SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४६१ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृति और आगम वाङमय ৮০ সাথে গ্ধা সন ___ जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य-अध्येता प्रो. शन्टियर (Prof. Charpantier) ने उत्तराध्ययन सूत्र की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में जो लिखा है, उसके अनुसार इनका मूल सूत्र नाम पड़ने का कारण इनमें भगवान् महावीर के मूल शब्दों का (Mahavira's own words) का संगृहीत होना है। इसका आशय यह है कि इनमें जो शब्द संकलित हुए हैं, वे स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निःसृत हैं । ও নাং রস পা আসন जैन वाङमय के विख्यात अध्येता जर्मन के विद्वान् डा. वाल्टर शुब्रिग (Dr. Walter Schubring) ने Lax Raligion Dyainal नामक (जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि मूल सूत्र नाम इसलिए दिया गया प्रतीत होता है कि साधुओं और साध्वियों के साधनामय जीवन के मूल में-IIII में उनके उपयोग के लिए इनका सर्जन हुआ। সৗ০ গহীনী ধ্বী না ___ जैन शास्त्रों के गहन अनुशीलक इटली के प्रोफेसर गेरीनो (Prof. Guerinot) ने इस सम्बन्ध में एक दूसरी कल्पना की है। वैसा करते समय उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के दो रूप मूल तथा टीका का ध्यान रहा है। अतः उन्होंने मूल का आशय Traites Original से लिया । अर्थात् प्रो. गेरीनो ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग माना; क्योंकि इन ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूणि, टोका, वृत्ति प्रभृति अनेक प्रकार का विपुल व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है। टीका या व्याख्या ग्रन्थों में उस ग्रन्थ को सर्वत्र मूल कहा जाता है, जिसकी वे टीकाएं या व्याख्याएं होती हैं । जैन आगम वाङ्मय-सम्बन्धी प्रन्थों में उत्तराध्ययन और वशवकालिक पर अत्यधिक टीका-व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है। जिनमें प्रो. गेरीनो के अनुसार टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग किया हो । उसी परिपाटी का सम्भवतः यह परिणाम रहा हो कि इन्हें मूल सूत्र कहने की परम्परा प्रारम्भ हो गयी हो। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy