरसेनी का प्रारम्भ से ही संस्कृत से विशेष लगाव रहा है, वररुचि ने तो इसकी उत्पत्ति ही संस्कृत' से बतलाई है तथा दूसरे संस्कृत की अपनी प्रभावापन्नता है, जिसकी अन्ततः परिणति हम समन्तभद्र, पूज्यपाद, अनन्तवीर्य तथा अकलंक जैसे महान् दिगम्बर संस्कृत लेखकों में पाते हैं। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का यह संक्षिप्त विवरण है । स्थान, समय, स्थिति आदि के कारण विभिन्न कृतियों में भाषा के सन्दर्भ में कुछ भिन्नता या असहशता भी रही है, पर वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । अस्तु, षट्खण्डागम की भाषा जैन शौरसेनी प्राकृत है । मूल सूत्रों तथा टीका की भाषा में जो यत्किचित् भिन्नता है, उसका उत्तर देश, काल एवं परिस्थिति के व्यवधान में स्वयं खोजा जा सकता है । 1. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, Page 20-21 २. प्रकृति : संस्कृतम् । -प्राकृत-प्रकाश १२.२ 2010_05 Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वार मय [६७१. যৗব্দনী ধাক্কন ী গথ বিশ্বনাথ शौरसेनी प्राकृत की निम्नांकित मुख्य विशेषताएं हैं । इसमें मध्यवर्ती क के स्थान पर ग, क के स्थान पर द् तथा थ् के स्थान पर , होता है। घर्तमान काल प्रथम पुरुष एक वचन क्रिया में 'वि' लगता है। पूर्वकालिक क्रियात्मक अव्यय में प्रायः उम, तु एवं 'दूण' प्रत्यय का प्रयोग होता है। उपसंहारात्मक समीक्षा मागम-साहित्य एवं त्रिपिटक-साहित्य पर भाव, भाषा, शैली की दृष्टि से यथोचित दिग्दर्शन सम्बन्धित सन्दों में कराया जाता रहा है । शब्द-साम्य व उक्ति-साम्य आदि नाना स्फुट विषय बनते हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् रूप से शोध-कार्य किया जा सकता है। प्रस्तुत खण्ड की महाकायता को देखते हुए इतना विस्तार में जाना समुचित नहीं होगा। विषय का प्रारम्भ मात्र मैं यहां कर देना चाहता हूं ताकि पाने वाली पीढ़ी उसे और विस्तार दे सके । मेरे लिए यह कार्य तीसरे खण्ड में भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका विषय भी मुख्यतः प्रकरण-साम्य ही रहेगा, जो अपने आप में प्रथम दो खण्डों के समकक्ष होगा। पिटक-शास्त्र के अर्थ में पिटक शब्द दोनों ही परम्पराओं ने अपनाया है। वह ज्ञान-मंजूषा गणी तथा प्राचार्य के लिए है, इसलिए उसे गणिपिटक कहा गया है । गणी शब्द का प्रयोग महावीर, बुद्ध आदि तात्कालिक धर्म-प्रवर्तकों के अर्थ में भी बौद्ध परम्परा में मिलता है। हो सकता है, पंघनायक भगवान् महावीर से उद्भूत वाणी के अर्थ में ही जैन परम्परा ने गणिपिटक शब्द को अपनाया हो । निगंठ—इस शब्द का अर्थ है-निर्ग्रन्थ । तात्पर्य है-अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित । त्रिपिटकों में जैन सम्प्रदाय को निग्रंन्थ-सम्प्रदाय, भगवान् महावीर को निर्गन्ध ज्ञातपुत्र स्थान-स्थान पर कहा गया है। जैन श्रमणों को भी निर्ग्रन्थ कहा गया है । उक्त १. संयुत्तनिकाय. दहर सुत्त (३.१-२), पृ०६८, दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, १/२, सुत्तनिकाय, समीय सुत्त, पृ० १०८ से ११० आदि ____ 2010_05 Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ ।] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ अर्थों में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग गरिणपिटक में भी ज्यों-का-त्यों देखा जाता है । भगवान् महावीर के प्रवचन को भी निर्ग्रन्थ- प्रवचन कहा गया है । युग्गल - पुद्गल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध परम्परा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं महीं देखा जाता है । जैन परम्परा में इसका मुख्य श्रथं रूपी जड़ पदार्थ है । बौद्ध परम्परा में पुद्गल शब्द का अर्थ है - प्रात्मा, जीव । 1 जैनागमों में जीव-तत्त्व के अर्थ में पुद्गल शब्द आया है ।" गौतम स्वामी के प्रश्न पर भगवान् महाबीर ने जीव को पुद्गल कहा है । अर्हत और बुद्ध - वर्तमान में अर्हत् शब्द जैन परम्परा में और बुद्ध शब्द बौद्ध परम्परा में रूढ़ जैसा बन गया है । वस्तुस्थिति यह है कि जैनागमों में अर्हतु और बुद्ध अपने श्लाघ्य पुरुषों के लिए अपनाये गये हैं और बौद्ध आगमों में भी अपने श्लाघ्य पुरुषों के लिए | जैनागमों की प्रसिद्ध गाथा है— जय बुद्धा अतिकन्ता । जेये बुद्धा अणागया । 1 बौद्ध परम्परा की सुविदित गाथा हैं— ये बुद्धा अतीता च ये च बुद्धा अनागता । पचपन्ना व ये बुद्धा अहं वंदानि ते सदा । जैनागमों में और भी अनेक स्थानों पर बुद्ध, सम्बुद्ध, संयबुद्ध आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है । तित्थगराणं सयं सम्बुद्धाणं । 5 तिविहा बुद्धा - णाण बुद्धा, दंसण बुद्धा, चरित बुद्धा । समरणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं सयं संबुद्ध णं । १. मज्झिम निकाय, ११४ २. भगवती सूत्र, शतक २०-३-२ ३. वही, ८-३-१० ४, सूत्रकृतांग सूत्र, १-१-३६ ५. रायपसेणइयं, ५ ६. स्थानांग सूत्र, ठा० ३ ७. समवायांग सूत्र, २२ 2010_05 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [tor बुद्धहि एवं पवेदितं ।। संखाई थम्म य वियागरंति बुद्धा हु ते अन्तकरा भवन्ति ।' बौद्ध परम्परा में अर्हत् शब्द का प्रयोग इसी प्रकार पूज्यजनों के लिए किया गया है । स्वयं तथागत को स्थान-स्थान पर अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध कहा गया है । भगवान् बुद्ध के निर्माण के पश्चात् पांच सौ भिक्षुओं की जो सभा होती है, वहां प्रानन्द को छोड़कर चार सो निन्यानवे भिक्षु अर्हत् बतलाए गए हैं। कार्य-प्रारम्भ के अवसर तक आनन्द भी अर्हत् हो जाते हैं । बौद्धागमों में बुद्ध और जैनागमों में अर्हत् शब्द के तो अगणित प्रयोग हैं ही। थेरे-स्थविर शब्द का प्रयोग दोनों ही परम्परामों में वृद्ध या ज्येष्ठ के अर्थ में हुआ है। जैन परम्परा में ज्ञान,वय, दीक्षा-पर्याय आदि को लेकर स्थविर के अनेक भेदप्रभेद किए गए हैं । बौद्ध परम्परा में बारह वर्ष से अधिक के सभी भिक्षुत्रों के नाम के साथ थेर या थेरो लगाया जाता है। भन्ते-पूज्य और बड़ों को आमंत्रित करने में भन्ते (भदन्त) शब्द दोनों ही परम्पराओं में एक है । से कणह्रण भन्ते, राणं मन्ते, सेव भन्ते, सव्वं भन्ते आदि प्रयोग जैन आगमों के हैं। बौद्ध आगमों में भी भन्ते शब्द की अनहद बहुलता है। आउसो-समान या छोटे के लिए आउस (आयुष्मान्) शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में समान रूप से मिलता है । भगवान् बुद्ध को भी 'माउस' गौतम कहकर सम्बोधित किया जाता था। गोशालक ने भी भगवान् महावीर को 'प्राउसो कासवा' कहा है। श्रावक, उपासक,श्रमणोपासक-श्रावक शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार उसका अर्थ गृहस्थ उपासक है। बौद्ध परम्परा - १. आचारांग सूत्र, ४।१।३४० २. सूत्रकृतांग सूत्र, १-१४-१८ ३. वीघनिकाय, सामञफल सुत्त, १२ ४. विनयपिटक, पंचशतिका स्कन्धक ५. भगवती सूत्र, शतक ७।३।२७९ ६. वही, शतक १५ ____ 2010_05 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ में इससे भिक्षु और गृहस्थ, दोनों ही प्रकार के शिष्यों का बोध होता है ।। उपासक और श्रमणोपासक शब्द अनुयायी गृहस्थ के लिए दोनों परम्पराअो में प्रयुक्त हैं। आस्रव और संवर—ये दोनों शब्द भी जैन और बौद्ध दोनों परम्म्पराओं में एक ही अर्थ में मान्य दिखलाई पड़ते हैं।' ___ दीक्षित होने के अर्थ में एक वाक्य दोनों परम्पराओं में रूढ़ जैसा पाया जाता है। जैनागमों में है—आगाराओ अणगारियं पश्व इत्तए। बौद्ध शास्त्रों में है—अगारम्मा अनगारिअं पव्वजन्ति ।। सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि—ये दोनों शब्द भी एक ही अर्थ में दोनों परम्पराओं में मिलते हैं । जैन और बौद्ध दोनों ही अपने-अपने अनुयायियों को सम्यक्दृष्टि और इतर मत वालों को मिथ्याष्टि कहते हैं । उपोपथ-इस शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में मिलता है । दीघनिकाय में भगवान् बुद्ध ने जैनों के उपोसथ की आलोचना की है। बैरभण-व्रत लेने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में देखा जाता है। तथागत-मुख्यत: यह शब्द बौद्ध परम्परा का है। जैनागमों में यत्र-तत्र उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ कओ कआइ मेहावी उपज्जन्ति तहागया। तहागया उप्पडिक्कन्ता चक्खु लोगस्सनुत्तरा ॥ विनय-विनय शब्द का दोनों परम्पराओं में महत्व है । बौद्ध परम्परा में समग्न प्राचार-धर्म के विषय में ही विनय शब्द का प्रयोग है। विनयपिटक इसी बात का सूचक है । जैनागमों में भी अनेक अध्ययन विनय-प्रधान हैं । दशवकालिक सूत्र का नवम अध्ययन १. अंगुतर निकाय, एक कनियात, १४ २. जैनागम, समवायांग सूत्र, सं० ५, बौद्ध शास्त्र, मज्झिमनिकाय, २ ३. भगवती सूत्र, ११।१२।४३१ ४. महावग्ग ५. सूत्र कृतांग सूत्र, २०१५।१२०१६२५ ____ 2010_05 Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [ ६७५ 'विनय-समाधि नाम से है-उसकी प्रथम उक्ति है-यंमा व कोहा व मयप्प माया, गुरु सगासे विणयं न सिक्खे । उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन का नाम भी विनयश्रत है और वहां यही कहा जाता है—विणयं पाउ करिस्तामि, आशुपुब्विं सुणेह मे। वजित कथा-जैनागमों में स्त्री-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, राज कथा की वर्जना 'मिलती है । दीघनिकाय के ब्रह्मजाल और सामाफल, इन दोनों प्रकरणों में ऐसी कथाओं को तिरच्छान कथा कहा है-तिरच्छान कथं; अनुयुक्तो विहरित सेय्यधदं राज कथं, चोरकथं, महानत कथं सेना कथं, भय कथं, युद्ध कथं, अन्न कथं, पान कथं । विशरण-चतुश्शरण-बौद्ध पिटकों व परम्परा में तीन शरण बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, तो जैनागमों व परम्परा में चार शारण अपना अनन्य स्थान रखते हैं । ये तीन व चार शरण क्रमशः निम्न प्रकार हैं बद्धसरणं गच्छामि अरहन्ते सरणं पवज्जामि संघं सरणं गच्छामि सिद्ध सरमं पवज्जामि धम्म सरणं गच्छामि साह सरणं पवग्जामि केवली पन्नत धम्म सरणं पवज्जामि । णमोत्युणं—जैन आगमों का प्रसिद्ध स्तुति-वाक्य है-'णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।' बौद्ध परम्परा का सूत्र है- "णमोत्युणं समणस्स भगवओ सम्यम् सम्बुद्धस्स ।' नगर व देश-नालन्दा, राजगृह, कयंगला, श्रावस्ती आदि नगरों व अंग, मगध आदि देशों के नाम व वर्णन दोनों आगमों में समान रूप से मिलते हैं । जैनागम कहते हैं—व्यक्ति तीन उपकारक व्यक्तियों से उऋण नहीं होता-गुरु से, मालिक से और माता-पिता से । वहाँ यह भी बताया गया है कि अमुक प्रकार की पराकाष्ठा-परक सेवाएं दे देने पर भी वह अनृऋण ही रहता है। लगभग वही उक्ति बौद्ध आगमों में मिलती है । बुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ, सौ वर्ष तक एक कन्धे पर माता को और एक कन्धे पर पिता को ढोए, और सौ वर्ष तक ही वह उनके उबटन, मर्दन आदि करता रहे, उन्हें शीतोष्ण जल से स्नान कराता रहे, तो भी न बह माता-पिता का उपकारक १. ठाणांग सूख, ठा० ३ ____ 2010_05 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन : १ होता है, न प्रत्युपकारक । यह इसलिए कि माता-पिता का पुत्र पर बहुत उपकार होता है। जैनागमों ने धार्मिक सहयोग को उऋण होने का प्राधार माना है। ___ यो अरिहन्त—जैनागमों की सुदृढ़ मान्यता है-भरत आदि एक ही क्षेत्र में एक साथ दो तीर्थकर नहीं होते। बुद्ध कहते हैं-भिक्षुप्रो ! इस बात की तनिक भी गुजाइश नहीं है कि एक ही विश्व में एक ही समय में अर्हत् सम्यग् संबुद्ध पैदा हों। __ स्त्री-अर्हत्, चक्रवर्ती शब्द-जैनों की मान्यता है ही कि अर्हत्, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि स्त्री-भव में कभी नहीं होते । बुद्ध कहते हैं-भिक्षुप्रो, यह तनिक भी सम्भावना नहीं हैं कि स्त्री-अर्हत् चक्रवर्ती व शुक्र हो । श्वेताम्बर आम्नाय के अनुभार मल्ली स्त्री तीर्थंकर थी, पर वह कभी न होने वाला आश्चर्य था । १. अंगुसर निकाय २. वही ३. वही ____ 201005 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची 2010_05 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची १. अंग पण्णत्ति : प्राचार्य शुभचन्द्र २. अंगुत्तर-निकाय : अनु० भदन्त आनन्द कौशल्यायन, प्र. महाबोधि सभा, कलकत्ता, १९५७-६३ ३. अलंकार-तिलक : ४. अनुयोगद्वार सूत्र । ५. अट्ठसालिनी : पूना संस्करण, १९४२ ६. अष्टाध्यायी-वृत्ति : पाणिनी ७. अभिसमयालंकार : बड़ौदा संस्करण ८. अभिधान राजेन्द्र कोष : ( ७ भाग) आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, १९१३-३४ ६. अमरकोश : ( तृतीय खण्ड ) नानार्थ वर्ग १०. प्रशोक के धर्मलेख : सं० जनार्दन भट्ट, प्र. पब्लिकेशन डिवीजन, सूचना एवं प्रसार मंत्रालय, प्रोल्ड सेक्रेटेरियेट, दिल्ली, १९५७ ११. प्राचारांग-नियुक्ति : १२. प्राचारांग सूत्र : ( जैनागम ) शीलांकाचार्य कृत वृत्ति सहित, प्र० प्रागमोदय समिति, सूरत, १९३५ : प्राचार्य जिनसेन, सं० पं. पन्नालाल जैन, प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६३ १४. आराधना : अपराजित सूरि १५. पाराधना : विजयोदया : अपराजित सूरि १६. पावश्यक-नियुक्ति : प्राचार्य भद्रबाहु मलयगिरि वृत्ति सहित, प्र. प्रागमोदय समिति, बम्बई १९२८ । १७. आवश्यक-नियुक्ति : प्राचार्य भद्रबाहु हारिभद्रीय वृत्ति सहित, प्र० प्रागमोदय समिति बम्बई, १९१६ १८. इन्द्रनन्दि-श्रु तावतार : 2010_05 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० ] प्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ १६. उत्तराध्ययन सूत्र : भावविजयजी कृत टीका, प्र० प्रात्मानन्द जैन सभा, भावनगर २०. उपमिति भवप्रपञ्चकथा : प्राचार्य सिद्धर्षि २१. ऋग्वेद : २२. औपपातिक सूत्र : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, प्र० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ___ फण्ड, सूरत, १९३७ २३. कच्चान व्याकरण : २४. कपूर मंजरी : राज शेखर २५. कल्पसूत्र : प्र० साराभाई मणिलाल नबाव, अहमदाबाद १९४१ २६. कल्पसूत्र टीका : २७. कल्याण : गीता प्रेस, गोरखपुर २८. कामसूत्र : २६. काव्यादर्श : दण्डी ३०. काव्यालंकार वृत्ति : ३१. गउड़वहो : वाक्पति राज ३२. गोपक मोग्गलान सुत्त : ३३. गोम्मटसार : नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त चक्रवर्ती, पाढम निवासी पं० मनोहरलाल कृत वृत्ति, प्र० श्री परमश्रु त प्रभाबक मंडल, बम्बई १९१३ ३४. चूलवग्ग परिच्छेद : ३५. चूलवंस परिच्छेद : ३६. छान्दोग्योपनिषद् : ३७. जंबूदीपपण्णत्ति : शांतिचन्द्र गणि विहित वृत्ति सहित ( भाग १, २) प्र. ___देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १९२० ३८. जय धवला प्रशस्ति : ३६. जैन आगम : पं० दलसुख माल वरिणया, जैन संस्कृति शोध मंडल, बनारस, १९४७ ४०. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश : क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ४१. जैन सिद्धान्त भास्कर : जैन सिद्धान्त भवन, पारा १९१३ ४२. ज्योतिष्करण्डक टीका : ४३. ज्ञातृधर्मकथा : ४४. ज्ञातृधर्मकथा सूत्र : mmmm 2010_05 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य] प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची [ ६८१ ४५. ठाणांग सूत्र। ४६. तत्त्वार्थ सूत्र : उमास्वाति, प्र० रायचन्द जैन शास्त्रमाला, हीराबाग, बम्बई, ४७. तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थ सिद्धि : प्राचार्य पूज्यपाद ४८. ताण्ढय महाब्राह्मण, पचविंश ब्राह्मण : ४६. तित्थोगालीपइन्ना : ( जैन ग्रन्थ ) अप्रकाशित ५०. तिलोयपण्णत्ति : प्राचार्य यति वृषभ, सं० हीरालाल जैन व ए. एन० उपाध्ये, __प्र. जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९५१ ५१. तैत्तरीय संहिता : ५२. दशवैकालिक वृत्ति : ५३. दर्शनसार : देवसेनाचार्य, सं० पं० नाथूराम प्रेमी, प्र० जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई, १९२० ५४. दीघनिकाय (हिन्दी अनुवाद ): अनु० राहुल सांकृत्यायन, प्र० महाबोधि सभा,, सारनाथ, बनारस, १९३६ ५५. दीपवंस : ( सिलोनी पालि ग्रन्थ ) सं० और अनु० अोल्डन वर्ग, प्र० विलियम्स एण्ड नोर्गेट, लन्दन १९०६-१९१५ ५६. