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________________ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन [at:२ अपृष्ट प्रश्नों का उत्तर-रूप होने के कारण उत्तराध्ययन हो गया 'अपृष्ट व्याकरण' की चर्चा आचार्य हेमचन्द्र ने अपने विषष्टिशलाकापुरुषचरित' महाकाव्य में भी की है। বিশখ कल्पसूत्रकार तथा टीकाकारों द्वारा दिया गया समाधान तथा प्रो. ल्यूमैन द्वारा किया गया विवेचन; दोनों परस्पर भिन्न हैं। भगवान महावीर ने बिना पूछे छत्तीस प्रश्नों के उत्तर दिये, उनका संकलन हुआ-उत्तराध्ययन के अस्तित्व में पाने के सम्बन्ध में यह कल्पना परम्परा-पुष्ट होते हुए भी उतनी हृद्-ग्राह्य प्रतीत नहीं होती। भगवान् महावीर ने अपृष्ट प्रश्नों के उत्तर दिये, इसके स्थान पर यह भाषा क्या अधिक संगत नहीं होती कि उन्होंने अन्तिम समय में कुछ धार्मिक उपदेश, विचार या सन्देश दिये । फिर वहां उत्तर शब्द भी म आकर 'व्याकरण' शब्द आया है, जिसका अर्थ विश्लेषण है। यदि अन्तिम के अर्थ में उत्तर शब्द का प्रयोग माना जाता, तो फिर भी कुछ संगति' होती। पर, जबाब के अर्थ में उत्तर शब्द का यहां ग्रहण उत्तराध्ययन सूत्र के स्वरूप के साथ सम्भवतः उतना मेल नहीं खाता, जितना होना चाहिए। उत्तराध्ययन में दृष्टान्त हैं, कथानक हैं, घटनाक्रम हैं-यह सब उत्तर शब्द के अभिप्राय में अन्तर्भूत हो जाएं, कम संगत प्रतीत होता है। साहित्यिक रष्टि से भी उत्तर शब्द वस्तुतः प्रश्न-सापेक्ष है। प्रश्न के बिना जो भी कुछ कहा जाए, बह व्याख्यान, विवेचन, विश्लेषण, निरूपण आदि सब हो सकता है, पर, उसे उत्तर कैसे कहा जाए ? नियुक्तिकार ने उत्तराध्ययन की रचना के सम्बन्ध में जो लिखा है, उससे यह तथ्य बाधित है। प्रो. ल्यूमैन ने जो कहा है, उसकी तार्किक असंगति नहीं है। भाषा-शास्त्रियों ने जो परिशीलन किया है, उसके अनुसार उत्तराध्ययन की भाषा प्राचीन है, पर, उससे प्रो. ल्यूमैन का कथन खण्डित नहीं होता। क्योंकि उन्होंने इसकी कोई विशेष अर्वाचीनता तो स्थापित की नहीं है, इसे अंग-ग्रन्थों से पश्चाद्वर्ती बताया है। वैसा करने में कोई असम्भाव्यता प्रतीत नहीं होती। १, षट्त्रिंशसमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधान नामाध्ययनं जगद्गुरुरभावयत् ॥ -पर्व १०, सर्ग १३, रलो. २२४ २. भगवान महावीर ने अपने उत्तर या अन्तिम काल में ये अध्ययन उपविष्ट किये। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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