________________
भाषा और साहित्य ]
आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय
[ ४६३
धर्म, आचार एवं जीवन के मूलभूत आदर्शों, सिद्धान्तों या तथ्यों का विश्लेषण अपने आप में सहेजे रखने के कारण सम्भवतः ये मूल - सूत्र कहे जाने लगे हों । मुख्यतः उत्तराध्ययन एवं दशकालिक की विषय-वस्तु पर यदि दृष्टिपात किया जाए, तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होगा ।
नाम : विश्लेषया
उत्तराध्ययन शाब्दिक दृष्टि से उत्तर और अध्ययन; इन दो शब्दों की समन्विति से बना है । उत्तर शब्द का एक अर्थ पश्चात् या पश्चाद्वर्ती है । दूसरा अर्थ उत्कृष्ट या श्रेष्ठ है । इसका अर्थ प्रश्न का समाधान या उत्तर तो है ही ।
उत्तरभयरण (उत्तराध्ययन)
पश्चाद्वर्ती अर्थ के आधार पर उत्तराध्ययन की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि इसका अध्ययन आधारंग के उत्तर-काल में होता था । श्रुतकेवली आचार्य शय्यम्भव के अनन्तर इसके अध्ययन की कालिक परम्परा में अन्तर श्राया । यह दशवेकालिक के उत्तरकाल में पढ़ा जाने लगा। पर, 'उत्तराध्ययन' संज्ञा में कोई परिवर्तन करना अपेक्षित नहीं हुआ; क्योंकि दोनों ही स्थानों पर पश्चादुवर्तिता का अभिप्राय सदृश ही है ।
उत्तर शब्द का उत्कृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ करने के आधार पर कुछ विद्वानों ने इस शब्द . की यह व्याख्या की कि जैन श्रुत का इसमें असाधारण रूप में उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ विवेचन है; अतः इसका उत्तराध्ययन अभिधान अन्वर्थक है ।
प्रो. ल्यूमैन (Prof. Leumann) ने उत्तर और अध्ययन शब्दों का सीधा अर्थ पकड़ते हुए उत्तराध्ययन का आशय Later Readings अर्थात् पश्चात् या पीछे रचे हुए अध्ययन किया। प्रो. ल्यूमैन के अनुसार इन अध्ययनों की या इस ग्रागम की रचना अंग-ग्रन्थों के पश्चात् या उत्तर-काल में हुई; अतएव यह उत्तराध्ययन के नाम से अभिहित किया जाने लगा ।
-
कल्पसूत्र में तथा टीकाग्रन्थों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम समय मैं प्रपृष्ट - अनपूछे छत्तीस प्रश्नों के सन्दर्भ में विश्लेषण - विवेचन किया। इस आधार पर उन अध्ययनों का संकलन 'अपृष्ट व्याकरण' नाम से अभिहित हुआ। उसी का नाम
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org