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भाषा और साहित्य ]
विश्व भाषा-प्रवाह परिवार का नाम आर्य-परिवार रखना कदापि संगत नहीं है । इस नाम की संगति भारोपीय या भारत-हिती परिवार की एक शाखा भारत-ईरानी परिवार के लिए ही हो सकती है।
संस्कृत इस परिवार की मुख्य भाषा रही है; अतः पहले कुछ विद्वानों का जिनमें भारतीय मुख्य थे, यह अभिमत था कि संस्कृत ही इस परिवार की मूल भाषा थी । उसी से इस परिवार की सारी भाषाए निकलीं। उन लोगों की दृष्टि में इसका नाम "संस्कृतपरिवार" रहना समुचित था। पर, संसार के विद्वानों द्वारा उसे मान्यता नहीं दी गई। भारोपीय को आधार
अनेक नाम आये, पर, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में 'भारोपीय परिवार' ही अब तक प्रचलित है। इसकी भाषाए विशेषतः यूरोप से लेकर भारत तक फैली हुई हैं, इसी अभिप्राय से यह नामकरण हुआ । अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि भू-खण्डों के किन्हीं भागों में भी अंग्रेजी, फ्रेंच, डच आदि भाषाए, जो भारोपीय परिवार की हैं, पहुंच गयी हैं। यूरोप से भारत तक व्याप्ति की बात इसलिए अक्षरशः संगत नहीं होती, पर, मुख्यता और व्यापक प्रचलन की दृष्टि से इसी ( नाम ) का व्यवहार है। भारत-हिती का तात्पर्य
हित्ती भाषा का उन्नीसवीं शति के अन्तिम दशक में पता चला, जब एशिया माइनर के बोगाजकोई नामक स्थान की खुदाई में कुछ कीलाक्षर लेख प्राप्त हुए। बीसवीं शती के प्रथम दशक में पुन: खुदाई हुई, जिसमें कोलाक्षरों के अतिरिक्त और भी चित्र, लिपि भादि सामग्री मिली। इनके आधार पर विद्वानों ने हित्ती को ई० पू० दो हजार से ई० पू० पन्द्रह सौ तक की भाषा माना । उसके परिवार-निर्धारण में विद्वानों ने लम्बे समय तक गवेषणा और परिशोलन किया । अन्ततः यह लगभग सर्वमान्य निर्णय रहा कि हित्ती भारोपीय की बहिन है। इसका अभिप्राय यह है कि आदि उद्गम-स्रोत से भाषाओं के दो समुदाय निकले। एक भारोपीय परिवार की भाषाओं का था और दूसरा एनाटोलियन शाखा की भाषाओं का।
ईरानी, पहलधी, संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, आदि भाषाए जहां भारोपीय शाखा के अन्तर्गत हैं, वहां हित्ती, लीडियन, लीसियन, हीरोग्लाफिक हिट्टाइट, पलेइक तथा लुधियन भाषाए एनाटोलियन शाखा के अन्तर्गत हैं। एनाटोलियन शाखा में हिती भाषा का सर्वाधिक महत्व है। यही कारण है कि विद्वानों ने भारोपीय परिवार के संशोधित नाम भारत-हित्ती परिवार में हित्ती शब्द जोड़ा है।
भाषा-वैज्ञानिकों का अभिमत है कि जिस मूल भाषा से उक्त दोनों शाखाए' उद्गत
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