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________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वार मय [६५७ जिनसेन के शब्दों में वे समग्र विश्व के पारदश्वा थे, मानो साक्षात् केवली हों । उनकी सर्वार्थगामिनी स्वाभाविक प्रज्ञा को देख विद्वानों को सर्वज्ञ के अस्तित्व में शंका नहीं रही। उनकी चमकती हुई ज्ञानमयी किरणों का प्रसार देखकर प्राज्ञजन उन्हें श्रुत-केवली तथा उत्कृष्ट प्रज्ञा-श्रमण' कहते थे। नत्त्व-दर्शन के महान् समुद्र में अवगाहन करने से उनकी बुद्धि परिशुद्ध थी, तभी मानो महान् मेघाशील प्रत्येक-बुद्धों से वे स्पर्धा करने लगे हों। जिनसेन ने उनके शास्त्रानुशीलन के सम्बन्ध में एक बड़े महत्व की बात कही है। उसके अनुसार प्राचार्य वीरसेन ने चिरन्तन कालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया अर्थात् पुस्तकारूढ़ प्राचीन वाङ्मय का उन्होंने गम्भीर अनुशीलन किया, उसे अग्रसर किया।' इससे यह गम्य है कि आचार्य वीरसेन के समय तक जो भी उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त थे, उन्होंने उन सब का सांगोपांग एवं व्यापक अध्ययन किया। तभी तो यह सम्भव हो सका कि वे अपनी धवला टीका को अनेक शास्त्रों के निष्कर्ष तथा नवनीत से आपूरित कर सके। जिनसेन ने आदिपुराण की उत्थानिका में अपने श्रद्धास्पद गुरु को परमोत्कृष्ट वादी, १. विशिष्ठ प्रज्ञात्मक ऋद्धि-सम्पन्न २. श्री वीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिव रु केवली ॥ यस्य नैसगिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वशरमावे निरारेका मनीषिणः ॥ यं प्राहुः प्रस्फुरदोधरीधितिप्रसरोवयम् । । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणमुत्तमम् ॥ प्रसिसिसिद्धान्तवाधिवाधों तशुद्धधीः । साखं प्रत्येकबुद्धयः स्पर्धते धोद्धबुद्धिभिः ॥ -जयधवला-प्रशस्ति १९, २१-२३ ३. पुस्तकानां चिरस्नानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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