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५२८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : অবথ হননী । অসিসন - भावसंग्रह, वृहत्कथाकोष प्रादि में द्वादशवर्षीय दुष्काल की समाप्ति के अनन्तर मुनिसंघ के मिलने पर संघ-विभाजन होता है, जिसका अभिप्राय यह है कि वहीं से दिगम्बरश्वेताम्बर की भेद-रेखाएं खचित हो जाती हैं।
रत्ननन्दी' इस प्रसंग को कुछ और स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार दुर्भिक्ष के पश्चात् मुनि-संघ के मिलने पर निर्वस्त्रता और अखं फालकता के आधार पर भेद पड़ता है। श्वेताम्बरत्व तब तक अस्तित्व में नहीं आता। इसके लिए रत्ननन्दी ने एक घटना और जोड़ी है, जिसे यहां उद्धृत किया जाता है।
अईफालक मत से श्वेताम्बर ..दुर्भिक्ष के अनन्तर संघ-भेद के समय अर्द्ध फालक-संज्ञक जो नूतन मत उत्पन्न हो गया था, उसका प्राचार्य रत्ननन्दी इस प्रकार वर्णन करते है :
"वह विचित्र अर्द्ध फालक मत का सहारा पाकर लोक में उसी प्रकार उभर आया, जिस प्रकार जल पर तैल उभर आता है। . अद्ध फालक मतानुगों ने जिनेन्द्र-वाणी की अन्यथा कल्पना की और उसके अनुसार के अज्ञानी जनों को दुर्मार्ग में प्रवृत्त करने लगे।
वे पांचों इन्द्रियों के भोगों में आसक्त थे, निरंकुश थे। उन्होंने अपने लिए स्वयं व्रत गढ़े । अपनी बुद्धि के अनुसार उन्हें सूत्रों में ग्रथित कर डाला।"
“यों अर्द्ध फालक मत को चलते काफी समय व्यतीत हो गया। एक घटना हैउज्जयिनी में चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कीर्तिशाली चन्द्रकीति नामक राजा था। उसकी
१. प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में आचार्य रत्ननन्दी और उनके
भद्रबाहुचरित्र का प्रसंग आया है। २. अतोऽर्द्ध फालकं लोके व्यानसे मतमद्भुतम् । - कलिकालबलं प्राप्य सलिले तैलबिन्दुवत् ॥
श्रीज्जिनेन्द्रचन्द्रस्य सूत्रं संकल्प्यतेऽन्यथा ।
वर्तयन्ति स्म दुर्मार्गे जनान मूढत्वमाश्रितान ॥ ....यथा स्वयं समारब्धं व्रतं पंचामलोलुपैः । . निरंकुशस्तथा सूने सूत्रितं निजबुद्धितः॥
-भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेच ४, श्लोक ३०-३२
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