SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४६५ ___ एक प्रश्न और उठता है, अंग-ग्रन्थों के पश्चाद्वर्ती तो अनेक ग्रन्थ हैं, पश्चाद्वर्तिता या उत्तरवर्तिता के कारण केवल इसे ही उत्तराध्ययन क्यों कहा गया ? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह अंग-ग्रन्थों के समकक्ष महत्व लिये हुए है । रचना, विषय-वस्तु, विश्लेषण आदि की दृष्टि से उन्हीं की कोटि का है; अतः इसे ही विशेष रूप से इस अभिधा से संशित किया गया। यह भी एक अनुमान है। उससे अधिक कोई ठोस तथ्य इससे प्रकट नहीं होता। संक्षेप में विशाल जैन तत्व-ज्ञान तथा आचार-शास्त्र को व्यक्त करने में आगमवाङमय में इसका असाधारण स्थान है। भगवद् गीता जिस प्रकार समग्र वैदिक धर्म का निष्कर्ष या नवनीत है, जैन धर्म के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन की भी वही स्थिति है। काव्यात्मक हृदयस्पर्शी शैली, ललित एवं पेशल संवाद, साथ-ही-साथ स्वभावतः सालंकार भाषा प्रभृति इसकी अनेक विशेषताएं हैं, जिन्होंने समीक्षक तथा अनुसन्धित्सु विद्वानों को बहुत आकृष्ट किया है । डा. विण्टरनित्ज ने इसे श्रमण-काव्य के रूप में निरूपित किया है तथा महाभारत, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि के साथ इसकी तुलना की है। उत्तराध्ययन का यह महत्व केवल इन शताब्दियों में ही नहीं उभरा है, प्रत्युत बहुत पहले से स्वीकार किया जाता रहा है । नियुक्तिकार ने तीन गाथाएं उल्लिखित करते हुए इसके महत्व का उपपादन किया है : “जो जीव भवसिद्धिक हैं—भव्य हैं, परित्तसंसारी हैं, वे उत्तराभ्ययन के छत्तीस अध्ययन पढ़ते हैं । जो जीव अभवसिद्धिक हैं-प्रभव्य हैं, ग्रन्थिकसत्व हैं जिनका ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ है, जो अनन्तसंसारी हैं, संक्लिष्टकर्मा हैं, वे उत्तराध्ययन पढ़ने के अयोग्य हैं। इसलिए (साधक को) जिनप्रज्ञप्त, शब्द और अर्थ के अनन्त पर्यायों से संयुक्त इस सूत्र का यथाविधि (उपधान आदि तप द्वारा) गुरुजनों के अनुग्रह से अध्ययन करना चाहिए।1 १. जे किर भवसिद्धीया, परित्तसंसारिमा य भविआ य । ते किर पति धीरा, छत्तीस उत्तरायणे ॥ हुति प्रभविसिद्धीया, गंथिअसत्ता अर्णतसंसारा । ते संकिलिकम्मा, अभविय उत्तरमाए । सम्हा जिणपन्चरो, अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। भज्माए जहाजोग, गुरुपसाया अहिनिमज्जा Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy