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भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३२१ को लिया जाना है, जो वैधानिक दृष्ट्या आचार्य-पद पर अवस्थित नहीं थे, पर धार्मिक अभ्युदय की दृष्टि से युग प्रवतंक थे-युगप्रधान थे। जो आचर्य भी थे और युगप्रधान भी, ऐसे नाम दोनों पट्टावलियों में सदृश हैं । युगप्रधान की विशेषताएं
नन्दीकार ने युगप्रधान स्थविरावली के समापन पर दो गाथाओं में युगप्रधान की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा है : "जो तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आश्रवे, शांति और मार्दव में अभिरत हैं, जो शील गुण से विधुत हैं, जो सुकुमार और सुकोमल देहसम्पदा के धनी हैं, जो उत्तमोत्तम लक्षणों से तथा प्रवाचनीयता आदि विशेषताओं से युक्त हैं, सैकड़ों श्रमणों द्वारा जो समादृत हैं, मैं उन युगप्रधानों को प्रणमन करता हूं।" युगप्रधान का विरुद कब मिलता ?
जैन परम्पशा में समय-समय पर महान् गौरवास्पद, प्रभावक, तेजस्वी, परमोज्ज्वल ज्ञान एवं चारित्र्य के धनो श्रवण होते रहे हैं, जिनका विराट व्यक्तित्व युग के लिए प्रेरणा का दिव्य स्रोत रहा है। इस प्रकार के महापुरुष युग को एक नया मोड़ देते रहे हैं, जन-जन को सत् की ओर आगे बढ़ते जाने को प्रेरित एवं उद्बोधित करते रहे हैं। ऐसे संयमोत्तर, मनीषिप्रवर मुनियों का स्थान समग्र जैन संघ में बहुत उच्च और पवित्र माना जाता रहा है। संघ के शाखा-प्रशाखात्मक भेद उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान में कभी बाधक नही बने, प्रत्युत् पोषक ही रहे । इस प्रकार के विदाट व्यक्तित्व के धनी और युग को झकझोरने वाले महान् श्रमण 'युगप्रधान' के विरुव से विभूषित किये जाते रहे हैं।
युगप्रधान के साथ संघ के विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों का व्यवस्थात्मक दृष्टि से किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है, इस विषय में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्य उनका आदर करते थे, उनको चा मानते थे। उनका नेतृत्व स्वीकार करते थे। उनका स्थान किसी एक सम्प्रदाय, गण, गच्छ, शाखा आदि में ही नहीं, समग्र जैन संघ-जिसमें साधु, साध्वी, श्रावक एवं धाविका; इस चतुष्टय की समन्विति थी, सर्वोत्कृष्ट था। १. तव-णियम-सच्च-संजम-विणयज्जवखंतिमद्दवरयाणं ।
सोलगुणगहियाणं, अणुओगे जुगप्पहाणाणं । सुकुमालकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे । पए पवायणीणं, पाडित्थगस एहिं पणिवइ एहिं।।
-नन्दोसूत्र, ४८-४९
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