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिक! : प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ५७. धर्म संग्रह सटीक : ५८. धवला : ५९. नन्दी सूत्र : ६०. नन्दी सूत्र स्थविरावली : ६१. नाट्य शास्त्र : प्राचार्य भरत । ६२. नायाधम्मकहानो : वाचना प्रमुख प्राचार्य तुलसी, सं• मुनि नथमल, प्र. जैन विश्व भारती, लाडनू, वि० सं० २०३१ ६३. नारद-स्मृति : ६४. निरयावलिका : ( सुन्दर बोधि व्याख्या तथा हिन्दी-गुजर भाषानुवाद सहित ) घासीलालजी महाराज, प्र० अ० भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति,राजकोट, १९६० ६५. निरुक्त : ६६. नियुक्ति : प्राचार्य भद्रबाहु ____ 2010_05 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२] . प्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ६७. निशीथ भाष्य : ६८. नीतिसार : प्राचार्य इन्द्रनन्दी ६६. पंचसिद्धान्तिका : वराहमिहिर ७० परिशिष्ट पर्व : प्राचार्य हेमचन्द्र, सं० सेठ हरगोविन्ददास, प्र. जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर, १९५७ ७१. परिशिष्ट पर्व : प्राचार्य हेमचन्द्र, सं० डा० हर्मन जेकोबी, प्र० एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता, १९३२ ७२. पाइअसद्दमहण्णवो : कर्ता पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ, सं० डा० बासुदेवशरण अग्रवाल, पं०दलसुखभाई मालवणिया,प्र०प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५, ( द्वितीय संस्करण ) १९६३ ७३. पाणिनी शिक्षा : ७४. पाणिनीय अष्टाध्यायी : ७५. पालि महाव्याकरण : ले० भिक्षु जगदीश काश्यप ७६. पालि साहित्य का इतिहास : डा. भरतसिंह उपाध्याय, प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन (द्वितीय संस्करण ) प्रयाग, १९६३ ७७. प्रभावक चरित : प्रभाचन्द्र, प्र. सिंधी ग्रन्थमाला, कलकत्ता, १९४० ७८. प्रज्ञापनोपांगम पूर्वार्द्धम् : ७६. प्रज्ञापना सूत्र : अमोलक ऋषि द्वारा अनूदित ८०. प्राकृत उपदेश पद : प्राचार्य हरिभद्र ८१. प्राकृत पट्टावली : . ८२. प्राकृत प्रकाश : वररुचि ८३. प्राकृत लक्षण : ८४. प्राचीन लिपि माला : डा० गौरीशंकर हीराचन्द अोझा ८५. बाल रामायण : राजशेखर ८६. बृहत्कथाकोष : प्राचार्य हरिषेण, सं० ए० एन० उपाध्ये, प्र. सिंधी जैन ग्रन्थ माला, बम्बई १९४३ ८७. बृहत्कल्पभाष्य : ८८. व्रज का सांस्कृतिक इतिहास : ८९. भगवती सूत्र : ( जैनागम ) अभयदेव मूरि वृत्ति सहित, प्र० ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९३७ ____ 2010_05 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा और साहित्य ] ६०. भद्रबाहु चरित्र : आचार्य रत्ननन्दी ६१. भर्तृहरिकृतनीतिशतक : श्राचार्य सिद्धर्षि ६२. भारत की प्रार्य भाषाएं : डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची ६३. भारत की भाषाएँ और भाषा सम्बन्धी समस्याएं : डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ६४. भाषा विज्ञान : डा० भोलानाथ तिवारी ६५. भाव-संग्रह : देवसेन, सं० पन्नालाल सोनी, प्र० माणिक्यचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई १९२१ ६६. मज्झिमनिकाय : ( हिन्दी अनुवाद ) अनु० राहुल सांकृत्यायन, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १९३३ [ ६८३ ६७. मनुस्मृति : ६८. महापरिनिव्वाण सुत्त : ६६. महापुराण: प्र० माणकचन्द जैन ग्रन्थमाला, बम्बई १००. महाभारत : १०१. महाभाष्य : महर्षि पतंजलि, सं० भार्गव शास्त्री, प्र० निर्णय सागर प्रेस, बम्बई १९५१ १०२. महावंस : ( हिन्दी अनुवाद ) अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्र० हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, १९५६ १०३. महावग्ग : महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रन्य, खण्ड १ - २, बम्बई, १९६८ १०४. महावीर चरित : रयधू १०५. महायान सूत्र संग्रह ( प्रथम खण्ड ) मिथिला पीठ, दरभंगा संस्करण १९६१ १०६. महायान सूत्रालंकार : १०७. मिलिन्द पञ्हो ( पालि ) सं० श्रार० डी० वडेकर, प्र० बम्बई विश्वविद्यालय बम्बई १९४० १०८. मुण्डकोपनिषद् : १०६ याज्ञवल्क्य स्मृति : ११०. