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________________ २६८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्राकृत (खरोष्ठी) धम्मपद भारत से बाहर अर्थात् खोतान में एम० दुइल द (M, dutreiul De Rhine) नामक फ्रांसीसी यात्री को सन् १८६२ में कुछ महत्वपूर्ण लेख प्राप्त हुए । तब तक उन लेखों के सम्बन्ध में विशेष कुछ ज्ञात नहीं था। डी० आल्डेनवर्ग नामक रूसी विद्वान् ने उन पर अन्वेषण-कार्य किया तथा उनके सम्बन्ध में कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये। एक दूसरे फ्रांसीसी घिद्वान् सेना ने उस कार्य को आगे बढ़ाया तथा सन् १८९७ में घोषित किया कि ये प्राकृतलेखों के अंश हैं । तदनन्तर अंग्रेज तथा भारतीय विद्वानों का इस ओर ध्यान आकृष्ट हुआ। उन्होंने उन लेखों के सम्बन्ध में गवेषणा का प्रयत्न किया। इन सब प्रयासों का परिणाम या कि सन् १९२१ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रो० बी० एम० बरुआ तथा प्रो० एस० मित्रा द्वारा उनका प्रकाशन हुआ, जिसे प्राकृत-धम्मपद नाम दिया गया। खरोष्ठी लिपी में होने के कारण खगोष्ठी-धम्मपद भी उसका नामकरण हो गया। प्रो० ज्यूल्स ब्लाक ने इसकी रचना, भाषा, ध्वनियों आदि के सम्बन्ध में विशेष अन्वेषण किया। उनका निष्कर्ष था कि यह मूल रूप में भारतवर्ष में ही लिखा गया। वहीं से यह पश्चिम में गया। प्रो. ज्यूल्स ब्लाक का मन्तव्य संगत प्रतीत होता है; क्योंकि तब तक बौद्ध धर्म बाहर भी विस्तार पा चुका था। यह भारत के निकटवर्ती पश्चिमी देशों में भी पहुंचा, यह सम्भावना से परे नहीं है। इसके और भी प्रमाण प्राप्त होते हैं। वहां पहुंचने पर यह भी सम्भव है कि उसकी भाषा उधर की भाषाओं से प्रभाषित हुई हो। इसकी भाषा का अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों की भाषा से भी कुछ-कुछ सादृश्य है। धम्मपद बारह परिच्छेदों में विभक्त है। कुल २३२ गाथाए हैं । रचना-काल ईसा की दूसरी शती के लगभग माना जाता है। निय प्राकृत . भारत के बाहर प्राप्त प्राकृतों में निय प्राकृत का भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। चोनी तुर्किस्तान के निय नामक प्रदेश में सर आँरेल स्टेन को तीन बार की यात्राओं में खरोष्ठी लिपी के कुछ लेख प्राप्त हुए। उनकी पहली यात्रा ई. सन् १६००१९०१ में. दूसरी यात्रा १६०६-१९०७ में तथा तीसरी यात्रा १९१३-१९१४ में हुई । अर्थात् १९०० से १९१४ तक के उनके १५ वर्ष के प्रयास का यह फल था। एक अज्ञात तथ्य प्रकाश में आया। विद्वानों का उस ओर ध्यान गया। सन् १९२० में ए. एम. ब्वायर ने, सन् १९२७ में ई० जे० रेप्सन ने तथा सन् १९२६ में सेनाटं ने खरोष्ठी शिलालेखों (Kharoshthi Inscriptions) के नाम से इनका सम्पादन किया । इन लेखों पर महत्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य करने वाले टी० बरो थे। उन्होंने इन लेखों को किसी भारतीय प्राकृत में लिखित बतलाया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह वह प्राकृत है, जो ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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