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भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ २७७ उत्तरकुरुद्वीप-लिपि, अपरगोडादि-लिपि, पूर्व विदेह-लिपि ।
कुछ ऐसे नाम हैं, जो सम्भवतः वर्णो के आकार, लेखन-विधि या लेखन-शिष्ट्य से सम्बद्ध हैं । जैसे, अनुलोम-लिपि, चक्र लिपि, उत्क्षेप-लिपि, प्रक्षेप-लिपि, लेख-प्रतिलेख-लिपि, पादलिखित-लिपि, द्विरुनर-सन्धिलिखित लिपि, दशोत्तरपदसन्धिलिखित-लिपि, विमिश्रितलिपि, इत्यादि।
कुछ नाम ऐसे हैं, जो देवप्रशस्तिमूलकता तथा विषयविशेष-प्रयोज्यता आदि से सम्बद्ध हैं। कुछ नाम अन्यान्य कारणों पर भी आद्ध त हो सकते हैं ।
जैन मान्यता
जैन ग्रन्थों में भी ब्राह्मी लिपि के विषय में विशेष रूप से उल्लेख है। जैन अंगवाट मय के पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र के प्रारम्भ में जहां अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु को नमन किया गया है, वहां ब्राह्मी लिपि को भी नमन करने का उल्लेख है। व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे अत्यन्त मान्य ग्रन्थ में ब्राह्मी लिपि का उल्लेख निःसन्देह उसकी प्राचीनता का द्योतक हैं ।
ऋषभ द्वारा लिपि-शिक्षण
___ लिपियों के उद्भव के सम्बन्ध में जन पौराणिक साहित्य में उल्लेख है कि श्रामण्य अंगीकार करने से पूर्व आद्य तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ ने जब वे राजा थे, सभी प्रकार की लोक-व्यवस्थाओं का प्रतिष्ठापन किया। विद्याओं, कलाओं आदि का भी शिक्षण दिया। कहा जाता है, ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को पुरुष-प्रयोज्य बहत्तर कलाओं को शिक्षा दी और साथ ही परम-तत्व का ज्ञान भी दिया। पुत्र बाहुबली को प्राणि-लक्षण का ज्ञान, पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान और पुत्रो सुन्दरो को गणित का शिक्षण दिया।
विद्याओं तथा कलाओं को आत्मसात् करने वाले ऋषभ के पुत्रों और पुत्रियों ने जगत् में उनका प्रसार किया। ब्राह्मो द्वारा प्रसारित लिपियों में जो मुख्य लिपि थो, उसी के नाम से यह ब्राह्मो कहलाई।
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१. गमो अरहताणं णमो सिद्धाणं, गमो आयरियाणं गमो उवझायाणं णमो लोए सन्य
साहणं। पनो बंभीए लिवीए । २. लेह लिबी विहाणं, जिणेण बंभीए वाहिण करेण ।
-अनिधान राजेन्द्र कोष, पंचम भाग, पृ० १२५४
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