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मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन निःसत और समवसरण में प्रसृत होती है। वही ओंकार-धनि श्रोतृगण की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। उसी ( भाषात्मक ) रूप में श्रोतृगण उसे ग्रहण करते हैं, समझते हैं। श्री धर्मघोष सिर का कथन
श्वेताम्बर आचार्य श्री धर्मघोष सूरि की एक रचना है सिरिसमाकालमणसंघथयं (श्री दुःषमकालश्रमणसंघस्तवः)। उसकी अवूचरि में वे लिखते हैं : 'श्रो जिन भगवान् महावीर के निर्वाण-गमन की रात्रि में उज्जयिनी में चण्डप्रघोत का मरण होने पर पालक राजा के रूप में अभिषिक्त हुआ। पाटलिपुत्र के राजा उदायी के निष्पुत्र रूप में मरणगत हो जाने पर उसने कोणिक (अजातशत्रु) का पाटलिपुत्र का राज्य भी अधिकृत कर लिया। उसके साठ वर्ष के राज्य-काल में गौतम १२ वर्ष, सुधर्मा ८ वर्ष तथा जम्बू ४४ वर्ष तक युगप्रधान रहे।"
अवरिकार ने जो ६० वर्ष की संख्या दी है, वह गौतम, सुधर्मा तथा जम्बू के युगप्रधान-काल (१२+८+४४-६४) से मेल नहीं खातो। अवचूरिकार ने आगे इसे स्पष्ट कर दिया है। जम्बू का ४४ वर्ष का युगप्रधान-काल जो उन्होंने बतलाया है, उसमें ४० वर्ष' तो पालक के राज्य के हैं और अगले ४ वर्ष नो नन्दों के राज्य के हैं। जम्बू के समग्र काल को कहने के लिए ऐसा किया गया है। आचार्थ धर्म-घोष ने यहां युगप्रधान के रूप में जहां सुधर्मा और जम्बू को लिया है, गौतम को भो लिया है। युगप्रधान शब्द के साथ रहा आशय विशेष रूप से विचारणीय है। युगप्रधान : सातिशायी प्रतिष्ठापन्नता
यद्यपि संघ में निर्धारित आचार्य, उपाध्याय, गणी, प्रवत्तक आदि पदों की तरह युगप्रधान कोई पद नहीं था, पर, इसके साथ जो गरिमा, समादर और उच्चता का भाष देखते हैं, उससे स्पष्ट है कि यह सर्वातिशायी प्रतिष्ठापन्नता का सूचक था।
कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र में स्थविरावलियां (पट्टावलिया) वर्णित हैं। वे परस्पर कुछ भिन्न हैं । इसका कारण यह है कि कल्पसूत्र में दो गयी स्पधिरावली सम्भवतः पट्टानुपट्टक्रम या आचार्यानुक्रम से दो गयो है और नन्दीसूत्र की स्थधिरावली युगप्रधानानुक्रम से। अतएष इन दोनों में जहां-जहां भिन्नता है, उसका कारण नन्दीकार द्वारा कुछ ऐसे महान् प्रमणों १. अवचूरिः ॥८॥ सिरिजिणमिव्वाणगमणरयणिए उज्जोणीए चंडपज्जोममरणे पालो ___ राया अहिसिलो। तेण य अपुरा उदाइमरणे फोगिमरजं पाडलिपुरं पिमटिअं।
तस्स य बरिसं ६० रज्जे-गोयम १२, सुहम्म ८, जम्बू ४ जुगप्पहाणा ।
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