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________________ ર समीक्षा पाश्चात्य विद्वानों ने जो कल्पनाएं की हैं, उनके पीछे किसी अपेक्षा का आधार है, पर, समीक्षा की कसौटी पर कसने पर वे सर्वांशतः खरी नहीं उतरतीं। प्रो. शर्पेन्टियर ने भगवान् महावीर के मूल शब्दों के साथ इन्हें जोड़ते हुए जो समाधान उपस्थित किया, उसे उत्तराध्ययन के लिए तो एवं अपेक्षा से संगत माना जा सकता है, पर, दशवेकालिक आदि के साथ उसकी बिलकुल संगति नहीं है । भगवान् महावीर के मूल या साक्षात् वचनों के आधार पर यदि मूल सूत्र नाम पड़ता, तो यह आचारांग, सूत्रकृतांग जैसे महत्वपूर्ण रंग-ग्रन्थों के साथ भी जुड़ता, जिनका भगवान् महावीर की देशना के साथ (गरणधरों के माध्यम से ) सीधा सम्बन्ध माना जाता है । पर वहां ऐसा नहीं है; अतः इस कल्पना में निहित भूल शब्द का वह आशय यथावत् रूप में घटित नहीं होता । आगम और faftee : एके अनुशीलन डा. वाल्टर शुब्रिंग ने श्रमण-जीवन के प्रारम्भ में मूल में पालनीय श्राचारसम्बन्धी नियमों, परम्परायों एवं विधि-विधानों के शिक्षण की दृष्टि से मूल सूत्र नाभ दिये जाने का समाधान प्रस्तुत किया गया है, वह भी मूल सूत्रों के अन्तर्गत माने जाने बाले सब ग्रन्थों पर कहां घटता है । दशवेकालिक की तो लगभग वैसी स्थिति है, पर, अन्यत्र बहुलशितया वैसा नहीं है । उत्तराध्ययन में, जो मूल सूत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, श्रमरण-चर्या से सम्बद्ध नियमोपनियमों तथा विधि-विधानों के अतिरिक्त उनमें जैन धर्म और दर्शन -सम्बन्धी अनेक विषय - व्याख्यात किये गये हैं । अनेक दृष्टान्त, कथानक तथा ऐतिहासिक घटनाक्रम भी उपस्थित किये गये हैं, जो श्रमण-संस्कृति और जैन तत्व-धारा के विविध पहलुओं से जुड़े हुए हैं । इसलिए डा. वाल्टर शुक्रिंग के समाधान को भी एकांगी चिन्तन से अधिक नहीं कहा जा सकता । मूल सूत्रों में जो सन्निहित है, शुबिंग की व्याख्या में वह सम्पूर्णतया अन्तर्भूत नहीं होता । Jain Education International 2010_05 [खण्ड : २ इटालियन विद्वान् प्रो. गेरीनो ने मूल और टीका के आधार पर मूल-सूत्र नाम पड़ने की जो कल्पना की है, वह बहुत स्थूल तथा बहिर्गामी चिन्तन पर घृत है । उसमें सूक्ष्म गवेषणा या गहन विमर्श की दृष्टि नहीं प्रतीत होती । मूल सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों पर भी अनेक टीकाएं हैं। परिमाण की न्यूनता - अधिकता हो सकती है। उससे कोई विशेष फलित निष्पन्न नहीं होता; अतः इस विश्लेषरण की अनुपादेयता स्पष्ट है । उपर्युक्त ऊहापोह के सन्दर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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