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________________ ३०६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ को परिष्कृतता की दृष्टि से उसके स्थान पर रख देना भ्रामक व्युत्पत्ति है। खरोट के साथ भी ऐसा ही हुआ, इस प्रकार. कहा जाता है । खरोट को खरोष्ठ में परिवर्तित कर दिया गया और उससे खरोष्ठी बना लिया गया । विभिन्न विद्वानों ने खरोष्ठी के नाम के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे अधिकांशतः अपनी-अपनी दृष्टि से सम्भावनात्मक कल्पनाए हैं । ऐतिहासिक तथ्य या ठोस प्रमाण जैसा उनके साथ नहीं है। आमइक भाषा के खरो? शब्द की भ्रामक व्युत्पत्ति का जो उल्लेख किया गया है, वह विशेष रूप से विचारणीय है। ‘खरोष्ठी के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में जब आगे विचार करेंगे तब आर्मेइक का प्रसंग आयेगा, जिससे यह पहलू कुछ स्पष्ट होगा। खरोष्ठी का उदभव ___ डा. राजबली पाण्डेय खरोष्ठो को भारतवर्षोत्पन्न स्वीकार करते हैं। Indian Palaeography ( भारतीय प्राचीन शिलालेखों का अध्ययन ) नामक पुस्तक में उन्होंने अपने इस मत का प्रतिपादन किया है। उनका मत विशेषतः तार्किक ऊहापोह पर आधृत है। प्रस्तुत विषय को यथार्थतः सिद्ध करने के लिए जैसे प्रमाण चाहिए, नहीं दिखाई देते। आमइक लिपि में खरोष्ठी की उत्पत्ति अनेक विद्वान् खरोष्ठी लिपि का उद्भव आर्मेइक लिपि से मानते हैं । उसकी दो शाखाए थीं-एक फिनिशियन तथा दूसरो आर्मेइक । आर्मेइक लिपि से अनेक लिपियां उद्भूत हुई, जिनमें हिब्रू, पहलवी तथा नेबातेन के नाम विशेष रूप से लिये जा सकते हैं । इनमें नेबातेन से सिनेतिक नामक लिपि का उद्भव हुआ और उससे पुरानो अरबी का । ऐसा माना जाता है कि ई० पूर्व चतुथं या पंचम शताब्दी में आर्मे इक लिपि एशिया माइनर से लेकर गान्धार तक अर्थात् लगभग समग्र पश्चिम एशिया में प्रसृत पारसीक साम्राज्य में व्यवहृत थी। प्राचीन काल से ही भारत का पश्चिम-एशिया के देशों से, विशेषत: ईरान आदि से सम्बन्ध रहा है । ई० पू० पांचवीं शती ( ५५८-५३० ) में ईरान में साइरस नामक बादशाह हुआ, जो एक उग्र विजयाभिलाषी शासक था । गान्धाय तक का भू-भाग उसने अधिकृत कर लिया था। तत्पश्चात् ईरान के बादशाह द्वारा (प्रथम) ने ( लगभग ई० पू० ५०० में ) भारतवर्ष का सिन्धु नदो तक का प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है, तब इन विजित प्रदेशों में आमइक से विकसित खरोष्ठी का प्रसार हुआ। काल-क्रम से इसमें उत्तरोत्तर विकास होता गया और इसे प्राकृत लिखने योग्य बना लिया गया। Jain Education International 2010,05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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