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भाशा और साहित्य] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय
२. पाउर-पचक्खाण (प्रातुर-प्रत्याख्यान)
নাগ ; পাহাখ : বিশ্ব
प्रातुर शब्द सामान्यतः रोग-ग्रस्त- वाची है। आतुरावस्था में मनुष्य की दो प्रकार की मानसिक अवस्थाएं सम्भावित हैं । जिन्हें देह, दैहिक भोग और लौकिक एषणाओं में आसक्ति होती है, वे सांसारिक मोहाच्छन्न मनःस्थिति में रहते हैं । भुक्त भोगों की स्मृति और अप्राप्त भोगों की लालसा में उनका मन आकुल बना रहता है। इसलिए अपने अन्तिम काल में भी वे प्रत्याख्यानोन्मुख नहीं हो पाते । संसार में अधिकांश लोग इसी प्रकार के हैं । अन्ततः मरना तो होता ही है, मर जाते हैं। वैसा मरण 'बाल-मरण' कहा जाता है। यहां बाल का अभिनाय अज्ञानी से है।
__दूसरे प्रकार के वे व्यक्ति हैं, जो भोग तथा देह की नश्वरता का चिन्तन करते हुए आत्म-स्वभावोन्मुख बनते हैं। दैनिक कष्ट तथा रोग-जनित वेदना को वे आत्म-बल से सहते जाते हैं और अपने भौतिक जीवन की इस अन्तिम अवस्था में खाद्य, पेय आदि का परिवर्जन कर, आमरण-अनशन, जो महान् आत्म-बल का द्योतक है, अपना कर शुस चतन्य में लीन होते हुए देह-त्याग करते हैं । जैन परिभाषा में यह 'पण्डित-मरण' कहा जाता है।
प्रस्तुत प्रकीर्णक में बाल-मरण तथा पण्डित-मरण का विवेचन है, जिसकी स्थिति प्रायः आतुरावस्था में बनती है। सम्भवतः इसी पृष्ठ-भूमि के आधार पर इसका नाम आतुर-प्रत्याख्यान रखा गया हो। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्याख्यान से ही सद्गति या शाश्वत शान्ति सधती है । चतुःशरण की तरह इसके भी रचयिता वीरभद्र कहे जाते हैं और उसी की तरह भुवनतुग द्वारा वृत्ति तथा गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी।
३. महापच्चाक्खारण (महा प्रत्याख्यान)
নাম : অাগসাথ
- असत्, अशुभ या प्रकरणीय का प्रत्याख्यान या त्याग ही जीवन की यथार्थ सफलता का परिपोषक है। यह तथ्य ही वह अाधार-शिला है, जिस पर धर्माचरण टिका है।
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