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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:२ ___ युगप्रधान का धिरुद या पद समग्र संघ की ओर से उपयुक्त विशिष्टातिविशिष्ट गुणों के धारक किसी महान् श्रमण को दिया जाता है। युगप्रधान अपने व्यक्तित्व की व्यापकता, गुणों की अप्रतिमता आदि की दृष्टि से सर्वमान्य तो थे, पर, वे भी दैनन्दिन संयम-जीवितव्य के निर्वाह की दृष्टि से किसी एक सम्प्रदाय या शाखा से जुड़े रहते थे, इसलिए समाचायात्मक दृष्टि से उनका सम्बन्ध उस शाखा से रहता।
नम्दीसूत्र की युगप्रधान-परम्परा पर आधृत स्थविरावली से अनुमान होता है कि उत्तरोत्तर युगप्रधान मनोनीत करने की परम्परा सम्भवतः जैन संघ में काफी समय तक चलती रही हो। एक युगप्रधान के दिवंगत हो जाने पर उनके स्थान पर सभी सम्प्रदायों या शाखाओं में से योग्यतम, प्रभावक श्रमण को चतुर्विध संघ युगप्रधान के पद पर अधिष्ठित करता रहा है। यह परम्परा निरवच्छिन्नतया चली हो, निश्चित रूप में पेसा कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है, ऐसा भी कभी रहा हो, उस कोटि का महिमामण्डित, परमोच्च व्यक्तित्व का धनी श्रमण चतुर्विध संघ के सामने न आया हो और कुछ समय तक यह पद खाली रहा हो या इस विरूद से विभूषित व्यक्ति का अभाव रहा हो । धर्मघोष का डल्लेख : ऊहापोह
श्रमण भगवान महावीर के मुक्तिगामी होने के पश्चात् गौतम बारह वर्ष तक जीवित स्छे और सुधर्मा बीस वर्ष तक। जिस दिन मौतम का निर्वाण हुमा, उसी दिन सुधर्मा को कैवल्य-प्राप्ति हुई । सुधर्मा का कैवल्य-काल आठ वर्ष का है।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सुधर्मा का आचार्य-काल बीस वर्ष का है; क्योंकि महावीर का निर्वाण होते ही वे इस पद पर आ गये थे। आचार्य धर्मघोष ने जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार सुधर्मा २० वर्ष तक संघ के आचार्य-पद पर अधिष्ठित रहे तथा आठ वर्ष तक आचार्य और युगप्रधान, दोनों पदों के धारक रहे। सुधर्मा के प्रारम्भ के बारह वर्ष के आचाय काल में युगप्रधान गोतम रहे। इस पर कुछ सूक्ष्मता से विचार करना है।
भगवान महावीर के जीवन-काल में गौतम का आगम-वाङमय में पुनः-पुनः उल्लेख प्राप्त होता है, पर, उसके पश्चात् वैसा नहीं है । गौतम महान् थे, परिसीम प्रज्ञा के धनी थे, पस्मोज्ज्वल चारित्र्य के धारक थे। यह सब कुछ था, पर, युगप्रधान के साथ कुछ जो और होता है, जिसका सम्बन्ध लोकोन्नयन, जन-जागरण, धर्म-प्रभावना और युग-प्रवर्तन से होता है, उनके साथ सम्भवतः न रहा हो अथवा कम रहा हो । हो सकता है, उनका अधिकतम झुकाव आत्म-साधना और स्वरूपोपलब्धि की ओर रहा हो। सहज ही प्रासंगिक रूप में जो लोक-जागरण का कार्य बन पड़ता, पैसा होता रहा हो, उस और विशेष अध्यवसाय न रहा हो; अतः युग-प्रधानोचित विशेषताओं की संलग्नता सुधर्मा के
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