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भाषा और साहित्य ]
व्याख्या साहित्य
आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीका की रचना की । उन्होंने इस उपांग के अनेक स्थानों पर वाचना-भेद होने का उल्लेख किया है। साथ-साथ यह भी सूचित किया है कि इसके अनेक सूत्र विच्छिन्न हो गये । प्राचार्य हरिभद्र तथा देवसूरि द्वारा लघु-वृत्तियों की रचना की गयी । एक अप्रकाशित चूरिंग भी बतलाई जाती है ।
४. पन्नवणा ( प्रज्ञापना )
आषं (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३३
नाम : अर्थ
प्रज्ञापना का अर्थ बतलाना, सिखलाना या ज्ञापित करना है । इस उपांग का नाम वस्तुतः अन्वर्थक है । यह जैन तत्व ज्ञान का उत्कृष्ट उद्बोधक ग्रन्थ है । यह प्रज्ञापन स्थान, बहु वक्तव्य, क्षेत्र, स्थिति, पर्याय, श्वासोच्छ्वास, संज्ञा, योनि, भाषा, शरीर, परिगाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्य, काय स्थिति, दृष्टि, क्रिया, कर्म-बन्ध, कर्म- स्थिति, कर्म - वेदना, कर्म - प्रकृति, आहार, उपयोग, संज्ञी, अवधि, परिचारणा, वेदना - परिणाम, समुद्घात प्रभृति छत्तीस पदों में विभक्त है ।
पदों के नाम से स्पष्ट है कि इसमें जैन सिद्धान्त के अनेक महत्वपूर्ण पक्षों पर विवेचन हुआ है, जो तत्वज्ञान के परिशीलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । उपांगों में यह सर्वाधिक विशाल है । अंगों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है, उपांगों में वैसा ही स्थान इस आगम का है । व्याख्या - प्रज्ञप्ति की तरह इसे भी जैन तत्व ज्ञान का वृहत् कोश कहा जा सकता है ।
रचना
ऐसा माना जाता है कि वाचकवंशीय प्रार्य श्याम ने इसकी रचना की। वे अंशत: पूर्वधर माने जाते थे । अज्ञातकर्तृक दो गाथाएं' ' प्राप्त होती हैं, जिनसे ये तथ्य पुष्ट होते हैं । उनका श्राशय इस प्रकार है : " वाचकवंशीय, आर्य सुधर्मा की तेवीसवीं पीढी में स्थित, धैर्यशील, पूर्वश्रुत से समृद्ध, बुद्धि-सम्पन्न श्रार्य श्याम को वन्दन करते हैं, जिन्होंने श्रुतज्ञान रूपी सागर में से अपने शिष्यों को यह ( प्रज्ञापनारूप ) श्रुत- रत्न प्रदान किया ।"
आर्य श्याम के प्रार्य सुधर्मा से तेवीसवीं पीढी में होने का जो उल्लेख किया है, वह किस स्थविरावली या पट्टावली के आधार पर किया गया है, ज्ञात नहीं होता । नन्दी - सूत्र
१. वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीर पुरिसेरग । दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीगं । सुयसागरविएऊरण, जेण सुयरयणमुत्तमं विष्णं ।
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- अमोलक ऋषि द्वारा अनूदित प्रज्ञापना सूत्र, प्रथम भाग में पृ० २ पर उद्धत
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