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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
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प्रस्तुत कृति में इसी पृष्ठभूमि पर दुष्कृत की निन्दा की गई है। त्याग के महान् आद की उपादेयता का इसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । सम्भवत: इसी कारण इसकी संज्ञा महा प्रत्याख्यान की गयी ।
વિજણ-ચતુ
पौगलिक भोगों का मोह या लोलुप भाव व्यक्ति को पवित्र तथा संयत जीवन नहीं अपनाने देता । पौद्गलिक भोगों से प्राणी कभी तृप्त नहीं हो सकता। उनसे संसार - भ्रमण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । एतन्मूलक विषयों का विश्लेषण करते हुए प्रस्तुत कृति मैं माया का वर्जन, तितिक्षा एवं वैराग्य के हेतु, पंच महाव्रत, आराधना आदि विषयों का विवेचन किया गया है । अन्ततः यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि प्रत्याख्यान ही सिद्धि प्राप्त करने का हेतु है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में एक सौ बयालीस गाथाएं हैं ।
४. भत्त- परिण्णा (भक्त-परिज्ञा)
नाम : आशिय
भक्त भोजन वाची है और परिक्षा का सामान्य अर्थ ज्ञान, विवेक या पहचान है । स्थानांग सूत्र में परिशा का एक विशेष अर्थ 'ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान' किया गया है ।
जैन धर्म में भक्त-परिज्ञा अनशनपूर्वक मरण के भेदों में एक है । श्रातुर प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में जैसा कि विवेचन किया गया है, रुग्णावस्था में साधक आमरण अनशन स्वीकार कर पण्डित - मरण प्राप्त करता है, भक्त-परिज्ञा की स्थिति उससे कुछ भिन्न प्रतीत होती है । वहां दैहिक अस्वस्थता की स्थिति का विशेष सम्बन्ध नहीं है । सदसद् विवेकपूर्वक साधक आमरण अनशन द्वारा देह त्याग करता है । धर्मसंग्रह नामक जैन आचार - विषयक ग्रन्थ के तृतीय अधिकररण में इस सम्बन्ध में विशद वर्णन है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्यान्य विषयों के साथ-साथ भक्त-परिज्ञा का विशेष रूप से वर्णन है । मुख्यतः उसी को आधार मान कर प्रस्तुत प्रकीर्णक का नामकरण किया गया है ।
इस प्रकीर्णक का कलेवर एक सौ बहत्तर गाथामय है । इसमें भक्त-परिज्ञा के साथ-साथ इंगिनी और पादोपगमन का भी विवेचन है, जो उसी (भक्त-परिज्ञा) की तरह विवेकपूर्वक अशन- त्याग द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मरण-भेद हैं । इस कोटि के पण्डित-मरण के ये तीन भेद माने गये हैं ।
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