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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [४८९ कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग इस प्रकीर्णक में दर्शन (श्रद्धा-तत्व-आस्था) को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है । कहा मया है कि जो दर्शन-भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें निर्वाण-लाभ नहीं हो सकता । साधकों के ऐसे अनेक उदाहरण उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने असह्य कष्टों तथा परिषहों को प्रात्म-बल के सहारे झेलते हुए अन्ततः सिद्धि लाभ किया । मनोनिग्रह पर बहुत बल दिया गया है। कहा गया है कि साधना में स्थिर होने के लिए मन का निग्रह या नियम्वरण अत्यन्त आवश्यक है। यहां मन को मर्कट की तरह चपल तथा क्षणभर भी शान्त नहीं रह सकने वाला बताया है। उसका विषय वासभा से परे होना दुष्कर है। स्त्रियों की इस प्रकीर्णक में कड़े शब्दों में चर्चा की गयी है। उन्हें सर्पिणी से उपमित किया गया है। उन्हें शोक-सरित्, अविश्वास-भूमि, पाप-गुहा और कपट-कुटीर जैसे हीन नामों से अभिहित किया गया है। इस प्रकीर्णक के रचनाकार वीरभद्र माने जाते हैं। गुणरत्न द्वारा अवधूरि की रचना की गयी। ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुल-वैचारिक) नाम : अर्थ तन्दुल और वैचारिक; इन दो शब्दों का इसमें समावेश है। तन्दुल का अर्थ चावल होता है और वैचारिक स्पष्ट है हो । प्रस्तुत प्रकीर्णक के इस नाम के सम्बन्ध में कल्पना है कि सौ वर्ष का वृद्ध पुरुष एक दिन में जितने तन्दुल खाता है, उनकी संख्या को उपलक्षित कर यह नामकरण हुअा है ।। * कल्पना का आशय बहुत स्पष्ट तो नहीं है, पर, उसका भाव यह रहा हो कि सौ वर्ष के वृद्ध पुरुष द्वारा प्रतिदिन जितने चावल खाये जा सकते हैं, वे गणना-योग्य होते हैं । क्योंकि वृद्धावस्था के कारण सहज ही उसकी भोजन-मात्रा बहुत कम हो जाती है अर्थात् एक सती संखया-कप इससे प्रतिध्वनित होता है । १. तन्वुतानां वर्षशतायुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्याता संख्याविचारेणोपलक्षितं सन्दुलबंचारिकर। -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २१६८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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