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : प्र० मारणकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई १०१. राजप्रश्नीय सूत्र : ११२. रामायण : गीता प्रेस, गोरखपुर 2010_05 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ११३. रायपसेणइयं : ( जैनागम ) सं० पं० बेचरदास डोसी, प्र. गुर्जर रत्न ग्रन्थ ___ कार्यालय, अहमदाबाद, १९३९ ११४. ललित बिस्तर : ( वौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली ) सं० डा० पी० एल० वैद्य, प्र. मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा १९५८ ११५. ललित विस्तरा : प्राचार्य हरिभद्र ११६. लघु सिद्धान्त कौमुदी : ११७. वसुदेव हिंडी : ११८. विनयपिटक : ( पालि ) सं० भिक्षु जगदीश काश्यप, प्र० पालि प्रकाशन मंडल नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य १९५६ ११६. विनयपिटक : ( भूमिका ) सं० डा० प्रोल्डन वर्ग ११०. विपाक सूत्र : १२१. विपाक श्रत : १२२. विसुद्धिमग्ग : प्राचार्य बुद्धघोष १२३. विशेषावश्यक भाष्य : (सटीक) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, वृत्तिकार-कोट्याचार, प्र. ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था, रतलाम, १९३६-३७ २२४. वृहदारण्य कोपनिषद् : १२५. वृष्णिदशा सूत्र : १२६. वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी : १२७. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र : टीका अभयदेव सूरि, प्र० ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वे० संस्था, रतलाम १९४७ १२८. शाकटायन : १२६. शाकटायन व्याकरण : १३०, श्रवणबेलगोला शिलालेख : १३१. श्र तावतार : १३२. श्री आवश्यक सूत्रम् : ( द्वितीय भाग ) प्राचार्य मलयगिरि १३३. श्री दुःषमाकालश्रमणसंघस्तव : धर्मघोष सूरि १३४. षट्खण्डागम : ( धवला टीका ) आचार्य वीरसेन, सं० हीरालाल जैन, प्र. सिताबचन्द लखमीचन्द, अमरावती ( बरार ) १९४१-५७ १३५. षट्प्राभृत टीका : १३६. षड्दर्शन समुच्चय सटीक : याकिनी महत्तरा सूनू प्राचार्य सूरि 2010_05 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भाषा और साहित्य ] प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची [ ६८५ १३७. संयुक्त निकाय : • पालि ) सं० भिक्षु जगदीश, काश्यप प्र० पालि प्रकाशन मंडल, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५९ १३८. संस्कृत-हिन्दी-कोश : श्राप्टे, वामन शिवराम १३६. सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र : डा० एन० एन० दत्त का देवनागरी संस्करण १४०. समन्तपासादिका : प्राचार्य बुद्धघोष, सं० जे० यकाकुसु, मकोटो नगाईं, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १९४७ १४१. समवायांग सूत्र : ( जैनागम ) अभयदेव सूरि वृत्ति सहित सं० मास्टर नगीनदास नेमचन्द, प्र० सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, कान्तीलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, १९३८ १४२. सरस्वतीकण्ठाभरण : श्राजड़ १४३. सामान्य भाषा विज्ञान : डा० बाबूराम सक्सेना १४४. सामवेद : १४५ साहित्य दर्पण : महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी १४६. सिद्ध हैम शब्दानुशासन : हेमचन्द्राचार्य, प्र० सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई १४७. सुमंगलविलासिनी : प्राचार्य बुद्धघोष, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १८८६-१९३२ १४८. सूत्रकृतांग सूत्र : ( जैनागम ) शीलांकाचार्य वृत्ति सहित सं० पन्यासप्रवर श्रीचन्द्रसागरगरण, प्र० श्री