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________________ माषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३१९ तिलोयपण्णत्तिकार ने गौतम, सुधर्मा और जम्बू के कैवल्यावस्था के समय को धर्मप्रवर्तन-काल शब्द से संशित किया है। इसके अनुसार गौतम के बारह वर्ष', सुधर्मा के बारह वर्ष तथा जम्बू के अड़तीस वर्ष कुल बासठ वर्ष होते हैं । गौतम पट्टधर क्यों नहीं? गौतम भगवान् महावीर के निकटतम अन्तेवासी थे। जीवन भर उनका सान्निध्य पाया। दैनन्दिन चलते रहने वाले उनके प्रश्न और महावीर के उत्तर जेन काङमय की एक अमूल्य थाती बन गये । वे भगवान् महावीर के प्रथम गणधर थे। यह स्वाभाविक था कि देहिक दृष्टि से भगवान के न रहते पर संघ का उत्तरदायित्व उन पर आता। वे उसे सम्भालते । यह सब नहीं हुआ, इसके पीछे क्या तथ्य था ? यह विचारणीय है। श्वेताम्बर-परम्परा : एक समाधान श्वेताम्बर-परम्परा ऐसा विश्वास करती है कि कैवल्य प्राप्त हो जाने के अनन्तर वह श्रमण-केवलज्ञानी संघाधिपति, पट्टधर अथवा आचार्य जैसा कोई भी पद नहीं सम्भालता । इतना अवश्य है, यदि कोई पद पर रहते केवली हो जाए, तो वह पद छोड़ना आवश्यक नहीं होगा। केवली के ज्ञान को अपरिसीमता इतनी बड़ी होतो है कि उसमें कुछ भी ज्ञेय अवशिष्ट नहीं रह जाता। तभी तो वे सर्वज्ञ कहे जाते हैं। सर्वज्ञ को भाषा साक्षात्कृत ज्ञान पर आश्रित होती है। उसमें किसी भो पूर्ववर्ती ज्ञानी का सन्दर्भ, उद्धरण या आधार नहीं रहता । केवली यदि पट्टासीन हो जाए और धर्म-देशना दें तो वे इस भाषा में नहीं बोल सकते कि जैसा उन्होंने तीर्थंकर (धर्म-संघ के संस्थापक; कैवल्य प्राप्त श्रमण ) से सुना है, वैसा वे प्रतिपादित कर रहे हैं। उनकी भाषा यही होती है, जो वे साक्षात् जान रहे हैं, पैसा ही निरूपित कर रहे हैं। इसका परिणाम यह होता है कि तीर्थकर द्वारा जो व्रत प्रसृत हुआ, जिसका स्रोत आगे भो प्रवहमान रहना चाहिए, वह अवरुद्ध हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए श्वेताम्बर-परम्परा को गौतम का संघ-नायकत्व या महावीर के उत्तराधिकारी के रूप में पट्टधरता स्वीकार नहीं है ; क्योंकि ज्यों ही महावीर का निर्वाण हुआ, गौतम को कैवल्य-लाभ हुआ। दिगम्वर-परम्परा को आधार केवली के पट्टधर होने में जिस बाधा की चर्चा की गई है, दिगम्बर-परम्परा में वैसी बाधा नहीं आती। दिगम्बर तीर्थकर को धर्म-देशना की शब्दात्मकता स्वीकार नहीं करते अर्थात् तीर्थकर उपदेश की भाषा में कुछ नहीं बोलते। उनके रोम-रोम से ओंकार की ध्वनि ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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