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भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३२३ साथ प्राप्त होती है। भगवान महावीर के अनन्तर उनके द्वारा प्रवाहित श्रुत की धारा को उत्तरोत्तर गतिशील रखते हुए, चतुर्विध संघ को धर्मानुप्राणित करते हुये अध्यात्मोत्कर्ष की दृष्टि से आर्य सुधर्मा ने जो महान् कार्य किये, वे जैन-परम्परा के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे।
भाचार्य धर्मघोष तो स्वयं श्वेताम्बर-परम्परा में आस्थावान् थे, फिर उन्होंने ऐसा उल्लेख कैसे किया, जिसकी श्वेताम्बर मान्यता के साथ संगति नहीं बैठती ? ऐसा सम्भाष्य प्रतीत होता है कि आचार्य धर्मघोष पर भगवान् महावीर की पट्टधर परम्परा के सम्बन्ध में दिगम्बर-माम्यता का प्रभाव पड़ा हो; क्योंकि वे श्वेताम्बर थे; अतः पट्टानुपट्टता के क्रम में तो उनके लिए यह शक्य नहीं था कि वे गौतम का समावेश कर सकें, पर, युगप्रधानों के क्रम में उन्हें ( गौतम को ) जोड़ देने में उन्हें बाधा नहीं थी। हो सकता है, ऐसी ही कुछ स्थिति बनी हो। आर्य सुधा : द्वादशांग
भगवान् महावीर ने जो अब कहे, व्याख्यात किये, सुधर्मा ने द्वादश अंगों के रूप में उनका आकलन किया । वर्तमान जो जितना बच पाया है, प्राप्त है; उन्हीं के अनुग्रह का फल है। द्वादश अंग इस प्रकार हैं : (१) वाचारोग
(७) उपासकदशांग (२) सूत्रकृतांग
(८) अन्तादशांग (३) स्थानांग
(E) अनुत्तरोपपातिक दशा (४, समवायांग
(१०) प्रश्नव्याकरण (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती)
(११) विपाक (६) ज्ञातृधर्मकयांग
(१२) दृष्टिवाद एक अन्य परम्परा
भगवान महावीर के पश्चाद्वर्ती पट्टानुक्रम के विषय में एक और उल्लेख मिलता है, जिसमें पूर्वोक्त परम्परा से कुछ भिन्नता है । पार्श्वनाथ वसति में एक शिलालेख है। उसका लेखन-काल ५२२ शक-संवत् के आस-पास का है। उसका एक अंश निम्नांकिस प्रकार से है :
........... महावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्षिगौतमगणधरसाक्षाच्छिष्यलोहार्यजम्बुविष्णुदेवापराजितगोवर्द्ध नभद्रबाहुविशाखप्रोष्ठिलकृत्तिकायजयनागसिद्धार्थधृतिषेणबुद्धिलादिगुरुपरम्परीण वक्र (क्र) माभ्यागतमहापुरुष सन्ततिसमवद्योतितान्वयमद्रबाहुस्वामिनो उज्यपन्या मष्टांग महानिमित्ततत्वहन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुफ्लम्य कथिते
सर्वसंघ उत्तरापथाद् दक्षिणापथं प्रस्थितः।" Jain Education International 2010_05
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