गौड़ीजी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढ़ी, बम्बई १०९. सूत्रकृतांग नियुक्ति चूरिण : १५०. स्थविरावली चरितम् - १५१. स्थानांग टीका - प्राचार्य अभयदेब सूरि, सन् १०६३ १५२. स्थानांग सूत्र - ( जैनागम ) अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, प्र० प्रागमोदय समिति 2010_05 सूरत, १९२० १५३ स्थानांग सूत्र वृत्ति : १५४. स्त्री - निर्वाण केवलि-भुक्ति प्रकरण : सं० मुनि जम्बूविजयजी, प्र० श्रात्मानन्द जैन सभा, भावनगर, सं० २०३० १५५. हिमवत् थेरावली : Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ €5€ ) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ( : 1. A Comparative Study of Pratimoksha : by Pachova. 2. An Introduction to Linguistic Science : Prof. Adager Sturvint, New Haven, 1948. 3 Annols of Bhondarkar Oriental Research Institute, Poona, 1974. 4. Buddhist India : Royas Devids. 5. Buddhistic Studies : Edited by Dr. Law. 6. Comparative Grammar of the Prakrit Language : Dr. Pishel. 7. Dr. Upadhye's Introduction to the Siddhasena Divakara's Nyaya vatara and other works : Piiblished by Jain Sahitya Vikas Mondala Bombay, 1971. 8. Epitome of Jainism Appendix : 9. History of Pali Literature : Dr. Law. 10. History of Indian Literature : M. Winter Nitza, Calcutta, 1933 11. Indian Historical Quarterly : December, 1928. 12. Indian Palaeography : Dr. Bular. 13. J. Bendryes Language : J. Bendryes, London, 1952. 14 Jainism in South India : Prof. S. K. Ramchandra Rao. 15. Language : Dr. Blum Field. 16. Lax Raligion Dyaina : Dr. Welter Schubring. 17. Linguistic Survey of India : Sir Jorj Abroham Griyorsan. 1927 18. Manu Smriti : M. Monior Williams. 19 Mysore Gazatter : Laws Rice. 20. Pali Literature and Language : Dr. Gaiger. 21. Rajasthan District Gazetter : Churu. 22. R. G. Bhandarkar Commemoration : 23. Sanskrit-English Dictionary : by Sir M. Monior Williams M. W. A. K. C. I. E. 24. The Middle Length Saying : 25. The Pali Literature of Burma : London, 1909, 26, The Story of Language : Mosiyo-Pai, London, 1952 2010_05 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अन्य कृतियाँ १. श्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, खण्ड - १ २. मति माधुर्य ३. अहिंसा विवेक ४. नया युग : नया दर्शन ५ नैतिक विज्ञान ६. श्रहिंसा पर्यवेक्षण ७. ८. जैनागम : दिग्दर्शन जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान ९. श्ररण व्रत जीवन दर्शन १०. अहिंसा के अंचल में ११. प्राचार्य श्री भिक्षु श्रौर महात्मा गांधी १२. अणु से पूर्ण की ओर १३. अण ुव्रत विचार १४. नवीन समाज व्यवस्था में दान और दया १५. आचार्य तुलसी : एक अध्ययन १६. प्रेरणा दीप १७. सर्व धर्म सद्भाव १८. तेरापन्थ दिग्दर्शन १९. प्रणव्रत क्रान्ति के बढ़ते चरण २०. अरण व्रत आंदोलन और विद्यार्थी वर्ग २१. श्रण ुव्रत दिग्दर्शन २२. अरण व्रत आंदोलन २३. अरण व्रत दृष्टि २४. युग प्रवर्तक भगवान् महावीर २५ युग धर्म तेरापंथ २६. बाल दीक्षा : एक विवेचन २७. मर्यादा महोत्सव : इतिहास और परिचय 2010_05 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८] २८. महावीर और बुद्ध की समसामयिकता २९. मंजिल की ओर ३०. तेरापन्थ शासन प्रणाली ३१. सत्य मंजिल : समीक्षा राह ३२. मन के द्वन्द्व : शब्दों की कारा ३३. यथार्थ के परिपार्श्व में संस्कृत ३४. भिक्षु चरित्रम् ३५. माथेरान सुषमा ३६. भक्तरुक्तयः ३७. आशुकाव्यानि ३८. नीति-नीलोत्पलानि ३९ ललितांग चरित्रम अंग्रेजी 1. Agama Aour Tripitaka : Eka Anusilana, Vol. 1 [ Press ] 2. New Age : A New outlook 3, Anuvrat Ideology 4. Light of Inspiration 5. Jain Philosophy & Modern