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________________ ४६०] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खम:२ किया गया है, मोघ-नियुक्ति सहित वे पांच हैं। कतिपय विद्वान् उपर्युक्त तीन में से आवश्यक को हटा कर तथा अनुयोगद्वार व नन्दी को उनमें सम्मिलित कर; चार की संख्या पूरी करते हैं। कुछ लोग पविख्य सुत (पाक्षिक सूत्र) का भी इनके साथ नाम ले संयोजित करते हैं। महत्व मूल सूत्रों में वस्तुतः उत्तराध्ययन और दशवकालिक का जैन वाङमय में बहुत बड़ा महत्व है । विद्वान् इन्हें जैन आगम-वाङ् मय के प्राचीनतम सूत्रों में गिनते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इनकी प्राचीनता अक्षुण्ण है। विषय-विवेचन की अपेक्षा से ये बड़े समृद्ध हैं। ये सुत्तनिपात व धम्मपद जैसे सुप्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थों से तुलनीय हैं। जैन दर्शन, आचारविज्ञान तथा तत्सम्मत जीवन के विश्लेषण की दृष्टि से अध्येताओं और अन्वेष्टाओं के लिए ये ग्रन्थ विशेष रूप से परिशीलनीय हैं। মূল : নাসহথা ? ? मूल-सूत्र नाम क्यों और कब प्रचलित हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता। प्राचीन प्रागम-ग्रन्थों में मूल या मूल सूत्रों के नाम से कहीं भी उल्लेख नहीं है । पश्चाद्वर्ती साहित्य में भी सम्भवतः इस नाम का पहला प्रयोग भावदेवमूरि-रचित जैनधर्मवरस्तोत्र के तीसवें श्लोक की टीका में है। वहां “अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति-ओघ-नियुक्तिदवेशकालिक इति चत्वारि मूल सूत्राणि" इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है। প্ৰাহখাতে বিছানা দ্বারা পবিস ২ गहन अध्ययन, तलस्पर्शी अनुसन्धान और गवेषणा की दृष्टि से योरोपीय देशों के कतिपय विद्वानों ने भारतीय वाङमय पर जिस रुचि और अपरित्रान्त अध्यवसाय व लगन के साथ जो कार्य किया है, निःसन्देह वह स्तुत्य है। कार्य किस सीमा तक हो सका, कितना हो सका, उसके निष्कर्ष कितने उपादेय हैं; इत्यादि पहलू तो स्वतन्त्र रूप में चिन्तन और आलोचना के विषय हैं, पर, उनका श्रम, उत्साह और सतत प्रयत्नशीलता भारतीय विद्वानों के लिए भी अनुकरणीय है । जैन वाङमय तथा प्राकृत भाषा के क्षेत्र में जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के विद्वानों ने अधिक कार्य किया है । जैन आगम-साहित्य पर अनुसन्धान कर्ता विद्वानों के प्रस्तुत विषय पर जो भिन्न-भिन्न विचार हैं, उन्हें यहां उपस्थित किया जाता है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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