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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
कि केवल ज्ञानियों में अन्तिम श्रीधर कुण्डलगिरि पर सिद्ध हुए।
प्रश्न उपस्थित होता है, यति वृषभ एक स्थान पर जम्बू के अनन्तर ( अनुबद्ध ) वेवली होने का निषेध करते हैं और यहां श्रीधर को वे अन्तिम वेवली बतलाते हैं, इसकी संगति कैसे हो ? गहराई में जाने पर एक तथ्य पकड़ में आता है। यति वृषभ ने केवली के पूर्व जो अनुबद्ध विशेषण दिया है, वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। यह विशेषण सम्भवतः इस अर्थ का द्योतक है कि जम्बू के पश्चात् क्रमबद्ध- अनवरत केवली नहीं हुए अर्थात् केवलि-परम्परा सतत चालू नहीं रही। इससे ध्वनित होता है कि श्रीधर, जो अन्तिम केवली हुए, अनुक्रम में न होकर जम्बू के कतिपय पीढ़ियों के पश्चात् केवली हुए हों। इतना होते हुए भी यह तथ्य जम्बू के पश्चात् विच्छिन्न होने वाले बोलों में के पल ज्ञान के विच्छेद का जो उल्लेख है, उसके प्रतिकूल है ही1
श्रीधर के समय, अपस्थिति आदि पर गवेषणा किया जाना वांछनीय है; क्योंकि अब तक प्रायः यही मान्यता प्रचलित है कि आर्य जम्बू अन्तिम केवलज्ञानी थे। पर, चरम केवली के रूप में पति वृषभ ने नो श्रीधर का प्रसंग उपस्थापित किया है, उससे वह मान्यता टकराती है। श्रत : कण्ठाझा : अपरिवत्य
वेदों को श्रुति कहे जाने का कारण सम्भवतः यही है कि उन्हें सुनकर, गुरु मुख से आयत्त कर स्मरण रखने की परम्परा रही है । जेन आगम-वाइ मय को भी श्रु त कहा जाता है। उसका भी यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि उसे सुनकर, आचार्य या उपाध्याय से अधिगत कर याद रखे जाने का प्रचलन था । सुनकर जो स्मरण रखा जाए, उसमें सुनी हुई शब्दावली की यथावता स्थिर रह सके, यह कठिन प्रतीत होता है। पुरा कालीन मनीषियों के ध्यान से यह तथ्य बाहर नहीं था; अतः वे आरम्भ से ही इस ओर यथेष्ट जागरूकता और सावधानी बरतते रहे । वैदिक विद्वानों ने संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम पाठ, जटा-पाठ तथा धन-पाठ के रूप में वेद-मन्त्रों के पान या उच्चारण का एक बैज्ञानिक अभ्यासक्रम
१. कंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो।
चारणरिसीसु चरिमो सुपासचंदामिधाणो य॥ पण्णसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणीसुं। चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादि संपण्णो॥ मउडधरेसुं चरिमो जिणदिवं धरदि चंदगुत्तो य। तत्तो मउडधरा दुप्पव्वजं गेव गेण्हति ॥
-तिलोयपण्णती, १४७६-८१
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