Science 6. Strides of Anuvrat Movement 7. Pity and Charity in the New Pattern of Society 8. A Pen-Sketch of Acharya Tulsi 9. Glimps of Anuvrat 10. Glimps of Terapanth 11. Contemporaniety and chronology of Mahavira and Buddha 12. Theory of Relativity and Syadvad 13. King Bimbisara and king Ajatasatru in the age of Mahavira & Buddha. ____ 2010_05 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० जन्म : सरदारशहर ( राजस्थान ) २४ सितम्बर १९१७ प्रव्रज्या : तेरापंथ के अष्टमाचार्य पूज्य काल गणी के करकमलों से सन् १९३४ । सम्मान : अरण व्रत परामर्शक पद, १९६२ । कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा ऑनरेरी डी. लिट्० १९६९ । राष्ट्रसन्त, सितम्बर १९८१ । ग्रभिनिष्क्रमण : सरदारशहर ( राजस्थान ) ६ नवम्बर १९७६ । साहित्य-साधना : आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन, अहिंसा, विवेक, जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान अरणव्रत जीवन दर्शन, आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी, नैतिक विज्ञान, नया युग नया दर्शन, यथार्थ के परिपार्श्व में प्रभृति बहुसंख्यक रचनायें, स्फुट लेख व विचार, जो देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। लोक हिताय : सुदूर प्राप्तों में प्रलम्ब व सफल पदयात्राएँ । मजदूरों और किसानों में, विद्यार्थी और व्यापारियों में, सर्वसाधारण और राज-कर्मचारियों में, रातकों व प्राध्यापकों में, अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों में, साहित्यकारों व पत्रकारों में, विधायकों व संसद सदस्यों में नैतिक व चारित्रिक उद्बोधन । दिल्ली आपका प्रमुख कार्य-क्षेत्र रही है। शीर्षस्थ लोगों से आपका उल्लेखनीय सामीप्य रहा है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम ग्रन्थ भी एक विशाल वाङमय हैं और त्रिपिटक के अन्तर्गत जिन पालि-प्रन्यों की गिनती की जाती है, वे भी लगभग तीन महाभारतों के बराबर हैं। इस सारे वाङमय को मथकर उसका एक प्रकार से नवनीत निकाल कर रख देना सहज कार्य नहीं था। 'आगम और विपिटक' इस बात का प्रमाण है कि सतत् किये गये परिश्रम से दुष्कर कार्य भी सहज रूप से सिद्ध हो जाते हैं। -भदन्त आनन्द कौसल्यायन जैन और बौद्ध धर्म के साहित्य का आधुनिक युग में जो अध्ययन हुआ है, उसके आरम्भ काल से ही विद्वान् जनों के आगम-साहित्य और बौद्धों के 'स्थविरवाद' कहे जाने वाली पालित्रिपिटकों के ग्रन्थों में पायी जाने वाली आश्चर्यजनक समानताओं की ओर लक्ष्य करते रहे हैं।। प्रसन्नता की बात है कि पूज्य मुनिश्री नगराजजी डी० लिट् ने इस आवश्यकता को पूति की है। 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के रूप में उन्होंने प्रथम पालि-त्रिपिटका और आगम-साहित्य का एक सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया है। -डा. भरतसिंह उपाध्याय डा० मुनिश्री नगराजजी से हमारी अपेक्षा यह है कि वे अपना सामर्थ्य इस ओर लगायें। कि आगमों में कौन-कौन से एन्थ का क्या-क्या काल हो सकता है ? यह उनके सामर्थ्य की। बात है। क्योंकि वे आगम और त्रिपिटक के निष्णातक रूप में हमारे आदर के पात्र हैं। -दलसुखभाई मालवरिणया मूर्धन्य मनीषी मुनिश्री नगराजजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने अपनी विशिष्ट कृतियों से भारतीय वाङमय को समृद्धि किया है। उनकी प्रस्तुत कृति 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' भाषा-शास्त्र के सन्दर्भ में मील का पत्थर है। -कन्हैयालाल सेठिया The work is full of deep scholarship, penetrating criticism and orginalities. It essays tackling problems which have not received due attention so far, and in my opinion, constitutes a most welcome contribution to the world of Scholarship. --Prof. Dr. G. C. Pande ____ Jain Education Intemational 2010_05/