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________________ ४३४ ] __ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ में वणित स्थविरावली में श्याम नामक प्राचार्य का उल्लेख तो है, पर, वे सुधर्मा से प्रारंभ होने वाली पट्टावली में बारहवें' होते हैं। तेवीसवें स्थान पर वहां ब्रह्मदीपकसिंह नामक प्राचार्य का उल्लेख है। उन्हें कालिक श्रुत तथा चारों अनुयोगों का धारक व उत्तमवाचकपद-प्राप्त' कहा है। कल्पसूत्र की स्थविरावली से आर्य श्याम की क्रमिक संख्या मेल नही खाती। रचना का आधार : एक कल्पना प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में लेखक की ओर से स्तवनात्मक दो गाथाए हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं : “सूत्र-रत्नों के निधान, भव्यजनों के लिए निर्वृत्तकारक भगवान् महावीर ने सब जीवों के भावों की प्रज्ञापना उपदिष्ट की। भगवान् ने दृष्टिवाद से निर्धारित, विविध अध्ययनयुक्त इस श्रुत-रत्न का जिस प्रकार विवेचन किया है, मैं भी उसी प्रकार करूंगा।"3 इन गाथाओ में प्रयुक्त विट्टिनायणीसंदं पद पर विशेष गौर करना होगा। इष्टिवाद व्युच्छिन्न माना जाता है। श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् उसके सम्पूर्ण वेत्ताओं की परम्परा मिट गयी। पर, अंशतः वह रहा । श्यामार्य के सम्बन्ध में जिन दो वन्दनमूलक गाथाओं की चर्चा की गयी है, वहां उन्हें पूर्वज्ञान से युक्त भी कहा गया है। सम्भवतः आर्य श्याम प्रांशिक दृष्ट्या पूर्वज्ञ रहे हों। हो सकता है, इसी अभिप्रायः से उन्होंने यहां दृष्टिवाद निस्यन्द शब्द जोड़ा हो, जिसका आशय यह रहा हो कि दृष्टिवाद के मुख्यतम भाग पूर्व ज्ञान से इसे गृहीत किया गया है। १. सुहम्म' अग्गिवेसारणं, जंबूनाम च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे. वच्छं सिज्जभवं तहा ॥ जसभद्द तुगीयं वंदे संभुयं, चेव माढरे । भद्दबाहु च पाइन्नं, थुलभद्द च गोयभा ॥ एलाबच्चसगोत्त, वंदामि महागिरि सुहत्थिं च ॥ ततो कोसियगोत्तं बहु लस्स बलिस्सह वंदे ॥ हारियगोत्तं" सायं च, वदे मोहारियं च सामज्ज। -नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा २५-२८ २. अयलपुरम्मि खेत्ते, कालियसुय अरणगए धीरे । बंभट्टीवगसीहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ -नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा ३६ सयरयणनिहावं. जिरणवरेण भवियणनिव्वइकरेणं। उवदंसिया भगवया, पण्णवरणा सव्वभावारणं ।। अज्झयणमिणं चित्तं, सुयरयणं दिठिवायरणीसंदं । जहवणियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ -प्रज्ञापना, मंगलाचरण, २, ३ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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