SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य | प्रार्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३५ থাত্ব-সাহিত্যে ___आचार्य हरिभद्र सूरि ने प्रदेशाख्या लघुवृत्ति की रचना की। उन्होंने कठिन पदों की व्याख्या की है। प्राचार्य मलयगिरि ने उसी के आधार पर टीका की रचना को। कुलमण्डन ने अव वूरि लिखी। व्याख्याकारों ने एतद्ग्रन्थगत पाठ-भेदों का भी उल्लेख किया है। अनेक स्थलों पर कतिपय शब्दों को अव्याख्येय मानते हुए टीकाकार ने उन्हें सम्प्रदायगम्य कह कर छोड़ दिया । सम्भव है, वे शब्द स्पष्टार्थ-द्योतक नहीं प्रतीत हुए हों; अतः आम्नाय या परम्परा से समझ लेने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था ? प्रजापना का ग्यारहवां पद भाषा-पद है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका विवेचन किया है । ५. सूरियपन्नति (सूर्यप्रज्ञप्ति) नाम: : अन्वर्थकता द्विसूर्य सिद्धान्त, सूर्य के उदय, अस्त, प्राकार, प्रोज, गति आदि का विस्तार से वर्णन है, जिससे इसके नाम की अन्वर्थकता प्रकट होती है। साथ-ही-साथ चन्द्र, अन्यान्य नक्षत्र आदि के प्राकार, गति, अवस्थिति आदि का भी विशद विवेचन है। बीस प्राभृतों में विभक्त यह ग्रन्थ एक सौ पाठ सूत्रों में सन्नि विष्ट है। प्राभृत प्राकृत के पाहुड़ शब्द का संस्कृत-रूपान्तर है। प्राभूत का अर्थ अनेक ग्रन्थों के अध्याय या प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द प्रयुक्त पाया जाता है । इसका शाब्दिक तात्पर्य उपहार, भेंट या समर्पण है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने अभीष्ट-प्रिय जन को जो परिणाम-सरस, देश-कालोचित दुर्लभ वस्तु दी जाती है और जिससे प्रिय जन की चित्त-प्रसन्नता प्रासादित की जाती है, लोक में उसे प्राभृत कहा जाता है।" ग्रन्थ के प्रकरण के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने प्रिय तथा विनय आदि गुण-युक्त शिष्यों को देश और काल की उचितता के साथ जो ग्रन्थ सरणियां दी १. उच्यते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचितं दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते ततः प्राभ्रियते-प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तः। - अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ९१९ ____Jain Education International 201005 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy