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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
जाती हैं, उन्हें भी प्राभृत कहा जाता है।' शब्द चयन में जैन विद्वानों के मस्तिष्क की प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द वास्तव में साहित्यिक सुषमा
उर्वरता इससे स्पष्ट है । लिये हुए है ।
व्याख्या - साहित्यं
पर,
श्र ुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति की रचना की, ऐसा प्रसिद्ध है । वह प्राप्त नहीं है, काल-कवलित हो गयी है । श्राचार्य मलयगिरि की इस पर टीका है । वास्तव में यह ग्रन्थ इतना दुर्ज्ञेय है कि टीका की सहायता के बिना समझ पाना सरल नहीं है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि से सम्बद्ध प्रपने विशेष प्रकार के विश्लेषरण के कारण यह ग्रन्थ दिद्वज्जगत् में श्राकर्षण का केन्द्र रहा है। प्रो० वेबर ने जर्मन भाषा में इस पर एक निबन्ध लिखा, जो सत् १८६८ में प्रकाशित हुआ । सुना जाता है. डा० प्रा० शाम शास्त्री ने इसका A Brief Translation of Mahavir's Suryaprajnapti के नाम से अंग्रेजी में संक्षिप्त अनुवाद किया था, पर वह श्रप्राप्य है । डा० थीबो ने सूर्यप्रज्ञप्ति पर लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने जैनों के द्विसूर्य और द्विचन्द्रवाद की भी चर्चा की थी। उनके अनुसार यूनान के लोगों में उनके भारत आने के पूर्व यह सिद्धान्त सर्वं स्वीकृत था । Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vol. no. 49 में वह लेख प्रकाशित हुआ था ।
६. जम्बुद्दीवपन्नति ( जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति)
स्वरूप
जम्बूद्वीप से सम्बद्ध इस उपांग में अनेक विध वर्णन हैं । इस ग्रन्थ के दो भाग हैंपूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वाद्ध चार वक्षस्कारों में तथा उत्तरार्द्ध तीन वक्षस्कारों में विभक्त है । समग्र ग्रन्थ में १७६ सूत्र हैं ।
वक्षस्कार का तात्पर्य
वक्षस्कार शब्द यहां प्रकरण को बोधित कराता है। पर, वास्तव में जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भूगोल में कई अपेक्षानों से बड़ा महत्व है । जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार प्रकरण का श्रवबोध कराने के हेतु वक्षस्कार का जो प्रयोग करते हैं, वह सर्वथा संगत है ।
१. विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणाम सुन्दराश्वाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते ।
- अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ९१४
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