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________________ [२६९ भाषा और साहित्य ] संक्रान्ति-काल की प्राकृते तीसरी शती में 'शनशन' नामक प्रदेश में राज-भाषा के पद पर अधिष्ठित थी। निय प्राकृत के स्वरूप तथा गठन के पर्यवेक्षण से प्रतीत होता है कि इसका मूल स्थान सम्भवतः पेशावर का समीपवर्ती भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश रहा हो। खरोष्ठी धम्मपद के साथ यह भाषा कुछ मेल खाती है। अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों से इसका विशेष सादृश्य है। इस कारण से भी इसके मूल स्थान से सम्बद्ध सम्भावना और बलवती हो जाती है। अधिकांशतः इन लेखों के निय नामक प्रदेश में प्राप्त होने के कारण यह भाषा निय प्राकृत के नाम से अभिहित की जाने लगी। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों के साथ यह भाषा तुलनात्मकतया विशेष रूप से विश्लेषणीय है । निय प्राकृत में जो लेख प्राप्त हुए हैं, उनमें कुछ ऐसे उल्लेख हैं, जिनमें शासकों (माजाओं) की ओर से जिलाधिकारियों को दिये गये आदेश हैं । क्रय-विक्रय-सम्बन्धी पत्र भी उनमें हैं । साथ-ही-साथ कुछ निजी पत्र भी उनमें समाविष्ट हैं। उन लेखों में अनेक प्रकार की सूचियां भी प्राप्त हैं। इन सबसे प्रकट होता है कि उन लेखों का विशेष सम्बन्ध शासन-व्यवस्था और व्यवसाय आदि से है। कुछ लिपि-चिन्ह भो इस भाषा में प्राप्त होते हैं, जो भारतवर्ष में व्यवहृत प्राकृतों में नहीं पाये जाते । दीर्घ स्वर, इतर स्वर, सघोष ऊष्म ध्वनियों आदि पर उन लिपि-चिन्हों का प्रयोग हुआ है। यह भारतीयेतर भाषाओं के प्रभाव का प्रतिफल प्रतीत होता है। विदेश में प्रचलित होने पर किसी भी भाषा पर इस प्रकार प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। भाषावैज्ञानिक निय प्राकृत का समय लगभग तीसरी शताब्दी स्वीकार करते हैं। निय प्राकृत को एक दूसरी विशेषता है, ध्वनियों की दृष्टि से उसके व्याकरण की अत्यन्त विकसितता। सम्भवत: इसका यह कारण रहा हो, यह भारत से बाहर व्यवहृत थी; अतः इस पर संस्कृत का प्रभाष नहीं पड़ सका। भारत में प्रचलित प्राकृतों के साथ ऐसा नहीं है । उन पर संस्कृत का प्रभाव पड़ता रहा; अत: इवनियों आदि की दृष्टि से वे निय प्राकृत की तरह सुरक्षित नहीं रह सकीं। निय प्राकत की स्वरूपात्मक विशेषताएं भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से निय प्राकृत का विशेष महत्व है; अतः उसकी स्वरूपात्मक विशेषताए' अध्येतव्य हैं । “प्राकृत-विमर्श" में निय प्राकृत के सम्बन्ध में जो विवेचन किया गया है, उसके अनुसार उसके मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं : निय प्राकृत के अन्तर्गत-य-या, - ये - इ मिलता है। उदा. समादाय > समदि, भावये> भवइ, मूल्य> मूलि, ऐश्वर्य > एश्वरि। मध्य ए>इ का प्रयोग होता है। उदा. मध्य एक जना समादाय > समवि, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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